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उत्तरज्झयणाणि
४४ अध्ययन २ : श्लोक १७,१८ टि० २५-२७ एता हसति च रुदति च अर्थहतो
कोशा वेश्या के घर चतुर्मास बिताने गया। आचार्य ने बहुत विश्वासयंति च परं न च विश्वसंति।
प्रतिषेध किया, वह अहंकार वश नहीं माना। कोशा वेश्या ने तस्मान्नरेण कुलशीलसमन्वितेन,
अपने हावभाव से उसे मोहित कर डाला। मुनि उसके सौन्दर्य नार्यः श्मशानसुमना इव वर्जनीयाः।।
पर मुग्ध होकर भोग की याचना करने लगे। कोशा ने कहासमुद्रवीचीचपलस्वभावाः, सन्ध्याघ्ररेखा व मुहूर्तरागाः। उसका मूल्य चुकाना होगा। आप अकिंचन हैं। आप नेपाल स्त्रियः कृतार्थाः पुरुष निरर्थकं, निपीडितालक्तकवत् त्यजती।। जाएं। वहां का राजा जैन धर्म का श्रावक है। उससे लाख मूल्य २५. सुकर हैं (सुकर्ड)
वाली रत्नकंबल ले आएं। चूर्णिकार ने 'सुकर' को मूल पाठ मानकर 'सुकडं' को मुनि अपनी मर्यादा और वेष की लज्जा को छोड़कर पाठान्तर माना है। बृहद्वृत्तिकार ने 'सुकडं' को मूल मानकर भयंकर अटवियों को पार करते हुए नेपाल पहुंचे। नेपालनरेश 'सुकर' का पाठान्तर के रूप में उल्लेख किया है।
ने उन्हें कंबल दिया। वे लौट रहे थे। चोरों ने उन्हें लूटना चाहा। 'सुकर' का अर्थ है-जो सुखपूर्वक या सरलता से किया पर ज्यों-त्यों बचाव कर वे कोशा वेश्या के घर पहुंचे। रत्नकंबल जा सके।
भेंट कर निश्चिन्त हो गए। वेश्या ने उस कंबल से अपने कीचड़ 'सुकडं' का अर्थ है-अच्छी तरह से किया हुआ।' अर्थ सने पैरों को पोंछ कर नाली में डाल दिया। मुनि ने देखा और की प्रासंगिकता की दृष्टि से यहां 'सुकरं' पाठ उपयुक्त लगता है। कहा-अरे! यह क्या कर डाला! इतनी मूल्यवान कंबल का यों
वर्ण-व्यत्यय-'र' के स्थान में 'ड' के प्रयोग आगम ही नाश कर दिया! वेश्या बोली-स्वयं को देखें। क्या आपने भी साहित्य में मिलते हैं। यहां 'सुकडं' का संस्कृत रूप 'सुकृतं' की अपने संयम-रत्न का नाश नहीं किया। मुनि संभले। उन्होंने अपेक्षा 'सुकरं' अधिक संगत लगता है।
आचार्य के पास आकर अपनी प्रतिशोध की भावना का प्रायश्चित्त २६. (श्लोक १७)
किया। गुरु ने कहाआचार्य संभूतिविजय के अनेक मेधावी शिष्य थे। मुनि वग्धो वा सप्पो वा, सरीरपीडाकरा मुणेयव्वा। स्थूलभद्र उनके पास रहकर घोर तप तप रहे थे। एक बार नाणं च दसणं वा, चरणं व न पच्चाला भेत्तुं ।। स्थूलभद्र आदि चार अनगार आचार्य के पास आए और बोले- भयवं पिथूलभद्दो, तिक्खे चंकम्मिओ नपुण छिन्नो। हम अभिग्रह करना चाहते हैं। आप हमें अनुज्ञा दें।
अग्गिसिहाए वुच्छो, चाउम्मासे न पुण दड्ढो।। एक मुनि ने कहा-मैं सिंह की गुफा में चतुर्मास करना -एवं दुक्कर-दुक्करकारओ थूलभद्दो। चाहता हूं। दूसरे ने कहा-मैं सांप की बिंबी पर, तीसरे ने -व्याघ्र, सर्प आदि शरीर को पीड़ा उत्पन्न कर सकते हैं, कहा-मैं कृप-फलक पर और स्थूलभद्र ने कहा मैं कोशा किन्तु वे ज्ञान, दर्शन और चारित्र का भेदन करने में समर्थ नहीं वेश्या के घर। गुरु ने चारों को अनुज्ञा दी। सिंह-गुफावासी मनि होते। मुनि स्थूलभद्र ऐसे स्थान पर गए, पर स्खलित नहीं के तपस्तेज से सिंह उपशांत हो गया। सांप की बिम्बी पर खड़े हुए। वे अग्निशिखातुल्य गणिका के घर में चतुर्मास के लिए मुनि की शांति से दृष्टिविष सर्प निर्विष हो गया। कूप-फलक पर रहे, पर वे उससे दग्ध नहीं हुए, अपने कर्तव्य से च्युत नहीं खड़े मुनि की एकाग्रता सधी। वेश्या के घर स्थूलभद्र मुनि को हुए। अनुकूल परीषह सहने पड़े।
२७. संयम के लिए (लाढे) चातुर्मास संपन्न हुआ। चारों गुरु के पास आए। आचार्य शान्त्याचार्य ने इसका अर्थ-'एषणीय-आहार' अथवा ने सिंह-गुफावासी आदि तीनों मुनियों की प्रशंसा करते हुए 'मुनि-गणों के द्वारा जीवन यापन करने वाला'–किया है। कहा-स्वागत है दुष्कर कार्य करने वालों का। मुनि स्थूलभद्र भी उनके अनुसार यह श्लाघावाची देशी शब्द है। चूर्णिकार और आए। आचार्य ने खड़े होकर स्वागत करते हुए कहा- नेमिचन्द्र भी संक्षेप में यही अर्थ करते हैं। यह विशेषण चर्या अतिदुष्कर है, अतिदुष्कर है तुम्हारा आचरण।
के प्रसंग में आया है और इसके अगले चरण में परीषहों को __ तीनों ने सोचा, आचार्य श्री पक्षपात करते हैं। स्थूलभद्र जीतने की बात कही है तथा इसे श्लाघावाची शब्द कहा है। अमात्य पुत्र हैं, इसलिए उनके प्रति ये उद्गार व्यक्त किए हैं। इन सभी तथ्यों पर ध्यान देने से इसका मूल अर्थ 'लाढ' या _दूसरे वर्ष सिंहगुफावासी मुनि द्वेष से अभिभूत होकर 'राढ' देश लगता है। भगवान महावीर ने वहां विहार किया
(क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ.६५।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १०३। २. सुखबोधा, पत्र ३११ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र १०७ : 'लाढे' त्ति लाढयति प्रासुकैषणीयाहारेण
साधुगुणैर्वाऽऽत्मानं यापयतीति लाढः, प्रशंसाभिधायि वा देशीपदमेतत् ।
४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ : लाढे इति फासुएण उग्गमादिशुद्धण
लाढेति, साधुगुणेहिं वा लाढय इति। (ख) सुखबोधा, पत्र ३१ : लाढयति-आत्मानप्रासुकैषणीयाहारेण यापयतीति लाढः।
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