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परीषह-प्रविभक्ति
५७ अध्ययन २ : श्लोक ४२-४३ टि० ७४-७७
होता यह वह काल है जिसमें कर्म सुषुप्त रहते हैं, फल नहीं विरति, अदत्तादान विरति, मैथुन विरति और अपरिग्रह विरति। देते। जब वह काल पूर्ण होता है तब वे उदय में आते हैं, चाहे प्रस्तुत श्लोक में मैथुन विरति का ही उल्लेख है। सभी उनका विपाकोदय हो या प्रदेशोदय हो। यहां ‘पच्छा' (सं. विरतियों में मैथुन विरति सबसे कठिन है, बड़ी है, इसलिए पश्चात्) शब्द से अबाधाकाल गृहीत है।'
- इसका मुख्य रूप से उल्लेख हुआ है। उइज्जन्ति यहां भविष्यत् काल का व्यत्यय मानकर बृहद्वृत्तिकार मानते हैं कि पुरुष में अब्रह्म के प्रति अति बृहद्वृत्तिकार ने इसका रूप 'उदेष्यन्ति' दिया है। हमने 'उदीर्यन्ते' आसक्ति होती है और उसके लिए इसका त्याग अत्यन्त कठिन के आधार पर अर्थ किया है।
होता है, इसलिए इसका यहां ग्रहण किया गया है।' ७४. प्रज्ञा परीषह
आचार्य नेमिचन्द्र ने इन्हीं कारणों का निर्देश देते हुए एक सुवर्णभूमि में आर्य सागर अपनी शिष्य मंडली के साथ सुन्दर गाथा प्रस्तुत की हैसुखपूर्वक रह रहे थे। उनके दादागुरु आचार्य कालक उज्जैनी में 'अक्खाणऽसणी कम्माण मोहणी तह वयाण बंभं च। थे। एक बार उन्होंने सोचा, ओह! मेरे सारे शिष्य मंद श्रद्धा वाले गुत्तीण य मणगुत्ती, चउरो दुक्खेण जिप्पति।। हो गए हैं। वे न सूत्र पढ़ते हैं और न अर्थ का अनुचिन्तन चार पर विजय पाना अत्यन्त कठिन होता हैकरते हैं। वे सभी साध्वाचार में भी शिथिल हो रहे हैं। मैं मृदुता १. इन्द्रियों में जिहा इन्द्रिय पर। से उनको इस ओर खींचता हूं, पर वे मेरी इस प्रेरणा को २. कर्मों में मोहनीय व्रत पर। सम्यक् नहीं लेते। उनकी बार-बार सारणा-वारणा से मेरे सूत्रार्थ ३. व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत पर। की हानि होती है और कभी-कभी रोषवश कर्मबन्ध भी होता है। ४. गुप्तियों में मनोगुप्ति पर।
न कर वे रातोरात वहां से अकेले ही सुवर्णभूमी की ७६. (जो सक्खं....धम्म कल्लाण पावगं) ओर चल पड़े। आर्य सागर ने उन्हें नहीं पहचाना। वे उनके अज्ञान से आवृत साधक सोचता है कि मैं साक्षात् या गण में सम्मिलित हो गए। आर्य सागर अनुयोग की वाचना देने स्पष्ट रूप से नहीं जानता कि धर्म कल्याणकारी है या पापकारी? लगे। उन्होंने उस वृद्ध मुनि से पूछा---'कुछ ज्ञात हो रहा है?' चूर्णिकार ने इन दो पदों के तीन अर्थ किए हैं। साधक उसने कहा हां। आर्य सागर का मन प्रफुल्ल हो गया। प्रज्ञा का सोचता है-मैं साक्षात् नहीं जानता की अहं जाग उठा। कुछ दिन बीते।
१. कल्याणकारी धर्म कौन सा है और पापकारी धर्म कौन उज्जैनी से आर्य कालक के सभी शिष्य उनकी टोह में सा है? निकले। वे सुवर्णभूमी में आए। आर्य सागर से पूछा-क्या यहां २. कौन से कर्म कल्याणकारी हैं और कौन से कर्म आर्य कालक आए थे? उन्होंने कहा-एक वृद्ध अवश्य आया पापकारी? था। मैं आर्य कालक को नहीं पहचानता। वे शिष्य आर्य कालक ३. ऐसे कौन से कर्म हैं, जिनका फल कल्याणकारी होता को पहचान गए। आर्य सागर ने अपने दादागुरु के प्रति हुई है और ऐसे कौन से कर्म हैं, जिनका फल पापकारी होता है? आशातना के लिए क्षमा याचना की और पूछा-क्षमाश्रमण! मेरी बृहद्वृत्ति में दो विकल्प प्रस्तुत हैं- . व्याख्या पद्धति कैसी है? आर्या कालक बोले व्याख्या शैली १. शुभ धर्म कौन सा है और अशुभ धर्म कौन सा है? सुन्दर है, पर कभी गर्व मत करना। एक-एक से बड़े ज्ञानी २. मुक्ति का हेतुभूत धर्म कौन सा है और नरक आदि संसार में हैं। 'मैं ही ज्ञानी हूं' ऐसा मानना मूर्खता का द्योतक का हेतुभूत धर्म कौन सा है? है। ज्ञान के क्षयोपशम का तरतम होता है, इसे मत भूलना। प्रस्तुत चरण में प्रयुक्त 'सक्खं' का अर्थ है-साक्षात्।
आर्य सागर समझ गए। उन्होंने सोचा, अरे! मैंने ज्ञान यही शब्द १२ ॥३७ में इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। चूर्णिकार ने का गर्व कर बहुत कुछ खो डाला। प्रज्ञा का गर्व नहीं करना, यह 'समक्खं' पाठ मानकर उसका अर्थ साक्षात् किया है। है प्रज्ञा के परीषह को सहना।
७७. तपस्या और उपधान को (तवोवहाण.....) ७५. निवृत्त हुआ (विरओ)
विरति के पांच प्रकार हैं-प्राणातिपात विरति, मृषावाद तप और उपधान--ये दो शब्द हैं। तप का अर्थ है-भद्र,
१. बृहद्वृत्ति, पत्र १२६ : यदि पूर्व कृतानि कर्माणि किं न तदैव वेदितानि?
उच्यते....पश्चाद्-अबाधोत्तरकालं, उदीर्यन्ते-विपच्यन्ते कर्माण्यज्ञान- फलानि कृतानि अलर्कमूषिकविषविकारवद् तथाविधद्रव्यसाचिव्यादेव तेषां
विपाकदानात्। २. वही, पत्र १२७। ३. सुखबोध, पत्र ५१। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८४।
५. बृहद्वृत्ति, पत्र १२८ । ६. सुखबोधा, पत्र ५१। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८४ । ८. बृहवृत्ति, पत्र १२८ । ६. वही, पत्र १२८ : सक्खं साक्षात् । १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८४ : समक्खं णाम सहसाक्षिभ्या साक्षात् समक्ष
तो साक्षात्।
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