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उत्तरज्झयणाणि
मर्यादा अर्थात् समभाव को न छोड़े।
वह अच्छे स्थान को प्राप्त कर यह न सोचे कि मैं कितना सौभाग्यशाली हूं कि मुझे सभी ऋतुओं में सुखदायी यह स्थान प्राप्त हुआ है। बुरे स्थान को प्राप्त कर वह न सोचे कि मैं कितना मंदभाग्य हूं कि मुझे शीत आदि से बचाने वाला स्थान भी प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार मुनि हर्ष और विषाद से ग्रस्त न हो ।'
४८ अध्ययन २ श्लोक २३-२४ टि० ३८-४३
संसार से विरक्त होकर सोमभूति अनगार के पास दीक्षित हो गए। दोनों ने ज्ञानार्जन के लिए श्रम किया और कुछ ही समय में वे बहुश्रुत हो गए। एक बार वे एक पल्ली में आए। वहां के लोग मदिरापान करते थे। उन्होंने अन्य पेय द्रव्य में मदिरा का मिश्रण कर मुनिद्वय को दिया। मुनि इससे अजान थे। उन्होंने उस पेय को पीया और कुछ ही समय पश्चात् वे उन्मत्त हो गए। उन्होंने सोचा- हमने अच्छा नहीं किया। हमारे से प्रमाद हुआ है। अच्छा है, हम अनशन कर लें। वे दोनों पास ही एक नदी पर गए और वहां पड़े हुए दो काष्ठफलकों पर पादपोपगमन अनशन कर लेट गए । दो-चार दिन बीते । अकाल में वर्षा हुई और नदी में बाढ़ आ गई। उस बाढ़ में दोनों भाई बह गए। समुद्र में जा गिरे। लहरों की तीव्र चपेटों से वे हत- विहत हुए । जलचर जीवों ने उन्हें काटा। दोनों भाई पीड़ा को समता से सहकर पंडित मरण को प्राप्त हुए।"
४२. प्रति क्रोध ( पडिसनले )
आयारचूला में 'स्थान या शय्याविधि' का निर्देश देते हुए सूत्रकार कहते हैं— मुनि को कभी सम स्थान और कभी विषम स्थान, कभी वायु वाला और कभी वायु शून्य, कभी गंदा और कभी साफ-सुथरा, कभी दंश-मशकों से परिव्याप्त और कभी उनसे रहित, कभी खण्डर और कभी पूरा, कभी बाधाओं से व्याप्त और कभी निर्बाध स्थान मिलता है। मुनि इनमें समभाव रखे, राग-द्वेष न लाए।
३९. प्रतिरिक्त (एकांत) उपाश्रय को (पइरिक्कुवस्वयं) 'पइरिक्क' देशी शब्द है। इसके एकांत, शून्य, विशाल आदि अनेक अर्थ हैं। संस्कृत में भी 'प्रतिरिक्त' शब्द इन अर्थों में प्रयुक्त है । चूर्णिकार ने इसके अनेक अर्थ किए हैं—पुण्य – सुन्दर अथवा पूर्ण, अव्याबाध, नव-नर्मापित, ऋतुक्षम सभी ऋतुओं में सुखप्रद; जो अभी तक कार्पटिक आदि भिक्षुओं से उपभुक्त न हो वैसा स्थान । *
बृहद्वृत्ति में इसके दो अर्थ प्राप्त है—
(१) स्त्री आदि से विरहित होने के कारण एकान्त । (२) अव्याबाध ।
४०. एक रात में क्या होना जाना है (किमेरायं करिस्सइ) यह एक रात्री का प्रयोग विशेष साधनारत मुनियों के लिए है। एकलविहार की प्रतिमा अथवा अन्य प्रतिमाओं को धारण कर विचरण करने वाले मुनि गांव में एक रात और नगर में पांच रात रह सकते हैं। स्थविरकल्पी मुनि नवकोटि विहार से विचरण करते हैं। इसलिए उनके लिए यह नियम नहीं है ।
४१. शय्या वसति परीषह
कोशाम्बी नगरी के विश्रुत विप्र यज्ञदत्त के दो पुत्र थे। उनका नाम था- सोमदत्त और सोमदेव । वे वेदों के पारंगत विद्वान् हो गए । अकस्मात् कोई निमित्त मिला और वे दोनों
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ११० ।
२.
आयारचूला, ८/३०।
देखें - देशी शब्दकोश ।
३.
४.
उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ : पयरेको णाम पुण्णो, अव्वाबाहो असु (ब्भु) ण्णवो वा ण किंचिं वि तत्थ ठविया जं निमित्तं तत्थागमिस्संति, अयं ऋतुखमितो, ण कप्पडियादीहिं य उवभुज्जति ।
५. बृहद्वृत्ति, पत्र ११० : पइरिक्कं स्त्र्यादिविरहितत्वेन विविक्तं, अव्याबाधं वा ।
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'पंडिसंजले' का तात्पर्यार्थ है- कोई क्रोध से वशीभूत होकर गाली देता है, क्रोध से जलता है तो भी मुनि प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर उसके प्रति क्रोध न करे, क्रोधाग्नि में न जले। आंखों को लाल-पीला कर, सारे शरीर में दाह उत्पन्न कर, गाली का जवाब प्रचंड गाली से देना, अग्नि की भांति संज्वलित होना है। मुनि उसके प्रति भी संज्वलन क्रोधअत्यधिक हलका क्रोध भी न करे, शांत रहे।
आचार्य नेमिचन्द्र ने यहां एक सुन्दर श्लोक प्रस्तुत किया
आकुष्टेन मतिमता, तत्त्वार्यालोचने मतिः कार्या यदि सत्यं कः कोप, स्यादनृतं किं नु कोपेन ? ।। ( सरिसो होइ बालाणं)
इस चरण का तात्पर्य यह है कि जो मुनि गाली का उत्तर गाली से देता है वह उस अज्ञानी के समान ही हो जाता है। यहां एक बड़ा सुन्दर उदाहरण है
४३.
'एक क्षपक मुनि था। देवता उसकी सेवा करता था । क्षपक जो कुछ कहता, देवता उसका पालन करता था। एक बार मुनि का एक नीच जाति वाले व्यक्ति से झगड़ा हो गया। वह हृष्ट-पुष्ट था। उसने मुनि को पछाड़ दिया। रात को देव वन्दना करने आया। मुनि मौन रहे । देव बोला- 'क्या कोई मेरा
६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ : सो हि एगल्लविहारी गाये एग रातीए नगरे पंचरातीए ।
७.
८.
६.
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ११० १११ प्रतिमाकल्पिकापेक्षं चैकरात्रमिति, स्थवरकल्पिकापेक्षया तु कतिपया रात्रयः ।
सुखबोधा, पत्र ३५ ।
बृहद्वृत्ति, पत्र ११-११२ ।
सुखबोधा, पत्र ३४ ।
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