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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २ : श्लोक ४५ टि० ८२
वह कुपिडातकारिण। यक्षिा तिला कहा
उन्होंने देखा कि मार्ग के एक ओर एक गर्भवती साध्वी मेरा सौभाग्य है कि यहां जंगल में आपके दर्शन हुए। कृपा कर साज-शृंगार किए बैठी है। आषाढ़ आचार्य ने कहा
आप मेरे हाथ से प्रासुक दान ग्रहण करें। आचार्य ने कहाकडए ते कुंडले य ते, अंजियक्खि ! तिलयते य ते। आज उपवास है। मैं कुछ भी नहीं ले सकता। इतने में ही एक पवयणस्स उड्डाहकारिए! दुट्ठा सेहि! कतोसी आगया।। व्यक्ति ने आचार्य के हाथ से बलात् झोली ली और उसमें मोदक
देने लगा। झोली में आभरण देख, रुष्ट होकर बोला-अनार्य! राईसरिसवमेत्ताणि परच्छिड्डाणि पेच्छसे।
ये क्या हैं? मेरे पुत्रों के ये आभरण हैं। बता वे कहां हैं? क्या अप्पणो बिल्लमेत्ताणि, पिच्छन्तो वि न पेच्छसे।। तूने उनको मार डाला? आचार्य भय से कांपने लगे।
आप दूसरों के राई जितने छिद्र देख लेते हैं और अपने देवता ने अपनी लीला समेटी और प्रत्यक्षरूप से आकर बड़े दोषों को देखते हुए भी नहीं देखते।
हाथ जोड़कर बोला-हाय! आप जैसे आगमधरों के लिए ऐसा आप श्रमण हैं, संयत हैं, ब्रह्मचारी हैं, कंचन और पत्थर सोचना उचित नहीं है कि 'परलोक नहीं है। आप जानते हैं कि को समान समझते हैं, आपका वैराग्य प्रखर है, आपका वेश देवलोक के अपार सुख हैं। उस सुख का उपभोग करते हुए मूलरूप में है। आर्य! कृपाकर बताएं आपके पात्र में क्या है। देवता नहीं जान पाते कि कितना काल बीता है। मैं इसीलिए समणो सि य संजओ य सि, बंभयारी समलेठुकंचणो। समय पर आपके समक्ष नहीं आ सका। वेहारियवायओ य ते, जेट्ठज्ज! किं ते पडिग्गहे।।
आचार्य आषाढ़ की विवेक चेतना जागी। वे अपनी भूल आचार्य बिना कुछ कहे, अत्यन्त लज्जित होकर आगे बढ़ पर पश्चात्ताप करने लगे। वे अपने मूल स्थान पर आए और गए। देव हाथी की विकुर्वणा कर हाथी पर चढ़ कर आचार्य के आलोचना, प्रतिक्रमण कर वैराग्य की वृद्धि करते हुए विहरण सम्मुख आया। हाथी से उतर कर वन्दना की और कहा-भंते! करने लगे।'
१.
(क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८७-६०। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १३३-१३६। (ग) सुखबोधा, पत्र ५२-५५।
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