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उत्तरज्झयणाणि
५४ अध्ययन २ : श्लोक ३३-३५ टि० ६१-६४
२. मथुरा का कालवेशिक राजकुमार स्थविर आचार्य के ५. मैं नीतिपूर्वक गण की सार-संभाल करूंगा। पास प्रवजित हो गया। आगमों का अध्ययन कर वह एकल-विहार श्रीमज्जयाचार्य के अनुसार स्थविरकल्पी सावध चिकित्सा प्रतिमा को स्वीकार कर मुद्गशैलपुर आया। वह बवासीर के रोग न करे और जिनकल्पी निरवद्य चिकित्सा भी न करे। से ग्रस्त था। अर्श गुदा के बाहर लटक रहे थे। अपार पीड़ा। पर . चूर्णिकार ने जिनकल्पी और स्थिविर-कल्पी का उल्लेख वह चिकित्सा को सावध मानकर उस रोग का प्रतिकार नहीं कर नहीं किया है। उन्होंने सामान्यतः बताया है कि मुनि न तो स्वयं रहा था। एक बहिन ने मुनि की अवस्था से द्रवित होकर एक चिकित्सा करे और न वैद्यों के द्वारा कराए। श्रामण्य का पालन वैद्य से पूछा। वैद्य बोला-बहिन! मैं कुछ औषधि दूंगा। तुम नीरोग अवस्था में किया जा सकता है, यह बात अवश्य ही आहार में मिलाकर मुनि को दे देना। वे स्वस्थ हो जाएंगे। बहिन महत्त्वपूर्ण है, किन्तु इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मुनि ने वैसा ही किया। उस औषधि की गंध से बवासीर का रोग नष्ट रोगी होने पर भी सावध क्रिया का सेवन नहीं करता। यही हो गया। मुनि को पता लगा कि एक बहिन ने वैद्य से पूछताछ उसका श्रामण्य है। विशेष जानकारी के लिए देखें--दसवेआलियं, कर यह आरंभ किया है। अब मेरे इस जीवन से क्या! मुझे अब ३।४ का टिप्पण। अनशन कर लेना चाहिए। उन्होंने अनशन स्वीकार कर लिया।' ६३. (श्लोक ३४) ६१. समाधिपूर्वक रहे (संचिक्ख)
प्रस्तुत श्लोक में तृणस्पर्श से होने वाले परीषह का वर्णन संस्कृत में इसके दो रूप होते हैं—संतिष्ठेत और समीक्ष्य। है। जो मुनि अचेल होता है, वस्त्ररहित होता है, तपस्या के बृहवृत्ति के अनुसार 'संतिष्ठेत' का अर्थ है-समाधिपूर्वक रहे, कारण तथा रूक्ष भोजन करने के कारण जिसका शरीर बाहर से चिल्लाए नहीं। उन्होंने 'समीक्ष्य' का अर्थ इस प्रकार किया है- या भीतर से रूखा हो जाता है, उस मुनि को तृणस्पर्श अत्यन्त रोग हो जाने पर मुनि यह सोचे कि यह उसके कर्मों का ही पीड़ित करता है। शरीर की रूक्षता के कारण तृणों की तीक्ष्णता विपाक है, फल है।
या पलाल आदि घास की पोलाल के कारण मुनि के शरीर पर ६२. चिकित्सा न करे न कराए (जंन कज्जा न कारव) रेखाएं खिंच जाती हैं और दर्भ से शरीर स्थान-स्थान पर फट सहज ही प्रश्न होता है क्या यह विधान समस्त साधुओं
जाता है। जिसका शरीर स्निग्ध होता है, उसके लिए ये सारी के लिए है? इसके समाधान में कहा है-'चिकित्सा न करे, न
बाधाएं नहीं होतीं, शरीर पर रेखाएं नहीं उभरतीं। कराए"-यह उपदेश जिन-कल्पिक मुनियों के लिए है।
प्रस्तुत प्रसंग में गात्र-विराधना का अर्थ है-शरीर का स्थविर-कल्पी मुनि सावध चिकित्सा न करे, न कराए। यह
फटना, शरीर का विदारित होना, शरीर पर रेखाएं उभरना। शान्त्याचार्य का अभिमत है।
६४. अतुल वेदना होती है (अउला हवइ वेयणा) उन्होंने सावध चिकित्सा को आपवादिक विधि मानकर व्याख्याकारों ने यहां एक लघु दृष्टांत प्रस्तुत किया हैउसके समर्थन में एक प्राचीन श्लोक उद्धत किया है
श्रावस्ती नगरी का राजकुमार भद्र संसार से विरक्त हो प्रव्रजित 'काहं अछित्तिं अदुवा अहीहं, तवोविहाणेण य उन्नमिस्सं।
हो गया। कुछ समय बीता। एक बार वह अपने आचार्य से गणं व णीतीइ वि सारविस्सं. सालंबसेवी समवेति मोक्खा आज्ञा प्राप्त कर एकल-विहार प्रतिमा को स्वीकार कर विचरण मुनि पांच कारणों से चिकित्सा का आलम्बन ले सकता
करने लगा। उस समय छोटे-छोटे राज्य होते थे। एक बार वह
'वैराज्य' की सीमा में चला गया। वहां के आरक्षकों ने उसे १. मैं परम्परा को व्युच्छिन्न नहीं होने दूंगा।
गुप्तचर समझकर बंदी बना डाला। उसे बुरी तरह पीटा और २. मैं ज्ञानार्जन करूंगा।
शरीर पर नमक छिड़क, घास से परिवेष्टित कर, उसे छोड़
दिया। शरीर लहुलूहान था। दर्भ के तीखे नोंक उसे अत्यंत ३. मैं तपोयोग में संलग्न होऊंगा। ४. मैं उपधान तप के लिए उद्यम करूंगा।
पीड़ित करने लगे। परन्तु मुनि ने अपना समताभाव नहीं
छोड़ा। १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७८ |
रोग थकी दुःख उपनो जाणी, वेदन दुख पीडओ पहिछाणी। २. बृहद्वृत्ति, पत्र १२० : 'समीक्ष्य' स्वकर्मफलमेवैतत् भुज्यते इति पर्यालोच्य, थिर प्रज्ञा करि अदीन मनसूं, फरस्यूं रोग सहे दुख तन ।।
यद्वा संचिक्ख 'त्ति अचां सन्धिलोपो बहुलम्' इत्येकारलोपे 'संचिक्खे' औषधि न करे ए गुण अधिक, निज कृत जाणी चरण गवेक्षक। समाधिना तिष्ठेत्, न कूजनकर्करायतादि कुर्यात् ।
चरण पणू सावज नहीं भावे, जिनकल्पी निरवद करै न करावै।। ३. वही, पत्र १२०॥
७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७७ : यदुत्पन्नेषु तत्प्रतिकारायोद्यमो न कुरुते, ४. वही, पत्र १२० : जिनकल्पिकापेक्षया चैतत्, स्थविरकल्पापेक्षया तु 'जं तंत्रमंत्रयोगलेपादिभिः स्वयं करणं, न स्नेहविरेचनादिना स्वयं करोति,
न कुज्जा' इत्यादी सावधमिति गम्यते, अयमत्र भावः-यस्मात्कारणादिभिः कारापणं तु वैद्यादिभिः, शक्यं हि नीरोगेण श्रामण्यं कर्ता, यस्तु रागवानपि
सावधपरिहार एव श्रामण्यं, सावद्या च प्रायश्चिकित्सा, ततस्तां नाभिनन्दे । न सावधक्रियामारतभ तं प्रतीत्योच्यते-एयं खु तस्स सामन्नं। ५. वही, पत्र १२०।
८. वही, पृ. ७८, ७६। ६. उत्तराध्ययन की जोड़ २३२-३३ :
६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७६ ।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १२२।
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