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तइयं अज्झयणं : तीसरा अध्ययन
चाउरंगिज्जं : चतुरंगीय
मूल
हिन्दी अनुवाद इस संसार में प्राणियों के लिए चार परम अंग दुर्लभ हैं'-मनुष्यत्व', श्रुति', श्रद्धा और संयम में पराक्रम।
१. चत्तारि परमंगाणि
दुल्लहाणीह जंतुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा
संजमम्मि य वीरियं ।। २. समावन्नाण संसारे
नाणागोत्तासु जाइस। कम्मा नाणविहा कट्टु
पुढो विस्संभिया पया।। ३. एगया देवलोएसु
नरएसु वि एगया। एगया आसुरं कायं
आहाकम्मेहिं गच्छई।। ४. एगया खत्तिओ होइ
तओ चंडाल बोक्कसो। तओ कीड पयंगो य
तओ कुंथु पीविलिया।। ५. एवमावट्टजोणीसु
पाणिणो कम्मकिब्बिसा। न निविज्जति संसारे सव्वट्ठेसु व खत्तिया।।
संस्कृत छाया चत्वारि परमाङ्गानि दुर्लभानीह जन्तोः। मानुषत्वं श्रुतिः श्रद्धा संयमे च वीर्यम्।। समापन्नाः संसारे नानागोत्रासु जातिषु। कर्माणि नानाविधानि कृत्वा पृथग् विश्वभृतः प्रजाः।। एकदा देवलोकेषु नरकेष्यप्येकदा। एकदा आसुरं कायं यथाकर्मभिर्गच्छति।। एकदा क्षत्रियो भवति ततश्चण्डालो 'बोक्कसः'। ततः कीट: पतङ्गश्च ततः कुंथुः पिपीलिका।। एवमावर्तयोनिषु प्राणिनः कर्मकिल्विषाः। न निर्विन्दन्ते संसारे सर्वार्थष्विव क्षत्रियाः।।
संसारी जीव विविध प्रकार के कर्मों का अर्जन कर विविथ गोत्र वाली जातियों में उत्पन्न हो, पृथक्-पृथक् रूप से समूचे विश्व का स्पर्श कर लेते हैं -सब जगह उत्पन्न हो जाते हैं। जीव अपने कृत कर्मों के अनुसार कभी देवलोक में कभी नरक में और कभी असुरों के निकाय में उत्पन्न होता है।
वही जीव कभी क्षत्रिय होता है, कभी चाण्डाल, कभी बोक्कस', कभी कीट, कभी पतंगा, कभी कुंथु और कभी चींटी।
जिस प्रकार क्षत्रिय किसी भी अर्थ (प्रयोजन) के उपस्थित होने पर हार नहीं मानते , उसी प्रकार कर्म-किल्विष (कर्म से कलुषित) जीव योनिचक्र में" भ्रमण करते हुए भी संसार में निर्वेद नहीं पाते-उससे मुक्त होने की इच्छा नहीं करते। जो जीव कर्मों के संग से सम्मूढ, दुःखित और अत्यन्त वेदना वाले हैं, वे अपने कृत कर्मों के द्वारा मनुष्येतर (नरक-तिर्यंच) योनियों में ढकेले जाते हैं।
६. कम्मसंगेहिं सम्मूढा
दुक्खिया बहुवेयणा। अमाणुसासु जोणीसु विणिहम्मति पाणिणो ।। ७. कम्माणं तु पहाणाए
आणुपुव्वी कयाइ उ। जीवा सोहिमणुप्पत्ता
आययंति मणुस्सयं ।। ८. माणुस्सं विग्गहं लद्धं
सुई धम्मस्स दुल्लहा। जं सोच्चा पडिवज्जंति तवं खंतिमहिंसयं ।।
कर्मसङ्गः सम्मूढाः दुःखिता बहुवेदनाः। अमानुषीषु योनिषु विनिहन्यन्ते प्राणिनः।। कर्मणां तु प्रहाण्या आनुपूर्व्या कदाचित् तु। जीवाः शोधिमनुप्राप्ताः आददते मनुष्यताम्।। मानुष्यकं विग्रहं लब्वा श्रुतिधर्मस्य दुर्लभा। यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते तपः क्षान्तिमहिंम्रताम् ।।
काल-क्रम के अनुसार कदाचित् मनुष्य-गति को रोकने वाले कमों का नाश हो जाता है। उस शुद्धि को पाकर जीव मनुष्यत्व को प्राप्त होते हैं।२
मनुष्य-शरीर प्राप्त होने पर भी उस धर्म की श्रुति दुर्लभ है जिसे सुनकर जीव तप, सहिष्णुता और अहिंसा को स्वीकार करते हैं।
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