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परीषह-प्रविभक्ति
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अध्ययन २ : श्लोक ८-१० टि० ११-१५
निवृत्ति के लिए जाना होता है, इससे स्वाध्याय में बाधा उपस्थित एकल-विहार की साधना करने वाले साधकों की यह मर्यादा होती होती है। रूक्ष आहार से चिड़चिड़ापन भी बढ़ता है और व्यक्ति है कि जहां जब दिन का चौथा प्रहर प्रारंभ हो जाता है, उन्हें बार-बार और शीघ्र कुपित होने लगता है।
वहीं प्रतिमा में स्थित हो जाना होता है। भगवान् महावीर जब लाट देश में गए तब उन्हें वहां गुफाद्वार पर स्थित मुनि के पर्वत की वायु के भयंकर अनेक कष्ट सहने पड़े। उस देश में अन्न की उपज कम होती थपेड़े लग रहे थे। पर वह मेरु की भांति निष्प्रकंप और अटल थी। प्रदेश पथरीला था। लोग रूखा-सूखा खाकर जीवन-निर्वाह रहा। वह रात्री के प्रथम प्रहर में दिवंगत हो गया। इसी प्रकार करते थे, इसलिए वे अत्यधिक क्रोधी और चिड़चिडे स्वाभाव के शीत के प्रचंड प्रकोप से पीड़ित होकर दूसरा रात्री के दूसरे प्रहर थे।
में, तीसरा तीसरे प्रहर में और चौथा चौथे प्रहर में दिवंगत हो इस प्रकार रूक्ष भोजन शरीर और मन दोनों को प्रभावित गया। करता है।
यह निदर्शन है शीत परीषह को समभाव से सहन करने जैन मुनियों के लिए यह विधान है कि वे स्निग्ध आहार
र न करें और रूक्ष आहार भी निरंतर न करें। दोनों १२. स्वेद, मैल या प्यास के दाह (परिदाहेण) में सामंजस्य बिठाएं। केवल स्निग्ध आहार करने से उन्माद
दाह दो प्रकार का होता है--बाह्य दाह और आन्तरिक बढ़ता है और केवल रूक्ष आहार करने से क्रोध आदि की वृद्धि दाह। स्वेद. मैल आदि द्वारा शरीर में जो दाह होता है वह होती है, मेधा कमजोर होती है।
बाह्य-दाह है और प्यास जनित दाह को आन्तरिक दाह कहते हेराक्लाइटस ने कठोरता और रूक्षता को जगत् का मूल हैं। यहां दोनों प्रकार के दाह अभिप्रेत हैं। चूर्णिकार ने इस तत्त्व माना। उसने कहा-Keep your life dry-जीवन को प्रसंग में एक सुन्दर श्लोक उद्धृत किया है: सूखा बनाओ। इसके आधार पर संयम का विकास हुआ।
उवरि तावेई रवी, रविकरपरिताविता दहइ भूमी। भगवान महावीर और हेराक्लाइटस-दोनों ने संयम के अर्थ में
सव्वादो, परिदाहो, दसमलपरितंगा तस्स।। एक ही शब्द-रूक्ष-का प्रयोग किया है।
१३. मेधावी (मेहावी) ११. (शीत परीषह)
धारणा में क्षम बुद्धि 'मेधा' कहलाती है। प्रस्तुत प्रसंग में आचार्य भद्रबाहु राजगृह नगरी में समवसृत हुए। चार
मेधा का अर्थ है-मर्यादा । जो मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता वणिक् मित्र उनके पास प्रव्रजित हुए। उन चारों ने आचार्य के
वह मेधावी कहलाता है। इसका निरुक्त है-'मेहया (मेरया) पास विपुल श्रुतज्ञान अर्जित किया। उन्होंने अपनी आत्मशक्ति
धावतीति मेधावी। को उत्तेजित कर, एकल-विहार-प्रतिमा को स्वीकार कर चारों
उपासकदशा की वृत्ति में आचार्य अभयदेवसूरी ने 'मेहावी' साथ-साथ जनपद विहार करने लगे। एक बार वे राजगृह आए।
का निरुक्त इस प्रकार किया है—मेहावीत्ति सकृतदृष्टश्रुतकर्मज्ञःउस समय हेमंत ऋतु अपने यौवन पर थी। शीत का भयंकर
जो एक बार देखे हुए या सुने हुए कार्य को करने की पद्धति प्रकोप सारे नगर को आतंकित कर रहा था। उस शीत वायु से
जान जाता है, वह मेधावी होता है। अनेक पशु-पक्षी मर गए। वृक्ष जल गए, सूख गए। वे चारों
१४. समभाव में रहे (समरेव) मुनि स्वाध्याय और ध्यान से निवृत्त होकर दिन के तीसरे प्रहर में गोचरी के लिए निकले। चारों राजगृह की भिन्न-भिन्न
शान्त्याचार्य के अनुसार मूल शब्द 'सम एव' है। परन्तु दिशाओं में गए। उन्हें लौटकर वैभारगिरि पर्वत पर आना था।
प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से 'ए' को 'रेफ' हो जाने पर एक मुनि भोजन लेकर आ रहा था। वैभारगिरि के गुफा द्वार पर
'समरेव' शब्द बना है। चूर्णिकार ने 'समरे' का अर्थ युद्ध किया आते-आते दिन का चौथा प्रहर प्रारंभ हो गया। वह वहीं .
है। वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप में चूर्णिकार का अनुगमन कर प्रतिमा कायोत्सर्ग में स्थित हो गया। भोजन नहीं किया। दूसरा 'समर का
'समरे' को 'संगामसीसे' का विशेषण माना है।११ मुनि जब नगर के उद्यान तक पहुंचा तब चौथा प्रहर प्रारंभ हो १५. शूर (सूरा) गया। वह वहीं स्थित हो गया। तीसरा एक उद्यान के पास स्थित व्याख्याकारों ने मुख्यतः शूर शब्द को 'नाग'-हाथी का हो गया और चौथा नगर के पास प्रतिमा में खड़ा हो गया। विशेषण माना है। वैकल्पिक रूप में 'शूर' शब्द को स्वतंत्र
१. आचारांग चूर्णि, पृ. ३१८ : रुक्खाहारत्ता अतीव कोहणा। २. सुखबोधा, पत्र २०। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ८६ : परिहदाहेन बहिः स्वेदमलाभ्यां यहूनिना वा,
अन्तश्च तृष्णया जनितदाहस्वरूपेण। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५७। ५. अभिधान चिंतामणि कोश, २।२२३ : सा मेधा धारणक्षमा।
६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६० : मेधावी मर्यादानतिवर्ती। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५७। ८. उपासकदशा वृत्ति, पत्र २१८ । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१। १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५८। ११. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१।
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