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परीषह-प्रविभक्ति
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अध्ययन २ : श्लोक १६ टि० २८-३१
था, तब वहां अनेक कष्ट सहे थे। आगे चलकर वह शब्द ३. अतुल्यविहारी—जिसका विहार अन्यतीर्थिकों से भिन्न कष्ट सहने वालों के लिए श्लाघा-सूचक बन गया। प्रस्तुत है। आगम के १५१२ में लाढ का अर्थ-सत् अनुष्ठान से प्रधान
बृहद्वृत्ति के अनुसार इसके अर्थ ये हैं - किया है।
भिक्षु असमान होता है। वह किसी घर या आश्रय में २८. निगम में (निगमे)
रहता है, पर उसके प्रति मूर्च्छित नहीं होता। न वह उस चूर्णिकार के अनुसार 'निगम' का अर्थ है-वह स्थान आश्रयदाता का वर्धापन करता है, न आश्रय की प्रशंसा करता जहां नाना प्रकार के कर्म और शिल्प को जानने वाली जातियां है और न उसकी सार-संभाल करता है। आश्रय के सड़-गल निवास करती हों।
जाने पर भी उसकी शिकायत गृहस्वामी से नहीं करता। बृहद्वृत्तिकार और नेमिचन्द्राचार्य के अनुसार निगम वह मुनि असमान-अहंकार रहित होता है। स्थान है जहां व्यापारी वर्ग रहता है।'
वह अन्यतीर्थिकों की भांति नियत स्थानों या मठों में २९. अकेला (एग एव)
निवास नहीं करता। वह अनियताविहारी होता है। इस दृष्टि से चूर्णिकार और शान्त्याचार्य ने इसके दो अर्थ किए हैं
भी वह असमान होता है। राग-द्वेष रहित अथवा एकाकी। चूर्णिकार ने 'एकाकी' उसे
गृहस्थ अपने स्थान के प्रति आसक्त होते हैं, निरन्तर माना है जो अप्रतिबद्धता के कारण जनता के मध्य में (गण
उसकी चिंता करते रहते हैं। भिक्षु असन्निहित होने के कारण में) रहता हुआ भी 'अकेला' रहे। 'गण में रहूं निरदाव
आश्रय की वार्ता से मुक्त होता है। अकेलो'-इसी की प्रतिध्वनि है। द्वितीय अर्थ की पुष्टि के
आयारचूला में अनेक स्थलों पर ये दो शब्द व्यवहृत हैंलिए शान्त्याचार्य इसी आगम के ३२वें अध्ययन का पांचवां समा'
'समाणे वा वसमाणे वा।१० श्लोक उद्धृत करते हैं।' नेमिचन्द्र ने केवल प्रथम अर्थ ही
'वसमाण' शब्द अनियतवास का वाचक है और 'समाण' स्वीकार किया है।
शब्द नियतवास का।" इसी अध्ययन के बीसवें श्लोक के दूसरे चरण में 'एगओ'
प्रस्तुत आगम में प्रयुक्त 'असमाण' शब्द 'वसमाण' का शब्द आया है। शान्त्याचार्य ने उसके दो अर्थ किए हैं
वाचक है, अर्थात् अनियतवास का द्योतक है। आयारचूला के (१) एकग-प्रतिमा का आचरण करने के लिए अकेला संदर्भ में 'असन्'-यह मूल अर्थ प्रतीत होता है। जाने वाला।
३१. गांव आदि के साथ.....प्रतिबद्ध न हो (नेव (२) एक-अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति के लिए अनुकूल प्रवृत्ति कुच्चा परिग्गह) करने वाला।
परिग्रह का अर्थ है-ममत्व । यह चरण पूर्ववर्ती श्लोक के किन्तु उसका प्रकरणगत अर्थ एकक-अकेला उपयुक्त दो अंतिम चरणों तथा दशवकालिक सूत्र (चूलिका २८)
के-गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं न कहिं चि कुज्जा--- ३०. मुनि एक स्थान पर आश्रम बना कर न बैठे (असमाणो) का द्योतक है। मुनि किसी गांव, कुल, नगर या देश के प्रति
'असमाणो' का संस्कृत रूप है-असन। चूर्णिकार ने आसक्त न हो, प्रतिबद्ध न हो। प्रतिबद्धता से संयम की हानि इसके तीन अर्थ किए हैं। -
होती है। इसीलिए प्रस्तुत श्लोक के अगले दो चरणों में कहा गया १. असन् (असन्निहित) जिनके पास कुछ भी नहीं है। है कि मुनि गृहस्थों से असंबद्ध रहे तथा अनिकेत होकर २. असदृश---जो गृहस्थ के समान नहीं है।
विचरण करे। १. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ४८२ : लाढेसु अ उवसग्गा, घोरा..... । ततो ६. सुखबोधा, पत्र ३१।। भगवान् लाढासु जनपदे गतः तत्र घोरा उपसर्गा अभवन।।
७. बृहद्वृत्ति, पत्र १०६ : 'एकः' उक्तरूपः स एवैककः, एको वा २. बृहवृत्ति, पत्र ४१४ : 'लाढे' त्ति सदनुष्ठानतया प्रथानः ।
प्रतिमाप्रतिपत्त्यादी गच्छतीत्येकगः, एकं वा कर्मसाहित्यविगमतो मोक्षं ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ : नयन्तीति निगमास्त एव नगमाः, गच्छति-तत्प्राप्तियोग्यानुष्ठानप्रवृत्तेर्यातीत्येकगः। नानाकर्मशिल्पजातयः इत्यर्थः ।
उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६७ : असमान इति असमादि (नो) कः, ४. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र १०७ : निगमे वा वणिग्निवासे।
असंनिहित इत्यर्थः....अहवा असमाण इति नो गृहितुल्यितः....अथवा (ख) सुखबोधा, पत्र ३१,३२।
असमानः अतुल्यविहारः अन्यतीर्थिकैः।। ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ : एगो णाम रागद्दोसरहितो, अहवा एगो ६. बृहवृत्ति, पत्र १०७ : न विद्यते समानोऽस्य गृहिण्यश्रयामूर्छितत्वेन 'जणमझे वि वसंतो।'
अन्यतीर्थिकेषु वाऽनियतविहारादिनेत्यसमानः-असदृशो, यद्वा समानः(ख) बृहवृत्ति, पत्र १०७ : 'एक एवे' ति रागद्वेषविरहितः 'चरेत्' साहड्कारो न तथेत्यसमानः, अथवा (अ) समाणो' त्ति प्राकृतत्वादसन्निवासन, अप्रतिबद्धविहारेण विहरेतू, सहायवैकल्यतो वैकस्तथाविधगीतार्थो, यत्रास्ते तत्राप्यसंनिहित एवेति हृदयम् । यथोक्तम्
१०. आयारचूला, १४६।१२२,१३८ आदि। ण या लमिज्जा णिउणं सहाय, गुणाहियं वा गुणतो समं वा। ११. आचारांगवृत्ति, पत्र ३३५ : समानाः इति जंघाबलपरिक्षीणतयैकस्मिन्नेव एक्कोऽवि पावाई विवज्ज्यतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो।।
क्षेत्रे तिष्ठन्तः, तथा वसमाना मासकल्पविहारिणः ।
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