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परीषह-प्रविभक्ति
५९ अध्ययन २: श्लोक ४४,४५ टि० ८१,८२
अध्ययन का एक भी श्लोक नहीं सीख पाया। वह आचार्य के पादरजसा प्रशमनं सर्वरुजां साधवः क्षणात्कुयुः। पास गया। आचार्य ने कहा-----जब तक यह अध्ययन न सीख त्रिभुवनविस्मयजननान् दधुः कामांस्तृणाग्राद्वा।। लो, तब तक आचाम्ल तप करते रहो। इसे शिरोधार्य कर वह धर्माद्रत्नोन्मिश्रितकाञ्चनवर्षादिसर्गसामर्थ्यम् । आयंबिल तप करने लगा। बारह वर्ष तक यह क्रम चला। इस अद्भुतभीमोरुशिलासहस्र सम्पातशक्तिश्च।। अवधि में उसने केवल 'असंखयं-यह अध्ययन मात्र सीखा। ८२. (श्लोक ४४-४५) ज्ञानावरण कर्म क्षीण हुआ और फिर उसने शीघ्र ही अन्यान्य
प्रस्तुत दो श्लोक दर्शन परीषह से संबंधित हैं। प्रत्येक आगम सीख लिए।
साधक किसी न किसी विचारधारा को आत्मसात् कर साधना में अज्ञान के अभावपक्ष की दृष्टि से वृत्तिकार ने लिखा है कि प्रवृत्त होता है। उस दार्शनिक धारा के प्रति उसका विश्वास साधक निरन्तर यह सोचे, यद्यपि मैं समस्त शास्त्रों का पारायण अखण्ड होना चाहिए। अन्यथा वह पार नहीं पहुंच सकता, बीच कर सभी तथ्यों को कसौटी पर कस चुका हूं, किन्तु मुझे ज्ञान में ही भटक जाता है। का गर्व नहीं करना है। क्योंकि
जैन दर्शन की कुछेक मुख्य प्रतिपत्तियां ये हैं'पूर्वपुरुषसिंहानां विज्ञानातिशयसागरानन्त्यम् ।
(१) परलोक-जन्मान्तर है। श्रुत्वा साम्प्रतपुरुषाः, कथं स्वबुद्ध्या मदं यान्ति।'
(२) तपस्या का मुख्य फल है—कमों की क्षीणता और -मेरे से पूर्व अनेक बहुश्रुत मुनि हो चुके हैं। उनका अवान्तर फल है--अनेक ऋद्धियों की उपलब्धि । विज्ञान सागर की भांति अथाह था। उनके समक्ष मैं बिन्दुमात्र हूं। (३) केवली हुए हैं और होंगे। मैं किस आधार पर अहं करूं?
प्रस्तुत दो श्लोकों में तीन प्रतिपत्तियों का उल्लेख हुआ है। वृत्तिकार ने एक कथानक भी प्रस्तुत किया है
जिस साधक में इनके प्रति अविश्वास होने लगता है, वह अपनी आचार्य स्थूलभद्र ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए एक नगर साधना को आगे नहीं बढ़ा सकता। में आए। वे बहुश्रुत और अनेक विद्याओं के पारगामी थे। उस
नक विद्याआ क पारगामी थे। उस जब उसका मन संशय से भर जाता है कि परलोक को नगर में उनका एक पूर्व परिचित मित्र रहता था। वे उसके घर किसने देखा है? उसका अस्तित्व कैसे जाना जाए? तब उसे गए और गृहपत्नी से पूछा-अमुक व्यक्ति कहां है? उसने सारी क्रियाएं निरर्थक, कष्ट सहन व्यर्थ लगने लगता है। वह कहा—'महाराज! वे व्यापार के लिए परदेश गए हैं।' आचार्य ने अपनी कठोर चर्या से फिसल जाता है। इधर-उधर देखा। उन्हें लगा कि जो घर पहले वैभव से परिपूर्ण साधक तपस्या करता है और जानता है कि उसे ऋद्धियां
और साफ-सुथरा था, वह आज खंडहर जैसा हो रहा है। योगज विशेषता प्राप्त होंगी, पर जब ऋद्धि-प्राप्ति में विलम्ब होता उन्होंने अपने ज्ञानबल से जान लिया कि इस व्यक्ति के पूर्वजों है, तब वह तपस्या से मुंह मोड़ लेता है। उसकी धृति डोल जाती ने घर के अमुक खंभे के नीचे धन गाड़ रखा था। वह आज भी है। ज्यों का त्यों पड़ा है। उनका मन पसीज गया। उन्होंने गृहपत्नी दो तपस्वी तपस्या कर रहे थे। नारदजी उधर से निकले। को खंभे की ओर अंगुली करते हुए सांकेतिक भाषा में कुछ एक ने पूछा-ऋषिवर! कहां जा रहे हैं? नारद ने कहाकहा। उसने समझा कि महाराज मुझे अनित्यता का उपदेश दे भगवान के पास। तपस्वी ने कहा-मेरा एक काम करें। रहे हैं। आचार्य वहां से चले गए। कुछ समय पश्चात् गृहपति भगवान से पूछे कि मेरी मुक्ति कब होगी? नारद आगे बढ़े। घर आया। उसकी पत्नी ने आचार्य के आगमन की बात के साथ दसरे तपस्वी ने भी यह बात कही। नारदजी लौटते समय उसी ही साथ सांकेतिक भाषा में जो कहा, वह सुनाया। गृहपति ने रास्ते से गजरे और पहले तपस्वी से कहा-भगवान् ने कहा ह सारा संदर्भ जान लिया। खंभे के नीचे से उत्खनन किया, अपार कि तम्हारी मक्ति तीन जन्मों के बाद हो जाएगी। तपस्वी ने यह धन मिला।
सुना। मन में उथल-पुथल हुई। सोचा, अरे क्या? मैं साठ हजार ८१. ऋद्धि (इड्ढी )
वर्षों से तप तप रहा हूं, फिर भी मुझे तीन जन्म और लेने यहां ऋद्धि का अर्थ है-तपस्या आदि से उत्पन्न होने पड़ेंगे? यह कैसा न्याय? उसने उसी समय तपस्या को तिलांजलि वाली विशेष शक्ति-योगज विभूति।' पातंजलयोग दर्शन के देकर गांव की ओर प्रस्थान कर दिया। विभूति-पाद में जैसे योगज विभूतियों का वर्णन है वैसे ही नारदजी दूसरे तपस्वी के पास पहुंचे और बोले
जैन-आगमों में तपोजनित ऋद्धियों का वर्णन मिलता है।' ऋषिवर! भगवान् ने कहा है कि तुम्हारी मुक्ति होगी अवश्य शान्त्याचार्य ने इस प्रसंग पर दो श्लोक उद्धृत किए हैं.--- ही, किन्तु जिस वृक्ष के नीचे तुम तपस्या कर रहे हो, उस वृक्ष
१. बृहद्वृत्ति, पत्र १२६-१३०। २. वही, पत्र १२६ । ३. वही, पत्र १३०-१३१।
४. वही, पत्र १३१ : 'ऋद्धिर्वा, तपोमाहात्म्यरूपा....सा च आमशीपध्यादिः । ५. ओववाइय, सूत्र १५ । ६. बृहवृत्ति, पत्र १३१।
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