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टिप्पण
अध्ययन २: परीषह-प्रविभक्ति
१. अभ्यास के द्वारा परिचित कर (जिच्चा)
क्षुधा के समान कोई वेदना नहीं है। बृहद्वृत्ति में 'जिच्चा' का संस्कृत रूप 'जित्वा' और प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त 'दिगिंछा' देशी शब्द है। इसका अर्थ---पुर:-पुनः अभ्यास के द्वारा परिचित कर, किया है। यह अर्थ है-क्षुधा, बुक्षुधा, भूख । 'जिं जये' धातु का रूप है। इसका अर्थ होता है-जीत कर। ४. काकजंघा (कालीपव्व) चूर्णि में 'जिणित्ता' जीतकर अर्थ किया है।
- इसका अर्थ है 'काक-जंघा' नामक तृण। इसे हिन्दी में हमने इसको 'चिं चये' धातु से निष्पन्न कर इसका धुंघची या गुंजा कहा जाता है। संस्कृत रूप 'चित्वा' किया है। प्रस्तुत अर्थ के परिप्रेक्ष्य में यही चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'तृण विशेष' जिसको कई लोग संगत लगता है।
'काक-जंघा' कहते हैं, किया है। २. क्षुधा व्याप्त होने पर (दिगिंछापरिगए)
टीकाकार भी इसी अर्थ को मान्य करते हैं। परन्तु सामान्यतः मनुष्य रोग से आक्रान्त होने पर ही क्षुधा आधुनिक विद्वान् डॉ. हरमन जेकोबी, डॉ. सांडेसरा आदि ने परीषह को सहन करता है-आहार को छोड़ता है अथवा 'काक-जंघा' का अर्थ कौए की जंघा किया है। अल्पाहार करता है। उसके लिए अल्प आहार करना एक बौद्ध साहित्य में अल्प-आहार से होने वाली शारीरिक विवशता है। भगवान् महावीर रोग से अस्पृष्ट होने पर भी अवस्था के वर्णन में 'काल-पव्वानि' शब्द आया है। राहुलजी क्षुधा परीषह को सहन करते थे—अल्प आहार का प्रयोग करते ने इसका अर्थ 'काल वृक्ष के पर्व' किया है। यह अर्थ थे। उनके लिए कहा गया है-'ओमोदरियं चाएति, अप्ठे वि टीकाकारों के अर्थ से मिलता-जुलता है। भगवं रोगेहिं ।'
___ काल-जंघा नामक तृण-वृक्ष के पर्व स्थूल और उसके ३. श्लोक २
मध्यदेश कृश होते हैं। उसी प्रकार जिस भिक्षु के घुटने, परीषह प्रकरण में 'क्षुधा परीषह' को स्थान क्यों दिया
कोहनी आदि स्थूल और जंघा, ऊरु (साथल), बाहु आदि कृश गया? चूर्णिकार ने इसका समाधान 'क्षुधासमा नास्ति शरीर हात
होते हैं, उसे 'कालीपव्वंगसंकासे' (कालीपर्वसंकाशाङ्ग) कहा वेदना'-भूख के समान दूसरी शारीरिक वेदना नहीं है- जाता है। कहकर किया है।
५. धमनियों का ढांचा (धमणिसंतए) नेमिचन्द्र यहां एक प्राचीन श्लोक उद्धृत करते हैं-
इसका भावार्थ है-अत्यन्त कृश, जिसका शरीर केवल पंथसमा नत्थि जरा, दारिद्दसमो य परिभवो नत्थि। धमनियों का जाल-मात्र रह गया हो।३ मरणसमं नत्थि भयं, खुहासमा वेयणा नत्थिा
बौद्ध-ग्रंथों में भी 'किसं धमनिसन्थतं' ऐसा प्रयोग पंथ के समान कोई बुढ़ापा नहीं है, दरिद्रता के समान आया है। उसका अर्थ-दुबला-पतला, नसों से मढ़े शरीर कोई पराभव नहीं है, मृत्यु के समान कोई भय नहीं है और वाला है।" इस प्रयोग से एक तर्क होता है कि एक ओर तो १, बृहबृत्ति, पत्र १ : जित्वा पुनः पुनरभ्यासेन परिचितान् कृत्वा । ६. (क) The Sacred Books of the East, Vol. XLV, Page 10: Emaciated २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५२ : जिच्चा ते जिणित्ता।
like the joimt of a crow's (leg). ३. आयारो ६।४।
(ख) उत्तराध्ययन, पृ. १७। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५२।
१०. मज्झिमनिकाय, १२।६।१६। ५. सुखबोधा, पत्र १७।
११. वही, अनुवाद पृ. ५०।। ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५२ :
१२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५३ : कालीतृणपर्वणः पर्चभिरंगानि संकाशानि दिगिंछा णाम देसीतो खुहाभिधाणं।
यस्य स भवति कालीतृणपर्वांगसंकाशः, तानि हि कालीपर्वाणि संधिस (ख) बृहवृत्ति, पत्र ८२ :
थूराणि मध्ये कृशानि, एवमसावपि भिक्षुः छुहाए जानुकोप्परसंधिसु थूरो दिगिछत्ति देशीवचनेन बुभुक्षोच्यते।
भवति, जंघोरुकालयिकबाहुसु कृशः। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५३ : काली नाम तृणविसेसो केइ काकजंघा १३. बृहद्वृत्ति, पत्र ८४ : भणंति, तीसे पासतो पव्वाणि तुल्लाणि तणूणि।
धमनयः-शिरास्ताभिः सन्ततो-व्याप्तो धमनिसंततः। ८. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ८४
१४. धम्मपद, २६ ॥१३ : पंसूकूलधर जन्तुं, किसं धमनिसन्थतं, (ख) सुखबोधा, पत्र १८॥
एकं वनस्मिं झायंत, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं।
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