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परीषह-प्रविभक्ति
५५ अध्ययन २ : श्लोक ३६-३६ टि० ६५-७०
६५. वस्त्र का (तंतुजं)
'सात का आश्रय लेकर' किया है। अतः इसमें चतुर्थी विभक्ति व्याख्या ग्रंथों में इसका अर्थ तंतुओं से बना हआ वस्त्र या का अर्थ निहित है। कंबल किया है।' उन्होंने इसी अर्थ में पाठान्तर के रूप में ६९. (श्लोक ३८) 'तंतयं' (सं. तन्त्रज) पाठ दिया है।
प्रस्तुत श्लोक 'सत्कार-पुरस्कार' से संबंधित है। चूर्णिकार चूर्णि और वृत्ति—दोनों में इसे जिनकल्पिक मुनियों की ने इस श्लोक की व्याख्या में इसका अर्थ इस प्रकार किया हैअपेक्षा से माना है।
सत्कार का अर्थ है-अच्छा करना तथा सत्कार को ही पुरः६६. मैल, रज (पंकेण वा रएण वा)
आगे रखना सत्कार-पुरस्कार है। पसीने के कारण शरीर पर जमा हुआ गीला मेल 'पंक' बृहद्वृत्तिकार ने इसी अध्ययन के तीसरे सूत्र में उल्लिखित कहलाता है और वही जब सूख कर गाढ़ा हो जाता है तब उसे 'सत्कार-पुरस्कार परीषह, की व्याख्या में कहा है-अतिथि की 'रज' कहते हैं।
वस्त्रदान आदि से पूजा करना सत्कार का अभ्युत्थान करना, शरीर पर लगे हुए धूलीकण 'रज' कहलाते हैं।' आसन देना आदि को पुरस्कार माना है। इसका वैकल्पिक अर्थ
'पंक' और 'रज' को एक शब्द में 'जल्ल' भी कहा गया है—अभ्युत्थान, अभिवादन आदि सारी क्रियाएं सत्कार हैं और है।
इनके द्वारा किसी की अगवानी करना पुरस्कार है।" राजवार्तिक ६७. परिताप से (परितावेण)
में सत्कार का अर्थ-पूजा, प्रशंसा और पुरस्कार का अर्थजो चारों ओर से परितप्त करता है, वह है परिताप । जब किसी भी प्रवृत्ति के प्रारंभ में व्यक्ति को आगे रखना, मुखिया शरीर परितप्त होता है, तब पसीना आता है और सारा शरीर
बनाना अथवा आमंत्रित करना किया है। उससे लथपथ हो जाता है। मेल और रज शरीर पर जमते हैं. ७०. (अणुक्कसाई अप्पिच्छे अन्नाएसी) पसीने के कारण वे कठोर बन जाते हैं और तब खिंचाव होता अणुक्कसाई-चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'अल्प कषाय है, शरीर में पीड़ा होने लगती है।
वाला' किया है। शान्त्याचार्य ने इसका मुख्य अर्थ 'अनुत्कशायी६८. सुख के लिए विलाप न करे (सायं नो परिदेवए)
सत्कार आदि के लिए उत्कण्ठित न रहने वाला' किया है और मुनि आतप के कारण शरीर पर जमने वाले मेल से
वैकल्पिक अर्थ-'अणु-कषायी-सत्कार आदि न करने वालों पीड़ित होकर ऐसा विलाप न करे कि मेल से लथपथ मेरे शरीर पर क्राथ नहा करने वाला' तथा 'सत्कार हान पर आभमान में कब सुख का अनुभव होगा? अच्छा होता कि मैं आज किसी नहा करन वा
नहीं करने वाला' किया है। नेमिचन्द्र भी इसी का अनुसरण नदी या जलाशय के किनारे होता, किसी पर्वत शिखर पर रहता
करते हैं।" या चन्दन, खसखस आदि वृक्षों के पास रहता और शीतल वायु
१५।१६ की टीका में शान्त्याचार्य ने इसके दो संस्कृत रूप का सेवन करता।
दिए हैं। वहां 'अनुत्कशायी' के स्थान पर 'अनुत्कषायी' माना यहां 'सायं' में द्वितीया विभक्ति है। चूर्णिकार ने इसका है। (१) अणुकषायी-अल्प कषाय वाला। (२) अनुत्कषायीअर्थ 'साता को न बुलाए' किया है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ जिसके कषाय प्रबल न हों। ६ १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७६ : तंदुभ्यो जातं तन्तुजं तनुवस्त्रं १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८१ : करणं कारः, शोभनकारः सक्कारः, कंबलो वा।
सक्कारमेव पुरस्करोति सक्कारपुरस्कारपरीसहे भवति। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १२२ ।
११. बृहवृत्ति, पत्र ८३ : सत्कारो-वस्त्रादिभिः पूजनं, पुरस्कारः२. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७६ : तन्यते इति तन्त्र-वेमविलेखनंछनिकादि अभ्युत्थानासनादिसम्पादनं, यद् वा सकलैवाभ्युत्थानावादनदानादिरूपा तत्र जातं तंत्रज, तनुवस्त्रं कंवलो वा।
प्रतिपत्तिरिह सत्कारस्तेन पुरस्करणं सत्कारपुरस्कारः। (ख) बृहदृत्ति, पत्र १२२।
१२. तत्त्वार्थराजवार्तिक, ६६, पृ. ६१२ : सत्कारः पूजाप्रशंसात्मकः । पुरस्कारो ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७६ : जिणकप्पिया जे अचेला।
नाम क्रियारम्भादिष्वग्रतः करणमामन्त्रणं वा। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १२२ : जिनकल्पिकापेक्षं चैतत् ।
१३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८१ : 'अणुक्कसायो' अणुशब्द स्तोकार्थः, अतो ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७६-८० : पंको नाम स्वेदाबद्धो मलः, रजस्तु नेत्यनु, कषयंतीति कषायाः क्रोधाद्याः। कमठीभूतो जल्लो शुष्कमात्रस्तु रजः।
१४. बृहद्वृत्ति, पत्र १२४ : उत्कण्ठितः सत्कारादिषु शेत इत्येवं शील ५. बृहद्वृत्ति, पत्र १२३ : पांशुना वा।
उत्कशायी न तथा अनुत्कशायी, यद्वा प्राकृतत्वादणुकषायी 'सर्वधनादित्वादि' ६. वही, पत्र १२३ : जल्लं कठिनतापन्नं मलम्, उपलक्षणत्वात् पंकरजसी नि, कोऽर्थः?--न सत्कारादिकमकुर्वते कुप्यति, तत्सम्पत्ती वा नाहकारवान् च।
भवति। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८०: परिदेवनं नाम सातमाह्वति, जहा जलाश्रयाः १५. सुखबोधा, पत्र ४६।
होन्ति नगो वेति, तहा चन्दनोसीरोरक्षीपवायवः, एवं परिदेवति। १६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४२० : अणवः-स्वल्पाः सज्वलभनामान इति यावत् ८. वही, पृ. ८०॥
कषायाः-क्रोधादयो यस्येति 'सर्वधनादित्वादि' नि प्रत्ययेऽणुकषायी, बृहद्वृत्ति, पत्र १२३ : सातं सुखम्, आश्रित्येति शेषः, नो परिदेवेत् न प्राकृतत्वात्सूत्रे ककारस्य द्वित्वं, यद्वा उत्कषायी-प्रबलकषायी न प्रलपेत्-कथं कदा वा ममैवं मलदिग्धदेहस्य सुखानुभवः स्यात्?
तथाऽनुत्कषायी।
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