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परीषह प्रविभक्ति
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(१६) रोगपरीसहे
३२. नच्चा उप्पइयं दुक्खं वेयणाए दुहटिए । अदीणो थावए पन्नं पुट्ठो तत्थहियासए । ।
३३. तेगिच्छं नाभिनंदेज्जा संचिक्खत्तगवे सए । एसं खु तस्स सामण्णं जं न कुज्जा न कारवे ।। (१७) तणफासपरीसहे
२४. अचेलगस्स लूहस्स
संजयस्स तवस्सिणो । तणेसु सयमाणस्स हुज्जा गायविराहणा ।।
३५. आयवस्स निवाएणं
अउला हवइ वेयणा । एवं नच्चा न सेवंति तंतुजं ततज्जिया । । (१८) जल्लपरीसहे ३६. किलिन्नगाए मेहावी
पंकेण व रएण वा । धिंसु वा परितावेण सायं नो परिदेवए । ३७. वेएज्ज निज्जरापेही
आरियं धम्मऽणुत्तरं । जाव सरीरभेउ त्ति जल्लं काएण धारए ।। (१६) सक्कारपुरक्कारपरीसहे ३८. अभिवायणमब्भुट्ठाणं
सामी कुज्जा निमंतणं । जे ताइं पडिसेवंति न तेसिं पीहए मुणी ।। २९. अणुक्कसाई अपिच्छे
अण्णाएसी अलोलुए। रसेसु नाणुगिज्झेज्जा नाणुतप्पेज्ज पण्णवं ।।
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(१६) रोगपरीषहः
ज्ञात्वोत्पतितं दुःखं देवनया दुःखार्दितः । अदीन: स्थापयेत् प्रज्ञां स्पृष्टस्ता प्यासीत ॥
चिकित्सां नाभिनन्देत् संतिष्ठेतात्मगवेषकः ।
एतत् खलु तस्य श्रामण्यं यन्न कुर्यात् न कारयेत् ।। (१७) तृणस्पर्शपरीषहः
अचेलकस्य रूक्षस्य
संयतस्य तपस्विनः । तृणेषु शयानस्य भवेद् गात्रविराधना ।।
आतपस्य निपातेन अतुला भवति वेदना । एवं ज्ञात्वा न सेवन्ते तंतुजं तृणतर्जिताः ।। (१८) जलपरीषत:
क्लिन्नगात्रो मेधावी पंकेन वा रजसा वा । ग्रीष्मे वा परितापेन सातं नो परिदेवेत ||
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वेदयेन् निर्जरापेक्षी आर्य धर्ममनुत्तरम्। यावत् शरीरभेद इति 'जल्लं' कायेन धारयेत् ।। (१६) सत्कारपुरस्कारपरीषडः
अभिवादनमभ्युत्थानं स्वामी कुर्यान् निमन्त्रणम् । ये एतानि प्रतिसेवन्ते न तेभ्यः स्पृहयेन्मुनिः ।। अनुकषायी अल्पेच्छ अज्ञातैषी अलोलुपः। रसेषु नानुगृध्येत् नानुतपेत् प्रज्ञावान् ।
अध्ययन २ श्लोक ३२-३६
(१६) रोग परीषह
रोग को उत्पन्न हुआ जानकर तथा वेदना से पीड़ित होने पर दीन न बने । व्याधि से विचलित होती हुई प्रज्ञा को स्थिर बना और प्राप्त दुःख को समभाव से सहन करे । १०
आत्म- गवेषक मुनि चिकित्सा का अनुमोदन न करे। रोग हो जाने पर समाधि पूर्वक रहे। " उसका श्रामण्य यही है कि वह रोग उत्पन्न होने पर भी चिकित्सा न करे, न कराए। १२
(१७) तृणस्पर्श परीषह
अचेलक और रूक्ष शरीर वाले संयत तपस्वी के घास पर सोने से शरीर में चुभन होती है।
गर्मी पड़ने से अतुल वेदना होती है६५ - यह जानकर भी तृण से पीड़ित मुनि वस्त्र का सेवन नहीं करते।
(१८) जल्ल परीषह
मैल, रज६६ या ग्रीष्म के परिताप से शरीर के क्लिन्न ( गीला या पंकिल) हो जाने पर मेधावी मुनि सुख के लिए विलाप न करे
निर्जरार्थी मुनि अनुत्तर आर्य धर्म ( श्रुत चारित्रधर्म) को पाकर देह - विनाश पर्यन्त काया पर 'जल्ल' ( स्वेद - जनित मैल) को धारण करे और तज्जनित परीषह को सहन करे ।
(१६) सत्कार - पुरस्कार परीषह
अभिवादन और अभ्युत्थान करना तथा 'स्वामी' - इस संबोधन से संबोधित करना - जो गृहस्थ इस प्रकार की प्रतिसेवना - सम्मान करते हैं, मुनि इन सम्मानजनक व्यवहारों की स्पृहा न करे।
अल्प कषाय वाला, अल्प इच्छा वाला अज्ञात कुलों से भिक्षा लेने वाला, अलोलुप भिक्षु रसों में गृद्ध न हो । प्रज्ञावान् मुनि दूसरों को सम्मानित देख अनुताप न करे। 9
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