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योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद अधिसागरसूरीश्वरजी
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रचयिता आचार्य श्रीमद् बुश्विसागरसूरीश्वरजी
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SHRI JAIN MAHAVIR GEETA
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प्रकाशक :
प्राप्तिस्थानो: १ अध्यात्म ज्ञान प्रसारक
मंडळ ५२-चम्पागली मुंबई-२.
श्रीमद् बुद्धिसागरसरिजी साहित्य प्रकाशन ग्रन्थमाला
वती श्री बालाभाई वीरचन्द देसाई
(जयभिख्खु) १३, बी. चन्द्रनगर-सरखेजरोड
अमदावाद-७
२ श्री बुद्धिसागरसूरि जैन
झान मन्दिर विजापुर : ( उ. गु.)
तथा
शा. चीमनलाल जेचंदभाई ठे. मनसुखभाईनी पोळ, कालुपुर
अमदावाद
प्रथमावृत्ति : १२५० वीर सं. २४९४ विक्रम सं. २०२४
मूल्य : रुपिया सात
प्रेरक : पूज्यपाद प्रशांतमूर्ति अनुयोगाचार्य श्रीमद् महोदयसागरजी
गणिवर्यः
मुद्रक : मणिलाल छगनलाल शाह नवप्रभात प्रीन्टींग प्रेस, घीकांटा : अमदावाद.
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शासननायक चरमतीर्थपति श्री महावीरस्वामीनी
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समवसरण देशना
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श्रुतगङ्गा हिमाचलम् ।
कल्याणपादपारामं, विश्वाम्भोजरविं देवं वन्दे श्री ज्ञातनन्दनम् ।
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श्रुतज्ञान भक्तिनो लाभ लेनारा महानुभावोनी शुभ नामावली
पूज्यपाद प्रशान्तमूर्ति पट्टप्रभावक आचार्य भगवंत श्रीमत् कीर्तिसागर सूरीश्वरजीना शिष्यरत्न पूज्यपाद प्रशान्तमूर्ति अनुयोगाचार्य श्रीमद् महोदयसागरजी गणिवर्य महाराजना सदुपदेशथी
नाम
१२५०) श्री अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडळ
११०१) श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ जैनसंघ देरासरनी पेढीना ज्ञान खातेथी विजापुर. (१००) श्री सागरगच्छ कमिटी पेढीना संघ तरफथी हा. महेता रसिकलाल केशवलाल शेठ साणंद. ५००) श्री प्रांतिज जैन श्वे. मू. संघ
हा. शेठ श्री रतिलाल केशवलाल प्रांतिज. २९५०) शेठ श्री मानचंदभाई दीपचंदभाई लींबोद्रावाळा पूना. २५०) श्री शाहपुर पांच पोळ जैन श्वे. मू. संघ अमदावाद. २५०) श्री जैन सोसायटी संघ हा. शेठ श्री सुमतिभाई अमदावाद. समौ.
(१५०) श्री समौ जै. श्वे. मू. संघ १११) नगर शेठ मणिलाल मोहनलाल
हा. शा छगनलालभाई विजापुर. १०१) विजय देवसूर गच्छ उपाश्रय तरफधी विजापुर. १०१) दोशी सकरचंद छगनलाल १०९) शाह नगीनदास गोकुळदास चोकसी १०९) शाह शांतिलाल मोतिलाल चोकसी १०१) शाह कांतिलाल घेलाभाई १०१) शाह विनयचंद जगजीवनदास (♡♡♡♡♡♡♡♡♡♡♡♡♡♡♡♡
मुंबई
गाम
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विजापुर
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१०१) पटवा बाबुलाल छोटालाल १०१) दोशी विमळभाई भोगीलाल १०१) दोशी जसुमतीबेन विमळभाई ५१) शाह कोदरलाल तलकचंद ४१) दोशी जयंतिलाल पोपटलाल दलसुखभाई ३१) शाह सकरचंद भीखाभाई २५) शाह चीमनलाल घेलाभाई ५) भावसार विठ्ठलदास फुलचंदभाई
त्यागमूर्ति परम तपस्विनी प्रवर्तिनी साध्वीजी श्री मनोहरश्रीजीना
सदुपदेशथी ३०१) श्री श्रावीका जैन उपाश्रय तरफथी
विजापुर. २५) दोशीवाडा श्राविकाना उपाश्रय तरफथी २१) श्राविका चंपाबहेन स्व. बहेचरदास
पुरुषोत्तमदासना सुपत्नी १०) श्राविका नाथीवाई
कोलवडा
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ગ્રી૧૦૮ પ્રમર 1ભ્યોના મહાન પ્રોતાદ્દિવ્ય ન્યોતિર્ધર અધ્યાત્મ જ્ઞાન વિવા∞૨ સ્વ-પરશાસ્ત્ર વિશારÇ યનિષ્ઠ
સાચાર્ય માવંત શ્રીમદ્ બુસિાર સૂરીશ્વરી.
....... સ. 130 વિસાપુર આવાર્યપક સં. 150 પૈયા પુર
દ્ગીતા...... સં.1પૂર પાત્કનપુ સ્વર્ગાવાસ સં.૧૧૩ વિજ્ઞાપુર
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प्रकाशकीयम् आधुनिक विज्ञान हरणफाळ विकसतुं आपणे आपणी नजरे निहाळी रह्या छीए. आधुनीक विज्ञान एटले भौतिकवादनो विकाश, ए भौतिकवादना विज्ञाने आपणी सन्मुख अवनवा अने अटपटा साधनोना खडको खडकी दीधां छे, छतां वास्तविक सुखना खडको देखातां नथी अने दुःखना डुंगरो दूर थतां नथी.
आ माटेना कारणोनुं घणां चिंतनकारोए चिंतन कर्यु, विश्लेषण कयु, विवेकमयों विचार को अने ए निर्णय उपर आग्या के अध्यात्म भाव विहूणुं विज्ञान विश्वने विनाशना वातावरणमा मूकी देशे. जो विश्वने पोतानुं अस्तित्व राखवू हशे तो अध्यात्मभावना आश्रय विना ए अस्तिता नहि जाळवी शके. बेफाम बधेली अने वासना भरपूर वृत्तियो उपर भौतिक विज्ञान अंकुश राखवा तद्दन दुर्वल छे, वल्के ए तो वधु उद्दामवृत्तिओने वधु उश्केरे छे. एटले वेरविखेर बनावती विनाशक वृत्तिओने नाथवा अध्यात्मभाव परमातिपरम आवश्यक छे.
चिंतनकारोना आवा एकरारना वातावरणमां अमने एक अणमोल ग्रंथरत्न प्रगट करवानो पुण्य अवसर प्राप्त थाय छे. लवणाकरना तळोए रत्न होय छे एम आ ग्रंथरत्न पण कोई अज्ञात लवणाकरना वारिमां चिरकाळथी समाधिमां लीन हतो. मरजीवा रत्नशोधको रत्न प्राप्ति काजे अगाध नीरना अने अनेक भीषण जलजंतुओना भयंकर वातावरण सामे झझूमी रत्न बहार लावे छे, एम आ ग्रन्थरत्नना प्रकाशनमां अमारी संस्थाने कार्य करवं पडयं छे, ए रीते आ ग्रंथरत्नने अन्धकारमाथी प्रकाशमां लावतां अमने घणो आनंद थाय छे. आ अमारे माटे पुण्यवती लाखेणी क्षण छ, के जेमा ग्रंथकारथीनी जुग जुग जुनी भावना मूर्तिमन्त बनी रही छे.
आ ग्रन्थरत्नना प्रकाशन कार्यना मूल प्रणेता समरस सुधासिन्धु वात्सल्यमूर्ति आचार्य भगवंत श्री कीर्तिसागरसूरीश्वरजी महाराजश्रीना शिष्यावतंस सेवाभावी अनुयोगाचार्य श्री महोदयसागरजी गणीन्द्र छे. वळी एमना:शिष्यरत्न गुणगणालंकार मुनिप्रवर श्री दुर्लभसागरजी महाराजे अमने आ प्रकाशन कार्यमां सतत जागृत राखता रह्या छे. सदा अदम्य उत्साह अमने आया कर्यो छे, अनेक रीते मार्गदर्शन आप्या कर्यु छे.
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विद्वद्वर्य मुनिवर श्री मनोहरसागरजी महाराजश्रीए प्रेस कोपी सुधारवामां पोताना समयनो सुन्दर फाळो आप्यो छ श्री स्वाध्यायसागर' प्रकाशनना संपादकः विद्वद्वर्य प्रशान्तसंयममूर्ति मुनिवर श्रीत्रैलोक्यसागरजी महाराजश्रीना सौजन्यथी समवसरण देशनानो त्रिरंगी ब्लोक मळेल छे.
श्री उपमितिभवप्रपंचा कथासारोद्वार ग्रन्थना गुजराती अवतरण कार मुनिवर श्री क्षमासागरजी महाराजे प्रेसकोपीना संशोधन कार्यथी प्रारंभी मुद्रण संबंधी अने शुद्धिकरण संबंधी कार्यमां सरस योग अमने आप्यो छे. वळी आ ग्रन्थरत्नना महत्वने समजावती अने वाचनविधिने बतावती आदर्श प्रस्तावना लखी आपी छे. ___ परम तपस्विनी वयोवृद्धा प्रवर्तिनी साध्वीजी महाराज श्री मनोहरश्रीजी महाराजे पोताना मृदु सदुपदेशथी आ ग्रंथरत्नना प्रकाशनमां प्रारंभिक आर्थिक सहयोग अपाव्यो छे, तेमज श्री विजापुर जैन संघ, अध्यात्मज्ञान प्रसारक मंडळ मुंबई, साणंद सागरगच्छ कमिटिनी पेढी, प्रांतिज जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक तपगच्छ संघ अने अन्य सहायक आदिए पण आर्थिक दान द्वारा श्रुतज्ञान भक्तिनो अपूर्व लाभ लीधो छे.
अमारा कार्यमां भक्ति अनुसार सहयोग आपवा बदल सौनो आभार मानीए छीए अने एमना कार्यनी अनुमोदना करीए छीए.
दिव्य ज्योतिर्धर महापुरुषना आ ग्रन्थरत्नना प्रकाशनमां जे अमारी क्षतिओ जणाय तेनी अमोने जाण करशो तो पुनर्मुद्रणना प्रसंगे क्षतिशोधन करी लईशुं, एज शुभेच्छा.
प्रकाशक.
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शुद्धिपत्रकम्
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पृ. १३
पं. १
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१
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२१
१५
अशुद्धम् नैमित्तिक वैरस्यना शोऽस्ति धीमणां आहता म प्रेमभक्ति मज्जना द्वता मन्मूत्तौ धना धैर्ये रुपिणः यादृर्श मन्त्रषु
ऊंकारः
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शुद्धम् नैमित्तिक वैरस्य नाशोऽस्ति धर्मिणां आर्हता मे प्रेमभक्ति मज्जनाः द्वैता मन्मूर्ती धनाद्येय रूपिणः यादृर्श मन्त्रेषु ओ कारः दधिक कार्यों दुःखकोटि मद्र्पो अविरोधेन रूपतः स्वरूपं ऽयोगिनश्च विदांवशः सर्वविश्वं काहार पूर्ण वरार्थिनः ऽनुमन्तारो वर्तन्ते
दाधिक कार्यों दुःखकोहि मद्रुपो अविरोधे रुपतः स्वरुप ऽयोनिश्च विदांवश सव विश्व काहर पूर्ण वराथिनः ऽनुमन्तरो वत्तन्ते
२०
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१४
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भक्तित: धर्मिणाम् स्वधर्मिषु वर्णेषु रक्षकैः स्वस्वकर्मा विद्यादिभिः जैनसंख्या आत्मोन्नति सद्गुरूणाञ्चः शस्त्र क्षुधात जैनधर्मा हस्तैः सर्वधमः साध्यदृष्टि गृहिजैन शिक्षाज्ञां त्यजन्तिा
१०२
१०४
१०४ १०४
१२
भविततः धमिणाम् स्वधमिषु वर्णषु रक्षकः स्वकर्मा विद्यदिभिः जनसंख्या आत्मान्नति सद्गुणाच्च शंस्त्र क्षुधात जैनर्धर्मा हस्तः सर्वधर्मः साध्यदृष्टि गृहिजैन शिक्षास्त्यजन्ति जनः अहङ्कास धर्मकार्य सर्वकायषु सर्व देश कारक मतव्यः बत्स्यन्ति निराम्याथ रक्योऽहं मृत्युकालं
१०७
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जैनः
१२० १३० १३३
१३८
१४२ १४७
अहङ्कार सामाजिक सर्वकार्येषु सर्वखंड कारका मन्तव्यः वस्य॑न्ति निशम्याथ रतोऽहं मृत्युकाले
१४९ १५१ १६२
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२
ज्ञागासिना
जागति
न येषु
गृहत्थ
मद्धदि
प्रभावादूतं
रवभावतः
षट्कोणा
त्वजन्ति
शुद्ध त्मावं जनानां
ॐ
GDJ
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भय/ति शा
૧
ज्ञानातिना
जागति
नयेषु
गृहस्थ
मद्वृदि
प्रभावाद्भूतं
स्वभावतः
षट्कोणी
त्यजन्ति
शुद्धात्मानं
जैनानां
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॥ णमो वीथरागाणं ॥
प्रास्ताविकम्
आ विश्वमां सौ कोई प्राणी कांई ने कांई प्रवृत्ति करता होय छे, पछी भने ए राजा होय या रंक, मानव होय के दानव, विद्वान होय के मूर्ख, महात्मा होय के मूढात्मा.
परन्तु प्रवृत्तिनी पाछळ जे ध्येयबिंदु होय एने लक्षमां लेवाथी एनुं मूल्यांकन थई शके छे. मात्र बाह्य प्रवृत्तिनो सरवाळो काढीए तो मूर्ख के अधम आत्माओनी प्रवृत्ति घणी वधु प्रमाणमां देखाई आवशे, छतां ए प्रति कोई लक्ष आपवा तैयार होतुं नथी. त्यारे महात्मानी सामान्य प्रवृत्तिने पण जगत सन्मानभेर जोतुं होय छे, कारण के महात्मा जे कांई करे एमां बे वातोनुं लक्ष्य होय छे: एकतो मारी प्रवृत्तिथी विश्वने कांईक लाभ थवो जोईए अने बीजुं नानामां नाना जीवनुं सहेजे अहित न थवुं जोईए..
आवो उदात्त शुभाशय एमना हृदयमां सदा पल्लवित होय छे. आ कारणे ज स्वार्थी जगत् एमना चरणे झुकतुं होय छे. आवा उमदा अने पवित्र आशयथी एमनां स्वार्थ रगदोळाई जाय छे अने परार्थकरणमां पोतानुं खोई नाखवुं पडे छे एवं तो नथी ज, पण परोपकारजन्य प्रवृत्तिथी स्वार्थ सहज अने स्वयंसिद्ध थई जाय छे.
आपणे घेणी वखते जोईशु तो महात्माओ के सुविद्वानो ओछु बोलशे के ओछी प्रवृत्ति करशे. ते चिंतन, मनन अने मौनमां वधु समय पसार करशे; पण ए ज्यारे प्रवृत्ति करशे त्यारे र समयमा ओछा प्रमाणनी हशे पण बलवत्तानी दृष्टिए ए अल्पकालीन प्रवृत्ति घणी फलप्रदा हशे वर्षानी प्रवृत्ति सुभूमि उपर अल्प प्रमाणमां हशे तोपण र भूमि सस्यश्यामला बनी जशे ऊखर भूमि उपर प वर्षानी अति प्रवृत्ति पण निष्फलतामां परिणमशे. महात्माओ अने सुविद्वानो प्रवृत्ति करतां अगाउ योग्यता - अयोग्यता अने परिस्थितिनो विचार करी लेता होय छे.
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विश्ववत्सल जगतारक श्री तीर्थंकर देवो पूर्वनो त्रीजो भव आराधना अने साधनामां ज पूर्ण करता होय छे. तीर्थकरना भवमां पण ते कैवल्य प्राप्ति अगाउ आत्मसाधनामां मस्त होय छे. आटली आराधना अने साधनाना बळर्नु एकीकरण थवा द्वारा कैवल्य प्राप्त थाय अने पछी प्रथम दिनना एक प्रहर जेटला ट्कागाळामां तीर्थनी स्थापना, गणधरोनी रचना, हजारोनी दीक्षा, देशविरतिधर बनाववाचं कार्य थई जतुं होय छे. अनेक आत्माओ सम्यक्त्व अने मार्गानुसारी गुणोने पामता होय छे. ___ आपणे एम विचार करीए के अल्पकाळमां विराट कार्य केम थतां हशे? पण ए बुद्धिना मापदंडथी नहि मापी शकाय. ए अन्तर्यामी पुरुषोनी प्रवृत्तिओमां अकल्प्य बळ होय छे. एटला माटे ज आपणे एमने झूकी पडीए छीए. श्री तीर्थंकर परमात्मा जेवी शक्ति अन्यमां न संभवे, पण एथी न्यून गणधरोमां होय छे अने एथी न्यून महात्मा पुरुषोमां होय छे. उत्थानिका:
आर्यदेशमां महात्मा पुरुषोनुं प्रभुत्व रहेतुं आव्युं छे अने रहेशे. एनुं कारण महात्माओनी परोपकारजन्य प्रवृत्तिमा समायेलु छे. करणाशील महात्माओ द्वारा जगतने दरेक विषयना ग्रंथोनुं मेटणुं मळ्युं छे. धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष ए चारे पुरुषार्थ उपर ग्रंथोनी रचना करेली छे. अर्थ अने काम पण धर्मनियंत्रित होय तो अमुक आत्माओ माटे सापेक्षनयथी कल्याणकर मान्या छ. ए दृष्टिए धर्मनियंत्रित अर्थकामना पुरुषार्थ उपर ग्रंथो रचवा ए पण परोपकारनुं कार्य गण्यं छे. आ विषयनी वधु स्पष्टता अत्रे बिनजरुरी छे एटले विराम कर छं. कारण के जे ग्रंथ उपर प्रस्तावना लखवा बेठो छु ए ग्रंथ धर्माश्रित अर्थ काम पुरुषार्थने लगतो होत तो एना स्पष्टीकरणनो विचार करत. . परंतु आ ग्रंथरत्न आत्मतत्त्वनी मुख्यता राखीने महात्मा पुरुषे रच्यो छे. आत्मतत्त्वनी साथे आत्माने मोक्षप्रापक तत्त्वो पण जणाव्यां छे. परन्तु ए बधां तत्त्वो पाछळ एकज प्राणतत्त्व पडेलु जणाय छे, अने ते आ छे : " आत्मन् ! तुं ज परात्मा छे,
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तुं परमात्मा छे, तुं शुद्ध छे, तुं बुद्ध छे, तुं निरंजन छे, तुं ज स्वयं महावीर छे. तुं महावीरनो एकवार बनी जा तो तुं पोते ज तने महावीर बनेलो जोईश. तुं स्व विनानी पंचात मूकी दे. स्वमां आनंदवहेण छे, परमां दुःखना खारा दरिया छे."
तारा आत्मामां निर्मळता भरी पडी हे. सोनामां माटी भळे अने स-मळ बने एम तारा आत्मामां कर्मोए कचरो भरी मूक्यो छे. एटले निर्मळ आत्मा स-मळ बनी गयो छे. ओ आत्मन् ! तुं जाग. तुं ऊभो था. तुं तारा आत्माने ओळख. स- मळमांथी निर्मळ वन तारी अवस्था त्रिगुणातीत अने ज्ञानादि गुण सहित छे. तुं जाग अने तने ओळख. तारो स्वभाव सच्चिदानंदमय छे. तुं पोते परंज्योति छे, महाज्योति छे, परात् परतर छे. आनंदनो उदधि तारामां छलकाय छे. तुं एनो आस्वाद कर. बीजे बधे अज्ञान छे, अविद्या छे. दुःख छे, अन्धकार छे. ए वे स्वाद छे.
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आवो आत्म शब्दनो झंकार आ ग्रंथरत्नमां मधुकरना गुंजननी जेम गुंजन करतो संभळाय छे. साथे साथे व्यवहार नयनी उपादेयता अने एना विषयोनुं उद्बोधन पण सरस कंडारेलुं छे. बीजा शब्दमां कहीए तो आ ग्रन्थरत्न निश्चय अने व्यवहार एम बने नयोने प्रतिबिंबित करे छे. सुसूक्ष्म बुद्धिथी नयसापेक्षनीतिमय दृष्टि राखी आ ग्रन्थरत्न वांचवामां आवशे तोज यथातथ्य वस्तुनुं ज्ञान थई शकशे नयसापेक्षता राखवामां नहि आवे तो अर्थनो अनर्थ के विपरीत अर्थ पण थई जवा पूर्ण संभावना छे.
कोई पण पदार्थने मूळ स्वरुपमां ओळखवो होय तो ए माटे सापेक्षवादनुं नयाश्रितज्ञान अत्यन्त अगत्यनुं छे. ए विनानुं ज्ञान पंगुज्ञान गणाय. नयवादमां कोई एकज नय सर्व प्रधान छे एवं अटल नियमन नथी, पण सर्व नयो पोतपोतानी मर्यादा प्रमाणे पोताना स्थळे प्राधान्य गुण धरावता होय छे. एक नय एक स्थळे प्राधान्य धरावतो होय अने एज नय अन्य स्थळे अप्रधान बनीं जतो होय छे. संयोगोना परावर्तननी साधे सर्व नयोनी प्रधानता
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के अप्रधानता परावर्तित थती होय छे. आ ग्रथरत्न समजवामां नयोनो विवेक घणो जाळववो पडे तेम छे.
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आ ग्रंथरत्नमां श्री भगवद् गीतानी पद्धतिनुं दर्शन थाय छे. नामाभिधानमां घणुं साम्य जणाय छे, छतां बोधपद्धति अने आदि पीठिकामां मोटुं अंतर छे. श्री भागवद् गीतानुं मंडाण युद्धभूमिमां थाय छे. युद्ध करवा नहि इच्छता अर्जुन जेवा दयाळुने उकेरवा बोध अपाय छे अने हिंसानी प्रेरणा अपाय छे. अर्जुन विषादमां आवो श्री कृष्णने जणावे छे के हे कृष्ण ! युद्ध माटे आवेला स्वजनोने जोई मारां गात्रो क्लेश अनुभवी रह्यां छे, मुख सोशाई रह्युं छे, शरीरकंप अनुभवे छे, रोम खडा थई गया छे, गांडीव हाथथी हेरुं पडे छे. शरीरमां दाह थई रह्यो छे. मारं मन भमी रह्युं छे. हुं युद्धभूमि उपर ऊभो नहि रही शकुं. हे गोविंद ! मारे विजयनी इच्छा नथी, राज्यसुखो जोईतां नथी. अरे मधुसूदन ! युद्धमां जे मारी सामे ऊभा छे ए मारा विद्यागुरुओ छे. काकाओ छे, पितामहो, पुत्रो, पौत्रो, मामाओ, ससराओ, साळाओ, स्नेहीओ छे. हुं राज्य खातर, सुखखातर हथियार नहि चलावु. कौरवोने मारवाथी मने शो लाभ छे ? हुं युद्ध नहि करं.
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श्री कृष्णे जोयुं के अर्जुन युद्धभूमिथी पाछो हठे तो बाजी बधी रगदोळाई जाय. आ भूमिकामांथी श्री भागवद् गीतानुं उत्थान थयुं छे.
एटले के युद्धना भीषण वातावरणमां पोताना पूज्यो, स्वजनो अने स्नेहीओनो विनश्वर अने मोहोत्पादक राज्यसत्ता अने भूमि खातर विनाश करवो ए अर्जुनने अयोग्य लाग्यं. युद्धभूमिथी निवृत्त थवानी अभीप्सा जागी एटले अर्जुनने उत्तेजित करवाना उद्देशथी श्री भगवद् गीता बनी. युद्धभूमिमां श्री भगवद् गीतानो जन्म थयो.
अने श्री जैन महावीर गीतानुं उत्थान एक अद्भुत स्थळे श्थाय छे. राजगृही नगरनुं रळियामणुं उद्यान छे. भक्तिशील देवोप १. जुओ श्री भगवद् गीता, अध्याय प्रथम.
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समवसरणनी रचना करी छे. जगतारक परमात्मा श्री महावीरदेव पधार्या छे. गणधर श्री गौतमस्वामी वगेरे अनेक महामुनिओ देशना सांभळवा आवी गया छे. मगधसम्राट् श्री श्रेणिक महाराजा वगेरे अनेक राजन्यवर्ग विनयपूर्वक करयुगल जोडी देशना सांभळवानी तत्परता दाखवी रह्या छे. ए रीते अनेक व्यंतरभुवनपति-ज्योतिष्क-वैमानिक देवो अने देवीओ, नर अने नारीओ, तिर्यचो देशना सांभळवानी तमन्ना धरी रह्या छे. ए वखते श्री गौतम गणधर आदि अने महाराजा श्रेणिक आदि आत्माना उत्थानने लगता नैश्चयिक अने व्यवहारिक कक्षाना प्रश्नो पूछे छे अने प्रभु श्री महावीरदेव द्वारा सविस्तर समाधान करवामां आवे छे. ए समाधानना सारने श्री जैन महावीर गीतामां कंडारवामां आव्यो छे.
आ छे श्री जैन महावीर गीतानी पूर्व भूमिका अथवा उत्थानिका. नयात्मक विचार एटले ?
हवे आपणे आ ग्रंथनो नयनीतिनी दृष्टिए विचार करीए.
" सर्व जैनोमां हुं जिन छु, बौद्धधर्मीओमां हुं बुद्ध छु, बैष्णवोमा हुं विष्णु छु, शैवोमां हुं शिव छु, हुं कृष्ण छं. हुं वासुदेव छ. हुं महेश छं. हुं सदाशिव छं. सर्व गुरु स्वरुप हुं छु. श्रद्धावान् मने मेळवी शके छे. समुद्रोमा हुँ सागर छं. नदीओमा हुँ गंगा छु.१ [ महावीर गीता अ. १, लो. १५-१६-१७ ]
आनो अर्थ एवो थाय के ईश्वर सर्व व्यापक छे. त्यारे नींचेनी वात एथी जुदी आवे छे.
"हुँ स्वर्गमां नथी. हुं पाताळमां नथी. मारो वास सदा १. " जिनोऽहं सर्वजनेषु, बुद्धोऽहं बौद्धधर्मिषु ।
वैष्णवानमहं विष्णुः, शिवः शैवेषु वस्तुतः ॥१५।। कृष्णोऽहं वासुदेवोऽहं, महेशोऽहं सदाशिवः ।। सर्वगुरुस्वरूपोऽहं, श्रद्धावान् मां प्रपद्यते ।।१६॥ सागरोऽहं समुद्रेषु, गङ्गाऽहं स्यन्दिनीषु च ।
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भक्तिमा छे. ज्यां मारा भक्तो होय छे, त्यां आनंदाद्वैतरूपे हुं पण विद्यमान छु." [महावीर गीता अ, २, "लो १ ]
आ रीते एक ज ग्रंथमां बे भिन्न भिन्न वातो जोवा मळे छे. एकमां सर्व व्यापकता जणावी छे अने बीजामां नियत सीमावद्ध वास जणाव्यो छे. सामान्यतः आ श्लोको विरुद्धवर्णनात्मक जणाय छे. पण आपणे नयसापेक्षतानो विचार करीए तो सुस्पष्ट समाधान मेळवी शकीए. अत्रे एक स्थळनो निर्देश करीए छीण. पछी वाचके स्वमति परिकर्मित करी विचारी लेवा श्रम लेवो. " एगे आया.” "आत्मा एक छे."
[श्री स्थानांग सूत्र, अ. १, सू २. ] आ आगमिक पदमां सामान्यतः एकात्मवाद के अद्वैतवादन प्रतिबिंब जणावानो भ्रम उत्पन्न थई शके छे, कारण के जैनो आत्माने अनंत माने छे. आत्माओ संख्यातीत छे, गणनातीत छे एवा पाठो ठेर ठेर छे; जेमके
“पृथ्वी शस्त्रनो आरंभ करनाराओ अनेक जातना जीवोनो नाश करे छे."
“जलने आश्रयी अनेक जीवो रहेला होय छे एम हुँ
कहुं छं."3
"दरेक जीवोने आयुष्य प्रिय होय छे. सुखने इच्छता होय छे. दुःखने धिक्कारता होय छे. मृत्यु-वध अप्रिय होय छे. प्रियजीवी होय छे. जीवन जीववानी इच्छावाळा होय छे. दरेक
आत्माने पोतानुं जीवन प्रिय होय छे."४ १. नाहं स्वर्गे च पाताले, भक्तयां वासो ऽस्ति मे सदा ।
मद्भक्ता यत्र तत्राऽहमानन्दाद्वैतरूपतः ॥१॥ २. पुढवीसत्थं समारंभेमाणा अणेरूवे पाणे विहिंसइ ॥
[ श्री आचारांग, अ. १, उ. २, सू. १५ ] ३. से बेमि संति पाणा उदयनिस्सिया जीवा अणेगे ॥
[श्री आचारांग. अ. १, उ. ३, सू. २४ ] १. सव्वे पणा पियाउया, सुहमाया, दुक्खपडिकूला, अप्पियवहा, पियर्जाविणो, जीविउकामा, सम्वेसि जीवियं पियं ॥
[ श्री आचारांग, अ. २, उ. ३, सू. ८१]
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" दरेक जीव जुदा जुदा छे. ममत्व ए बन्धनुं कारण छे." १ आ जातना पाठोनो मेळ करवामां ज नयो कार्य भजवे छे. स्याद्वादनुं लक्ष न रखाय तो क्यांय सुमेळ न थायः मात्र विरोधाभास ज उभो रहे. एगे आया ना सुअर्थोनो पण
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विचार करी लईए.
(6
[१] द्रव्यनी दृष्टिए ' एक आत्मा' छे. १२
[२]
उपयोग ए जीवनुं लक्षण छे." आ रीते उपयोगरूप एक लक्षण होवाथी दरेक आत्मा एक स्वरूपवाळा थया. आ प्रमाणे एक लक्षण होवाथी 'एक आत्मा' पम कही शकाय छे. ३ अनेक जातना चोखानी अनेक गुणो भरेली होय छतां आ चोखा छे एम कही शकाय छे, एम अनेक आत्माओने स्वरूप (जात - गुण) नी दृष्टिए एक कही छे.
[३] "जन्म-मरण, सुख-दुःख वगेरेना संवेदनोमां आत्माने कोई सहाय आपी शकतुं नथी. आत्माने एकलायज ते भोगववानां होय छे. ए रीते 'आत्मा एक' छे एम विचारी शकाय.'
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64
[४] आ प्रमाणे सामान्य रूपथी (गुणनी दृष्टिथी) आत्मा एक छे अने विशेष रूपथी ( गणनानी दृष्टिथी) अनेक छे. ५
आ प्रमाणे नयसापेक्ष विचार थोय, तोज ए ग्रंथोना स्पष्ट अने सुसंगत अर्थोनो ख्याल आवे. आचार्य श्री सिद्धसेनसूरीश्वरजीए एक स्थळे जणावयुं छे के
१. सव्वे जीवा पुढो पुढो,
२.
ममत्तं बंधकारणं ॥
[ श्री चिरंतनाचार्य कृत पंचसूत्र, सू. २ ] आत्मा इति ।
""
३.
[ श्रा स्थानांग सूत्र, पृष्ठ १२, पंक्ति ४ ] "उपयोगलक्षणो जीवः" इति वचनात् तदेवनुपयोगरूपै कलक्षणवत्त्वात् सर्वे एवात्मन एकरूपाः एवं चैकलक्षणत्त्वाद् 'एक आत्मा' इति ।
" द्रव्यार्थतया एक
[ स्थानांगसूत्र, अ. १, पृ. १३, पंक्ति ७ ]
6
४.
" अथवा जन्ममरणसुखदुःखादि संवेदनेष्वसहायत्वाद् एक आत्मा' इति
भावनीयम् ।"
५. " तदेवं सामान्यरूपेणात्मा एको, विशेषरूपेण त्वनेकः ।”
[ स्थानांगसूत्र अ. १, पृ. १३, पंक्ति ८ ]
[ स्थानांग सूत्र अ. १, पृ. १३, पंक्ति ६ ]
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जिन पोते दाता है. जिन पोते ज भोक्ता छे. आ पूर्ण विश्व पण जिन छे. जिन सर्वत्र जयवंत छे. जे जिन छे ते ज हुं पोतेज धुं."
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आ रीते विचारतां विश्व ए जिन छे. अर्थात् साधकने सूर्य, चंद्र, आकाश, पाताळ, समुद्र, पर्वत, वसुन्धरा वगेरे दृश्यमान अने अदृश्यमान पदार्थों जिनमय लागे. ए जेम सापेक्ष छे एम आ ग्रंथ सापेक्ष छे. चालु ग्रन्थना प्रथम अध्ययनना १५-१६-१७ श्लोकोमां जे कांई कहेवामां आव्युं छे ते ईश्वरना ज्ञानगुणने आश्रयीने. कैवल्यप्राप्ति पछी ज्ञान सर्वत्र सर्वदा व्यापक होय छे. वीजी रीते विचारीए तो केवलिसमुद्घात वखते आत्मा सर्व व्यापक बनी जाय छे. एवखते चौदे राजलोकना अणु अणुमां ए होय छे. ए समयनी अपेक्षाए आ वात सुघटित वनी जाय छे.
एटले जैनदर्शनमां सर्ववादोनो-सर्व नयनीतिओनो समावेश थई जाय छे. ए छतां अन्य दर्शनोमां जैनदर्शननो समावेश न ज बनी शके. नदीओ समुद्रमां समाई शके छे, पण नदीओमां समुद्र समाय ? जैनदर्शन सागर समो छे. नयनीति अपनाव्या विना ग्रंथवाचन लाभकर्ता न बनी शके, एटलेज पूर्वपुरुषोए स्यादवादनी स्तुतिओ गाई छे :
66
हे प्रभो ! रसथी उपविद्ध बनेल लोहधातु (सुवर्ण थवाना कारणे) इटार्थ सिद्धि माटे थाय छे, एम आपना 'स्यात्' पदनी महोर लागेला नयो अभिप्रेत फळने आपनारा थाय छे. ( वाक्यो- पदो के शब्दोना वास्तविक अर्थ आपना 'स्यात्' पद युक्त होय तो ज थाय छे.) एटला खातर ज हितैषी आर्प: पुरुषो आपने चरणे नमता होय छे. १२
आ रीते नयात्म दृष्टिनो विचार कर्यो.
१. “जिनो दाता जिनो भोक्ता, जिन: सर्वमिदं जगत् । जिनो जयति सर्वत्र, यो जिनः सोऽहमेव च ॥
""
- श्री सिद्धसेनीय शक्रस्तव
२. नयास्तव स्यात्पदसत्त्वाञ्छिता, रसोपविद्वा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमार्या प्रणता हितैषिणः ॥
- हेमचन्द्रसूरि, द्वात्रिंशिका
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तुलनात्मक विचारो :
हवे आ ग्रंथमां आवेला विचारोनो तुलनात्मक विचार
करीए.
"प्रेमानौ कामदोषाद्या, भस्मीभूता भवन्ति हि । "
[म. गी. अ. १, श्लो. ५३ ] प्रभुप्रेमरूप अग्निमां काम (राग), द्वेष वगेरे दोषो चोकस भस्मीभूत बनी जाय छे,
" यत्प्राप्य न किञ्चित् वाञ्छति, न शोचति, न द्वेष्टि न रमते, नोत्साही भवति । "
[ नारद भक्तिसूत्र, सूत्र ५] प्रभु प्रति प्रेम थया पछी (भक्त) कांई चाहतो नथी, शोक करतो नथी, द्वेष करतो नथो, राग करतो नथी, स्वार्थमां उत्साही रहेतो नथी.
*
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"वादानां प्रतिवादानां नात्र किञ्चित् प्रयोजनम् ।
[ म. गी. अ. २, श्लो २१ ] (भक्ति मां के श्रद्धामां) वादोनुं के प्रतिवादोनुं जराय प्रयोजन होतुं नथी.
वादांश्च प्रतिवादांश्च वदन्तोऽनिश्चितांस्तथा । तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति, तिलपीलकवद् गतौ ॥
[ उ. यशोविजयजी कृत अध्यात्मोपनिषद्, प्र. अधि. लो. ७४ ] वाद अने प्रतिवाद करनाराओ घाणीना बळदनी जेम तत्त्वना परमार्थने प्राप्त करी शकता नथी.
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'वादो नावलम्ब्यः ।"
[ नारद भक्तिसूत्र, सू. ७४]
(भक्ते) वादविवादमां उतरखुं नहि.
*
"अस्त्यात्मार्थं प्रियं सर्वे, नान्यथा प्रियता कदा |"
[ म.गी. अ. ३७, श्लो. १२ ] पोताना प्रति इष्ट होय ते बंधु प्रिय होय छे. ए विना प्रेम होतो नथी.
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"न वा अरे पुत्राणां कामाय पुत्रा प्रिया भवन्ति, आत्मनस्तु कामाय पुत्रा प्रिया भवन्ति ।"
[यजुर्वेद, बृ. आ, वा. ५, मं. ६ ] पुत्रोनी इच्छा माटे पुत्रो प्रिय जणाता नथी, पण पोताने रुचिकर लागवाथी पुत्रो प्रिय होय छे.
"आत्माऽऽत्मनाऽऽत्मनिर्मग्नः, सर्वत्र ब्रह्म पश्यति ।"
[म. गो. अ. २, लो. १५ ] आत्मा आत्मा द्वारा आत्मनिर्मग्न बनीने सर्वत्र ब्रह्मदर्शन (आत्मदर्शन) करे छे.
"आत्मनाऽऽत्मानं यो वेत्ति ।” [योगशास्त्र, प्र. ४. श्लो. ४ ] आत्माने आत्माद्वारा जाणी शके छे. ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्तात् , ब्रह्म पश्चाद् , ब्रह्मदक्षिणोत्तरेणाधश्चोर्ध्व, च प्रसृतं, ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम् ॥"
[ अथर्ववेद मुंडकोपनिषद, अ. २, खं. २] आत्मा ए ब्रह्म छे. आगळ, पाछळ, जमणी, डाबी तरफ के ऊँचे नीचे सर्वत्र ब्रह्म व्यापक छे. आ संपूर्ण विश्व ब्रह्ममय छे.
"इदं ब्रह्म, इदं क्षत्र, इमे लोका, इमे देवा, इमे वेदा, इमानि, भूतानि, इदं सर्व यदयमात्मा ।"
[ बृहदारण्यकोपनिषद् ] आ ब्रह्म, आ क्षत्र, आ लोको, आ देवो, आ वेदो, आ भूतो, आ बधुं आत्मा छे. आत्ममय सर्व छे. "आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासिन्तयः।"
[ यजुर्वेद, बृ. ४, ब्रा. ५, मं. ६ ] आत्मा ज जोवालायक, श्रवण करवा लायक, मनन अने निदिध्यासन योग्य छे.
यल्लाभानापरो लाभो, यत्सुखानापरं सुखम् । यज्ज्ञानान्नापरं ज्ञानं, तद् ब्रह्मेत्यवधारयेत् ॥ [उपनिषद् ]
"आत्म"लाभ जेवो कोई लाभ नथी. "आत्म"सुख जेतुं कोई सुख नथी. “आत्म"शान जेवू कोई ज्ञान नथी. माटे आत्मानो-ब्रह्मनोज विचार करो. एनुंज अवधारण करो.
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"आत्मानं वा विजानीयात् , अन्यां वाचं विमुञ्चथ ॥" आत्माने ज तमे ओळखो. वीजी वातो छोडी दो. "उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं, नात्मानमवसादयेत् ।"
[ भगवद्गीता अ ६, श्लो. ५ आत्माद्वारा आत्मानो उद्धार करो. आत्मानो नाश न करो (आत्माथी दुरुपयोग न करो.)
“सर्वधर्मान् विहायातो, भजध्वं मां शरण्यकम ।"
[म. गी. अ. २, श्लो. ११४ ] सर्व धर्मोनो त्याग करी मारा शरणने स्वीकारो. “सर्वधर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज ।"
[ भगवद्गीता अ. १८, श्लो. ६६ ] सर्व धर्मोनो त्याग करी मारे शरणे आवो.
"प्रेमवान् लभते श्रद्धा, श्रद्धावान् ज्ञानमश्नुते ।"
[म. गी. अ. २, श्लो. १५३ ] प्रभुनो प्रेमी श्रद्धाने मेळवे छे. श्रद्धावान् शान मेळवी शके छे. "श्रद्धावान् लभते ज्ञान, तत्परः संयतेन्द्रियः।"
[ भगवद्गीता अ. ४, लो. ३९ ] तत्पर अने जितेन्द्रिय श्रद्धावान् पुरुष ज्ञान मेळवी शके छे.
"जानन्तोऽपि न सर्वज्ञाः, सर्वथा वक्तुमिश्वराः ।"
[म. गी. अ. २, लो. १८५ ] जाणवा छतां पण सर्वज्ञो प्रेम-भक्तिनुं स्वरूप वर्णन करवा माटे सर्वथा समर्थ नथी.
"अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ॥” [ नारद भक्तिसूत्र, सू ५१] प्रभुप्रेमनुं वर्णन अनिर्वचनीय छे.
"मद्भक्तिपरिपक्वानां, समुद्धारः करोम्यहम् ।"
[ म. गी. अ. २, लो. २०३ ]
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मारी भक्तिथी परिपक्व बनेलानो हुं समुद्धार करुं छु. " तेषामहं समुद्धर्ता, मृत्युसंसारसागरात् ।”
[ भगवद्गीता अ. १२, श्लो. ७ ] तेओनो (भक्तिवंतोनो) मृत्युवाळा संसारसागरथी उद्धार करनारो छं.
*
"कलौ मन्नाममन्त्रेषु, वेदाः सर्वे समागताः । सर्वतीर्थस्य यात्रायाः, फलं मन्नामजापतः ॥"
[म. गी. अ. २, लो. ३४० ] कलिकाळमां मारा नाममां सर्व वेदो आवी जाय छे. मारा नामना जापथी सर्व तीर्थोनी यात्रानुं फळ मळे छे. "कलौ मन्नामजापेन, तरिष्यन्ति जनाः क्षणात् ।"
[म. गी. अ. ५, लो. ४२२ ] कलियुगमां मारा नामना जापथी क्षणवारमां मनुष्यो, तरी जशे.
"आस्तामचिन्त्यमहिमा जिन संस्तवस्ते, नामाऽपि पाति भवतो भवतो जगन्ति ।"
सिद्धसेनीय कल्यागमंदिर गा. ८ ] हे प्रभु ! आपनु अचिन्त्य प्रभावशील संस्तवन दूर रह्यं, पण विश्वने आपy नाम पण भवथी रक्षण करे छे.
"अच्युतानन्दं गोविन्दं, नाममात्रेण भेषजात् ।। सर्वे रोगाः प्रणश्यन्ति, सत्यं सत्यं ब्रवीम्यहम् ॥” [चरक ]
प्रभु नामनी औषधीथी दरेक रोगो चाल्या जाय छे. आ एक हुं अनुभवसिद्ध सत्य कहुं छु. "कलियुग केवल नाम आधारा, प्रभु समरो उतरो भव पारा, कंचन कोटी दे गौ दाना, तो भी न आवे नाम समाना.
तुलसीदास.
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"अन्तकाले भजन्ते ये, भक्ता मां भक्तिभावतः । तेषामुद्धारकर्ताऽहं, पश्चात्तापविधायिनाम् ॥"
[म. गी. अ. २, *लो ४१३ ] अन्तिम समये जे भक्तो भक्तिभावथी मने भजे छ, (पापोनो) पश्चात्ताप करनारा तेओनो उद्धार करुं छं.
"अन्तकाले च मामेव, स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् । यः प्रयाति स मद्भावं, याति नास्त्यत्र संशयः ॥"
[ भगवद्गीता अ. ८, श्लो. ५ ] जीवनना आरे मारु स्मरण करतां देह तजे छे ते मारा भावने मेळवे छे. एमां जराय शंका नथी.
"मयि न्यस्य स्व कर्माणि, मद्रूपं स्वं परीक्ष्य च ।" ।
[म. गी. अ. ३, लो. ३० 1 पोताने मारा सरखो मानीने मने बधा कार्य सोंपी दे छे (ते विजेता बने छे.) " मयि सर्वाणि कर्माणि, सन्यस्याध्यात्म चेतसा ।"
[ भ. गी. अ, ३, श्लो. ३० ] बधा कार्य मने समीने अध्यात्म चित्त द्वारा जे कार्य करे छे.
"ज्ञानिनो नैव लिप्यन्ते, मनोवाकाय-कर्मभिः ॥"
[म. गी. अ. ३, *लो. १८७ मन वचन कायाथी थता कर्मोद्वारा ज्ञानीओ लेपाता नथी. "आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय !।"
[ भगवद्गीता अ. ४, *लो. ४१ ] हे अर्जुन ! आत्मज्ञानीने कर्मों बांधी शकता नथी. "लिप्यते निखिलो लोको, ज्ञानसिद्धो न लिप्यते ।"
[अध्यात्मोपनिषद् अधि. २, श्लो. ३५] विश्वना बधा आत्माने कर्मों चोंटे छे, पण ज्ञानसिद्ध पुरुषने कर्म चोंटी शकता नथी.
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आ रीते विचार करतां आ प्रवरग्रन्थमां एक नहि पण अनेक विषयो अंकित करवामां आव्या छे. ए विषयोमां पण. अनेक रीते समजण आपी छे. जैनदर्शननी चुस्त मंडनात्मक-नीति राखी छे. ए छतां अन्य दर्शनोनुं क्यांय खंडन करवामां आव्यु नथी, पण आडकतरी रीते सर्व दर्शनोने समावी लीधां छे. बीजी रोते विचारीए तो आ दर्शनातीत ग्रन्थ छे या सर्वदर्शनसंमतः ग्रन्थ छे एम कही शकीए.
प्रत्यक्षानुभव : ___ आजना प्रवर्तमान युगमां वैज्ञानिक सुखनां साधनो अमेय छे, छतां दुःखनो पार नथी, सुखनी छांय जणाती नथी. बाह्य सुख पण स्वप्नमां जणातुं नथी. आ आर्यावर्तमां आत्मिक सुख अने भौतिकसुख भरपूर होवाने बदले दुःख केम छे, एनां मूळ कारणो आ ग्रन्थकारे सरस रीते पांचमा अध्यायमां जणाव्या छे. एने आगाही पण कही शकाय. एने प्रत्यक्ष आपणे सौ जोई रह्या छीए. आजे सात्त्विक सुखो जणाता नथी, तामस विलासो अपार वधी रह्या छे. विश्वने पोतानी रक्षा जोईती होय तो. विलासोने देशवटो आपवो ज जोईशे.
" यत्र देशे समाजे च, सुरापानं प्रवर्तते ।
तत्र सात्त्विकशक्तीनां, विनिपातः सहस्राः॥" ५९. " यत्र हिंसा न तत्राऽहं, ज्ञातव्यं भव्यमानवैः।" ६२. "अन्यायेन मनुष्याणां विनिपातोऽस्ति निश्चितः।” ६७. "अन्यायादिमहादोषास्तत्र कोटिविपत्तयः ।" ६८. अन्यायी यत्र राजास्ति, लोकानां पूर्णदुःखदः। यत्र दुष्टाः प्रजाः सर्वास्तत्र दुष्कालभीतयः ॥ ६९. यत्र लोका महापापा धर्मकर्मविनाशकाः । साधूनां घातका दुष्टास्तत्र रोगादयः स्थिराः ॥” ७०.
[नीतियोग] "जे देशमा अने जे समाजमां (ज्ञाति-वर्णमां) सुरा-दारु पान थतुं होय छे. त्यां सात्विक शक्तिओनो हजारो रीते विनाश थाय छे." ५९.
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'भव्य मनुष्योप जाणी लेवुं जोईए के ज्यां हिंसा होय छे त्यां हुं ( प्रभु-धर्म-सुख ) होतो नथी. " ६२.
" अन्यायथी मनुष्योनो चोक्कस विनिपात थाय ज छे " ६७. " ज्यां अन्याय ( चोरी जारी) आदि दोष होय छे अने राजा ( राजकीय वर्ग) अन्यायी अने लोकोने दुःख देनारो होय छे, त्यां करोडो आफतो आवे छे. ज्यां प्रजामां पण आवा ज दोषो होय छे त्यां दुष्काळ वगेरेना भयो एनी माथे झझूमता होय छे. ज्यां लोको धर्मकार्यानो नाश करनारा, साधुओना विरोधी, दुष्टो अने महापापी होय छे, त्यां रोगो पण स्थिर निवास करे छे. ( ६८-६९-७० )
आमां जणावायेल विगत केवी अक्षरशः सत्य जणायी छे ! (१) आजे देशमां दारुपान केटलुं वधी रह्युं छे ?
(२) प्रजा अने राज्य केटली बेफाम हिंसा वधारी रधुं छे ? (३) अन्याय ए आजना जीवनमां वणाई गयुं नथी ? (४) अनीति विना न ज जीवी शकाय एवं वातावरण आजे नथी ? (५) भेळसेळ अने दगो ए आजनुं जीवनधोरण बनी गयुं नथी ? (६) न्यायना मंदिरोमां न्यायनुं शासन छे के कायदानुं ? (७) न्याय मंदिरोमां न्याय मेळववो केटलो कठण अने खर्चाळ छे ? (८) विद्या वधतां विनय विवेक वधी रह्यां छे के विलासो ? (९) प्रजा अने राजकीय वर्गमां नैतिक भ्रष्टाचार केटलो पांगर्यो छे ? आवा आवा अनेक दुगुर्णो जो जनसमूहना जीवनमां वणाई जाय तो पछी जीवनमां शुं प्राप्त थाय ?
(१) करोडो आफतो
(२) लीला के सूका दुष्काळो
(३) राष्ट्रीय युद्धो
(४) प्रादेशिक तोफानो
(५) राजकीय परिताप
(६) सामाजिक कलह (७) कौटुंबिक क्लेश (८) पारस्परिक अविश्वास (९) रोगोनो वसवाट
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आजे आपणी पासे मात्र अशांति सिवाय शुंछे ? जो विश्वने शांति जोईए तो एने नीति नवी अपनाववी जोईशे, अन्यायादि दूर करी गुणो केळघवा तनतोड प्रयत्न करवा जोईशे. " साधूनां यत्र सत्कारो, दानमानादिभिः शुभः । तत्र देशे समाजे च, श्री-धृति-कीर्ति-कान्तयः ॥ ७६. यत्र देशे सदाचाराः, सद्विचाराश्च देहिनाम् । तत्र वृष्टयादिभिः शान्तिः, योगक्षेमसुखादयः ॥ ७७.
[ नीतियोग] जे देशमां दान सन्मान वगेरे द्वारा साधु-पूज्य पुरुषोनो सत्कार थाय छे, ते देशमां अने ते समाजमा लक्ष्मी, धैर्य, यश, ओजस विगेरे होय छे. जे देशमा मानवो सदाचारी अने सदविचारशील होय छे त्यां सारा वरसाद वगेरे थाय छे अने शांति, योगक्षेम, सुख वगेरे सहज आवी मळे छे. ७६. ७७. __आजे विश्व दुःखमां सबडी रह्यु छे. एने ऊगरवाना बे मार्ग छे. संयम अने विनाश. सौ पोताना जीवनने सुसंयमित बनावे. मैत्र्यादि भावो जगज्जीव साथे बांधे, तो विनाशना आरे होवा छतां विश्व ऊगरी शके. नहि तो विनाश तो छ ज. गुणो नहि केळवीए तो विप्लव साय अने पृथ्वीनो बोजो ए रीते हळवो बने.
पूज्य ज्योतिर्धर एवा आ महापुरुष ग्रन्थकारना ग्रंथनो समन्वयात्मक अभ्यास थाय अने ए रीते जीवनना ताणावाणानी सुयोग्य गुंथणी थाय तोज ए महापुरुषनी विश्वोद्धारनी भावना मूर्त बने. समन्वयात्मक अभ्यास करतां जीवननी विसंवादिता टाळी जीवनने समन्वयात्मक बनावg वधु आनंदप्रद रहेशे. उपसंहार :
आ ग्रन्थ सर्वमान्य नियमोथी सुसंबद्ध छे अने ए माटे कोई ना न कही शके, ए छतां केटले अंशे ए व्यापाक बनशे ए हाल न कही शकाय, कारण के ग्रन्थकार पूज्य श्री योगनिष्ठ पुरुष होवा छतां एमणे जीवनमां जैनदर्शन अपनावेलो. अन्तिम तीर्थाधिपति परमात्मा श्री महावीर स्वामी एमनी रगरगमां व्यापक
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हता. 'ॐ अहं महावीर' आ एमनो प्राणमंत्र हतो. अणु अणुमा जैनधर्मनी श्रद्धा अविचल रंगथी रंगायेली हती.
एटले आ ग्रन्थ जैनोनो छे एम मानी घणो वर्ग आ ग्रंथरत्नथी दूर रहेशे. आजे पण अन्य ग्रंथो जैनाचार्य रचित सारा सारा हयात छे. श्री हेमचंद्राचार्य- व्याकरण 'सिद्ध हेम', कवि धनपाल कृत 'तिलकमंजरी', योगशास्त्र, तत्त्वार्थसूत्र, शास्त्रवार्तासमुच्चय, योगदृष्टिसमुच्च, षड्दर्शनसमुच्चय, योगबिंदु, रत्नाकरावतारिका, स्याद्वाद रत्नाकर एवा अनेक ग्रंथो छे, छतां संकुचितताना दायरामां आवी पडेलो बहोळो वर्ग अतडो रेहतो आव्यो छे. अने ए वारसागत चेप आ ग्रन्थने पण लागवानी भीति नकारी न शकाय.
जो ग्रन्थकार महर्षि संकुचित मनोभाव धरनारा रह्या होत तो ए पण आ परमतत्त्वने न मेळवी शकया होत. पण महापुरुषना आत्मामां एवी भव्यता होय छे. ए कोई संकुचित बन्धनोमां रहेता नथी, रही शकता नथी. ए पुरुषश्रेष्ठ व्यक्तिओ सत्य तत्त्व ज्यां भाळे त्यां झूकी पडे. एमने वादथी संबंध नथी होतो, पण तत्त्व साथे नातो जोडेलो होय छे. ___अन्तमां ए ज्योतिर्धर महापुरुश्रीना प्रवर ग्रन्थ उपर मने प्रस्तावना लखवानुं मळ्यु ए पण माएं सद्भाग्य मार्नु छु. हुं एमना चरणनी रज लेवा जेटलो भाग्यशाळी नथी बन्यो, मात्र एमना लेखित ग्रंथोनां अमृत वचनोनुं पान करवानुं भाग्य मळ्युं छे,
ग्रंथकारश्रीना उदात्त आशयने हुँ घणे स्थळे न पण समज्यो होउं अने ते कारणे एमना आशयथी प्रतिकूळ कांई मतिमंदतादि दोषथी लखाई गयुं होय, तो हुँ नम्रपणे क्षमा याचुं छु. __आ ग्रंथर्नु, छेवटे एमांथी वीणेला अमुक प्रलोकोनुं अने एना अर्थोनुं मनन-परिशीलन थाय तो ए मनन-परिशीलन करनार महानुभावोने अवश्य लाभ थशे ज.
आ ग्रंथरत्ननो बहोळो प्रचार अने बहोळो विचार थाय एज अन्तिम अभिलाषा. वि सं. २०२३. भा. सु. ५२ ने शुक्रवार शिहोर, [ सौराष्ट्र]
मुनि क्षमासागर ॥ जयउ सवण्णु सासणं ॥
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* अनुक्रमणिका *
१२१
१३२ १३.
प्रथमाध्याये श्रद्धायोग : द्वितीयाध्याये प्रेमयोग : तृतीयाध्याये कर्मयोग : चतुर्थाध्याये धर्मयोग : 'पञ्चमाध्याये नीतियोग : षष्ठाध्याये संकारयोग : सप्तमाध्याये शिक्षायोग : अष्टमाध्याये शक्तियोग : नवमाध्याये दानयोग : दशमाध्याये ब्रह्मचर्ययोग : एकादशाध्याये तपोयोग : द्वादशाध्याये त्यागयोग : त्रयोदशाध्याये सत्संगयोग : चतुर्दशाध्याये गुरुभक्तियोग : पञ्चदशाध्याये ज्ञानयोग : षोडशाध्याये योगोपसंहारयोग : मन्त्रयोग : गौतमस्तुति : श्रेणिकादि स्तुति : चेटकस्तुति : शक्तियोगानुमोदना इन्द्रादिस्तुति :
१५७ १६२ १९१ २०३. २१५ २१८ २२० २५१
२५४
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* श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी साहित्य प्रकाशन
ग्रन्थमाळा पुष्प तेरमुं
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श्रद्वैव परमं बह्म, श्रद्धेव परमं बलम् । *श्रद्धेवज्योतिषां ज्योतिः, श्रद्धातः सर्वसंपदः॥ * यत्र धर्मो भवेत्सत्यो, जयस्तत्रास्ति निश्चलः। यत्राधर्मो भवेत्तत्र, दुःखराशिपरम्परा ॥
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णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स
अध्यात्मज्ञान दिवाकरैः, अष्टोत्तरशतग्रन्थप्रणेतृभिः, स्व-परशास्त्रविशारदैः, योगनिष्ठाचार्य प्रवरैः, श्रीमद - बुद्धिसागरसूरीश्वरैः विरचिता श्री जैन महावीरगीता
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वेदागमाश्च पूर्वाणि, दृष्टिवादस्तथेतरत् । तेषां यत्र समावेशः, प्रोच्यतां तन्महाप्रभो ! ॥ १ श्रद्धायां मम वासोऽस्ति, श्रद्धावाँल्लभते शिवम् । मच्छ्रद्धाभ्रष्टजीवानां, दुर्गतिर्नैव संशयः ॥ २
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(धर्मयोगः)
जैन धर्मा छङ्गिः कोऽपि नैव धमेविलो क्पते जैनधर्मेन यो धर्मो मः सथर्मो भुवि नोकदा७द्दता सर्वे धर्माः प्रतिष्ठिताः
जैनधर्मे मया प्रोक्ते
ज्ञा येते नैव योगेभिः॥७७२
भिन्न धर्म स्पना म्नाऽपि ममैया न्ति मानवाः ॥७६९" भिन्न सत्यां धर्माणां कर्मफल दो। सम्य हुम् अतः सर्व जनैः सेव्यो ममसं यभेदतः ॥ ७७० मत्स्मृति ध्यान योगेन मुक्तः सं यान्ति पापिनः सर्व धर्मान्यरित्यज्य भजध्वं मां सुभावतः॥७७९ कर्तृत्वादि प्रवा देत मद्रूपं कथ्यते बुधैः तथापि पूर्ण मद्रूपं असंख्य दृष्टिमः सद्रि-मत्स्वरूपं विवर्ण ते असंख्य दृष्टिभिर्दृष्टं तद्रूपमं तो मम ॥ ७७३ असंख्य दृष्टितो धर्मावर्त्तन्ते येधरातले नै मद्धम दधे रं मर्मा भिन्नता श्रिताः॥७७४ अतो मर्म आदेयः सर्वधर्म महोदधिः सर्वधर्माम्बु राशिमां भजध्वं भावतो जनाः ॥ ७७५ परब्रह्म च रूपये महावीरं जगत्प्रभुम् मां सेवन्ते जना स्तैस्तु सर्वधर्मा निषेविताः॥७६॥ मासवः समा यान्ति द्वैता है ता दिदृष्टयः सर्व दृष्टि स्वरूपं मां भजे ध्वं पूर्ण भक्तितः ॥७७७॥ साकारत्र्य निराकारं मत्स्वरूपं व्यवस्थितम् धर्मादर्शचरित्राणां सागरोऽहं स्वभावतः॥७८॥ सर्वावस्था चरित्रेषु सर्वधर्माः प्रतिष्ठिताः मचरित्र रूपा देश्याँ धर्म मार्माः सनातनाः ॥७७९ मारिषु स ोधाः सर्वावस्था ऽधि कारिणाम् योग्य स्वरूपातु सन्ति धमश्र्विधर्मिणाम्॥७८० मदुक्तं सर्व मालम्ब्य महूपैकधारिभिः द्वादशाङ्गीच पूर्वा रचिता निगमास्तथा ॥ ७८९॥ देषु सर्वेषु धर्माणां सत्यतत्त्वं प्रदर्शितम् मदेशना रहस्यानि ज्ञायन्ते ज्ञान योगिभिः ॥७२॥ वेदाः सना हनाः सर्वे भरतेनप्रवर्त्तिताः
तत्त्वरूपेण नित्याः स्यु-र नित्या: माद्रूपतः ७८३० मत्सदा गम वेदानां पारं यान्ति न कोविंदा. नित्या! तित्यादिधर्माणां व्यवस्था तत्र दर्शिर्श ॥७७८४
શ્રીમન્ના સ્વહસ્તાનરે ∞સ્વામ્રુત્વ મા ગ્રન્થનું ઝેવપૃષ્ઠ.
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श्री जैन महावीरगीता
प्रथमाध्याये श्रद्धायोगः
प्रणम्य श्री महावीरं, गणेशा गौतमादयः । भूपालाः श्रेणिकाद्याश्च, पप्रच्छुः प्रेमभक्तितः॥ सर्वधर्माः प्रयुध्यन्ते, नश्यन्ति संशया यतः । सर्वधर्मस्य यत्तत्त्वं, प्रोच्यतां तद्दयानिधे ! ॥ वेदागमाश्च पूर्वाणि, दृष्टिवादस्तयेतरत् । तेषां यत्र समावेशः, प्रोच्यतां तन्महाप्रभो ! ॥ श्रुत्वैवं गौतमादीनां, विज्ञप्ति जगदीश्वरः । धर्मयोगरहस्यानि, प्रोवाच केवलिप्रभुः॥ ममाऽनन्यपरो भक्तो, मत्स्वरुपो न चान्यथा । मच्छूद्धाधर्मयोगेन, मुच्यते सर्वकर्मतः॥ श्रद्धायां मम वासोऽस्ति, श्रद्धावाँल्लभते शिवम् । मच्छ्रद्धाभ्रष्टजीवानां, दुर्गतिनैव संशयः॥ सर्वनामस्वरूपादियोगैः सर्वत्र सर्वथा। अर्हनामादिसच्छब्दर्भक्ता गायन्ति मां सदा ॥ साकारश्चनिराकारं, मां सर्वज्ञमुपासते । भक्ताः श्रद्धालवो मुक्तिं, प्राप्नुवन्ति न संशयः॥
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[प्रथमाध्याये पूर्णश्रद्धास्वरूपेण, व्यापकोऽहं स्वशक्तितः।। अनन्तानि स्वरूपाणि, ज्ञानादीनि भवन्ति मे ॥ पूर्णाद्वाप्रवाहेण, बहिरन्तर्वसाम्यहम् । मत्स्वरूपं विजानाति, श्रद्धावान्नैव नास्तिकः ॥ १० अनेकजन्मसंस्काराच्छ्रद्धावान्मां प्रपद्यते। गुरुकृपातः श्रद्धावान् , प्राप्नोति मां प्रयत्नतः ॥ शास्त्रकोटिं परित्यज्य, भजध्वं श्राद्धया हि माम् । अहं वः सर्वदोषेभ्यो, मोचयिष्यामि भावतः॥ १२ सच्चिदानन्दरूपेण, सर्वत्र ब्रह्मदर्शकः । भक्तोत्तमः स मन्तव्यः, पुण्यात्मा पापनाशनः ।। मत्स्वरूपाः सदाऽर्हन्तः, सूरि-वाचक-साधवः । मदीयशुद्धरूपाः स्यु-र्वीतरागाः स्वयंभुवः ॥ जिनोऽहं सर्वजनेषु, बुद्धोऽहं बौद्धधर्मिषु । वैषणवानामहं विष्णुः, शिवः शैवेषु वस्तुतः ॥ कृष्णोऽहं वासुदेवोऽहं, महेशोऽहं सदाशियः। सर्वगुरुस्वरूपोऽहं, श्रद्धावान्मां प्रपद्यते ।। सागरोऽहं समुद्रेषु, गङ्गाऽहं स्यन्दिनीयु च । सर्वशक्तिषु शक्तोऽहं, भक्तानां भक्तिकारकः ॥ १७ महापापा जनाः शीत्रं, मद्भक्त्या स्वर्गगामिनः । प्राप्नुवन्ति शुभा मुक्ति, मद्भक्ताः सहन नावतः ॥ १८ वर्णयितुं न सर्वज्ञः, शक्तोऽस्ति भुवन त्रये । श्रद्धामाहात्म्यमुत्कृष्टं, वाण्या पूर्ण न कथ्यते ॥ १९ अपूर्वा तु मम श्रद्धा, नास्तिकैः प्राप्यते कथम् ? । प्राप्यो नाऽहं बहिर्बुद्वया, नैव तर्कशतैरपि ॥
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श्रद्धायोगः] श्रद्धावान्मामवाप्नोति, नान्यः पन्था मदाप्तये। मोहपापावृतैलोकैनैव प्राप्यः कदाचन ॥ अद्धावद्भिः सुविश्वास्यो, विपत्तिसङ्कटेश्वहम् । सर्वदुःखसमुद्धा, सद्भक्तानां सदा प्रियः ॥ मम प्रियाः सदा भक्ताः श्रद्वावन्तो विपत्तिषु । यत्र श्रद्धालवो भक्तास्तेषां हृदि वसाम्यहम् ॥ श्रद्धावतः परीक्षेऽहं, दुःखकाले विशेषतः। तथापि न भवेयुर्ये भ्रष्टास्ते मे बहुप्रियाः ॥ प्रत्यक्षोऽहं सदा तेषां, भवामि नैव संशयः। मच्छ्रद्धायुक्तभक्तानां, रक्षकोऽहं सुरागिणाम् ॥ २५ सात्त्विकाः सर्वभक्तेषु, श्रद्धावन्तो मम प्रियाः । रक्षगार्थ सदा तेषां, व्यक्तरूपो भवाम्यहम् ॥ श्रद्धया प्राप्यते धर्मः, अद्धया ब्रह्मदर्शनम् ।। अद्धा ख्याता महादेवी, स्वात्मजीवनजीविका ॥ विश्वोपयोगिनी द्वा, श्रद्धाम्बा सर्वरक्षिका । श्रद्धास्वरूपं मां ज्ञात्वा, श्रद्धां भजत देवताम् ॥ २८ अविश्वासं परित्यज्य, श्रद्धाङ्गीक्रियतां जनाः ।। श्रद्धया भगवद्पा, भविष्यथ न चाऽन्यथा ॥ अह-ब्रह्म-स्वरूपोऽहं, सच्चिदानन्दधर्मवान् । तीयेशा आदिनाथाद्या सत्तातो मत्स्वरूपकाः ॥ ३० वपुर्वाणि-मनोरूपं, मत्स्वरूपं तु बाखतः । आन्तरं दर्शन-ज्ञान-चारित्रं शुद्धभावतः॥ आत्मरूपेण सर्वत्र, सत्तातः सर्वदेहिषु । व्यापकोऽहं चिदानन्दः प्राप्योऽस्मि श्रद्वयाऽखिलैः॥ ३२
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| प्रथमाध्याये
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अन्तः शक्ति - महाश्रद्धा, मत्स्वरूपा सनातना । आस्तिकानां महामाता, मत्तोऽभिन्ना निबोधत ॥ मम चैतन्यसत्तायां, श्रद्धा भवति निश्चला । यस्य तद् वृद्धये व्यक्तो भवामि पूर्णभावतः ॥ श्रद्वैव परमं ब्रह्म, श्रद्वैव परमं बलम् । श्रद्वैव ज्योतिषां ज्योतिः, श्रद्धातः सर्वसंपदः ॥ सर्वाधारा सदा श्रद्धा, श्रद्धा प्रामाण्यकारिका । यत्र श्रद्धा स्थिरा तत्र, लक्ष्मी - कीर्त्ति - शुभाशयाः ॥ ३६ श्रद्धायाः सर्व पर्याया, मत्स्वरूपप्रकाशकाः । श्रद्धारूपेण सेवन्ते, मां तेषां शर्मकारकः ॥ श्रद्धांविना बलं नास्ति, धैर्य नास्ति च साहसम् । श्रद्धयैव विकासन्ते, स्वात्मनः सर्वशक्तयः ॥
श्रद्धाचार- बलं पूर्ण, सर्वदोष - विनाशकम् । सर्वकार्याणि सिद्धयन्ति मच्छद्धाश्रयतः स्वतः ॥ मच्छ्रद्वा यत्र तत्राऽस्ति, मामकीनं बलं शुभम् । मच्छ्रद्धाकर्षिता देवा, देव्यश्च सर्वशक्तयः ॥ देवेशं मां हृदि ध्यात्वा, पूर्ण श्रद्धायुताजनाः । कुर्वन्ति यानि कर्माणि तेषां सिद्धिं करोम्यहम् ॥ अहं श्रद्धास्वरूपेण, हृदि श्रद्धात्मनां स्थितः । प्रत्यक्षीभूय धर्मस्य, दृष्टारं मां निबोधत ॥ आध्यात्मिकी महाश्रद्धा, देवी भगवती स्थिरा । नानारूपेण जीवानां हृदि तिष्ठति सर्वदा ॥ ब्रह्मशक्तिस्वरूपा सा, मच्छ्रद्वा हृदयोद्भवा । सर्वथा सर्वजीवानां धर्ममूला प्रवाहतः ॥
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श्रद्धायोगः सर्वदेशीयलोकेषु, ब्रह्माण्डेषु वसाभ्यहम् । यः कोऽपि सेवते श्रद्धा, तं सेवे प्रेमतः सदा ॥ सर्वोत्कृष्टा महाश्रद्धा, सर्व-स्वार्पण-कारिका । सर्वस्वार्पणकत्तृणां, समुल्लसन्ति शक्तयः॥ पूर्णश्रद्धाबलेनैव, मां सर्वत्र विजानत। भक्तस्यात्मप्रदेशेषु पूर्णशक्ति ददाम्यहम् ॥ श्रद्धावत्सु बलं यादृक् ताइवीर्य न नास्तिके । अनन्तवीर्यरूपेण महासः सर्वदेहिषु ॥ श्रद्धा प्रमाणतो वीर्य, श्रद्धावत्सु प्रकाशते । जीवाः प्रभुसमा बोध्या मच्छद्धातो महीतले ॥ सर्वाचार-विचारेषु, श्रद्धया सर्वसत्यता। असत्यं विपरीतं यच्छ्हाहीनमसन्मतम् ॥ विश्वासः सर्वजीवानां, धर्माचारप्रवर्तकः । आत्मविश्वासनाशे तु, वीर्यनाशो भवेन्नृणाम् ॥ ५१ मविश्वासे स्थिते सर्व, सत्यं प्रेयञ्च भासते । यत्र कुत्रापि सच्छूद्धा, तद्रूपं मामकं मतम् ।। धर्म-देव-गुरुश्रद्धा, नानारूपा शुभावहा । श्रद्धा सा मत्स्वरूपति, ज्ञात्वा मां भजतात्मनि ॥ ५३ असुरा नास्तिका बोध्याः, सुरा विश्वासधारकाः। विश्वासिनां समुद्धा, पालकोऽहं सनातनः ॥ अतः श्रद्धास्वरूपेण, मां भजध्वं जनाः सदा । मच्छरणागता जीवाः सिद्धा बुद्धा भवन्ति ते ॥ देहरूपावतारा मे, सर्व-जीवोपकारकाः । अर्हन्तो वीतरागा ये, चिसत्ताव्यक्तितः शुभाः ॥ ५६
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तनुभृद्गुरवो ये ये, दर्शन - ज्ञानधारकाः । ते मत्सत्तास्वरूपेण, योगिनो ज्ञान- सागराः ॥ पश्यन्तस्तेषु मां तस्मात् पश्यन्तो मयि तान्सदा । कर्म कुर्वन्ति ये भक्ता, मदभिन्नाः शुभङ्कराः ॥ जन्म - मृत्यु - जरातीता, मच्छ्रद्धायुक्तदेहिनः । मन्तव्याः कालजेतारो, मुक्तधामाश्रिताः शुभाः ॥ मच्चिन्ता मत्परा जीवाः, सर्वोऽहमिति वेदिनः । ते प्राप्नुवन्ति मद्राम, पूर्णानन्दमयं परम् ॥
[प्रथमाध्याये
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आत्मनः परमात्मत्वं, प्रपद्यन्ते ममाश्रिताः । अहं देवं विदित्वा मां मुच्यन्ते कर्मबन्धनात् ॥ कुतर्कान्सर्वशङ्काश्च त्यक्त्वा मां भजतात्मनि । श्रद्धावतः समुद्धृत्य मत्स्वरूपान् करोम्यहम् ॥ समुपास्या सदा श्रद्धा श्रद्धावद्भिः शिवङ्करा । पितेव सर्वजीवानां शर्मकत्री स्वभावतः ॥ सर्वजातिबलेष्वेव, भक्तियोगो महाबलः । सेव्यमानस्तु मातेव सर्वत्र सर्वशक्तिदः ॥
॥ इति श्री जैन- महावीर - गीतायां श्री श्रद्धायोग-नामकः प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ॥
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द्वितीयाध्याये प्रेमयोगः नाऽहं स्वर्गे च पाताले, भक्त्यां वासोऽस्ति मे सदा । मद्भक्ता यत्र तत्राहमानन्दाद्वैतरूपतः ॥ भक्तियोगरसो बोध्यः, प्रेमैव व्यक्तहर्षदः। व्यक्तब्रह्म महाप्रेम, मत्प्राप्तिः प्रेमतो भवेत् ।। अज्ञानामपि बालानां, मुक्तिः प्रेम्गा प्रजायते। सर्वत्र सर्वजीवेषु, भवत प्रेमधारिणः ॥ विशुद्धप्रेमताऽऽधारः, सोऽहं साक्षान्निबोधत । प्रेमाऽवतारिणः सन्तः, सर्वथा ते मम प्रियाः ।। माता भक्तिः पिता ज्ञानं, सर्वत्र सर्वदेहिनाम् । विना भक्ति न को भव्यो, ब्रह्मानन्दं विलोकते ॥ विशुद्धब्रह्मलाभार्थ, विशुद्धप्रेमजीवनम् । प्राप्तव्यं सद्गुरोः पूर्णा, कृपां प्राप्याऽग्विले नैः॥ माता ब्रह्म पिता ब्रह्म, साक्षाद्ब्रह्म स्वयंगुरुः । ब्रह्मरूपा विबोद्धव्याः, सर्वजीवाः सनातनाः ।। मित्रं ब्रह्म तथाचार्याः, सर्वत्र सर्वदेहिनः। प्रेम्णा ब्रह्मस्वरूपं सज्झाता भक्तो महेश्वरः ॥ वैषयिकोऽशुभो रागः, प्राणिनां कर्मबन्धकः । धर्ममूलं तु सत्प्रेम, सर्वविश्वासकारणम् ॥ श्रद्धामूलं तु सत्प्रेम, सर्वाकर्षण-कारणम् । निर्दोषप्रेमतो भक्त, आनन्दाद्वैतमश्नुते ।
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[द्वितीयाध्याये प्रेममूला प्रभोभक्ति-निर्दोषा विश्ववत्सला। इष्टं मिष्टं प्रभुप्रेम, प्राप्यते भव्यसात्त्विकैः ॥ अस्त्यात्मार्थ प्रियं सर्व, नाऽन्यथा प्रियता कदा। यत्रात्मा प्रियता तत्र, जायते ब्रह्मदर्शनम् ।। आत्मनः सर्वकामाय, प्रियं सर्व न चाऽन्यथा। प्रियात्मा सजीवाना-मतः प्रेम प्रशस्यते ।। महारसं परिज्ञाय, प्रेमैव तद्विधीयताम् । प्रशस्य सर्वधर्मार्थ, नाऽन्योपायोऽस्ति तद्विना ॥ १४ आत्मान्धौ प्रेममग्नानां, ब्रह्मानन्दः प्रजायते । आत्माऽऽत्मनाऽऽत्मनिर्भग्नः, सर्वत्र ब्रह्म पश्यति ॥ १५ प्रेमयोगं विना विद्वान् , मत्स्वरूपं न पश्यति । बहिरन्तः प्रभुं पश्यन् , प्रभुरूपः स्वयं भवेत् ।। प्रेम परीक्षते ब्रह्म, मोक्षस्य कारणं महत् । शुद्धब्रह्मनिमग्नानां, पुनर्जन्म न विद्यते ॥ अनन्ताः प्रेमपर्यायाः, शुद्धाऽशुद्ध स्वरूपतः । आत्मनः सर्वपर्यायास्ते मे कर्माऽनुभावतः ॥ भक्ताधीनो महावीरो, वेद्योऽहं सर्वरक्षकः । प्रेम्णा मयि प्रलीनस्य, सर्वसिद्धिं करोम्यहम् ॥ प्राप्ते मृत्यौ न यो द्वेषी, रागी च नैव जीवने । जैनशासनवृद्धयर्थं, जीवति मयि रागवान् ॥ मत्प्रेमा जीवनाऽऽहतिं, ददाति धर्मरक्षणे । मुह्यति नैव मोत्येषु, भावषु वासनाबलात् ॥ मयि संपूर्णसत्प्रेमा, वदेही भवति स्वयम् । वादानां प्रतिवादानां, नात्र किञ्चित्प्रयोजनम् ॥ २२
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प्रेमयोगः ]
मयि स्वाभाविकप्रेमा, पूर्वजन्मानुभावतः । निःशङ्कः सर्वथा भूत्वा वर्त्तते योग्यकर्मसु ॥ मद्भक्तिः सैव बोद्धव्या, सर्वशक्तिप्रदायिका । सर्वशक्तिस्वरूपं मां, भक्ता भजन्ति शक्तये ॥ बाह्यान्तरस्वशक्तीनां, विकासाय प्रवृत्तयः । भक्तिरूपा विबोद्धव्या, मद्भक्तानाञ्च बुद्धयः ॥ भक्तिरूपाः सदा ज्ञेया, आपद्धर्मप्रवृत्तयः । hot धर्मस्य साम्राज्य- रक्षार्थ सर्वदेहिनाम् ॥ हार्दिक प्रेम कर्त्तारो, मद्भक्ताः पूर्णयोगिनः । मोह - दोषं परित्यज्य, कर्मातीता भवन्ति ते ॥ शुद्ध प्रेममयाः सन्तो भवन्ति मुक्तिगामिनः । प्रेमहीना न पश्यन्ति, स्वात्मानं मां जगत्पतिम् ॥ प्रेमतः सत्यसंबन्धाः प्रेम स्वात्मार्थ कारकम् । जायन्ते धर्मिणः शीघ्रं प्रेमज्योतिर्विलासिनः ॥ यत्र प्रेम दया तत्र, स्वात्म - भोगादिसङ्गणाः । वसन्ति नात्र संदेहः, सत्यमेव ब्रवीम्यहम् ॥ प्रेमहीना जनाः शुष्का, आसुर भावसंश्रिताः । क्रूराः स्वार्थाश्रया बोध्या, दुष्टा विश्वासघातिनः ॥ तार्किकाः शाब्दिकाः शुष्का-स्तथा विज्ञानवादिनः । विना प्रेमतया जीवाः, सर्वत्र दुःखभागिनः ॥ प्रेमभक्तिप्ररूढस्य, मर्यादा का न विद्यते । सर्वकर्तत्र्यकार्येषु, स्वातन्त्र्यमर्हति स्वयम् ॥ वैरागिषु प्रभो रागः, शुद्धः सञ्जायते स्वतः । शुद्धपरार्थकर्त्तारो, भक्तास्ते त्यागिनः सदा ॥
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[द्वितीयाध्याये ये ये प्रेमविकारास्ते, दुष्टकामप्रदीपकाः। तान्सन्त्यज्य मम स्नेही, सत्प्रीतिं धारयेद् हृदि ॥ ३५ जीवान्विज्ञाय मद्रूपान् , सर्वजीवेषु मां भजन् । आत्मनः परमात्मत्वमाप्नोति, भक्तिमान्नरः ॥ ३६ सत्तातः सर्वजीवेषु, मत्सिद्धत्वं हृदि स्मरन् । स्वात्म-सिद्धत्वमाप्नोति, प्रीत्या मल्लीनताश्रमी ॥ ३७ सर्वकर्तव्य-कर्माणि, करोति प्रेमभक्तितः । धृत्वा मां हृदि सन्तोषी, मद्भक्तः प्रीतिमान् शुभः ॥ ३८ मां विनाऽन्यपदार्थेषु, नैव द्वेष्टि न कांक्षति । निर्लेपः प्रभुधर्मी स, प्राप्नोति मगति स्थिराम् ॥ ३९ मन्मयं जीवनं कृत्वा, मयि प्रेम जुहोति यः । स सर्वेश्वरतां प्राप्य, पूर्णानन्दं समश्नुते ॥ जडे शुभाऽशुभं भावं, त्यक्त्वा मन्मयतां गतः । मयि प्रेमविलीनो यः, स संन्यासी च योगिराट् ॥ ४१ प्रेम्णा ब्रह्मणि लीनस्य, निष्कामत्वं प्रजायते । प्रेमपक्क-महाभक्तः, कालातीतः प्रभुः स्वयम् ।। कृत्रिमप्रेम सन्त्यज्य, भव्या भजत मां प्रभुम् । सत्यप्रेम मनुष्याणां प्राप्तव्यं नाऽवशिष्यते ॥ स्वार्थाय परमार्थाय, प्रेमाऽवश्यकता शुभा। प्रेममूलाः सुसंबन्धाः णा सर्वत्र मिष्टता ॥ स्वातन्त्र्यमात्मनः प्रेम्णा, तथा प्राणाऽर्पणं स्वतः । आस्तिक्यं प्रेमतो बोध्यं, सर्वत्र सर्वदेहिषु ॥ एकधा च द्विधा प्रेम, त्रिधा प्रेम स्वभावतः। आनन्त्यं प्रेम सत्ताया, जीववृत्तिविभेदतः ॥
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प्रेमयोगः] नित्यं नैमित्तिकं प्रेम, सर्वजीवेषु दृश्यते । यथावृत्तिस्तथा प्रेम, तारतम्यविशेषतः॥ सत्यप्रेम भवेद्यत्र, तत्र सर्वे गुणाः स्थिताः । अतः प्रेमोद्भवार्थ यत्सत्कर्तव्यं विकतः ॥ यत्र स्वात्मरतिस्तत्र, कर्तव्यं प्रेम मानवैः । ततः स्वात्मोन्नतिः पूर्णा, मया सत्यं प्रभाषितम् ।। स्वात्मवत्सर्वजीवेषु, कर्त्तव्या सत्यरागता । स्वार्थवदन्यजीवानां, स्वार्थेषु च सहायता ।। सर्व विश्वं मयि ज्ञात्वा, युष्मासु च परस्परम् । ओतप्रोतं परिज्ञाय, भवन्तु भक्तियोगिनः ।। मनःकायप्रवृत्यैव, कर्तव्या शुद्धरागता । मन्मयाः स्वान्तरे भूत्वा, कुरुध्वं कर्म सज्जनाः ॥ ५२ प्रेमाग्नौ कामदोषाद्या, भस्मीभूता भवन्ति हि । शुद्धप्रेमाग्निसंस्नातस्तस्य दुःख न विद्यते ॥ कृपाऽस्लेव गुरोः प्रेम्णा, प्रेम चिन्तामणीयते । प्राप्तव्यं न विना प्रेम, कर्तव्यञ्च न सिद्धयति । प्रेम्णा स्याचित्तसंशुद्धिरात्मशुद्धिश्च जायते । प्रेम्णा भयं न कुत्राऽपि, प्रेम्णा द्वषो निवर्त्तते ॥ सद्गुरोस्तुष्टये प्रेम, मन्त्र-यन्त्रात्मकं महत् । अतः सर्वप्रकारेण, भवन्तु गुरु-रागिणः ॥ परब्रह्म गुरु पश्यन् , मद्रागी तु गुरुर्महान् । सर्वदेवान्गुरौ पश्यन् , पूर्णानन्दमवाप्नुयात् ॥ ईश्वरं सद्गुरुञ्चैकं, यः पश्यति स पश्यति । प्राप्तव्यं यन्मया तत्त, सद्गुरुणैव लभ्यते ॥
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[ द्वितीयाध्याये मत्स्वरूपं महाप्रीत्या, ज्ञात्वा श्री सद्गुरुं शुभम् । सर्वस्वार्पणसद्भक्त्या, भजन्तु सद्गुरुं जनाः ॥ गुर्वाशीः प्रेम सद्भक्त्या, प्राप्यते सत्यशिष्यकैः । आत्मोन्नतिपथान्सर्वान् , सद्गुरु-दर्शयिष्यति ॥ प्रेम्णोत्साहश्च सद्धर्य, प्रेम्णा ध्येयेषु लीनता। स्थैर्य वीर्य च गाम्भीर्थ, मेम्णा सञ्जायते नृणाम् ॥ ६१ प्रेम्णा ब्रह्मसुखास्वादो, मुक्तिहस्ततल-स्थिता । साहसं पूर्णसन्तोषो, दाम्पत्यञ्च क्षमा परा ॥ यत्र प्रेम भवेत्तत्र, लेही दोषान्न पश्यति । सर्वत्र व्यापकप्रेम्णा, निर्दोषमीक्षते जगत् ॥ प्रेम्णा वैरस्यना शोऽस्ति, द्वेषो वैरण वर्द्धते । अतो विश्वोपरि प्रेम, धार्य मत्प्रेमयोगिभिः ॥ प्रेम्णा धर्मस्य सद्वृद्धिः, प्रेम्णा धर्मस्तु रक्ष्यते । यत्र प्रेम न किं तत्र, प्रीत्यां दोषो न विद्यते ॥ मम नामाकृतिद्रव्य-भाधेषु प्रेम धार्यताम् । मन्नाम भजनं प्रेम्णा, सर्वपापनिवर्त्तकम् ॥ सर्वज्ञं मां महावीरं, ज्ञात्वा मत्प्रेम सेव्यताम् । भक्तानां सर्वजीवानां, रक्षकोऽहं प्रभुर्महान् ॥ सर्व-देवपतिं सर्वविश्वरूपं विजानताम् । मामहन्तञ्च विज्ञाय, सेवध्वं प्रेमयोगिनः॥ सर्वविश्वमयं ज्ञात्वा, अस्ति नास्ति स्वरूपतः । ये जना मां भजन्ते ते, मुच्यन्ते कर्मबन्धनात् ॥ मां कर्तारमकर्त्तार, व्यक्ताऽव्यक्तं प्रवुध्य ये। शुद्ध-प्रीया प्रवर्त्तन्ते, ते जीवाः प्रभुतामयाः
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पाना
प्रेमयोगः] जैनधर्मप्रकर्तारं, सर्वविश्वस्य तारकम् । ममाऽवतारमहन्तं, पूजयन्ति नराऽमराः ॥ मद्रागिर्धामणां सत्पं, कारुण्यं जायते हृदि । मैत्रीमूलं महाप्रेम, धर्मार्थकाममोक्षदम् ॥ मम धर्मस्य कर्त्तारो, मम धर्माऽवतारिणः । जातिचाण्डालभक्ता ये, पवित्रा धर्मकर्मभिः ॥ यादृशस्तादृशो भक्तो, मद्रागी सवतो महान् । मत्समः सोऽपि संपूज्य, आराध्यस्तुल्यसाधनैः ॥ ७४ आर्हता मे सदा भक्ताः, सर्वजातीयमानवाः । गृहस्थाः साधवो बोध्या, योगसन्यासमार्गिणः ॥ ७५ मद्रपं यत्प्रियं तत्त-त्सर्वत्र सर्वथा नृणाम् । वस्तुतः प्रिय आत्मैव, स्थूल-सूक्ष्मेषु जानताम् ॥ सर्वेश्वरोऽहमात्मैव, सर्वधर्मप्रवर्तकः । ईश्वरास्ते महाभक्ता, मत्सद्धर्माऽवलम्बिनः ॥ पापानामपि पापा ये, चतुर्धा घातकारकाः। मन्नामस्मरणाच्छीघ्रं, मुक्तिगा नैव संशयः॥ कोऽपि कल्याणकृव्यो, मच्छूद्धारागयोगतः । ऊर्ध्वस्थान-क्रमारोही, भवेदन्ते शिवंगमी ॥ लेशोऽपि भक्तिधर्मस्य, सर्वभीतिविनाशकः । लेशोऽपि धर्मकार्यस्य, मोक्षमार्गप्रवाहकः ।। कल्याणस्य विचारेण, गुणस्थानं ब्रजेच्छुभम् । कोऽपि कल्याण-कृद्भक्तो, मत्पदं याति निश्चयी॥ ८१ भक्ताः परोपकाराय, जीवन्ति सन्मदाज्ञया। स्खलतामा भक्तानां, मज्जापो मुक्तिकारकः॥ ८२
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१६.
देहिनां मत्पदेच्छूना -मुन्नतिः स्याद्भवे भवे । अन्तराया विनश्यन्ति, शुद्धप्रेमप्रवर्त्तिनाम् ॥ मन्नाम गायका भक्ताः, सन्तो मद्रूप - संश्रिताः । सर्वधा सर्वकालेषु, विश्वपावनकारकाः ॥
क्षेत्र - कालाऽनुसारेण, जैनधर्मस्य रक्षकाः । तीर्थङ्कराः प्रजायन्ते मद्रूपाः सर्वसूरयः ॥ तेषां भक्तिस्तु मद्भक्ति-रैक्यं धर्माऽवतारिणाम् । पूर्ण श्रद्धात्मकप्रेम, तत्र धायें सुधर्मिभिः ।। भ्राम्यन्ते ये न मद्भक्ता, नास्तिकै र्वञ्चनात्कदा | मद्रूपास्ते प्रियाः पूर्णा, मम धर्मप्रचारकाः ॥ तीर्थेशं वासुदेवं मां, प्रेमभक्त्या भजन्ति ये । भक्ता आत्मस्वरूपास्ते, सर्वधर्मप्रचारकाः ॥ प्रेमधर्मो महादुर्गो, मत्प्राप्त्यर्थं विचार्थताम् । मृत्युं प्रेमणि विज्ञाय, भवत मम रागिणः ॥ मदीयप्रेम सामर्थ्य, योगिनाऽपि न बोध्यते । सर्वधर्माः प्रलीयन्ते, मदीयप्रेमावरे ॥ मदीयप्रेमलीनात्मा, यादृशस्तादृशो जनः । सर्वकर्माणि कुर्वन् सन्कर्मबन्धैर्न बध्यते ॥ राजसास्तामसा भक्ताः, सात्त्विकाः प्रेमभेदतः । मम प्रेमन्मनी - भावाद्भवन्ति मुक्तिगामिनः ॥ ममस्ति त्रिविधा भक्ति - रधममध्यमपरा । याञ्चाखेद-भय-द्वेष - मोह युक्ताऽघमाऽशुभा ॥ लोभाशा- स्वार्थ-भेदादि, युक्ता सा मध्यमा मया । ऐहिक - स्वार्थ संपत्ति-दायिनी कथिता नृणाम् ॥
[द्वितीयाध्याये
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प्रेमयोगः] राग-द्वेष-परीणाम-युता संसार-कारिणी। वैषयिक-सुखार्थाय, कृता सा मध्यमोच्यते ॥ मत्पदार्थ जनैर्यद्यन्मनोवाकाययोगतः । क्रियते स्वाऽधिकारेण, प्रशस्यरागसंयुतम् ।। विधाय हृदि मद्रपं, परा सा सत्त्वसंयुता । मदैक्यरूपभक्तिस्तु, प्राप्यते मज्जनः खलुः ॥ मयि विश्वासिनो नित्यं, जगदुन्नतिकारके। यद्भाव्यं तद्भवत्येव, हृदीति कृतनिश्चयाः ॥ नान्यदिच्छति भेदेन, मदभेदस्वरूपिणः । परब्रह्म पदं यान्ति, परा भक्ता मदर्थिनः ॥ प्रारब्ध-कमभोक्तारः, कापि मुह्यन्ति नैव ते । मदर्थ सर्वकर्माणि, कुर्वन्ति शुद्ध-बुद्धितः ॥ मयि लीना मनोवृत्या, बाह्यतः कर्मकारकाः। मन्मयाः सर्वविश्वेषु, मत्स्वरूपविलोकिनः ॥ मत्पदं ते द्रुतं यान्ति, मत्तद्भेदविनिर्गताः। शुद्धब्रह्म विना किश्चित् पश्यन्ति नैव मत्पराः॥ १०२ संपूर्ण मां प्रपश्यन्तः, सर्वजीवेषु सत्तया। आत्मभावेन जीवानां, योगक्षेम-विधायकाः॥ कृत्वा मदर्पणं सर्व, जीवन्ति मत्पदेच्छया । शुभाशुभपदार्थेषु, साम्यभावविधायिनः ॥ भवे मुक्तौ समा भक्ताः, पराभक्तिसमन्विताः। सदा तेषां हृदि व्यक्तो, जाग्रदूपेण भावतः ॥ १०५ यद्यत्कुर्वन्ति तत्सर्व, स्वाऽन्यजीवनहेतवे । सर्वथा मयि संन्यस्य, स्वाऽधिकारेण वर्तिनः ॥ १०६
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त्यागिनश्च गृहस्था ये, सस्वभावेन मत्पराः । जीवन्मुक्तास्तु ते भूत्वा, परया यान्ति सद्गतिम् ॥ आत्मवत्सर्वजीवेषु वर्त्तनं परमार्थतः । उत्तमा सैव मद्भक्ति, सर्वदोषनिवारिका ॥ रसबाह्या निवर्त्तन्ते मद्भक्तिरसयोगतः । मत्तद्भेदो न यत्रास्ति, सा भक्तिर्मत्स्वरूपिका ॥ देहिनां दुःखनाशार्थ - मात्मवत्पूर्णरागतः । क्रियते या प्रवृत्तिः सा, मत्सेवैव शिवप्रदा ॥ सर्वजीवेषु मद्भाव-मनुभूय स्वभावतः । जीवन्ति मत्स्वरूपास्ते, भक्ताः परोपकारिणः ॥ सात्त्विकादि त्रिधा कर्मकारकाः प्रेमयोगिनः । भवान्धौ नैव मज्जन्ति, तरन्ति ते च मन्मयाः ॥ यथा ग्रहादितेजांसि लीयन्ते भानुतेजसि । सर्वदेवास्तथा धर्मा, लीयन्ते मयि सर्वथा ॥ भक्तैर्मदाश्रयात्सर्वे धर्मा आराधिताः खलु । सर्वधर्मान्विहायातो, भजध्वं मां शरण्यकम् ॥ अशरण्यशरण्योऽहं सर्वपापात्मपावकः । महाब्रह्मा महाविष्णुर्वीतरागो जिनेश्वरः ॥ साकारोऽहं निराकारः, श्रद्धावान् प्रेमभक्तितः । निरासक्ततया भक्तः, शीघ्रं मां प्रतिपद्यते ॥ आस्तिकास्ते सदा बोध्या, मन्नामाकृतिरागिणः । निराकाराच्च साकारं, मत्स्वरूपं विशिष्यते ॥ मच्चरित्रं महाप्रेम्णा, शृण्वन्ति वाचयन्ति ये । गायन्ति स्तुवते चैव, ध्यायन्ति मुक्तिगामिनः ॥
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प्रेमयोगः ] असंख्यदृष्टिभिर्ये मां, संश्रयन्ते जनाः सदाः । तदृष्टिभिरहं दृश्यः, शुद्धप्रेमप्रवाहतः॥ असंख्यातानि नामानि, मदीयानि निबोध्य ये। स्मरणं मम भावेन, कुर्वन्ति सिद्धिगामिनः ॥ अहं वीरं महामन्त्रं, श्वासोच्छ्वासंपदैर्जपेत् । आप्नोति स परब्रह्म, जित्वा मृत्युं महाभयम् ॥ १२१ वीरवीरेति मज्जापः, सर्वशक्तिप्रदायकः। लीनो भवति यस्तत्र, तस्याऽस्ति न भयं कचित् ॥ १२२ मद्रपन्तु परब्रह्म, लोकाऽलोकप्रकाशकम् । द्रव्य-पर्यायसद्रूप-मस्ति नास्ति स्वभावकम् ॥ १२३ स्वरूपं मम विज्ञाय, पूर्णप्रीत्या भजन्ति ये । सिद्धा बुद्धाः परेशानाः, शुद्धात्मानो भवन्ति ते ॥ १२४ मद्रागिभक्तजीवानां, सर्वशक्तिविकासकः । अहं साक्षात्परब्रह्म, तनौ व्यक्तोऽस्मि कर्मतः॥ १२५ यं यं भावं स्मरन् भक्तो, भजते तं प्रपद्यते । यादृशी भावना यस्य, तादृसिद्धिं ददाम्यहम् ॥ १२६ तरङ्गा एव पाथोधि-स्तत्र भेदो न विद्यते । जीवानां मे तथाऽभेद आत्मद्रव्यस्य सत्तया ॥ १२७ व्यक्तोऽहं हृदि भक्तानां, ज्ञानिनाश्च विशेषतः। योगिनां शुद्धब्रह्माऽहं, व्यक्तः स्वात्मन्यपेक्षया ॥ १२८ सादृश्यं सत्तया बुद्धा, सर्वत्रैक्यं विभावयन् । सत्तया व्यापकं ज्ञात्वा, मद्रूपं याति रागवान् ॥ १२९ भक्तानामप्यहं भक्तः, सेवकानाञ्च सेवकः । ध्यातॄणामप्यहं ध्याता, सर्वरूपोऽस्मि भक्तितः॥ १३०
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[द्वितीयाध्याये सर्वत्र सर्वरूपं मां, ब्रह्मरूपेण यो भजेत् । कुर्वन्कर्त्तव्यकर्माणि, शुद्धब्रह्म स्वयं भवेत् ॥ कर्तव्येषु विचिन्त्येषु, सर्वेषु ब्रह्मभावकः । सर्वोत्तमः स मे भक्तः, साक्षात्स ईश्वरः स्वयम् ॥ १३२ तत्त्वमस्यादिसन्मन्त्रैर्मत्तद्भेदं विना जनाः। ध्यानं कुर्वन्ति सत्प्रेम्णा, तेषु व्याप्नोमि शक्तितः॥ १३३ सूरयो ज्ञानिनः सन्तो, नश्यन्ति न कदाऽपि ते । मद्धयानान्मत्स्वरूपास्ते, ज्ञातव्या इति मे मतम् ॥ १३४ अनन्ता आगमाः प्रोक्ता-स्तेषामास्तिक्य-धारकाः । स्वर्ग सिद्धिञ्च गच्छन्ति, जैना आर्या अनादिकाः॥१३५ गच्छन्ति दुर्गतिं नैव, निर्लेपास्ते सदा मताः । मन्नाम-जापका वीर-महन्तञ्च जिनेश्वरम् ॥ १३६ दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रिमूर्ति-रूपवानहम् । निन्दन्ति मत्स्वरूपं ये, ते विनश्यन्ति मोहतः ॥ १३७ सर्वागमैश्च सद्वेदः, स्तृयमानो गिरांपतिः। वीरस्तीर्थङ्करः सोऽहं, ध्रौव्योत्पादव्ययी महान् ॥ १३८ अतः सर्वस्वरूपं मां, ज्ञात्वा मन्मयभावतः । सर्वकर्माणि कुर्वन्तो, भजध्वं कर्मयोगिनः॥ ज्योतिषामप्यहं ज्योतिः, सर्ववेदान्तभास्करः। आनन्दानामहं मूलं, धर्म्यतीर्थप्रवर्तकः ॥ अनाद्यनन्तमहन्त, शुद्ध-प्रीत्या भजन्ति माम् । सर्वभूतेषु ते सन्ति, तेष्वहं व्यक्तिशक्तितः ॥ वादाँश्च प्रतिवादाँश्च, सन्त्यज्य सर्व-संशयान् । सच्चिदानन्दरूपं मां, जानन्ति प्रेमयोगिनः॥ १४२
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प्रेमयोगः] मद्भक्तानां द्विषो ये ते, राक्षसा घोरपापिनः । गच्छन्ति दुर्गतिं घोरां, पापबुद्धिहत्ताशयाः ॥ माद्धर्मद्वेषिणो नीचा, लभन्ते नैव सन्मतिम् । रक्षार्थ मम भक्तानां, यत्र तत्रास्मि भक्तितः ॥ १४४ ददामि सत्फलं तेभ्यो, मद्भक्तानर्चयन्ति ये । धर्म-संरक्षणार्थाय, व्यक्तोऽहं नात्र संशयः॥ १४५ धर्माऽवताररूपा ये, महाशक्तिसमन्विताः । महान्तो योगिनो भक्ता, मद्रपा जानतां जनाः ॥ १४६ महाऽवतारिणः सन्त-स्तत्तत्काले विशेषतः । मद्धर्मोद्धारकाः शक्ता, जायन्ते मत्स्वरूपिणः ॥ १४७ एकश्चाऽनेक-रूपोऽहं, सर्वशक्तिमयः सदा । समष्टि-व्यष्टिरूपं मां, पश्यन्ति ब्रह्मचक्षुषः॥ १४८ देहिषु शक्तयो या या-स्तास्ता मे सार्वकालिकाः । सर्वशक्तिषु पश्यन्तो, भजध्वं सर्वदेव माम् ॥ धारयध्वं स्वरूपे मे, प्रेमभक्ति सनातनाम् । कलौ भवन्ति निर्मोहा, मत्प्रेमाश्रितसज्जनाः॥ धर्मिणां प्राणरक्षणार्थ-मात्मप्राण-समर्पकाः। क्षत्रिया धर्म्ययुद्धेषु, मृत्वा-जित्वा च मन्मयाः ॥ १५१ मयि विश्वासिनां शुद्ध-प्रेमबुद्धि प्रदायकः । तद् हत्तु व्यक्तरूपोऽहं, शुद्धब्रह्म स्वभावतः ॥ १५२ बुद्धिप्रेरक-बुद्धोऽहं, कृष्णोऽहं प्रेमकर्षकः । सर्वत्र रमणादामः, सर्वकर्महरो हरिः॥ अलभ्यो नास्तिकानान्तु, दुर्लभो मृढचेतसाम् । सुलभ्यो ज्ञानिनां प्रेम-भक्तानां कर्मयोगिनाम् ॥ १५४
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[द्वितीयाध्याय वीर-वीरेति मज्जापः, कोटिहत्यादिनाशकः । धर्मबुद्धि-प्रदो मंक्षु, कर्तव्यः प्रेमयोगिभिः ॥ १५५ भोगार्थी लभते भोगान् , पुत्रार्थी लभतेऽङ्गजम् । विद्यार्थी लभते विद्या, वित्तार्थी लभते धनम् ।। १५६ धर्मार्थी लभते धर्म, भार्यार्थी लभते स्त्रियम् । इच्छापूर्णकरी भक्तिर्मम चिन्तामणीयते ॥ १५७ मद्धीनाश्चमत्काराः, सर्वे ते मे विभूतयः । विभुः सर्वविभूतीनां, प्रेम्णा ध्यानी लभेत माम् ॥ १५८ देहप्राणादिभिर्यो मामतिप्रियं स्वभावतः । जानाति पूर्ण सत्प्रीत्या, तस्य स्वर्गमयं मनः॥ सर्वप्रियपदार्थेषु, स्वात्माऽहं वस्तुतः प्रियः । मयि प्रीतिविधानेन, कामादीनां क्षयो भवेत् ॥ १६० मन्मयो मन्मयीं वृत्ति, कृत्वा कर्माणि सेवते। अन्तर्ब्रह्म बहिर्ब्रह्म, प्रेम्णा पश्यति भक्तिमान् ॥ १६१ बहिरन्तः सदापूर्ण, पूर्णानन्द-स्वरूपिणम् । पूर्णप्रियं परप्रीत्या, जानाति पूर्णवान् स्वयम् ॥ १६२ प्रेमवॉल्लभते श्रद्धां, श्रद्धावान ज्ञानमश्नुते । ज्ञानी मद्रूपतां प्राप्तः, सिद्धात्मा भवति स्वयम् ॥ १६३ कृत्वा ये स्वाऽर्पणं भव्या, मयि लीनाः स्वभावतः । विषयाब्धौ न मज्जन्ति, विषयेषु प्रवर्तिनः ॥ विषयेषु निरासक्ता, आसक्ते मयि धारकाः। परं रसं समासाद्य, भवन्ति मत्स्वरूपिणः ॥ १६५ बाह्या रसा निवर्तन्ते, देहिनो मयि रागतः । रसेन्द्रं मां समाश्रित्य, भवन्ति निर्विषा भवे ॥ १६६
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प्रेमयोगः मद्रसास्वादतो नृणां, बाह्यासंक्तिविनश्यति। प्रारब्ध-कर्म-भोगेषु, वतिनोऽपि न वर्तिनः॥ १ शुद्धानन्दरसास्वादो, ज्ञान-वैराग्यभक्तितः । क्रियते मजनैः पूर्णो, वासनाया विनाशकः ॥ १६८ इन्द्रियाणां विनाशेऽपि, नैवाऽऽसक्तिविनश्यति । विषयाणां तथा नाशे, निरासक्तिन जायते ॥ १६९ निरासक्तिर्भवेन्नृणां, पूर्णमद्रागयोगतः। आसक्तिः कर्मबन्धाय, निरासक्तिर्विमुक्तये ॥ १७० ये बाह्येषु निरासक्ता, वर्त्तन्ते मजनाः सदा । आन्तरास्त्यागिनो बोध्या, बाह्यतो भोगिनोऽपि ते ॥१७१ कृपाऽपराधिषु व्यक्ता, प्रीतिर्वैरिषु निश्चला । मद्भक्तः सात्त्विकश्रेष्ठो, व्यक्त्यहंकारनिर्गतः ॥ १७२ विस्मृत्य नामरूपादि-भावान्मल्लीनवृत्तिकः। सर्वकर्म प्रकुर्वाणो, मत्पदं याति निश्चलम् ॥ १७३ नामरूपादिभावेषु, स्वकेषु मत्स्वरूपताम् । भावयन्पूर्णरागेण, भक्तो याति परं पदम् ॥ सुख-दुःखादिसंयोगा, मनोवाकायधारिणाम् । भवन्त्येवात्मशुद्धयर्थ, मद्विश्वास-विधायिनाम् । सर्वधर्मा मयि व्यक्ताः , सदाऽहं सर्वधर्मवान् । सर्वधर्मस्थितं मान्तु, जानन्ति भक्तियोगिनः ।
१७६ सर्वधर्मस्वरूपं मां, ज्ञात्वा यो धर्ममाचरेत् । धर्मभ्रष्टो भवेन्नैव, सैव भक्तोऽभिधीयते ॥
१७७ सर्वगुरुस्वरूपं मां, ज्ञात्वा गुरुमुपासते। गुरुभ्रष्टा भवेयुर्नाऽभिधीयन्ते च मामकाः॥ १७८
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[द्वितीयाध्याय सर्वदेवस्वरूपं मां, ज्ञात्वा यो मदुपासकः। देवभ्रष्टो भवेन्नैव, मद्भक्तः सोऽभिधीयते ।। सर्वब्रह्ममयं ज्ञात्वा, यो मां वीरं भजेत्सदा । परब्रह्म भवत्पूर्णः, स मद्भक्तोऽभिधीयते ॥ १८० सर्ववेदस्वरूपं मां, ज्ञात्वा ये समुपासते । मद्भक्तास्ते महोत्कृष्टा, मुक्ति संयान्ति शाश्वतीम् ॥१८१ वेदागमा असंख्याता, व्यक्ताऽव्यक्ताः सनातनाः । मत्तः केचित्प्रकाशन्ते, सत्यधर्मप्रचारकाः ॥ १८२ विज्ञाय मां महासत्त्वा, मद्भक्ति प्राप्नुवन्ति ये । परिपूर्णगुणान्प्राप्य, परिपूर्णा भवन्ति ते ॥ १८३ भक्तियोगस्य सद्भेदा, असंख्याता निवेदिताः । एक पूर्ण समाराध्य, मुक्तो भवति निश्चयी ॥ १८४ जानन्तोऽपि न सर्वज्ञाः, सर्वथा वक्तुमीश्वराः। भक्ति समाश्रिता भक्ता, मुच्यन्ते कर्मबन्धनात् ॥ १८५ ध्यायन्तो द्वेषभावेन, वस्तुतः शत्रवोऽपि माम् । मद्धयानस्य बलेनैव, प्रान्ते संयान्ति मत्पदम् ॥ १८६ शत्रुभावेन दुष्टा ये, प्रान्ते मद्भत्तिमाश्रिताः । मच्चित्ता ध्येयरूपास्ते, भवन्ति सिद्धयोगिनः॥ १८७ नास्तिका बुद्धिमन्तोऽपि, शक्तिमन्तो न मे प्रियाः। चाण्डाला निर्धना भक्ताः, सर्वथा मे बहुप्रियाः ॥ १८८ न धनेषु न राज्येषु, प्रियताऽस्ति कदापि मे । भक्तिभावः प्रियः पूर्णो, भक्तानां सिद्धिदायकः॥ १८९ शुभार्थं जायते सर्व, भक्तानां मतिरीदृशी। अतस्ते नैव मुह्यन्ति, भक्ता आत्मोन्नतिक्षमाः ॥ १९०
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प्रेमयोगः ] महादुःखप्रसंगास्तु, मद्भक्तानां महोत्सवाः । जायन्ते कर्मनाशार्थ-मात्मशुद्धि-प्रकाशकाः॥ १९१ भक्तानां भक्तियज्ञोऽहं, कर्मयज्ञः सुकर्मणाम् । ज्ञानिनां ज्ञानयज्ञोऽहं, प्रेमयज्ञोऽस्मि देहिनाम् ॥ १९२ सिद्धाः सिद्धयन्ति सेत्स्यन्ति, पापवन्तोऽपि मन्जना। ध्यानान्मन्मयतां प्राप्ता, मदनेकाऽवलम्बनैः ॥ १९३ सिद्धाः सिद्धयन्ति सेत्स्यन्ति, ब्रह्मा-विष्णुरादयः।. मद्भक्त्या सन्मया रामा, ग्रहा मद्भक्ता नारदाः॥ १९४ उद्योगिनश्च मद्भक्ताः स्वायिणो विवेकिनः । सर्वजातीयशक्तीनां, प्रकाशार्थ प्रवर्तकाः॥ १९५ उद्योगपूर्वकास्तेऽपि, रागतो मामुपासते । एकोऽप्यनन्तरूपोऽस्मि, मदसंख्येयनामभिः॥ गुप्ताऽगुप्ताद्यसंख्येयैः, सर्वभाषाविशेषकैः । अनन्तै मभिश्चैको, वीरोऽस्मि विश्वतारकः ॥ उपास्यः सर्वदुःखानां, मुक्त्यर्थ नीतिसेवकैः । मद्रूपासक्तभक्तानां, जातिधर्मा मदात्मकाः॥ मत्स्वरूपादनन्यानां, सर्व मद्धर्भरूपकम् । जायते नैव भेदोऽस्ति, देहभेदास्तु कल्पिताः ॥ १९९ रोगापत्तिविपत्तिभ्यो, भक्तानां ज्ञानपक्वता । जायन्तेऽनुभवाः सर्वे, ज्ञानोत्क्रान्ति विधायकाः ॥ २०० सुख-दुःखप्रसङ्गेशु, मुह्यन्ति नैव मन्जनाः। अनुकूलाः क्रियन्ते ते, आत्मशुद्धिप्रकाशकाः ॥ २०१ सर्वयागैरहं प्राप्या, सर्वयागास्तु मे प्रियाः॥ मियत्वं सर्वभक्तेषु, मत्त्वं तेषु सदामतम् ॥
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मदभिन्ना नया धर्माः सर्वधर्मैर भेदवान् । इति विज्ञाय सेवन्ते, भक्ता मद्रूपदर्शिनः ॥ मयि जिनेश्वरे धर्मास्तिर आविःस्वभावकाः । उद्यन्ते विलीयन्ते, जानन्ति ज्ञानयोगिनः ॥ अनन्तं ब्रह्मरूपं मे, लक्ष्यते लेशमात्रकम् । 'मत्तो वाचो निवर्त्तन्ते, ब्रह्मसर्वज्ञगोचरम् ॥ मत्प्रतीतिर्भवेत्प्रेम्णा, किं वदामि पुनः पुनः । भजध्वं प्रथमं प्रीला, सद्गुरुं मत्प्रदर्शकम् ॥ प्राप्योऽहं न कदा केषां सदगुरो भक्तिमन्तरा । गुरोः श्रद्धावतां नृणां प्राप्योऽहं पूर्णरागतः ॥ मन्मूर्तिपूजका भक्ताः, पत्रपुष्पफलादिभिः । मगतिं संश्रिताः पूर्णब्रह्म संयान्ति सत्वरम् ॥ विशुद्धप्रेमणि ब्रह्म-भावं सन्मान्य भक्तराट् । परानन्द-पदं प्राप्य, कृतकृत्यो भवेत्स्वयम् ॥ सेव्यसेवकभावेन, पर्युपास्ते परं प्रभुम् । आत्मशुद्धिं परां कृत्वा, स परेशो भवेत्स्वतः ॥ यत्र तत्र प्रभोर्नाम्नो, जापस्मरणमात्रतः । भवेद्भक्तिर्दिवा रात्रौ हृदि मत्प्रेमधारिणाम् ॥ अनन्ताऽनन्त तेजोन्धिः, परब्रह्म निरञ्जनम् । मत्स्वरूपं निराकारं ज्ञानिभिरनुभूयते ॥ निराकारस्वरूपाग्रे, मत्साकारस्वरूपता । विज्ञेया बिन्दुन्मुक्तिनिःश्रेणिर्भव्यदेहिनाम् ॥ - साकारं मां समालम्ब्य, साकाराः परमेष्ठिनः । भूत्वा जना निराकार - रूपं ध्यात्वा समाधिना ॥
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प्रेमयोगः भवन्ति ते निराकाराः, सिद्धा बुद्धा निरञ्जनाः ।। अतः साकारसेवातो, निराकारत्वमात्मनः ॥ अर्हन्सूरिमुनीशाद्याः, साकाराः परमेष्ठिनः। परोपकारकर्माये-भवन्ति परमार्थिनः ॥ २१६ सेवाभक्त्या सदोपास्याः, साकाराः परमेश्वराः । जीवन्तः सर्वसाकारा, आराध्या आत्मशुद्धये ॥ मद्ध्यातारो विमुच्यन्ते, भक्ता घोरविपत्तितः । यादशं तादशं कर्म, मदर्पितं सुखावहम् ॥ २१८ मत्स्मृतिपूर्वकं सर्व, निर्विघ्नं कर्म जायते। चिह्नानि कार्यसिद्धीनां, प्रेमोत्साहौ च मत्स्मृतिः॥ २१९ भवेदुद्योगिनी घुद्धि-मविश्वासविधायिनाम् । सर्वथोद्योगतः सिद्धि-रन्यथाऽसिद्धतामता ॥ सर्वदं हृदि मां धृत्वा, यद्यत्करोति मजनः । तत्तद्भावेन तस्याऽहं, वाञ्छितार्थप्रदायकः ॥ यद्भूतं यद्भवत्येव, यद्भविष्यति तत्र यः । साक्षीभूतस्वभावेन, वर्त्तते सैव मज्जनः । २२२ संपत्तौ च विपत्ती ये, वतन्ते साम्यभावतः । ज्ञानानन्दादि धर्माणामाविर्भावस्तदात्मसु । मयि ज्ञाते जगदज्ञातं, प्रभावोऽनन्तरूपकः । मदात्मैकप्रदेशेऽपि, सर्व विश्वं प्रमीयते ॥ अनन्तज्ञानमाहात्म्यं, केनापि नैव लक्ष्यते। पूर्णः पूर्ण विजानाति, पूर्णात्पूर्ण प्रकाश्यते ॥ सर्वज्ञोऽहं महावीरो, जगदुद्धारकारकः । अधर्माणां विनाशाय, जातोऽन्तिमजिनेश्वरः ॥ २२६
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[ द्वितीयाध्याये ऋषभाधेस्त्रीर्थकृद्भिनिदिष्टोऽहं जिनेश्वरः । चतुर्विधमहासंघः स्थापितो धर्मवाहकः ॥ २२७ पितरौ सेवमानोऽसौ, कुर्वन्सर्व सहायताम् । मद्भक्त एव सर्वत्र, मुक्तिं प्राप्य विराजते ॥ २२८ पत्नी प्रेमा पति यंत्र, भामिनी पतिरागिणी । बालरक्षाकरा लोकाः, शोभन्ते मम सेवकाः ॥ २२९ अपांसुलास्त्रियो यत्र, तत्र मच्छक्तिसंस्थितिः । भक्ता गायन्ति मां यत्र, तत्र मद्भावना सुखम् ॥ २३० सत्प्रीला स्वामिनं यत्र, सेवन्ते मन्जनाः सदा । तत्र शान्तिर्भवेनिलं, सच्छक्तिश्च प्रकाशते ।। २३१ मजना धर्मिणो यत्र, द्रुह्यन्ति न परस्परम् । संभजन्तो लभन्ते मा-मेव नाऽस्लत्र संशयः ॥ २३२ गच्छन्ति दुर्गति नैव, मदभक्ताः परमार्थिनः । अन्तला निरासक्ताः, शुभासक्ताश्च मानवाः॥ २३३ दुष्टमोहो हदि प्रादुर्भवन् दुर्बुद्धिमावहेत् । मां भजन्नाशयेत्तं यस्तस्यात्माशुद्धिमान्भवेत् ॥ २३४ दुष्टपक्षं परित्यज्य, भवन्तु धर्मपक्षिणः । सर्वत्र हृदि मां स्मृत्वा, विहरध्वं निजेच्छया ॥ २३० मोहिनो नैव जानन्ति, मविभूतिमनन्तराः। मद्रसज्ञा महाभक्ताः साधवो मां विजानते ॥ २३६ दया विवेकिनः सन्तः सदगुरौ पूर्णरागिणः । भवन्ति नैव अद्भिन्ना, मन्मया धर्मधारकाः ॥ २३७ परार्थस्वार्थसत्कर्ममद्भक्तिलीनचेतसः। ब्रजन्ति मत्पदं भव्या, मदभिन्नधियः सदा॥ २३८
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प्रेमयोगः ]
न्याय्यस्वार्थोपयोगस्य, कर्मभिर्मम पूजकाः । मयि चित्तप्रदातारः, शुभेच्छायोगिनोऽपि मे ॥ धर्मिणो मम ये भक्तास्तत्र प्रेमविधायिनाम् । सर्वव्रतानि वेदाच, तेषां चेतसि संस्थिताः ॥ मच्छ्रद्धाभक्तियोगेषु सर्ववेदागमाः स्थिताः । परमब्रह्म मां वेत्ति, महाभक्तः स उच्यते ॥ यावत्स्थरा मयि श्रद्धा, तावन्मोहो न संभवेत् । मत्स्वरूपे निराकारे, लीनस्य नैव दोषता ॥ घातका अपि मद्भक्ता, जायन्ते सद्दयालवः । मामेव सर्वजीवेषु संभाव्य मत्पदाश्रिताः ॥ ममाऽविनाशिनो भक्तान्कालपीडा न बाधते । सदा प्रकाशिनस्ते स्युः, सर्वेषां चित्तवल्लभाः ॥ निर्जराऽमरमत्तुल्या, नैव ते यान्ति दुर्गतिम् । सर्वदा मयि संलीना, भवन्ति निर्मलान्तराः ॥ रक्षायै धर्मिणां भक्ताः, सर्वस्वार्पणकारिणः । मृत्वा स्वर्ग जना यान्ति, पूर्णमुक्तिश्च शाश्वतीम् ॥ २४६ मोहादिकाऽसुरान्सर्वान्, जेतारः सन्ति मज्जनाः । बाह्यव्रतादिकेष्वेव, नैकान्तेन विगाहिनः ॥ मदन्यनियमा ये स्युस्तेषु नैव विमुह्यति ।
यस्य चेतसि भक्ला मे, वासस्तत्र न दुष्टता ॥ साधयन्सर्वकार्याणि मयि कुर्वन्स्थिरं मनः । सर्वस्वाऽर्पणकर्त्ता यो महाभक्तः स मे मतः ॥ कदापि दुर्गति दुष्टो, बाधते यं न चाऽपरः । मद्रपो मां भजन, सेवाऽहं नात्र संशयः ॥
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[द्वितीयाध्याये परोपकारकर्तारः, सत्यदानदयालवः । मद्भक्ता मत्पदं यान्ति, समुत्तीर्य भवोदधिम् ॥ २५१ सर्वकर्माणि कुर्वन्तो, जीवहिंसां न कुर्वते । मछल्लभाजनास्ते स्युरार्याऽऽनार्यनरादयः ॥ २५२ गुरूं संसेव्य सम्यक्त्वसंस्करो यो जनो भवेत् । मद्धर्मज्ञः स मन्तव्य-स्तदाधारोऽहमिष्टदः ॥ २५३ मद भक्तानां हृदि व्यक्तं, साहाय्यं मम भक्तितः। सर्वथा निर्मलीभूय, प्रान्ते यान्ति परं पदम् ॥ परब्रह्म महावीरः, शुद्धात्माऽहं सुखालयः । निष्कामो यो भजेन्मां, स मयि विश्राममाप्नुयात् ॥ २५५ आत्मनः परमात्मत्वं, यः प्रादुर्भावयेजनः । मत्साम्यं सर्वजीवेषु, वीक्षमाणः शिवं ब्रजेत् ॥ २५६ एकेन्द्रियादि सर्वेषां, कुर्वन् रक्षां यथाविधि । दीनादीनुद्ध(श्चैव, क्लेशान्सर्वाहिनस्ति सः । २५७ दुःखाद्यापत्तिकालेषु, धारयन्तो न दीनताम् । स्मरन्तो माश्च ते नित्यं, लभन्तेऽन्तेऽव्ययं सुखम् २५८ परिषहोपसर्गेभ्यो, भवन्ति निश्चलाऽभयाः । महोधि मन्यमानास्ते, भक्ता मे सर्वतोऽधिकाः ॥ २५९ कल्याणकादिपर्वाणि, संप्राप्योत्सवकारिगः। मां परिगृस्य मतुल्या, भवन्ति परमेष्ठिनः ॥ मनोवाकायतः कार्य, कृतं कारितमन्वहम् । तत्सर्वस्य मयि त्यागान्महाभक्तोऽभिधीयते ॥ २६१ सर्वजातीयतीर्थानां सम्यग्यात्राविधायिनः । आत्मोन्नतिं प्रकुर्वन्ति, मद्भक्ता विश्वशान्तिदाः ॥ २६२
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प्रेमयोगःj हृदि मत्प्रेमरूपेण, परात्मा दृश्यते विभुः। अतः सर्वप्रयत्नेन, मां भजध्वं दिवानिशम् ॥ साहाय्यं सर्वभक्तानां, पूर्णभक्त्या करोम्यहम् । विपत्तौ च परोक्षेण, भक्तानक्षामि शक्तितः ॥ दर्शनातुरभक्तेभ्यः स्वप्नादौ दर्शनं शुभम् । ददाम्यनेकरूपेण, सर्ववाञ्छित्तदायकम् ॥ निराकारस्वरूपं मां, ज्योतीरूपं सनातनम् । गुरुप्रेमणि संस्नाताः, पूर्ण पश्यन्ति योगिनः ॥ मद्भक्तिशक्तितः सन्तोऽताऽऽनन्दस्य भागिनः । बालका इव निर्दोषा, भवन्ति तीर्थरूपिणः ॥ गुरुप्रेमविहीनास्तु, पश्यन्ति न कदाऽपि माम् । सदगुरुप्रेमभक्तानां, ददामि दर्शनं शुभम् ॥ २६८ गुरोविचाराऽऽचारेषु, नास्तिकाः प्रभवन्ति ये। मद्रूपं ते न पश्यन्ति, ज्ञानाऽभ्यासरता अपि ॥ २६९ गुरुरूपं च मद्रूपमेकं पश्यन्ति ये जनाः । फलन्ति सर्वसद्योगास्तेषां सर्वात्मदर्शिनाम् ॥
२७० मन्मूत्ती विश्वरूपे च, सद्रूपं विधाय ये। गृहणन्ति सदगुणान्मीत्या, त्यजन्ति सर्वदुर्गुणान् ॥ २७१ भक्तास्ते मे महासत्वाः, सत्यतत्त्वाऽवलोकिनः। धर्मार्थ प्राणदातारो, देहमन्दिवासिनः॥ विद्याशक्तिधना धैर्य, परस्परसहायकाः। सन्ति ते मजना जैना, मस्पदं यान्ति सत्वरम् ॥ २७३ देहमन्दिरदेवास्ते, मदेवत्व-विधायिनः । संसारे सर्वकार्याणि, कुर्वन्तोऽपि न तन्मयाः॥
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[ द्वितीयाध्याये. भोगानां भोग्यवस्तूनां, सन्त्यज्य ममतां जनाः। जीवन्ति ये मयि प्रीत्या, तेषां शान्ति ददाम्यहम् ॥ २७५ मद्भक्ता देहभावेन, जीवन्ति न कदाचन । आत्मभावेन जीवन्ति, सत्पीत्या देहवर्तिनः॥ २७६ सन्त्यज्य वित्तदेहादेममत्वं भक्तिकारकाः। वासनासु न मुह्यन्ति, मत्सेमाऽवृतमोगिनः ॥ पूर्णाऽनन्दमयं ब्रह्म, निश्चित्य स्वं तथाविदः । पूर्ण सर्वत्र पश्यन्तः, पूर्णात्पूर्णा सवन्ति ते ॥ २७८ भक्तियोगमयं ज्ञात्वा, पत्तद्धावं विहाय ये । भक्ति कुर्वन्ति मद्रूपा, भवन्ति ते मतं मम ॥ ज्ञानवित्तादिदानेन, भक्तिर्भवति निर्मला। सर्वत्र सर्व जीवाना-मात्मवच्च निरीक्षणात् ॥ २८० सर्वदेवास्तथा देव्यो, देवेन्द्राश्चक्रवर्तिनः । दिक्पाला वासुदेवाश्च, सबै मां यान्ति भक्तितः ॥ २८१ असंख्यसूर्यचन्द्राधा, भुवाद्याः सर्वतारकाः । महावीरं परब्रह्म मां, प्रति यान्ति भक्तितः॥ २८२ सर्वदेवनमस्कारो, मां वीरं प्रतिगच्छति । मद्धर्म प्रतिगच्छन्ति, सर्वधर्माः स्वभावतः ॥ सर्वदेवोपरि प्रीतित्पीति प्रतिगच्छति । मदाराधनमध्ये तु, सर्वाऽऽराधनमागतम् ॥
२८४ जैनेन्द्रं मां महावीर, विज्ञाय पूर्गरागतः । मत्परो मन्मनो भक्का, सिद्धिं गच्छति शाश्वतीम् ॥ २८५ सूक्ष्माऽतिसूक्ष्म-वस्तूनां, शोधका बाह्यपण्डिताः । मद्रुपं जानते नैव, मच्छ्रद्धाभक्तिमन्तरा ॥
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प्रेमयोगः ] मां विना विश्वजीवानां, तारको नैव विद्यते । शरण्यं मां समाश्रित्य, यान्ति शीघ्रं परं पदम् ॥ २८७ विश्वाधारतया ये मां, ज्ञात्वा मच्छरणाश्रिताः । कालस्याऽपि महाकाला, भवन्ति सिद्धरुपिणः ॥ २८८ मनोवाकाययोगानां, मयि कृत्वाऽर्पणं सदा । सर्वकर्माणि कुर्वन्तो, जनाः संयान्ति मत्पदम् ॥ २८९ अस्तित्वे नैव हर्षोऽस्ति, देहादीनां स्वभावतः । तन्नाशे नैव शोकोऽस्ति, यस्य स मत्स्वरुपकः ॥ २९० मत्स्वरुपविलीनानां, सुत्सु शुद्धस्वरुपतः । ब्यक्तो भवामि भावेन, शोध्योऽहं हदि मजनैः ॥ २९१ मयि स्वनामरूपाणां, लीनतां कुर्वतां हृदि । भवामि सर्वथा व्यक्तस्तदात्म शुद्धरूपतः ॥ २९२ सर्वजीवेषु मां पश्यन्सर्वजीवहिते रतः । यः कोऽपि तेन लभ्योऽहं, शुद्धात्मा सर्वशक्तिमान् ॥ २९३ मयि रागो भवेत्पूर्णः, सर्वात्मैक्यविलोकिनाम् । मद्रागादन्यभावेषु, रागो नैव भवेत्कदा ॥ सर्वेषु देशकालेषु, सर्वभाषासु वस्तुतः । अनन्तानि मदीयानि, नामरूपाणि जानताम् ॥ २९५ अतो विश्वजनैः सर्वैः, प्राप्योऽहं साम्ययोगतः । साम्येन सर्वलोकानां, मुक्तिदोऽहं सुनिश्चितम् ॥ २९६ अतः साम्यं समालम्ब्य, प्रेमभक्तिप्रचारकैः । महावीरेति मन्नाम्ना, ध्यातव्योऽहं विशेषतः॥ २९७ धर्मयोगैरसंख्यातः, सर्वत्र साम्यदृष्टितः । प्राप्योऽहन्सिद्ध बुद्धोऽहं, मद्रागिसर्वमानवैः ॥ २९८
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[ द्वितीयाध्यायो अनन्तानन्तविश्वेषु, संपूर्णसर्वशक्तिमान् । परिपूर्णपरब्रह्म, महावीरोऽस्मि तीर्थकृत् ॥ अनन्तानन्तशक्तीनां, ज्ञानादीनां निवासता। ममैकस्मिन्प्रदेशेऽस्ति, तदने बिन्दुवजगत् ॥ अनन्तानन्त-विश्वानां, करोमि तोलनं क्षणात् । ज्ञानादिसर्वशक्तीनां, पारो न प्राप्यते जनैः ॥ वर्णकर्माऽनुसारेण, वर्तन्ते सर्वजातयः । मद्धर्मारधनाद्भक्ताः, सर्वप्रगतिसाधकाः ॥ ३०२ सर्वशक्ति समाधाय, संभवामि जगदगुरुः । मद्भक्तिपरिपक्वानां, समुद्धार करोम्यहम् ॥ ३०३ मद्भक्तिभ्रष्ट लोकानां, विनिपातः सहस्रधा । जायते मोहतः शीघ्र, मदुक्तं नाऽन्यथा भवेत् ॥ ३०४ दोषा अपि गुणायन्ते, मद्भक्तानां विशेषत:। कषाया अपि धर्मार्थ, रक्षार्थ धर्ममार्गिणाम् ॥ यादर्श तादृशं कर्म, कुर्वन्तो मत्परायणाः । पापेन नैव लिप्यन्ते, मद्भक्ताः कर्मयोगिनः ॥ याहशस्तादृशो देही, मद्रागी भक्तशेखरः । देवानामपि सन्मान्यो, निर्भयः कालभीतितः ॥ ३०७ सदगुरुप्रेमसद्भक्त्या, याहशस्तादृशो जनः । परब्रह्म प्रभुं प्राप्य, जीवन्मुक्तो भवेद्भवे ॥ बालानां ज्ञानिलोकानां, सर्वेषां मुक्तिकारकः । विश्वधर्मनियन्ताऽहं, महावीरो जिनेश्वरः ॥ अदाश्रितविनेयानां, स्वर्ग-मुक्ति-सुखं भवेत् । तारिता नाऽन्यदेवैर्ये, तेषां सद्योऽस्मि तारकः ॥ ३१०
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प्रेमयोग ] जैनधर्मसमालम्बादभ्रूणघातादिकारकाः। नास्तिका घोरकर्माणः, शीघ्रं संयान्ति मत्पदम् ॥ ३११ मत्पश्चात्सर्वलोकानां, जैनधर्मोऽस्ति तारकः । जैनधर्मस्य भेदेषु, मद्भक्तिः सर्वतोऽधिका ॥ दशधा नवधा भक्तिस्तत्त्वतो मे सनातना । मद्भक्तिसहशो धर्मो, न भूतो न भविष्यति ॥ ३१३ मया विश्वस्वरूपाणि, दर्शितानि मदात्मनाम् । सर्वज्ञोऽहं महावीरोऽन्तिमस्तीर्थेश्वरः प्रभुः ॥ तमस्ताथश्वरः प्रभुः॥
३१४ इति ज्ञात्वा भजन्ते मां, ते जना मुक्तिगामिनः । जीवानां भक्तिवश्योऽस्मि, जाने सर्वमनांस्यहम् ॥ ३१५ भक्तिरेव महाधर्मो, जैनधर्म-प्रचारणात् । नूनं भवति लोकानां, मोहादि कर्मनाशकः ॥ ३१६ अतो मद्भक्तिरेकाऽपि, प्रबला सर्वधर्मतः । सन्तः संयान्ति मत्स्थानमेकं मन्नामजापतः ॥ विभिन्ना नैव मद्पात्सर्वे तीर्थङ्कराः कदा । देशकालाऽनुसारेण, धर्मतीर्थविधायिनः॥ ३१८ सर्वाऽतिशयसंयुक्तं, मां भजन्तो जना भुवि । सर्वशक्तिसमूह ते, प्राप्नुवन्ति न संशयः ॥ अन्यायिदुष्टलोकेभ्यो, मद्भक्तानां प्ररक्षणम् । करोमि गुप्तशक्त्याऽहं, तेषां शान्ति-प्रकाशनात् ॥ ३२० सर्वभव्यजनैः सर्वाः शङ्कास्त्यक्त्वा सुभावतः । कृत्वा मां शरणं भक्त्या, भवितव्यञ्च मन्मयम् ॥ ३२१ आत्मरुपं जगद्यस्य, जातं भक्ति-प्रभावतः । तदात्मा परमात्मैव, विश्वकल्याण-कारकः ॥ ३२२
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[ द्वितीयाध्याये आत्मरुपं जगत्पश्यन् , भक्तो भवति मत्समः। आत्मवत्सर्वविश्वस्य, श्रेयाकर्मपरायणः ॥ देवमन्त्रं गुरोमन्त्रं, यः स्मरेद्भक्तिभावतः । तस्य दुःखानि नश्यन्ति, किमसाध्यं हि भक्तितः॥ ३२४ यादृशी यस्य सद्भक्तिस्तस्य शक्ति हि तादृशी। मद्भक्त्यां शक्तिसंवासो, दृश्यते ज्ञानचक्षुषा ॥ ३२५ चैत्रशुक्लत्रयोदश्यां, मन्मन्त्राराधनं वरम् । तथा दीपालिकारात्रौ, सर्वकामार्थसाधकम् ॥ ३२६ मन्नाम्नः कोटिशो जापादुद्धारः पापिनां तथा। भूतादीनां समुद्धारो, मन्नामत्रवणादिभिः ॥ प्रान्ते मन्मन्त्रसंजापाच्छ्रवणास्कृति योगतः। अनेकभवकर्मभ्यो, मुच्यन्ते भक्तिकारकाः ॥ ३२८ भूताद्या अपि मन्नामश्रवणाद्यान्ति शान्तताम् । यक्ष्यादीनाञ्च मन्नामस्मरणात्पुण्य संगतिः ॥ मचरित्रभुतेर्योगात् , स्वाध्याय-ध्यानयोगतः । याता यान्ति च यास्यन्ति, स्वर्ग सिद्धिश्च मजनाः ॥ ३३० वनस्पत्यादयो जीवा, नाममन्त्र-प्रभावतः। उच्चत्वं यान्ति शक्तिञ्च, जनास्तहि न यान्ति किम् ॥ ३३१ इत्येवं मम मन्त्राँस्तु संख्यातीतान्निबोधत । श्रद्धाप्रेमवतां शीघ्रं, फलन्ति गुरुभक्तितः ॥ ३३२ कलौ भक्तिर्महाश्रेष्ठा, परेभ्योऽपि महाफला । अल्पाऽप्यनल्पधर्मार्थ, ततः श्रेष्ठाऽस्त्युपासना ॥ ३३३ मन्मन्त्रैः सर्वकार्याणि, सिद्धयन्ति स्वल्पयत्नतः । मद्रागिदेवदेवीनां, मन्त्रषु शक्तिदोऽस्म्यहम् ॥ ३३४
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प्रेमयोगः देवीनां यच्चदेवानां, सर्वमन्त्रैः फलं भवेत् । मन्मन्त्रे लीयते तत्तु, तेजांसि भास्करे यथा ॥ मन्नाम गीयते यत्र, तत्र शक्तिः स्फुटा भवेत् । सिद्धयन्ति गुरुसेवातः, कलौ मन्त्रा मदीयकाः ॥ ३३६ वने वादे विवादे च, युद्धे यो मां स्मरेजनः । तस्य साध्यानि कर्माणि, फलन्ति भक्तिभावत:॥ ३३७ ऊँकारः सर्ववर्णेषु, मत्स्वरुपं सनातनम् । हीकारः सर्वशक्तीनां, मध्यरूपं प्रकीर्तितम् ॥ ३३८ सर्ववेदस्य सारोऽहं, सर्ववेदैरहं स्तुतः । सर्वागमैरहं स्तुत्यः, सर्वमन्त्रस्वरूपवान् ॥ कलौ मन्नाममन्त्रेषु, वेदाः सर्वे समागताः । सर्वतीर्थस्य यात्रायाः, फलं मन्नाम जापतः ॥ ३४० सर्वकार्यसमारम्भे, मन्नाम मङ्गलप्रदम् । किं तपोभियतः कष्टैर्मन्मन्त्रं स्मरताऽन्वहम् ॥ ३४१ मन्नामोपासना तुल्या, नाऽन्याऽस्ति भुवनत्रये । कृत्वा पूर्ण मयि श्रद्धा, भजध्वं मां सुभावतः ॥ ३४२ मां स्मरन्मृत्युकाले यः, सर्वस्वाऽर्पण भक्तितः । अतिपापोऽपि मत्स्थानं, प्राप्नोति स्वात्मशुद्धितः ३४३ धनेन नैव संप्राप्यो, बाह्याऽडम्बरतोऽपि न । मयि स्वात्माऽपणं यस्य, प्राप्योऽहं तस्य मे मतम् ॥ ३४४ मद्धर्माश्रितदेवानां, देवीनां शक्तिदः सदा । उद्धारः प्रतजातीनां, जायते मम नामतः ॥ पापबुद्धिः प्रणश्येच्च, मन्नामस्मृतिमात्रतः। मन्नामस्मृतितुल्यानि, नैव तीर्थानि भूतले ॥
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[द्वितीयाध्याये वीरवीरेति संस्मृत्य, तिर्योऽपि दिवं गताः । अन्यदेवास्तथा देव्यो, मन्नामस्मृतिसंश्रिताः ॥ महाब्रह्मा महाविष्णुर्महाज्योतिरहं सदा । दिक्पालाश्च ग्रहाः सर्वे, मन्नामस्मृतिकारकाः ३४८ यावन्ति विश्वपापानि, तावन्ति मम नामतः । प्रणश्यन्ति ततोऽन्यानि, नैव पापानि भूतले ॥ मन्त्रोपासनकर्माणि, गुरुगम्यानि वस्तुतः । सदगुरोः कृपया सिद्धिर्जायते पुण्यदेहिनाम् ॥ सर्वकार्येषु भन्मन्त्रसाहाय्यं भव्यदेहिनाम् । जायते पूर्णविश्वासादाधिकं किं वदाम्यहम् ॥ ३५१ वर्द्धमाना महाविद्या, सर्वशक्तिप्रदायिका। ऋद्धिसिद्धिपदा पूर्णा, मद्धर्मस्य प्रभाविका ॥ ३५२ यक्षिण्यः सर्वयक्षाश्च, मद्धर्मस्य प्रभावकाः । रोहिण्यादिमहादेव्यो, मद्धर्मस्य प्रभाविकाः ।। सरिमन्त्री महाश्रेष्ठः, सर्वमन्त्रशिरोमणिः । आचार्जप्यते प्रातः, सर्वशक्तिप्रदायकः ॥ सर्वरक्षकमन्त्रेषु, सूरिमन्त्रस्य मुख्यता। मत्स्वरुपञ्च तं ज्ञात्वा, ध्यायन्ति सूरयः सदा ॥ वासः श्रीसूरिमन्त्रेण, मन्यते सूरिभिः शुभः । वासन्यासं प्रकुर्वन्ति, प्रतिष्ठादिषु सूरयः ॥ ३५६ मन्नाम्नि सर्वमन्त्राणां, समावेशो भवेच्छुभे । पूर्णश्रद्धाबलेनैव, जापः कार्यों मनीषिभिः ॥ ३५७ सर्वाणि मन्त्रबीजानि, मन्नामाक्षरब्रह्मणि । ज्ञात्वैवं पूर्णसत्पीत्या, भवत मदुपासकाः ॥ ३५८
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प्रेमयोगः ]
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यद्यद्भावेन मां लोका, भजन्तेऽनेकमार्गगाः । तत्तद्भावेन लोकानां, फलदः स्वात्मयोगतः ॥ असंख्य देवदेवीनां भिन्नोपासनया जनाः । संयान्ति मां यजन्तस्ते, ब्रह्मवर्त्मानुवर्त्तिनः ॥ भिन्नभिन्नाऽभिधानैस्तु, फलदो वृत्तिभेदतः । सर्वेष्वहं सदा बोध्यस्तदाज्ञा नैव जानते ॥ येन केनाऽभिधानेन, वाच्योऽहं ब्रह्मरूपतः । सर्वनामस्वरूपेषु, परब्रह्मास्मि शक्तितः ॥ मदुपासनया भवता, मत्स्वरूपा न चाऽन्यथा । स्वर्गसिद्धिमदस्तेषां भक्तिशक्तिस्वरूपतः ॥ मदुपासनकर्माणि कर्त्तव्यानि विशेषतः । सर्व ब्रह्मेति मां ज्ञात्वा, मन्निष्ठां कुरुत स्वतः ॥ सर्वशक्तिस्वरूपं मां, ज्ञात्वा शक्तिप्रवर्त्तकाः । मद्रूपं हृदि संधृत्य, शाक्तरूपा भवन्ति ते ॥ वाचा प्रेममयी पूर्णा, मनः प्रेममयं सदा । वपुः प्रेमादितं यस्य स मे भक्त उपासकः ॥ मां स्मृत्वा च गुरुं स्मृत्वा द्वयों क्यं विभाव्य तत् । मद्भक्ताः प्रेमसंलीना, रोमराजिविकस्वराः ॥ व्यक्तेऽव्यक्ते च मद्रपे, ध्यानाऽऽसक्तिवतां सदा । शान्तिं तुष्टिं महापुष्टिं मङ्गलं च ददाम्यहम् ॥ मयि विश्वासिनः सन्तो, दुःखकोहिसमाकुलाः । मद्रुपोपासकास्तेषां पूर्णशक्तिं ददाम्यहम् ॥ दुःखेन परिपक्वानां मद्भक्तानामहं प्रियः । चलन्ति नैव दुःखेऽपि, भक्तिसंस्कार वासिताः ॥
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[द्वितीयाध्याये अष्टकर्माऽन्विता येऽपि, सद्भक्ता मयि संश्रिताः । अन्तर्मुहूर्तमात्रेण, केवलिनो भवन्ति ते ॥ शुद्धब्रह्मणि संलीना, मदभिन्नाः शरीरिणः । जीवन्मुक्ता महासन्तो, मत्तुल्याः कर्मकारकाः ॥ ३७२ सर्वथा भक्तिभेदानां, धारका भक्तयोगिनः । क्रियावन्तोऽक्रियावन्तो, गच्छन्त्यूर्व शिवालयम् ॥ ३७३ येन केन प्रकारेण, मदुपासकयोगिनः । मद्भक्ता मत्पदं यान्ति, बाह्यचेष्टाविलक्षणाः॥ ममाऽनेक स्वरूपेषु, पश्यन्त एकमेव माम् । मद्भक्ता नैव मुह्यन्ति, धर्मभेदेषु मोहतः ॥ भिन्नेषु धर्मशास्त्रेषु, विरुद्धाचारकर्मसु । अविरोधे पश्यन्ति, मद्पं ज्ञानयोगिनः ॥ ३७६ एकाऽनेकस्वरुपं मां, पश्यन्ति स व्यपेक्षया । शुद्ध मरताः सन्तः, प्रारब्ध-कर्मभोगिनः ॥ मद्दर्शनस्य कर्त्तारो, भावाऽभावेषु सर्वथा । मद्धतिनो महाभक्ता, मद्रपा नाऽन्यथा कदा ॥ ३७८ सर्वजातीयकार्येषु, सर्वाऽवस्थासु भक्तितः । मत्स्था महर्तिनो भक्ता, जीवन्मुक्ताः सदा मताः ॥ ३७९ सर्ववृत्तिषु मदूपं, पश्यन्तो भक्तियोगिनः । चिदानन्दमयाः पूर्णा, भवन्ति स्वात्मरुपतः ॥ सर्वजातीय-भक्तीनां, भोक्ता ब्रह्म सनातनः । सर्वजातीय सेवासु, ब्रह्मैव सर्वथाऽस्म्यहम् ॥
३८१ असंख्यदृष्टिभिर्लोकः, सर्वशास्त्र-विचारतः । ज्ञायते न स्वरुपं मेऽनन्तज्ञानादिसंयुतम् ॥ ३८२
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प्रेमयोगः असंख्यदृष्टिभिर्लोकः, सर्वशास्त्रविचारतः। ज्ञायते न स्वरूपं मेऽनन्तज्ञानादिसंयुतम् ॥ मत्तः सो लयश्चैव, पर्यायाणां प्रतिक्षणम् । मदायत्तं जगत्सर्व, ज्ञाने ज्ञेयस्वभावतः ॥ ब्रह्माविष्णुमहेशाद्याः, सर्वजातीयदेवताः। मां श्रयन्ति स्वभावेन, चन्द्रार्का अन्यखेचराः ॥ ३८४ मत्पारं न कदा यान्ति, ज्ञानिनस्तत्त्वपारगाः । मद्ध्यातारोऽपि येऽशेन, मां जानन्ति न सर्वथा ॥ ३८५ यान्ति घोरं महाश्वभ्रं, मद्धर्मस्य विघातकाः । जैनानां प्रतिपक्षा ये, शत्रवो मे स्वकर्मभिः॥ ३८६ अन्यायद्रोहकर्तारः, पच्यन्ते पापकर्मभिः । पुण्यपापाऽनुसारेण, सुखं दुःखश्च देहिनाम् ।। ३८७ अनन्तधर्मस्रष्टाऽहं, सर्वविश्वनियामकः । निर्लेपो वीतरागोऽस्मि, सर्वसाक्षी सनातनः ॥ ३८८ मद्भासा सूर्यचन्द्राद्याः, प्रकाशन्ते महीतलम् । सर्वयोगेश्वरं साक्षाद्यो मां वेत्ति स मजनः ॥ बाह्यान्तरमहिम्नाऽहं, सर्वलक्षणलक्षितः। चमत्कारा अनन्ता मे, दृष्टा मद्भक्तिभाजनैः ॥ धर्माऽधर्मादिवस्तूनां, पूर्णद्रष्टा महेश्वरः । जीवाऽजीवादितत्त्वानां, विज्ञाताऽहं प्रकाशकः ॥ ३९१ इन्द्राद्या लोकपालास्तु, प्रवर्तन्ते मदाज्ञया । सुरासुरनरेन्द्राद्या, मां भजन्ति विवेकतः ॥ ब्राह्मणादिप्रजाः सर्वा, यजन्ते मां दिवानिशम् । यज्ञरूपो जिनेन्द्रोऽहं, सर्वविश्वस्य शासकः ॥
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[द्वितीवाभ्याने चतुर्मुखो महाब्रह्मा, महारुद्रो जिनेश्वरः। महाऽर्हन् सर्वविविष्णु-रनन्तब्रह्मरूपवान् ॥ मत्तो धर्माः प्रकाशन्ते, मयि यान्ति लयश्च ते । ओतप्रोता मयि व्यक्ताः, पर्यायाश्च गुणास्तथा ॥ ३९५ मोहादिकर्मणां पूर्ण-नाशकः स्वीयशक्तितः। महाज्योतिः स्वरूपोऽह-मसंख्यातप्रदेशवान् ॥ सदसदादिधर्माणा-मनन्तानामहं निधिः । मत्तोऽन्यः सजीवानां, शास्ता नास्ति जगत्त्रये ॥ ३९७ एकोऽहं द्रव्यरूपेण, पर्यायेणाऽस्म्यनेकधा । एकाऽनेकस्वरूपेण, लक्ष्योऽहं सर्वकोविदः ॥ ३९८ मत्स्वरूपं विजानन्ति, मद्भक्तत्यागिसाधवः । मद्भक्तत्यागिनामग्रे, प्रत्यक्षोऽहं स्वभावतः ॥ अत्यद्भुतं स्वरूपं मे, मुख्यन्ति तत्र मोहिनः । शाब्दिकैस्तार्किकैर्वादै-रलभ्योऽहं निरञ्जनः ॥ तर्कबुद्धया न गम्योऽहं, गम्योऽहं पूर्णरागतः। सर्वजीवेषु मां पश्यन्, मदृष्टया सोऽस्ति मन्मयः॥ ४०१ माहात्म्धं मे न जानन्ति, नास्तिका मोहयुद्धयः। वित्तादिषु ममत्वेन, रागद्वेषादिकारकाः ॥ मत्साधूनामवज्ञादि, कुर्वन्तो दुष्टबुद्धयः । मां भजन्तोऽपि मद्रूपं, जानन्ति न निराश्रयाः ॥ ४०३ ये तु मिथ्यात्वमोहेन, मद्धर्मद्वेषकारकाः। तेषां शान्तिः कदा नैव, यान्ति दुःस्वञ्च दुर्गतिम् ॥ ४०४ यादृशास्तादृशाः पूज्याः, साधवो मे महाप्रियाः। मत्साधुप्रतिपक्षाणां लभ्योऽहं नैव वस्तुतः ॥
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खेमयोगः ]
त्यागिनां हृदि वासो मे, मदेकप्रेमधारिणाम् । शङ्काशीला न जानन्ति मन्माहात्म्यं कुतर्किणः ॥ चन्द्रसूर्याग्निवायूनां संस्थितिर्मत्प्रभावतः । प्रत्यक्षो मे प्रभावोऽरित, सुखदुःखादिदर्शनात् ॥ ४०७ मत्प्रभावस्य वेत्तारो, भक्ता मे प्रीतिधारकाः ।
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दृश्यादृश्येषु सारं मां, ज्ञात्वा यान्ति स्थिरं पदम् ॥ ४०८ सर्वविश्वपदार्थेषु, परमात्मा सदोत्तमः । परमेष्ठी परब्रह्म, वीतरागोऽस्मि तत्त्वविद् ॥ मदाश्रितानां जीवानां परमात्मपदमदः । अशरण्यशरण्योऽहं त्राता भ्राता च देहिनाम् ॥ रक्षकः सर्वजीवानां, वत्सलोऽस्मि प्रियङ्करः । कालस्याऽपि महाकालः, चक्षुर्दः सर्वदेहिनाम् ॥ यद्यद्वृत्त्या भजन्ते मां तत्तद्वृत्त्यनुसारतः । शुभाशुभं फलं जीवाः प्राप्नुवन्ति न संशयः ॥ अन्तकाले भजन्ते ये, भक्ता मां भक्तिभावतः । तेषामुद्धारकर्ताsहं, पश्चात्तापविधायिनाम् || सर्वशु भोत्तमध्येयं, मां ज्ञात्वा ध्यानयोगतः । ध्यायन्ति मन्मयीभूताः, सिद्धात्मानो भवन्ति ते ॥ ४१४ ध्येयरूपं परब्रह्म, येषां ध्याने स्वभावतः । केवलिनो भवेयुस्तेऽयोनिश्च सयोगिनः ॥ मयि लीना महाभक्ताः परप्रेमात्मतानतः । जीवन्मुक्ता भवन्त्येव, महासन्तः शरीरिणः । देहेष्वपि वसन्तस्ते, जीवानां वाञ्छितार्थदाः । अकल्याणकर्त्तारो, मदेकभावधारकाः ॥
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[ द्वितीयाध्याये सर्वेषु रसभेदेषु, शुद्धानन्दरसोऽस्म्यहम् । रसेष्वन्येषु मां प्राप्य, मुह्यन्ति नैव मजनाः ॥ ४१८ अन्यरसान्निवर्तन्ते, शुद्धब्रह्मरसप्रियाः। पूर्णानन्दरसं मां ये, जानन्ति ते विदांवशः ॥ शुद्धप्रेमरसं ब्रह्म, जानन्ति ब्रह्मयोगिनः । माहात्म्यं मम विज्ञाय, नाऽन्यमिच्छन्ति मां विना ॥ ४२० चक्रवत्तिसुरेन्द्राणां, भोगेषु नैव मोहिनः। मामन्तरा तु निःसारं, विश्वं मानन्ति मजनाः ॥ ४२१ सर्वकर्तव्यकर्माणि, कारोऽपि मनीषिणः । मच्चित्ता मत्स्वरूपास्ते मन्महिमप्रगायकाः ॥ अनन्तमहिमाधारं, मां जानन्ति मनीषिणः । मुह्यन्ति नैव मोहेन, सिद्धा बुद्धा भवन्ति ते ॥ ४२३ राज्यसत्तादिभी राज्ञां, धनाढयानाञ्च वित्ततः। विद्याभिनैव लभ्योऽहं, लभ्योऽहं शुद्धचेतसाम् ॥ ४२४ मन्त्रतन्त्रैर्महायन्त्रैर्लभ्योऽहं नैव योगिनाम् । सर्वप्राणियु मद्भावधारकाणां हृदि स्थितः ॥ ४२५ सर्वजीवस्वरूपं मां, मत्वा सर्वस्य पूजकः । मत्कृपापात्रभूतः स, मदन्यं नैव वाञ्छति ॥ ४२६ मत्सर्वेषु जीवेषु, शुद्धप्रेमपरायणाः । मन्माहात्म्य हृदि ज्ञात्वा, भवन्ति मन्मया जनाः ॥ ४२७ प्राचीनतनैः सर्वधर्मशास्त्रैर्मनीषिणः।। लभन्ते मां न संमूढाः, क्रूराश्च दोषदर्शिनः ॥ ४२८ मत्प्रभावं विजानन्ति, केवलं मत्परायणाः । मल्लीनाः शुद्धरागेण, बाला मूर्खाश्च पण्डिताः॥ ४२९
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प्रेमयोगः ] आर्यानार्यास्तथा देवाः, पशुपक्ष्यादिदेहिनः। लयलीना मयि प्रीत्या, मद्राष्टारोऽतिवेगतः ॥ धनैर्नैव प्रमोदेऽहं, न च वस्त्रादिभूषणैः। सर्वजीवदयादानैः, प्रमोदेऽहं स्वभावतः ॥
४३१ सव विश्वं मयि द्रष्टा, सर्वविश्वेषु मांस्तथा । स्वस्मिन्विश्वञ्च मां द्रष्टा, मद्रूपः स महाप्रभुः ॥ मत्तदैक्थं स्वभावेन, सिद्धात्मभावतः स्वयम् । । मत्तत्प्रभावभेदोऽपि, नैव किश्चित्कदाचन ॥ वनस्पत्यादिजीवेषु, मत्स्वरूपं विभावयन् । ध्याता सर्वत्र सत्प्रीत्या, मां पश्यति सुखालयम् ॥ ४३४ मां दृष्ट्वा मत्प्रभावञ्च, पूर्णानन्दो भवेजनः । सर्वजीवदयालुः स, मत्समो जायते सदा ॥ ४३५ सात्त्विकाहरभोक्ता मां, प्राप्नोति शुद्धमानसः । मल्लीनो राजयोगाथैर्मा स पश्यति वस्तुतः॥ ४३६ भूत्वा ये मत्स्वरूपास्ते, मदाराधनकारकाः। सर्वकर्त्तव्यकर्माणि, कर्त्तारो मयि संस्थिताः ॥ सर्वजातीयमज्जैनै नसाम्राज्यदर्शिकाः। चन्द्रसूर्याङ्किता धार्या, ध्वजाश्चैत्यादिके शुभाः॥ ४३८ जैनसाम्राज्यशोभार्थ, मङ्गलार्थश्च भावतः। सर्वशुभप्रसङ्गेषु, धार्या जैनध्वजा जनैः ।। सर्वत्र सर्वदा जैन, शासनं विश्वशान्तिदम् । आचन्द्रार्क जनै य, जयशीलं पताकया ॥ इति श्रीजैनमहावीरगीतायां श्रीप्रेमयोगनामको
द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः
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तृतीयाध्याये कर्मयोगः
भक्तियोगं निशम्याथ, पमच्छुगैतिमादयः । भगवन् सर्वथासिद्धिर्येन स्यात्सन्निवेद्यताम् ॥ श्रीवीरः प्रोचिवान्कर्मयोगं प्रवृत्तिलक्षणम् । यस्याराधनतो लोका, ब्रजन्ति परमं पदम् ॥ प्रवृत्तिलक्षणो धर्मः, सर्वधर्मोपकारकः । मद्भक्तैः सर्वदा सैव्यो, निवृत्तिकांक्षियोगिभिः ॥ प्रवृत्तिः सर्वभूतानां निवृत्तेरुपकारिका । प्रवृत्तिमन्तरा भक्तिः, कदापि नैव साध्यते ॥ प्रवृत्तिलक्षणो बोध्यः, कर्मयोगसुखप्रदः । निर्लेपत्वं समादाय, सेवितव्यो मनीषिभिः ॥ वीर्य विना च सोधं, कर्मयोगो न साध्यते । संसाध्यते महाधर्मः, शरैर्मिलेपयोगिभिः ॥ प्रवृत्तिधर्मगर्भेऽस्ति, निवृत्तिरवला स्थिरा । निवृत्तिधर्मरक्षार्थ, प्रवृत्तिधर्मकारणम् ॥ निष्क्रियो न भवेद्देही पूर्णनिवृत्तिमन्तरा । प्रवृत्तिपरिपक्वानां, निवृत्तिर्जायतेऽचला ॥ न जायते स्थिरा प्रज्ञा, प्रवृत्तियोगमन्तरा । अतो धर्मप्रवृत्त्यर्थ, यतितव्धं मनीषिभिः ॥ ज्ञानयोगं समासाथ, प्रवृत्तिः स्वाऽधिकारिका । क्षेत्रकालानुसारेण, साध्यते कर्मयोगिभिः ॥ व्यक्तधर्मः प्रवृत्तिस्तु, व्यक्तशक्तिस्वरूपिका । सर्वप्राणिप्रगत्यर्थ, क्रियते कर्मयोगिभिः ॥
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कर्मयोग: ]
प्रवृत्तिमन्तरा शक्तिः, कुत्राऽपि नोपपद्यते । प्रवृत्तिमन्तरा कार्य, साध्यते नैव योगिभिः ॥ प्रवृत्त्या दृश्यते सत्या, ज्ञानयोगस्य पक्वता । ब्रह्मरसपरीक्षार्थ, कर्माणि कुरुत स्वतः ॥ परब्रह्मरसास्वादो, भुज्यते सर्वकर्मसु । ज्ञानेन ब्रह्मयोगेन सर्वत्र ब्रह्मदर्शिना ॥ काम्यभावस्य संत्यागं कृत्वा कर्म समाचरेत् । सर्वार्थ स्वार्पणं कृत्वा, परब्रह्मपदं भजेत् ॥ स्वयं ब्रह्मस्वरूपोऽस्ति, स्वस्मिन्स्वेन समर्पणम् । कृत्वा ब्रह्ममयं सर्वे, दृष्ट्वा कर्म समाचरेत् ॥ स्वाऽधिकारवशात्प्राप्त - सर्वकार्यस्य सिद्धये । ब्रह्मरसस्य भोक्ताऽपि प्रवृत्तिं कुरुते शुभाम् ॥ सर्वजातीयधर्माणां प्रवृत्तिर्जीवनप्रदा । ज्ञात्वैवं धर्मवृद्धधर्थ, प्रवृत्तिः साध्यते जनैः ॥ विश्वं ब्रह्ममयं मत्वा दृष्ट्वा सर्वत्र मां प्रभुम् । विश्वादिपञ्चयज्ञानां कर्म कुर्वन्ति योगिनः ॥ सर्वयज्ञस्वरूपं मां, मत्वा निर्लेपवृत्तितः । दृष्ट्वा ब्रह्ममयं कर्म कुर्वन्ति ज्ञानिनः सदा ॥ सर्वजीवस्वरूपोऽहं यज्ञो विष्णुर्जिनेश्वरः । ब्रह्मयज्ञोऽस्मि मत्वैवं, कर्त्तव्यं कर्म सज्जनैः ॥ मयि यज्ञाः प्रवर्त्तन्ते, सब मद्भावमाश्रिताः । यज्ञस्वरूपमहन्तं, मां यान्ति कर्मयोगिनः ॥ केवलज्ञानरूपं मां, ज्ञात्वा प्रवृत्तिमाचरेत् । सर्वत्र सर्वकार्येषु, निर्लेपं स्वं विचारयेत् ॥ नाहङ्कारस्वरूपं स्वं ज्ञात्वा निर्भयतां भजन् । पूर्ण विश्वस्य भोक्तापि कर्मणा नैच लिप्यते ॥
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परब्रह्मणि संलीनो, जीवन्मुक्तोऽभिधीयते । वैदेहः कृतकृत्योऽपि, योग्यकर्म समाचरेत् ॥ सर्वेषां कर्मकर्तॄणां स्वस्य कर्मानुसारतः । फलं शुभाशुभं बोध्यं योगिनां ब्रह्मशुद्धता ॥ देहिभिर्यत्कृतं कर्म, यद्यद्भावाच्छुभाशुभम् । तत्तत्कर्म फलत्येव, जीवानां सुखदुःखकृत् ॥ निरासक्त्या कृतं कर्म, निर्जरार्थ प्रजायते । निष्कामं च सकामं, तद्यथा वृत्तिस्तथा भवेत् । आत्मज्ञानस्य पाकाय, ज्ञान्यपि स्वाऽधिकारतः । करोति धकर्माणि, निर्लेपत्वपरीक्षकः ॥ मयि न्यस्य स्वकर्माणि मद्रयं स्वं परीक्ष्य च । स्वं जेता सर्ववृत्तीनां ज्ञात्वा कर्म समाचरेत् ॥ सर्वकर्त्तव्य सत्कायैः प्राप्योऽहं कर्मयोगिभिः । मदुपदेशात्प्राप्तव्यं प्राप्यते ज्ञानयोगिभिः ॥ मनोधर्ममपाकृत्य, ब्रह्मरूपेण धीमता । योग्यं तद्विधातव्यं, दोषोऽस्ति नैव योगिनः ॥ परोपकारकार्यार्थ, दोषाः सन्ति न योगिनाम् । सर्वकार्यसमारम्भे, निर्दोषाः कर्मयोगिनः ॥ वित्तदारादिसंयोगे, निर्मोहाः कर्मयोगिनः । सर्वसङ्गेषु निःसङ्गा, ज्ञानिनः कर्मयोगिनः ॥ ब्रह्माग्नौ सर्वकर्माणि, हुयन्ते ज्ञानयोगिभिः । परब्रह्मस्वरूपास्ते, स्वतन्त्राः सर्वकर्मसु ॥ लेप्यवृत्तिषु निर्लेपा, अध्यात्मज्ञानयोगिनः । मुद्यन्ति न कदा केषु, योग्यकर्त्तव्यकारकाः ॥
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कर्मयोगः] धर्मार्थकाममोक्षार्थ, यतन्ते कर्मयोगिनः। स्वाऽधिकारं न मुञ्चन्ति, शुभेच्छादि क्रमेण ते ॥ सर्वजातीयशक्तीनां, प्राप्त्यर्थ कर्मयोगिनः। स्वधर्म मन्यमानास्ते, यतन्ते स्वाऽधिकारतः ॥ यत्र यत्र महाशक्तिस्तत्र तत्र वसाम्यहम् । सर्वशक्तिस्वरूपं मां, जानन्ति कर्मयोगिनः ॥ ज्ञानादिसर्वशक्तीनामाविर्भावो यतो भवेत् । सर्वविश्वोपकारार्थ, कर्मयोगः स कथ्यते ॥ स्वाऽधिकारोऽस्ति कर्तव्ये, निष्कामस्य महात्मनः । सर्वकर्माणि कुर्वन्स, न करोति न मुत्यति ॥ यत्र भानुस्तमस्तत्र, न तिष्ठति कदाचन । यत्र निष्कामता तत्र, निर्लेपत्वं स्वकर्मसु ॥ विना मोहेन सर्वत्र, ज्ञानेन कर्मयोगिनः । निर्लेपाः कर्म कुर्वन्ति, पद्मपर्णमिवाम्भसा ॥ प्रवृत्तिः सर्वशक्तीनां प्राप्यते कर्मयोगिभिः । विनाम्बां पुत्रवच्छक्तिः, प्रवृत्तिमन्तरा तथा ॥ प्रवृत्तिमन्तरा धर्मविवृद्धिर्जायते कथम् । प्रवृत्तियैस्तु संलक्ता, तैस्त्यक्ता आत्मभूतयः॥ सर्वधर्मस्य रक्षार्थ, प्रवृत्तिः सर्ववीयदा। देवतावत्सदाराध्या, कलायुक्तिविचक्षणैः ॥ मद्धर्मस्य विवृद्धयर्थ, रक्षार्थ कर्मयोगिभिः । मद्भक्तैर्धर्मकर्माणि, कत्तव्यानि विशेषतः॥ बाह्यान्तरा सदा साध्या, वीरता विश्वरक्षिणी। अहं वीर्यात्मना लभ्यो, निर्बलैन कदाचन ॥
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[ तृतीयाध्याय कर्मयोगस्य तात्पर्य, सर्वशक्तिविवृद्धये। ज्ञायते न कदा मूर्मन्नामाऽर्थपराङ्मुखैः॥ मद्भक्तैः सर्वदा बोध्यं, कर्मयोगो बलप्रदः । स्वाम्यहं सर्वशक्तीनां, योगिनः शक्तिमूर्तयः॥ महाब्रह्मा महाविष्णुात्वैवं मां सुयोगिनः । वीर वीरेति जल्पन्तो, बध्यन्ते नैव मोहतः ॥ सर्वकर्माणि कुर्वन्तो, मद्रपाश्रितयोगिनः । क्रियावन्तोऽप्यकर्माणो, मुक्ता धर्मप्रभावकाः ॥ अहमेव जनैः प्राप्या, सवधार्मिककर्मभिः । एवं विज्ञाय कुर्वन्ति, कर्माणि कर्मयोगिनः ॥ सर्ववाञ्छितदं पूर्ण, वर्तते जैनशासनम् । सर्ववेदान्तपाथोधिः, पूर्णधर्मसनातनः ॥ ज्ञात्वैवं योग्यकर्माणि, कुर्वन्तो भव्यमानवाः । संप्राप्य मां परब्रह्म, कृतकृत्या भवन्ति ते ॥ सर्ववेदैरहं स्तुल, आगमैश्च सनातनैः । ज्ञात्वैवं मां समाश्रित्य, कर्म कुर्वन्ति योगिनः ॥ कर्मयोगो महाशक्तः, सर्वधर्मस्य रक्षकः । विज्ञाय कर्मयोगी मां, धर्म्य कर्म समाचरेत् ॥ मातेव पोषकः प्रीत्या, पितेव विश्वरक्षकः । ज्ञात्वैवं कर्म कुर्वन्ति, धर्मार्थ कर्मयोगिनः॥ मद्वचनेषु विश्वासं, पूर्ण कृत्वा महाजनाः । मदासक्ताः प्रकुवन्ति, कर्माणि ते मम प्रियाः ॥ ५९ सतामनेकधर्मेषु, विज्ञाय पूर्णचिन्मयम् । सर्वशक्तिस्वरूप मां, समाश्रयन्ति योगिनः ॥
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कर्मयोगः ] कर्मभ्यो नैव भेतव्यं, मद्भक्तैः कर्मयोगिभिः । येषां चित्तेष्वहं वीरस्तत्र मोहस्य किं बलम् ॥ कायिकादिवलं रक्ष्य, ब्रह्मचर्यादिसदव्रतैः। सर्वशक्तिप्रकाशार्थ, कर्त्तव्यं कर्म मानवैः ॥ शक्तिमन्तोऽनुजीवन्ति, रक्षन्ति सदबलान्यपि । धर्मसंघस्य रक्षार्थ, समर्थाः कर्मयोगिनः॥ मान्याः पूज्याः सदा सेव्याः, शक्तिमन्तो महाशयाः । सर्वजातीयधर्माणां, रक्षकाः कर्मयोगिनः ॥ मद्भक्तैः सर्वदा साध्या, बहिरन्तः स्वशक्तयः । आन्तरशक्तिरक्षार्थ, समर्था बाह्यशक्तयः ॥ आत्मशक्तिप्रकाशार्थ, कर्मयोगस्य मुख्यता। कर्मयोगो महाधर्मो, वस्तुतो व्यवहारतः ॥ अनवृत्तितः सर्व-कर्त्तव्यकर्मकारकाः।। सत्यवराथिनः सन्तो, जयन्ति कर्मयोगिनः ॥ आत्मशुद्धिप्रकाशार्थ, योगिना यविधीयते । परार्थ तत्प्रबोद्धव्यं, गताः स्वार्थाः परार्थताम् ॥ सत्त्वशुद्धिप्रकाशेन, ब्रह्मार्थ कर्मसङ्गतिः । ब्रह्मणि ब्रह्मणा सम्यक्, कर्मतो ब्रह्म दृश्यते ॥ ब्रह्मदर्शी महायोगी, ब्रह्मवर्ती क्रियापरः । कर्मणि ब्रह्मभावेन, वर्तते कर्मयोगिराट् ॥ पोषकः सर्वशक्तीनां, कर्मयोगः शुभङ्करः। ज्ञानयोगी स्वयं भूत्वा, भव्यः कर्म समाचरेत् ॥ भक्तितः कर्मयोगस्य, श्रेष्ठता सार्वकालिका । सर्वजातीयजीवानां, सेवायां स्वर्गसिद्वयः॥
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कल्याणं सर्वजीवानां कुर्वन्तः कर्मयोगिनः । - ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्थाः, सर्वपापविनाशकाः ॥ जीवान्स्वात्मसमान मत्वा, वैषम्यं परिहृत्य ये । सुष्ठु कर्माणि कुर्वन्ति तेषां शान्तिं ददाम्यहम् ॥ शुभार्थी कर्म कुर्वन्ति, सदाचाररता जनाः । पुण्यकर्माणि कुर्वन्ति, काम्यवृत्तिवियोगिनः ॥ विश्वोद्वाराय ये नित्यं कर्म कुर्वन्ति योगिनः । साध्यलक्ष्योपयोगेन, निर्दोषाः सर्वकर्मसु ॥ अनासक्त्या प्रकुर्वन्ति, सर्वकर्माणि योगिनः । अनासक्ताः शिवं यान्ति, धर्म्यकर्मपरायणाः ॥ सर्वतीर्थङ्करैरुक्तः, सेवाधर्मः सनातनः । मयाऽपि सर्वजीवानां कल्याणार्थ प्रबोधितः ॥ शुभेच्छयाऽपि संसेव्यः, कर्मयोगः सुखप्रदः । शुभेच्छातः कृतं कर्म, पुण्यबन्धाय जायते ॥ स्वर्गलोकं जना यान्ति, शुभेच्छाकर्मकारकाः । शुभाशुभं मनस्त्यक्त्वा, मुक्ता भवन्ति योगिनः ॥ सर्ववाञ्छाविनिर्मुक्तं मनः कृत्वा विवेकिनः । मद्रूपं संस्मरन्तस्ते, सज्जन्ते नैव कर्मसु ॥ मदाराधन सद्भक्ता, जायन्ते शक्तिसंयुताः । तेषां पराजयो नास्ति, सर्वत्र सर्वकर्मभिः ॥ युगप्रधानाः सूर्याचा, मद्धर्मस्य प्रचारकाः । प्रकाशयन्ति मच्छक्ति, सेव्या मत्तुल्यभक्तितः ॥ मोहिनो नैव मद्भक्ताः, स्वार्थवृत्तिपरायणाः । मत्स्वरूपं न जानन्ति, कुर्वन्ति पापबन्धनम् ॥
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कर्मयोगः ] नास्तिका मोहसंमूढा, नैव ते कर्मयोगिनः । येषां चित्ते न मद्भक्तिः, क्रियावन्तोऽपि निर्बलाः ॥ सर्वजीवेषु सत्तातो, वीरत्वं मत्समं स्थितम् । विज्ञाय सर्वकर्माणि, कुर्वन्ति कर्मयोगिनः॥ महाऽवताररूपास्ते, भक्तितो मयि संस्थिताः । विश्वोद्धाराय जायन्ते, धर्माचार्याः प्रभावकाः ॥ मत्प्रचारितधर्मस्य, मत्पश्चात्ते प्रवर्तकाः । धर्मापत्तिप्रसङ्गेषु, जायन्ते धर्मनोदिताः॥ .. धर्मतः पतितव्यं न, कर्मयोगपरायणैः । प्रमादादात्मशक्तीनां, हासो भवति योगिनाम् ॥ अप्रमत्ता महाभक्ता, धर्म्यकर्मपरायणाः । सर्वशक्तिसमाजेन, धीश्रीयुक्ता भवन्ति ते ॥ भ्रष्टता न कदा सेव्या, स्वाश्रयाश्रितकर्मणाम् । गृहस्थैस्त्यागिभिश्चैवं, ज्ञातव्यं सुविवेकतः ॥ स्वाऽधिकारवशाद्धर्मो, निश्चयव्यवहारतः। . स्वस्वकर्त्तव्यकार्याणां, लागे पापं भवेन्नृणाम् ॥ यावदगृहस्थितिस्तावदगृहकर्माऽधिकारता । यावत्यागदशा तावत्यागिकर्माऽधिकारता ॥ गृहस्थैर्गुहिधर्मेभ्यस्त्यागिभिरत्यागकर्मतः । भ्रष्टता न कदा धार्या, ममा वं जनान्प्रति ॥ मयि श्रद्धालवो भक्ताः, पुरुषार्थपरायणाः । मत्सत्तापूर्णवेत्तारस्ते स्युर्धर्माऽधिकारिणः ॥ ९५. मद्भक्ता ब्राह्मणाः सन्तः, क्षत्रिया धर्मरक्षकाः। वैश्याः शदास्तथाऽन्येऽपि, भक्तिशक्तिप्रसाधकाः ॥ ९६
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[सृतीयाध्याये कर्मवीरास्तथाऽन्ये ये, धर्मवीराः शुभराः । सर्वजातीयवीरेषु, मच्छक्तिर्व्यक्तितः शुभा ॥ गृहस्थास्त्यागिनो वीरा, धर्म्यकर्माणि युक्तितः । कुर्वन्तः पूर्णसत्प्रीत्या, मत्पदं यान्ति वेगतः ॥ ९८ सर्वजातीयवर्णेषु, मद्भक्ता मदुपाश्रिताः । सर्वजातीयकर्माणि, कुर्वन्तो यान्ति मत्पदम् ॥ त्रिगुणस्थितप्रद्भक्ता, धर्म्यकर्मपरायणाः । ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः, शूद्रा गच्छन्ति मत्पदम् ॥ १०० सर्वजातीयशक्तीनां, धारकाः कर्मयोगिनः । जित्वाऽरीन्द्रव्यभावेन, जिनत्वं यान्ति वस्तुतः ॥ १०१ जिनत्वं यान्ति सज्जैनाः, सर्ववर्णीययोगिनः । स्वातन्त्र्यं यान्ति मद्भक्त्या, निर्दोषाः सर्वकर्मसु ॥ - १०२ सर्वजातिषु भव्याः स्युजैना वीर्यसमन्विताः । ज्ञानादिसदगुणैर्युक्ता, भवन्ति कर्मयोगिनः॥ अर्हन्तो वीतरागा ये, सर्वधर्मप्रवर्तकाः । -विश्वोद्धारं प्रकुर्वन्ति, प्रशस्यधर्मकर्मभिः ॥ सर्वदेहेषु मां दृष्ट्वा, सत्तातः कर्मयोगिनः । मद्भावं प्राप्य जैनास्ते, जिनत्वं यान्ति सत्वरम् ॥ १०५ सिद्धा भवन्ति ते बुद्धा, मद्रूपापन्नयोगिनः। गृहस्थास्त्यागिनो लोका, यान्ति मद्धाम वेगतः ॥ १०६ निर्दोषाः स्युः सदा जैना, धर्म्ययुद्धादिकर्मसु । सर्वकर्मसु निष्पापा, आपत्कालेषु मां श्रिताः ॥ धर्मदेशसमाजस्य, यानि कर्माणि तानि वै । कर्तव्यानि विशेषेण, सज्जैनैः कर्मयोगिभिः ॥ १०८
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कर्मयोगः] कर्मयोगः सदा साध्यो, जैनधर्मपरायणैः । आवश्यकः सतां मान्यः, सर्वलोकस्य जीवनम् ॥ १०९ धर्मरक्षकयोगस्य, महत्ता सर्वतोऽधिका । कर्मयोगस्य तात्पर्य, धर्मरक्षककर्मसु ॥ अहं नारायणो विश्ववल्लभः पुरुषोत्तमः । मत्तो धर्मस्य रक्षाऽस्ति, मत्तुल्या धर्मिसूरयः ॥ रुद्रो महेश्वरः शंभुमहादेवः सदाशिवः । अनेकाकृतिनाम्नाऽहं, जैनेन्द्रो धर्मरक्षकः॥ ११२ आदिनाथो महाब्रह्मा, जगन्नाथोऽस्मि वस्तुतः। महाविष्णुः परब्रह्म, मत्तो नाऽन्योऽस्ति शक्तितः॥ ११३ मत्स्वरूपाः प्रबोद्धव्या, युगेषु धर्मरक्षकाः । धर्मप्रवर्तकाः श्रेष्ठास्तथा धर्मस्य रक्षकाः॥ . १ कलौ युगप्रधाना ये, धर्मरक्षकयोगिनः । धर्मप्रवर्त्तकाः सर्वे, मद्रूपा धर्ममूर्तयः॥ पश्चमारे महासत्त्वा, धर्माचार्याः शुभङ्कराः । कलिधर्मेण युक्तास्ते, मत्तुल्या धर्मरक्षकाः ॥ कलौ मद्धर्भयुक्तानां, धर्मरक्षकयोगिनाम् । भिन्नाऽऽचारविचारेषु, धर्मसापेक्षता मता ॥ विधिनिषेधो नैकान्तः, सूरीणां सर्वकर्मसु । कलिधर्माऽनुसारेण, वतिष्यन्ते ह्यपेक्षया ॥ देशकालानुसारेण, धर्ममार्गप्रवर्तकाः । अनेकोपाययोगेन, जैनशासनरक्षकाः ॥ कलौ श्रीसूरयोऽनेके, वय॑न्ति धर्मरक्षकाः। जैनधर्मस्य रक्षायां, दोषाः सन्ति न कर्पसु ॥
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जैनधर्मस्य रक्षार्थमने के कर्मयोगिनः । निर्लेपा रक्षकाः सन्तो, भविष्यन्ति सदाशयाः ॥ प्राधान्यं कलिधर्मस्य, स्वीकृत्य धर्मरक्षणे । वर्त्तिष्यन्ते महात्मानः, परार्थस्वार्थ साधकाः ॥ धर्माssचारविचारेण, मद्रपा धर्मरक्षकाः । नरा नार्यो गृहस्थाच, त्यागिनो यान्ति मत्पदम् ॥ वेदागमप्रचारेण, जैनधर्मप्रचारकाः । महत्पूज्या नरा नार्यो, निर्दोषाः सर्वकर्मसु ॥ श्रेष्ठा धर्म्यप्रवृत्तिस्तु, कलौ निवृत्तितो मता । कलावंशोऽपि धर्मस्य, महान्सत्ययुगादितः ॥ कलावल्प सदाचारो मोक्षदो भाषितो मया । सर्वदेशीयजातीनां मद्भक्तानां गतिः शुभा ॥ hot मर्मरक्षार्थमापत्तिदुःखभागिनः । भविष्यन्ति नरा धन्याः, सत्वरं मोक्षगामिनः ॥ सत्याचारविचारेण, जैनधर्मः सनातनः । सर्ववेदान्तसारोऽस्ति, जैनधर्मः सदा महान् ॥ सर्ववेदस्वरूपोऽस्ति, जैनधर्मः सनातनः । अनाद्यनन्तरूपेण, सर्वधर्ममयः सदा ॥ जैनधर्मो महायज्ञः, सर्वयज्ञेषु भाषितः । जैनधर्मस्य सेवायां विश्वसेवा समागता । विश्व सेवास्वरूपोऽस्ति, जैनधर्मः सनातनः । राष्ट्रादिसर्वधर्माणां, रक्षकः सर्वशक्तिदः ॥ जैनधर्मे समावेशो, राष्ट्रादिधर्मकर्मणाम् । सत्याचारविचाराणां, पोषको दोषमोषकः ॥
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[ तृतीयाध्याये
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कर्मयोगः ] "
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जैनधर्मे समावेशो, विज्ञानानां विशेषतः । जैनधर्मोऽस्ति मद्रूपं तद्धर्मोत्पत्तियोगतः ॥ जैनधर्मस्य रक्षा या सर्वस्वाऽर्पणकारिणाम् । पूर्णशक्तिप्रदाताऽस्मि, भक्तदोषापहारकः ॥ निर्बला नैव जायन्ते, जैनधर्मप्रवर्त्तकाः । जैनानां हृदि सन्निष्ठः, परात्माऽहं जगद्गुरुः ॥ सर्वजीवोपरि प्रेम-धारका विश्वशर्मदाः । जैना मद्रूपतां यान्ति, स्वात्मवद्विश्ववर्त्तिनः ॥ जैनधर्मप्रचारार्थ, रक्षार्थ कर्मयोगिनः । यादृक्तादृक्प्रवृत्त्या ते, निर्लेपाः स्वर्गगामिनः ॥ देवा देव्यश्च सन्तुष्टा, जायन्ते कर्मयोगिनाम् । देवा देव्यो मदायत्ता, मद्भक्तानां सहायकाः ॥ जीवानामधिकारेण भिन्नभिन्नोपदेशतः ।
एकं ब्रह्मस्वरूपं मां, पश्यन्ति धर्मरक्षकाः ॥ आत्मरूपेण सत्तातः, सर्वधर्मिषु संस्थितम् । मां पश्यन्ति परब्रह्म, ते मर्मस्य रक्षकाः ॥
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दोस्त नैव धर्मस्य, मज्ज्ञा जानन्ति युक्तितः ॥ १३९
जैनधर्मप्रभेदेषु, मुह्यन्ति नैव सूरयः ।
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सर्वेऽपि मत्पदं यान्ति, सरितः सागरं यथा ॥ ज्ञात्वैवं वृक्षशाखावज्जैनधर्मस्य रक्षकाः । कुर्वन्ति धर्मकर्माणि कृत्वैक्यं ते परस्परम् ॥ यत्रैक्यं तत्र वासो मे, तत्राऽस्ति प्रगतिर्ध्रुवा । मत्प्रेमभक्तलोकानां, हृद्यहं तत्र शुद्धता ॥ परस्परविरुद्धेषु, जनधर्ममतेष्वपि ।
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[ तृतीयाध्याये
सर्वेषु भिन्नधर्मेषु, धर्मिषु च जिनेश्वरम् । धर्माचार्या विलोकन्ते, जैनधर्मस्य रक्षकाः ॥ मया सर्वज्ञवीरेण यत्प्रोक्तं नाऽन्यथा भवेत् । धर्मप्रवर्त्तका एवं ज्ञात्वा कुर्वन्ति सत्क्रियाम् ॥ लोकाह मनुजा नित्यं सत्ताशक्तिधनादिभिः । विद्याज्ञानादिभिः पूर्णाः, श्रेष्ठता धर्म्यमार्गिणाम् ॥ १४७ तो धर्मार्थभिधर्मरक्षार्थकोविदैः । सर्वथा धर्मशाखानां, रक्षा कार्या शुभङ्करा ॥ धर्मशाखा असंख्याता, जीवानां वृत्तिभेदतः । परस्पराविरोधिन्यः, सर्वसत्येषु सङ्गताः ॥ मोक्षमार्ग असंख्याता, ज्ञातव्याः कर्मयोगिभिः । परस्पराविरोधेन, रक्षितव्याः सनातनाः ॥ रहस्यं जैनधर्मस्य, सर्वज्ञोक्तं विभाव्य तत् । रक्षार्थ जैनधर्मस्य, कर्त्तव्यं स्वार्पणं सदा ॥ सर्वशु भोन्नतेः पश्चात्पतितव्यं न दुर्गुणैः । सर्वदा सर्वथा जैनैः, साध्या सर्वशु भोन्नतिः ॥ येन केन प्रकारेण, क्षेत्रकालानुसारिणा । योग्योपायेन संसाध्या, जैनधर्मप्रचारणा ॥
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रक्षा भवति लोकानां कृते सद्धर्मरक्षणे । यत्र धर्मो जयस्तत्र, धर्मः साध्यो जनैः सदा ॥ मर्मसाधकानां ये, पूर्णसाहाय्यकारकाः । शीघ्रं ते मत्पदं यान्ति, घोरपापिजना अपि ॥ मत्पूर्वाङ्गप्रकीर्णानां शास्त्राणां पूर्णरक्षकाः । अतिप्रिया जना देवा, देव्यश्च धर्मरक्षणात् ॥
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कर्मयोगः ] .. अतिमिया जना मे ते, जैनधर्मप्रभावकाः । धर्मप्रवर्तकाचार्या, आप्नुवन्ति पदं मम ॥
१५७ भक्तानामपि ये भक्तास्तेषां हृदि वसाम्यहम् । युक्तिप्रयुक्तिभिर्धर्म-रक्षका मे महाप्रियाः ॥ १५८ मुक्ता भवन्ति ते शीध्र, मद्भक्तानां सहायकाः । सहायकाऽनुमन्तरो, मद्रूपा मत्पदाश्रिताः ॥ जैनधर्मसमो धर्मो, नैव भूतो भविष्यति। .. जैनधर्मस्य वृद्धयर्थ, कर्तव्यं कर्म सज्जनैः ॥ जैनधर्मोपदेष्टणां, मतुल्या पूज्यता सदा। मन्तव्या च प्रकव्या, जैनधर्मार्थसाधकैः ॥ राष्ट्रादिधर्मकर्माणि, कर्तव्यानि प्रयुक्तिभिः । जैनधर्मस्य रक्षार्थ, सदगुर्वाज्ञा विधीयताम् ॥ १६२ कलौ धर्मगुरूणां ये, सर्वाज्ञापालका जनाः। । मदाज्ञापालका बोध्या, वासो गुरुषु मे सदा ॥ १६३, बोद्धव्य आत्मसत्तातः, सर्वविश्वमयो गुरुः। अतः श्रद्धाबलेनैव, गुर्वाज्ञा परिपाल्यताम् ॥ १६४ धर्मप्रवर्तकाऽऽचार्याः, सेवनीया विशेषतः । मत्पश्चाज्जैनधर्मस्य, रक्षकाश्च प्रभावकाः ॥ किञ्चिद्भेदो न मन्तव्यो, मयि धर्मगुरुष्वपि । धर्माचारविचारेषु, तेषां नो प्रतिबद्धता। गच्छन्ति सर्वदेशेषु, धर्मिसंख्या वृद्धये । आर्याऽनार्यप्रदेशानां, कल्पना नैव वस्तुतः ॥ .. १६७ वसन्ति यत्र मद्भक्ता, धर्माचार्याः प्रवर्तकाः। आर्यता तत्र बोव्या , धर्मकर्मप्रभावतः ॥ १६८,
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[ तृतीयाध्याये गायन्ति यत्र मां जैनास्तत्र वासोऽस्ति मामकः। सर्वथा तत्र पावित्र्यं, धर्मकर्मसमुद्भवम् ।। १६९ चक्रवादिभिः पूज्या, मद्धर्मस्य प्रवर्तकाः । मद्धर्मिदेषिलोकानां, विनिपातः सहस्रधा॥ १७० विद्यासत्ते सदा रक्ष्ये, मद्धर्मस्य प्रवर्तकैः। विद्यासत्तादिशक्तीनां, नाशका नैव मजनाः ॥ १७१ जैनसंघस्य रक्षार्थ, राज्यसत्तादिकं बलम् । युक्तिप्रयुक्ति भी रक्ष्यं, जैनैः स्वास्तित्वहेतवे ॥ १७२ सर्वशक्तिस्वरूपोऽयं, मद्धो येन धार्यते । मद्धाम प्राप्यते तेन, गृहस्थेन च साधुना ॥ रागद्वेषं तु धर्मार्थ, नैव बन्धाय जायते । अधर्म्यरागदोषाणां, त्यागाद्रागी भवेज्जनः ॥ .. १७४ सर्व ब्रह्मति मां मत्वा, रागिणः प्रभवन्ति ये। शुद्धब्रह्मपदं यान्ति, त्यागिनः कर्मयोगिनः॥ एते मद्धर्भवेत्तारो, गृहस्था अनगारिणः । धर्मरक्षां शुभं कृत्वा, भवन्ति शुद्धयोगिनः ॥ १७६ सर्वत्र सर्वकार्येषु, दृष्ट्वा मां प्रेमभक्तितः । कुर्वन्ति योग्बकर्माणि, मम धर्मप्रवर्तकाः ॥ १७७ मद्धर्माचार्यभक्तेषु, श्रद्धाभक्तिं भजन्ति ये । शक्त्याविर्भावरूपेण, तेषां मुक्ति दाभ्यहम् ॥ १७८ सर्वकार्येषु निर्दोषा, मम धर्मप्रवर्तकाः । मुश्चन्ति चैव गृहन्ति, धर्माचारान्विवेकतः॥ १७९ धर्माचारा अनित्याः स्युः, क्षेत्रकालाऽधिकारतः। तत्त्वधर्मः सदा नित्यो, जैना जानन्ति मन्मयाः ॥ १८०
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कर्मयोगः ] अतस्ते धर्मरक्षार्थ, वर्तन्ते सर्वयुक्तिभिः । उत्सर्गेष्वषवादेषु, स्वतन्त्रा धर्मवर्त्तकाः॥ यदा धर्मस्य मालिन्यं, जैनसंघस्य हीनता। भविष्यति तदाचार्या, भविष्यन्ति महाबलाः ॥ १८२ आपद्धर्म समालम्ब्य, कलौ मद्धर्मरक्षणे । भविष्यन्ति समर्थास्ते, जैनधर्मप्रभावकाः ॥ १८३ विद्यासत्ताबलाचैः स्युजैना मद्धर्मरक्षकाः । ममाज्ञयोक्तकर्माणि, कुर्वन्ति धर्मयोगिनः ॥ १८४ जीविका धर्म्यकर्माणि, क्षेत्रकालाऽनुसारतः । कुर्वन्ति सर्वदेशीया, जैना इच्छादिसंयुताः ॥ १८५ धासक्ति समालम्ब्य, विद्याव्यापारकर्मसु । वत्तन्ते गृहिणो जैनाः, क्षात्रसेवादिकर्मसु ॥ ज्ञानिनो नैव लिप्यन्ते, मनोवाकायकर्मभिः। आसक्तिमन्तरा तानि, कुर्वन्ति स्वाऽधिकारतः ॥ १८७ निरासक्त्या तु कर्माणि, नैव बध्नन्ति योगिनः । काम्यभावस्य संत्यागात्कर्म कुर्वन्ति शक्तितः॥ मच्छासनस्य रक्षार्थ, धर्मरक्षकयोगिनाम् । कुर्वतां सर्वकार्याणि, कर्मबन्धो न जायते ॥ महावीरेति मां भक्त्या, भजन्तो धर्मरक्षकाः । धर्मप्रभावनां कृत्वा, यान्ति स्वर्गश्च मत्पदम् ॥ कलौ क्षात्रबलाचैर्मधर्मवृद्धिः प्रजायते । निर्वीर्या नैव जानन्ति, मदुक्तं धर्मरक्षणम् ॥ कषाया धर्मतां यान्ति, धर्मरक्षादिकर्मसु । सत्क्रोधादिबलात्स्वर्ग, यान्ति जैनाः कलौ गेयु ॥ १९२
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[ तृतीयाध्याये कलौ धर्म्यकषायाँस्तु, धर्मकामार्थकर्मसु । मम भक्ताः प्रकुर्वन्ति, जैनाचार्यादयस्तथा ॥ कलौ धर्म्यकषायेण, धर्मा जीविष्यति क्षितौ । देवगुर्वादिषु प्रेम, मोक्षादिनापर्क मतम् ।। रागादिककषायैस्तु, कलौ मादर्भसेवकाः । धर्माचार्या भविष्यन्ति, मदाज्ञाधर्मरक्षकाः॥ धर्मप्रभावका येते, धर्थरागाश्रिताः सदा । स्वर्गे यान्ति कलौ भक्त्या, मद्रागे स्वर्गसिद्धयः॥ १९६ कलौ सरागधर्भस्य, साम्राज्यं सर्वधर्मिषु । वर्त्तते सर्वकार्येऽतो, वर्तितव्यं प्रयत्नतः ॥ कलौ मद्रागतश्चैव, धर्माचार्यस्य रागतः । जनाः पवित्रतां यान्ति, धर्मरक्षकभक्तितः ॥ जैनधर्मस्य रक्षायां, कार्य सर्वसमर्पणम् । जैनधर्मः सदा सेव्यो, धृत्वा मद्रचनं हृदि ॥ मदनुयायिजनानां, भक्तिमद्भक्तिरेव सा । मद्धर्माश्रितजैनानां, देषो मघातरूपकः ॥ मदाचार्याश्च मत्संघा, छेप्या नैव कदाचन । कलौ संघबलेनैव, वर्तते जैन शासनम् ॥ धर्मप्रचारका बोध्याः, पुरुषार्थपरायणाः । कर्मतोऽपि प्रयत्नस्य, महत्ता साध्यसाधनैः ।। आरंभाश्च समारंभा, जैनधर्मस्य वृद्धये । संघार्थ नैव दोषाय, धर्मिणां रक्षण तथा ॥ हिंसाऽपि धर्मतामेति, जैनधर्मस्थ रक्षणे । चतुर्विधस्य संघस्य, रक्षार्थ सर्वकर्मसु॥
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कर्मयोगः ]" नैव पापप्रसंगोऽस्ति, कुरुध्वं कमशक्तितः। .. आजीविका प्रवृत्तौ तु, दोषाः सन्ति न बोधतः ॥ २०५ ज्ञात्वैवं जनसंघेन, सर्वधर्म्यप्रवृत्तिभिः । धर्मप्रभावना कार्या, संप्राप्य सर्वतो बलम् ॥ . २०६ सर्वजातिबलं प्राप्यं, कलौ जनैः प्रयत्नतः। . अन्यधार्मिकयुद्धेभ्यो, धर्मो रक्ष्यः सनातनः ॥ २०७ धर्भप्रभावका योगाः, कलौ ये वार्त्तमानिकाः । ते साध्याः सर्वसंवेन, धर्मरक्षाविवृद्धये ॥
२०८ गृहाश्रमो मया प्रोक्तः, कृतोऽपि स्वाऽधिकारतः। त्यागाश्रमो मयाऽऽरब्धो, छयोहिं धभकर्मता ॥ धर्मप्रभावको योगः, सर्वज्ञेन मया कृतः। . तीर्थङ्करेण विश्वस्य, कल्याणाय च बोधितः ॥ सर्ववर्णगृहस्थैश्च, त्यागिभिः स्वाऽधिकारतः । धर्मप्रभावनारक्षा-वृद्धिः कार्योन्नतिपदा ॥ लोकसंग्रहन्यायेन, पूर्णनिष्कामिना मया । आरब्धः कृतकृत्येन, कर्मयोगः सुखावहः ॥ महाजना गता यत्र, तत्राऽन्ये यान्ति मानवाः । इति विज्ञाय मद्भक्ताः, कर्म कुर्वन्ति निश्चितम् ॥ २१३ सर्वविश्वोपकाराय, कृतं सद्देशनादिकम् । अन्येषां तर्हि का वार्ता, धर्भवृद्धयादि कर्मसु ॥ २१४ परस्परोपकारित्वं, सर्वजातीयदेहिनाम् । त्यागिनां च गृहस्थानां, प्रजानां भूभुजां सदा ॥ २१५
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[ तृतीयाध्याये सर्वेषामुपकारित्वं, वर्ततेऽनेकजन्मसु । विज्ञाय स्वोचितं कर्म, कर्त्तव्यं सर्वदेहिभिः॥ २१६ रक्षितो वर्द्रितो धर्मो, लोकान्रक्षति निश्चितम् । तस्मात्सर्वप्रकारेण, कार्य धर्मस्य रक्षणम् ॥ २१७ स्वाधिकारेण साध्यानि, धर्मकर्माणि यत्नतः । दृश्योऽहं पूर्णसद्ब्रह्म, सर्वत्र धर्मकर्मसु ॥ २१८ धर्मप्रभावना कार्या, सर्वस्वाऽर्पणयोगतः । धाचारविचारेषु, मां दृष्ट्वा पूर्णभक्तितः ॥ आविस्तिरो रहस्यानामानन्त्यं परिवर्त्तते । हर्षशोको न कर्तव्यो, सर्वकर्त्तव्यकर्मसु ॥ सर्वदा सर्वथोद्योगः, कर्त्तव्यः सर्वदेहिभिः। ... किमसाध्यं प्रयत्नेन, किं दुर्गम्यं सयोगिनाम् ॥ २२१ गुणिनः पुत्रशिष्या ये, दयाविनयसागराः। गाम्भीर्यप्रेमसंसक्ता, दातारः कर्मयोगिनः॥ आत्मसामर्थ्यविश्वासात् , कर्त्तव्यं कर्म सिद्धयति । आत्मसामर्थ्यविश्वासो, मोचनीयो न मानवैः ॥ २२३ अशक्यान्यपि कर्माणि, क्रियन्ते स्वात्मशक्तितः। आत्मश्रद्धां समालम्ब्य, वर्तध्वं भव्यमानवाः ॥ २२४ आत्मसामर्थ्यविश्वासो, विश्वजीवनजीवनम् । अतो जाग्रत भो भव्याः, कुरुध्वं कर्म यत्नतः ॥ आत्मसामर्थ्य विश्वास-प्रयत्नमन्तरा जनः । सर्वकर्तव्यकार्येषु, समर्थो नैव जायते ॥ २२६
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कर्मयोगः ]
अनन्तशक्तिसामर्थ्य - स्वरूपोऽयं स्वभावतः । किं किं न साधयत्यात्मा, ज्ञात्वोत्तिष्ठत मानवाः || २२७ कर्त्तव्यकार्यसिद्ध्यर्थे, स्वाश्रयिणो भवन्तु भोः । आत्मना क्रियते सर्व, स्वायत्ताः स्वर्गसिद्धयः ॥ ज्ञान्यपि जायते शुष्कः, कर्म कर्त्तव्यमन्तरा । अतः श्रद्धां समालम्व्य, भवन्तु कर्मयोगिनः ॥
इति श्रीजैनमहावीरगीतायां श्रीकर्मयोगनामकस्तृतीयोऽध्यायः समाप्तः
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चतुर्थाध्याये धर्मयोगः कर्मयोगफलं श्रुत्वा, प्रसन्ना गौतमादयः। धर्मयोगं मनुष्याणां, पप्रच्छुः प्रभुमादात् ॥ वीरः प्राह महासत्वाः ! शृणुध्वं सुखशेवधिम् । गृहस्थेतरवर्गाणां, धर्मयोगं ब्रवीम्यहम् ॥ धर्मार्थकाममोक्षाणां, प्रापको धर्म उच्यते । धारणात्सर्वशक्तीनां, तात्त्विको धर्म उच्यते ॥ दुःखादिषु पतज्जीवान् , यो धारयति शक्तिभिः । द्रव्यतो भावतश्चैव, जैनधर्मः स उच्यते ॥ सर्वजातीयदुःखानां, जेता मद्धर्म उच्यते । धर्मभेदा असंख्याता, गृहिल्लागादिभेदतः ॥ ज्ञानावरणमुख्यानां, कर्मणां नाशकारकः । आत्मशुद्धिकरश्चैव, जैनधर्मः सनातनः ॥ अनादितः प्रवृत्तो यो, मद्धर्मो विश्वपावकः । सूर्यचन्द्रादिसर्वेषां, स्थितिः श्रीजैनधर्मतः ॥ परब्रह्मस्वरूपोऽस्ति, जैनधर्मः स्वभावतः । जैनधर्मप्रभावेण, विश्वशान्तिव्यवस्थितिः ॥ पालकः सर्वजीवानां, सवर्णस्य शासकः । अनादितः प्रवृत्तो यो, जैनधर्मः सनातनः ॥ विश्वप्रवर्तिता धर्मा, जैनधर्ममहोदधेः । तरङ्गा वेदितव्यास्ते, सर्वसत्यविवेकतः ॥
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धर्मयोगः ] पालिते जैनधर्मेऽस्मिन् सर्वे धर्माः प्रपालिताः । सागरे सरितो मान्ति, सरित्सु नैव सागरः ॥ मद्धर्मेऽभिन्नतां यान्ति, सर्व धर्मा अपेक्षया । सर्थ देवा मयि व्याप्ताः, स्वांशभेदेश भेदवान् ॥ मप्यतः पूजिते सर्वे, धर्माः संसाधिताः खल्लु। महमें साधिते सर्वे, धर्माः संसाधिताः सदा ॥ मदभिन्ना सर्वधर्माः, मद्धर्मोदधिबिन्दवः। सत्याचारविचाराणां, मदर्भः पूर्णसागरः॥ भूता भवन्ति ये धर्मा, भविष्यन्ति कलौ युगे। महर्मे तत्समावेशो, नयैः सर्वैरपेक्षया ।। सर्वेऽपि भिन्ननामानो, धर्माः सत्यांशतः सदा । अभिन्ना जैनधर्ने ते, आपगा इव सागरे । जैनधर्मः सदा सत्यः, सर्वधर्माशसागरः। स्तुवन्ति सर्ववेदा यं, जैनधर्म सनातनम् ॥ यत आत्मोन्नतिः पूर्णा, तथा सङ्घोन्नतिर्भवेत् । धर्मः स मन्जनैः साध्यः, सर्वशक्तिप्रदोऽस्ति यः ॥ १८ सदगुणा धर्मरूपास्ते, मनोवाकायसंभवाः। अधर्मा दुगुणा ज्ञेया, धर्मसाम्राज्यनाशकाः ॥ चतुर्विधस्य सङ्घस्य, विनिपातो भवेद्यतः । अधर्भः सज ने यः, सङ्घशक्तिविनाशकः ॥ त्यागेन स्वाऽधिकारस्थ, मनुष्याणामधर्मता । जायते सर्वलोकेऽस्मिन्ततोऽशान्तिः प्रवर्तते ॥ यत्र धर्मो भवेत्सत्यो, जयस्तत्रास्ति निश्चलः । यत्राऽधर्मो भवेत्र, दु:खराशिपरम्परा ॥
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सत्यमेव परो धर्मो, यत्र तत्र सदा जयः । पराजयोऽस्त्यधर्मेण, सर्वत्र सर्वदेहिनाम् ॥ आत्मनां प्रकृतीनाञ्च, संयोगोऽनादिकालतः । 'धर्मेण तद्वियोगोऽस्ति, मोक्ष एव स उच्यते ॥ धर्मात्कामार्थसंप्राप्तिः, धर्मात् सिद्धिः प्रजायते । धर्मादिष्टस्य संप्राप्तिः, धर्म एव सतां धनम् ॥ धर्मो रक्षति सर्वत्र, नाऽन्यो धर्मसमो महान् । अर्हदादिपदं धर्मात् प्राप्नुवन्ति जना भुवि ॥ आत्मरूपाः सदा धर्मास्तदाविर्भाव हेतवः । धर्मा निमित्तयोगेन, ज्ञातव्या मज्जनैर्हृदि ॥
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[ चतुर्थाध्याये
सर्वविश्वस्थजीवानां, दयाद्यैर्व्यापकः शुभः । जैनधर्मो मया प्रोक्तः, सर्वत्र शान्तिकारकः ॥ व्यष्टिसमष्टिरूपेण, बाह्याभ्यन्तरशक्तयः । व्यक्ता भवन्ति येनाऽसौ, धर्म एव मयोच्यते ॥ राष्ट्रसमाजशक्तीनां प्राकटयं जायते यतः । सुखादौ धार्यते येन, लोको धर्मः स उच्यते ॥ दुर्गतौ पततो लोकान्विनिवृत्य च मद्गतौ । यो धारयति धर्मः स, मोहदोषनिवारकः ॥ मैत्रीप्रमोदमाध्यस्थ्यकारुण्य भावनाश्रितः । धर्मः कर्मविनाशाय समर्थोऽस्ति जगत्त्रये ॥ बाह्यः प्रवृत्तिरूपेण, निवृत्तिरूप आन्तरः । द्रव्यभावतया सेव्यः, स्वर्गसिद्धिप्रदायकः ॥ बाह्यान्तरोन्नतेः कर्त्ता, रोगापत्तिविनाशकः । जैनधर्मो मया प्रोक्तः, सुखाय सर्वदेहिनाम् ॥
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धर्मयोगः ] जैनधर्माहिः कोऽपि, नैव धर्मो विलोक्यते । जैनधर्मे न यो धर्मः, स धर्मो भुवि नो कदा ॥ जैनधर्मे मया प्रोक्ते, सर्वे धर्माः प्रतिष्ठिताः। भिन्नधर्मस्य नाम्नाऽपि, मद्धर्म यान्ति मानवाः ॥ भिन्नसत्यांशधर्माणां, कर्मणां फलदोऽस्म्यहम् । अतः सर्वजनैः सेव्यो, मद्धर्मोऽसंख्यभेदतः ॥ मत्स्मृतिध्यानयोगेन, मुक्तिं संयान्ति पापिनः । सर्वधर्मान् परित्यज्य, भजध्वं मां सुभावतः ॥ कर्तत्वादिप्रवादस्तु, मद्र्यं कथ्यते बुधैः । तथापि पूर्णमद्रूपं, ज्ञायते नैव योगिभिः ॥ असंख्यदृष्टिभिः सद्भिः, मत्स्वरूपं विवर्ण्यते । असंख्यदृष्टिभिष्टं, तद्रूपमंशतो मम ॥ असंख्यदृष्टितो धर्मा, वर्तन्ते ये धरातले । ते मद्धर्मोदधेरंशा, मद्धर्माऽभिन्नताश्रिताः ॥ अतो मर्म आदेयः, सर्वधर्ममहोदधिः । सर्वधर्माम्युराशि मां, भजध्वं भावतो जनाः ॥ परब्रह्मस्वरूपं ये, महावीरं जगत्प्रभुम् । मां सेवन्ते जनास्तैस्तु, सर्वधर्मा निषेविताः ॥ मयि सर्वाः समायान्ति, द्वैताद्वैतादिदृष्टयः । सर्वदृष्टिस्वरूपं मां, भजध्वं पूर्णभक्तितः ॥ साकारञ्च निराकारं, मत्स्वरूपं व्यवस्थितम् । धर्मादी वरित्राणां, सागरोऽहं स्वभावतः ॥ सर्वाऽवस्थाचरित्रेषु, सर्वधर्माः प्रतिष्ठिताः। मचरित्रैम्पादेश्या, धर्ममार्गाः सनातनाः ।।
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[चतुर्थाध्याये मचरित्रेषु सहोधाः, सर्वाऽवस्थाऽधिकारिणाम् । योग्यादर्शस्वरूपास्तु, सन्ति धर्माश्चर्धामणाम् ॥ मदुक्तं सर्वमालम्ब्य, मद्रूपैर्गणधारिभिः । बादशाङ्गी च पूर्वाणि, रचिता निगमास्तथा ॥ तेषु सर्वेषु धर्माणां, सत्यतत्त्वं प्रदर्शितम् । मछेदानां रहस्यानि, ज्ञायन्ते ज्ञानयोगिभिः । वेदाः सनातनाः सर्वे, भरतेन प्रवर्तिताः।। तत्वरूपेण नित्याः, स्युरनित्याः शब्दरूपतः ।। मत्सदागमवेदानां, पारं यान्ति न कोविदाः। नित्यानित्यादिधर्माणां, व्यवस्था तत्र दर्शिता ॥ ५१ इति श्रीजैनमहावीरगीतायां श्रीधर्मयोगनामक
श्चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः
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पञ्चमाध्याये नीतियोगः सर्वागमान्समालम्ब्य, जैनधर्मः प्रवर्तते । ऋषभायैः कृता जैनधर्मसत्यप्रचारणा ॥ जीवाऽजीवादितत्त्वालामरिष्टनेमिना कृता। व्याख्या कृष्णादिभक्तानामग्रे मुक्तिप्रदर्शिका ॥ ताक्ष्य पार्श्वजिनेन्द्रण, जैनधर्मः प्रचारितः । नेमिपार्वाऽईतोः काले, जाता बेधु मिता ॥ अरिष्टनेमिनाथेन, सर्वदेशाः प्रबोधिताः । पाण्डककौर बीयञ्च, युद्धं तत्समयेऽजनि । तार्यपार्श्वस्य बोधेन, सत्यधर्माः प्रवर्तिताः । सर्वभारतलोकेषु, जाता धर्मोन्नतिः शुभा ॥ जैनधर्मस्य नीत्यंशा, मूसादिना प्रवर्तिताः । भूमध्योदधिसंभागे, यत्र जैनोन्नतिः पुरा ॥ धर्मा आर्या अनार्याश्च, देशभेदेन विश्रुताः। विद्यमानाश्च सर्वेऽपि, मयि सापेक्षतः स्थिताः ॥ नीतिधर्मा मया प्रोक्ता, नित्यानित्याः स्वरूपतः । जैनाः श्रयन्ति तान्युक्त्या, देशकालविवेकतः ॥ सामदण्डादिभेदेन, राज्यतन्त्रादिनीतयः । चेटकणिकाद्यानां, दर्शिता धर्मरक्षिकाः ॥ इन्द्रभूत्यादिसूरीणां, मदन्तेवासिनां शुभाः। जैनधर्मप्रवृद्धयर्थ, दर्शिता धम्धनीतयः ॥
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[ पञ्चमाध्याये सर्वविश्वव्यवस्थार्थ, हितार्थश्च विवेकदाः। नीतिधर्माः समाख्याता, धर्भसाम्राज्यवर्द्धकाः॥ सा नीतिरेव संसाध्या, सर्वशक्तिप्रवद्धिका । देशकालाऽनुसारेण, गौणमुख्यविवेकदा ॥ सा नीतिः सर्वदा ग्राह्या, दुष्टानां शक्तिवारिका ।। साधूनाश्च गृहस्थानां, प्रबलोन्नतिकारिका ॥ सर्वजातीयसाम्राज्यप्राप्तथै युक्तितः कला । कर्तव्या नीतिरूपा सा, दुष्टेभ्योऽधिकशक्तिदा ॥ १४ प्रामाण्यं व्यवहारेषु, यत्र तत्र सुखावहम् । प्रामाण्ये विजयः पूर्णोऽप्रामाण्ये च पराजयः ॥ विश्वास्या नैव लोकाः, स्युरप्रामाण्यप्रवृत्तितः। सत्प्रामाण्यं महाधर्मः, सर्वकल्याणकारकः ॥ अप्रामाणिकलोकानामुन्नतिनैव जायते । देशे राज्ये महासंघे, प्रामाण्यं पूर्णशान्तिदम् ॥ कलौ प्रामाण्यमालम्ब्य, जना यान्ति शुभं पदम् । सर्वदा सर्वथा ज्ञेयं, प्रामाण्यं सर्वतो महत् ॥ प्रतिज्ञापालका लोकाः, प्रामाण्यं यान्ति धैर्यतः । प्रतिज्ञाभ्रष्टलोकानां, भ्रष्टता नीचता तथा ॥ प्रतिज्ञापालकाः शराः, शोभन्ते स्वात्मशक्तितः। पालनं न प्रतिज्ञायास्तत्र क्लैब्यश्च दीनता ॥ विश्वासो नैव कर्त्तव्यः, प्रतिज्ञाभ्रष्टदेहिनाम् । यथा वाचा तथाऽऽचारः, सतां मद्भक्तियोगतः॥ २१ प्राणान्तेऽपि न मुश्चन्ति, स्वप्रतिज्ञां महाजनाः । सर्वस्वाऽर्पणतां कृत्वा, प्रतिज्ञां पालयन्ति ते ॥
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नीतियोगः] महापापः स बोद्धव्यो, दत्तविश्वासघातकः। अद्रष्टव्यमुखोऽधर्मा, संघद्रोहादिकारकः ॥ मन्निन्दादिप्रकर्त्तारो, गुरुनिन्दादिदोषिणः। पापकर्मविपाकेन, श्वभ्रं यान्ति नराऽधमाः ॥ . जैनधर्मस्य निन्दादिकारका धर्मघातकाः। साधूनां दुःखदातारो, नरा निरयगामिनः ॥ कर्त्तव्या न कदा निन्दा, परस्परविधर्मिणाम् । अङ्गीकार्य सदा सत्यं, सत्यव्याख्याविचारतः॥ दयासत्यादिधर्माणां, सेवनं स्वात्मशक्तितः । कर्तव्यं सज्जनः सम्यग्देशकालादिबोधतः ॥ अनृतव्यभिचारादिदोषास्त्याज्या विवेकतः । स्वात्मवत्सर्वजीवेषु, धार्या प्रीतिः शुभावहा ॥ मातापित्रोः सदा सेवा, कर्त्तव्या पूर्णभक्तितः । कुटुम्बादिस्ववर्गाणां, पालनञ्च सहायता ॥ मातृभाषा सदा सेव्या, देशप्रीतिः शुभावहा । गुर्वादीनां सदा सेवा, कर्त्तव्या प्रेमपूर्वकम् ॥ आजीविकादिवृत्तीनां, धारणं स्वाऽधिकारतः। सर्वसामाजिकी सेवा, कर्त्तव्या स्वात्मशक्तितः॥ ३१ पतिपत्न्यादिधर्माणां, रागतः पालनं शुभम् । पुत्रादिसन्ततिः पाल्या, शिक्षणीया च युक्तितः ॥ ३२ धर्मरक्षा सदा कार्या, देशराज्यादिरक्षणम् । स्वातन्त्र्यादिस्वशक्तीनां, रक्षणश्च प्रवर्द्धनम् ॥ सर्वजीवस्य रक्षादिव्यवस्थासु स्वशक्तितः । वर्तितव्यं विवेकेन, जयः सर्वत्र धर्मतः ॥
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दोषाणां सद्गुणानाञ्च विवेकः सर्वनीतितः । कर्त्तव्यः स्वात्मशुद्ध वर्थ, सर्वजातीयधर्मिभिः ॥ दुर्व्यसनादिसन्त्यागः कर्त्तव्यः सर्वमानवैः । स्वाच्छन्द्यं नैव कर्त्तव्यं, गुर्वादिसेवनादिषु ॥ स्वधमषु सदा रागः, साहाय्यं दुःखिदेहिनाम् । वैराग्यं सोह्यभावेषु, कर्त्तव्यं साधुसेवनम् ॥ मनोवाक्काययोगानां शौचं सेव्यं विवेकतः । द्रव्यशौचं विधातव्यं, भावशौचस्य कारणम् ॥ देवादिपूजनं कार्य, कायादिशौचपूर्वकम् । गृहस्थयोग्यशौचानां, सेवनं गृहिणां शुभम् ॥ सर्वशौचानि लीयन्ते, स्वात्मशौचे स्वभावतः । आत्मशुद्धिः सदा कार्या, सर्वशौचमिणिः ॥ वित्तादीनां सुपात्रेषु, व्ययः कार्यो विवेकतः । धृतिः कीर्तिश्च सत्कान्तिर्बुद्धिर्धार्या प्रयत्नतः ॥ स्वाधिकारो विवेकेन, ज्ञातव्यः सर्वकर्मसु । स्वाऽधिकारवशाद्भिनं, कर्माऽनर्थप्रदायकम् ॥ अतिथीनां सदा सेवा, कर्त्तव्या गृहिभिः शुभा । स्वागतं सभ्यलोकानां कर्त्तव्यं पूर्णरागतः ॥ स्वोपकारिमनुष्याणां प्रत्युपग्रहकर्मभिः । कर्त्तव्या पूर्णरागेण, सेवा सद्धर्भवर्द्धिका ॥ सर्वविश्वोपकारार्थ, स्वात्मत्यागादिकं शुभम् । कर्त्तव्यं भव्यलोकेषु, 'सत्यनीतिप्रचारकम् ॥ सन्मानं गुरुमुख्यानां कर्त्तव्यं भक्तिभावतः । विद्यादानादिसद्रागः, कर्त्तव्यः स्वात्मभोगतः ॥
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नीतियोगः ] अन्यधर्मोपरि द्वेषः, कर्त्तव्यो न प्रमादतः। विधर्मिणोऽपि मां यान्ति, सर्वत्र साम्ययोगतः ॥ सर्वजातीयजीवानां, श्रेयःसाधककर्मसु । यतितव्यं यथाशक्ति, अभेदात्मोपचारतः ॥ चतुर्विधस्य संघस्य, भक्तिः कार्या दिने दिने । निर्बलानां बलं देयं, कर्तव्यो न मदः कदा । सर्वजीवोपकारार्थ, वित्ताद्याः सर्वशक्तयः। सन्त्येवं वस्तुतो ज्ञात्वा, प्रवर्तध्वं सुभावतः॥ परोपकारकर्माणि, कुर्वन्तो मन्जना भुवि । स्वर्ग सिद्धिश्च संयान्ति, पुण्यधर्माऽनुगामिनः॥ अन्नवस्त्रादिदानेन, मद्भक्ता ऊर्ध्वगामिनः । अन्यायं नैव कुर्वन्ति, राज्यादिधर्म्यकर्मसु ॥ न्याय्यधर्मप्रचारेण, विश्वशान्तिप्रवर्तकाः। सर्वदोषान्परित्यज्य, मत्स्वरूपं व्रजन्ति ते ।। प्रातः सायश्च मद्भक्ताः, षडावश्यककर्मसु । प्रवर्त्तन्ते प्रयत्नेन, पूर्णप्रेमसमन्विताः ॥ सम्यग्नीतिं सदा यान्ति, मर्माश्रितमानवाः । अधर्मिभ्यो विशेषेण, बलं प्राप्य प्रवर्तकाः॥ यत्राऽनीतिः स्वभावेन, तत्र देशे विपत्तयः। अन्यायघोरकर्माणो, देशा दुःखोदधिं त्रिताः ।। कन्याविक्रयकर्त्तारो, वरविक्रयिणस्तथा । धर्मोन्नतेः प्रघातत्वात्पश्यन्ति मां न मोहिनः॥ यत्र देशे समाजे च तयोश्च विक्रयोऽशुभः । तत्र दौर्भाग्यदीनत्वं, जायते लैव संशयः ॥
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यत्र देशे समाजे च, सुरापानं प्रवर्त्तते । तत्र सात्विकशक्तीनां विनिपातः सहस्रशः ॥ सुरापानान्महान्तोऽपि, नीचत्वं यान्ति तद्भवे । धर्ममार्गात्परिभ्रष्टा, जायन्ते नीचसङ्गतेः ॥ पशुपक्ष्यादिकं घ्नन्ति, मांसार्थ निर्दया जनाः । चारित्रं नैव ते यान्ति, हिंसापापादिसंयुताः ॥ यत्र हिंसा न तत्राऽहं ज्ञातव्यं भव्यमानवैः । हिंसाबुद्धिर्न यत्रास्ति, तत्राऽहं परमेश्वरः ॥ गृहस्थाः स्वाऽधिकारेणाऽपेक्षया स्व-स्वकर्मणाम् । कुर्वन्ति यतनां सम्यक्, स्वारम्भादिषु शक्तितः ॥ अहिंसैव परो धर्मः, सर्वधर्मशिरोमणिः । सर्वधर्माः प्रजायन्ते, सत्यात्सर्वत्र देहिनाम् ॥ दुर्बलानामनाथानां बालानां दुःखिदेहिनाम् । स्त्रीणां रक्षा प्रवर्त्तव्या साधूनाञ्च विशेषतः ॥ पीडनं नैव कर्त्तव्यमन्यायादन्यदेहिनाम् । स्वशक्तीनामहङ्काराद्दण्डितव्या न देहिनः ॥ अन्यायो न कदा कार्यः, स्वार्थहेतोर्मनीषिभिः । अन्यायेन मनुष्याणां विनिपातोऽस्ति निश्चितः ॥ यत्र देशे समाजे च, राष्ट्रे सङ्के न धर्मता । अन्यायादिमहादोषास्तत्र कोटिविपत्तयः ॥ अन्यायी यत्र राजाऽस्ति लोकानां पूर्णदुःखदः । यत्र दुष्टाः प्रजाः सर्वास्तत्र दुष्कालभीतयः ॥ यत्र लोका महापापा, धर्मकर्मविनाशकाः । साधूनां घातका दुष्टास्तत्र रोगादयः स्थिरः ॥
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नीतियोगः ] अनृतादिप्रकर्तृणामुन्नतिन स्थिरा कदा । पापकर्मफलं दुःखं, जायते सर्वदेहिनाम् ॥ यत्राऽनृतादिदोषाः स्युस्तत्र दुःखस्य राशयः। प्रादुर्भवन्ति वेगेन, कृतपापप्रभावतः ॥ असत्यं नैव वक्तव्यं, परार्थस्वार्थकर्मसु । . यत्राऽसत्यं न तत्राऽहं, ज्ञातव्यं सर्वमानवैः ।। यादृक् कर्म फलं ताहरू, सर्वत्र सर्वदेहिनाम् । सर्वजीवोपकाराय, वर्तितव्यं स्वशक्तितः ॥ अन्यायिदुष्टलोकानां, शिक्षा देया स्वशक्तितः। धर्मिणां शिक्षणात्पुण्यं, स्वर्गादिश्च प्रजायते ॥ साधूनां यत्र सत्कारो, दानमानादिभिः शुभः । तत्र देशे समाजे च, श्रीधृतिकीर्तिकान्तयः॥ यत्र देशे सदाचाराः, सद्विचाराश्च देहिनाम् । तत्र वृष्टयादिभिः शान्ति-योगक्षेमसुखादयः ॥ यत्र देशे समाजे च, ज्ञातौ निर्व्यसना जनाः । भक्ताः शराश्च दातारो, जायन्ते तत्र सम्पदः ॥ त्यागिनां ज्ञानिनां यत्र, योगिनाश्च विशेषतः। पूजा सत्कारता तत्र, धर्मो भवति निश्चलः ॥ अन्नदानं क्षुधा नां, यत्र देशे गृहे गृहे । तत्र लक्ष्यादिसंवासो, मत्प्रभावेण जायते ॥ परोपकारयोग्यानि, सर्वकर्माणि मजनैः। हितार्थ सर्वजीवानां, कर्तव्यानि विशेषतः ॥ मत्तद्भेदो न कर्त्तव्यो, विश्वोपकारकर्मसु । आत्मतुल्यं जगन्मत्वा, वर्तितव्यं स्वशक्तितः ॥
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[ पञ्चमाध्याये धर्मिदेशेषु, महामारी प्रवर्तते ।
बकी महाभीति-रीतयश्च भवन्त्यपि ॥ ८३ ..पापा अनार्याश्च, मयि नास्तिकबुद्धयः । पत्र देशे जना दुष्टास्तत्र दुःखौघराशयः ॥ मदीयजैनधर्मस्य, पालका यत्र नो जनाः । तत्र देश भयोत्पादा, दुर्भिक्षायाः पुनः पुनः ।। चतुर्विधमहासंघो, यत्राऽन्यायेन पीडयते । तद्देशे दुःखदावाग्निर्जायते व संशयः ॥ सर्वदेशस्थजैनानां, नाशार्थमन्यधर्मिणः। प्रवर्त्तन्ते तदा तत्र, भयोत्पादा विपत्तयः ॥ जैनसंघविनाशार्थ, प्रवृत्तानां विनाशने । अल्पदोषास्तु लाभानां, कोटयो धर्मरक्षणे ॥ .. जैनानां रक्षणे धर्म-रक्षणं निश्चित मतम् । अतोऽन्यधर्मिभिः साई, धर्मयुद्धं कृतं शुभम् ॥ स्वातन्त्र्यादिकरक्षार्थ, जैनसंघस्य युक्तितः । औना युद्धयन्ति मद्भक्ता, धर्म्ययुद्धादिकारकाः ॥ आपत्काले तु जैनानामापद्धर्मस्य सेवनम् । निर्दोषं तद्भवत्येव, जीवनोपायकर्मसु ॥ सर्वजातीयसज्जैनैरापत्काले विशेषतः । कृत्वैक्यं सर्वशक्तीनां, विधेयं परिवर्तनम् ॥ परस्परसहायेन, वर्तितव्यं स्वकर्मभिः ।। तादृकालेषु मज्जैना, निर्दोषा धर्मरक्षकाः ॥ केचिन्नित्या अनिलाश्च, नीतीनां परिवर्त्तनैः । देशकालाऽनुसारेण, वर्तितव्यं विवेकतः ॥
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नीतियोगः ] कृत्या कृत्यविवेकन, जैना नीत्यादिपालकाः । अनौतिन कदा कार्या, मजनर्मोह बुद्धितः ॥ वर्तितव्यं सदा नीत्या, सर्वजीवैः सहात्मवत् । सर्वे जीवा मदीयाश्व, कर्मवैचित्र्यधारकाः ॥ विभिन्नधर्ममार्गस्थाः, साम्येन यान्ति अस्पदम् । अतोऽन्यधर्मिभिः साई, वर्तितव्यं निजात्मवत् ॥ विद्यावित्तान्नवस्त्राद्यैः, साहाय्यमन्यधर्मिणाम् । कृत्वा ते जैनधर्मस्य, कर्त्तव्या अनुयायिनः ॥ सर्वत्र सदगुणा ग्राह्याः, कर्त्तव्या स्वोन्नतिः शुभा। सर्वजीवेषु सन्मैत्री, विधातव्योपकारतः ॥ यत्र नीतिजयस्तत्र, नीत्या धर्मो विवर्द्धते । सर्वदेशेषु नीतिज्ञाः, सद्धर्म वर्द्धयन्ति मे ॥ विश्ववर्तिसमाजानां, सर्वेषां हितकारकाः । संस्थाप्या नीतयः सर्वाः, सर्वविश्वैक्यसाधिकाः॥ १०१ धर्मार्थकाममोक्षार्थ, कार्या सेवा सतां सदा । केषांचिदपि कुर्नील्या, ग्राह्या नैव दुराशिषः ॥ १०२ त्रासः कदापि नो कार्यो, दुर्बलानांश्च योगिनाम् । विश्वासो नैव कर्त्तव्यः, प्रतिज्ञाहीनदुर्धियाम् ॥ १०३ अनीत्या सर्वदेशेषु, चिर शान्तिनं वर्त्तते । अतो नील्ला सदा सद्भिर्वतितव्यं विशेषतः ॥ असत्यादिमहादोषै, राज्यादीनां परिक्षयः। प्रामाणिकप्रवृत्या तु, सर्वकर्म समाचरेत् ॥ अनीतिकारकादण्डयाः, रक्षार्थ सर्वदेहिनाम् । नीतिमन्तः सदा रक्ष्या, न्याय्ययुद्धादिकर्मभिः॥ १०६
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[ पञ्चमाध्याये राज्यादिधर्मरक्षार्थ, सर्वजातीयनीतयः ।। देशकालाऽनुसारेण, सेवनीया यथाक्रमम् । १०७ अनीतिशक्तिनाशाय, संसेव्या नीतिशक्तयः। अनीतीनां क्षयो याभिर्नीतयस्ताः स्वभावतः॥ १०८ अल्पदोषमहालाभपूर्वकाः सर्वनीतयः । अनीतिरपि सन्नीतिर्भवेद्धर्मादिरक्षणात् ॥ आपद्धर्मप्रसङ्गे तु, जीवनोपायकर्मसु । आपन्नीत्या प्रवृत्तानां, दोषाः सन्ति न धर्मिणाम् ॥ ११० उत्सर्गकाऽपवादाभ्यां, धर्माऽधर्मविवेकतः । नीतयोऽनीतयः सर्वा, अनित्याश्च कलौ युगे ॥ १११ अनीतीनाश्च नीतीनां, नित्यानित्यादिभावना । अल्पदोषमहालाभपूर्विका धर्म्यकर्मसु ॥ . ११२ सर्वजातीयनीतीनां, धर्मत्वं शुद्धबुद्धितः। मद्भक्तानां शुभा बुद्धिर्नीत्यादिधर्यकर्मलु ॥ . ११३ आत्मनः सर्वधर्माणामभेदो मत्स्वरूपतः । भेदोऽस्ति व्यवहारेण, निर्भेदो निश्चयेन तु ॥ ११४ विज्ञायैवं स्वरूपं मे, सर्वथा मयि रागिणः । राष्ट्रादिसर्वनीतीनां, कर्मभिर्जीविनः सदा ॥ मद्भक्त्यैवोद्भवन्त्येताः, सर्वजातीयनीतयः । सर्वजातिप्रगत्यर्थ, मन्जनाः समुपासते ॥ देशकालादिभेदेन, नीतीनां परिवर्तनम् । 'उत्सर्गकाऽपवादाभ्यां, ज्ञात्वा कर्म समाचरेत् ॥ ११७ यन्नीत्या स्वात्मशक्तीनां, संघादीनाञ्च हीनता। अनीतिः सा विवेकेन, ज्ञातव्या देशकालतः ॥ ११८
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नीतियोगः"] प्रामाण्यं प्राणवार्य, देशकालाद्यपेक्षया । चारित्रमुन्नतेमूलं, धर्म्यजीवनकारणम् ॥ उक्ताऽनुक्तादिस दैतिव्याः सर्वनीतयः । वेदागमोक्तनीतीनां, भेदा द्रव्याद्यपेक्षया ॥ गृहित्यागादिसतेंदैनीतयः स्वाऽधिकारतः। पालितव्या विवेकेन, मयोक्ताः सर्वशक्तिदाः ॥ चतुर्वर्णाः स्वभावेन, कलावेको भविष्यति । चतुर्वर्णास्तथाऽवर्णा, जैनधर्माऽधिकारिणः ॥ सर्ववर्णेषु मद्धर्मः, सर्वपापप्रणाशकः । मुख्यता गौणता बोध्या, वर्णानां कलिधर्मतः॥ १२३ क्षत्रादिसर्ववर्णानां, ज्ञातव्यं परिवर्तनम् । गुणकर्मविभागेन, वर्णधर्मो न शाश्वतः ॥ १२४ स्वस्ववर्णस्थिता लोका, धर्म यान्ति न संशयः । कुर्वन्तो वर्णकर्माणि, लोका मां यान्ति भक्तितः ॥ १२५ नैव मोहः कदा कार्यो, वर्णाऽऽचारादिकर्मसु । संधाय हृदि मां लोका, भवन्ति मुक्तिगामिनः ॥ १२६ आसक्तिमन्तरा लोके, सर्ववर्णाः स्वकर्मणि । स्थिता याताश्च यास्यन्ति, यान्ति ते मत्पदं शिवम् ॥ १२७ गृहस्थैर्वर्णसंस्काराः, कर्तव्या विधिवत्सदा । वर्णानां धर्मसंस्काराः, शुभाः पावित्र्यकारकाः ॥ १२८ स्पोऽस्पर्यव्यवहारः, काल्पनिको न वस्तुतः । वर्णधर्मस्य संस्कारकारका गृहिपण्डिताः॥ १२९ सर्ववर्णीयजैनानां, नेतारो जैनसूरयः। धर्मस्य सर्वसंघस्य, चोन्नतिकारकाः सदा॥ १३०
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[पञ्चमाध्याये क्षेत्रकालाऽनुसारेणाऽऽजीविकाकर्मकारकाः। मचित्ताः सर्ववर्णस्था, जैनाः स्वाशिवगामिनः ॥ १३१ राष्ट्रादिसर्वधर्माणां, रक्षका जैनपोषकाः । साधुसंघस्य भक्त्यर्थ, योग्या जैना गृहस्थिताः ॥ १३२ मदुक्तसर्वविद्यानां, धारका ब्राह्मणा मता। परब्रह्मस्वरूपं मां, जानन्तो यान्ति मद्गतिम् ॥
१३३ संघधर्मस्य रक्षार्थ, क्षत्रिया युद्धकारकाः । मां स्मरन्तो रणे मृत्वा, स्वर्ग गच्छन्ति मत्पराः ॥ १३४ कृषिवाणिज्यकर्त्तारो, वैश्या मद्भक्तिधारकाः । आत्मार्थ च परार्थ ते, जीवन्तो यान्ति मत्पदम् ॥ १३५ शूद्रा जीवन्ति मद्भक्ताः, सर्ववर्णस्य सेवया । सेवाधर्मेण ते यान्ति, मत्पदं भक्तिकर्मभिः ॥ -१३६ कर्मसूञ्चत्वनीचत्धं, कल्पितं नैव तत्त्वतः। सर्ववर्णेष्ववर्णषु, मां द्रष्टारो महाजनाः॥ उच्चनीचत्वमन्तारो, मद्भक्ता नैव मोहिनः । सर्ववर्णीयलोकेषु, जैनाः पश्यन्ति मां स्थितम् ।। १३८ सर्वोपायैः सदा कार्या, जीविकादिप्रवृत्तयः । धर्मार्थ जीवनं येषां, निर्दोषास्ते प्रवृत्तिषु ॥ १३९ कलावाजीविकावृत्तिकर्मणां परिवर्तनम् । संभविष्यति वर्णानां, जैनधर्माऽनुयायिनाम् ॥ १४० तयपि जैनवर्णानां, कर्मभिर्धर्मजीवनम् । भविष्यति न दोषाय, जैनाः स्युः सर्वकर्मकाः॥ १४१ धर्मार्थकाममोक्षाणां, साधको धर्म उच्यते। सर्वजातीयशक्तीनां, धारको धम उच्यते ॥ १४२
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नीतियोगः ] दौर्बल्यं न कदा धार्य, जैनैः सर्वार्थसाधकैः । बाह्यसत्ताविहीनानां, विनिपातोऽस्ति कोटिशः ॥ १४३ सर्वजातीयविद्यानां, धारका ब्रह्मचारिणः । भवेयुस्तादृशाः साध्या, उपायाः सर्वशक्तिभिः ॥ १४४ ब्रह्मचर्याश्रमाः कार्या, विद्यापीठसमन्विताः। तव्यवस्था प्रकर्तव्या, देशकालाऽनुसारतः ॥ वीर वीरेति जल्पन्तः, क्षात्रकर्मादिवर्जिताः । एतादशा गृहस्थास्तु, जैनधर्मस्य घातकाः ॥ १४६ यावदगृहाश्रमस्तावधेिया वर्णकता। स्वाश्रयेण गृही जीवन्मत्पदं याति कर्मकृत् ॥ १४७ जयशीलाः सदा जैना, योग्यकर्मव्यवस्थया । उन्नतेः साधका जैनाः, पश्चात्त्वं यान्ति नैव ते ॥ १४८ वैराग्यपरिपक्वानां, गृहिणां त्यागयोग्यता। अन्यथा तु गृहस्थानां, गृहकर्माऽधिकारता॥ ग्रहाश्रमो महाश्रेष्ठो, गृहस्थानां स्वशक्तितः । ज्ञानवैराग्यपाकाय, धर्ममूलो गृहाश्रमः ॥ ब्रह्मचर्य समासाद्य, नरो नारी च कर्मतः। गृही भूत्वा भवेत्यागी, क्रमोऽयं गृहधर्मिणाम् ॥ १५१ सुगैहाश्रमः श्रेष्ठो, धर्मिसन्तानवर्द्धकः। पूर्वसंस्कारिलोकानां, क्रमो नाऽयं विवक्षितः ॥ १५२ मातृभूमिः सदा रक्ष्या, गहिजैनैः स्वशक्तितः। देशरक्षा विधातव्या, विविधोपायशक्तितः॥ १५३ गुरुसंघस्य रक्षार्थ, कुरुध्वं स्वाऽर्पणं जनाः । कुटुम्बज्ञातिलोकानां, रक्षा शक्त्या विधीयताम् ॥ १५४
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[ पञ्चमाध्याये
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गुर्वादीनां सदा भक्तिर्धार्यां दानादिना शुभा । - विश्वजीवेषु कर्त्तव्या, कल्याणवृत्तिरुत्तमा । यावद्गृहाश्रमे वासस्तावद्देशादिरक्षणम् । कर्त्तव्यं स्वाऽधिकारेण, ना सेव्या क्लीयताऽधमा । १५६ विद्याक्षात्रादिकार्याणामुपेक्षा धर्मनाशिनी । प्राप्तं कर्म विधातव्यं, धृत्वा निष्कामतामतः ॥ आत्मज्ञानं विना नैव, निष्कामो मानवो भवेत् । आत्मज्ञानदशायां तु, धर्म्यकामिजना वराः ॥ धर्म्यकामविशिष्टास्तु, गृहस्था धर्मकारकाः । काम्यानि कर्माणि कुर्वन्तो यान्ति स्वःपदम् ॥ कलौ जीवन्ति मज्जैना, विद्यासत्ताधनादिभिः । अतस्तेषां परिप्राप्तिः कर्त्तव्या धर्महेतवे ॥ जैनसाम्राज्यवृद्ध्यर्थे, रक्षार्थश्च स्वजीवनम् । विद्यते सर्वजैनानां विद्यासत्साधनादिकम् ॥ जैनैः प्रीत्या प्रकर्त्तव्या परस्परसहायता । - जिनत्वं सर्वजैनेषु द्रष्टव्यं भक्तिभावतः ॥ संघोपरि महारागः, कर्त्तव्यो जैनधर्मिभिः । कलावापत्तिधर्माणां कर्मभिरुन्नतिः शुभा ॥ जैन धर्म परिभ्रष्टा, जना यान्ति न सद्गतिम् । मर्मच्युतलोकानां, दौर्बल्यञ्च पदे पदे ॥ अहं साक्षात्परब्रह्म, परमात्मा विदांपतिः । मदायत्तं जगत्सर्व, देवो नान्योऽस्ति मत्परः ॥ अतो मर्मसंघाद्ये, भ्रष्टास्ते मद्विरोधिन: । इहामुत्र च तेषां तु नैव चित्तसमाधयः ॥
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नीतियोगः ]
एवं विज्ञाय निशङ्कं जैना मां पर्युपासते । तेषां शान्तिं च तुष्टिञ्च, पुष्टिं बुद्धिं ददाम्यहम् ॥ गुरुभक्ताः सदा जैना, भवन्ति मदुपासकाः । जैनाचार्याः कलौ साक्षान्मदीयप्रतिमूर्त्तयः ॥ आपवादिकधर्माणां कर्मभिस्ते कलौ बलात् । जैनधर्मस्य संरक्षां करिष्यन्ति स्वशक्तितः ॥ जैनसंख्याप्रवृद्धीनां कर्मणां परिवर्तनम् । करिष्यन्ति बहुपायजैनधर्मप्रवर्त्तकाः ॥ जैनागमप्रचारेण मद्धर्मस्य प्रचारणाम् । करिष्यन्ति महाशूराः सूरिवाचकसाधवः ॥ अतस्तेषां सदा भक्तिः, कर्त्तव्या धर्मरागिभिः । कलौ युक्तिप्रयुक्तीनां कर्मभिर्धर्मरक्षणम् ॥ शुभक्षेत्राणि पोष्याणि, देशकालानुसारतः । गौणमुख्यतया सम्यग्गृहिजैनैः स्वशक्तितः ॥ बाह्यज्ञानेषु शुष्कत्वं, संत्याज्यमात्मबोधतः । क्रियासु यज्जडत्वं तत्याज्यं कर्मरहस्यतः ॥ सज्ज्ञानकर्मतो मोक्षो, लोकानां जायते खलु । स्वाधिकारं विना धर्मो, नास्ति स्वात्मोन्नतिप्रदः ॥ अज्ञानेन दयायां तु, निर्बलत्वं मनीषिणाम् । निवार्य ज्ञानतस्तनु, सज्जनैर्धर्म्यशक्तये ॥ स्थानानि धर्मशास्त्रादेः, स्थापितव्यानि भक्तितः । गुरुकुलेषु सद्दानं, दातव्यं धर्महेतवे ॥ महासंघस्य सत्सेवा, कर्त्तव्या पूर्णभक्तितः । गुरुद्रोहादयो दोषास्त्याज्यास्तीर्थविनाशकाः ॥
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[ पञ्चमाध्याये असत्संगो न कर्त्तव्यः, शुद्धबुद्धिप्रणाशकः । जनेतरेभ्यो मद्बोधो, देयो मद्भक्तिकारकैः ॥ जीवन्ति न कलौ जैना, मनोवाकायदुर्बलाः । स्वाश्रयिणः स्वतन्त्राः स्यु ना धर्मप्रभावकाः॥ महासंघस्य नाशिन्यो, बाललग्नादिरीतयः । त्याजनीयाः सदा जैनैर्मधर्मस्य प्रसाधकैः ॥ १८१ अप्रशस्यकषायाणां, त्यागः सन्न्यास उच्यते । प्रशस्यकर्मणां रागो, वैराग्य एव संमतः ॥ १८२ क्षात्रव्यापारविद्यादि-वृत्तिभिर्जीवनं वरम् । कर्तव्या न कदा याच्जा, कर्त्तव्या नैव दीनता॥ १८३ साताऽसातादिका ये ये, विपाकाः कर्मसंभवाः । समत्वेन सदा भोग्या, वैदेहभावधारकैः ॥ १८४ शुद्धवुद्धया स्वकर्माणि, कर्त्तव्यानि विशेषतः। भेतव्यं न कदा पापाद्धर्मकर्मप्रवृत्तिषु ॥ कृतश्च क्रियते यद्यत्कृत्वा सर्व मदर्पणम् । जैना निर्लेपतां यान्ति, स्वार्थादिधर्मसाधकाः ॥ विश्वसमाजसेवायां, यत्नः कार्यो विशेषतः । अग्रणीत्वं सदा कार्य, समाजराज्यकर्मभिः ॥ उपग्रहोऽस्ति जीवानामखिलानां परस्परम् । जीवाजीवैश्च जीवन्ति, सर्वार्थ स्वाऽर्पणं मतम् ॥ १८८ संरक्ष्या जीवनोपाया, देशकालाऽनुसारिभिः । कर्मभिः सर्वजातीय-जैनैस्तु पञ्चमारके ॥ १८९ सर्वजातीयसद्यज्ञा, विधातव्या विवेकतः । सर्वकर्तव्यकर्माणि, गीयन्ते यज्ञरूपतः ॥
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नीतियोगः ] मजापोऽस्ति महायज्ञो, यज्ञो योगाङ्गसेवनम् । शुभाचारः सदा यज्ञो, यज्ञः पूजा जिनेशितुः॥ धर्मशास्त्रपरिपाठो, यज्ञश्च धर्मिसेवनम् । मातृपित्रादिसंसेवा, यज्ञश्च धर्म्यवृत्तयः॥ गुरोः सेवा महायज्ञस्तथा गुरुकुलादयः । ज्ञानयज्ञे हि लीयन्ते, सर्वयज्ञाः स्वभावतः ॥ यज्ञोऽतिथेः सदा सेवा, यज्ञाः परार्थवृत्तयः । धर्म्यदानं महायज्ञः, प्राणिनां रक्षणं तथा ॥ चातुर्वर्ण्यस्य कर्माणि, यज्ञरूपाणि जानताम् । जैनधर्मस्य संरक्षा, यज्ञः सर्वोत्तमः स्मृतः ॥ जैनानां पोषणं यज्ञो, यज्ञः सदोषधालयः । चतुर्विधमहासङ्घ-सेवा यज्ञोऽभिगीयते ॥ द्रव्ययज्ञः सदा साध्यो, राज्यादिधर्मरक्षणम् । स्वीययोग्यानि कर्माणि, गीयन्ते यज्ञरूपतः ॥ व्यवस्था सर्वविश्वस्य, यैरुपायैः प्रजायते । धर्मोपाया महायज्ञाः, सद्विचारप्रवृत्तयः॥ कर्मयोगो महायज्ञो, ज्ञानयोगस्तथा परः। दर्शनज्ञानचारित्र-वीर्ययज्ञाः शुभाः सदा ॥ साहाय्यं धर्मिलोकानां, पापमार्गनिवारणम् । षडावश्यककर्माणि, यज्ञाः स्युर्मोक्षदायकाः॥ अनेकधर्म्ययज्ञानां, कृतिनिष्कामबुद्धितः । मदाज्ञा सैव बोद्धव्या, मत्पदं यान्ति यज्ञतः ॥ सद्धर्मव्यवहारोत्थ-सर्वकर्त्तव्यकर्मसु । परस्परसहायेन, जैनसंघः प्रवर्त्तते ॥
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[ पञ्चमाध्याये परस्परसहायस्तु, महायज्ञः प्रकीर्तितः। सर्वोत्तमो महायज्ञः, स्वाऽर्पणं धर्मरक्षणे ॥ २०३ चतुर्विधमहासंघो, यज्ञ एव न संशयः। सर्वजीवदयायज्ञान्मेघवृष्टिः प्रजायते ॥
२०४ सर्वजीवस्य रक्षैव, महायज्ञः सतां मतः । हिंसामथा न यज्ञाः स्युः, पश्वादिघातकारकाः।। अहिंसा सर्वविश्वस्य, सत्यधर्मोऽस्ति मर्वथा। निश्चयव्यवहाराभ्यां, सेव्यो धर्मो महाजनैः ॥ २० अधर्मस्य विनाशश्च, दुष्टन्यायनिवारणम् । अहिंसैव मया ख्याता, लोकानां स्वाऽधिकारतः ।। २०७ सर्वदेशीयलोकानां, लाभायाऽतिप्रयत्नतः । वृषभाणां गवां रक्षा, कर्त्तव्या भव्यमानवैः॥ -२०८ दुष्कालादिप्रसङ्गे तु, जनैर्वित्तादिदानतः । पालनं गोमहीषीणां, कर्त्तव्यं स्वस्वसद्मनि ॥ सूनास्थाननिषेधेन, पशुपक्ष्यादिरक्षणम् । देशराज्यसमाजानामुपकाराय जायते ॥ देशराज्यसमाजानां, धनं पश्वादिकं शुभम् । तन्नाशे देशलोकानां, नाशो भवति सर्वतः ॥ पशुपक्ष्यादिसंरक्षा, यत्र देशे भवेत्सदा । तत्र शन्तिर्भवेत्पुष्टिस्तुष्टिश्च सर्वसम्पदः ॥ पशुपक्ष्यादिजीवानां, जीवनं स्वात्मवज्जनैः। रक्षितव्यं समाजानां, सर्वजातीयशक्तितः ॥ आर्या धर्म न मुञ्चन्ति, गवादिरक्षणात्मकम् । दयां विना न धर्मोऽस्ति, ज्ञातव्यं सर्वमानवैः॥
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नीतियोगः ] हृदि यस्य दया नास्ति, धर्मस्तु नैव तद्वदि । अहिंसायाः प्रतिष्ठायां, सर्वे धर्माः प्रतिष्ठिताः ॥ २१ विश्ववत्तिमनुष्याणां, दुःखनाशाय मानवैः । क्रियते या प्रवृत्तिः सा, दयैव साध्यबुद्धितः ॥ अहिंसा सर्वलोकानां, दुःखपीडाविनाशिका । देशसंघसमाजानां, न्यायरूपा स्वभावतः ॥ २१७ विश्वदेशसमाजानां, सर्वजातीयदेहिनाम् । श्रेयोऽर्थ क्रियते या सा, दयैव विश्वशान्तिदा ॥ २१८ निश्चयव्यवहाराभ्यां, गौणमुख्यविभेदतः। महालाभविचारेण, अहिंसापालनं शुभम् ॥ २१९ दया यत्र प्रभुस्तत्र, महावीरोऽस्ति भावतः । ज्ञात्वैवं सर्वजीवानां, रक्षा कार्या मनीषिभिः ॥ २२० दयारूपं महायज्ञं, कुर्वन्ति भव्यमानवाः । सर्वजीवदयाधर्मान्मेघवृष्टिः शुभा भवेत् ॥ यत्र देशे दया नास्ति, समाजे स्वजने तथा । उत्पाता दुःखदास्तत्र, भवन्ति पापकर्मतः ॥ २२२ नष्टा वंशा नृपादीनां, हिंसापापाऽतिरेकतः । इहामुत्र महापापाः शान्तिं यान्ति न सर्वथा ॥ २२३ स्वार्थबुद्धिवशाल्लोका, अन्यान् हिंसन्ति सर्वथा । जीवन्तोऽपि मृता एव, दुर्गतिदुःखवेदिनः॥ अधिकारो न कस्थाऽपि, प्राणिदेहविनाशने । यदुत्पत्ती न सामर्थ्य, तद्विनाशे तु कः क्षमः॥ अहिंसा बाह्ययोगेन, साधनीया प्रयत्नतः। अहिंसा शुद्धभावेन, साध्या मैत्र्यादिभावतः॥ २२६
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अहिंसारूपसद्वेदैरागमैश्च महीतले ।
मद्धर्मः सर्वजीवानां योगक्षेमादिकारकः ॥
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तथ्यं पथ्यं प्रियं वाक्यं वदन्ति ज्ञानयोगिनः । सत्यान्नास्ति परो धर्मः, सत्ये धर्माः प्रतिष्ठिताः ॥ प्रामाण्यमात्मवद्वार्य, ब्रह्मशक्तिविवर्द्धकम् । अनीतिकार कादण्ड्याः, संरक्ष्या नीतिधारकाः ॥ दुष्टेभ्योऽप्यधिका शक्तिः, प्रापणीया प्रयत्नतः । आत्मायता यतो दुष्टा, भवन्ति सर्वधर्मिणाम् ॥ सतां सङ्गेन मद्भक्तैः प्राप्तव्याः सभ्यसद्गुणाः । अनार्याणां न विश्वासः कर्त्तव्यः स्वात्मरक्षकः ॥
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[ पञ्चमाध्याये
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लघुभावः सतामग्रे, धारणीयः प्रयत्नतः । महत्त्वं दुष्ट लोकेभ्यो, रक्षणीयं स्वशक्तितः ॥ गुणानां दुर्गुणानाञ्च, हृदि सम्यकपरीक्षणम् । कर्त्तव्यं प्रत्यहं भव्यैरन्तः शक्तिप्रवर्द्धकम् ॥ सहायता स्वकीयानां स्वाश्रितानाञ्च शक्तितः । कर्त्तव्या मज्जनैः प्रीत्या, स्वाऽधिकारविवेकिभिः ॥ २३४ स्वोपकारिमनुष्येषु कर्त्तव्या स्वात्मदानता । कर्त्तव्या न कदा भव्यैद्रोहता स्वोपकारिषु ॥ अन्यायो नैव कर्त्तव्य, उत्सर्गमार्गतः कदा | मनोवाक्कायतो न्यायः, सेव्यः सर्वजनैर्भुवि ॥ स्वप्रतिज्ञा सदा पाल्या, मित्रैः सार्द्धं च मित्रता । औचित्यं सर्वलोकेषु, धर्तव्यं व्यवहारतः ॥ मर्मः सर्वलोकेषु जागर्ति सर्वरक्षकः । सर्वजातिविपत्तौ च रक्षति मत्स्वरूपकः ॥
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नीतियोगः ] संरक्षणं शरण्यानां, कर्त्तव्यं स्वात्मभोगतः । कापटयं नैव कर्त्तव्यं, गुरोरग्रे विवेकिभिः ॥
२३९ साधुबालागनारक्षा, कर्तव्या क्षत्रियैः सदा। विश्वोपकारिणो नैव, हन्तच्या भूतिमिच्छता॥ सवस्वाऽर्पणसवुया, नैष्टिकश्रद्धया तथा । सर्वकार्याणि सिद्धयन्ति, नैवाऽशक्यं जगत्त्रये॥ उद्योगात्सर्वजीवानां, स्वकर्माऽनुसारतः। यथायोग्यं फलं बोध्यं, मदुक्तं नान्यथा कदा॥ २४२ दुःखिना याचनाभङ्गः, कर्तव्यो नैव शक्तिषु । प्रदेषो नैव कर्तव्यः, सत्यज्ञानप्रदातरि ॥
२४३ मैत्र्यादिभावना भव्या, भावनीया प्रयत्नतः । स्वात्मशक्त्या सदा : नः, कर्तव्यो धर्यकर्मसु ॥ १४ मैत्रीप्रमोदमाध्यस्थ्य-कारुण्यशुभभावनाः। भावयध्वं जना भन्या, आत्मशुद्धिप्रकाशिकाः ॥ २४५ निश्चयव्यवहाराभ्यां, मैयादिभावनाः शुभाः। भावयन्तो जना भव्या, व्रजन्ति परमं पदम् ॥ २४६ मैत्र्यादिभावनारूपो, यस्यात्मा जायते स्वयम् । जगद्गुरुर्भहानात्मा, सदगुणैर्जायते भुवि ॥ मनोजयाय मैत्र्यादि-भावना उत्तमा हृदि । ध्यातव्या वासनानाश-हेतवे भव्यमानवैः ॥ प्रमादो दुःखदः शत्रुर्जतव्यः स्वात्मशक्तितः । अप्रमादान्मतो मोक्षो, भवश्चैव प्रमादतः ॥ निद्रां विहाय भो लोकाः, शुभकर्ममदाश्रयाः। कुर्वन्तु दुष्कृतं त्यक्त्वा, ब्रजन्तु चाऽव्ययं पदम् ॥ ५०
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[ पञ्चमाध्याये पक्षं दुष्टस्य सन्त्यज्य, भवन्तु धर्मपक्षिणः । संस्मृत्य सर्वसंस्थं मां, सन्तु भक्ता गुणान्विताः॥ २५१ धृत्वा नृपगुणांश्चित्ते, पालयेद्वसुधां प्रजाः । स राजा मत्प्रियो भूत्वा, जायते धर्मभाजनम् ।। २५२ पोष्याः कुटुम्बवज्जैना, निर्धना भक्तिभावतः । विद्याव्यापारदानेन, विधेयाः स्वसमाः सदा ॥ २५३ जैनानां धर्मकामार्थ-साधकानां सहायकाः । भवन्त्येव न ये जैनास्ते मद्धर्मस्य घातकाः ॥ २५४ कलौ संघेषु सद्रागः, सर्वपापविनाशकः । अतो जैनेषु सद्रागो, मद्भक्तिरेव वस्तुतः ॥ सर्वोपायैः सदा रक्ष्या, जैनवंशपरम्परा। दत्तकेनाऽपि वंशस्य, रक्षणं धर्मवृद्धये ॥ - २५६ सर्वजातीयजैनानां, संख्यावृद्धथै स्वरागतः । सर्वकर्माणि कुर्वन्तो, जैनाः स्युर्मोक्षगामिनः ॥ २५७ जैनसंख्या विवृद्धो मे, भक्तिरस्तीति वेदिनः। सर्वस्वाऽर्पणकर्त्तारो, मत्पदं यान्ति वेगतः ॥ २५८ जयन्ति ते महाजना, जैनधर्माऽभिमानिनः । ज्ञातव्याः शत्रवो मे ते, जैनेषु रागवर्जिताः ॥ जिनत्वं सर्वजैनेषु, जैनाः पश्यन्ति रागतः । ते शीघ्रं मत्पदं यान्ति, संघभक्तिपरायणाः ।। विद्याव्यापारकार्येषु, जैनान्प्रवर्तयन्ति ये। यमादिमन्तरा ते तु, मत्पदं यान्ति रागतः ॥ २६१ विद्यावृद्धिः सदा कार्या, जैनैर्विद्यालयादिभिः । विद्यदिभिः कलौ सत्ता, शुद्राणामपि जायते ॥
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नीतियोगः ] संघस्यैक्यं समाराध्यं, सर्वोपायैः कलौ सदा । संघस्यैक्येन जैनानां, स्थितिविश्वोपकारिणी ॥ परार्थस्वार्थलाभाय, विद्याव्यापारकर्मभिः। .. गमनं सर्वदेशेषु, जैनानां वृद्धिकारकम् ॥ २६४ धर्मकर्मस्वनेकान्तो, द्रव्यादिगौणमुख्यतः। लाभाऽलाभौ च विज्ञाय, कर्त्तव्यं कर्म युक्तितः ॥ २६५ महासंघस्य संमेलः, कर्त्तव्यः प्रतिवत्सरम् ।। जनसंख्यादिवृद्धयर्थ, कर्त्तव्यं योग्यकर्म तत् ।। निरासक्त्या तु निर्दोषा, गृहिजैनाः स्वकर्मसु । मत्वैवं सर्वसज्जैनैः, पाल्यो धर्मो विवेकतः॥ २६७ देशधर्मसमाजानां, रक्षाऽस्ति क्षात्रकर्ममिः। क्षत्रिया यत्र विद्यन्ते, तत्र धर्मस्य रक्षणम् ॥ मद्धर्मपरिरक्षार्थ, कलौ जैना रणाङ्गणे । दुष्टानां शक्तिनाशार्थ, युद्धयन्ति शस्त्रसाधनैः ॥ २६९ शत्रोः पराजयं कृत्वा, महीं भुञ्जन्ति शक्तितः । ‘मृत्वा भवन्ति ते स्वर्गे, देवा भोगपरायणाः ॥ धर्म्ययुद्धे न युद्यन्ते, क्लीवास्ते धर्मदूषकाः । जैनधर्माहतां यान्ति, क्षत्रियाः क्षात्रकर्मभिः ॥ २७१ वीर्यहीनैर्न लभ्योऽहं, धर्मदेशविनाशकैः। महाधोऽल्पदोषश्च, क्षत्राणां धर्म्यकर्मसु ॥ बालस्त्रीधमिलोकानां, रक्षार्थ क्षात्रकर्मसु । निर्दोषत्वं महाधर्मो, ज्ञातव्यं क्षत्रियैरिति ॥ २७३ दोषा अपि गुणायन्ते, दोषायन्ते गुणास्तथा । सत्त्वरजस्तमाकर्म-जाता द्रव्याद्यपेक्षया । २७४
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[ पञ्चमाध्याये आजीविका तु शस्त्रायैः, क्षत्रियाणां भवेत्सदा । शो शास्त्रादिभिः सम्यक् कथ्यन्ते क्षत्रियाः शुभाः॥ २७५ क्षत्रियाणां भवेद्धयं-युद्धेषु जीवनं शुभम् । जैनसाम्राज्यरक्षार्थ, जेना युद्धेषु तत्पराः ॥ २७६ स्थातव्यं न विना शस्त्रजैनधर्मार्थरक्षकैः । जैनधर्मस्य रक्षार्थ, तेषां मृत्युः शुभंकरः ॥ जैनधर्मस्य रक्षार्थ, जैनानां रक्षणाय च । धर्थयुद्धेषु या हिंसा, सा हिंसा नैव कथ्यते ॥ क्रौर्य शौर्यञ्च पुण्याय, जैनानां क्षात्रधर्मतः । धर्मस्थापनरक्षायै, स्वर्गसिद्धथै च तन्मतम् ॥ अन्यधर्मिजनैः शरैः, साई श्रेष्ठाऽतिशूरता। राज्यभूम्यादिरक्षार्थ, जैनानां कर्मयोगिनाम् ॥ . २८० धर्म सर्वकलायोगः, रक्षन्ति क्षत्रियाः कलौ । मामहन्तं हृदि ध्यात्वा, ते ब्रजन्ति शिवश्रियम् ॥ २८१ अल्पदोषमहालाभं, विज्ञाय क्षात्रकर्मणि । धर्मार्थकाममोक्षार्थ, स्थातव्यं क्षत्रियैर्जनैः ॥ परब्रह्मस्वरूपं मां, जानन्ति सत्यविद्यया । ज्ञातव्या ब्राह्मणास्तस्मादिद्याभिर्जीविनश्च ये॥ सर्वजातीयकन्या तु, ब्राह्मणानां प्रकल्पते । देशकालाऽनुसारेण, शुभा जीवनवृत्तयः ॥ पूर्ववज्जैनधर्मस्य, पालका धर्मवर्द्धकाः । संप्रति विद्यमाना ये, ब्राह्मणाः शास्त्रपारगाः॥ धनधान्यस्त्रिभिर्वणः, पोष्या धर्माऽनुरागतः। गुणकर्मविभागेन, वर्णसंस्कारकारकाः ॥ २८६
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नीतियोगः ] जैनधर्मप्रवृद्वयर्थ, सर्वस्वाऽर्पणकारकाः । गृहस्था गुरवो ज्ञेया, ब्राह्मणा गुणकर्मतः ॥ जैनधर्मोपदेष्टत्वावर्णानां ब्राह्मणो गुरुः । जैनब्राह्मणसंघस्य, सेवा कार्याऽतिरागतः ॥ ब्राह्मणा यत्र पूज्यन्ते, जैनधर्माऽभिमानिनः । तत्र सर्वोन्नतिव्यक्तिर्भवेत्किश्चिन्न संशयः ॥ सर्वजातीयविद्यानां, पाठकैर्जनमाहनैः।। जैनधर्मस्य शास्त्राणां, पठन पाठनं सदा ॥ कर्तव्यं स्वाऽधिकारेण, जीविकादिकसाधनैः । जैनधर्मप्रचाराय, यतितव्यं सुयुक्तिभिः॥ परमेष्ठिमहामन्त्रो, जाप्यो ध्येयश्च माहनः । परब्रह्ममहावीरं, मां ध्यात्वा सर्वकोविदः ॥ आपत्काले तु सर्वेषां, ब्राह्मणादिमनीषिणाम् । व्यवहारोऽपवादेन, घटते जीवनादिकः ॥ व्यापारकृषिकर्माद्यैः, पशूनां पालनादिभिः । वैश्यैराजीविकाकर्म, कर्त्तव्यं यंत्रकर्मभिः ॥ देशकालाऽनुसारेण, व्यापारकृषिकर्मणाम् । कर्त्तव्या संस्कृतियोग्या, चतुर्वर्गसुसाधकः ॥ कर्त्तव्यं च गवादीनां, पालनं योग्यकर्मभिः । जीवहिंसा सर्वदेशेषु, निषेध्या सर्वशक्तिभिः ॥ सर्वजातिमनुष्याणां, लाभार्थ पशुरक्षणम् । सर्वत्र सर्वखण्डेषु, कर्त्तव्यं सर्वमानवैः ॥ शूद्रजैनैः सदा सेवा, कर्मभिश्चाऽन्यकर्मभिः। आजीविका प्रकर्त्तव्या, सर्ववर्गप्रसाधकैः ।।
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आपत्काले समायाते, जीवनादिप्रवृत्तयः । आपद्धर्मानुसारेण, सेव्या जैनैर्यथायथम् ॥ कर्मणां वैपरीत्येन, तत्काले नैव दोषता । धर्मार्थ जीवनं धार्य, सर्वजैनैः प्रयुक्तितः ॥ सर्वजातीय सज्जैनैधर्य धर्माय जीवनम् । मुख्यः सर्वाऽवतारेषु, सर्वत्र जैनमानवः ॥ सर्वजातीय जैनानां, जीविका सर्वहेतुषु । प्रवृत्तिर्व्यवहारेण, निर्दोषा धर्म्यनीतितः ॥ शक्तिमन्तो हि जीवन्ति, नैव जीवन्ति दुर्बलाः । शक्तिप्रदेषु मार्गेषु गन्तव्यमप्रमादतः ॥ शक्तीनां तत्र साम्राज्यं, यत्र धर्मस्य जागृतिः । सर्वोपायैरतः साध्या, जाग्रद्रूपेण शक्तयः ॥ जैनानामुन्नतिः साध्या, विद्यादिसर्वशक्तिभिः । तत्तत्कार्येषु संघस्य, भक्तिरेव शुभप्रदा ॥ अद्रष्टव्यमुखाः पापा, जैनधर्मस्य रोधकाः । चतुर्विधस्य संघस्य, वैरिणो दुष्टबुद्धितः ॥ जैनधर्मस्य शत्रूणां प्रतिरोधः स्वशक्तितः । कर्त्तव्यः सर्वसज्जैनैर्देशकालाऽनुसारतः ॥ निन्दाऽवज्ञादिकर्तारः, सद्गुरूणां विशेषतः । तेषां रोधः प्रकर्तव्यः, सर्वसंघस्य शक्तिभिः ॥ प्रत्युत्तरैर्निरोद्धव्या, नास्तिकानां कुयुक्तयः । पश्चास्वं न कदा सेव्यं धर्म्यवादे स्वशक्तितः ॥
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शक्तिदायक मन्त्राणां, यंत्राणाञ्च रहस्यतः । जैनधर्मोन्नतिः साध्या, निश्चयव्यवहारतः ॥
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नीतियोगः ]
मंत्राणां सर्वतन्त्राणां, यंत्राणाञ्च स्वशक्तितः । उपयोगो जनैः कार्यो, जैनधर्मस्य वृद्धये ॥ जैनानां रक्षणे रक्षा, जैनधर्मस्य संभवेत् । धर्म्ययुद्धेन जैनानां, रक्षायां भक्तिरुत्तना ॥ विश्वासो नैव कर्तव्यो, जैनधर्मस्य वैरिणाम् । सावधानतया स्थेयं, जैनैः सर्वत्र सर्वदा ॥ अन्यधर्म गते जैने, जैन संघेषु शोकना । जायेत तीर्थनाशस्य, तुल्या धर्माऽभिमानतः ॥ तदा जैनमहासंघ- प्रगत्यर्थं प्रवृत्तयः । क्रियन्ते सर्वसंवेन, योगसत्ताधनादितः ॥ अन्यधर्मगता जैना, बोधसाहाय्यशक्तितः । जैनसंवे पुनः स्थायाः, प्रायश्चित्तादिपूर्वकम् ॥ काम्यफलस्य संत्यागात्, सर्ववर्णैः स्वकर्मसु । लोकसंग्रहसंदृष्टा, ज्ञातव्या स्वाधिकारिता ॥ निर्बला नैव जीवन्ति, कर्तव्यकर्ममोहिनः । कलौ निर्बललोकानां पारतन्त्र्यं सदा मतम् ॥ निर्बलानां कुतो धर्मो, दारिद्रयं नीचता तथा । कलौ संघबलेनैव, स्वबलेन च जीवनम् ॥ विजेष्यन्ते कलो धर्माः, कलिशक्तिसमन्विताः । कलिधर्मस्य मुख्यत्वं यत्र तत्र जयो महान् ॥ क्षेत्रकालानुसारेण, मज्जैनाः कर्मयोगिनः । आप्नुवन्ति न दौर्बल्यं, मच्छ्रद्वा भक्तिसंयुताः ॥ सर्वकर्मप्रकर्त्तारो, महावीरेति जापतः । जैना विधर्मिभिः सार्द्ध, पश्चाद्भावं भजन्ति नो ॥
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मयि कर्माणि संन्यस्य, संघे वा कर्मकारकाः । जैना राष्ट्रादिकार्येषु पश्चात्त्वं यान्ति नो कदा ॥ यद्यत्काले च योग्यं कर्त्तव्यं परिवर्त्तनम् । धर्म्याचारविचाराणां, राज्यादिसर्वकर्मणाम् ॥ सर्वत्र जैनधर्मस्य, नीतियोगप्रचारणे । सर्वोपाया विधातव्या, आपत्कालेषु तत्समाः ॥ कोटस्वार्थान् परित्यज्य मद्धर्मे सर्वमानवैः । स्थेयं विश्वस्य शान्त्यर्थे, कर्त्तव्या च परार्थता ॥ विश्वस्थ सर्वलोकानां साम्यस्वातंत्र्यशर्मणे । राज्यादीनां व्यवस्थाभिर्वर्तितः विशेषतः ॥ दत्त्वाहुतिं स्वभोगानामन्यलोक सुखाय च । विश्वसमत्वरक्षायै, वर्तितव्यं परस्परम् ॥ सर्वजातीयलोकानां सुखे मत्वा निजं सुखम् । बायक्षणिक भोगेषु, मोहस्त्याज्यो विवेकिभिः ॥ सर्वकर्माणि संन्यस्य, जैनधर्मे विवेकतः । शूद्रादिकर्मकर्त्तारो, जैनाः स्युर्विश्वशासकाः ॥ द्रोहः कदा न कर्त्तव्यो, जैनैर्युद्ध्वा परस्परम् । मत्पई न कदा यान्ति, जैना जैनविरोधिनः ॥ म ये परित्यज्य, भवन्ति स्वार्थलम्पटाः । जैनोन्नतिं न कुर्वन्ति, क्लीबाचैते विमोहिनः ॥ जैनोन्नतिं प्रकुर्वन्ति, जैनधर्मिबु रागिणः । विरताsविरता जैना, जैनेषु स्वात्मदृष्टिकाः ॥ मद्रागिणो न ये जैनास्ते जैना नाममात्रतः । मप्रियाश्च शिवं यान्ति, जैना मद्धर्मरागिणः ॥
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नीतियोगः ]
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मयि श्रद्धालवो जैनाः, सम्यक्त्वं यान्ति भक्तितः । चतुर्विधस्य संघस्य, रागिजैना मम प्रियाः ॥ जीविकावृत्तिसाहाय्यं, जैनैः कृत्वा परस्परम् । यथा जैनोन्नतिर्भूयात्तथा कार्य विशेषतः ॥ यद्यत्काले च यद्देशे, यथत्कर्तव्यकर्म तत् । सर्वजैनैर्विधातव्यं, नैकान्तः सर्वकर्मसु ॥ गृहिधर्मा असंख्याता, ज्ञातव्यास्ते विवेकतः । अनुक्ता गृहिधर्मास्तु, भक्त्या जानन्ति योगिनः ॥ ३३८ लाभालाभौ विदित्वा तान्, सर्वशक्तिगुणालयाः । जैनास्तु स्वाऽधिकारेण कुर्वन्ति क्षेत्रकालतः ॥ मदुक्तसर्वयोगानां, पूर्णविश्वासमन्तरा । आत्मज्ञानी भवेनैव, कोऽपि सत्यं निबोधत ॥ अजैनीभूय यः कोऽपि निश्चयव्यवहारतः । विनाशं न करोत्येव, रागद्वेषादिकर्मणाम् ॥ जैनं गुरुं विना कोऽपि, ज्ञानी भक्तो न जायते । सत्यधर्मी भवेन्नैव, जैनधर्माश्रयं विना ॥
३३९.
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३३७
३४०
३४१
वेदागमस्य वेताऽपि, जैनत्यागिगुरुं विना । आत्मान्नतिं न संयाति, मदीयाऽऽज्ञेति शाश्वती ॥ ३४३ साधूनां सद्गुणाञ्च वैयावृत्यं सुभावतः । कुर्वन्ति ते जनाः सम्यग्ज्ञानं यान्ति न संशयः ॥ सेवाभक्तिं विना नृणामात्मज्ञानं न जायते । तथा ज्ञानस्य पाकाय, विश्व सेवोपकारिणी ॥ जैनधर्मसमो धर्मो, न भूतो भविष्यति । यमाराध्य पशुर्देवो भवेदात्मविकासतः ॥
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३४६
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१००
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[पञ्चमाध्याये जैनधर्मः सदा सत्यः, सर्वधर्मशिरोमणिः । आत्मैव जैनधोऽस्ति, शाश्वतोऽनाद्यनन्तकः॥ ३४७ जैनधर्मे लयं यान्ति, बौद्धवेदान्तदृष्टयः । सर्वधर्मोदधिः पूर्णा, जैनधर्मः सनातनः ॥ ३४८ व्यष्टिसमष्टिरूयेण, द्रव्यतो भावतस्तथा । मद्धर्मः सर्वविश्वस्थ, तारको दुःखवारकः ॥ सर्वजीवोपरि प्रेम, शुद्धं यस्य प्रवर्तते । व्यष्टिसमष्टिरूपेण, जैनधर्मी स उच्यते ॥ प्रक्षालयन्ति जीवानां, दोषान् ये शुद्धरागतः । धौदार्यविचारेण, स्वात्मवद्विश्वदर्शिनः ॥ परोपकारकार्येषु, सर्वस्वाऽर्पणकारकाः । सर्वखण्डेषु देशेषु, जैनाः स्वातन्त्र्यरक्षकाः ॥ सर्वदेशेषु लोकानां, सर्वदुःखनिवारकाः । भेदबुद्धिं विना विश्व-सर्वकल्याणकारकाः॥ ३५३ मज्जैना जैनधर्मस्य, सदगुणैः स्युः प्रवर्तकाः । जैनत्वं सर्वजीवानां, कुर्वन्ति जिनसाधकाः ॥ ३५४ वन्ते सर्वदा जैनाः, परोपकारकर्मभिः । अतः सर्वप्रयत्नेन, वर्तितव्यं महाजनैः॥ ३५० गृहस्थगुरुभिजैनैर्देशकालानुसारतः । जैनानामुन्नतिर्यस्माद्भवेत्तत्तत्प्रवृत्तितः ॥ जैनोन्नतिः प्रकर्तव्या, व्यावहारिकशक्तिदा । जैनधर्मोपदेशेन, कर्त्तव्यं धर्मरक्षणम् ॥ जैनैः परस्परं लग्नं, कर्त्तव्यं जैनजातिषु । गुणकर्मविभागेन, जैनजातिविभागता ॥
३५८
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नीतियाग: ]
कदाऽपि नैव दातव्या, जैनकन्या महाजनैः । जैनेतरविधर्मिभ्यो, धर्मभ्रंशादिपातकात् ॥ जैनधर्मस्य संस्कारैर्योग्यकन्या विधर्मिणाम् । सम्यक्त्वादियुताः कृत्वा, ग्राह्या वंशादिवृद्धये ॥ जैनाः सर्वत्र संस्पृश्या, महावीरस्य जापतः । भोजनादि यथायोग्यं, कल्पनीयं परस्परम् ॥ जैनराजस्तथा संघो, जैनानां न्यायकारकः । लग्नादिगृहकार्येषु सर्वत्र जैन नीतितः ॥ जैनोन्नतिप्रदो धर्मो, नाऽन्यः शक्तिविनाशकः । शक्तिवककर्माणि कर्त्तव्यानि यदा तदा ॥ प्रमादाजीविकादीनां कर्मसु दोषराशयः । भवन्ति सदिनाशार्थमावश्यकस्य सेवनम् ॥ पश्चात्तापेन निर्दोषा, भवन्ति जैनमानवाः । प्रतिक्रमणकृत्येन, संक्षयो दोषकर्मणाम् ॥ तीर्थस्थानेषु जैनानां, महासंघस्य भावतः । कर्त्तव्यं मेलनं सम्यैर्धर्तव्याख्यानहेतवे ॥ चतुर्विधमहासंधैजैन संख्यादिवृद्धये । रीतिभिः संस्कृताभिर्वै कर्त्तव्यं परिवर्त्तनम् ॥ सर्वसंघस्य रक्षायै, स्थाप्यो राजा मदाज्ञया । वर्त्तितव्यं महासंघैस्तारतम्यविवेकतः ॥ जैनधर्मप्रगत्यर्थ, महासंघस्य नायकम् । आचार्य प्रमुखं कृत्वा, महासंघेन शक्तितः ॥ कर्तव्याः सत्यसंस्कारा, धर्माचारेषु जीविताः । विषेया अन्यधर्मस्था, जैनधर्मानुयायिनः ॥
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[ पञ्चमाध्याये गृहस्थजैनवर्गेण, रक्षायै जैनधर्मिणाम् ।। तत्कालोद्भवशस्त्राणां, कर्त्तव्य धारणं करे ॥ ३७१ शस्त्र विना न गन्तव्यं, यत्र तत्र भयस्थले । प्रतिपक्षविधर्माणां, समाजे तु विशेषतः ॥ ३७२ आध्यात्मिकबलस्यैक्य, कृत्वा जैनैर्यदा तदा । बाह्यशस्त्रादिभिर्युद्ध्वा, विजेतव्यं रणांगणे ॥ ३७३ धमिभिः प्राणधर्मादिरक्षार्थ सर्वयुक्तिभिः । अमिनिग्रहार्थाय, यतितव्यं महाजनैः ॥ ३७४ श्रेष्ठं संघबलस्पैक्यं, सर्वविश्वप्रशासकम् । धर्मार्थश्च कलौ श्रेष्ठमुन्नतेः परिवर्तनम् ॥ ३७५ कालप्रवाहतां ज्ञात्वा, लोकानां प्रकृति तथा । तत्त्वधर्माऽविरोधेन, जैनोन्नत्यै महाजनैः ॥ संघबाहुल्यमाश्रित्य, स्वोन्नतिपरिवर्त्तनैः। संस्कृत्य सर्वदा शक्तीर्वतितव्यं यदा तदा ॥ जैनानां शासनं श्रेष्ठं, शान्तिशर्मप्रदायकम् । अन्यधर्मस्थलोकानामपि शान्त्यादिहेतवे ॥ ३७८ बाह्यान्तरप्रभेदेन, जैनसाम्राज्यशासनम् । विश्वे स्वातन्त्र्यसन्नीति-समानत्वप्रदायकम् ॥ ३७९ दास्यभावविनाशार्थमुदाराचारहेतवे। जैनसंघस्य साम्राज्यं, रक्षणीयं प्रयुक्तितः॥ भाविनी जैनसाम्राज्य-शक्ती रक्ष्या सुयुक्तितः। सर्वविश्वप्रजातन्त्र-धर्मरक्षणहेतवे ॥
३८१ जैनर्मिमहासंघ-बलाद्राज्यादिसंपदः । धर्मो रक्ष्यः सदा जनधैर्मात्सर्वसुखश्रियः ॥
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३८३
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नोतियोगः] चतुर्विधादिसंभेदैर्नीतिभी राज्यशासनम् । कर्त्तव्यं जैनभूपालैर्लोकतन्त्रादिगर्भितम् ॥ पुरुषाणाश्च नारीणां, यथायोग्यं कलाप्तये । विद्यालयव्यवस्थाभिर्वर्तितव्यं नृपादिभिः ॥ समुद्रोल्लङ्घनं श्रेष्ठं, विद्याव्यापारवृद्धये । जैनधर्मप्रचारार्थ, जैनधर्माऽभिमानिनाम् ॥ जैनधर्मप्रचारार्थ, प्रेष्या धर्मोपदेशकाः । द्वीपेषु चाऽन्यखण्डेषु, सर्वजातिप्रवन्धतः ॥ ३८६ उपेक्षा नैव कर्त्तव्या, जैनधर्मिविरोधिनाम् । तैः सार्दू शक्तिभिः स्थेयं, सावधानतया सदा ॥ ३८७ अभ्यागतानां सत्कारः, कर्त्तव्यः पूर्णरागतः । भोजनादिककर्त्तव्ये, लक्ष्यं देयं स्वमित्रवत् ॥ ३८८ अतिथीनां सदा दानं, देयं सत्कारमानतः । पूर्णोल्लासेन दानस्य, लभ्यते पूर्णसत्फलम् ॥ अतिथीनां सदा सेवा, कर्तव्या गृहिमानवैः। गृहवासफलं ज्ञेयमतिथेः सेवनं जनैः ॥ गृहस्थनरनारीणां, सेवाधर्मः सनातनः।। गृहागतस्य सत्पीत्या, देयं भोज्यादिकं जनैः ॥ ३९१ गुरुजनस्य सत्कारस्तत्सेवापूर्णरागतः । कर्त्तव्या स्वात्मभोगेन, त्यागिनाश्च विशेषतः ॥ अतिथीनां तिरस्कारः, कर्तव्यो न कदाचन । सर्वशक्तितया पोष्या, गृहस्थाश्रमवासिभिः ॥ ३९३ साधर्मिकमनुष्याणां, वैयावृत्यं विशेषतः । कर्तव्यं स्वात्मभोगेन, जैनधर्मस्य साधकः ॥
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१०४
[पञ्चमाध्याये साधर्मिकस्य संसेवा, पूर्णपुण्येन लभ्यते। जैना जिनेन्द्रवत्पूज्याः, साधर्मिकाश्च साधवः ॥ ६९५ कल्पते भोजनं कर्तुं, गृहस्थाश्रमधर्मिणाम् । साधूनां दर्शनं कृत्वा, भोजनदानपूर्वकम् ।। क्षुधात्तगहिसाधुभ्यो, दानं देयं यथायथम् । तेषां दुराशियो नैव, ग्राह्या.धर्मार्थिभिर्जनैः ॥ अन्नदान तथा स्थान, देयं तेभ्यः सुरागतः। उपग्रहोजरत मोक्षाय, श्वभ्राय परपीडनम् ॥ साध्वीभ्यः पूर्णरागेण, देथं निर्दोषभोजनम् । जैनरूपेण देवस्याऽऽगमो जैनगृहे भवेत् ॥ परस्परं नतिः कार्या, जैनधर्माभिमानिभिः । हस्तः परस्परं प्रीत्या, संमील्य व्यवहारतः ॥ परस्परं नतिः कार्या,हस्तौ संयोज्य साधुभिः । बाह्यक्रियाविभेदेऽपि, सवेबु ब्रह्मदर्शनात् ॥ कर्तव्या न कदा निन्दा, सर्वजैः परस्परम् । परेश्वरस्य सत्तातः, सर्वजीवेषु दर्शनात् ॥ ४०२ अन्योन्यसर्वजनानां, द्रोहः पापाय जायते । जैनेषु यः कृतो द्रोहो, जिनेन्द्रघातवद्भवेत् ॥ ज्ञात्वेति सर्वसंधेन, त्याज्यो द्रोहः क्षयङ्करः। संस्थितो हृदि यस्याहं, तत्र द्रोहो न तिष्ठति ॥ ४०४ आत्मैव परमात्माऽस्ति, सर्वत्र सर्वदेहिनाम् । अतः सर्वत्र जीवेषु, स्वात्मवद्दर्शनं वरम् ॥ निरञ्जनं निराकारं, महाज्योतिर्वपुःस्थितम् । ज्ञानहीना न पश्यन्ति, वात्मानं विवभास्करम् ॥ ४०६
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नीतियोगः ]
१०५ जन्ममृत्युजरातीतं, प्राणातीतं महाप्रभुम् । देहस्थमपि सद्धथानी, भिन्नं पश्यति निश्चयात् ॥ ४०७ धर्मार्थ जीवन श्रेष्ठ, पापार्थ नैव जीवनम् । यज्ञे गवादिहिसा तु, महापापाय जायते ॥ ४०८ पशुहिंसकयज्ञानां, निषेधः सर्वशक्तितः । कर्तव्यः सर्वसंघेन, यत्र तत्र मदाज्ञया ॥ यज्ञशब्देन पूजाया, अर्थो बोध्यो महाजनैः । आर्यवेदेषु यज्ञस्य, पूजार्थ सूचना कृता ॥ सर्वत्र जैनराज्येषु, तथाऽन्येषु स्वशक्तितः । पशुहिंसकयज्ञानां, निषेधः कारितो मया ॥ ४११ केषामप्यधिकारो न, जीवानां नाशने कदा । देहिनां नैव कर्ता यस्तद्धन्ता स कथं भवेत् ॥ जैनधर्मोपदेष्टणां, साहाय्यं सर्वदा शुभम् । पुण्याय सर्वलोकानां, जायते नैव संशयः ॥ ४१३ सर्वविश्वस्थलोकानां, स्वातन्त्र्यस्य समानता। तीर्थोद्धारः कृतस्तस्मात्तीर्थेशोऽस्म्यधुना महान् ॥ ४१४ जैनेतरेषु जनेषु, जिनेन्द्रोऽहं प्रभुर्महान् । द्रष्टव्यश्च निराकार, आत्मा निश्चयतो विभुः ॥ ४१५ परमात्मस्वरूपेण, सर्वविश्वस्थदहिनाम् । समानताऽऽत्मसत्तात, इष्यते व्यक्तितस्तथा ॥ ४१६ निश्चयात्सर्वजीवेषु, सर्वजातीयधर्मिषु । आत्मा श्रीपरमात्मैव, द्रष्टव्योऽर्हन्महाजनैः॥ ४१७ मदाज्ञा सर्वविश्वस्योपरि गर्जति सर्वदा । विश्वोद्धारकतीर्थेशो, मान्यः पूज्योऽस्मि सर्वथा ॥ ४१८
४१२
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१०६
[पञ्चमाध्याये सर्वतीर्थकरेभ्यो मद्विशेषोऽस्ति कलौ महान् । 'एकवारमपि ध्यानं, मम मुक्तिप्रदायकम् ॥ मत्स्वरूपविलीनानां, घोरपापात्मदेहिनाम् । मन्नाममंत्रजापेन, शुद्धत्वं जायते क्षणात् ।। एकोऽपि मे नमस्कारः, संसारपारकारकः । मतक्रियाविभिन्नानां, पूर्णरागतया कृतः ॥ ४२१ तारयितुं न योग्या ये, मया ते तारिता रयात् । कलौ मन्नाजापेन, तरिष्यन्ति जनाः क्षणात् ॥ ४२२ अध्यात्मज्ञान विद्यानां, प्राकटयं पूर्णरूपतः । कृतं विश्वोपकाराय, मया धर्मस्वरूपिणा ॥ सर्वकल्याणकर्ताऽहं, सर्वविश्वस्य तारकः । मत्प्रभावेण सर्वत्र, जैनं जयतु शासनम् ॥ गुगानुरागतो लोका, अहंन्तो मयि रागिणः । भवन्ति दोषिणोऽप्येते, निर्दोषा मुक्तिगामिनः ॥ ४२५ मयि गुणानुरागोऽस्तु, नश्यन्तु दुगुणा द्रुतम् । गुणानुरागिणो लोका, भवन्तु मत्पदाश्रिताः ॥ समानधर्मभक्ताय, कन्यां दत्ते स्वधर्मतः । साधर्मिकेषु वात्सल्यं, विदधाति स मे मियः ॥ जैनान्संदृश्य ये जैना, भवन्ति रोमहर्षिताः। सम्यक्त्वादिगुणास्तेषु, साता नैव संशयः ॥ ४२८ दृष्ट्वा परस्परं जैनान् , पूर्णहर्षाकुलाः खयम् । भवन्ति मज्जनास्ते तु, नाऽन्ये ये नाममात्रतः ॥ ४२९ दृष्ट्वा परस्परं साधून , भिन्नाचारसमाश्रितान् । पूर्णानन्दा भवेयुये, साधवो मे विवेकिनः ॥
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नीतियोग: ] दृष्ट्वा परस्परं साधुन् , भिन्नाचारव्यवस्थितान् । परस्परं प्रकुप्यन्ति, साधवो न विवेकिनः ॥ मां वीरं हृदि पश्यन्ति, जैना विज्ञाः परस्परम् । ते जैना मजना बोध्या, शेषास्तु नामधारकाः ॥ नाम्नाऽपि जैनलोका ये, तेषु धर्मप्रचारकाः। तेषामुद्धारको भक्त्या, भवामि सर्वथा भवे ॥ दूषयन्ति मुनीन् द्वेषाद्भिन्नभिन्नगणस्थितान् । मर्मस्य रहस्यं ते, नैव जानन्ति वस्तुतः ॥ . दृष्ट्वा परस्परं जैनान् , नमस्कुर्वन्ति हर्षतः। .. साहाय्यश्चैव कुर्वन्ति, मजनास्ते विशेषतः ॥ विद्यान्नवस्त्रवित्तायैर्नव्यजैनविधायिनः । यादृशास्तादृशा जैना, भवन्ति मुक्तिगामिनः ॥ एकोऽपि श्रद्धया युक्तो, नव्यजैनो विधीयते। तेन विश्वस्थजीवानां, दत्ता निर्भयता खलु ॥ : सर्वधमैः फलं यत्स्यात् , तत्फलादधिकं जनैः। नव्यजैनविधानेन, प्राप्यते नात्र संशयः ॥ कृतेनैनेन जैनेन, नव्येन मजनैः फलम् । तीर्थोद्धारसमं ज्ञेयं, तीर्थकृन्नामबन्धकम् ॥ मन्नामजापकर्तृणां, दासाऽनुदासकिङ्कराः । भवन्ति मत्स्वरूपास्ते, जैना यान्ति परां गतिम् ।। आत्मभावेन पश्यन्ति, सर्वजीवान्विवेकिनः । जयन्ति दुर्गुणांश्चैव, जैनास्ते मत्पदाश्रिताः॥ रजस्तमोजयेनैव, जैना भवन्ति देहिनः । दुराशाविजयेनैव, जैनाः स्युजिनसेवकाः ॥
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[ पश्चमाध्याये अन्तर्वत्त्या जिनीभूय, जिनमाराधयन्ति ये । जिना भवन्ति ते शीघ्रमिलिका भ्रमरी यथा ॥ ४४३ मत्पश्चाज्जैनसंघेषु, गच्छभेदा अनेकशः। भविष्यन्ति कलौ तत्र, मोहः कार्यो न मजनैः ॥ ४४४ वस्त्रक्रियाविभेदेन, पश्यन्ति नैव भेदताम् । सर्वगच्छीयजैनास्ते, निर्गच्छा अन्तरात्मनः ॥ ४४५ सर्वगच्छीयजनान् ये, मद्धत्पश्यन्ति मानवाः । भेदाँश्च नैव पश्यन्ति, ते जैना यान्ति मत्पदम् ॥ ४४६ गच्छक्रियादिभेदेषु, स्थितोऽहं नैव वस्तुतः। स्थितोऽहं सर्वजनेषु, मच्छ्रद्धाभक्तिवर्तिषु । ४४७ मद्रागिसर्वजातीया, जैनाः स्युर्मनुजादयः । परब्रह्मस्वरूपं मां, ये भजन्ति स्वभावतः ॥ ४४८ मद्विश्वासितलोकानां, गुणोदघाटनकारकाः । बाह्यक्रियां विना जैनाः, पश्यन्ति मां स्वभावतः ॥ ४४९ मत्पश्चाये कलौ लोका, वय॑न्त्येवं सुबोधतः । भविष्यन्ति समर्थास्ते, विश्वोद्धाराय भावतः ॥ ४५० धर्मशास्त्रं समालम्ब्य, क्रियादिभेदमोहतः । द्विषन्ति भेदवुद्धया ये, पश्यन्ति मां न ते जनाः ॥ ४५१ गच्छक्रियादिभेदेन, संघभेदविधायिनः। मद्धर्म नैव जानन्ति, मां पश्यन्ति न वस्तुतः ॥ यादृशास्तादृशा जैना, अर्हन्तः सन्ति सत्तया । तदात्मसु कृतो देषो, महापापाय जायते ॥ यात्यक्रियाविभेदेऽपि, नैव भेदोऽस्ति धर्मिणाम् । मत्सम सर्वजातीय-जेनानां दर्शनं शुभम् ॥ ४५४
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नीतियोगः ]. वस्त्रवेषक्रियाचार-तिथिमन्तव्यभेदतः । परस्परं न मुह्यन्ति, जैनाः शुद्धात्मदर्शिनः ॥ मदैक्यं सर्वजनेषु, जैनाः पश्यन्ति वस्तुतः । बाह्यभेदान्न पश्यन्ति, जैनधर्मस्य घातकान् । क्लिश्यन्तो बाह्यभेदेषु, सरिवाचकसाधवः । आत्मतत्त्वं न जानन्ति, जैनशासनघातकाः॥ मत्प्राप्तौ बाह्यभेदानां, वस्तुतो नैव हेतुता। मदभेदेन मत्प्राप्तिः, सर्वगच्छविवर्तिनाम् ॥ साध्यसिद्धिर्भवेत्तेषां, सत्यमार्गविलोकिनाम् । येषां क्रियादिभेदेषु, नैव किश्चिददुराग्रहः ॥ कलावेतादृशा जैना, जैनधर्मस्य साधकाः । भविष्यन्ति मदाज्ञातो, विश्वधर्मप्रचारकाः॥ मदभेदेन जैनेषु, जिनेन्द्रबुद्धिधारकाः। परस्परं नमस्यन्तो, मत्पदं यान्ति भावतः॥ शुद्धभावोपयोगेन, कलौ तु पूर्णरागतः । प्राप्योऽहं शुद्धबुद्धीनां, बाह्यभेदेषु सत्स्वपि ॥ मन्नामजापकर्तृणामुपरि द्रोहकारकाः। भवेयुन कदा जैना, मताद्भिन्नाः परस्परम् ॥ आत्मवद्विश्वद्रष्टारो, जैना धर्मविवईकाः। सर्वदेशप्रजाश्रेयः-साधकास्तत्त्वदर्शिनः ॥ मनोवाकायवित्तादि-सहायेन परस्परम् । संघोन्नतिं प्रकुर्वाणा, जैना यान्ति शिवं पदम् ॥ यदाऽन्ध्यदृष्टितो बाह्य-धर्मसाम्राज्यवर्त्तनम् । तदा भवति जैनेषु, जडत्वं धर्मनाशकम् ॥
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साध्यदृष्टि समालम्ब्य सर्वकर्त्तव्यकारकाः । धर्मनियमबाहुल्य - संकीर्णदृष्टिवारकाः ॥ जैना जयन्ति सर्वत्र सर्वशक्तिसमन्विताः । कलौ मर्मरक्षार्थ, सर्वोपायविधायकाः ॥ सूरिवाचकसाधूनां साध्वीनां गृहमेधिनाम् । प्राधान्यं सर्वयोगानां कलौ सर्वत्र दर्शितम् ॥
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इति श्रीजैनमहावीरगीतायां श्रीनीतियोगनामक: पञ्चमोऽध्यायः समाप्तः
[ पश्ञ्चमाध्याये
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षष्टाध्याये संस्कारयोगः मनोवाकायभेदेन, संस्कारास्त्रिविधाः स्मृताः । पुनस्ते कार्ययोगेन, बहुधा वर्णिता भया ।। संस्काराज्जायते शुद्धिः, शक्तिः संजायते ततः । शक्त्या कार्याणि सिद्धयन्ति, बीजादिवाङ्करादयः॥ सर्वजातीयसंस्कारा, विद्यादिशक्तिदायकाः । कर्तव्या मंत्रयोगेन, जैनानां प्रगतिप्रदाः ॥ गर्भाधानादिसंस्कारा, आत्मशक्तिप्रकाशकाः । ब्राह्मणायैर्विधातव्या, जैनधर्मिविवर्द्धकाः ।। गर्भाधानादिसंस्कारान्कुर्वन्ति मदुपासकाः। ते मद्भक्ताः सदौन्नत्यं, प्राप्नुवन्ति न संशयः ॥ सम्यक्त्वसंस्कृति त्यक्त्वा, मद्भक्तो नैव जायते । अशुद्धहृदयोऽरक्तः, स्वर्गसिद्धिं न सेवते ॥ सम्यक्त्वसंस्कृतेर्योगान्मत्साहाय्यं सदा मतम् । गुरुकृपासहायेन, जैनदीक्षां व्रजेजनः ।। आचाराणां विचाराणां, सुसंस्कारपरम्परा । देशकालाऽनुसारेण, संस्कार्या शक्तिवर्द्धिका ।। संस्कृतिः सर्वशक्तीनां, संस्कारः सोच्यते शुभः । राष्ट्रादिसर्वधर्माणां, पुनः संस्कारयोग्यता ॥ सर्वजातीयजैनानामुद्धारो निजकर्मभिः । यथा भवेत्तथा कार्याः, संस्काराः प्रगतिप्रदाः ॥
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विश्वसमाजशान्त्यर्थ, रक्षार्थञ्च विवेकिभिः । सर्वजातीयविद्यानां, संस्कारः क्रियते शुभः ॥ धर्ममूलक संस्काराः, सर्वविश्वस्य शान्तिदाः । अधर्मादिविनाशाय, संस्काराणां प्रयोजनम् ॥ जैनराजादिसंवृद्धि, संस्काराज्जायते सदा । ज्ञानपूर्वक संस्काराः, सर्वत्र शक्तिदा मताः ॥ मातापित्रोः समानत्वं, विचाराचारसाम्यतः । द्वयोः साम्यस्य संस्कारात्पुत्रादिसंततिः शुभा ॥ मातापित्रोर्विचाराणामाचाराणां विशेषतः । संस्कारास्तनुजादीनां सुष्ठु शक्तिविधायकाः ॥ पक्ववीर्यादिसद्योगैर्लग्नप्रामाण्यमिष्यते । अन्यथा दुर्व्यवस्थाभिः सर्वशक्तिक्षयो भवेत् ॥ अपक्ववीर्यसन्तानैर्धर्मसंस्कारवर्जितैः । धर्मराज्यादिशक्तीनां नाशो दास्यश्च सन्ततेः ॥ अपक्ववीर्यदम्पत्योः, पुत्रादीनां परम्परा । जैनधर्मिविनाशाय, विद्यादीनां क्षयाय च ॥
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पक्ववीर्यबलादीनां, संस्काराणां प्रवृत्तयः । सेवितव्या विशेषेण, धर्मोद्धाराय मज्जनैः ॥ कदापि नैव कर्त्तव्या, बाललग्नादिरीतयः । पक्ववीर्यादिसंस्काराः, सेव्या मद्वर्मधारकैः ॥ समानधर्मदम्पत्योः पुत्राद्या धर्मधारकाः । अन्यथा धर्मसांकर्यमन्यदोषाश्च देहिनाम् ॥ मदाज्ञावर्त्तिनां नृणां सर्वसंस्कारयोग्यता । जायते धर्मवृद्धयर्थ, स्वाऽधिकारव्यवस्थया ॥
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[ षष्ठाध्याये
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संस्कारयोग: ]
मय्येवैकाग्रचित्तानां, मनुष्याणां स्वभक्तितः । धर्म्यलग्नेन पुत्राचा मद्वर्मार्था महौजसः ॥ गृहिजैनगृहस्थानां, स्वाऽधिकाराइलप्रदाः । संसेव्याः सर्वसंस्काराः, सर्वदोषविनाशकाः ॥ संसेव्या योग्य संस्कारास्त्यागिभिः स्वाऽधिकारतः । संस्काराणां रहस्यानि, ज्ञातव्यानि विशेषतः ॥ धर्मार्थकाममोक्षाणां, संस्काराः स्वाऽधिकारतः । ज्ञानयोगेन कर्त्तव्या, राष्ट्रादिवलवर्द्धकाः ॥ अशुद्धराग सन्त्यागो, वैराग्यं सैव कथ्यते । शुद्धरागादिसंस्काराः कर्त्तव्याः सर्वशक्तिदाः ॥ दुर्गुणानां परित्यागो, गुणसंस्कार एव सः । क्षात्रादिवल संस्काराः कर्त्तव्या विश्वरक्षकाः ॥ सर्वजातीयसंस्कारा, धार्मिका व्यावहारिकाः । तारतम्यविवेकेन, सेव्याः सर्वजनैः सदा ॥ सदबुद्धया योग्यसंस्काराः, सेवनीयाः प्रयत्नतः । अल्पदोषमहाधर्म-पूर्वकं बुद्धियोगतः ॥ अधिकारोऽस्ति सर्वेषां सांस्कारिकेषु कर्मसु । उपेक्षा नैव कर्त्तव्या, मूढतादिप्रसंगतः ॥ नव्यशक्तिप्रदानेन, सुसंस्कारस्य योग्यता । शक्तिप्रदानहीना ये, संस्कारा नैव ते मताः ॥ देशभाषादिसंस्काराः कर्त्तव्या उपयोगिनः । सर्वव्यापकशक्तीनां, संस्काराः सर्वसंमताः ॥ शुभव्यापकशक्तीनां प्राप्त्यर्थ मज्जनैः सदा । तद्योग्य सर्वकर्माणि कर्त्तव्यानि प्रयत्नतः ॥
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विद्यमानाऽन्यधर्मिभ्यो, विशेषशक्तिदायकाः । संस्कारा भावतः सेव्या, धर्मार्थकाममोक्षदाः ॥ मनोवाक्काययोगानां, संस्काराः शक्तिवर्द्धकाः । आत्मतत्त्वस्य संस्काराः, सेव्या द्रव्यादितः सदा ॥ कुटुम्बजातिवृद्धयर्थ, संस्कारा नव्यरूपतः । सेवितव्याः सदा सद्भिर्धर्म्याचारसुधारकैः ॥ जैनसंख्या विवृद्धयर्थ, संस्कारा वार्त्तमानिकाः । योग्यास्ते स्वात्मवीर्येण कर्त्तव्याः सर्वकर्मसु ॥ आचाराश्च विचारा ये, योग्यशक्तिप्रदायकाः । मत्तत्त्वस्याविरोधेन, संस्कारास्ते प्रदर्शिताः ॥ शक्तिरूपाः सुमार्गा ये वर्त्तमानसमुद्भवाः । संस्कारास्ते प्रबोद्धव्याः, सर्वशक्तिसमर्पकाः ॥ त्यागिनां सर्वसंस्काराः, प्रत्यक्षशक्तिवर्द्धकाः । आचारेषु विचारेषु, विधातव्या विवेकतः || आचाराः परिवर्त्तन्ते, त्यागिनां देशकालतः । परिवर्तनसंस्काराः, शक्तिदास्त्यागिनां मताः ॥ वेषाचारोपदेशेषु, संस्कारा वार्त्तमानिकाः । नव्यशक्तिप्रदाः श्रेष्ठास्त्यागिनां जैनशासने ॥ धर्मशास्त्रादिशास्त्राणां सर्वकर्मप्रवृत्तिषु । परिवर्तन संस्काराः कर्त्तव्या नव्यशक्तिदाः ॥ aarग्रहो न कर्तव्यो नव्यशक्तिप्रवृत्तिषु । देशकालादिसापेक्षा, संस्काराः सर्वकर्मणाम् ॥ पूर्वाऽपराविरोधेन, संस्कारा धर्मरक्षकाः । मद्धर्मो रक्ष्यते यैस्ते, संस्काराः सिद्धिदायकाः ॥
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[ षष्ठाध्याये
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संस्कारयोगः ] गुरुशिष्यादिसंबन्धाः, पूर्णप्रेमव्यवस्थिताः । यैरुद्भवन्ति ते योग्याः, संस्कारा मन्त्रभाविताः ॥ बाह्यान्तरविभेदाभ्यां, संस्कारा द्विविधा मताः । लौकिकेतरभेदाभ्यां, ज्ञेयाश्च द्रव्यभावतः॥ योग्यास्ते धर्मसंस्कारा, अधर्मिबलनाशकाः । युगे युगे महाशक्ति-दायका धर्मिवईकाः ॥ जैनसाम्राज्यसंस्कार नसाम्राज्यरक्षणम् । भवेज्जैनोन्नतिः पूर्णा, कलिनाशश्च तयुगे । सर्वसंघबलेनैव, जैनसाम्राज्यवर्द्धकाः । वर्द्धितव्याः सुसंस्काराः, स्पर्दा कालेषु शक्तिदाः ॥ ५१ शक्तिसंस्कारहीना ये, जैनास्ते नाममात्रतः । पश्चात्पतन्ति ते मूढाः, पारतन्यस्य वाहकाः ॥ ५२ मयि विश्वासिनः सम्यग , जैनाः संस्कारयोगतः।। कर्त्तव्यकममयुक्ता, उन्नतावग्रगामिनः ॥ सदगुर्वागमसद्बोधैः, संस्काराः शक्तिवर्द्धकाः। आराध्याः कर्मणां सर्वे, मजनैः पूर्णरागतः ॥ इति श्रीजैनमहावीरगीतायां श्रीसंस्कारयोगनामकः
षष्ठोऽध्यायः समाप्तः
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सप्तमाध्याये शिक्षायोगः शिक्षायोगो महायोगः, सर्वयोगप्रकाशकः । शिक्षणं सर्वयोगाना, शिक्षायोगः सतां गुरुः ॥ सर्वजातीयविद्यानां, शिक्षणं शक्तिवृद्धये । वित्तदेहादिभोगेन, दातव्यं मजनैः सदा ॥ मद्भक्तानां गृहस्थानां, त्यागिनां च मदाप्तये । क्षेत्रकालाऽनुसारेण, दातव्यं शिक्षणं सदा ॥ द्वाससतिचतुःषष्टि-कलाशिक्षाप्तये जनैः। अर्पणं सर्वशक्तीनां, कर्तव्यं युक्तिशक्तितः॥ पुत्राणां बालिकानाच, व्यायामबलशिक्षणम् । दातव्यमात्मभोगेन, संघाऽस्तित्वप्ररक्षकम् ॥ ब्रह्मचर्याश्रमाः श्रेष्ठाः, स्थापितव्याः स्वभोगतः । ब्रह्मचर्यस्य रक्षार्थ, वर्तितव्यं व्यवस्थया ॥ संघधर्मसमाजानां, स्वातन्त्र्यादिकरक्षणे। योग्यं यच्छिक्षणं देयं, मजनैः शक्तिवर्द्धकम् ॥ मच्छूद्धोत्पादकं श्रेष्ठं, शिक्षणं सर्वशक्तिदम् । आबालवृद्धलोकेभ्यो, देयं सर्वप्रयत्नतः ॥ धर्मसंघस्वजातीनामस्तित्वार्थ महाजनैः । सर्वोन्नतेमहामूलं, देयं मद्धर्मशिक्षणम् ॥ मनोवाकायशक्तीनां, वर्द्धकं धर्मरक्षकम् । दातव्यं शिक्षणं सम्यगू, मद्भक्तैरात्मदानतः ॥
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शिक्षायोगः ] गुणकर्मविभागेन, सर्ववर्णा मनीषिणः । यच्छिक्षणेन जायन्ते, तद्देयं शिक्षणं शुभम् ॥ सर्वविद्योन्नतेर्योग्य-शिक्षणस्य प्रचारणा। कर्तव्या मजनैः सर्वैः, पारम्पर्यप्रवर्तिका ॥ मदुक्तसत्यशिक्षाया, वैरिणो यान्ति नष्टताम् । विश्ववर्तिसमाजेषु, जीवन्ति नैव शक्तितः ॥ मदुक्तशिक्षणाददूरा, मद्भक्ता नाममात्रतः । पश्चात्त्वं यान्ति मूढास्ते, पारतन्त्र्योपजीविनः ।। प्राणान्तेऽपि न शिक्षास्त्यजन्ति ये महाजनाः। पारतन्त्र्यं न ते यान्ति, दुष्टानां सर्वयुक्तितः ॥ मदुक्तसर्वशिक्षाया, गुप्तव्यक्तविरोधिनाम् । सलाभासोपदेशेषु, मुह्यन्ति नैव मजनाः॥ मदुक्तसर्वशिक्षासु, विश्वासं यान्ति मजनाः । कुर्वन्ति न कदा शङ्कामुन्नतिं यान्ति वेगतः ॥ वित्तादिषु न मुह्यन्ति, मदुक्तसर्वशिक्षणात्। औदार्येण विजानन्ति, सर्वजीवान्निजात्मवत् ॥ मदुक्तसर्वशिक्षातस्तेषां जातिपरम्पराः । जीवन्ति शक्तिसाम्राज्य, वहन्ति चैव मजनाः ॥ धर्मार्थकाममोक्षाणां, शिक्षणं मजनैः क्रमात् । सर्वथा सर्वदा ग्रार्थ, जैनधर्मप्रचारकम् ॥ स्वात्मकुटुम्बजातीनां, पोषणार्थ मनीषिभिः। आर्थिकशक्तिवृद्धयर्थ, शिक्षा ग्राच्या विवेकतः ॥ स्वदेशपरदेशस्थ-शिक्षणस्य विवेकतः । विद्यापीठादयः स्थाप्या, दक्षाः कार्याश्च मजनाः॥ २२
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[ सप्तमाध्याये विद्याबलेन जायेत, तत्त्वज्ञानस्य योग्यता। तत्त्वज्ञानेन मत्प्राप्तिमत्प्राप्त्या कर्मसंक्षयः ॥ न्यायोपार्जितवित्तान्न-योगाचित्तस्य शुद्धता । चित्तशुद्धया भवेद्विद्या, तत्प्राप्तिगुरुसंगत ॥ विंशतिवर्षपर्यन्तं, विद्यागुर्वाश्रमे स्थितिः। कर्तव्या बालकैः सम्यग्-वीर्यरक्षणपूर्वकम् ॥ आत्मज्ञानस्य संप्राप्तिः, कर्त्तव्या गुरुभक्तितः । सर्वजातीययुद्धस्य, विद्या प्राप्या प्रयत्नतः ॥ सर्वजातीयवाणिज्य-कृषियंत्रादिशिक्षणम् । शिक्षितव्यं विवेकेन, महालैावहारिकम् ।। विश्वस्थसर्वजीवानां, सेवामार्गा अनेकधा । तच्छिक्षणं समादेयं, परस्परोपकारकम् ।। विद्याभेदो न कर्त्तव्यो, मजनैः सर्वशिक्षणे ।
औदार्य सर्वदेशीय-शिक्षणेषु शुभङ्करम् ॥ विद्याभेदेन लोकानामुन्नतिनैव जायते । पुत्राणामिव पुत्रीणां, शिक्षणं सर्वशक्तिदम् ॥ भद्रंकरस्य धर्मस्य, शिक्षणं सुविवेकतः। दातव्यं सर्वजातीय-योग्यशक्तिप्रवर्द्धकम् ॥ सर्वजातीयविद्यानां, शिक्षाभिरुन्नतिर्भवेत् । बाह्यरूपेण महासस्तत्राऽस्ति नैव संशयः ॥ विद्याभिरुच्चतां यान्ति, पूज्यताश्च महाजनाः। सर्वभाषास्थविद्यानां, शिक्षा ग्राह्या प्रयत्नतः देशधर्मखजातीनामुन्नतेः कारकं शुभम् । विद्यार्थिनां प्रदातव्यं, शिक्षणं सर्वशक्तितः ॥
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शिक्षायोमः ] दुष्टाशयाः शठास्त्याज्याः, शिक्षकास्तु विधर्मिणः । मद्भक्ताः शिक्षका ग्राह्याः, पूज्या वित्तादिदानतः॥ ३५ विद्याविवेकसम्पन्ना, विनयेनान्विताः शुभाः। क्षेत्रकालज्ञमध्यस्था, मद्भक्ताः सत्यशिक्षकाः ॥ सर्वजातीयनीतीनां, शिक्षणं मजनैर्मुदा। ग्रायं कालाऽनुसारेण, मुख्यगौणविभागतः ॥ अष्टमं वर्षमारभ्य, पुत्रादीनां विवेकतः। दातव्यं शिक्षणं सम्यग, मद्भक्तिज्ञानपूर्वकम् ॥ सूरिपाठकसाधूनां, पार्श्वे स्थित्वा विवेकतः । मदीयधर्मशास्त्राणां, शिक्षा ग्राह्या मनीषिभिः॥ बहिरन्तरधश्वोच्चैः, सर्वत्र परिभाव्य माम् । धर्मस्य शिक्षणं ग्राह्य, नरनारीजनैः सदा ॥ जैनशासनसाम्राज्य, मदीयधर्मशिक्षणात् । सर्वखाऽर्पणभोगेन, सर्वत्र व्याप्यते सदा ।। प्रवृत्तिशिक्षणं श्रेष्ठ, विशालदृष्टियोगतः। विश्वोन्नतिः कदा न स्यात्, प्रवृत्तिशिक्षणं विना ॥ ४२ शिक्षणेषु सदा श्रेष्ठ, धर्म्यप्रवृत्तिशिक्षणम् । अधशिक्षणं त्याज्यमशान्तिक्लेशदुःखदम् ॥ सर्वथा शिक्षणं देयं, जैनसाम्राज्यवर्द्धकम् । किश्चिच्छङ्का न कर्त्तव्या, मदुक्तेषु जनैः कदा ॥ मदुक्तसत्यबोधाद्ये, वक्ष्यन्ति निजजीवनम् । तेषां सर्वोन्नतेर्मार्गा, भविष्यन्त्यनुकूलकाः ॥ मदुक्तेषु प्रमादं ये, करिष्यन्ति विमोहतः । तेषामात्मादिशक्तीनां, विनिपातो महान्भवेत् ॥
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[ सप्तमाध्याये सार्वजनिकशिक्षाभिः, संस्काराः शक्तिदायकाः । कर्त्तव्या देशकालाऽनुसारेण सर्वकोविदैः ॥ तीर्थस्थानेषु मद्भक्तः, पूर्णवित्तोपयोगतः। विद्यापीठादयः स्थाप्याः, सर्वयोग्यप्रबन्धकैः ॥ मत्तद्भेदो न कर्त्तव्यः, सर्वजातीयशिक्षणे। योग्यस्य योग्यविद्यादि-दानं देयं मनीषिभिः ॥ परतन्त्रनिराधार-बालानां योग्यशिक्षणे । देयं ज्ञानादिकं दानं, तद्धि मत्प्राप्तिहेतुकम् ॥ मेघवृक्षनदीभानु-भूमिवन्मजनैः सदा । लक्ष्म्यादीनां शुभं दानं, कार्यमौदार्यभावतः ॥ बहिरन्तः शुभज्ञान-स्वरूपं द्रव्यभावतः । मत्वा मां मजनैः शिक्षा, ग्राह्या देयश्च शिक्षणम् ॥ ५२ मदुक्तशिक्षणः सर्वैजैनधर्मोन्नतिप्रदः । जैनशासनशोभार्थ, जनैः स्थेयं यदा तदा ॥ इति श्रीजैनमहावीरगीतायां श्रीशिक्षायोगनामकः
सप्तमोऽध्यायः समाप्तः
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अष्टमाध्याये शक्तियोगः शक्तियोगसमो योगो, न भूतो न भविष्यति । धीश्रीकान्त्यादिवासायां, शक्त्यां स्वातन्त्र्यमात्मनः॥ १ शक्तिरेव महाधमः, सर्वजातीययोगिनाम् । एवं ज्ञात्वा महायोगी, शक्तिधर्म समाचरेत् ॥ जैनसंघविवृद्धयर्थ, वेषाचारादिनव्यता। कर्तव्या शक्तियोगेन, देशकालाद्यपेक्षया । स्वतन्त्रकर्मभि द्या, व्यावहारिकशक्तयः । विश्वस्वातन्त्र्यरक्षार्थ, सर्वधार्मिकशक्तयः॥ येन केन प्रकारेण, आन्तराः सर्वशक्तयः। धर्मिणां दुर्बलानाच, संपाद्या धर्मवृद्धये ॥ पारतन्त्र्यं सदा त्याज्यं, रक्ष्यं स्वातन्त्र्यमात्मनः । पारतन्त्र्यावरं मृत्युः, स्वातन्त्र्याजीवनं वरम् ॥ स्वतन्त्रतायां नष्टायां, नष्टं सर्व बलादिकम् । देशधर्मसमाजानां, स्वातव्यं सर्वशान्तिदम् ॥ परतन्त्रजना नष्टा, मृत्युभीतिपराः सदा । देहादिभीतिभिः सर्वे, परतन्त्रा विमोहिनः॥ स्वस्वकर्माऽधिकारेण, स्वस्वकर्त्तव्यकर्मसु । निर्मोहा निर्भया लोकाः, स्वातन्त्र्यरक्षकाः सदा ॥ कलाभिश्च बलैर्लोका, धारयन्ति स्वतन्त्रताम् । निष्कला निर्बला लोका, वहन्ति दास्यतां सदा ॥ १०
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[ अष्टमाध्याये स्वतन्त्र एव मद्धर्मः, सर्वजीवसुखावहः । पारतन्त्र्यमधर्मस्तु, यद्ग्राह्यं तत्समाचरेत् ।। सदाचारविचारेषु, स्वातन्त्र्यं सर्वशक्तिदम् । पारतन्त्र्यं महानृत्युं, जित्वा मद्भक्तिमाचरेत् ॥ . १२ जैनसाम्राज्यशक्तीनां, रक्षणं सर्वशक्तितः। संघसत्ताव्यवस्थार्थ, कर्त्तव्यं शक्तियोगिभिः ॥ जीवच्छक्तिस्वरूपोऽस्ति, मद्धर्मो व्यवहारतः। साधितव्यः प्रयत्नेन, विश्वकल्याणकारकः ॥ विश्वदेशसमाजानामग्रणीत्वं स्वशक्तितः । कर्त्तव्यं सर्वधर्माणां, रक्षार्थ मजनैः सदा ॥ क्रूराणामग्रणीत्वेऽस्ति, सतां नाशो न संशयः । .. अल्पदोषो महालाभो, जैनानामग्रणीत्वतः ॥ जैनानामग्रणीभावो, देशराज्यादिरक्षकः । यत्र धर्मो जयस्तत्र, धार्मिकाणां प्रधानता ॥ देशराज्यसमाजानां, सत्तादिपरिहारतः । जैनधर्मस्य साम्राज्यं, नष्टं भवति सर्वथा ॥ जैनधर्मस्य साम्राज्ये, नष्टे हानिः सधर्मणाम् । अतो राज्यादिसद्योग नाः सत्तादिसाधकाः ॥ अग्रणीत्वं सदा रक्षध, क्षात्रविद्याधनादिभिः । 'अहंममत्वसंत्यागात् , सत्ताद्या नैव बन्धकाः॥ पापभीत्या न सन्त्याज्या, जैनैः सत्तादिकाः खलु। सत्तादिसर्वकर्माणि, कर्तव्यानि विवेकतः ॥ सर्वजातीयसज्जैनैरग्रणीत्वं स्वशक्तितः। कर्त्तव्यं धर्मसाम्राज्य-प्रगत्यर्थ विशेषतः ॥ २२
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शक्तियोगः ] धर्मदेशाऽभिमानत्वं, कर्तव्यं स्वात्मशक्तिदम् । स्वाश्रयित्वं सदा कार्य, संघाय स्वाऽर्पणं तथा ॥ २३ संपाद्या यत्नतः स्वस्मिन् , विद्यादिसर्वशक्तयः। शक्तिहीना न जीवन्ति, स्पर्धायां सबलैः सह ॥ २४ भक्ष्यमेव बलिष्ठानां, बलहीना निसर्गतः। सबलत्वं सदा साध्य, मनोवाकायशक्तिभिः॥ २५ बलमाध्यात्मिकं साध्यं, भौतिकं व्यवहारतः । व्यक्तिशक्तिप्रणाशोऽस्ति, समष्टिशक्तितः सदा ॥ २६ समष्टिशक्तिमालम्ब्य, जैना जीवन्ति युक्तितः। धर्मदेशसमाजानां, सर्वकर्मव्यवस्थया ॥ बलं विद्यासमं नास्ति, रक्षणं क्षात्रकर्मतः। जीवच्छक्तिस्वरूपोऽस्ति, व्यापारो वैश्यकर्मणाम् ॥ २८ सेवाधर्मः सदा श्रेष्ठः, कर्तव्यो मातृबुद्धितः । वर्णकर्माणि सर्वाणि, सेवन्ते कर्मयोगिनः॥ सर्वशक्तियुतो योगो, जनको धर्मकर्मणाम् । धर्मसाम्राज्यवृद्धयर्थ, श्रयन्ते तं विवेकिनः ॥ धर्मकर्माणि कर्तारः, क्लिश्यन्ते नैव योगिनः । स्वधर्ममेव कुर्वन्ति, परधर्म श्रयन्ति न ॥ पश्चात्त्वं न अयन्ते ते, जैना युद्धादिकर्मसु । शक्त्यर्थ धयंयुद्धादि-कारका दुष्टवारकाः ॥ विश्वस्वातन्त्र्यरक्षार्थ, सर्वकर्मविधायिनः । जैनाः सदा जयं यान्ति, शक्तियोगाऽवलंबनात्॥ ३३ न्याय्यस्पर्धाभिरासेव्यं, महत्त्वं सर्वशक्तिदम् । स्पर्धा विना न शक्तित्वं, शक्त्या धर्मादिरक्षणम् ॥ ३४
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[ अष्टमाध्याये जेनरुपायतः साध्यं, दुष्टेभ्योऽप्यधिकं बलम् । धर्मनाशकदुष्टानां, सद्यो नैव पराजयः॥ धर्मनाशकदुष्टानां, शक्तिभ्योऽधिकशक्तयः । युक्तिप्रयुक्तिभिः प्राप्या, देशकालाऽनुसारतः ॥ ३६ देवाधर्मसमाजानां, नाशार्थ दुष्टयुक्तयः। दुष्टः प्रवर्तिता यास्तु, निवार्यास्ताः सुयुक्तितः॥ ३७ मुद्यन्ति नैव भोगेषु, सत्तादिकेषु सज्जनाः। विद्यादिबलसम्पन्ना, जैनाः स्युः शक्तिरक्षकाः ॥ कायवीर्यादिसंरक्षा, कुर्वन्ति योग्यकर्मभिः । कायवीर्यादिभिहींना, जैना नाशाऽभिसंमुखाः ॥ जैना जयन्ति निर्मोहाः, सर्वजातीयसहलैः। स्वातन्त्र्यं सर्वजातीय, साम्राज्यञ्च अयन्ति ते ॥ शक्तिमन्तः सदा जैना, जयं कुर्वन्ति सर्वथा । शत्रूणां विजये जैनाः, प्रसिद्धा गुणकर्मतः ॥ पराजयन्ति ते जैना, देहादिशक्तिदुर्वलाः । दुर्यलाः किं करिष्यन्ति, स्पर्धाकाले विधर्मिणाम् ॥ ४२ क्षावादिबलसंयुक्ता, जैनराजादयो जनाः । गृहकर्माणि कुर्वन्तो, मां श्रयन्ति स्वशक्तितः ॥ मद्रचनेषु ये शङ्कां, कुर्वन्ति दुष्टनास्तिकाः । अधोगतिं श्रयन्ते ते, धर्मसाम्राज्यनाशतः ।। सर्वेषां मम भक्तानां, भक्तियोगः शुभप्रदः। पूर्णश्रद्धाबलेनैव, सेव्यो विश्वहितावहः ।। सर्व जातीयशक्तीनां, मिदानं पुरुषार्थता । उद्योगिनः सदा जैनाः, सर्वकर्तव्यकर्मसु ॥
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शक्तियोगः ] यततां सर्वजैनानां, धर्मकामादिकर्मसु । सर्वस्वाऽपकमुख्यानां, सर्वसिद्धिं करोम्यहम् ॥ उद्योगं ये न कुर्वन्ति, सर्वकर्त्तव्यकर्मणाम् । भाविभावादिसक्तानां, जनानामुन्नतिः कथम् ।। मन्नाममन्त्रवेत्तृणामपि निष्क्रियवादिनाम् । जैनानां शक्तिता जैव, मदुक्तेषु प्रमादिनाम् ।। उद्योगो मे महा शक्तिथिरूपा सनातना। तद्विमूढा अशक्ताश्च, जानन्ति मां न वस्तुतः॥ सर्वजातीययत्नेषु, शक्तयः परमात्मनः। धर्मदेशप्रजादीनां, नृतत्वं शक्तिमन्तरा ॥ मद्धर्मो वृद्धितामेति, शक्तयो यत्र तत्र तु। वृद्धयादिहीनजनानां, मृतत्वं धर्महीनता ॥ अतो जैनैमदुक्तानां, परिघुद्वय रहस्यताम् । सर्वजातीयशक्तीनां, कर्तव्यः पूर्णसंग्रहः ॥ मदुक्ते संशयानां तु, विनिपातो विजायते । शक्तियोगं विना जैनाः, प्रस्खलन्ति पदे पदे ॥ महासत्तां श्रयन्ते ते, धर्योद्योगपरायणाः । ये लजन्ति सदुद्योगं, मां त्यजन्ति स्वरूपतः॥ यदभाव्यं तद्भवत्येव, नास्तिकानां मतिर्बुवा। आस्तिका यत्नमुख्येन, मां श्यन्ति विशेषतः ॥ नीचत्वं पूर्णदौर्भाग्य, श्रयन्ते ते जनाऽधमाः । उद्योगाये परिभ्रष्टा, मच्छद्धाशून्यमानवाः॥ शक्तिवर्द्धककर्माणि, सर्वाग्यपि स्वभावतः।। उच्चानि नैव नीचानि, शूद्वादिस्वाऽधिकारतः ॥
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. [ अष्टमाध्याये उच्चा केचित्तथा नीचा, मनुष्याः कर्मभेदतः । उच्चत्वं नैव नीचत्वं, ज्ञानादितारतम्यतः ॥ ज्ञानादिशक्तियोगेन, जैनानामुच्चता शुभा । तद्रक्षार्थ प्रयत्नेन, यतितव्यं विशेषतः ॥ ज्ञानादिशक्तिलब्ध्यर्थ, सर्वसंधेन यत्नतः। सर्वकर्तव्यकर्माणि, कर्तव्यानि दिवालिशम् ॥ संघस्थैक्यं सदा रक्ष्य, समयमनीषिभिः। संधैक्यभेदको द्रोही, मनस्य विनाशकः ॥ उदाराचारसबोधैर्मधर्मस्य विशालता। संरक्ष्या वर्द्धितव्या च, सदाख्यानप्रबन्धकैः ॥ देशकालाऽनुसारेण, जनैः संघबलेन च ।। उपाया व्यवहारेण, शक्तिवर्द्धककर्मणाम् ॥ साधनीया विशेषेण, धर्मतीर्थस्य वृदये। कर्त्तव्यो न प्रमादांशस्तत्र मोहेन मजः ॥ चतुर्विधेन सङ्घन, मिथः साहाय्यानन्वहम् । कर्त्तव्यं पूर्णसत्पीला, शक्तिवर्द्धककर्मसु ॥ शक्तिवर्द्धकजैनानामपवादोऽस्ति कर्मसु । विज्ञाय कर्म कर्त्तव्यं, देशाकालाऽनुसारतः ॥ पारतन्त्र्यं न संसेव्यं, शक्तिवर्द्धककर्मस्छु। प्रतिबन्धः सदा त्याज्यो, धर्म्यकर्मप्रवृत्तिषु ॥ स्वातन्त्र्यं जैनधर्मस्य, सर्वस्वाऽर्पणशक्तितः। संपाद्यं सर्वदा जैनैः, स्वातन्य शक्तिसंवतः॥ जैनानां कोटिभोगेन, रक्षणीया स्वतन्त्रता। कोटिजैनस्य संवृद्धिः, पुनः स्वातन्त्र्यशक्तिभिः ॥ ७०
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शक्तियोगः ] चतुर्विधस्य संघस्य, शक्तिवर्द्धककर्मसु । पापं नैवाऽस्ति सदवुद्धथा, देशकालाद्यपेक्षया ॥ दोषाः सन्ति न सदबुद्धया, सर्वकर्त्तव्यकर्मस्तु । कर्तव्येतरकर्माणि, सदसदबुद्धयपेक्षया॥ ७२ संघादिशक्तिलाभार्थ, सदबुद्धया सर्परीणाम् । कर्तव्यताऽधिकारोऽस्ति, जैनानां धर्मरागिणाम् ॥ ७३ विद्यन्ते शक्तयो या या, जैनधर्मिविरोधिनाम् । ताभ्योऽनन्तगुणा शक्तिः, प्राप्या जैनः प्रयत्नतः ॥ ७४ शक्तिवर्द्धककर्माणि, जैनधर्मिविरोधिनाम् ।। तेभ्योऽधिकानि कर्माणि, जैनैः साध्यानि युक्तितः ॥ ७५ सर्वशक्तिसमाहारो, जैनधर्मिविवृद्वये। ज्ञातव्यः सर्वसंघेन, संघाय शक्तिधारिणा ॥ जैनसंघप्रगत्यर्थ, जैनानां सर्वकर्मभिः । पुण्यानुबन्धिपुण्यस्योद्भवः स्वर्गश्च मुक्तता ॥ जैनानां वंशवृद्धयर्थ, देशकालाऽनुसारतः । सन्मार्गा युक्तितः कार्या, स्वोन्नतेः परिवर्त्तनैः ॥ पूर्वतीर्थङ्करैः प्रोक्तो, जैनधर्मः सनातनः । तदुद्धाराय शक्तीनामाविर्भावो निवेदितः॥ मया सर्वज्ञवीरेण, जैनधर्मः प्ररूपितः । सर्वविश्वस्य रक्षार्थ, जैनानामुपयोगिता ॥ अतो जैनैः प्रगत्यर्थ, सर्वशक्तिव्यवस्थया । मदाज्ञा खात्मभोगेन, पालनीया विवेकतः ।।
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अष्टमाध्याये जैनोन्नतिविरुद्धा या, संघशक्तिविनाशिका । दयाऽपि जैनसंघस्य, हिंसारूपाऽस्ति वस्तुतः ॥ व्यावहारिकधार्मिकोन्नतिरूपा दया शुभा। जैनानां सर्वशक्तीनां, नाशकोऽधर्म उच्यते ॥ जैनानां सर्वशक्तीनां, धारको धर्म उच्यते। महासंघस्य रक्षायां, सर्वे धर्माः सुरक्षिताः ॥ जैनधर्मप्रगत्यर्थ, कर्मणां धर्मरूपता। ज्ञातव्या सर्वकालेषु, मच्छ्रद्धाधारकैः सदा ॥ विरक्ति व कर्तव्या, शक्तिवर्द्धककर्मसु । ज्ञानवैराग्ययोगेन, भोग्यकर्मस्वसंगता ॥ निष्कामत्वात्प्रवर्त्तन्ते, सर्वभोगेषु भोगिनः । गृहिजैनाः स्वशक्तीनां, नाशका नैव बोधतः॥ -- ८७ देहादिसर्वशक्तीनां, नाशकारककर्मणाम् । व्यभिचारादिदोषाणां, त्यागाज्जैनाः समर्थकाः ॥ ८८ सर्वशक्तिषु लब्धासु, मदादिकप्रमादता । जैनैः कदापि नो सेव्या, सर्वधर्मविनाशिका ॥ परस्परं न संख्याः , सज्जैनैः सर्वशक्तयः । शुभोपयोगः शक्तीनां, कर्त्तव्यः शक्तिवर्द्धकः ॥ ९० योजनानां व्यवस्थाभिः, सर्वशक्तिपरम्परा। अनुक्रमेण संवाह्या, देशकालानुसारिका ॥ संघार्थ सकलं स्वीयं, मन्तव्यं सर्वमानवैः । इत्येवं भावना भव्या, मुक्त्यर्थ कर्मयोगिनाम् ॥ ९२
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शक्तियोगः ] शक्तियोगः समाख्यातो, जैनानां पञ्चमारके । सर्वशक्तिप्रवाहेण, सज्जैनोन्नतिसाधकः ॥ संशयाना मदुक्तेषु, नास्तिका धर्मनाशकाः । कुतरप्रतिष्ठा ये, दुःखयोनि श्रयन्ति ते ॥ नास्तिकानां कुतर्केषु, मुह्यन्ति नैव मन्जनाः। मयि श्रद्धालवो जैना, मदगतिं यान्ति मच्छ्रिताः॥ ९५
इति श्रीजैनमहारवीरगीतायां श्रीशक्तियोग
'नामकोऽष्टमोऽध्यायः समाप्तः
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नवमाध्याये दानयोगः सर्वयोगेषु दानस्य, श्रेष्ठत्वं भुवनत्रये । सदाने त्यागसंवासो, नश्यन्ति क्लेशराशयः ॥ तदानं त्रिविधं प्रोक्तं, सात्त्विकं राजसं तथा । तामसञ्च यथापूर्व, तेषामुत्तममुच्यते ॥ सत्त्वप्रधानं यदानं, सात्विकं तत्प्रचक्ष्यते । रजस्तमःप्रधानं यदानं राजसतामसम् ॥ सुपात्रं चाऽभयं दानं, पञ्चदानेष्वनुत्तरम् । मद्भक्तिनिषु अष्ठा, धर्मिणस्ते प्रकीर्तिताः ॥ ज्ञानदानप्रदातारः, स्वरूपं प्राप्नुवन्ति मे । शुभान्भवान्समासान, पश्यन्ति नैव दुर्गतिम् ॥ त्यागिभ्यः साधुवर्गेभ्यो, यः प्रयच्छति भक्तितः । स्वर्ग मुक्तिश्च मज्ज्ञानं, लभते मज्जनोऽञ्जसा ॥ मत्प्राप्त्यर्थमहो दान-तुल्यं नाऽस्त्यपरं भुवि । दानिषु परमब्रह्म-प्रादुर्भावः प्रजायते ॥ दानेन व ते शीलं, रागो नश्यति दानतः। देहबुद्धिसमुत्पन्नो, मोहस्तेन विलीयते ॥ सर्वस्वदानकर्तृणां, समो नाऽन्यो जगत्त्रये । अहङ्काराविहीनस्य, दातुः सिद्धिः सदा मता ॥ दुःखिदरिद्रदेहिभ्यो, यो दत्त दानमुत्तमम् । फलन्त्याशाः सदा तस्य, विश्वपूज्यश्च जायते ॥
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दानयोगः ] दानेन क्षीयते पापं, शुभो भावः प्रवर्द्धते। संपदा स्थिरता नैव, जायते दानमन्तरा ॥ सकामभावदानेन, भवाः स्युः शर्मदायिनः। निष्कामदानतो नित्यं, मत्प्राप्तिर्जायते नृणाम् ॥ यद्यद्भावेन यो दत्ते, तद्भावं लभते जनः । धनधान्यादिदानेन, स्वर्गमुक्तिसुखं ब्रजेत् ॥ मत्प्राप्तिनतः प्रोक्ता, स्वपरार्थी च सिद्धयतः। त्यागसिद्धेः शुभः स्वार्थो, भवेन्नो दानमन्तरा ॥ ब्रह्मचर्यतपोभावा, आत्मज्ञानादयस्तथा । जायन्ते दानतः शीघ्र, मदाझैवं सनातना ॥ दानेन संवरश्चैव, दानतः कर्मनिर्जरा । तपोजपाऽधिकं दानं, विना कष्टेन शर्मदम् ॥ दयाभेदास्तथा सर्वे, भवन्ति दानसंस्थिताः। साहाय्यं सर्वथा कार्य, दानेन सर्वदेहिनाम् ॥ सत्तातो मत्समान् जीवान्सर्वान् यो गणयेजनः।। एकेन दानयोगेन, स प्रान्ते मत्समो भवेत् ॥ मनोवाकायवित्तादि-दानमाहात्म्यतो जनाः। अनन्तसुखसंन्तानं, प्राप्नुयुस्तीर्थकृत्पदम् ॥ नानाविधानि दानानि, सेवध्वं नरयोषितः । दानयोगेन सर्वेष, सिद्धिर्भवति निश्चला ॥ स्वाऽधिकारवशाइक्ता, दानं कुर्वन्ति शक्तितः। यथायोग्यविवेकेन, मदाज्ञावशवर्तिनः ॥ इति श्रीजैनमहावीरगीतायां श्रीदानयोगनामको
नवमोऽध्यायः समाप्तः
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दशमाध्याये ब्रह्मचर्ययोगः ब्रह्मचर्यमहाधर्मः, सर्वशक्तिप्रकाशकः । नैष्ठिकब्रह्मचर्येण, सिद्धयन्ति सर्वसिद्धयः ॥ सन्नितिमहाबीजं, केवलं वीर्यरक्षणम् । अतः सर्वशुभोपायः, कर्त्तव्यं वीर्यरक्षणम् ॥ विस्फोटकप्रमेहाद्या, रोगाः स्युर्व्यभिचारिणाम् । मनोवाकाययोगानां, दौर्बल्यं वीर्यनाशतः ॥ चक्षुस्तेजःक्षयश्चैव, कासश्वासादिरोगता। तथायुषः क्षयो नूनं, वीर्यनाशान्नृणां भवेत् ॥ वीर्यनाशस्थ कर्तृणां, निजवंशपरम्परा । जायते धर्मनाशाय, पारतन्त्र्ययुता भुवि ॥ वीर्यनाशोऽस्त्यनाय, देहशक्तिविनाशकः । राजयक्ष्मादिरोगाणां, निदानश्च निगद्यते ॥ ब्रह्मचर्येण देहस्याऽऽरोग्यं भवति निश्चितम् । आयुवृद्धिर्वपुःकान्तिर्वर्चः सिद्धिश्च सर्वथा ॥ धर्मदेशोन्नतेमलं, विद्यासंघोन्नतेबलम् । ब्रह्मचर्य ध्रुवं ख्यातं, सर्वदैव सुखप्रदम् ।। कर्त्तव्यं ब्रह्मचर्यायैराश्रमीयरक्षणम् । वीर्येण ब्रह्मसंप्राप्तिः, कथितं सर्वयोगिभिः ॥ ब्रह्मचारी विशेषेण, कर्मयोगरतो भवेत् । स मनःशान्तिरक्षायै, भवेद्भीष्मपितामहः ॥
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ब्रह्मचर्ययोगः ] द्रव्यब्रह्म प्रबोद्धव्यं, वीर्यमेव स्वभावतः । भावब्रह्म न संप्राप्य, द्रव्यब्रह्म विना कदा ॥ समाधिर्ब्रह्मचर्येण, प्राप्यते नैव संशयः। सर्वविद्याप्रकाशार्थ, वीर्यरक्षैव कारणम् ॥ वीर्यरक्षव बोद्धव्या, द्रव्यतो ब्रह्मचर्यता। वीर्यरूपमहाशक्तिः, सर्वदुःखविनाशिनी ॥ वीर्यरक्षैव चारित्र्य, यस्याऽस्ति तस्य जन्मनः । साफल्यं सततं ज्ञेयं, निश्चयेन महीतले ॥ ब्रह्मचर्यप्रतापेन, प्रजापुष्टिर्भवेत् सदा । धर्मकार्यप्रगत्यर्थ, ब्रह्मचर्य विधीयताम् । ब्रह्मचर्यमहादेवः, सर्वशक्तिप्रकाशकः। ब्रह्मचर्यमहाशस्त्रं, सर्वदुष्टविनाशकम् ॥ ब्रह्मचर्यमहातीर्थ, विश्वोन्नतिविधायकम् । ब्रह्मचर्यमहातेजो, विश्वव्यापकशक्तिदम् ॥ सर्वरोगप्रणाशाय, ब्रह्मचर्य महौषधम् । पूर्णज्योतिःप्रकाशाय, ब्रह्मचर्य महारविः ॥ ब्रह्मचर्य खभावेन, सम्यग्धर्मप्रभावकम् । तेजस्सु यन्महातेजो, बलेषु यन्महाबलम् ॥ ब्रह्मचर्य महासत्वं, सर्वसत्वप्रकाशकम् । वीर्यरक्षा कृता येन, ब्रह्मचारी जगत्प्रभुः॥ प्रकाशते स्वतेजोभिर्वपुःश्री ब्रह्मचारिणः । यस्य दृष्टयां महाशक्तिर्भासते ब्रह्मतेजसा ॥
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स्त्रय ॥
[ दशमाध्यायाः सिद्धयन्ति सर्वसंकल्पा, वीर्यतेजखिनः सदा । सर्वमन्त्राश्च सिद्धयन्ति, ब्रह्मचर्यमहौजसा ॥ ब्रह्मचर्य धृतं येन, तेनैव सकलं धृतम् । नास्त्यन्यच्छीलतातुल्यं, प्राप्त्यर्थ परमात्मनः॥ ब्रह्मचर्य विना नास्ति, कदापि स्वोन्नतिः शुभा। अतः सर्वबलेनैव, वीर्यरक्षा विधीयताम् ॥ सर्यकर्त्तव्यसिद्धयर्थ, ब्रह्मचर्य निषेव्यताम् । चिन्तामणिश्च काम्यानां, प्राप्त्यर्थ तजगत्त्रये ॥ सर्वोन्नतिमहामंत्रं, ब्रह्मचर्य समाचरेत् । सर्वविज्ञानसिद्धयर्थ, तद्विना नास्ति कश्चन ॥ साहाय्यं यस्य संप्राप्य, जनाः स्युः सिद्धयोगिनः । धर्मस्य पुनरुद्धृत्य, समर्था ब्रह्मचारिणः ब्रह्मचर्येण संकल्प-सिद्धिर्भवति निश्चयात् । तत्प्राप्य विधिवल्लोकाः, प्राप्नुवन्ति समाधिताम् ॥ २८ ब्रह्मचर्यमहाकल्पः, स्वर्गसिद्धिप्रदायकः । योगसिद्धः समाख्यातो, मया विश्वहितैषिणा ॥ सर्वयोगस्य सिद्धयर्थ, ब्रह्मचर्यस्य मुख्यता। मयोक्ता परमब्रह्म-महावीरेण तत्त्वतः॥ ब्रह्मचर्याश्रमः श्रेष्ठः, सर्वाश्रमशिरोमणिः । पुत्राणां चैव पुत्रीणां, गृहस्थाश्रमसिद्धये ॥ ब्रह्मचारिगणे श्रेष्ठा, नैष्ठिकब्रह्मचारिणः । ऊर्ध्वरेतोमहावीर्याः, किं किं नो कर्तुमीश्वराः॥ ३२
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ब्रह्मचर्ययोगः ] सर्वजातीयविद्यानां, प्राप्त्यर्थ ब्रह्मचारिणः । समर्था सर्वदा ब्रह्म-प्राप्त्यर्थ च विवेकतः ॥ वीर्यरक्षणयोगेन, भवन्ति सर्वसिद्धयः । दीर्घायुःकारणं वीर्य-रक्षैव सर्वदेहिनाम् ।। भवेत्संकल्पसंसिद्धिरूवरेतोमहात्मनः। सर्वोपायैरतः कार्या, वीर्यरक्षैव शक्तिदा ॥ वीर्यवद्भिरहं प्राप्यो, दर्शनज्ञानरूपवान् । द्रव्यवीर्य सदा बोध्यं, भाववीर्यस्य कारणम् ।। ज्ञानादिसर्वशक्तीनां, 'प्रगत्यर्थ जगत्त्रये । मज्ज्योतिर्दर्शनार्थञ्च, ब्रह्मचर्य सदा मतम् ॥ पक्ववीर्यस्य सत्पुत्रा, भवन्ति कर्मयोगिनः । अपक्ववीर्यसन्तानीनपुत्रपरम्परा॥ धर्मदेशोदयादीनां, हेतवा ब्रह्मचारिणः। ब्रह्मचर्याश्रमाः स्थाप्याः, सर्वत्र शक्तिहेतवे । युक्ताहारविहाराद्यैः, प्रभवन्त्यूर्ध्वरेतसः । प्राणायामादिसद्योगैरूर्ध्वरेतोमहाजनाः ॥ ब्रह्मचर्यस्य रक्षाया, देशकालाऽनुसारतः । भवन्ति हेतवो ये ये, ते ते सेव्याः प्रयत्नतः ॥ सर्वदा सर्वथा त्याज्या, वीर्यनाशकहेतवः । पुत्राणां च सुपुत्रीणां, योग्यलग्नव्यवस्थया ।। विद्यादिधर्मसंस्कारैर्वीयसंस्कारता भवेत् । यादृग्वीर्यादिसंस्काराः, पुत्राद्या अपि तादृशाः॥
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बुद्धयादीनां सुसंस्काराः, मातापितृकृतास्तथा । प्रजोत्पादकवीर्येषु जायन्ते कर्मयोगतः ॥ लग्नं समानधर्माणामतो योग्यं स्वभावतः । अन्यथा सर्वधर्माणां महाहानिः प्रजायते ॥
मन्नामस्मरणं कृत्वा, पूर्णभावेन बालकैः । सर्वकामा विजेतव्या ब्रह्मर्चाश्रमादिभिः ॥
[ दशमाध्याये
इति श्रीजैनमहावीरगीतायां श्रीब्रह्मश्चर्ययोगनामको दशमोऽध्यायः समाप्तः
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एकादशाध्याये तपोयोगः तपः क्लेशकरं पूर्व, परिणामे सुखप्रदम् । तपः शुद्धिकरं प्रोक्तं, ज्ञानदश्च तपोविधिः॥ तपसा देवताः सर्वाः, साहाय्यं कुर्वते नृणाम् । तस्मात्तपांसि सर्वाणि, विधीयन्तां यथारुचि ॥ तपोयोगेन सर्वेषां, चित्तशुद्धिः प्रजायते । तपोयोगो महायोगो, मोहादीनां विनाशकः ॥ मोहरोधस्तपः श्रेष्ठं, मनोवाकायकर्मसु । दुःखानां सहनञ्चैव, सर्वाऽवस्थासु देहिनाम् ॥ पूर्वभवनियद्धानां, कर्मणां नाशकारकम् । तपः श्रेष्ठं सदा सेव्यं, मोक्षार्थिभिर्जनैः सदा ॥ सर्वकर्त्तव्यकार्येषु, स्वात्मभोगो महातपः। स्वसुखस्य परित्यागः, परार्थ तप उच्यते ॥ त्रिधा तपो जनैज्ञेयं, सात्त्विकं राजसं तथा । तामसं तत्र मोक्षाय, सात्त्विकं भव्ययोगिनाम् ॥ त्रिधा तपस्विनो ज्ञेयाः, संपूज्याः सात्विका जनैः। मोक्षार्थिभिः सदा सेव्यं, योगिभिः सात्त्विकं तपः॥ ८ तपोयोगस्य ये भेदाः, सेव्यास्ते सर्वमानवैः । दुर्ध्यानस्य भवेन्नाशस्तपोयोगान्मनीषिणाम् ॥ तपस्तदेव संसेव्यं, मोहोदयविनाशकृत् । ज्ञानादीनां समभ्यासो, महातप उदाहृतम् ॥
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[ एकादशाध्याये शुभाऽशुभविपाकेषु, समभावो महातपः । तथैव ये तपस्यन्ति, मता मे ते तपस्विनः ॥ ११ देशाद्देशं परिभ्राम्य, ज्ञानदानं विवेकतः। प्रदेयं साधुभिः प्रोत्या, तत्तप एव कथ्यते ॥ जीवानां दुःखनाशार्थ, मनोवाकाययोगतः । क्रियते कर्म तत्सर्व, तप एव सुखावहम् ॥ कषायाँस्तापयत्याशु, द्रव्यतो भावतश्च यत् । तत्तपः सर्वलोकानामात्मशुद्धिप्रदायकम् ॥ कायवीर्यस्य संरक्षा, कर्त्तव्या सर्वशक्तितः । सर्वत्र शक्तिदं सत्यं, ब्रह्मचर्य महातपः ॥ राष्ट्रादिवाह्यधर्माणां, नैसर्गिकव्यवस्थया । वर्तनं भव्यलोकानां, तपः सर्वत्र शान्तिदम् ॥ बाह्यान्तधभरक्षार्थ, स्वात्मभोगादिकं शुभम् । निःस्पृहत्वं तपः प्रोक्तं, मुक्तिदश्च मनीषिणाम् ॥ १७ सत्यं तपः क्षमा चैव, दया सर्वत्र देहिनाम् । सर्वथा सर्वकायषु, निरासक्तिमहातपः ॥ सर्वजातिसमाजानां, सुखार्थ यद्विधीयते । तप एतन्मया प्रोक्तं, भव्याः कुरुत भक्तितः॥ वासनायाः परित्यागस्तच्चारित्रं महातपः । प्राप्यते तेन मद्रूपं, सर्वत्र सर्वधर्मिभिः ॥ सर्वतपाप्रकारेषु, साम्यमेव महातपः। साम्यं प्राप्य शिवं यान्ति, सर्वधर्मस्थदेहिनः ॥ २१ प्रायश्चित्तं तथा वैयावृत्त्यं संघस्य रागतः । कायोत्सर्गो मनास्थैर्य, देवानामभिवन्दनम् ॥
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तपोयोमः ]" स्पर्शादीनां सुखत्यागः, सत्सु भोगेषु कर्मणाम् । उपवासादिकं ध्यानं, तपः कर्मविनाशकृत् ॥ सर्वजातितपःप्राप्तिर्मदाज्ञापालनाद्भवेत् । सर्वभक्तैश्च तपश्चर्या, कर्तव्या स्वीयशक्तितः॥ सर्वविश्वसमाजानां, प्रगत्यर्थ मदात्मकैः । यत्किञ्चित्कियते सर्व, कर्मयोगतपः शुभम् ॥ सर्वदेशमजासंघस्वातन्त्र्यादिविकासने। अभिग्रहादिकं कर्म, तप एव महात्मनाम् ॥ मदीयसर्वजैनानां, प्रगत्यर्थ मनीषिभिः । मनोवाकायसत्ताभिः, क्रियते तन्महातपः ॥ सर्वजातीयजैनानां, संख्याऽस्तित्वादिवृद्धये । लक्ष्मीसत्तादिभिः कर्म, क्रियते तन्महातपः॥ सर्ववर्णमहानसंघ एवाऽस्म्यहं प्रभुः। अतः संघोन्नतेः कर्म, तपोयोगो महात्मनाम् ॥ चतुर्विधमहासंघर:वास्ति महातपः । युद्धेन विद्यया लक्ष्म्या, सेवया तच्च साध्यते ॥ साम्राज्यमान्तरं बाह्य, जैनानां यद्धरातले । वृद्धये तस्य यत्सर्व, क्रियते तन्महातपः ॥ मूरिवाचकसाधूनामस्तित्वादिप्रवृद्धये । यादृशं तादृशं कर्म, क्रियते तन्महातपः ॥ एकता सर्वजैनानां, कर्त्तव्या तन्महातपः। कलौ सर्वप्रकारेण, संघसेवा महातपः ॥ जैनसंघमहातीर्थसेवैव सर्वशक्तितः । महातपः शुभं ज्ञेयं, मदुक्तं नान्यथा कदा ॥
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[ एकादशाध्याये तपोयोगस्य सद्भेदैः, प्राप्योऽहं सर्वमानवैः। मंगलं सर्वयोगेषु, तप एव स्वभावतः ॥ तपसा प्राप्यते खर्गस्तपसा मोक्षसिद्धयः । तप एव मनुष्याणामिहाऽमुत्र सुखप्रदम् ।। शाम्यन्ति तपसा क्लेशा, भोगतृष्णाश्च सर्वथा। भवन्ति किङ्करा इन्द्राश्चक्रवादयस्तथा ॥ तपाकर्मरता लोका, यान्ति तीर्थकृतः पदम् । कृत्स्नकर्मक्षयं कृत्वा, यान्ति सिद्धिपदं परम् ॥ ३८ इति श्रीजैनमहावीरगीतायां श्रीतपोयोगनामक
एकादशोऽध्यायः समाप्त:
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द्वादशाऽध्याये त्यागयोगः ज्ञानवैराग्यपक्वानां, त्यागधर्माऽधिकारिणाम् । शीघ्रं मुक्तिप्रदः प्रोक्तस्त्यागधर्मो विशेषतः॥ त्यक्ता शुभाऽशुभा वृत्तिः, स त्यागी कर्मकारकः। कर्तव्यमानसन्त्यागान्नैव त्यागी न चाक्रियः ॥ त्यागधर्मसमो धर्मो, नैव भूतो भविष्यति । निर्मलो मुक्तिरूपोऽस्ति, सर्वधर्मशिरोमणिः ॥ मूर्छा परिग्रहः प्रोक्तो, मूच्छा त्यक्त्वा शुभाऽशुभाम् ॥ त्यागिनो धम्कर्माणि, प्रकुर्वन्ति यथोचितम् ।। ४ त्यागिधर्मा असंख्याता, एकैकधर्मपालनात् । त्यागिनो मत्पदं यान्ति, रुचिशक्तिविशेषतः॥ भवन्ति त्यागिनां भेदा, धर्मकर्मविभेदतः। सवस्त्राद्याः सकर्माणो, देशकालाऽनुसारतः॥ मयि सर्वाऽर्पणं कृत्वा, साधवा ये भवन्ति ते । भिन्नाचारविचारेण, प्रान्ते संयान्ति मत्पदम् ॥ भिन्नाचारविचारेण, जैनानां हृद्यहं यदि । तदा सर्वेऽप्यभेदेन, यान्ति मुक्तिं न संशयः ॥ मनोवाकायभिन्नेषु, सर्वलोकेष्वहं स्थितः । अनन्यभक्तिभावेन, सर्वेषां मुक्तिदायकः॥ भिन्नाचारोपदेशेषु, बाला मुह्यन्ति मोहतः । स्वाधिकारादिसापेक्षज्ञानयुक्ता न मोहिनः ॥
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[ द्वादशाध्याये सत्त्वादिप्रकृतौ संस्था, नकधा सर्वसाधवः । मयि संन्यस्तकर्माणः, सर्वविश्वस्य पावकाः ॥ सर्वविश्वोपकाराय, त्यागधर्मो मयाऽऽदृतः। भूत्वा त्यागेन सर्वज्ञस्तारयामि जगजनान् ॥ मत्पश्चात्सर्वसाधूनां, जैनाचार्याः प्रवर्तकाः । यद्योग्यं तच्च कुर्वन्ति, देशकालाऽनुसारतः ॥ सर्वदेशेषु गच्छन्ति, जैनधर्मप्रचारकाः । धर्माचारविचाराणां, कुर्वन्ति परिवर्तनम् ।। केचिद्धयानं प्रकुर्वन्ति, समाधि यतयोऽपि के। उपदेशकराः केचित् , केचिजापपरायणाः ॥ केचिद्धर्मक्रियालीनाः, केचित्तपःपरायणाः। शास्त्राणां पाठकाः केचिद्वैयावृत्त्यकराश्च के ॥ - श्रोतारः केऽपि शास्त्रस्य, केचिद्धर्मस्य वादिनः । धर्मप्रभावकाः केचिज्जैनधर्मस्य रक्षकाः ॥ संघोन्नतिकराः केचिच्छास्त्रागारस्य रक्षकाः । लेखका धर्मशास्त्राणां, व्याख्यानेषु च तत्पराः ॥ देवतोपासकाः केचित् , केचियंत्रादिकारकाः । विद्याध्ययनकर्माणः, केचिच्च भक्तिकारकाः ॥ षडावश्यककर्माणः, कुर्वन्ति तीर्थरक्षणम् । आचार्याज्ञां गृहीत्वा च, वर्तन्ते सर्वसाधवः ॥ गुरुनिश्रासु शास्त्राणां, केचिद्भ्यासकारकाः । सर्वदेशविहारेण, धर्मव्याख्यानकारकाः । सर्वदेशेषु साधूनां, विहारः सार्वकालिकः। सर्वदेशस्थलोकानामुपकाराय देशितः॥
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त्यागयोग: ] देशकालवयाशक्त्या, योग्याहाराल्पभोजिनः । धर्म्यशक्तिप्रभावेण, जैनसाम्राज्यवर्द्धकाः ॥ जैनधर्मोन्नतिर्येन, जायते तेन कर्मणा । वर्त्तन्ते साधवः सर्वे, जैनधर्माऽनुरागिणः ॥ कलौ रागेण संयुक्तो, धर्मः संयमिनां शुभः । देवगुर्वादिरागेण, युक्ता भवन्ति साधवः ॥ देवे संघे गुरौ धर्म, तथैव धर्महेतुषु । पूर्णप्रीत्या सुसाधूनां, क्रमान्मुक्तिः प्रजायते ॥ .. २६ शुद्धरागेण नैष्काम्यं, त्यागिनां जायते स्वतः । दोषा अपि गुणायन्ते, संघाय धर्मकर्मणाम् ॥ विधिनिषेधो नैकान्तः, साधूनां धर्म्यकर्मसु । दिवा निशायां व्याख्यानं, कुर्वते यत्र तत्र ते ॥ आर्याऽनार्यप्रदेशेषु, यत्र तत्र विहारिणः । मयि रागेण संलीना, योगिनोऽदद्भुतदर्शनाः॥ २९ बाह्यतः प्रतिबद्धास्तेऽप्रतिबद्धा मयि स्थिताः । विश्वकल्याणकर्त्तारो, मन्नामजापकाः सदा ॥ यादृशास्तादृशाः पूज्याः, साधवो मयि रागिणः । तेषां भक्त्या गृहस्थानामुन्नतिः सर्वथा भवेत् ॥ मत्समाः पूजनीयास्ते, मदर्थ वेषधारकाः। मदर्थ त्यागकर्त्तारो, मत्पदं यान्ति निश्चलम् ॥ दोषदृष्टया निरीक्ष्या नो, मत्प्रेमसाधवः कदा । सकामा अपि निष्कामाः, साधवो मयि रागिणः ॥ ३३ मच्छासनस्य हन्तारः, साधूनां द्रोहिणो जनाः । मत्साधूनाश्च ये भक्तास्ते मद्भक्ता विवेकिनः ॥ ३४
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[द्वादशाऽध्याये आशीर्वादेन साधूनां, गृहस्थानां विभूतयः । साधूनामपमानेन, कुलादिसंक्षयो भवेत् ॥ जैनशासनवृद्धयर्थ, साधवः कर्मयोगिनः । योग्यकर्माणि कुर्वन्ति, मन्त्रतन्त्रप्रयुक्तिभिः ॥ कुर्वन्तो धर्यकर्माणि, निर्लेपा भोग्यवस्तुषु । मद्धर्मस्य प्रचारार्थे, सर्वशक्तिसमर्पकाः ॥ जैनाचार्यो गुरुः श्रेष्ठो, गृहस्थगुरुतोऽधिकः । चतुर्विधस्य संघस्य, शासको मत्पदाश्रितः॥ जैनसंघप्रगत्यर्थ, विद्यादीनां प्रचारकाः । धर्माचार्याः सदा पूज्या, आराध्या मदभेदतः॥ आचार्या वाचकाः सन्तः, सरिमन्त्रादिसाधकाः । अपवादात्कलौ धर्मकर्मणां कारकाः शुभाः ॥ .. ४० कलौ मूरिवरादीनां, द्रष्टव्या नैव हीनता। मत्तो न्योन्यं न मन्तव्यं, तेषां धर्मप्रचारिणाम् ॥ ४१ कलौ कालप्रभावेग, गच्छादिरागधारकाः। तथाऽपि ते भविष्यन्ति, मदभिन्ना मदाश्रिताः ॥ मतादिभेदभिन्नास्ते, मत्प्रीत्या मयि संश्रिताः। प्रान्ते साम्यसमालीना, मद्ध्यानाद्यान्ति मत्पदम् ॥ ४३ अतो मतादिभिन्नेषु, सूरिषु धर्मकर्मसु । तथाऽऽचारेषु संमोहः, कर्त्तव्यो नैव मज्जनः ॥ मताचारेण भिन्नास्ते, मां स्मरन्तो मदाश्रिताः। वस्तुतो नैव भिन्नास्ते, भेदेष्वभेदवानहम् ॥ जैनसंख्याप्रवृद्धयर्थ, रक्षार्थ धर्मकर्मणाम् । उद्भवन्ति कषाया ये, प्रशस्यास्ते मताः सदा ॥
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त्यागयोगः ] पुण्यानुबन्धिपुण्याय, रागादीनां समुद्भवः । ज्ञातव्यस्त्यागिवर्गस्य, धर्मार्थ हि सतां शुभः ॥ देशकालाऽनुसारेण, यद्यत्कुर्वन्ति साधवः । तत्तद्योग्यं प्रबोद्धव्यं, सूरीणामाज्ञया भुवि ॥ अनेकोपायसद्योगै नसाम्राज्ययोगिनः । अवन्ति साधवो धर्म, राज्यनीतिप्रयुक्तिवत् ॥ सूरीणामधिकारोऽस्ति, धर्मार्थ सर्वकर्मसु । तेषां नैव निषेधोऽस्ति, स्वतन्त्रा धर्मचालकाः ॥ प्रवृत्तिञ्च निषेधं ते, जानन्ति सर्वबोधतः । सत्प्रवृत्ती निषेधे च, शासकाः प्रेरकाः खयम् ॥ जैनधमप्रवृद्धयर्थ, योग्याऽयोग्येषु कर्मसु । ज्ञानिनः सूरयः श्रेष्ठाः, स्वतन्त्राः सन्ति राजवत् ॥ ५२ सर्ववर्णेषु मद्धर्मप्रचारकप्रवृत्तिषु । बालैः शङ्का न कर्त्तव्या, यतस्ते ज्ञानिसूरयः ॥ सर्वखण्डेषु मद्धर्मप्रचाराय प्रवर्तकाः। सुधारयन्ति ते यद्यत्तत्तद्योग्यं मया मतम् ॥ यस्य संघे महारागो, जैनधर्माऽभिमानता । नास्ति स जैनधर्मस्थ, बाधकश्च प्रणाशकः ॥ जैनसंघो महातीर्थ, सर्वतीर्थशिरोमणिः । तत्संघस्य प्रगत्यर्थ, प्राणार्पणं शुभावहम् ॥ साधुसंधैः प्रगत्यर्थ, यद्यत्कर्म विधीयते । तत्र निष्कामता बोध्या, धर्मार्थ नैव दोषता ॥ साधुसंघप्रगत्यर्थ, देशकालव्यवस्थया। संस्काराः शक्तितः कार्या, जैनाचार्यविचक्षणैः ॥ ५८
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देशकालव्यवस्थाभिर्योग्यं यत्परिवर्त्तनम् । देशे संघे समाजेषु, तत्कर्त्तव्यं व्यवस्थया ॥ वेषाचारवतादीनां, नैयत्यं नैव सर्वथा । करोति रोचते यत्तत्त्यागी स्वात्मादिवेदकः ॥ धर्मराज्यस्य शास्तारो, धर्माचार्या विवेकिनः । क्रियावन्तोऽप्यकर्माणः, परब्रह्मणि संस्थिताः ॥ परब्रह्मस्वरूपं मां, ध्यायन्ति सूरयः सदा । योगाभ्यासेन मां दृष्ट्वा, कारका धर्म्यकर्मणाम् ॥ जैना ये श्रद्धया युक्ता, मत्प्रतीकेषु सूरिषु । जैनोन्नति प्रकुर्वन्ति, गुर्वाज्ञाधर्मधारकाः ॥ विश्वोद्धाराय जैनानां, साधूनाञ्च प्रणालिका । तीर्थकृद्भिर्व्यवस्थाभिः, स्थापिताऽनादिकालतः ॥ मयाऽपि स्थापिता सैवं विश्वकल्याणहेतवे । मुक्तिमार्गैरसंख्यातैर्धमद्वारः कृतो मया ॥ विश्वदेशसमाजानां, व्यवस्था धर्मकर्मभिः । चतुर्विधेन सङ्केन, सुखायैव प्रचारिता || स्वातन्त्र्यं सर्वलोकानां सुखारोग्यप्रदं यतः । धर्मः सामाजिको दिष्टः, स मया विश्वतायिना ॥ साधुभिः सर्वजातीयाः, सद्धर्मा व्यवहारतः । विवेकेनाऽभिधीयन्ते, सन्तः कल्याणकारकाः ॥ शुद्धान्नपानवसनैः, पोषयन्ति निजं वपुः । संगिनः सर्वलोकानां निःसङ्गाः स्युस्तथापि ते ॥ जैनधर्मोन्नतिस्तैस्तु, पञ्चमारे भविष्यति । सर्वज्ञेन मयोक्तं यन्नाऽन्यथा भवति क्वचित् ॥
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[ द्वादशाऽध्याये
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त्यागयोगः ] मन्मन्त्रैर्हठयोगैश्च, स्वात्मशक्तिप्रकाशकम् । संपायं सहलं जैनधर्मोद्योताय साधुभिः॥ सूरिमंत्रादिमंत्राणां, साधना सूरिभिः सदा । कर्तव्या साधुसंघस्य, रक्षार्थ वीर्यवर्धिका ॥ क्षेत्रकालाऽनुसारेण, योग्यः सत्परिवर्त्तनैः। चतुर्विधस्य संघस्य, वृद्धौ धर्मः प्रकीर्तितः ॥ मनोवाकाययोगानां, पूर्णशक्तिप्रकाशकः । बाह्यसत्तादिसाम्राज्यरक्षको धर्म उच्यते ॥ बाह्यधर्मप्रभावेण, स्वात्मधर्मः प्रकाशते । अतो धर्मः सदा साध्या, सूरिवाचकसाधुभिः॥ ७५ यस्मिन्क्षेत्रे च यत्काले, यदुपायैः प्रवर्द्धते । जीवति त्यागिवर्गः स, धर्मो नाऽन्यो विनाशकः ॥ ७६ त्यागिवर्गोन्नतिः साध्या, सर्वधर्मस्य पुष्टिदा । यत्र त्यागो जयस्तत्र, त्यागो धर्मार्थपोषकः ।। त्यागिनां द्रोहिणो मूढा, यान्ति नैव समाधिताम् । यत्र त्यागः प्रभुत्तत्र, त्यागिनो मे सदा प्रियाः॥ ७८ सर्वविश्वस्य कल्याणकारकस्त्यागिनः सदा । चक्रवादितः श्रेष्ठाः, परोपकृतिमूर्तयः॥ त्यागिनामपमानं ये, कुर्वन्ति ते नराऽधमाः। विश्वदेशसमाजानां, नाशका धर्मलोपकाः ॥ जीवन्तस्त्यागिनो बोध्या, व्यक्तयो ब्रह्मणः पराः। धमाद्धाराय साधूनामवताराश्व मत्समाः ॥ ८१ त्यागिनां संकटे व्याधी, चिन्तायां च विशेषतः । सहायकः परब्रह्मपदं याति खभक्तितः ॥
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[ द्वादशाऽध्याये त्यागिनां मम भक्तानां, बलदोऽहं जिनेश्वरः। ज्ञात्वैवं त्यागिनः प्रेम्णा, भजन्ते पूर्णभावतः ॥ गृहस्थानाश्च साधूनां, शरण्योऽहं सनातनः । गृहस्था उन्नतिं यान्ति, साधुवर्गसदाशिषा ॥ . सर्वजातीयसाधूनां, भक्तिः कल्याणकारिका । गृहस्थैरिति विज्ञाय, भक्त्या सेव्याः सुसाधवः ॥ निष्कामसाधुसंघस्य, महत्त्वञ्चोपयोगिता। वर्ण्यते नैव संपूर्ण, सर्वज्ञैरपि वस्तुतः॥ विचित्राचारवेषाद्यैस्त्यामयोगः सनातनः परात्मपदलब्ध्यर्थ, सर्वज्ञेन प्रकीर्तितः ॥ चतुर्विधमहासंघधर्म्यस्वातन्त्र्यहेतवे । सर्वोपाया विधातव्याः, सूरिभिः साधुभिस्तथा ॥ .. ८८ इति श्रीजैनमहावीरगीतायां श्रीत्यागयोगनामको
द्वादशोऽध्यायः समाप्तः
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त्रयोदशाऽध्याये सत्संगयोगः
अनेकभवसंबद्धकर्माणि साधुसंगतेः । क्षणार्धेन क्षयं यान्ति, परमाञ्च गतिं जनाः ॥ सतां सेवा जनैः कार्या, त्यक्त्वाऽन्यकार्यसंहतिम् । प्रष्टव्यमात्मबोधाय, श्रोतव्यश्च यथायथम् ॥ साधुनां संगतिः पुण्यस्वर्गसिद्धिप्रदायिनी । अध्यात्मज्ञानसंवार्त्ताऽमृतं पेयं सुरागतः ॥ ज्ञानिसमागमप्राप्तौ प्रभुप्राप्तिर्न संशयः । गुरुरेव प्रभुः साक्षाद्देहस्थो ब्रह्मदर्शनात् ॥ सन्त्यज्य सर्वकार्याणि, सद्गुरूणां समागमः । अहर्निशं प्रकर्त्तव्य, आत्मज्ञानाप्तये जनैः ॥ आत्मज्ञानस्य संवार्त्ता, जायते यत्र तत्र तु । विहाय शतकर्माणि, स्थातव्यं श्रोतुमिच्छुभिः ॥ रागद्वेषपरीणामः क्षीयते यस्य संगतेः । पूर्णानन्दरसास्वादो, जायते च मनीषिणाम् ॥ कर्त्तव्या तस्य संसेवा, सर्वस्वार्पणभावतः । साक्षात्साकारदेवः स, मतव्यः पूर्णरागतः ॥ त्यागिनां योगिनां सङ्गः कर्त्तव्य आत्मशुद्धये । अहंममत्वनाशाय, भूयादेव न संशयः ॥ साधूनां पूर्णरागेण, कलौ मुक्तिर्वदाम्यहम् | वैयावृत्येन साधुनां साध्वीनाञ्च शिवं भवेत् ॥
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[त्रयोदशाध्याये यादृशास्तादृशाः सन्तः, पूर्णरागेण सेविताः। महन्मुक्तिप्रदाः शीघ्रं, जायन्ते नैव संशयः ॥ मन्नामजापकर्तृणां, दर्शनाद्रोमराजयः । यस्य विकखरास्तूर्ण, जायन्ते स मम प्रियः ॥ जैनान् दृष्ट्वा महाप्रेमा, भवेद्यस्तद्वदि स्फुटम् । व्यक्तो भवामि स्वप्नादौ, बाह्यान्तरस्वरूपतः ॥ साधूनां हृदि संरागाये जैनाः शोधयन्ति माम् । तद्धदि व्यक्तरूपोऽहं, भवाम्येव न संशयः ॥ साधुन्संप्रेक्ष्य ये जैनाः, पूर्णानन्दा भवन्ति ते। तद्भवे मां प्रभुं प्राप्य, जायन्ते ज्ञानयोगिनः ॥ आत्मदेहे तथा देवे, गुरौ संघे च रागवान् । भवेत्तस्य धृतिः कीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यादिसम्पदः ॥ .. १६ साधूनां पूर्णरागी यो, यत्किश्चित्स्वार्थमन्तरा। तस्य साहाय्यकर्ताऽहं, यत्र तत्र यदा तदा ॥ कुतर्ये महापापा, मिथ्यात्वदोषयुक्तिभिः । कलिधर्माऽनुगन्तृणां, साधूनां नाशकारकाः ॥ अदृश्यवदना ज्ञेया, नास्तिका मद्विरोधिनः । तत्पतिरोधकानां स्यान्मत्पदं साधुरागिणाम् ॥ नव्यशास्त्रकराः केचिज्जैनधर्मविवृद्धये । कलिधर्माऽनुसारेण, नव्यज्ञानप्रकाशकाः ॥ समुद्रोल्लंघनेनैव, दीपादवीपविहारिणः । विद्यामंत्रप्रभावेण, केचिद्विश्वोपदेशकाः ॥ एकस्थानगताः केचिदनेकस्थानगामिनः। प्रवृत्तियोगिनः केचिद्धर्म्यकर्मविधायिनः ।
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सत्संगयोगः ] मंत्रयोगपराः केचित्समाधियोगतत्पराः। शास्त्राऽभ्यासरताः केचिजिनधर्मप्रचारकाः ॥ मौनाः केचित्तु वक्तारः, सद्विद्यादिप्रवर्तकाः । कलौ स्वाऽर्पणयोगेन, जनसंख्याविवर्द्वकाः ॥ सेवाधर्मरताः केचिद् , बहिरुद्यानवासिनः । मत्पराः सर्वजीवेषु, मदीयभावदर्शिनः ॥ तीर्थयात्रापराः केचिद्विविधज्ञानधारिणः । कल्पातीता महासन्तः, सर्वविश्वोपकारिणः ॥ दिवारात्रौ जिनाज्ञातो, जैनधर्मोपदेशिनः । दिवारात्रौ विहारेण, परमार्थपरायणाः ॥ सदाचाररता नित्यं, भावशौचादिकारकाः । गोचर्यादिव्रताः केचिद्भक्तसद्मनि भोजिनः ॥ नगरस्थायिनः केचिद्धर्मव्याख्यानकारकाः। तडागादिनिवासेषु, तपस्यन्ति मदाश्रिताः ॥ गुहानिवासिनः सन्तः, केचिद्धेमाद्रिवासिनः । नदीवृक्षाश्रयाः केचिदन्यपर्वतवासिनः ॥ श्वेतद्वीपगताः केचिद्धिमोत्तरनिवासिनः । वत्स्यन्ति च कलौ तत्र, गुप्तरूपेण योगिनः॥ . मध्यखण्डगताः केचित्सागरद्वीपसंस्थिताः । पूर्वपश्चिमदेशस्थास्तथा दक्षिणवासिनः॥ आपत्कालेषु जैनानां, कलौ गुप्ता निजात्मनाम् । प्रादुर्भावं करिष्यन्ति, मन्तो धर्मप्रभावकाः॥ सिद्धाचलादितीर्थेषु, वासिनामात्मरक्षणे । आचार्याः स्वाऽधिकारेण, तत्पराः संघशत्तितः ॥
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[त्रयोदशाध्याये धर्मग्लानिनिवृत्त्यर्थ, सन्तः सर्वे स्वशक्तितः । आचार्याज्ञाऽनुसारेण, वर्त्तन्ते यत्र तत्र गाः ॥ ब्राह्मीलिपीगतान् ग्रन्थानुरिष्यन्ति यत्नतः । मत्प्रोक्तजैनधर्मस्य, प्रचाराय भुवस्तले ।। केचित्तु निर्जनेऽरण्ये, केचिद्ग्रामादिवासिनः । मां जैनेन्द्रं समाश्रिल, ध्यानं कुर्वन्ति योगिनः॥ भिन्नभिन्नतपोनिष्ठाः, शुद्धात्मानं विवेकतः । ध्यायमाना महोद्याननदीतीरनिवासिनः ॥ स्वस्ववृत्त्यनुसारेण, भ्रमन्ति ज्ञानयोगिनः । अध्यात्मज्ञानयोगेन, सर्वथा मयि तत्पराः ॥ समाध्यर्थ यमाद्यङ्गच्छन्ति यत्र तत्र ते । ममाज्ञास्वधितिष्ठन्ति, स्वतन्त्राः सर्वकर्मसु ॥ - मायोपममिदं दृश्यं, सर्व संमान्य चेतसि । आत्मानन्दमयाः सन्तो, बाह्यानन्दपराङ्मुखाः ॥ केचिदत्यन्तनिवृत्ता, मयि लीनाः परेश्वरे । वर्त्तन्ते मूढवद्वायव्यवहारेषु योगिनः॥ विकला इव सन्तस्तु, सेव्याः सर्वोपचारतः । केषाश्चिदब्रह्मलीनानां, वैकल्यं बाह्यतो भवेत् ॥ परब्रह्मस्वरूपास्ते, दृश्यन्ते विकला इव । देहादिबाह्यचेष्टास्तु, तेषां प्रारब्धकर्मतः॥ . वेषाचारस्य नैयत्यं, नैव तेषां कदाचन । आत्मज्ञानसमाधिस्थाः, परोपकारतत्पराः॥ अर्हज्जैनेन्द्रभक्तास्ते, वीतरागदशाश्रिताः। विश्वशान्तिकरा भूता, भविष्यन्ति च ते कलौ ॥ ४५
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सत्संगयोगः ]
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अन्नवस्त्रादिभिस्तेषां वैयावृत्त्यं विशेषतः । कर्त्तव्यं गृहिभिर्धर्मलाभाय पूर्णभावतः * तेषां यात्रा प्रकर्त्तव्या पर्वसु तु विशेषतः । संमान्या मत्समाः सन्तो, जापकाः परमेष्ठिनाम् ॥ तेषां वेषक्रियाभेदैर्बाह्यभेदा अनेकधा । तत्र मोहो न कर्त्तव्यो मद्भक्तेषु तपस्विषु ॥ केचिच्छ्वेताम्बराः सन्तो, वीतरागतपस्विनः । केचिद्दिगम्बराः सन्तो, यदृच्छाव्रतधारिणः ॥ भिन्नभिन्नविचारैस्तैस्तथाचारैर्जिनेश्वरम् । संप्राप्तुं निश्चयेनैकमर्हन्तं समुपाश्रिताः ॥ भिन्नभिन्नाऽधिकारात्ते, विभिन्ना बाह्य भेदतः । तथापि शुद्धमात्मानं, मां सेवन्ते स्वभावतः ॥ अतः स्वभावादैक्यस्य, धारका मयि धर्मतः । मोक्षं याताश्च यास्यन्ति, यान्ति शुद्धात्मलाभतः ॥ शुद्ध ब्रह्मस्वरूपं मे, कर्मातीतं निरञ्जनम् । ध्यायमाना महासन्तो, मदभिन्ना भवन्ति ते ॥ अध्यात्मज्ञानिनः सन्तो, निर्मुक्ता गृहकर्मतः । सन्ति धर्मस्थानेषु, सात्त्विकान्नप्रभोजिनः ॥ ज्ञानं संजायते सत्त्वाद, गृहित्यागिसतां खलु । रजस्तमोविनाशेन, सत्त्वं तत्त्वं प्रकाशते ॥
बुद्धिशुद्धिकरं सत्वं ज्ञानप्राकट्यकारणम् । चित्तशुद्धिकरं यच्च, रजस्तमोनिवर्त्तकम् ॥ सात्त्विका चारयुक्तास्ते, आत्मज्ञानोपदेशिनः । आर्यावर्त्तस्य खण्डेषु, भविष्यन्ति सुसाधवः ॥
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[ त्रयोदशाध्याये आत्मवत्सर्वजीवानां, द्रष्टारो जैनसाधवः । भविष्यन्ति कलौ दुष्टधर्मनाशाय योगिनः ॥ सत्यार्यजैनधर्मस्य, प्रचाराय स्वशक्तितः । मदुक्तसर्वदेशेषु, भविष्यन्ति न संशयः ॥ आत्मनः शुद्धपर्यायप्राप्त्यर्थ मन्जनैः सदा। सर्वसात्त्विकसाधूनां, संगः कार्योऽतियत्नतः ॥ स्थातव्यं न कदा भव्यैज्ञानिनां संगति विना । तुच्छं धनादिकं मत्वा, सन्तः सेव्याः क्षणे क्षणे ॥ ६२ अन्तःशुद्धोपयोगेन, परब्रह्मस्वरूपिणाम् । सतां दर्शनमात्रेण, तमो दूरं पलायते ॥ स्वप्नोपमाञ्जगद्भावाज्ञात्वा सर्वमहाजनैः । परात्मा ज्योतिषां ज्योतिः, संप्राप्यो देहसंस्थितः ॥ ६४ यावदायुःक्षयो नास्ति, तावबैराग्यबोधतः। मोहस्य सर्वथा नाशः, कार्यः सद्भिर्विवेकिभिः ॥ शाश्वतो विभवो नैव, विशुद्धञ्चञ्चलं वपुः। प्राणायुः क्षणिकं ज्ञात्वा, धर्म कुरुत साधवः ॥ इष्टानां सर्ववस्तूनां, संयोगस्य वियोगता। भवत्येव स्वभावेन, ज्ञात्वा ज्ञानी न मुह्यति ॥ अनिष्टानां पदार्थानां, संयोगः पापतो भवेत् । ज्ञात्वैवं सर्वथा ज्ञानी, तत्र किश्चिन्न मुह्यति ।। रागद्वेषमयं चित्तं, कर्मबीजमनादितः। चित्तशुद्धिं करोत्येव, ज्ञानी शुद्धोपयोगतः ॥ सन्तः शान्तिकरा नित्यं, ज्ञानवैराग्यधारिणः । अनन्तसुखसम्पन्ना, विश्वोद्वारपरायणाः ॥
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सत्संगयोगः ] मजनैः सर्वथा कार्या, सतां सेवा स्वभावतः । साधूनां सत्यसेवातो, दुर्लभं सुलभं भवेत् ॥ साकारो भगवाज्ञेयो, मुनिर्धर्मपरायणः । महत्पूर्णतया पूज्यः, सेव्यस्तद्योग्यसाधनैः॥ निश्चयात्पूर्णशुद्धात्मा, देहस्थोऽपि स्वयं प्रभुः । ज्ञेयो ध्येयो महाप्रीत्या, गेयः श्राव्यो जनैर्महान् ॥ ७३ आत्मा सद्भिः सदा ध्येयः, सत्ताव्यक्तिस्वभाववान् । अनन्ताऽनन्तपर्यायैरनेकाकृतिनामवान् ॥ . ७४ भङ्गीभिर्नयनिक्षेपैः, सविकल्पैः सदात्मनः । निर्विकल्पस्वरूपं तु, प्राप्यते ज्ञानयोगिभिः ॥ ज्ञात्वैवं निर्विकल्पात्मस्वरूपाउनुभवाय ते । निर्विकल्पात्मरूपेण, भवन्ति निर्विकल्पकाः ॥ यस्य पारं न संयान्ति, वेदागमनया अपि । तस्य पारं द्रुतं यान्ति, सन्तो निवृत्तियोगतः ॥ यत्र तत्र सतां हृत्सु, व्यक्तरूपो यदा तदा । शुद्धब्रह्मस्वरूपेण, संभवामीति निश्चयः ॥ सविकल्पस्वरूपेण, सविकल्पः सतां हृदि। निर्विकल्पस्वरूपेण, निर्विकल्पः सतां हृदि ॥ औपशमादिसद्भावैरभिव्यक्तोऽस्मि शक्तिमान् । अतः सन्तः सदा पूज्याः, साकारेश्वरयोगिनः॥ देहस्था अपि वैदेहा, गृहस्थास्त्यागिनो जनाः। जीवन्मुक्ता महासन्तः, परब्रह्माऽवतारिणः॥ गोप्याऽगोप्यस्वरूपेण, सर्वे धर्माः सतां हृदि । स्वव्यक्तितो भविष्यन्ति, भूताश्च वार्त्तमानिकाः ॥ ८२
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[ त्रयोदशाध्याये धर्मनाशः सतां त्यागाद्धर्मवृद्धिः सदादरात् । सर्वयोगमयाः सन्तः, पूज्याः सेव्याश्च मानवैः ॥ ८३ पूर्णसत्यस्य वक्तारो, निःस्पृहास्त्यागिसाधवः । यतस्ते निर्भया लोके, प्रजाराजोपदेशकाः ॥ सर्वथा पूर्णरागेण, सन्तः सेव्या अहर्निशम् । कोटिकार्याणि सन्त्यज्य, कर्त्तव्या साधुसंगतिः॥ ८५ मद्रागिसाधुसेवातः, श्रुतं संप्राप्य मज्जनैः। शुद्धात्मा सर्वथा प्राप्यो, वर्तते धर्मरागिभिः॥ ८६ सम्यक्त्वादिगुणप्राप्तिर्भवेत्साधुसमागमात् । दोषान्त्यक्त्वा गुणा ग्राह्याः, सतां सेवापरायणैः ॥ ८७ पूर्णरागः सदा सत्तु, कर्तव्यो मन्जनैः कलौ। साधूनां पूर्णरागेण, भवेज्ज्ञानादिशुद्धता ॥ ... ८८ अहर्निशं प्रकर्त्तव्यं, साधूनां दर्शनं जनैः। साधूनां दर्शनात्पुण्यं, संगात्सद्यः शुभं फलम् ॥ स्थावरतीर्थसेवातोऽनन्तकोटिगुणं फलम् । जङ्गमतीर्थसेवायां, ज्ञातव्यमिति मजनैः॥ इति श्रीजैनमहावीरगीतायां सत्संगयोगनामक
स्त्रयोदशोऽध्यायः समाप्तः
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चतुर्दशाऽध्याये गुरुभक्तियोगः सर्वथा सर्वदाऽऽराध्या, सद्गुरुर्धर्मबोधकः । मत्पश्चान्मत्समाः पूज्या, जैनधर्मप्रवर्तकाः॥ पूर्णप्रीत्या गुरोर्भक्तिः, सर्वकल्याणकारिका। अप्रकाशिततत्त्वानां ज्ञानं भक्त्या प्रजायते ॥ गुरुभक्तिस्तु मे भक्तिः, सर्वशक्तिप्रदायिका । अनन्यगुरुसेवायां, यन्नास्ति तन्न भूतले ॥ गुरोहृद्यस्ति महासा, शिष्याणां भक्तिवर्द्धकः । गुरुः पूर्णाशिषाऽनन्यभक्तानां शर्मकारकः ॥ गुर्वात्मा मत्समः प्रोक्तः, शिष्याणामिष्टकारकः । गुर्वात्मैव परब्रह्म, सत्ताव्यक्तिप्रभावतः॥ सर्वदा सर्वथा भक्तिगुरोः स्वार्पणकारिका। शिष्यभक्तैर्विधातव्या, कृपामूला विवेकिभिः ॥ गुरोः कृपां विना सिद्धिर्जायते नैव सर्वथा । गुरोः कृपां विना कोऽपि, मत्पदं याति नो कदा ॥ गुरोः कृपां विना कोऽपि, प्राप्नोति नैव मत्कृपाम् । सद्गुरोः कृपया धर्म, प्राप्नोति मत्पदं जनः॥ गुरुकृपाविहीनानां, सद्गतिनास्ति सर्वथा । पूर्णप्रीत्यैव शिष्याणां, भवत्येव गुरोः कृपा ॥ गुरुभक्तिविहीनानां, देवभक्तिर्न सिद्धयति । गुरुस्वार्पणभक्ताः स्युः, सद्गुरुमधारकाः ॥
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[ चतुर्दशाध्याये
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विद्याव्रततपोभिः किं किञ्च बाह्यविभूतिभिः । विना गुरुकृपां व्यर्थमायुष्यं सर्वदेहिनाम् ॥ गुर्वाज्ञायां दयामुख्याः, सर्वधर्माः प्रतिष्ठिताः । गुरोः कृपैव सर्वत्र, भक्तानां रक्षणे क्षमा ॥ गुरोः कृपाशिवा शिष्याः, सर्वत्र जयकारिणः । यस्योपरि गुरुप्रीतिस्तस्य सिद्धिः करस्थिता ॥ गुरोः कृपाशिषा नृणां मनः स्थैर्य प्रजायते । अन्यथा चित्तचाञ्चल्यादात्मस्थैर्य न संभवेत् ॥ मोक्षस्य गुप्तमार्गां ये, स्वात्मोत्कान्तिविधायकाः । दश्यन्ते गुरुणा सर्वे, शिष्याणां योग्यताबलात् ॥ आत्मशुद्धिप्रदा मार्गा, मत्परम्परयागतैः । गुप्ताः सूर्यादिभिर्व्यक्ताः क्रियन्तेऽग्रे विवेकिनाम् ॥ १६ कर्मसंस्कारविक्षेपनाशाय गुप्तयुक्तयः । गुर्वात्मीभूतसच्छिष्यैः प्राप्यन्ते पूर्णयोगतः ॥ आत्मज्ञानादिलाभाय, योग्यता यस्य जायते । यदा तदा गुरोर्लाभस्तादृक् तस्य प्रजायते ॥ गुर्वाज्ञातो महाशिष्याः, सर्वस्वार्पणकारकाः । सिद्धबुद्धाः प्रजायन्ते, विश्वोद्धारकयोगिनः ॥ गुरुं विना न मत्प्राप्तिर्मदुक्तं नाऽन्यथा कहा । यस्योपरि गुरोः कोपस्तस्य पातः पुनः पुनः ॥ सर्वाध्यात्मिकशक्तीनां निदानं सद्गुरोः कृपा । अनेकजन्मसेवातो, गुरोः शिष्यः शिवं व्रजेत् ॥ गुर्वाज्ञायां मदाज्ञायाः, समावेशो भवेदतः । मदाज्ञा खण्डिताः सर्वाः खण्डिते गुरुशासने || गुर्वायत्त महासत्त्वा, मातृभक्तिपरायणाः । धर्मिद्रोह विनिर्मुक्ता, अशक्यं कर्तुमीश्वराः ॥
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गुरुभक्तियोगः ] सर्वदुःखविनाशाय, सद्गुर्वालम्बनं महत् । गुर्वन्तेवासिनः शिष्याः, सद्गुरुज्ञानवेदिनः ॥ गुरोर्हदि प्रविष्टानां, शिष्याणां कर्मयोगिनाम् । इष्टकर्माणि सिद्धन्ति, कष्टसाध्यान्यपि क्षणात् ॥ मन्त्रतन्त्रैश्च किं यन्त्रैः, सदगुरोः कृपया विना। गुरुकृपायुते शिष्ये, वसन्ति सर्वसिद्धयः ॥ मत्कृपाप्राप्तये शिष्या, गुरुभक्तिपरायणाः। भवन्ति सर्वजातीयसेवाकारककर्मभिः ॥ गुरोः कृपा महाशक्तिर्गुरोः कृपा महाप्रभुः । गुरोः कृपां विना शिष्या, नाऽन्यदिच्छन्ति भूतले ॥ २८ गुर्वाशीर्वादतो यन्न, सिद्धयति तन्न भूतले । गुर्वाशिषा प्रजायेत, ब्रह्मज्ञानं मनीषिणाम् ।। गुर्वात्मरूपभूतानां, हृदि सिद्धिः प्रजायते । आत्मैव परमात्माऽस्ति, सद्गुरुः स्व-स्वभावतः ॥ सत्यज्ञानं न जायेत, सद्गुरोर्भक्तिमन्तरा। कृतं नैव गुरोरैक्यं, ते शिष्या नाममात्रतः ॥ व्रताद्याः पालिताः पूर्णा, गुर्वाज्ञापालने कृते । गुर्वाज्ञामूर्तिरूपाणां, कर्तव्यं नावशिष्यते ॥ गुर्वाचारविचाराणां, पूर्णब्रद्धाविधायकाः। आपत्स्वपि महाधीराः, प्रान्ते यान्ति परं पदम् ॥ सर्व प्राणादिकं त्यक्त्वा, सदगुर्वात्मावलम्बकाः । नामरूपादिमोहस्य, त्यागाद्यान्ति शिवं पदम् ॥ पूर्णप्रीया गुरोः सेवाकारका मन्जनाः कलौ । सर्वदोषविनिर्मुक्ता, भवन्ति निर्मलाशयाः॥
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[चतुर्दशाध्याये आपद्धर्माऽनुसारेण, जैनधर्मप्रवर्तकाः । धर्माचार्याः सदा सेव्याः, कलौ जैनः सुभक्तितः॥ ३६ अनाद्यनन्तकालीनो, जैनधर्मः सनातनः । रक्ष्यते साधुभिः सम्यग्विश्वकल्याणकारकः ॥ गुरुजिनेन्द्रयोरैक्यं, परब्रह्मस्वभावतः । यः पश्यति जनो भक्त्या, स याति परमां गतिम् ॥ ३८ जनानां योग्यतां ज्ञात्वा, ज्ञानिभिरुपदेशतः। बोधितव्या मनुष्याश्च, पातितव्या न संशये ॥ आत्मज्ञानोपदेशस्तु, श्रोतव्यः श्रीगुरोर्मुखात् । गुरुभक्तिबलेनैव, हृदि ज्ञानं स्थिरं भवेत् ।। फलं यजायते नृणां, शास्त्राणां वाचनात्स्वयम् । ततोऽनन्तगुणो लाभः, श्रवणात्सद्गुरोर्मुखात् ॥ श्रुतज्ञानश्रुतेर्योगात्, सम्यक्त्वं हृदि जायते । चारित्रादिगुणाः सर्वे, व्यक्ता भवन्ति वेगतः ॥ सद्गुरूणां वियोगे तु, शास्त्राणां वाचनं शुभम् । गुर्वाज्ञापूर्वकं कार्य, मजनैः स्वाऽधिकारतः॥ श्रुतज्ञानश्रुतिः कार्या, मजनैर्विधिपूर्वकम् । मन्मुखान्निर्गता बोधाः, श्रुतय एव सर्वदा ॥ कार्यकोटि परित्यज्य, तत्त्वज्ञानं गुरोमुखात् । श्रोतव्यं हृदि संधार्य, न स्थेयं तदिना कदा ॥ गुरुपरम्पराप्राप्ता, श्रुतज्ञानपरम्परा ।। वीति जैनधर्मस्य, द्योतिका पश्चमारके ॥ आत्मज्ञानं भवेन्नैव, सद्गुरोरपवादिनाम् । भ्रमन्ति भूतवल्लोकाः, सद्गुरोः शापयोगतः॥ ४७
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गुरुभक्तियोगः ] द्रष्टव्या न गुरोर्दोषा, वक्तव्या न च दुर्गुणाः । मत्पदं न कदा यान्ति, गुरुद्रोहादिकारकाः ॥ गुरोराशातना त्याज्या, वक्तव्या सद्गुरोगुणाः। गुर्वाचारविचारेषु, शङ्का कार्या न पापदा ॥ ४९ आत्मज्ञानस्य दातारः, पूज्याः सेव्याः सदा जनैः । मत्पश्चाज्जैनधर्मस्य, व काश्च प्रवर्तकाः ॥ मत्पश्चात्संभविष्यन्ति, जैनधर्मप्रचारकाः । युगे युगप्रधानास्ते, सूरयः पञ्चमारके ॥ जैनदेवास्तथा देव्यः, स्वर्गादवतीय भक्तितः। भूत्वाऽऽचार्यादयो जैनान् , वर्द्धयिष्यन्ति बोधतः॥ ५२ इति श्रीजैनमहावीरगीतायां श्रीगुरुभक्तियोगनामक
श्चतुर्दशोऽध्यायः समाप्त.
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पञ्चदशाऽध्याये ज्ञानयोगः
धर्मयोगं निराम्याथ, सूरयो गौतमादयः । पप्रच्छुः श्रीमहावीरं, ज्ञानयोगबुभुत्सवः ॥ श्री वीरः प्रोचि वाञ्ज्ञानयोगं मोहविनाशकम् । यं प्राप्य कृतकृत्याः स्युर्मनुष्याः सिद्धिगामिनः ॥ जीवाऽजीवादितत्त्वानि, नव सप्त च वस्तुतः । आत्मरूप ः पुरुषोऽस्ति, प्रकृतिश्च जहात्मिका ॥ अरूपी पुरुषो ज्ञेयः, प्रकृतिश्च द्वयात्मिका । अनादिकालसंबन्धो, द्वयोरस्ति स्वभावतः ॥ शुद्धात्मानो महादेवाः, सिद्धा बुद्धा निरञ्जनाः । अष्टकर्मवियोगान्ते, जन्माऽतीता महेश्वराः ॥ प्रकृतिकर्ममायानां पर्यायेणैकता मता । आत्मानः कर्मकर्त्तारस्तथा कर्मविनाशकाः ॥ ईश्वरा अन्तरात्मानः, सात्त्विक कर्मसंयुताः । कर्मातीताः सदा बोध्याः, परमात्मानः शिवङ्कराः ॥
आत्माऽस्ति कर्मणां कर्त्ता, भोक्ता च व्यवहारतः । वस्तुतः प्रकृतिः कर्त्री, भोक्त्री च शक्तिरूपिणी ॥ कर्त्ता भोक्ता च नैवात्मा, निश्चयनयतः कदा | कर्मप्रभोश्च कर्तुत्वं, साक्षित्वमात्मनस्तथा ॥ पर्याया आत्मनो बोध्या, देवादिसर्वरूपिणः । कर्मतो देहपर्याया, उत्पद्यन्ते शुभाशुभाः ॥
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ज्ञानयोगः ]
कर्मरूपप्रभोः शक्तिरचिन्त्या शर्मदुःखदा । आत्मनः शक्तितो भिन्ना, कर्मणः शक्तिरष्टधा ॥ आत्मरूपप्रभोर्माया, प्रकृतिरुच्यते मया । कर्मादीनाञ्च कर्तृत्वमात्मनो द्रव्यभावतः ॥ उपादानेन कर्त्तृत्वमात्मनामात्मसु ध्रुवम् । कर्मणाञ्चैव कर्तृत्वमुपादानेन कर्मसु ॥ कर्तृत्वं न च कर्माणि, शुद्धब्रह्मणि वस्तुत: । शुद्धब्रह्मस्वरूपे मे, कर्त्तृत्वमुपचारतः ॥ कर्तृत्वं नैव कर्माणि, जीवानां च सृजाम्यहम् । अज्ञानेनावृता लोकाः कुर्वन्त्यारोपतां मयि ॥ उपादानेन कर्तृत्वमात्मन आत्मनि ध्रुवम् । पर्यायाणां गुणानाञ्च, प्राकटथं परमात्मता ॥ नैमित्तिकं परापेक्षं, कर्त्तृत्वमौपचारिकम् । विश्वस्य मयि बोद्धव्यं, गीतं सर्वत्र भक्तिषु ॥ आत्मना क्रियते कर्म, स्वात्मना चैव भुज्यते । आन्तरदृष्टितः स्वात्ना, कर्त्ता भोक्ता च कर्मणाम् ॥ पुण्यं शुभाश्रवः प्रोक्तं, पापञ्चाशुभ आश्रवः । संवरस्तु द्वयो रोधो, निर्जरा कर्मशाटनम् ॥ कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षो, ज्ञानादिशक्तिभाजनम् ! मत्पदं मोक्षरूपच, शुद्धब्रह्म निगद्यते ॥ पुण्यभोगाश्रयः स्वर्गो, नरकं दुःखभाजनम् । सिद्धिः स्वर्गश्च मद्भक्त्या, पापाच्च नरकालयः ॥ जीवा यान्ति यथाकर्म, तथा स्थानं शुभाशुभम् । तत्र निमित्तमात्रोsहं, धर्माऽधर्मप्रदर्शनात् ॥
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[ पञ्चदशाध्याये मदाज्ञापालकत्वाच्च, खण्डनत्वात्तथा भुवि । जीवानां शर्मदुःखानां, दाताहमुपचारतः ॥ २३ सुखस्य हेतवो बोध्याः, पुण्यकर्मप्रवृत्तयः। दुःखस्य हेतवो बोध्याः, पापकर्मप्रवृत्तयः ॥ आसक्ला आश्रवो बोध्यो, निरासक्त्या च संवरः। शुभाऽशुभफलेष्वेव, निरासक्तिर्महात्मनाम् ॥ सर्वकर्त्तव्यकार्याणां, शुभाऽशुभफलेष्वपि । निरासक्तिर्महाधर्मो, मदाज्ञावर्तिनां भवेत् ॥ स्वाऽधिकारेण सर्वेषां, सर्वधर्म्यप्रवृत्तिषु । निरासक्तिः परा भक्तिः, सर्वकर्मविनाशिका ॥ सुखे हर्ष न कुर्वन्ति, दुःखेषु न विषादताम् । येषां चित्ते सदा साम्यं, वीतरागास्तपस्विनः ॥ -- २८ यादृशे तादृशे प्राप्ते, स्वाधिकारे प्रवृत्तिमान् । वैदेहभावयातः स, जीवन्मुक्तो गृही व्रती ॥ शुद्धात्मपरमानन्दभोगिनः पूर्णयोगिनः । मुक्ताः सर्वत्र निःसंगाः, प्रारब्धवेदिनोऽपि ते ॥ शुभपुद्गलपर्यायो, द्रव्यपुण्यं शुभं सदा । भावपुण्यं शुभोत्साहादिकमन्यक्रियात्मकम् द्रव्यभावात्मकं पापं, विचाराचारबन्धतः । शुभप्रीत्यादयः पुण्यहेतवश्चेतरेऽन्यथा ॥ मत्तः पुण्यानि जायन्ते, भक्तानां भक्तिभावतः। मुक्तिश्च सर्वभक्तानां, दुष्टानां नरकं तथा ॥ रागद्वेषवियुक्तत्वाद्वीतरागो विभुबली । साक्षिभावेन विश्वेषां, द्रष्टाऽहं सर्वतत्त्वविद् ॥
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मानयोगः] आविस्तिरःस्वभावेन, सर्वधर्माः प्रतिष्ठिताः। द्रव्येषु तान्यनादीनि, बोद्धव्यानि च तत्त्वतः ॥ अवादिसान्तता बोध्या द्रव्यपर्याययोगतः। सर्वद्रव्येषु भावानां, व्ययोत्पत्तिः प्रतिक्षणम् ॥ उत्पादः सर्वसृष्टीनां, सर्ग एव मयोच्यते । लय एव व्ययः प्रोक्तो, मम ज्ञाने जडात्मनाम् । द्रव्याणां ध्रौव्यभावोऽस्ति, नित्यो मत्सनातनः। पर्यायस्य व्ययोत्पादावेकैकसमये सदा ॥ लयसर्गस्वरूपोऽहं, परब्रह्मसनातनः । विश्वज्ञेयलयोत्पादा, मम ज्ञाने प्रतिक्षणम् ॥ ज्ञेयरूपादिभिन्नं तत्सर्व विश्वं सनातनम् । जडात्मव्यक्तितो भिन्नं, भिन्नाभिन्नविवक्षया ॥ सर्वशुद्धात्मरूपोऽहं, सत्तातोऽस्मि निरञ्जनः । व्यक्ताऽव्यक्तस्वरूपोऽहं, सच्चिदानन्दरूपवान् ॥ स्व-स्वरूपात्सरूपोऽहमरूपी पररूपतः । असंख्यातप्रदेशोऽहं, निराकारो महान्विभुः ॥ सर्वतोऽनन्तशक्त्याऽहं, षड्धा कारकचक्रवान् । लक्ष्याऽलक्ष्यस्वरूपोऽहमस्तिनास्तिस्वरूपवान् ॥ साकारोऽहं निराकारो, ज्ञानायत्तं जगन्मयि । जीवाऽजीवपदार्थानां, ज्ञापको रक्षकोऽस्म्यहम् ॥ नित्यात्मानः सदा ज्ञेया, मत्समा ज्ञानधारकाः। मत्तः सर्गो लयश्चैव, ज्ञेयानामौपचारिकः॥ दृश्यादृश्यमिदं ज्ञेयं, सर्व विश्वमनादितः। ज्ञान व्यापको विश्वे, जीवाऽजीवशिरोमणिः ।। .. ४६
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[ पञ्चदशाध्याये
मत्स्वरूपस्य गानानां, कारका भक्तिभाजकाः । ये प्रीत्या मयि संलीना, महाज्योतिः श्रयन्ति ते ॥ ४७ जीवाः पञ्चविधा ज्ञेया, एकेन्द्रियादिभेदतः ।
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आत्मानो द्विविधा ज्ञेयाः सिद्धाः सांसारिकास्तथा ॥ ४८ बहिरन्तः परात्मानस्त्रिधाऽशुद्धादिभेदतः । नैकधोपाधितो भेदा, जीवानां सन्ति सर्वदा || पुरुषार्थस्तथा कर्म, स्वभावो नियतिः खलु । कालः पञ्चेति विज्ञेया, हेतवः कार्यकारकाः ॥ स्वभावो वस्तुधर्मोऽस्ति, सर्वशक्तिनियामकः । अजीवानाञ्च जीवानामन्तर्वर्त्ती महाप्रभुः || स्वभावस्य परिज्ञाता, सर्वदेवशिरोमणिः । मदायत्तो महाकालो, मद्धर्माणां प्रवर्त्तकः ॥ व्ययोत्पत्तिस्वरूपोऽस्ति, महाकालो मदात्मनि । बोद्धव्यः सर्वसंवर्त्ती, पर्यायो मे चिदः सदा ॥ नियतिर्भाविभावः स्यादीश्वरेच्छा बलीयसी । महाशक्तिर्महासत्ता, भोग्यकर्मनिकाचना ॥ प्रारब्धकर्मपाकोऽस्ति, गुप्तशक्तिर्नियामिका । पर्यायाणां व्ययोत्पादा, सर्वकार्येषु वर्त्तिनी ॥ शुद्धात्मसर्वधर्माणां व्ययोत्पादस्य निश्चयः । परमा नियतिर्बोध्या, सर्वज्ञज्ञेयरूपिणी ॥ महेश्वरी महामाया, प्रभुशक्तिर्विवेकिनी । गुप्तशक्तिरकल्पाऽस्ति, नैसर्गिक्यस्ति सत्कला ॥ तिरोभावीयधर्माणामाविर्भावोऽस्ति सर्वतः । ते परब्रह्मणो ज्ञेयाः, पर्याया नियतेः खलु ॥
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कानयोगः] शुद्धात्माऽहं सदा भव्यायमानो जिनेश्वरः । सत्तातः सर्वजीवानां, शुद्धपर्यायवानहम् ।। वस्तुतः सर्वजीवानां, ज्ञानादिशुद्धपर्ययाः। मद्रूपास्ते विबोद्धव्यास्ततो भिन्नोऽस्म्यपेक्षया । आत्मनः शुद्धपर्याया, मत्समाः सर्वदेहिनः । मत्तङ्गेदो न जीवेषु, शुद्धात्मसत्तया मतः ॥ भूता भवन्ति पर्याया, भविष्यन्ति तथाऽपरे । परात्मवाच्यभावा ये, सर्वे मद्रूपवाचकाः ॥ नयैः सर्वैरहं ज्ञेयः, सत्प्रमाणस्तथा विभुः । सर्वतर्केरक्योऽहं, सदसदादिरूपवान् ॥ शुभाऽशुभपुरुषाथफलमुत्पद्यते क्रमात् । पुण्यं पापश्च तद्धेतू , रागाद्याः कर्मपर्वयाः॥ शुभाशुभपरीणामात् , सुखं दुःखञ्च देहिनाम् । तत्त्यागाद्देहिनां मुक्तिर्मद्रूपा शाश्वती भवेत् ।। सत्त्वरजस्तमोवृत्तिर्जीवानां जन्महेतुका। भववृक्षस्य मूलं सा, सर्वाऽवतारकारिका ॥ मनोवाकायसन्मूलं, सूक्ष्मादिदेहकारणम् । मोहादिकर्मणां सन्ति, प्रकृतयः स्वभावतः ॥ अदृष्टं हरिरिच्छा च, सत्तावद्विश्वभ्रामकम् । ब्रह्माविष्णुमहेशाद्या, अनेके कर्मपर्ययाः॥ पुरुषार्थः प्रयत्नश्च, सर्वशक्तिप्रचारकः । उत्पादकश्च संहर्ता, कर्मणां वीर्यवांस्तथा ॥ ईश्वरीयमहाशक्तिः , सर्वसामर्थ्यकारणम् । विष्णुशक्तिर्महावीर्य, आत्मधर्मः स्वभावजः ॥
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आध्यात्मिक महाशक्तो, जीवाऽजीवस्य जीवकः । प्रेरकः सवकार्येषु, व्यक्तजीवनजीवकः ॥ ईश्वरः प्रेरणाशक्तिः, कर्मकारकशक्तिमान् । पर्यायाणां व्ययोत्पादकारकः सर्ववीर्यवान् ॥ कर्मादिषु महाशक्तः, पुरुषार्थः प्रकीर्त्तितः । उद्यमः सर्वतः श्रेष्ठो, धर्माविर्भावकारकः ॥ मुख्यता पुरुषार्थस्य, कारणेषु स्वभावतः । मज्जनेषु शुभोद्योगो, जायते भक्तिभावतः ॥ पर्याया उद्यमस्यैते, ज्ञातव्या व्यवहारिभिः । क्रमेण कथिताः सर्वे, तथाऽनुक्ता गुरोर्मुखात् ॥ अधिष्ठानं तथा प्रागाः, करणश्चान्तरात्मनः । सर्वकारणसंयोगैः, कार्यसिद्धिः प्रजायते ॥ मनोवाक्कायद्योगैरात्मा कर्त्ताऽस्ति कर्मणाम् । संहर्ता परिनिर्वाता, विश्वकारकशक्तिमान् ॥ सर्वकार्यस्य सिद्धिः स्यात्, कालादिपञ्च हेतुभिः । कार्यरूपस्य विश्वस्य कर्त्तारः पञ्च हेतवः ॥ कार्यरूपं जगत्सर्व, विश्वपर्यारूपकम् । सादि सान्तं तथानाद्यनन्तरूपमपेक्षया ॥ जगत्पर्यायरूपेण, जीवाऽजीवस्वरूपकम् । कालाया ईश्वरा बोध्यास्तत्कर्त्तारः स्वभावतः ॥ अनाद्यनन्तकालीनं, जीवाऽजीवस्वरूपकम् । जगत्सर्व जनैज्ञेर्यमकर्तृत्वस्वभावकम् ॥ द्रव्यरूपं जगत्सर्व, तस्य कर्ता न विद्यते । अनाद्यनन्तकालीनं, वर्त्तते द्रव्यसत्तया ॥
[ पञ्चदशाध्याये
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ज्ञानयोगः ]
विश्व पर्यायरूपं यत्, तत्कर्ता द्रव्यभावतः । कालादिसंघरूपोऽस्ति, प्रभुः सर्वत्र शक्तिमान् ॥ कार्यरूपं जगत्सर्वमुत्पत्तिव्ययरूपकम् । श्रव्यं द्रव्यस्वरूपेण, जगत्सर्वं निबोधत ॥ कर्त्तृत्वं स्वस्वभावेन, सर्वद्रव्येषु वस्तुतः । अन्यनिमित्तकर्तृत्वमौपचारिकभावतः ॥ कार्यहेतुप्रवाहेण, कार्यसृष्टिविधायकः । कालादिसंघरूपोऽस्ति, प्रभुः स्रष्टा प्रतिक्षणम् ॥
कालकर्मादिहेतूनां संघ एव महाप्रभुः । पर्यायरूपविश्वस्य, लयोत्पादप्रवर्त्तकः ॥ कालकर्मादिहेतृनां संघः सृष्टिनियामक: । साकारश्च निराकारो, मज्ज्ञाने ज्ञेयरूपकः ॥ कार्यसिद्धिर्भवेन्नैव, कालादिसंघमन्तरा । कालादीनां पृथक्त्वेन, कार्यसिद्धिर्न जायते ॥ कालादिसंघरूपोऽस्मि, कथंचिन्नयबोधतः । ततो भिन्नः स्वभावेन तत्प्रबोधप्रवर्त्तकः ॥ कालादिषु महासत्ता, नियतिरेव वस्तुतः | वर्तनी सर्वविश्वेषु सर्वहेतुनियामिका ॥ तदायत्तं जगत्सर्वे, महादेवी निगद्यते । ज्ञातव्या मज्जनैः सम्यक्, सर्वविश्वनियामिका ॥ जीवाऽजीवजगत्सर्व, तदाज्ञाव्यापकं सदा । परब्रह्मादिजीवाश्च नियत्याज्ञाप्रवर्त्तकाः ॥
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नियत्याधीनकर्माचा, एव ब्रह्मादयः स्मृताः । नियतेः कार्यसिद्धत्वं ज्ञायते कर्मयत्नतः ॥
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[पञ्चदशाध्याये पुरुषार्थबलेनैव, कालाद्याः सर्वहेतवः। सानुकूलाः प्रजायन्ते, जीवानां कार्यसिद्धये ॥ अनाद्यनन्तकालीन विश्वकर्ता महाप्रभुः। कालादिपञ्चसंघोऽस्ति, लयोत्पत्तिधृवात्मकः ॥ मम ज्ञानबलादेव, विश्वचक्रप्रवर्तकाः । कालादीनां महासंघ, उपादाननिमित्तवान् ॥ समूहः पञ्चहेतूनां, मद्रूप औपचारिकः । ज्ञाताऽहमपि पञ्चानामतोऽस्मि सर्वतोऽधिकः ॥ मदन्तवर्तिपर्यायाः कालाद्याः सर्ववर्तिनः। ईश्वरादिपदार्हाणि, सर्वद्रव्याणि शक्तितः ॥ जीवाऽजीवपदार्थेषु, सर्वेषु धूर्यतां वहन् । सर्वविश्वसमुद्धर्ता, मत्तो नाऽन्योऽस्ति सद्विभुः ॥ १०० सत्कृपा धर्मरूपैव, कोपश्च पापमूलकः । पुण्यपापविपाकेन, धर्माऽधर्ममतिस्तथा ॥ धर्मरूपः प्रभुर्बोध्या, सदबुद्धयादिप्रकाशकः । वक्त्वाऽधर्मञ्च मद्भक्त्या, धर्म संयान्ति मन्जनाः ॥ १०२ सन्त एवेश्वराः प्रोक्तास्तत्कृपायुक्तमानवाः । मन्तव्या मत्कृपायुक्ताः, शीघ्रं यान्ति महत्पदम् ॥ १०३ गुर्वादीनां कृपा नास्ति, येषु ते पापबुद्धयः । मत्कृपार्थमयोग्यास्ते, सद्गुरुद्वेषकारकाः॥ उत्कटाऽधर्मकर्तारः, शीघ्रं दुःखस्य वेदकाः। देशे संघे कुले जातो, पापा उत्पातकारकाः ॥ . दयादानादिकर्त्तारो, यत्र देशेषु देहिनः । तत्र देशेषु शान्त्यादिहेतवो धर्मयोगतः॥
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ज्ञानयोगः ] अध्यात्मज्ञानयोगेन, देहिनां कर्मणां क्षयः। ... दर्शनज्ञानचारित्रप्राकटयञ्च प्रजायते ॥ अनन्तभवबद्धानां, विनाशं सर्वकर्मणाम् । करोत्येकक्षणे ज्ञानी, स्वात्मशुद्धोपयोगतः ॥ १०८ अनन्तकेवलज्ञानदर्शनानन्दभाजनम् । शुद्धात्मानं हृदि ध्यात्वा, ज्ञानी मुक्तिपुरीं व्रजेत् ॥ १०९ आत्मज्ञानाद्भवेज्ज्ञानी, तत्त्वाभ्यासरसी जनः । अन्तर्मुखोपयोगेन, तत्त्वज्ञानं प्रजायते ॥ जैनो जिनेन्द्रतां याति, पूर्णशुद्धोपयोगतः। नीतितो द्रव्यभावाऽरिजयाज्जैनो भवेजनः॥ १११ येनांशेन जयेन्मोहं, भवेज्जैनस्तदंशतः। जिनोपासनतो जैनः, स्वात्मा जैनो जिनस्तथा । ११२ द्वेषत्वं दुर्गुणेष्वेव, सदगुणेषु च रागता । भवेत्तस्याऽस्ति जैनत्वं, स्फुटमंशाद्यपेक्षया॥ ११३ आत्मज्ञानी भवेज्जैनो, यत्र तत्राश्रमे स्थितः। पुमान्वर्णेतरो वर्णी, स्त्री च सद्गुरुसेवनात् ॥ ११४ गुणस्थानकमारोह, आत्मशक्तिप्रवर्द्धकः। मिथ्यात्वादिक्रमोपेतो, जायते भव्यदेहिनाम् ॥ बहिरात्माऽन्तरात्मत्वं, याति मद्बोधरागतः। अन्तरात्मा स्वयंशुद्धः, परात्मा भवति ध्रुवम् ॥ ११६ एकात्मा बहिरात्मादिभेदात् त्रिधा प्रचक्ष्यते। जीवाः परात्मतां यान्ति, मयि विश्वासरागतः ॥ ११७ असंख्याताः शुभा योगा, ज्ञातव्या मुक्तिहेतवः। . योगेनैकेन संजाता, अनन्ता मुक्तिगामिनः॥ .. ११८
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[ पश्चदशाध्याय योगं परस्परं भिन्नमालम्ब्य मत्पदं श्रिताः। एकेनाऽध्यवसायेन, शुभेन शिवगामिनः ॥ स्वतोऽन्ययोगभेदेषु, स्वात्मवज्ज्ञानदृष्टितः । सिद्धाः सिद्धयन्ति सेत्स्यन्ति, चैकैकशुभयोगतः ॥ १२० अनन्ता भव्यजीवा ये, भिन्नयोगाऽनुसारिणः । मन्तव्या आत्मवत्सर्वे, योगिनः क्रमवर्तिनः ॥ १२१ आत्मरंगः परोत्कृष्टः, पूर्णब्रह्मरसायनः। सर्वयोगेन तं प्राप्य, मत्पदं यान्ति देहिनः ॥ १२२ आत्मोल्लासमहारंग, संप्राप्य सर्वयोगिनः । भिन्नाऽसंख्यनिमित्तेन, यान्ति शुद्धात्ममत्पदम् ॥ १२३ आत्मशुद्धमहारंगं, संप्राप्यात्मनि संस्थितः । अनुभूय परात्मानं, मुच्यते सर्वकर्मभिः ॥ .. १२४ सत्त्वरजस्तमोवृत्तिभिन्नात्मा सत्तया मतः । आत्मा शुद्धरसेनैव, मुच्यते सर्ववृत्तितः ॥ १२५ रागद्वेषक्षयान्मुक्तिः, सर्वधर्मस्थदेहिना । संप्राप्य वीतरागत्वमात्मा याति शिवं पदम् ॥
१२६. पुण्यं शुभकषायेण, शुभाचारेण जायते । दुष्टाचारविचारेण, पापबन्धः प्रजायते ॥ १२७ सत्वपुण्यसदाचाराज्जायते मुक्तियोग्यता। कर्मसु क्रियमाणेषु, देयं चित्तं परात्मनि ॥ १२८ सत्त्वरजस्तमोभेदैवुद्धेस्त्रविध्यमङ्गिनाम् । सेवाऽऽहारी त्रिधा ख्यातौ, त्रिधा सर्वक्रियोच्यते॥ १२९ शुभाऽशुभे. समावेशः, सत्त्वादीनां स्वभावतः ।। द्वित्वं त्रित्वं मदुक्तं तज्ज्ञातव्यं कर्मप्रकृतेः ॥
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ज्ञानयोगः] अनादिकालसंयोग, आत्मनः कर्मणा सह । आत्मनः सर्वथा कर्मक्षयान्मुक्तिः प्रजायते ॥ आत्मज्ञानेन मोहस्य, क्षयो भवति सर्वथा । अतो गुरोः कृपां प्राप्य, सलज्ञानं भजन्तु भोः ॥ १३२ आत्मज्ञानं यदा पक्वं, हृदि संजायते तदा । आत्मचारित्रधर्मस्य, प्राकटयं भवति स्वतः ॥ आत्मज्ञानबलात् प्राप्य, चारित्रं शर्मरूपकम् । ज्ञानानन्दस्वरूपोऽयं, मोक्षः स्वेनाऽनुभूयते ।। सर्वविश्वपदार्थानां, ज्ञानाऽनुभवयोगतः । आत्मोत्क्रान्तिर्भवेत्पूर्णा, केवलज्ञानदायिका ॥ येन पूर्णस्वरूपेण, ज्ञात आत्मा स्वभावतः। ज्ञातं तेन जगत्सर्व, लोकाऽलोकस्वरूपकम् ॥ १३६ श्रोतव्यः पूर्णबोद्धव्य, आत्मा पूर्णप्रकाशकः। सर्वविश्वस्य सारोऽयमन्तर्यामी परात्परः॥ १३७ शोधितव्यो महानात्माऽऽत्मनाऽऽत्मनि विभुः प्रभुः ॥ पूर्णानन्दमयः शुद्धः, दुःखातीतो रसोदधिः ॥ १३८ आत्मा निजखभावेन, पूर्णज्ञानाप्तयेऽखिले। विश्वे सर्वपदार्थानां, शालायां पठति स्वतः॥ १३९ ज्ञानवर्तुलसंघेन, क्षायिकज्ञानवान्स्वयम्। आत्मा भवति सर्वज्ञो, ज्ञानावरणनाशतः॥ १४० याक्ताहगवस्थायां, स्थितोऽपि ज्ञानयोगतः। भव्य आत्मोन्नतेार्गक्रमेणाचं व्रजेत्स्वयम् ॥ १४१ परीषहोपसर्गाद्या, अन्तरात्मप्रदर्शकाः। सम्यग्दृष्टया मनुष्याणां, भवन्ति सर्वरीतितः॥ १४२
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[ पञ्चदशाध्याये
जैनरूपं जगत्सर्व, सत्ताव्यक्तिस्वभावतः । जैनाः सर्वे जिनेन्द्राः स्युः, शक्तीनां व्यक्तियोगतः ॥ १४३ महावीरमयं विश्वं पश्यन्वीरो भवेज्जनः । आत्मानः स्युर्महावीरा, व्यक्तितः परमेश्वराः ॥ १४४जना गुरोः कृपां प्राप्य, प्रेमसेवाप्रभावतः । संत्यज्य बहिरात्मत्वमन्तरात्मस्वरूपकाः ॥ भवन्ति परमात्मान, आत्मशुद्धोपयोगतः । एवं विज्ञाय तत्त्वज्ञाः, साधयन्ति स्वशुद्धताम् ॥ आत्मनो बहिरानन्दः, कुत्राऽपि नैव जायते । आत्मन्येव स्वयं शोध्यः, पूर्णानन्दमहोदधिः ॥ आत्मैव सर्वथा ज्ञेयो, जिनो जैनश्च वस्तुतः | आत्मनः सर्वनामानि ब्रह्मादीनि निबोधताम् ॥ -- पर्यायाणां गुणानाञ्च, प्रादुर्भावो निजात्मनि । तदा कर्मक्षयो मुक्तिर्जायते पूर्णसिद्धता || सर्वेषां भव्यजीवानां, मुक्तियोग्यस्वभावता । अस्ति व्यक्तितया तेषां मुक्तिर्ज्ञानादितो भवेत् ॥ दर्शनज्ञानचारित्रगुणानां व्यक्तिभावतः । यस्य कस्यापि जायेत, मुक्तिस्तत्र न संशयः ॥ आत्मनि स्वात्मरङ्गेण, मुक्तिर्भव्यमनीषिणाम् । व्यक्तपूर्ण परब्रह्म, परात्मैव स्वयं भवेत् ॥
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स्वात्मैव परमात्माऽस्ति भव्या ! धारयतात्मसु । त्वं धाम सर्वशक्तीनां सर्वास्ताः प्रकटीकुरु ॥ आत्मनो व्यवहारेण, भेदास्ते नैव निश्चयात् । संग्रहनयसत्तात, एकात्मा परमेश्वरः ॥
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शानयोगः ] सर्वजीवस्थचैतन्यं, सर्वब्रह्म सदुच्यते।। ध्येयं तत्पूर्णभावेन, पूर्णानन्दप्रकाशकम् ॥ एकात्मा सर्वजीवानां, महाचैतन्यसत्तया । अनन्ता व्यक्तितो जीवा, असंख्यातप्रदेशिकाः॥ १५६ द्रव्यरूपं सदात्मानं, चिदानन्दगुणालयम् । पश्यन्तु पूर्णसद्ब्रह्म, भव्याः पर्यायभाजनम् ॥ १५७ अनाद्यनन्तकालीना, आत्मानः कर्मसंयुताः । रागद्वेषमहाकर्मक्षयाद्भवति सिद्धता ॥ अनाचनन्तकालीनं, जगद द्रव्यतयोच्यते । पर्यायाऽपेक्षया सादिसान्तं चानाद्यनन्तकम् ॥ पञ्चद्रव्यात्मकं विश्वं, विज्ञातव्यं विवेकतः। उत्पत्तिव्यययुक्तं यत्सद्व्यं तत्प्रचक्ष्यते ॥ द्रव्येषु ये तिरोभावाः, पर्यायाः सन्ति सत्तया। आविर्भावेन ते व्यक्ता, भवन्ति खस्वभावतः॥ पञ्चद्रव्यात्मविश्वस्योत्पत्तिव्ययौ स्वभावतः। लयस! विबोद्धव्यौ, ध्रौव्यश्च द्रव्यसत्तया ॥ देशपुण्यं तथा राष्ट्रपुण्यं संघेन यत्कृतम् । संघपुण्यश्च विज्ञेयं, सामाजिकश्च नैतिकम् ॥ ज्ञातिभिर्यत्कृतं पुण्यं, ज्ञातिपुण्यं प्रचक्ष्यते । नगरग्रामपुर्यादिकृतं, तेषां फलपदम् ॥ जातिभिर्यत्कृतं पुण्यं, जातिपुण्यं प्रचक्ष्यते। विश्वजीवैः कृतं पुण्यं, विश्वपुण्यं प्रकथ्यते ॥ .. १६५ शीघ्रफलप्रदं पुण्यं, तीव्रप्रीत्या च यत्कृतम् । मन्दखण्डमखण्डञ्च, पुण्याऽनुबन्धिपुण्यकम् ॥ १६६
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लघुपुण्यं महापुण्यमिहाऽमुत्रफलप्रदम् । पापानुबन्धिपुण्यञ्च, देवमानवपुण्यकम् ॥ लक्ष्मीणां प्रापकं पुण्यं, लक्ष्मीपुण्यं तदुच्यते । धर्माणां प्रापकं पुण्यं, धर्मपुण्यं मयोच्यते ॥ साधूनामन्नदानाद्यैः, पुण्यबन्धः प्रजायते । यदर्थे यैः कृतं पुण्यं तदर्थं तत्फलप्रदम् ॥ जीवैः पूर्वकृतं कर्म, भुज्यते स्वाऽन्यजन्मनि । तथेह तीव्रकर्माणि, फलन्त्येव नृणां स्फुटम् ॥ सर्ववर्णैः कृतं पुण्यं, वर्णपुण्यं निगद्यते । शस्ययज्ञैः कृतं पुण्यं, यज्ञपुण्यं मयोच्यते ॥ वर्षार्थ यत्कृतं पुण्यं वर्षापुण्यं निगद्यते । सकामं यच निष्कामं, कृतं फलति बीजवत् ॥ स्वात्मार्थ यत्कृतं पुण्यं, स्वात्मार्थ फलति ध्रुवम् । परार्थ यत्कृतं पुण्यं परेषां फलदं भवेत् ॥ पुण्यबन्धः प्रजायेत, पुण्यबन्धस्य हेतुभिः । जायते पापबन्धोऽपि देहिनां पापहेतुभिः ||
[ पञ्चदशाध्याये
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अनेक आन्तरा बाह्याः, पुण्यबन्धस्य हेतवः । अनेक आन्तरा बाह्याः, पापबन्धस्य हेतवः ॥ पुण्यकर्मविरुद्धाः स्युः, पापबन्धस्य हेतवः । पुण्यात्सुखं तथा पापाद्दुःखं सर्वत्र देहिनाम् ॥ राजसं तामसं पुण्यं, सात्त्विकं पुण्यमुच्यते । निकाचितं कृतं पुण्यं, क्षीयते भोगकर्मणा ॥ ज्ञानाद्यैः सर्वसद्योगैः, प्रशस्यपरिणामतः । पुण्यबन्धोऽस्ति जीवानां, पापबन्धस्तथेतरैः ॥
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नयोगः ]
सप्तक्षेत्र्यां सदा दानात, पुण्यबन्धश्च निर्जरा । आत्मज्ञानस्य दानेन, धर्मिणां रक्षणात्तथा ॥ सूरिवाचक साधूनामन्नवस्त्रादिदानतः । श्राद्धानां श्राविकाणाञ्च वात्सल्यादिककर्मभिः ॥ सर्वथा संघ सेवातो, जिनेन्द्राणाञ्च सेवनात् । पुण्यानुबन्धिपुण्यस्य, बन्धो भव्यमनीषिणाम् ॥ औषधदानयोगेन, रोगिणां रोगनाशनात् । बोधिबीजस्य दानेन, महापुण्यं समुद्भवेत् ॥ जैन धर्ममहा विद्यापीठानां सर्वभूतले । स्थापनात्पालनाच्चैव महापुण्णं मनीषिणाम् ॥ जैनधर्मस्य संघस्य, रक्षणात्सर्वशक्तिभिः । सर्वजातीयलोकानां, त्यागिनाञ्च मनीषिणाम् ॥ बन्धस्तीर्थकृतो नाम्नः, प्रान्ते मुक्तिः क्रमाद्भवेत् । मदुक्तं हृदये भव्या, धारयध्वं सुरागतः ॥ दुःखार्त्त सर्व जीवानामनाथानां विशेषतः । अन्नज्ञानादिदानेन कर्त्तव्या भक्तिरुत्तमा । परोपकारकार्येषु, भेदो धार्यो न मज्जनैः । आत्मभावेन सर्वेषां, सेवया पुण्यबन्धनम् ॥ जीवानां शस्यभावेन, महापुण्यप्रदायकम् । विज्ञाय कर्म मद्भक्तैः कर्त्तव्यं धर्म्यनीतितः ॥ पारतन्त्र्यमहादोषप्रं पापनिबन्धनम् । पापकर्म सदा त्याज्यं, शान्तिशर्भविनाशकम् ॥ धर्मार्थकाममोक्षाणां नाशकं पापमुच्यते । नीतिधर्म सदाचारनाशकं सर्वदेहिनाम् ॥
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[पञ्चदशाध्याये पापाचारविचाराणां, कृत्वा त्यागं मनीषिभिः । पुण्याचारविचाराणां, सेवा कार्याऽप्रमादतः ॥ १९१ जगत्येकमहासारा, जैनधर्मस्य सेवना। स्वर्गसिद्धिप्रदा ज्ञेया, सर्वपापविनाशिका ॥ १९२ आदिनाथादितीर्थेशै नधर्मः प्रकाशितः। तदाराधनयोगेन, स्वर्गसिद्धिर्भवेन्नृणाम् ॥ आत्मवत्सर्वलोकानां, स्वातन्त्र्यशर्महेतवे । दुःखिनां दुःखनाशार्थमुद्योगः पुण्यबन्धकृत् ॥ १९४ अनीतीनां विनाशेन, पुण्यबन्धः प्रजायते । पशुपक्षिद्रुमादीनां, रक्षातः पुग्यबन्धनम् ॥ सर्वजातीयपुण्यस्य, प्राप्तिः पापस्य नाशनम् । जायते सर्वलोकानां, जैनधर्मस्य सेवनात् ॥ .. १९६ विज्ञाय पुण्यपापस्य, हेतून्भव्या विवेकतः।। स्वाऽधिकारेण वर्तध्वं, जैनधर्माऽधिकारिणः ॥ १९७ जैनधर्मस्य साम्राज्यप्रगत्यर्थ विवेकतः। स्वाऽधिकारेण सेवध्वं, पुण्यकर्माणि सर्वदा ॥ कुर्वन्तु पुण्यकर्माणि, मज्जना व्यवहारतः । निष्कामानां सकामानां, कल्पोऽस्त्येवं मनीषिणाम् ॥ १९९ स्वाऽधिकारेण कर्माणि, कुर्वन्ति मन्जना बुधाः । आत्मज्ञान्यपि मोक्षार्थी, बाह्यतः पुण्यकारकः ॥ २०० परोपकारकायषु, यतध्वं स्वात्पभोगतः। . परोपकारः पुण्याथ, पापार्थ परपीडनम् ॥ २०१ सकामपरिणामेन, भवेद्वन्धो मनीषिणाम् । निष्कामपरिणामेन, बन्धो नैवाऽस्ति देहिनाम् ॥ . २०२
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शानयोगः ] शुभाऽशुभपरीणामान्मुक्तोऽपि मजनो भवेत् । हिताय सर्वलोकानां, कारकः पुण्यकर्मणाम् ॥ शुभाऽशुभपरीणामान्मुक्तानां कर्मयोगिनाम् । निर्लेपत्वं च मत्प्राप्तिः, कर्त्तव्यकर्मकारिणाम् ॥ २०४ संवरनिर्जराप्राप्तावात्मशुद्धिः प्रजायते। पूर्णशुद्धया भवेन्मोक्षः, सर्वेषां ज्ञानयोगिनाम् ॥ २०५ यादृशो यस्य संकल्पः, स्वपरार्थकृतो भवेत् । फलं तस्य भवेत्ताहग्विज्ञेयमिति मानवैः ॥ २०६ कृतः स्वार्थाय संकल्पः, फलति स्वार्थसिद्धये । पराथ क्रियमाणश्व, परेषां फलदायकः ॥ शर्मदाः शुभसंकल्पा, विपरीता अनर्थदाः।। त्यक्त्वाऽशुभाजनैर्भव्याः, सेव्याः कल्याणसाधकैः ॥ २०४ शुभाशुभविकल्पानां, संकल्पानाच वस्तुतः । अधिष्ठानं मनो ज्ञेयं, सर्वसंसारकारणम् ॥ २०९. स्वर्गश्वभ्राय लोकानां, मनोऽस्त्येव शुभाऽशुभम् । निर्विकल्पं मनो मुक्त्यै, विज्ञातव्यं विवेकतः ॥ २१० मयि मनोऽर्पणं कृत्वा, कर्म कुर्वन्ति ये जनाः। तेषां चित्तस्य संशुद्धिर्जायते मत्प्रभावतः॥ भक्ता भवन्ति निष्कामा, मयि चित्तप्रदायकाः। ज्ञानध्यानपरा भक्ता, योगिनो यान्ति मद्गतिम् ॥ २१२ मनोनाशाद्भवेन्मुक्तिः, पूर्णानन्दस्वरूपिणी । शुद्धात्मनि मनो देयं, पूर्णशुद्धात्मकांक्षिभिः ॥ २१३ शुद्धात्मैव महावीरः, स्वयं संबोधयाम्यहम् । सत्तातः परमात्माहमिति जानीत मानवाः॥ २१४
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[पञ्चदशाध्याये सर्वाऽर्हत्सिद्धरूपात्मा, सत्तातोऽहं जना हृदि । विज्ञाय व्यक्तरूपं स्वं, कर्तुमुत्तिष्ठत स्वतः ॥ २१५ कृतकर्मविपाकानां, भोक्तारः सर्वदेहिनः। धर्मादधर्मनाशोऽस्ति, सर्वत्र सर्वदेहिनाम् ॥ तत्त्वभेदाः समाख्यातास्तात्त्विकाचौपचारिकाः । भक्ता मेऽतिप्रियास्तत्त्वज्ञानिनो मत्परायणाः ॥ २१७ तत्त्वज्ञसूरयो बोध्या, जैनधर्मप्रचारकाः। मत्पदाधीशसूरीणां, तत्त्वज्ञानात्सदुन्नतिः॥ २१८ सर्वविश्वस्य कल्याणकारकं जैनशासनम् । वर्द्धयते सर्वतत्त्वज्ञैः, सूरिभिः साधुभिस्तथा ॥ तत्त्ववेदिमदाचार्यैर्मत्पदृस्थपरम्परैः । वद्धर्थते शासनं जैनविश्वकल्याणकारकम् ॥ गृहस्थत्यागिजैनास्तु, जयन्ति तत्त्वबोधतः । सर्वतत्त्वस्य सारं मां, वेत्तारो यान्ति मत्पदम् । २२१ सूर्यप्रकाशयोगेन, तमो नश्यति तत्क्षणम् । तथा मोहादिकर्माणि, नश्यन्ति ज्ञानयोगतः ॥ ज्ञानयोगसमो योगो, नैव भूतो भविष्यति । ज्ञानयोगस्वरूपोऽहं, सर्वयोगशिरोमणिः ॥ २२३ तत्त्वज्ञानमहायोगः, सर्वदोषनिवारकः । इच्छायोगेन संसेव्यो, हृदि चिन्त्यः पुनः पुनः॥ २२४ अहर्निशं तदाभ्यासः, कर्त्तव्यः पूर्णरागतः। ज्ञानान्मुक्तिं ब्रजेद्भव्य, आत्मचारित्रपूर्वकम् ॥ ज्ञानयोगेन मुक्तिस्तु, ज्ञानिनां तत्क्षणं भवेत् । प्राधान्यं सर्वयोगेषु, ज्ञानयोगस्य शाश्वतम् ॥ २२६
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ज्ञानयोग: ]
तत्त्वज्ञानमहायोगं, समासाद्य विवेकतः । भवन्ति परमात्मानो, लीनाः सन्तः परात्मनि ॥ तत्त्वज्ञानमहायोगो, जैनधर्मप्रवर्त्तकः । पार्श्वतीर्थेशतः पश्चान्मया सम्यक् प्रकाशितः ॥ आध्यात्मिकं स्वरूपं मे, शुद्धज्ञानस्वरूपतः । पूर्णज्ञानं समासाद्य, देहिनो मुक्तिगामिनः ॥ तत्त्वज्ञानं विना नास्ति, मद्रूपमन्यथा कदा | ज्ञानं यत्राऽस्ति तत्राहं, व्यक्तः सूर्यादिभासकः ॥ सर्वमुख्यस्वभावो मे, ज्ञानयोगः सनातनः । सिद्धाः सिद्धयन्ति सेत्स्यन्ति, जीवा ज्ञानप्रभावतः ।। २३१. पवित्रेषु पवित्रं मे, ज्ञानं सर्वप्रकाशकम् । सर्वत्र ज्ञानरूपेण, व्यक्तोऽहं देहिनां हृदि ॥ सर्वत्र ज्ञानयोगेऽहं सम्यक्त्वादिगुणालयः । जानन्ति ज्ञानयोगस्य, माहात्म्यं ज्ञानयोगिनः ॥ जातिनैव जरामृत्युरात्मनः सर्ववेदिनः । नैव चिह्ननं नरो नारी, नपुंसकश्च निश्चयात् ॥ ध्यातव्यः प्रापणीयश्चाऽन्तरात्मा सर्वशक्तिमान् । ब्रह्मरन्धे स्थिरं कृत्वा, प्राणवायुं मनीषिभिः ॥ शुद्धात्मनि स्थिरीकृत्य, मनोयोगपरायणैः । नामरूपात्मनोर्मोहं त्यक्त्वा च दुष्टवासनाम् ॥ पूर्णानन्तमहाज्योतिः, प्राकटयं सच्चिदात्मकम् । कर्त्तव्यं द्रव्यभावेन, षट्चक्रस्य प्रकाशतः ॥
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केवलं कुंभकेनैव, मनःसङ्कल्पशान्तता । कर्त्तव्या द्रव्यभावेन, यतो ज्योतिः प्रकाशते ॥
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-बाह्यान्तरविभेदेन त्राटकेनैव योगिना । मनःस्थैर्य समादाय, प्राप्तव्यं परमं पदम् ॥ बाह्यान्तरविभेदाया, धारणायाः प्रकर्षतः । ध्यानस्य सिद्धता कार्या, ध्यानाञ्चित्तसमाधयः ॥ मोहादीनां मनोवृत्तिविकाराणां क्षयेण ये । योगिभिरनुभूयन्ते, संख्यातीताः समाधयः ॥ समाधिर्मोहनाशेन, योगिभिरनुभूयते । शुद्धात्मानन्दभोगेन, मुक्तिप्रत्ययता भवेत् ॥ ज्ञानावरण मोहादिक्षयोपशमभेदजाः । समाधयो संख्याता, नित्यैकः क्षायिकः समः ॥ 'वैषयिकरसास्वादे, समाधिर्नैव देहिनाम् । भोगासक्तौ समाधिर्न, निरासक्तौ समाधिता ॥ कृष्णाद्या अशुभा लेश्याः, सन्त्यज्य चित्तसंभवाः । समालम्ब्य शुभा भव्यैश्चित्तवृत्तिसमाधये ॥ ध्यातव्यो भगवानेको, विश्वेशः सर्वशक्तिमान् । जिनेन्द्रोऽर्हन्महादेवः सदसदादिधर्मवान् ॥ रागद्वेषपरीणामक्षयादात्मसमाधिता । सञ्जायते तदा मुक्तिरात्मशुद्धिस्वरूपिणी ॥ मनोलयो भवेद्यत्र, समाधिस्तत्र जायते । सातयुक्तस्य चित्तस्य, समाधिर्नैव वस्तुतः ॥ मोहादिसर्ववृत्तीनां संक्षयादात्मशान्तये । ज्ञानादिजागृतिस्पष्टः, समाधिर्जायते स्वतः ॥ व्यक्ताव्यक्तस्वरूपेण, दर्शनज्ञानसम्पदः । आत्मसमाधियोगेन, जायन्ते योगिनां हृदि ॥
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[ पञ्चदशाध्याये
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शानयोगः ] कर्मसंगेन संसारः, कर्मनाशेन मुक्तता। रागद्वेषपरीणामः, कमैंव देहकारणम् ॥ कर्मनाशो भवेच्छीघ्रं, शुद्धब्रह्मसमाधिना। चित्तस्य निर्मलावस्था, समाधिः सुखदायकः ॥ २५३ आत्मानन्दो भवेद्वयक्तश्चित्तविक्षेपनाशतः। मोक्ष एव मया ख्यातः, स्वसंवेद्यः सदात्मनाम् ॥ २५३ सर्वकर्मक्षयो मोक्षा, प्रत्यक्षज्ञानगोचरः। मोक्षः शुद्धात्मरूपोऽयं, शुभोऽस्ति देहयोगतः ॥ . २५४ यावदंशेन नाशः स्यात् , कर्मणस्तावदंशतः । मोक्ष आत्मगुणादीनां, वेद्यः शब्दादिभिनयैः ॥ २ आद्यैस्त्रिभिनयैर्मुक्तिरपेक्षातो निजात्मनः । ऋजुसूत्रनयान्मोक्षो, मोक्षस्य परिणामतः ॥ २५६ शुभयोगो भवेन्मोक्षः, समनस्को निजात्मनि । जीवन्मुक्तिः सदेहेऽपि, योगिनां शर्मरूपिणी ॥ २५७ मिथ्यात्वमोहनाशेन, सम्यग्मुक्तिर्निगद्यते । यस्यां मुक्तौ विवेकेन, वर्तन्ते मजनाः खयम् ॥ २५८ अच्युतमुक्तिसंप्राप्तिजनानां देशयोगिनाम् । भुञ्जाना दिव्यसौख्यानि, वर्तन्ते भव्यदेहिनः॥ २५९ स्वर्गलोकः शुभा मुक्तिरत्यन्तपुण्ययोगतः। प्राप्यते धर्मिसंघेन, दिव्यदेहसुखात्मिका ॥ मनुष्याः पुण्ययोगेन, दिवि देवा भवन्ति ते । ईश्वरास्तत्र सर्वेऽपि, गीयन्ते दिव्यशक्तितः ॥ देवानामवतारास्तु, भवन्ति कर्मयोगतः। .. अवतीर्य मनुष्यादौ, पुनः कर्माणि कुर्वते ॥
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अन्तरात्मा स्वभावेन, सामीप्यं परमात्मनः । प्रपद्यते तदा मुक्तिः, सामीप्या गीयते मया ॥ शुद्धात्मभाव संप्राप्तावपि देहादियोगतः । प्रारब्धकर्म भोक्तृणां जीवन्मुक्तिः प्रचक्ष्यते ॥ समनस्काऽवगन्तव्या, मुक्तिर्मनः प्रवर्त्तिनाम् । निर्मनस्काsaगन्तच्या, मुक्तिर्मनोविनाशिनाम् ॥ मनोवाक्काययोगानां योगाच्छुद्धात्मरूपिणाम् । घातिकर्मक्षयोत्था सा, सयोगा मुक्तिरुच्यते ॥ मनोवाक्काययोगानां विनाशात्केवलात्मिका । कृत्स्नकर्मक्षयोत्था सा, निर्योगा मुक्तिरुच्यते ॥ श्रेष्ठाऽस्त्यपुनरावृत्त्या, निर्योगा सर्वमुक्तिषु । यत्र गत्वा परात्मानो, निवर्त्तन्ते न कर्हिचित् ॥ कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्ष, एवंभूतनयोक्तितः । सर्वनयोक्तमोक्षेषु, तस्य प्राधान्यमिष्यते || पूर्णशुद्धात्ममोक्षे तु, नयाः सन्ति न वस्तुतः । पूर्णशुद्धात्मसद्रूपं, वैखर्या नैव वर्धते ॥
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मोक्ष सौख्यं सदेहेन, शुद्धात्मनाऽनुभूयते । आत्मन्येवाऽस्ति मोक्षोऽयं, तस्मान्नान्यत्र विद्यते ॥ २७१ सिद्धात्मनां परं स्थानं, मोक्ष एव निगद्यते । प्रतिष्ठितं तल्लोकाग्रे, यत्राऽऽनन्त्यं परात्मनाम् ॥ शुद्धरूपं न मुञ्चन्ति वैकुण्ठाः परमेश्वराः । अनन्तज्ञानरूपेण, वैकुण्ठस्थानमाश्रिताः | शुद्धसंग्रह सत्तातः, सर्वसिद्धात्मनां स्वयम् । परमात्मा महानेक, उच्यते पूर्णतामयः ॥
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शानयोगा] आत्मैव शुद्धसिद्धात्मा, सत्तातः सर्वदेहिनाम्। मोक्षरूपं निजात्मानं, ध्यायन्ति ज्ञानयोगिनः॥ प्राणवायुं समाकृष्य, भ्रुवोर्मध्ये स्ववीर्यतः। मृत्युकाले वपुस्त्यक्त्वा, योगी मुक्तिं व्रजेत्स्वयम् ॥ २७६ यदा तदा ब्रजेत्प्राणो, देहस्थः सर्वरन्ध्रतः । तथाऽपि मोहनिर्मुक्तो, ज्ञानी याति ध्रुवं पदम्॥ २७७ यादक्तादृगवस्थास्थो, मनोवाकायचेष्टितैः । मृत्युकालं शिवंगामी, भवेत्स ज्ञानतो ध्रुवम् ॥ २७८. चित्तस्य विकलाऽवस्था, मृत्युकालेऽपि योगिनः । बाधार्थ जायते नैव, शुद्धात्मज्ञानहेतुतः ॥ दृष्ट्वा बाह्यान्तरं पूर्ण, शुद्धात्मानं विवेकतः । यदा तदा ब्रजेन्मोक्षं, योगी ज्ञानसमाहितः ॥ २८० चित्तग्रन्धि समुच्छेद्य, योगी ज्ञागासिना रयात् । बहिरन्तः समत्वेन, मुक्तिं याति न संशयः ॥ २८१ रागद्वेषात्मसंकल्पविकल्पानां विनाशतः। मुक्तात्मा जायते पूर्णज्ञानानन्दोदधिर्विभुः ॥ २८२ आत्मनः शुद्धपर्यायो, मोक्ष एव न संशयः । शुद्धात्मैव महामोक्षः, पूर्णात्पूर्णप्रकाशकः ॥ २८३ संपूर्णः केवलज्ञानी, बहिरन्तः परात्परः । अनन्तानन्तरूपात्मा, शुद्धबुद्धयाऽनुभूयते ॥ २८४ मनो वेत्ति न यब्रह्म तवेत्ति तत्क्षणं मनः । जागत्ति यन्मनोनाशे, परब्रह्म स्वयं सदा ॥ पञ्चभूतमयो देह, आत्मानं नैव वेत्ति यः। तं वेत्ति पूर्णरूपेण, चिदानन्दः सचेतनः ॥
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[ पञ्चदशाध्याचे जीवाऽजीवं जगत्ति, केवलज्ञानचक्षुषा। आत्मा स सर्वविश्वेशो, देहस्थोऽपि न देहवान् ॥ २८७ आत्मानं वेत्ति यो योगी, वीतरागः समाहितः । निष्क्रियः सर्वथा मुक्त, आत्मशुद्धोपयोगतः ॥ २८८ जायते म्रियते नैव, हन्यमानो न हन्यते। आत्मा नित्यः स विज्ञेयः, शुद्धनिश्चयदृष्टितः ॥ २८९ जातं मृतश्च यो वेत्ति, लघु स्थूलश्च चेतनम् । अज्ञानी स निजात्मानं, नैव वेत्ति स्वभावतः॥ देहस्थोऽपि न यो देही, चित्तभिन्नोऽस्ति वस्तुतः। आत्मा द्रव्यस्वरूपेण, नित्योऽजः शाश्वतो महान् ॥ २९१ सर्वसारमयं सत्यं, शुद्धब्रह्म हृदि स्थितम् । जानाति स महायोगी, जागर्ति निर्भयोऽचलः ॥ .. २९२ जगत्प्रेयो यदस्तित्वे, प्रियः स सर्वशक्तिमान् । पारो न गम्यते यस्य, बुद्धीनां सर्ववृत्तिभिः ॥ २९३ आत्मा स परिबोद्धव्यः, शुद्धबुद्धया मनीषिभिः। यस्य प्राप्तौ भवेत्प्राप्तिः, सर्वप्राप्तव्यवस्तुनः॥ दूरादूरतरो योऽपि, पार्धात्पार्श्वतरःस्थितः । शरीरेष्वशरीरः स, स्थिरोऽस्थिरेषु यः स्वयम् ॥ २९५ यस्मिल्लब्धेऽखिलं लब्धं, सर्वकामसमाप्तिता। जायतेऽध्यात्मयोगेशो, मुह्यति नैव वस्तुषु ॥ २९६ शुभाऽशुभपदार्थेषु, कल्पितेषु न मुह्यति । आत्मज्ञानी मनो जित्वा, वीतरागो भवेत्क्षमी ॥
२९७ श्रेयः प्रेयान्स्वयं स्वात्मा, न च भूतानि वस्तुतः। एवं ज्ञात्वा स्वयं धीरा, मुह्यन्ति क्षणिकेषु न ॥ २९८
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मानयोगः न
___ १८० शुद्धात्मनि यदा रागस्तदा बाह्यविरागता। चैमुख्यं काम्यभावनामात्मनि जायते क्रमात् ॥ क्षेत्रस्य क्षेत्रिणो ज्ञान, विज्ञानश्चोभयोः सदा । ऐक्यं जानाति योगी स, पूर्णानन्दी भवेत्स्वयम् ॥ ३०० क्षेत्रिरूपा गुणाः सर्वे, पर्यायाश्च स्वभावतः। आत्मा क्षेत्रं तयोरक्यं, जानात्येव स्वयं प्रभुः ॥ ३०१ क्षेत्रिक्षेत्रस्वरूपं यज्ज्ञानमद्वैतरूपकम् । परब्रह्मपदं पूर्ण, ददात्येव न संशयः ॥
३०२ मन्त्रतन्त्रचमत्कारा, विश्वजीवेषु वर्तिनः । आत्मोत्थिताः स्वभावेन, नाऽन्यत्किश्चिद्विभावय ॥ ३०३ आत्मोत्थिताश्चमत्कारा, आत्माऽस्ति शक्तिसागरः । ध्यानशक्तिप्रभावेण, यः सर्व कर्तुमीश्वरः ॥ ३०४ आत्मचेतनजीवाद्या, ब्रह्मशब्दस्य पर्ययाः। अन्येऽपि भावसाम्येन, ब्रह्मवाच्यार्थसंगताः॥ ३०५ मत्पदं सिद्धमुक्ताहन्मत्स्वरूपादिवाचकाः। शुद्धबुद्धादिपर्यायाः, परब्रह्मनिवेदकाः ॥ स्वाभाविकनरो देवो, नारी देवी च शाश्वती। शुद्धपर्यायरूपेण, प्राकट्यमात्मनि द्वयोः॥ चतुर्दशात्मके लोके, सर्वे भावा यथास्थिताः। तथा मानवपिण्डेऽपि, ज्ञेया अध्यात्मरूपतः ॥ ३०८ निश्चयव्यवहाराभ्यां, क्षेत्रक्षेत्रिस्वरूपताम् । जानाति स भवेज्ज्ञानी, मृत्यु तीत्वा शिवं ब्रजेत् ॥ ३०९ नयसापेक्षबोधेन, सम्यग्ज्ञानं भजेजनः । आत्मपरात्मनोरक्य, कृत्वा ब्रजति सिद्धताम् ॥ . ३१०
स्थताः।
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१८८
दर्शनज्ञानचारित्राऽभ्यासोऽनेकभवार्जितः । तत्संस्कारैश्च शुद्धात्मा, याति सिद्धिं परं पदम् ॥ सर्वनामस्वरूपोऽहं सर्वकर्मादिकारकः । औपचारिकरूपोऽहं, तथा शुद्धस्वभाववान् ॥ बाह्यतो बाह्यरूपोऽहमान्तर आत्मरूपतः । शुद्धनिश्वयतो लक्ष्यो, बाह्यतो नैव लक्ष्यवान् ॥ उद्भवन्ति नयाः सर्वे, मत्तो यान्ति लयं मयि । मीयमानो नयैः सर्वैर्मत्तो भिन्ना नयास्तथा ॥ दृश्यादृश्यस्वरूपोsहं, सर्वशास्त्रप्रकाशकः । सर्वधर्मस्वरूपोऽहं सर्वधर्मिस्वरूपवान् ॥ सर्वपूज्यैरहं पूज्यः, सर्वपूजकपूजकः । द्वैताऽद्वैतस्वरूपोऽहं सर्वदर्शनरूपवान् ॥
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सर्वचेतन रूपोऽहं संग्रहनयसत्तया । भिन्नोऽहं व्यवहारेण, जीवेभ्यो व्यक्तिभेदतः ॥
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[ पञ्चदशाध्याये
नयानां दृष्टिभिर्दृष्टा, दृश्यरूपो ह्यपेक्षया । नयानां दृष्टिवादानां स्रष्टाऽहं स्वस्वभावतः ॥ सर्वजातिविचारास्ते, नया एव मनीषिणाम् । शुभा एव नया बोध्या, अशुभाश्च विवेकतः ॥ शुभाशुभा नयाः सर्वे, सर्वजीवोद्भवाः खलु । सूक्ष्मसृष्टिस्वरूपास्ते, विज्ञेया नयकोविदैः ॥
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असंख्याता अनन्ताश्च, नया अध्यवसायतः । आत्मनि येन संज्ञाता अनुभूताः स केवली ॥ नयानां सर्वसापेक्षज्ञानाऽनुभवयोगतः । अज्ञानस्य भवेन्नाश, आत्मज्ञानं प्रकाशते ॥
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झानयोगः] नयसापेक्षबोधेन मिथ्यावुद्धिविनश्यति । । नैगमादिनयैः सम्यग्भावज्ञानं प्रकाशते ॥ .. सर्वधर्मादिशास्त्राणां, नयदृष्टिविचारणात् । नयसापेक्षसत्येन, सम्यग्ज्ञानं प्रकाशते ॥ उद्भवन्ति नयाः सर्वे, चेतने ज्ञानरूपिणः। सम्यग्दृष्टिन जायेत, नयानां ज्ञानमन्तरा ॥ .. नयानां ज्ञानयोगेन, सर्वदर्शनमोहता। .. नश्यति तत्क्षणादेव, तमः सूर्योदयाद्यथा ॥ सर्वधर्मविचाराणां, समावेशो न येषु हि । अतो नयैर्विना धर्मा, ज्ञायन्ते नैव कैरपि ॥ परस्पराणि युद्धानि, धर्माणां यानि भूतले । नयसापेक्षबोधेन, शाम्यन्ति तानि सत्वरम् ॥ यदात्मनि नया व्यक्ता, भवन्ति ज्ञानरूपिणः । तदात्मा सर्वधर्माणां, रहस्यं वेत्ति वस्तुतः॥ नयानां पूर्णवोधेन, जैनधर्मोपदेशकः । गीतार्थो जायते साधुधर्ममार्गप्रचारकः ॥ सविकल्पात्मरूपास्ते, नयाः सन्ति स्वभावतः । निर्विकल्पात्मरूपे तु, नयानां न प्रचारणा ॥ विकल्पाः सर्वसंकल्पा, नया एव विचारतः । मतिश्रुते नया एव, शुद्धात्मा निर्विकल्पकः ॥ निर्विकल्पक शुद्धात्मा, परात्मैव स्वभावतः। हृदि प्रकाशते पूर्णो, नयानुभवपाकतः ॥ यत्र सापेक्षता पूर्णा, निश्चयव्यवहारतः । तत्राचारविचारेषु, जैनधर्मो भवेत्सदा ।।
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[ पञ्चदशाध्यायो सर्वजातिनया जैनधर्मज्ञानस्वरूपकाः । आत्मैव जैनधर्मोऽस्ति, नयदर्शनरूपकः ॥ सविकल्पोऽविकल्पश्च, जैनधर्मः सनातनः । आत्मैव जैनधर्मोऽस्ति, श्रुतचारित्ररूपकः ॥ गुरुदेवस्वरूपोऽस्ति, आत्मैव धर्मरूपकः । आत्मैव श्रीमहावीरः, सत्ताव्यक्तिस्वभावतः ॥ ३३७ नयसापेक्षबोधेन, व्यक्तिज्ञानं प्रजायते। सत्ता व्यक्तिस्वरूपेण, जयताज्जैनदर्शनम् ॥ ३३८ इति श्रीजैनमहावीरगीतायां श्रीज्ञानयोगनामकः
पञ्चदशमोऽध्यायः समाप्तः
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षोडशाध्याये योगोपसंहारयोगः
आत्मोन्नतिकरा योगाः, शुद्धात्मसिद्धिसाधकाः । योगानालम्ब्य भो भव्याः, संप्राप्नुत शिवश्रियम् ॥ आत्मा क्षायिकभावेन प्राप्नोति परमात्मताम् । उपादाननिमित्तैर्योगास्ते भणितास्ततः ॥ उपादानस्य शुद्धयर्थं, निमित्तेष्वस्ति योगता । असंख्यातेषु योगेषु, महायोगाः प्रकीर्त्तिताः ॥ तत्राऽपि दर्शनज्ञानचारित्राणि विशेषतः । मुक्तेः संयोजनाद्योगा, मयोच्यन्ते जगत्त्रये ॥ आत्मनः परमात्मत्वं, सत्तातोऽनादिकालतः । प्राकटयं तस्य यैर्भूयात्, ततो योगाः प्रकीर्तिताः ॥ चित्तं शुद्धात्मनि व्यक्तं युज्यते येन हेतुना । योगो मयोच्यते तेन, केवलज्ञानदर्शिना ॥ रागद्वेषात्मचित्तस्य, पूर्णनाशो भवेद्यतः । स योगो भण्यते शुद्धः सर्वकर्मविनाशकृत् ॥ मनोवाक्काय सामर्धकारको योग उच्यते । व्यवहारविवेकेन, ज्ञातव्यं सर्वमानवैः ॥ निश्चयव्यवहाराभ्यां योगा बहुविधाः शुभाः । स्वाधिकारेण संसेव्या, विश्वस्थसर्वमानवैः ॥ योगाः कदापि नो त्याज्या, निश्चयव्यवहारिणः । व्यवहारेण संप्राप्तिर्निश्वयस्य भवेद्यतः ॥
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दर्शनज्ञानचारित्रयोगेषु शुद्धभावतः । लयो भवति सर्वेषां सद्योगानामपेक्षया ॥ स्वाऽधिकारेण संप्राप्तयोगस्य साधनं शुभम् । संप्राप्तयोगसंत्यागादधर्मो जायते नृणाम् ॥ परित्यज्य प्रमादान्भो, भव्या जागृत जागृत । सर्वकर्त्तव्यकार्यार्थ प्रेम्णोत्तिष्ठत मज्जनाः ॥ सर्वकर्त्तव्ययोगेषु, लोका जागृत वेगतः । जैनधर्मप्रचारार्थ, कुरुध्वं स्वापणं मुदा ॥ बलावेगेन जैनानां, वृद्धयर्थं जागृत स्वयम् | लक्ष्म्यादीनां बलस्यैक्यं कृत्वोत्तिष्ठत सर्वतः ॥ सर्व जैनबलस्यैक्यं कृत्वोत्तिष्ठत रागतः । जैनविद्यालयादीनां स्थापनं कुरुत स्वयम् ॥ जैनानां शक्तिवृद्ध्यर्थ, दानं विद्यादिकर्मसु । कर्त्तव्यं पूर्णरागेण, तत्रोत्तिष्ठत जागृत ॥ जैना जागृत मद्रागाज्जैनधर्मस्य वृद्धये । देहमोहं परित्यज्य, कर्माणि कुरुत द्रुतम् ॥ आत्मनः परमात्मत्वं, व्यक्तं कुरुत वो
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द्रुतम् ।
मनोवाक्काययोगानां साधनैरप्रमादतः ॥
सतताभ्यासयोगेन, कार्यसिद्धिः प्रजायते । देहाध्यासं परित्यज्य, प्रेम्णोत्तिष्ठत मानवाः ॥ मदुक्तसर्वयोगानां शङ्काः सन्त्यज्य मानवाः । पूर्णश्रद्धां समालम्ब्य कुरुध्वं वर्त्तनं जनाः ॥ सर्वशक्ति वरान्प्राप्य, सर्वलोकान्प्रबोधत । सर्वविश्वोन्नतिः सत्या, मर्मज्ञानतो भवेत् ॥
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योगोपसंहारयोगः ] विधर्मिसर्वलोकानां, स्पर्धायां मजनैः सदा । देशकालाऽनुयोगेन, स्थातव्यं शक्तियुक्तिभिः ॥ इत्याज्ञा सर्वदा मेऽस्ति, भाविजैनोन्नतिप्रदा । सांप्रतं सर्वसंघेन, वर्तितव्यं प्रयत्नतः॥ उक्तयोगान्समालम्ब्य, जैना यान्ति महोन्नतिम् । मदाज्ञावत्तिनां नृणां, विनिपातो न जायते ॥ परस्परविरोधेऽपि, जैनैर्मद्रागिभिः सदा । परस्परसहायार्थ, प्राणा देयाः प्रयत्नतः ॥ परस्परविरोधानां, कृत्वा नाशं मनीषिभिः। कलौ विधर्मिणामग्रे, स्थेयं सत्तादिशक्तिभिः॥ देशकालाऽनुसारेण, शक्तिवर्धककर्मभिः । स्थातव्यं मां समासाद्य, सर्वदेशस्थमजनैः ।।.. स्थातव्यं सर्वदेशेषु, जीविकादिप्रसाधनैः। . अन्नादिसर्वसामग्री, प्राप्या सर्वप्रयत्नतः ॥ सर्वविद्याकलोपेतं, संघोन्नतिप्रसाधकम् । गृहस्थं प्रमुखं कृत्वा, क्षात्रादिशक्तिधारिणम् ॥ गृहस्थजैनसंघेन, देशकालाऽनुसारतः । जैनधर्मस्य साम्राज्य, रक्षितव्यं मदाज्ञया । गृहस्थत्यागिजैनानां, महासंघेन रागतः। मत्पट्टे त्यागिसूरीशः, स्थाप्यो मान्यश्च मत्समः ॥ जैनधर्मस्थसाम्राज्यविवृद्धयर्थं तदाज्ञया । वर्तितव्यं मदावं, सर्वसंघेषु सर्वदा ॥ चतुर्विधमहासंघप्रमुखैहिसाधुभिः। .. जैनसंघप्रगत्यर्थ, वर्तितव्यं स्वशक्तिभिः॥
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[ षोडशाच्या गृहस्थास्त्यागिनो लोका, धर्मार्थ जागृत स्वयम् । प्रेम्णोत्थाय मदाज्ञातो, वर्तध्वं योगकर्मसु ॥ चतुर्विधमहासंघा, मत्पश्चात्सर्वशक्तितः। जागृत धर्मकर्माणि, कुरुत स्वाऽधिकारतः ॥ आत्मनः पूर्णसहोघं, कृत्वोत्तिष्टत वेगतः। परस्परं नतिं कृत्वा, वर्तध्वमेकरूपतः ॥ गृहागतमनुष्याणामनाथाशक्तदहिनाम् । निराधारादिलोकानामन्नायं दत्त मानवाः॥ साधर्मिकमनुष्याणां, भक्तिसन्मानतः सदा । अन्नवित्तादिभिः सेवा, कार्या च ब्रह्मदानतः॥ जैनराजादिसम्मानः, कर्तव्यो मज्जनैः सदा । मद्वज्जैनमहीनाथैः, कार्य संघस्य रक्षणम् ॥ - रक्षणं ब्राह्मणादीनां, सदा कार्य परस्परम् । धर्म्ययुद्धप्रसङ्गेषु, कार्य जैनैर्विशेषतः॥ अन्नवित्तादिभि नै ना रक्ष्याः परस्परम् । मच्छासनस्थजैनानां, मदाज्ञैवं शिवप्रदा ॥ देशकालाऽनुसारेण, जैनानामुन्नतिर्यतः। तत्तत्कर्माणि सेव्यानि, धर्म एष सनातनः ॥ अन्नवित्तादिदानं तु, जैनेभ्यो धर्मवृद्धये । जिनोऽहं सर्वजनेषु, विश्वरूपेण संस्थितः ॥ यूयं संमील्य भुञ्जीध्वं, कृत्वैक्यं धर्मकर्मसु । सर्ववर्णीयजैनानामैक्यमस्तु भुवस्तले ॥ सर्वेण चैक्यरूपेण, साई संमील्य रागतः। जीवाम इति विज्ञाय, जैना मां प्रतिपद्यतः ॥
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योगोपसंहारयोगः ]
चतुर्विधमहासंघा, भक्तिरागेण जागृत । सर्वत्र सर्वलोकानामुन्नतिं कुरुत द्रुतम् ॥ सर्वयोगेश्वरं पूर्ण, मां विज्ञायाशु जागृत । आत्मनि सर्वयोगाः स्युर्विज्ञायोत्तिष्ठत द्रुतम् ॥ प्राकट्य मात्मशक्तीनां भव्याः कुरुत वेगतः । आत्मध्यानप्रभावेण, गुप्तज्ञानं प्रकाशते ॥ प्रकाशितादपि ज्ञानादनन्तज्ञानगुप्तता । तत्प्रकाशो भवेद्वयानात्ततो वाणी निवर्त्तते ॥ आत्मज्ञानप्रकाशार्थ, शीघ्रं जागृत जागृत । आत्मध्यानसमाध्यर्थ, प्रेम्णोत्तिष्टत मज्जनाः ॥ रक्षणं सर्वतीर्थानां कुरुध्वं स्वात्मभोगतः । जैनराज्यादिसाम्राज्यं, रक्षत मज्जना भुवि ॥ युष्माकमैक्यरक्षार्थ, ध्यानं मे कुरुत द्रुतम् । क्षुद्रभेदान् परित्यज्य मां सर्वेषु निभालत ॥ हठ लयं तथा मन्त्रं, राजयोगं च शक्तितः । सेवध्वं सर्वयोगेन प्राप्योऽहं परमेश्वरः ॥ नाऽहं वदामि रागेण, नाऽहं द्वेषादिना तथा । सत्त्वरजस्तमोमुक्त वीतरागो जिनेश्वरः ॥ वीतरागो महावीरः, केवलज्ञानदर्शनी । लोकानामुपकारार्थे, सर्वयोगानुपादिशम् ॥ नाऽहं वदामि मोहेन, पूर्णमोहविनाशकृत् । यथा सर्वोन्नतिर्नृणां स्यात्तथा वच्मि युक्तितः ॥ लोकानामुपकारः स्याद्यथा योगास्तथा मया । व्यवहारविवेकेन, भाषिता मुक्तिसाधकाः ॥
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अहमित्यादि भाषा तु, भाषिता व्यवहारतः । वीतरागोऽपि लोकानामुपकृत्यै वदाम्यहम् ॥ -विश्ववर्त्तिमनुष्याणामुद्धारार्थ वदाम्यहम् । मत्तद्वेदो मदुक्तो यो, विवेकार्थे स देहिनाम् ॥ मयोक्तं तत्र मोहस्तु, नास्तिकानां भवेद्दृथा । आस्तिका नैव मुह्यन्ति, मदुक्तिषु विवेकिनः ॥ - व्यवहारो न मोक्तव्यः, सूरिवाचकसाधुभिः । गृहस्थैस्तु विशेषेण, जैनधर्मस्य पालकैः ॥ जैनधर्मस्य साम्राज्यं व्यवहारेण रक्ष्यते । व्यवहारस्य नाशेन, तीर्थनाशो भवेत्खलु ॥ चतुर्विधमहासंघो, व्यवहारनयं विना । जीवति नैव कुत्रापि, जैना एवं विजानताम् ॥ ज्ञानिनोऽपि महासन्तः, पूज्यन्ते व्यवहारतः । उपदेशप्रवृत्तिस्तु, माताऽस्ति निश्चयस्य सा ॥ वंशपरम्पराधमे, व्यवहारात्प्रवर्त्तते । व्यवहारं विना ज्ञानं, शुष्कं धर्मविनाशकम् ॥ धार्मिकव्यवहाराणां शुभाचारप्रवर्त्तनम् । स्वाऽधिकारेण संसेव्यं ज्ञानिभिर्गृहिसाधुभिः ॥ जैनाचाराः सदा सेव्या, जैनधर्मप्रवर्त्तकाः । -पूजादानत्रतादीनां, सेवनं कर्मनाशकम् ॥ आत्मज्ञानिमहासन्तः श्रुतचारित्रसाधकाः । वर्त्तन्ते व्यवहारेण, विश्वोपकारहेतवे ॥ सर्वज्ञेन मया विश्व हितार्थं त्रिकयोगतः । धर्मरूपव्यवहारः क्रियते स्वाऽधिकारतः ॥
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योगोपसंहारयोगः ]
यदाचरति तीर्थेशस्तदन्ये धार्मिका जनाः । आचरन्ति सदाचार, धर्मप्रवाह हेतवे ॥
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जैनधर्मसमुद्धारः सर्वयोगैः कृतो मया । विश्वोद्धाराय मद्भक्तैवैर्त्तितव्यं तथा सदा ॥ संसारिणां प्रबोधार्थमनेकनयगर्भिता । मदुक्तिस्तत्र शङ्का तु कर्त्तव्या नैव मोहतः ॥ सर्वज्ञेन मयोक्तं यत्तत्सर्वं श्रद्धया जनाः । स्वीकृत्य स्वाऽधिकारेण कुरुध्वं स्वात्मशुद्धताम् ॥ पक्षपातो न मे किञ्चिद्धर्मस्य व्यवहारतः । धर्मिणां मोक्षदाताऽहैं, महावीरो निमित्ततः ॥ स्वस्वकर्माऽनुसारेण, पुण्यपापानुसारतः । सुखदुःखानि भुञ्जन्ति, धर्मिणश्च विधर्मिणः ॥ तत्र निमित्तभूतोऽहं धर्माऽधर्मप्रदर्शनात् । ततः कर्त्रादिरूपेण, गीयतेऽहं जनैः सदा ॥ मोहादिकर्मणां नाशो, योगाभ्यासेन जायते । पापनाशो भवेच्छीघ्रं तथैव पुण्यबन्धनम् ॥
योगानां साधने भव्या, भवन्तु तत्पराः सदा । तत्राऽधिकारिणः सर्वे, सर्वविश्वस्थमानवाः ॥ मिथ्यात्वस्य जयाज्जैनाः, सर्वयोगाऽधिकारिणः । मत्कृपापात्र जैनानां, योगाऽवाप्तिर्युतं भवेत् ॥ जैना जागृत भो भव्या, मयि विश्वासधारिणः । शीघ्रमुत्तिष्ठत क्षेमं कर्तुमुत्साहसंयुताः ॥ यावन्मयुक्तबोधानामावेगः शौर्य भाग हृदि । तिष्ठेद्रागेण युष्माकं तावशुष्मत्समुन्नतिः ॥
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उद्भावयन्तु धर्मस्य, शौर्य जैनाः सदा हृदि । मदुक्त योगसामर्थ्यान्मङ्गलं वः पदे पदे ॥ अहं देवो महासंघो, जैनधर्मः सनातनः । एतत्त्रिमूर्त्तिकं पूर्ण, कुर्याद्रो मङ्गलं सदा ॥ दर्शनज्ञानचारित्रत्रिमूर्त्तिरात्मरूपिणी । व्यक्तभावेन संजीयात्सर्वजीवेषु जीविनी । श्रवणं वाचनं कार्य, मङ्गीताया विशेषतः । त्यागिसूर्यादिपार्श्वे च गृहत्थगुरुसन्निधौ ॥ आहत सर्ववेदानां वेदान्तानां विशेषतः । स्वाध्यायश्रवणं कार्य, प्रत्यहं भव्यदेहिभिः ॥ धर्माचार्यगुरोः पार्श्वे, मदाज्ञैवं विशेषतः । कर्त्तव्या शास्त्र संरक्षा, सर्वोपायैर्मदाश्रितैः ॥ मदन्तेवासिभिः सर्वैर्गणेशैज्ञानमूर्त्तिभिः । सन्निबद्धागमादीनां श्रद्धा कार्या मनीषिभिः ॥ नीतयः स्मृतयो भव्या, गोतमश्रेणिकादिभिः । निबद्धा जैनराष्ट्रादिसाम्राज्यस्थापकाः शुभाः ॥ तच्छ्रद्धाव्यवहारेण कर्त्तव्यं वर्त्तनं शुभम् । सर्वैः साम्राज्यरक्षार्थ, सर्वत्र मज्जनैः सदा ॥ श्रीनेमिपार्श्वयोः काले, विद्यमानागमादयः । अस्तित्वमधुना तेषां मान्यास्ते मज्जनैः सदा ॥ जैनधर्माविरोधेन, मत्पश्चाद्वर्त्तिसाधुभिः । ये ये ग्रन्थाः करिष्यन्ते, माननीया विवेकतः ॥ भाविषु धर्मशास्त्रेषु, परस्पराऽविरोधतः । 'बर्त्तितव्यं सदा जैनैः, स्वीकृत्य तत्त्वसारताम् ॥
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योगोपसंहारयोग: ]
निगमागमशास्त्रेषु, मद्गीतां पञ्चमारके । मुख्यभावेन संमान्य, वर्त्तितव्यं यथा तथा ॥ गणयिष्यन्ति मगीतां, प्रेम्णाऽभ्यस्यन्ति ये नराः । मनोऽभीष्टमास्यन्ति, सुयोगं शुभशर्म च ॥ श्रद्धया भक्तिदानेन, गीतां शण्वन्ति ये जनाः । वाचयन्ति च मद्वाम प्राप्नुवन्ति गुणालयम् ॥
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मगीतां मत्समां मत्वा, पूजयिष्यति यो नरः । बर्त्तिष्यते च तद्रीत्या, मदभिन्नो भविष्यति ॥ यः पठेत्पाठयेदन्यं शृणोति श्रावयत्यथ । विस्तारयति मद्गीतां, सत्यभक्तः स चोत्तमः ॥ रागादयः प्रलीयन्ते, दुर्बुद्धिश्च विनश्यति । तस्य मच्छक्तिरूपां यो, गीतां मन्येत तास्विकीम ॥ घोरपातककर्त्ता यः, पापिनामग्रणीस्तथा । गीताभ्यासरतः सोऽपि, मुक्तिमाप्नोति वेगतः ॥ मत्पूजाज्ञेोपदेशेषु सर्वेषामर्हतां यके । आज्ञापूजोपदेशास्ते, लीयन्ते भूतभाविनाम् ॥ गीता पाठकसद्भक्तौ, मद्भक्तिर्लीयते सदा । इत्थं विज्ञाय मद्भक्ता, वर्त्तन्ते हितसाधकाः ॥ मगीताद्वेषिणो लोका, दुर्गतिद्वारगामिनः । मिथ्यात्वनास्तिका लोका, मज्जन्ति भववारिधौ ॥ गीतां प्रवाच्य मक्ता, भक्षयन्ति निशम्य च । दिवसे मज्जपासक्ता, दानं दत्त्वा च भुञ्जते ॥ गीतायाः पठनेनैव, सर्वधर्मः प्रकाशते । क्षीयन्ते घोर पापानि, वाचन श्रवणादिभिः ॥
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[ षोडशाध्याये सर्वशक्तिप्रदा गीता, सर्वमङ्गलदायिनी। यत्र गीता प्रपठयेत, तत्र नो पापसंगतिः ॥ १०७ गीतायोगप्रभावेण. प्राप्नुवन्ति नरादयः। पुत्रपुत्रीमहालक्ष्मीनिंत्रादिस्वजनांस्तथा ॥ . . १०८ मनोऽभीष्टानि लभ्यन्ते, तथा सर्वमहोन्नतिः। . कलौ मत्सदृशी गीता, सुखदा सर्वदेहिनाम् ॥ - १०९. युगप्रधानसूर्याद्याः, साव्यश्च मदुपासकाः। ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः, शूद्राः स्युः शक्तिशालिनः॥ ११० सुखसंपत्तिसंभारो, यथोक्तमार्गगामिनाम् । मङ्गलानि जयादीनि, लक्ष्मीलीला च शाश्वती॥ १११ सर्वदेवास्तथा देव्यो, मत्सेवादिप्रभावतः। पूर्णानन्दपरब्रह्म, याता यास्यन्ति यान्ति च ॥ - १ मां विनेतरदेवाद्या, देव्यश्च जगति स्थिताः। मुक्त्यादिफलदानेषु, समर्था नेति जानताम् ॥ ११३. मां परब्रह्म विज्ञाय, स्वात्मानं सत्तया च ये । ब्रह्मत्वं सर्वजीवानां, द्रष्टारो मुक्तिगामिनः ॥ मम जन्मक्षेसंक्रान्ते, भस्मग्रहे विनिर्गते। प्रभावका भविष्यन्ति, सर्वत्र जैनधर्मिणः ॥ दक्षिणे चोत्तरे भागे, भारतीये नरोत्तमाः। युगप्रधानाः प्रकटीभविष्यन्ति प्रभावकाः ॥ भव्यदेवास्तथा देव्यः, प्रत्यक्षीभूय रागतः। सहायकारका धर्मे, भविष्यन्ति न संशयः॥ अवधिज्ञानिनो जैना, जातिस्मरणवेदिनः। युगप्रधानाः सूरीन्द्रा, भविष्यन्ति महाजनाः ॥. ... ११८.
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योगोपसंहारयोगः ]
२०१ मत्तः सार्द्धद्विसहस्रहायनेषु गतेषु तु । जैनधर्मादयो भावी, सर्वविश्वप्रकाशकः ॥ सर्ववर्णस्थिता लोका, जैनधर्माऽभिलाषिणः । भविष्यन्त्यखिले विश्वे, बहवो जैनधर्मिणः ॥ १२० चतुर्विधमहासंघसाम्राज्यवृद्धये सदा । सर्वस्वाऽर्पणयोगेन, वर्तितव्यं महाजनैः ॥ १२१ सर्वस्वार्पणकर्तृणां, जैनानां विविधोन्नतिः। भूता भवति संपूर्णा, भाविनी च कलौ युगे ॥ चतुर्विधमहासंघरूपश्रीजैनशासनम् । जीयात्सर्वत्र माङ्गल्यकारकं धर्मधारकम् ॥ यावद पीठचन्द्रास्तिावच्छ्रीजैनशासनम् । मदुद्धृतं सदा जीयात् , सर्वमङ्गलकारकम् ॥ १२४ ब्रायां लिप्यां महावीरगीता पूर्वर्षिभिः शुभा। लिखिता कालदोषेण, यशोभद्रेण मृरिणा ॥ १२५ लिप्यां श्रीदेवनागर्या, लिखिता सैव भक्तितः। गोपिता ज्ञानकोषे च, तत्प्राकटयं मया कृतम् ॥ १२६ मत्पश्चाद्धर्मवृद्धयर्थ, भाविसूरिमहर्षिभिः । लिपीष्वन्यासु भाषासु, लेख्या भाष्या च रागतः ॥ १२७
इति श्रीमहावीरगीतायां श्रीसर्वयोगोपसंहार
नामकः षोडशोऽध्यायः समाप्तः
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मन्त्रयोगः
शक्तियोगं महायोगं, समाकर्ण्य महामतिः । प्रणम्य श्रीमहावीरं सुधर्मोवाच भक्तितः ॥
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चिन्तामणिसमा लोके, चिन्तितार्थप्रदायकाः । त्वया सम्यक्तया प्रोक्ताः सर्वयोगाः श्रुता मया ॥ त्वदीयमन्त्रयोगस्तु सम्यगाराधितो नृणाम् । सद्यः फलप्रदातास्ति, तस्मात्तं वच्मि भक्तितः ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महावीर ! सर्वदुष्टान्विनाशय । ज्वरस्फोटक रोगाणां, मूलं नाशय नाशय || वर्द्धमान महावीर ! मद्वदि त्वं सदा वस । शाकिनीभूत वैतालान्, शीघ्रं नाशय नाशय ॥ मम हृदि स्थितां दुष्टबुद्धिं शीघ्रं विनाशय । आत्मज्ञानमहालाभं, शीघ्रं देहि हृदि स्थितः ॥ त्वत्प्रभावान्महामारी, शीघ्रं नश्यतु नश्यतु । अकाले नैव मे मृत्युरुपसर्गान् हर द्रुतम् ॥
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सर्वदेवाधिदेव ! त्वं मद्वृदि वस भास्कर ! | जयश्च विजयं देहि, शुभेष्टं देहि वेगतः ॥
ॐ औँ क्लीँ लूँ महावीर ! शान्तिं तुष्टिं कुरु प्रभो ! | सर्वशक्तींश्च मे देहि, दोषान् घातय घातय ॥
ॐ श्रीं ऐं मन्त्रराजस्त्वं, पूर्णलक्ष्मीकरो भव । पुत्रं देहि च मे पुत्र, राज्यादिसर्वसंपदः ॥
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मन्त्रयोगः ] 'परब्रह्ममहावीर ! त्वत्पदं देहि भावतः।
आत्मनः परमात्मत्वं, कुरुष्व प्रार्थनेति मे ॥ कार्येषु कर्मयोगित्वं, देहि मे ज्ञानपूर्वकम् । घातय दुर्गुणान्सर्वान्सदगुणान्देहि मढदि ॥ महारामेश्वरव्यक्तपूर्णतां प्रकटीकुरु । नामरूपादिकं मोहं, दूरीकुरु स्वभक्तितः ॥ आधिं व्याधि तथोपाधि, सर्वदुःखं विनाशय । शुद्धात्मपूर्णमानन्द, कुरु व्यक्तं स्वयंप्रभो ! ॥ यस्याज्ञा त्रिजगदव्याप्ता, महावीरमहाप्रभोः । तदाज्ञासु प्रतापेन, शान्तिर्भवतु मे सदा ॥ अनन्ताऽनन्तशक्त्या यः, सर्वविश्वप्रकाशकः । परब्रह्ममहावीर, आत्मशुद्धिं करोतु सः॥ पूर्णाऽनन्तमहावीर ! सद्बुद्धिं मे प्रकाशय । आविर्भावेण पूर्णत्वं, मत्तोऽभिन्नः स्वयं भव ॥ ॐ अहँ श्रीमहावीर ! पूर्णशक्तिविकासक!। श्रीचतुर्विधसंघस्य, कुरु शान्ति दयानिधे ! ॥ राज्यशान्ति प्रजाशान्ति, देशशान्ति तथा कुरु । स्वकुटुम्बपशूत्रक्ष, रक्ष सर्वविपत्तितः॥ ॐ नमस्ते महावीर ! विश्वशान्ति सदा कुरु । क्षुद्रोपद्रवतो रक्ष, सर्वलोकान्प्ररक्षक ! ॥ लोकाँश्च दुष्टदेवेभ्यो, रक्ष रक्ष सुखप्रद !। महावीरप्रभो ! रक्ष, दुष्कालादिभयात्सदा ॥ धर्मप्रतापतो लोकरक्षार्थ सद्दयानिधे !। कुरुष्व मेघवृष्टिं त्वं, योग्यकालेसु धान्यदाम् ॥
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अधर्मिदुष्टलोकेभ्यो, रक्ष रक्ष जिनेश्वर ! | धर्म्ययुद्धे जयं देहि, त्वद्भक्तानामहर्निशम् ॥ ॐ क्राँ कीँ पूर्णदेवेश ! पारतन्त्र्यं विनाशय । सर्वजातिभयस्थाने, रक्षां मे कुरु सर्वथा ॥ धर्मिलोकस्य रक्षार्थ, दुष्टान् शासय शासय । देशसंघप्रजादीनां रक्षां कुरुष्व ॐ नमः ॥ ॐ हूँ झीँ श्री महावीर ! सर्वेषां धर्मिदेहिनाम् । शान्तिं तुष्टिं तथा पुष्टिं ऋद्धिं कीर्ति कुरु स्वयम् ॥ विद्यां लक्ष्मी तथा सत्तां, शक्ति देहि स्वभावतः । ॐ स्वाहा क्लीँ महावीर ! सर्वेष्टं मे समर्पय ॥ यादृग्भावो भवेद्यस्य तादृग्रूपेण तद्धदि । मंत्रशक्तिप्रयोक्ता त्वं, महावीर ! नमोऽस्तु ते ॥ .. मदि सर्वतो व्याप्य, स्वशुद्धात्मन्स्ववीर्यतः । द्रव्यभावारिहन्ता त्वं दुष्टशत्रून्पराजय ॥ ॐ हंसः स्राँ महावीर ! त्वत्प्रभावाऽतिरेकतः । सर्पाणां वृविकानाञ्च विषं नश्यतु तत्क्षणम् ॥ महावीर महाविष्णो ! फट् फट् फट् विच्चि ॐ नमः । इष्टसिद्धिं कुरु स्वाहा, सर्वत्र मेऽतिरागिणः ॥ सर्वदेवाधिदेवत्वं सर्वजैनान्प्रवर्द्धय ।
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हूँ द्रो महावीर ! दुष्टान्द्रावय द्रावय ॥ सर्वोन्नतिं कुरु त्वं वर्द्धय मे परम्पराम् । पापाचारविचारेभ्यो, रक्ष रक्ष महाबल ! ॥ स्वप्ने मे दर्शनं दत्त्वा स्वेष्टं भाषय भाषय । प्रत्यक्षं दर्शनं देहि, महावीर कृपानिधे ॥
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मन्त्रयोगः ] ममोपरि कृपां कृत्वा, मदि त्वं सदा वस । सन्मार्गान्दर्शय स्पष्टान् , ॐ हीं वीर! नमोऽस्तु ते ॥ ३५ पादौ रक्ष शिरो रक्ष, हस्तौ रक्षोदरं तथा । सर्वांगं रक्ष मे वीर ! त्वत्प्रभावोऽस्तु मे हृदि ॥ ॐ वीरो भूर्भुवःस्वस्तभर्गो देवस्य धीमहि । श्रीसवितुर्वरेण्यं त्वं, धियोऽस्माकं प्रचोदय । गायत्री ते सदा रक्षा, कुरुतां सर्वथा मम । अनन्तवेदकर्ता त्वं, वीर ! सन्नितिं कुरु ॥ 'पूर्णाऽनन्तमहावीर ! मम बुद्धिं प्रवर्द्धय । ऐ ब्राँ ज्ञानोदधिं देहि, प्रसीद परमेश्वर !॥ अष्टसिद्धीश्च मे देहि, सर्वलब्धीश्च तत्क्षणम् । लब्धिसिद्धिर्महावीर ! त्वन्नामस्मृतिमात्रतः ॥ ॐ हीं श्रीं क्ली महावीर ! भूतशापान्निवारय। वर्तमानागतान शापान्नाशय मेऽतिरागतः ॥ परम्परागतान् शापान , वारय मेऽतिभक्तितः । त्वन्नामस्मरणाद्देव ! सर्वशापान्निवारय ॥ साधुब्रह्मसतीस्त्रीणां, दत्तान् शापान्निवारय । गुरुदत्तान्महाशापान , सर्वदत्तान्निवारय ॥ ऋषिहत्यादिपापानां, नाशोऽस्तु त्वत्स्कृतेः प्रभो!।। शापहत्याविनिर्मुक्तं, कुरु मां तत्क्षणं विभो!॥ चतुरशीतिमुष्टीना, बन्धं नाशय नाशय । ॐ अर्ह श्रीमहावीर ! त्वन्नाममंत्रसंस्मृतेः॥ ॐ ही दुर्गेश्वरव्यक्त ! महाकालीश्वरप्रभो!। महावीर! कृपां कृत्वा, त्वत्स्वरूपं प्रकाशय ॥ ४६
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[ मन्त्रयोगः सर्वापत्तिविनाशोऽस्तु, नश्यन्तु दुष्टयुद्धयः ।। मम शान्तिञ्च सत्पुष्टिं, तुष्टि देहि कृपेश्वर !॥ सर्वदेवास्तथा देव्यः, सानुकूला भवन्तु मे। तब जापान्महावीर ! तत्क्षणं त्वत्पदाश्रिताः ॥ अहं ॐ श्री महावीर ! सर्वदुःखविनाशक !। राजादिकभयप्राप्ती, रक्ष रक्षाऽतिवेगतः ॥ मन्त्रस्तिष्ठसि यत्र त्वं, तत्र शान्तिः सदा सुखम् । महारोगभयं नास्ति, दुःखं भूतादिचेष्टितम् ॥ असत्यकामदोषेभ्यो, रक्ष रक्ष महाबल !। वीर्यरक्षां कुरु त्वं मे, ब्रह्मचर्यस्य धारक !॥ सर्वोपद्रवतो रक्ष, रक्ष रक्ष महाभयात् । राज्यं रक्ष श्रियो रक्ष, रक्षोत्पाताच शङ्कर ! ॥ विद्यां रक्ष धनं रक्ष, रक्ष व्यापारयोजनाम् । लोकानक्षाऽतिवेगेन, रक्ष वंशपरम्पराम् ॥ हिंस्रसिंहादितो रक्ष, रक्ष साधुपरम्पराम् । सर्वजातीयलोकान्त्वं, रक्ष रक्ष महाहरे !॥ अन्नागारं सदा रक्ष, धान्यक्षेत्रादिकं तथा। सैन्यं रक्ष पुरं रक्ष, सर्ववर्णान्विवेकतः ॥ धर्माचार्यान्द्रुतं रक्ष, जैनशासनरक्षकान् । धर्मप्रवर्तकानक्ष, त्यागिवर्गान्विशेषतः ॥ साध्वीवर्ग सदा रक्ष, सर्वशक्तिमयान गुरुन् । कलाचार्यान्सदा रक्ष, सर्वविद्याप्रवर्तकान् ॥ आर्यब्राह्मणसंघाँश्च, क्षात्रसंघ विशेषतः । वैश्यवर्ग सदा रक्ष, शूद्रवर्ग च शक्तितः॥
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मन्त्रयोग: ]
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पारतन्त्र्यातं रक्ष, जैन संघ विशेषतः । सर्वत्र शक्तिसंपन्नान्, जैनान्भक्ति भरान्कुरु ॥ पक्षिपशुविशेषेण, धेनून् रक्ष महाप्रभो ! | सर्वत्र शक्तिसंभाररूपवीर ! जगत्पते ! ॥ आकस्मिक महोत्पाताद्रक्ष सर्वजनान्प्रभो ! | आकस्मिक महोत्पातान् द्रुतं नाशय नाशय ॥ गृहेऽरण्ये समुद्रे मां, द्रुतं रक्ष जिनेश्वर ! | सर्वत्र सर्वदा रक्ष, सर्वथा वीर ! मद्विभो ! ॥ आत्मशुद्धोपयोगश्रीमहावीर ! स्वयं प्रभो ! । मदात्मानं सदा रक्ष, त्वं शुद्धात्मन् ! हृदि स्थितः ॥ देशसंघे च राज्ये त्वं, योगक्षेमं कुरु प्रभो ! | शान्तिं तुष्टि महापुष्टि, कुरु स्वाहा नमोऽस्तु ते ॥ ६४ ॐ ह्रीँ श्रीँ क्लीँ महावीर ! पूर्णशक्तिप्रकाशक ! | ऐं झाँ साँ दर्शनज्ञानचारित्रपूर्णदो भव ।। देवदेवस्वरूपाय, महावीराय तायिने । इष्टं कुरु नमः स्वाहा, सर्वरोगविनाशिने ॥ ॐ हाँ ह्रीं हूँ महावीर ! विद्याशक्तिं समर्पय । दुष्टान् जहि जहि क्षिप्रं, साहाय्यं कुरु वेगतः ॥ सर्वेन्द्र पूज्य सर्वात्मपूर्ण शक्तिप्रभावतः । शाकिनी भूतवेताला, नश्यन्तु क्षणमात्रतः ॥ महामंत्रं स्मरेदेवं, भक्तः सर्वार्थसाधकः । जन्ममृत्यु महाचक्रं, नश्येन्मन्त्रप्रभावतः || ॐ ॐ श्रीमहावीर ! सर्वयज्ञमयप्रभो ! | पशुघातक यज्ञस्त्वं, दूरीकुरुष्व शक्तितः ॥
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__ [ मन्त्रयोगः मातृपितृकलाचार्यसेवैव यज्ञमान्यता । धर्माचार्यप्रभोः सेवायज्ञः सर्वत्र शान्तिदः॥ पश्चयज्ञास्त्वयाऽऽख्यातास्तथाऽनेके शुभप्रदाः । सर्वयज्ञमयो वीर ! ॐ अहँ कुरु मत्प्रियम् ॥ सर्वमन्त्रस्वरूप! त्वं, महारौरवनाशक!। सर्वशक्तिमहावीर ! शान्ति मे कुरु तत्क्षणम् ॥ षट्चक्रेशमहावीर ! विश्वशान्ति द्रुतं कुरु । देशे संघे तथा राज्ये, शान्तिं कुरुष्व वेगतः॥ ॐ ही हाँ श्रीमहावीर ! शान्ति कुरुष्व रोगिणाम् । द्रुतं द्रावय दुःखौघान् , क्षुद्रोपद्रवसंकटान् ॥ गृहे शान्ति पुरे शान्ति, कुरु शान्ति प्रजासु च। . रोगशोकभयार्त्तानां, कुरु शान्ति जिनप्रभो !॥ ७६ दर्शन ज्ञानचारित्रगुणाऽऽनन्त्याद्यपेक्षया । अनन्ताः श्रीमहावीराः, शान्तये सन्तु नः सदा ॥ ७७ तीर्थेशे चरमेऽनन्ता, महावीरालयं श्रिताः। चरमेश महावीर ! शान्ति नः कुरु सर्वदा ॥ ॐ हीं अहँ महावीर ! जैनानां रक्षणं कुरु । जैनानां कुरु शान्ति त्वं, सर्वत्राज्ञाप्रचारक ! ॥ सूरिवाचकसाधूनां, श्राद्धानाच विशेषतः। साध्वीनां श्राविकाणाच, कुरु शान्तिसुखं सदा ॥ बालानां युवकानां त्वं, शान्ति कुरुष्व वेगतः। वृद्धानां नरनारीणां, रोगशान्तिं कुरु प्रभो ॥ देवदेवीकृतव्याधेः, शान्ति कुरु गुणालय!। उपसर्गस्य शान्त्यर्थ, प्राकट्यं ते कुरु प्रभो॥
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मन्त्रयोगः] स्वत्पुण्यौघप्रतापेन, शान्तिर्मेऽस्तु महाजिन !। स्वन्नामघोषमात्रेण, सर्वत्र शान्तिरस्तु मे ॥ ॐ अहँ ही महावीर ! पूर्णशान्तिप्रचारक। श्री ही कीत्तिं धृति विद्यां, लोकानां शान्तिमर्पय ॥ ८४ सर्वजातीयजैनानां, विद्याक्षात्रादिकर्मभिः । सर्वदेशेषु खण्डेषु, कुरु धर्ममहोदयम् ॥ जैनानां सर्वदेशेषु, वृद्धिर्भवतु सर्वथा । सर्वगृहस्थजैनानामस्तु वंशपरम्परा ॥ दिक्पालाश्च ग्रहाः सर्वे, त्वत्पदाम्बुजसेवकाः । कुर्वन्तु ते सहायं नस्त्वदाज्ञावशवर्तिनः ॥ ऐं आँ ही श्री महावीर ! विद्याशक्तिं प्रदेहि मे। वाकसिद्धिं देहि मे तूर्ण, वाग्देवीश ! विदाम्पते ॥ ८८ ऐं क्ली माँ नौं महावीर ! नमस्तेऽस्तु गिरांपते !। वादे देहि जयं पूर्ण, हृदयं मे प्रकाशय ॥ व्याख्याने च विवादे त्वं, मजिहवाहदि संवस। स्वयंसंबुद्धदेवेश ! श्रुताम्भोधि प्रकाशय ॥ त्वत्प्रभावाद्भूतं भूयाज्ज्ञानाच्छादनसंक्षयः । ऐं अाँ स्वाहा प्रभो ! त्वं मे, सर्वज्ञत्वं प्रकाशय ॥ ९१ ॐ ऐौँ क्ली महावीर ! ब्लूँ ऐ स्वाहा नमोऽस्तु ते । विद्यामन्त्राधिराजस्य, जापाज्ज्ञानी जनो भवेत् ॥ ९२ लक्ष्मीपतिमहावीर ! मम लक्ष्मी समर्पय । यशोदाकान्त ! वीर ! त्वं, योग्यां पत्नी प्रदेहि मे ॥ ९३ सर्वाधारमहावीर ! अहँ ॐ विश्वशासक !। विद्याकलागुणैर्योग्यं, पतिं देहि मम प्रियम् ॥
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गुणकर्मविभागेन, दम्पत्योः शुद्धरागता । साम्यं गुणादिभिर्भूयादार्यत्वञ्च निरोगता || ॐ ॐ श्रीमहावीर ! सर्वशक्तिसमन्वितम् । पुत्रं देहि सुकन्याश्च, कलाविद्यागुणान्विताम् ॥
ॐ ह्रीँ श्रीँ क्लीँ महावीर ! वासुदेव ! महाहरे ! | कर्मयोगिमहामित्रं, प्रदेहि मे गुरुं शुभम् ॥
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ॐ अहँ श्रीँ महावीर ! गुणकर्मानुसारतः । secret सम्बन्धं, प्रदेहि मे विवेकदम् ॥ यूयं वयं वयं यूयं, विश्वबन्धुत्वभावना | महावीरप्रभावेण सर्वत्रैक्यं सदाऽस्तु नः ॥ ॐ ह्रीँ हाँ श्री महावीर ! संधैक्यं कुरु तत्क्षणम् । आत्मवत्सर्वलोकानामैक्यं मैत्रीश्च वर्द्धय ॥
[ मन्त्रयोग:
ॐ ह्रीँ वँ शँ महावीर ! त्वत्प्रभावाद्विवेकिनः । उद्योगधृतिसम्पन्ना, उद्भवन्तु शुभर्हिताः ॥ सर्वजातीय जैनानां, विश्वेषु विश्वदीपकाः । विद्याकलागुणोपेता, बाला भवन्तु बालिकाः ॥ त्वदुक्तोपासनायोगः, सर्वशक्तिसमन्वितः । मदुक्तत्वन्महामन्त्रयोगाऽभिन्नस्त्वयि श्रितः ॥
सर्वदेवास्तथा देव्यस्त्वन्मन्त्रेषु व्यवस्थिताः । तन्मन्त्राणां समावेशस्त्वन्मन्त्रेषु स्वभावतः ॥ त्वत्तः सर्वे प्रकाशन्ते, लीयन्ते त्वयि सर्वथा । भेदाभेदस्तु मन्त्राणामपेक्षातस्त्वयि स्थितः ॥ सर्वमन्त्राऽधिराजस्त्वं, महावीर सनातन ! | अस्माकं सर्वजैनानां, शक्तिवृद्धिं कुरु प्रभो ! ॥
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मन्त्रयोगः ]
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अस्माकं पूर्णविश्वासः, सर्वथा त्वयि तारक ! | उद्धारं नः कुरु व्यक्त ! मन्त्रयज्ञेन शासक ! ॥ आधार: सर्वथा त्वं नः, सर्वशक्तिप्रचारक ! | त्वयि विश्वासिनां श्रेयः शीघ्रं कुरुत ॐ नमः ॥ त्वद्दासोऽस्मि महावीर ! मम दोषान्निवारय । आत्मानं त्वत्कृपापात्रं, कुरु विश्वपते ! मम ॥ सर्वमन्त्रस्वरूपस्त्वमिष्टं नः कुरु भक्तितः । पूर्णब्रह्ममहाव्यक्तसत्यमार्गान्प्रकाशय ॥ त्रिकोणे च चतुष्कोणे, यज्ञकुण्डे विवेकतः । होमः कार्यो दशांशेन, मन्त्राणां पूर्णजापतः ॥ षट्कोणे सर्वकार्याणां सिद्धयर्थं विधिवज्जनैः । होम: कार्यो महावीरयन्त्राणां जापपूर्वकः ॥ मन्त्रजापसमो यज्ञो, नैव भूतो भविष्यति । मन्त्रशक्तिसमा शक्तिर्नैव भूता भविष्यति ॥ मन्त्रजापो भवेद्यत्र, प्राकट्यं तत्र जायते । महावीरस्य शक्तीनां तत्र किञ्चिन्न संशयः ॥ महावीरस्य मन्त्राणां साफल्यं पञ्चमारके । जायते सत्यभक्तानां गृहस्थत्यागिनां शुभम् ॥ तीर्थे पवित्र संस्थाने, सरोवापीनदीतटे । उद्याने शुद्धमार्गे च कार्या मन्त्रस्य साधना ॥ महावीरे महाभक्तिर्यस्य तस्याऽस्ति साधना । धर्मार्थकाममोक्षाणां सिद्धिदानाऽन्यथा कदा ॥ महाश्रमण ! वीर ! त्वं, कषायोपशमं कुरु । आत्मसमाधिलाभोऽस्तु त्वत्प्रसादात्सदा मम ॥
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सर्वदेवाधिदेव ! त्वं, पूर्णमुक्तिं प्रदेहि मे । वीतरागेन्द्र ! मे देहि, स्वात्मनः परमात्मताम् ॥ शुद्धात्मश्रीमहावीर ! स्वात्मैव परमात्मताम् । यातु त्वन्मन्त्रयोगेन, सर्वेषामन्तरात्मनाम् ॥ क्षयोपशमभावीया, आत्मनः सर्वशक्तयः । व्यज्यन्ते मन्त्रयोगेन, तथा क्षायिकलब्धयः ॥ ज्ञानाच्छादन कर्माणि, क्षीयन्ते मन्त्रयोगतः । संप्रति दृश्यते वीरः, प्रत्यक्षो मन्त्रयोगिनाम् ॥ आत्मरूप महावीरो, रोचते यन्निजात्मने । ददाति परिणामेन, स्वीयकर्तृत्वशक्तितः ॥ त्वच्छासने महावीर ! पञ्चमारे समुन्नतिः । सर्वदेशीय जैनानां, जायतां मन्त्रयोगतः ॥ सर्वजातीयदेशीय लोकानां पशुपक्षिणाम् । शान्त्यर्थं सर्वदा भुयान्मन्त्रयोगः सुखप्रदः ॥ ब्रह्मक्षत्रियवैश्यानां शूद्राणां सर्वशक्तितः । सर्वविश्वस्य जातीनां द्रुतं शातिं कुरु प्रभो ! ॥ नराणां चैव नारीणां बालानां वृद्धदेहिनाम् । ग्रहरोगाऽभिभूतानां शान्तिर्भवतु सर्वदा ॥ एकेन्द्रियादिसत्त्वानां शान्तिर्भवतु सर्वथा । मेघवृष्ट्यादिभिर्विश्वे, शान्तिर्भवतु सत्वरम् ॥ शान्तिर्भवतु जीवेषु, दुष्कालादिविनाशतः । कुरु शान्तिं महावीर ! जैनशासनवर्त्तिनाम् ॥ शान्तिर्भवतु लोकानां श्रेष्ठिनां भूभुजां भृशम् । सूरिवाचकसाधूनां साध्वीनाञ्च विशेषतः ॥
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मन्त्रयोगः ] शान्तिर्भवतु देशानां, पुरग्रामनिवासिनाम् । पूजकाराधकानाच, शान्तिर्भवतु वेगतः॥ त्वत्प्रसादान्महावीर ! शान्तिर्भवतु मे सदा । त्वद्भक्तानां सदा शान्तिर्भूयात्कल्याणकारक !॥ नमोऽस्तु ते महावीर ! परब्रह्मस्वरूपिणे । शान्ति तुष्टिं महापुष्टि, योगक्षेमं कुरु द्रुतम् ॥ सर्वोपद्रवरोगाणां, शान्तिर्भवतु भूतले । वर्द्धतां जैनधर्मस्ते, महावीरप्रसादतः ॥ शान्तिर्भवतु लोकानां, जगत्त्रयनिवासिनाम् । परहितार्थिनो जीवा, भवन्तु धर्मतत्पराः॥ दोषा नश्यन्तु जीवानां, भवन्तु सुखिनो जनाः। परस्परं मनुष्याणामुपकारोऽस्तु सर्वदा ।। ॐ अहं श्री महावीरप्रभावात्सर्वभूतले । जैना वर्धन्तु सर्वत्र, देशेषु सर्वशक्तितः ॥ सर्वदेवास्तथा देव्यो, महावीरमभावतः । जैनसंघस्य साम्राज्यं, बर्द्धयन्तु स्वशक्तितः॥ जैनानां सर्वजातीयपुण्यकर्मप्रभावतः। जैना वर्धन्तु सर्वत्र, विद्यासत्ताधनादिभिः ।। उन्नत्तिरस्तु जैनानां, सदा त्वद्भक्तिभावतः। संवृद्विजैनसंख्यानां, भूयात्सर्वत्र सत्वरम् ॥ सर्वमङ्गलदो भूयात्महावीरो जिनेश्वरः। जैनधर्मः सदा जीयात्सर्वकल्याणकारकः ॥
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गौतमस्तुतिः केवलज्ञानगम्भीरः, सर्वातिशयभूषितः । शासनाधिपतिर्विश्वोद्धारकः सुरसेवितः ।। महिम्नः स्तवनात् स्तुत्य, आधारः सर्वदेहिनाम् ।। रम्योपदेशदायी त्वं, सर्वशक्तिधरो भवान् ॥ जगदगुरुमहाजन्मा, त्वच्छिक्षा कार्यसिद्धिदा। त्वत्तुल्यो नास्ति मे स्वामी, जगदीशमहामणिः ॥ अनन्तास्त्वद्गुणाः सन्ति, त्वदन्यो नैव तारकः । धर्मोद्धारविधाता त्वं, साकारो लोकनायकः ॥ शक्तीनामीशिता स्वामी, व्याप्यव्यापकवान्विभुः। योग्याऽयोग्यानि कर्माणि, सत्यधर्माः प्रदर्शिताः॥ सर्वलोकपते ! ब्रह्मन् ! वीर ! सर्वजगन्मणे ! । त्वदुपदेशतो लोका, भवन्ति भवपारगाः ॥ निरञ्जनो निराकारो, नित्योऽजो जगदाश्रयः । सर्वत्र तव नामानि, स्मरतां कार्यसिद्धयः ॥ ज्ञाने भक्तो कर्मयोग, उपास्तौ रक्तचेतसाम् । आत्मपरात्मनोरक्याजन्मदुःखं न विद्यते ॥ कालस्वभावनियतिप्रमुखाः पञ्चहेतवः । त्वत्सेवाभक्तिसंलीना, नानातकैश्च किं फलम् ॥ त्वद्वाणी वेदरूपाऽस्ति, तदन्यत्खेदकारकम् । त्वदीयभक्तविज्ञानं, नास्तिका नैव जानते ॥
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गौतमस्तुतिः ] स्वच्छ्रद्धाभक्तियोगेन, संजातं मे स्थिरं मनः। विश्वोद्धाराय ते जन्म, जयोऽस्ति तव नामतः ॥ अज्ञानतमसो नाशं, कृत्वा ज्ञानप्रकाशताम् । कुरुष्व सर्वलोकानां, सर्वदुःखनिवृत्तये ॥ अस्माकं सर्वलोकानां, देवेश! भक्तिभावतः । परिहत्य तमोऽज्ञानं, ज्ञानचक्षुः प्रदेहि नः॥ त्वदीयाः स्म वयं सर्वे, सर्वविश्वविवर्तिनः । रक्षाऽस्मान्सर्वदुःखेभ्यः, सत्पथञ्च नय प्रभो!॥ त्वन्नाम्ना क्षीयते पापं, मनोऽभीष्टफलं भवेत् । त्वदुताः सत्यवेदास्त्वद्वचासु सदा स्थिताः॥ नानार्थत्वछचोरक्ता, ब्रजन्ति त्वत्पदं नराः। मन्मूर्ध्नि हस्तसंस्पर्शात्तारितोऽहं त्वया प्रभो !॥ निजयोगाऽधिकारेण, दृष्टो देवः स्वयं प्रभुः। धन्योऽहं जन्मना जातस्त्वत्सेवामधिजग्मिवान् ॥ १७ त्रिलोक्यां जयताद्वीर ! सर्वाधार ! महाप्रभो!। सत्यस्तवोपदेशोऽस्ति, विश्वोन्नतिविधायकः ॥ महिमा तव सर्वस्मादधिको भुवनत्रये । त्वदाज्ञावर्तिभक्तानां, ध्रुवं मुक्तिपदं सदा ॥ अनन्तज्ञानपाथोधेः, पारं तेनैव याम्यहम्। ' वाचः पारं न ते यान्ति, कथं स्तोतुमहं प्रभुः ॥ २० वेदागमाः स्तुवन्ति त्वां, तव पारं व्रजन्ति नो । वैखर्या किं स्तुवे सर्व, जानासि त्वं दयानिधे ॥ २१ वर्द्धमानजगत्स्वामिन्नपारास्तव शक्तयः। निजमत्यनुसारेण, विजानन्ति नरा स्त्रियः॥ २२
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[ गौतमस्तुतिः पूर्ण ब्रह्म सदा जानन् , पूर्णब्रह्म भवेजनः । नाऽनुभवेदपूर्णस्तु, पूर्णभावस्य सारताम् ॥ अपूर्णस्तव भक्त्यैव, पूर्णब्रह्म पदं व्रजेत् । त्वद्भक्तिनद्धयोर्लीना, मुक्ति यान्ति न संशयः ॥ २४ गृहिणां यतिनां भेदास्त्वद्भक्ती मान्ति सर्वथा । रूपाऽरूपिमहाब्रह्मापूर्णत्वेन न गृह्यसे । पूर्णस्त्वं गृह्यसे ज्ञानादाण्या पूर्णों न कथ्यसे । त्वद्भक्तेषु न विद्यन्ते, देहादिमोहवृत्तयः॥ त्वद्भक्ताः सर्वजातीयाः सर्वस्वाऽर्पणकारकाः। ज्ञातिवंशादिभेदानां, गर्व कुर्वन्ति नो कदा ।। त्वन्नाम्ना प्राप्यते सर्वमीप्सितं मनुजैः सदा। त्वदृतेऽन्यदभिप्रेतं, मन्येऽहं निष्फलं भुवि ॥ -- प्रतिकायस्थिताऽऽत्मानो, भवन्त्याविर्गुणान्विताः। ज्ञातव्यास्ते महावीरास्तत्त्वरूपाः सनातनाः॥ सर्वे जीवा महावीराः, सत्तया सर्वदा मताः । महावीरस्य भक्त्यैव, महावीरा भवन्ति ते ॥ सर्वजीवास्तिरोभावादव्यक्ता वीररूपिणः । आविर्भावेण ते जीवा, जायन्ते वीररूपिणः ॥ वचांसि तव सत्यानि, ततः सर्वत्र मीयते । नमस्यामि विदित्वा त्वां, मद्धदि त्वं सनातनः ॥ ३२ एक एव महावीरो, जगद्देवो निरञ्जनः । ज्ञानभक्तिबलेनैव, जायन्ते त्वत्समा जनाः ॥ ३३ सुराऽसुरेन्द्रसंपूज्य ! जिष्णो ! विष्णो ! महाप्रभो । महावीर ! वृदि त्वं मे, व्यक्तो भव स्वशक्तितः॥ ३४
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गौतमस्तुतिः ]
सर्वाधार ! महावीर ! स्वत्स्वरूपमयैर्जनैः । प्राप्यसे त्वं परब्रह्म ! रूपातीत ! शिवङ्कर ! ॥ आर्यावर्त्तापकारार्थमवतारो जिनेश । ते । सर्वज्ञ ! सर्वदेवेश ! नमस्तेऽस्तु बृहस्पते ! ॥ भवद्दासानुदासाः स्मः, सुरेन्द्रसेवितप्रभो ! | नामस्त्वां महादेव ! यज्ञहिंसानिवर्त्तक ! ॥ सर्वमङ्गलदाता त्वं, विश्वोद्धारक ! योगिराट्र ! | नमामः पूर्णरागेण, विश्वभास्करभास्कर ! ॥
व्यासादीनां महर्षीणां, ज्ञानदात्रे नमोऽस्तु ते । मायादेवीसुतो बुद्धस्त्वां स्तौति पूज्यभावतः ॥ प्रान्ते त्वां स्तौति गोशालस्तथा सांख्याऽनुयायिनः । आर्यदेशीयलोकानां, जातस्त्वं भगवान् महान् ॥ तथाsनार्थप्रदेशेषु जातास्त्वत्पाद सेवकाः । स्वमेव शरणं मेऽस्तु सर्वज्ञ ! पुरुषोत्तम ! ॥
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श्रेणिकादिस्तुतिः श्रेणिकोदायिनी चण्डप्रद्योतनश्च चेटकः । प्रणम्य श्री महावीरं, स्तुवन्त्येवं विवेकतः॥ धर्मोद्धारक ! देवेश ! महावीर ! महाप्रभो। सर्ववीरेषु वीरस्त्वं, सर्वयोगप्रदर्शक ! ।। क्षात्रवंशशिरोरत्नं, पूर्णब्रह्म गुरुः प्रभुः । सर्वज्ञायकतीर्थेशो, भवत्सेवा सदाऽस्तु नः ॥ सर्ववर्णाधिकारेण, जिनधर्मस्त्वयोदितः। प्रोक्तानि स्वाऽधिकारेण, कर्माणि सर्वदेहिनाम् ॥ ४ । कलौ स्वच्छासनं सर्वविश्वाऽऽधारतया स्थितम् । त्वदाज्ञायां स्थितो धर्मः, श्रद्धया सुखकारकः ॥ ५ आत्मनि सर्वधर्माणामभेदोऽस्ति स्वभावतः। शुभाऽऽसक्त्यादिना लोके, शर्मदानि वचांसि ते ॥ ६ क्षात्रधर्मस्य ये योगा, दर्शिता हितकारकाः। तद्योगधर्मभ्रष्टास्तु, दुःखिताः स्युनराः स्त्रियः॥ त्वन्नाम्ना सर्वपापानि, पलायन्ते च दुर्मतिः । सर्वकार्याणि सिद्धयन्ति, त्वन्नामस्मृतिमात्रतः ॥ ॐ अर्हन् त्वं महावीर ! आधारः सर्वदेहिनाम् । पालको देवदेवीनां, शुद्धात्मैव हृदि स्थितः ॥ परब्रह्म परः पूर्णो, योगेशोऽहन् सदाशिवः । क्षात्रधर्म परिज्ञाप्य, नाशिताः क्लेशराशयः ॥
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श्रेणिकादिस्तुतिः ] ब्राह्मणादिप्रजानां त्वमाधारो भुवनत्रये । सर्वविश्वस्थजीवानामाधारस्त्वं सदाशिवः ॥ शरण्यः सर्वजीवानां, त्वद्भक्त्यैव परं पदम् । याता यान्ति प्रयास्यन्ति, त्वदुक्तं नाऽन्यथा कदा ।। १२ धर्मोद्धारेण हिंसाद्या, दुष्टदोषा विनाशिताः । मोहभितपाखण्डाः, सत्यज्ञानेन नाशिताः॥ परव्यक्तो विशुद्धात्मा, जैनधर्मशिरोमणिः। सर्वदोषा विलीयन्ते, त्वदाज्ञातो मनीषिणाम् ।। आर्यावर्त्तादिदेशानां, द्योतकस्त्वं विभावसुः । त्वदाज्ञां धारयन्त्येव, शिरःसु कर्मयोगिनः॥ इन्द्रियगोचराऽतीतो, वाचया वर्षासे कथम् । तारय श्रीमहावीर ! वदामः पूर्णभक्तितः॥ जयतात्त्वं महावीर ! त्वद्भक्तिराश्रयोऽस्ति नः । जैनधर्मप्रकाशेन, सर्वमङ्गलकारिका ॥
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चेटकस्तुतिः वैशालिकमहाराजश्चेटको देशपालकः । श्रुत्वैवं श्रीप्रभुं स्तौति, महावीरस्य मातुलः ॥ तुष्टाव श्रीमहावीर ! सम्यक्त्वादिगुणान्वितः । केवलज्ञानसूर्येण, त्वया विश्वं प्रकाशितम् ॥ संस्कारितास्त्वया वेदाः, सत्योपनिषदस्तथा । संहिताश्च महागीता, आगमाद्याः प्रकाशिताः ॥ वेदागमादिसत्सारस्त्वया सत्यः प्रकाशितः। नमामि त्वं महाप्रीत्या, सर्वविश्वनियामक ! ॥ ॐ शुद्धात्मपरब्रह्म, सर्वशक्तिमयं महद । पूर्णब्रह्ममहावीरं, वन्दे सर्वमयं प्रभुम् ॥ ॐही श्री मन्त्ररूपाय, ऐं क्ली बौँ सौँ स्वरूपिणे । महावीरजिनेशाय, नमः श्रीपरमात्मने ॥ मूर्ताऽमूर्त परब्रह्म, महावीरमहाप्रभुः । दर्शनज्ञानचारित्रमयः सर्वनियामकः । ब्रह्मसत्तामयं पिण्डब्रह्माण्डं स्वपरात्मकम् । त्वयि ब्रह्मणि सर्वज्ञे, महावीरे स्थितं जगत् ॥ ज्ञेयं विश्वं जगद्भाति, शुद्धात्मवीरसञ्चिति । उत्पादव्ययतामेति, ध्रौव्यश्च स्वीयशक्तितः॥ नामरूपात्मका जीवा, वीररूपाः सनातनाः ॥ महावीरं निजात्मानं, ज्ञात्वा संयान्ति वीरताम् ॥ १०
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चेटकस्तुति:] मनो वाकायसद्योगः, सर्वकर्त्तव्यकर्मणे। क्रियते यत्तु तत्सर्व, महावीरस्य पूजनम् ॥ निष्कामानां सकामानां, कर्मणां स्वाऽधिकारतः । परब्रह्म महावीर ! स्वार्पणं मुक्तिहेतवे ।। स्वात्मैव श्रीमहावीर ! परब्रह्म सदुच्यते। सत्तातोऽनेकधा जीवाः, परात्मानः स्वशक्तितः॥ सर्वजीवा महावीरस्वरूपाः शुद्धधर्मतः । आत्मरूपमहावीरा, अनन्ता व्यक्तितः सदा।। सत्तया सजीवास्तु, परात्मकः सनातनः । समष्टिव्यष्टिरूपः श्रीमहावीरोऽस्त्यपेक्षया । स्वात्मानं श्रीमहावीरं, हृदि ज्ञात्वैव भावतः । स्वात्मवत्सर्वजीवेषु, वर्तन्ते सत्ययोगिनः॥ निर्लेपः श्रीमहावीर, आत्मैव सत्तया सदा । अज्ञानमोहतो लेपो, देहिनां सर्वयोनिषु ॥ परब्रह्ममहावीरज्ञानान्मोहो विलीयते । महावीरस्य संज्ञानान्निलेपो भवति स्वयम् ॥ सर्वविश्वमयः स्वात्मा, ज्ञातो येन महात्मना । स निर्लेपो महावीरो, जायते नात्र संशयः ॥ महावीरमयं विश्वं, विज्ञातं यैरपेक्षया । परब्रह्मस्वरूपास्ते, जायन्ते व्यक्तशक्तितः ॥ रामकृष्णावताराणां, साकारब्रह्मणां सदा । परब्रह्ममहावीरे, समावेशः स्वभावतः ॥ महावीरप्रभुमुख्या, कलौ सर्वाऽवतारिषु । व्यापकः श्रीमहावीरः, साकारब्रह्म सुस्थितः॥
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[ चेटकस्तुतिः महाब्रह्म महाविष्णुः, स्वयंप्रभुर्महेश्वरः। सर्वतेजः प्रकाशात्मा, सर्वशक्तिनियामकः ॥ धर्मशक्तिमहायोनिः, सर्वयज्ञप्रकाशकः । जन्ममृत्युजराऽतीतो, निर्देहो देहवानपि । नियन्ता धर्मतीर्थानां, सर्वदेवशिरोमणिः । जगन्नाथो महावीरो, महाचैतन्यशक्तिराट् ॥ अर्हन् बुद्धो महावीरो, यद्धृदि विश्वरूपकः । शुद्धात्मा स महादेवः, पूर्णानन्दरसी महान् ॥ विश्वमेव महावीरः, स्वात्मा वीरः स्वयंप्रभुः । स्वात्मन्येव जगद्रष्टा, पूर्णब्रह्म महाविभुः॥ जीवसंघो महावीरः, समष्टियोगिराट् सदा। अनाद्यनन्तकालीनो, महावीरोऽस्ति सत्तया ॥ ... महावीराऽवतारास्तु, व्यक्तितः सादिसान्तकाः। आलम्ब्य प्रकृति स्वात्मा, दृश्यो भवति देहतः ॥ साकारोऽस्ति महावीरः, सर्वोपकृतिसाधकः । पूर्णव्यक्तः सदा बोध्यो, दृश्यः सर्वोपयोगिरात् ॥ सर्वजीवस्य रक्षायां, महावीरप्रभुमहान् । सर्वजीवस्य सेवायां, महावीरो विराजते ।। दयैव श्रीमहावीरः, सत्यमेव तथा भुवि । स्वातन्त्र्यं वीरदेवस्य, देहिनां शान्तिकारकम् ॥ महावीरमया बोध्या, आशीर्वादाः सतां शुभाः। परोपकारकर्माणि, सेवैव वीरयोगिनः॥ स्वात्मवत्सर्वजीवेषु, दर्शनं वर्तनं तथा । महावीरस्य सेवैव, परब्रह्मप्रकाशिका ॥
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चेटकस्तुतिः ] परब्रह्ममहावीरो, दृश्याऽदृश्यप्रकाशकः । आन्तरो बाह्यरूपश्च, बाह्यान्तर्दृष्टियोगतः ॥ व्यष्टिसमष्टिरूपोऽस्ति, व्यक्तिसंघाद्यपेक्षया । स्वप्रमेयः प्रमाता च, वाच्याऽवाच्यो गिरांपतिः ॥ ३६. धर्माधर्मादितत्त्वानां, भासकोऽस्ति बृहस्पतिः । सर्वजातिचमत्कारा, महावीरस्य दर्शकाः ॥ सर्ववर्चःशिरोमान्यो, मूर्तीमूर्तस्वरूपकः। एकानेको महाज्योतिर्वीतरागो जिनेश्वरः ॥ कृष्णरूपो महावीरो, रामरूपः सनातनः । वायुदेवो महारुद्रो, धर्मचक्रप्रवर्तकः ॥ स्तुवन्ति चैव गायन्ति, महावीरं सुराऽसुराः । महावीरस्य संवासः, सद्भक्तानां सदा हृदि । सर्वविश्वमयं वीरं, ज्ञानी हृदि विलोकते । अज्ञानी तु महाभ्रान्त्या, स्वहृदि नैव पश्यति ॥ स्वनेत्राऽग्रे महावीरा, दृश्यन्तेऽनेकदेहिनः । सर्वप्राणिषु वीरत्वं, द्रष्टारो ज्ञानयोगिनः॥ यस्यांशो गम्यते लोकः, पूर्णरूपं न गम्यते। गम्याऽगम्यो महावीरः, कर्ता हर्ता स्वयंप्रभुः ॥ ४३ श्रीमहासंघसाम्राज्यवर्द्धकाः सन्ति हेतवः । तेषु श्रीवीरशक्तीनां, निवासोऽस्ति स्वभावतः ॥ समूहः सर्वशक्तीनां, महावीरोऽस्ति सर्वथा। प्राप्यः सर्वप्रयत्नेन, स्वातन्त्र्यस्य विवृद्धये ॥ जगढूपो महावीरः, सर्वस्वातन्त्र्यशक्तिषु । तत्प्राप्तिर्वीरपूजैव, तत्र किश्चिन्न संशयः॥
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सर्वजातीयस्वातन्त्र्य समुपासकमानवाः । महावीरस्य सद्भक्ता, मन्तव्याः पूर्णभावतः ॥ शक्तसंघो महावीरः, शक्तीनामैक्यपूजकः । यत्र शक्तिसमूहोsस्ति, तत्र श्री वीरदर्शनम् ॥ आविर्भावमहावीरो, गुणाविर्भावयोगतः । तिरोभावमहावीर, आत्मा मोहादिसंयुतः ॥ वर्द्धमान महावीरो, व्यक्तात्मा सद्गुणैर्महान् । व्यक्तवीरो महाब्रह्मा, जैनधर्मप्रवर्त्तकः ॥ महावीरं विना नैव, महावीरस्य वेदकः । दृश्यादृश्यः स्वयं ज्ञाता, स्वयं पूज्यश्च पूजकः ॥ शुद्धानन्दो महावीरो, व्यक्तो भवति योगिनाम् । जीवच्छत्तिसमूहः श्रीवीरः सर्वत्रपावकः ॥ उत्पादोऽस्ति महाब्रह्मा, व्ययो महेश्वरो महान् । ध्रुवो विष्णुर्महावीरे, त्रयो देवाः सदा स्थिताः ॥ ज्ञानं विष्णुश्च चारित्रं, हरो ब्रह्मा तु दर्शनम् । यो गुणा महावीरे, व्यक्ताव्यक्ताः सदा स्थिताः ॥ पूरक: कुंभकश्चैव, रेचको द्रव्यभावतः । ब्रह्माविष्णुमहादेवा, महावीरे प्रतिष्ठिताः ॥ परब्रह्ममहावीरे, व्ययोत्पादौ स्वभावतः । जायते सर्ववस्तूनां व्यवस्था क्रमवर्त्तिनाम् ॥ तरङ्गाणां व्ययोत्पादा, यथाऽन्धावात्मनि तथा । महावीरे गुणानां ते व्ययोत्पादाः स्वभावतः ॥ त्रिमूर्त्तिः पञ्चमूर्तिः स महावीरोऽस्त्यपेक्षया । विश्वमूर्तिर्महावोरो, ज्ञाने ज्ञेयस्य भासनात् ॥
[ चेटकस्तुति:
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चेटकस्तुतिः] महावीरस्य रूपस्य, यान्ति पारं न योगिनः । ज्ञातारोऽपि महावीरपूर्णरूपं न जानते ॥ पूर्णरूपो महावीरो, गम्यो नैव सतामपि । वेदागमैस्तु तद्रूपं, किश्चिद्विश्वे प्रकाश्यते ॥ स्वपरात्ममहावीरः, सद्विचारमयो महान् । सर्वजीवस्य सेवैव, वीरोऽर्हन स्वहदि स्थितः ॥ बाह्यप्रवृत्तिरूपस्तु, बाह्यवीरो व्यवहृतेः। आन्तरस्तु महावीरो, ज्ञानानन्दादिरूपकः ॥ बाह्यान्तरमहावीरः, सर्वविश्वमयो गुरुः । सर्वात्मानो महावीराः, संसेव्या स्वात्मवत्सदा ॥ नित्यपूर्णरसो वीरः, प्राप्यते पूर्णयोगिना। पूर्णब्रह्मरसं वीरं, प्राप्य मोहो निवर्त्तते ॥ पूर्णानन्दरसो वीरः, स्वात्मैव स्वेन लभ्यते। वर्द्धमानरसः स्वस्मिन्पूर्णात्पूर्णः प्रकाशते ॥ चतुर्विधो महासंघो, वीर एवाऽस्ति नाऽन्यथा। महासंघस्य सेवैव, वीरसेवा सुखावहा ॥ महावीरापणं सर्व, फलं कर्त्तव्यकर्मणाम् । कृत्वा यो वर्त्तते सम्यक्, कर्मयोगी स भक्तराट् ॥ ६७ राष्ट्रसंघादिकं वीरं, विज्ञाय यः शुभेच्छया । फलाकाक्ष्यपि कर्माणि, कुर्वन्मुक्तो भवेत्क्रमात् ॥ सर्वकर्तव्यकमैव, वीरं ज्ञात्वोपचारतः । स्वाधिकारेण कार्याणां, कर्त्ता वीरस्य पूजकः ॥ यद्यत्काले भवेद्यत्तत्सर्वस्वात्मोन्नतिप्रदम् । विज्ञाय श्रीमहावीररूपो भवति मानवः ।।
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[ चेटकस्तुतिः सद्गतिं नैव ते यान्ति, महावीरस्य निन्दकाः । तद्भक्तसेबकस्याऽपि, निन्दकानां न सद्गतिः ॥ जैनेषु च महावीरे, भेदोऽस्ति नैव वस्तुतः । तदभेदत्वमन्तारो, वीरधर्मानुयायिनः ॥ महावीरस्य सद्भक्ताः , परार्थवार्थकर्मसु । महावीरमयं सर्व, ज्ञात्वा मुह्यन्ति नो कदा ॥ यावद्वीरो न संज्ञातस्तावन्मोहो न नश्यति । यदा संज्ञायते वीरो, जीवन्मुक्तस्तदा जनः ॥ चरित्रं व्यक्तवीरस्य, सर्वकल्याणकारणम् । तच्छ्रोतारो महाप्रीत्या, यान्ति वीरस्य सत्पदम् ॥ यस्य द्वेषो महावीरे, तस्यान्याः सर्वदेवताः। पूजिता नैव मोक्षाय, भवन्ति दुष्टभावतः ॥ जले स्थले रणेऽरण्ये, दिने रात्री च संकटे । परब्रह्ममहावीरो, रक्षकः सर्वदेहिनाम् ॥ यद्भव्यं तद्भवत्येव, तत्र स्वात्मोन्नतिः शुभा। इत्येवं सत्यमन्तारो, वीरधर्मानुयायिनः॥ कालखभावनैयत्यमुद्यमः कर्म पञ्चमम् । ईश्वराः सन्ति पश्चैते, कार्यमृष्टिनियामकाः ।। परब्रह्ममहावीरज्ञाने सम्यक्प्रतिष्ठिताः । महावीरस्य संबोधात् , स्वायत्ताः स्वाऽनुकूलकाः ॥ ८० कर्ता हर्ता महावीरः, कर्ता हर्ता न वस्तुतः। नयैः सर्वैन यो गन्यो, वाच्यो नैव सतामपि । महावीरं न मन्यन्ते, दुष्टा मूढाश्च नास्तिकाः । मन्यन्ते श्रीमहावीरमास्तिका आर्थमानवाः॥ ८१
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स्तकाः।
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चेटकस्तुतिः ] श्रीवीराश्रितलोकानामायुषोऽन्ते न दुर्गतिः । परब्रह्मपदं पूर्ण, श्रीवीरार्पितचेतसाम् ॥ विद्यासत्ताधनैश्वर्य, प्राप्नुवन्ति न संशयः। महावीराक्रिता भक्ताः, सर्वसाम्राज्यवाहकाः ॥ सर्वेश्वरमहावीरादन्यः कोऽपि न रक्षकः । तापत्रयेण तप्तानां, सर्वसंसारिणां सदा ॥ यैर्जनैः श्रीमहावीरदेवस्य शरणं कृतम् । प्राणादीनां वियोगे ते, मुक्ति यान्ति न संशयः ॥ कलौ जैनेन्द्रसर्वज्ञवीरादन्यो न मुक्तिदः । परब्रह्ममहावीरार्पणं विश्वासतः शुभम् ॥ महावीरस्य वेदान्तः, स्यादादपदलाञ्छितः। अनेकान्तमयं तत्र, ब्रह्मतत्त्वं प्रकाशितम् ॥ महावीरागमा वेदाः सर्वे स्यावादसंयुताः । नास्तिकास्तत्र मुस्यन्ति, सारं गृह्णन्ति साधवः ॥ गुरुरेव महावीरः, पिता माता च संयमी। तेषां सेवैव वीरस्य, सेवा मुक्तिफलप्रदा ॥ रोगिणां रोगनाशार्थ, दुःखनाशाय दुःखिनाम् । क्रियते कर्म यत्किश्चित्तन्महावीरपूजनम् ॥ ज्ञानविद्याकलैश्वर्थप्रचारार्थ मनीषिभिः । यत्कर्म क्रियते विश्वशान्त्यै तबीर पूजनम् ।। पशुपक्ष्यादिरक्षार्थ, सर्वचेष्टास्ति देहिनाम् । महावीरस्य सेवैव, धर्मार्थकामसाधिका ॥ चतुर्विधमहासंघसर्वशक्तिविवृद्धये । सर्वकमैव तद्भक्तिर्महावीरफलप्रदा ॥
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[चेटकस्तुतिः सत्प्रेममयो वीरः, सत्यबोधात् प्रकाशते । दानमेव शुभो वीरो, दानात्यागः प्रकाशते ॥ ९५ शुद्धश्रद्धा महावीरः, पञ्चज्ञानमयस्तथा । सर्वजातीयशक्तिस्तु, वीर एव न संशयः ॥ सर्वजातीयतीर्थानां, कारको वीर एव सः। सर्वतीर्थमयो वीरस्तीर्थ, स्वात्मप्रकाशकम् ॥ तीर्थमात्मैव संबोध्य, उपादानस्वरूपकम् । निमित्ततीर्थमात्मैव, जङ्गमस्थावरात्मकम् ॥ प्रेम्णा नमस्कृतिः कार्या, दृष्ट्वा जीवान्परस्परम् । नमस्कार्यमहावीरः, सर्वदेहेषु तिष्ठति ॥ राम एव महावीरः, सीताऽस्ति शुद्धचेतना। कृष्ण एव महावीरो, राधाऽस्ति शुद्धचेतना ॥ .. .. १०० अम्बिकैव महावीरः, काली चक्रेश्वरी तथा । देवदेव्यो महावीरादभिन्नास्तु स्वरूपतः ॥ देवानां सर्वदेवीनां, रूपनामादिकल्पनाः । परब्रह्ममहावीरे, लयं यान्ति स्वभावतः ॥ १०२ अतः कलौ महावीरनामरूपादिसेवनम् । कर्त्तव्यं परमप्रीत्या, पूर्णब्रह्मप्रकाशकम् ।। परब्रह्ममहावीरं, व्यापकं परमेश्वरम् । अविदित्वा निजात्मानं, नाऽन्ये मार्गा विमुक्तये ॥ १०४ जैनधर्मो महावीरः, संघश्चैवं त्रिमूर्तयः। जीवानां मुक्तये सन्तु, सर्वमङ्गलहेतवः ॥ एक एव महावीरो, जैनेन्द्रः परमेश्वरः । विश्वाधारः परब्रह्मा, शरण्यः सर्वदेहिनाम् ॥ १०६
१०५
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चेटकस्तुतिः] चतुर्दशमहाखप्नसूचितोऽध्यात्मशक्तितः। आत्मरूपमहावीरः, परिपूर्णो विलोक्यते ॥ बहिरन्त हावीरः, सर्वैरतिशयैर्युतः। पूर्णव्यक्तिपरब्रह्मा, दृश्यतेऽयं जगत्पतिः ॥ १०८. यथाऽयं व्यक्तितो वीरस्तथा मर्वेऽपि सत्तया। . परब्रह्ममहावीरप्राप्तिस्तु व्यक्तिशक्तितः ॥ प्राप्नुवन्ति न निर्वीर्याः, शुद्धात्मानं जिनं खयम् । प्राप्नुवन्ति स्वयं शुद्धं, सवीर्याः स्वीयशक्तितः॥ ११० दर्शनज्ञानचारित्ररूपत्रिमूर्तयः सदा। व्यक्तिसमष्टिरूपेण, सन्तु सर्वात्मशुद्धये ॥ दर्शनं तु महाब्रह्मा, चारित्रश्च महेश्वरः । पूर्णज्ञानं महाविष्णुरेतन्मूर्तित्रयं जिने ॥
११२ दर्शनज्ञानचारित्रत्रिशूलेन महाजिनः । रागद्वेषादिशत्रूणां, नाशकोऽहन्महाप्रभुः ॥ . ११३ वीर्यसिंहं समारुह्य, ध्यानवज्रेण कर्मणाम् । सर्वथा नाशकर्ता यो, महावीरोऽस्ति शान्तिदः॥ ११४ वीर्यहीना न जीवन्ति, जीवन्ति वीर्ययोगिनः । सर्ववीयस्वरूपोऽस्ति, प्राप्यो वीरो महाजनैः ॥ ११५. एक एव महावीरः, परेशोऽस्ति महाप्रभुः । पालकः सर्वविश्वस्य, सर्वज्ञः सर्वशक्तिमान् ॥ शुद्धात्मैव महावीरस्त्रिशलैव महामतिः। अन्तरात्नैव सिद्धार्थो, यशोदा शुद्धचेतना ॥ ११७ असंख्यातप्रदेशस्तु, जन्मभूमिः प्रतिष्ठिता। पर्यायाणां गुणानाञ्च, सर्वाधारः स्वभावतः ॥ ११८
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[ चेटकस्तुतिः परब्रह्ममहायोनिरसंख्यातप्रदेशकः । असंख्यदेवदेवीभिः, स्तुतो वीरो महाप्रभुः॥ वीरात्संजायते वीरो, वीरो वीरेण लभ्यते । अप्राप्यो वीर्थहीनेन, महावीरः स्वयंप्रभुः ॥ महावीरावतारोऽस्ति, पूर्णव्यक्तात्मशक्तिमान् । महादिव्यभवस्तस्य, सत्यधर्मप्रकाशकः ।। पूर्णानन्दघनो व्यक्तो, जायते ज्ञानिनां हृदि । वादेषु प्रतिवादेषु, व्यक्तरूपो न जायते ।। १२२ ॐ अर्ह श्रीमहावीरनाम्नः संस्मरणाद्वदि । महाहत्यादिपापानां, भवेन्नाशो न संशयः ॥ सर्ववर्णाऽधिकारोऽस्ति, महावीरस्य सेवने । महावीरस्य साहाय्यं, भक्तानां जायते सदा ।। महावीरस्य माहात्म्यं, ज्ञापयत्यखिलं जगत् । ज्ञानेन ज्ञायते सम्यग्देहाऽतीतो निरञ्जनः ॥ निराकारमहावीरो, दृश्यते नैव देहिभिः। इन्द्रियैमनसा चैव, मन्त्रतन्त्रादिभिस्तथा ॥ निराकारमहावीर, आत्मनि स्वात्मना स्वतः । सच्चिदानन्दरूपेण, योगिना स्वाऽनुभूयते ॥ साकारस्तु महावीरो, दृश्यते बाह्यचक्षुषा। . देशनाद्यैर्महावीरः, सर्वलोकस्य तारकः ॥ असंख्याता महावीराः, सन्तो ब्रह्मस्वरूपिणः । दृश्यन्ते शुद्धरागेण, श्रद्धया च महीतले ॥ १२९ निराकारो महावीरो, देहातीतो निरञ्जनः । सर्वज्ञः सर्वगः पूर्ण, एको देवो महाप्रभुः ॥
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बेटकस्तुतिः ]
नामाकृतिविभिन्नोऽपि, गुणैः सर्वत्र सर्वदा । एक एव महावीरस्स्वमेव परमेश्वरः ॥ सत्त्वरजस्तमोवृत्तिनाशकश्चेतनप्रभुः । प्रकृतिस्तु महादेवी, जीवानां सहगामिनी ॥ महावीरकृपापात्र सत्त्वानां प्रकृतिः स्वयम् । दर्शयति शिवस्थानं, सतां सन्मार्गदर्शिनी ॥ सत्त्वगुणस्वरूपैव महादेवी शुभङ्करा । वीराज्ञावर्त्तिनी जीव स्वर्गादिप्राप्तिकारिणी ॥ सगुणा महादेवी, विचित्राकृतिधारिणी । पुण्यरूपा च सर्वत्र, भावकर्मैव गीयते ॥ परब्रह्ममहावीर शासनाधीन वर्त्तिनी । बाह्यवीरस्वरूपैव प्रकृतिर्जीववर्त्तिनी ॥ प्रकृतिरेव संसारो, द्विधा सा सर्वथा स्थिता । जडा च चेतना नित्या, महाशक्तिर्द्विधा तथा ॥ प्रकृतिस्तु जड़ा बोध्या, ब्रह्मशक्तिस्तु चेतना । बाह्यान्तरस्वरूपे दे, जीवपुद्गलद्रव्ययोः ॥ महावीरस्य संज्ञाने वर्त्तेते ज्ञेयभावतः । अतः सापेक्षबोधेन, श्रीवीराऽभेदता तयोः ॥ महासत्ता महामाया, जीवाजीवप्रवर्त्तिनी । संग्रहनयसत्तात, एकैवाऽनेकधाऽपि सा ॥ ज्ञानज्ञेयस्वरूपेण, वीरस्याऽधीनवर्त्तिनी । भिन्ना नैव तदाज्ञातो, भिन्नाभिन्नाऽस्त्यपेक्षया ॥ १४१
,
महावीरस्वरूपा सा, तद्वशाः सर्वशक्तयः । अतः श्रीमन्महावीरादन्यत्सेव्यं न वर्त्तते ॥
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[चेटकस्तुति आत्मैव श्रीमहावीरः, स्वकीयहृदये स्थितः। सर्वगः सर्वविश्वस्य, स स्वामी सर्वशक्तिमान् ॥ १४३ अन्तर्दृष्टिप्रयोगेण, महावीरः प्रलोक्यते। आत्मनि स्वात्मरूपेण, सच्चिदानन्दलक्षणः ॥ १४४ येषु देशेषु राष्ट्रेषु, समाजेषु च शक्तयः। प्रकाशन्ते स्वतन्त्रेण, तत्र वीरस्य वासता ॥ परतन्त्रमनुष्याणां, स्वातन्त्र्यार्थ मनीषिभिः । क्रियते कर्म यत्तच्छीमहावीरस्य सेवनम् ।। १४६ यत्र श्रीवीरदेवस्य, कृपावासः प्रजायते । दुष्कालादिविपत्तीनां, नाशस्तत्र विजायते ॥ १४७ सर्वराष्ट्रसमाजेषु, महावीरस्य संस्तुतिः । अहर्निशं भवेत्तत्र, श्रीधृतिकीर्तिकान्तयः॥ - महावीरकृपार्थ ये, कुर्वन्ति प्रार्थनादिकम् । शीघ्रं तदुन्नतिर्योग्या, जायते गुप्तशक्तितः ॥ संघे वर्णे समाजे चाऽस्पर्यभेदस्य मान्यता । तत्र वीरापमानेन, विद्यादीनां क्षयो भवेत् ॥ उच्चनीचजनाः सर्वे, महावीराः स्वसत्तया। महावीरतिरस्कारस्तद्धिक्कारविधानतः ॥ सर्वजातीयजीवेषु, कर्त्तव्यं वीरदर्शनम् । चतुर्गतिषु जीवेषु, स्वात्मवद्दर्शनं महत् ॥ कर्मोपाधिकृतान्भेदान्पश्यन्ति नैव पण्डिताः । यत्र तत्र महावीरं, पश्यन्ति ब्रह्मयोगिनः॥ १५३ तथापि व्यवहारेण, स्शधिकारप्रवृत्तिषु । वत्तितव्यं यथायोग्यं, सर्वजातीयनीतितः॥ १५४
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चेटकस्तुतिः ] स्वाधिकारो न मोक्तव्यो, व्यावहारिककर्मसु । महावीरशुभाव, सर्वोन्नतिप्रचारिणी॥... महावीरस्य गीतानि, गायन्ति बोधपूर्वकम् । तेषु व्यक्तो महावीरो, जायते प्रेमयोगतः ॥ . १ ब्रह्माण्डानामनन्तानां, चक्रं यस्योपदेशवत् । वर्तते क्रमशः सोऽयं, महावीरोऽस्तु शान्तये ॥ १५७ यः कर्त्ता नैव संहर्ता, जीगनां कर्मणां तथा । साक्षीभूतो जिनेन्द्रः स, निराकारो निरञ्जनः ॥ १५८ कर्मयोगेन साकारो, वीरः कर्ताऽस्ति युक्तितः। कर्मातीतदशायान्तु, कत्तृत्वं नैव वस्तुतः ॥ कारकषद्कयोगेन, शुद्धवीरेषु वस्तुतः। कर्तृत्वमान्तरं नित्यसिद्धेषु परिवर्त्तते ॥ अशुद्धजीवीरेषु, कर्ममिश्रितकता। तथापि शुद्धसत्तातः, कर्तृत्वमान्तरं सदा ॥ संग्रहनयसत्ताकमहावीरप्रभौ सदा। कर्तृत्वादिसमावेशात् , पूज्यः संपूर्णरागतः ॥ कालादिपञ्चहेतूनां, संघोऽस्ति सर्वशक्तिमान् । चराचरजगत्कर्ता, महावीरो महाबलः ॥ १६३ वीरत्वमवबोद्धव्यं, कालादीनां स्वशक्तितः। वोरबोधानुसारेण, वर्तन्ते स्वस्वभावतः ॥ महावीरस्य भक्ता ये, चतुर्वर्णादिमानवाः। तेषु वीरस्य वासत्वादस्पर्यत्वं कदापि न ॥
१६५ येषां हृदि महावीरो, जैनेन्द्रः पावको महान् । अशुच्यस्पश्यदोषास्तु, तेषां नैव विवाधकाः ॥ १६६
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अर्हद्वीरस्य संजापात्सूतकादिप्रकल्पिताः । दोषास्तु तत्त्वतो नैव, तथा पापं न देहिनाम् ॥ महावीरमयो यस्य, स्वात्मा जातोऽस्ति रागतः । बाह्यान्तरपवित्रः स कर्माण्यपि सदाचरन् ॥ वीररूपं जगत्सर्व, यदि प्रतिभासते । प्रतिबन्धो भवेत्कुत्र, त्याज्यं किं तस्य विद्यते ॥ वीररूपो महाज्ञानी, सैव भक्तशिरोमणिः । तद्वृदि नैव कर्त्तव्यमकर्तव्यञ्च विद्यते ॥
उच्चनीचादिभेदास्ते, जनेषु नैव वस्तुतः | गुणकर्मविभागेन, चतुर्वर्णविभागता ॥
[ चेटकस्तुतिः
ॐ अर्ह श्रीमहावीर ! सर्वशक्तिप्रकाशक ! । शान्तिं तुष्टिं तथा पुष्टिं कुरु मे भक्तिरागतः ॥ इत्येवं मन्त्रजापेन, संस्कारादिशुभक्रिया । गुर्वाज्ञया प्रकर्त्तव्या, जैनलक्षणमीदृशम् ॥ संस्कारेषु महावीरशक्तीनां व्यक्तता भवेत् । 'आत्मनामिन्द्रियाणाञ्च, संस्काराः शक्तिवर्द्धकाः ॥ ज्ञानभावसमेता ये, संस्काराः स्वोन्नतिप्रदाः । हर्षोल्लासेन कर्त्तव्याः, सर्वकर्त्तव्यकर्मणाम् ॥ आन्तरबाह्यशक्तीनां वृद्धयर्थं सर्वयुक्तिभिः । कर्त्तव्याः सर्वसंकारा, वीराज्ञेति महाफला ॥ प्रारंभे सर्वकार्याणां मङ्गालार्थ जनैः सदा । ॐ अर्ह श्रीमहावीरजापः कार्यः शुभङ्करः ॥ प्राणान्तेऽपि न सन्त्याज्यो, महावीरप्रभुर्महान् । तत्त्यागे चक्रवर्त्यांद्या, रङ्कायन्ते न संशयः ॥
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चेटकस्तुतिः ] स्वात्मैव श्रीमहावीरस्तत्त्यागे मृतकोपमाः। जना भवन्ति सर्वत्र, शक्तिहीना महाधमाः॥ १७९ समूहः सर्वशक्तीनां, स्वात्मैव सर्वभासकः । तत्त्यागे सर्वस्वातन्त्र्यशक्तिनाशोऽस्ति देहिनाम् ॥ १८० आन्तरबाह्यशक्तीनां, वृद्धयर्थ यद्विधीयते। तत्तु वीरस्य पूजैव, सेवाऽस्ति सर्वदेहिनाम् ॥ १८१ भक्ताधीनो महावीरो, भक्तभावानुसारतः। दात्येव फलं सम्यगसंख्यातप्रदेशवान् ॥ मोहासक्ता न पश्यन्ति, महावीरप्रभुं हृदि । देहाध्यासविनिर्मुक्ता, यान्ति वीरं न संशयः॥ वैषयिकसुखासक्तिर्यस्यात्मनो विनिर्गता। तदात्मैव महावीरः, पूर्णानन्दवरूपवान् ॥ सुखदुःखे न मुह्यन्ति, लाभाऽलाभे जयाऽजये। आत्माराममहावीरं, पश्यन्ति ते महाजनाः ॥ समत्वमेव वीरं यः, सर्वलोकेषु पश्यति । परब्रह्ममहावीरः, स एव परमेश्वरः ॥ सर्वसारेषु सत्सारो, महावीरप्रभुः सदा । परब्रह्ममहावीरो, रसेष्वेव महारसः ॥
१८७ जिनेन्द्रः श्रीमहारामः, सर्वसारमहारसः । महावीरः स संध्यो, महाकृष्णो महाहरिः ॥ तीर्थकृदन्तिमो देवो, विश्वोद्धारकयोगिराट् । पूर्वतीर्थेशभिर्दिष्टो, वर्द्धमानो महाजिनः ॥ महावीरं विना कोऽपि, तारको नैव वस्तुतः । सूर्यचन्द्रादयो यस्य, माहात्म्यस्य निवेदकाः॥
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[ चेटकस्तुतिः धर्माधर्मादिद्रव्याणां, धर्माज्ञाया नियामकः । अनाद्यनन्तकालीनमहावीरो हृदि स्थितः ॥ सर्वजातिकलानाथः, सर्वजातिकलाप्तये । महावीरः सदा सेव्यः, सर्वजातिजनैर्मुदा ।। नित्यानन्दमयं पूर्ण, परात्मानं सनातनम् । महावीरं हृदि प्राप्य, पूर्णरामो भवेज्जनः॥ स्पर्शेन्द्रियादिभोगेषु, पूर्णरामो न मुह्यति । प्रारब्धकर्मभोक्ताऽपि, नैव भोगी स्वभावतः॥ पुण्यपापविपाकानां, भोक्ताऽपि बाह्ययोगतः। स्वात्मनि श्रीमहावीर, परानन्दं समश्नुते ॥ अनित्येषु सुखेष्वेव, वीरभक्तो न मुह्यति । परानन्दमयं वीरं, विना किश्चिन्न वाञ्छति ॥ ... १९६ सर्वकर्माणि कुर्वन्सन्नखण्डानन्दवेदकः। तथापि न करोत्येव, निबन्धः सर्वकर्मसु ।। अकर्तव्ये च कर्त्तव्ये, स्वतन्त्र आत्मबोधतः । आत्मप्रारब्धवेगेन, तस्य कायादिचेष्टितम् ॥ १९८ विश्वाधारमहावीरं, विना मुक्तिन देहिनाम् । कामासक्त्यादयो दोषा, नश्यत्ति नैव तं विना ॥ १९९ महावीरकृपां प्राप्य, नश्यन्ति तेऽतिवेगतः। गुरुमेव महावीरं, स्वं ज्ञात्वा यान्ति मुक्तताम् ॥ २०० दर्शनज्ञानचारित्रब्रह्मविष्णुमहेश्वराः। एवं त्रिमूर्तिरूपः स, वीरो व्यक्तो भवेद्धदि ॥ २०१ कलौ मेम्णा महावीरः, प्रत्यक्षो व्यक्तरूपतः । स्वस्मिन्स्वानुभवेनैव, स्वात्मरूपोऽनुभूयते ॥ २०२.
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कस्तुतिः ]
नयैर्भङ्गेश्व निक्षेपैर्नैव गम्यो विकल्पकैः । परब्रह्ममहावीरः, शुद्धबुद्धधाऽनुभूयते || निरञ्जनो निराकारो, महावीरोऽनुभूयते । आनन्दोल्लासरङ्गेण, निर्विकल्पात्मना स्वयम् ॥ साकारस्तु महावीरचक्षुषा मनसा तथा । दृश्यते देहयोगेन, गुणस्थानस्थचेतनः ॥ गुणस्थानक्रमेण श्रीमहावीरोऽस्त्यनेकधा । गुणानां तारतम्येन, व्यक्तशक्त्यादिधारकः ॥ व्यावहारिकशक्तीनां व्यक्तता तारतम्यतः । मनोवाक्काययोगस्थो, महावीरोऽस्त्यनेकधा ॥ अनेकधा महावीराः, पर्यायाणामपेक्षया । एक एव महावीरो, द्रव्यसत्तास्वरूपतः ॥ बाह्यातिशय मुख्यत्वान्महावीरस्य दर्शनम् । क्रियते बालजीवैस्तद्द्रव्यदर्शनमुच्यते ॥ दर्शन ज्ञान चारित्रगुणैर्वीरस्य दर्शनम् । क्रियते ज्ञानिभिस्तत्तु, भावदर्शनमुच्यते ॥ आन्तराऽतिशयैः सर्वैः, शुद्धात्मवीरदर्शनम् । कुर्वन्ति ज्ञानिनो लोका, भवन्ति मुक्तिगामिनः ॥ भावेन प्राप्यते देवो, यत्र तत्राधिरोपतः । अन्तर्दृश्यः स्वयं द्रष्टा, दर्शनं भावतो हृदि ॥ आत्मैव श्रीमहावीरो, देहदेवालयस्थितः । त्रिशला चेतना माता, ज्ञानसिद्धार्थसत्पिता । देशसेवा महाराष्ट्रविद्या सत्तादिशक्तये । महावीरस्वलाभाय, सेव्यो वीरः सुयुक्तितः ॥
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[ चेटकस्तुतिः अधर्मस्य विनाशाय, दुष्टानां शासनाय च । सर्व विधीयते यत्तन्महावीरस्य पूजनम् ॥ २१५ जैनधर्मस्य रक्षार्थ, जैनानां वृद्धये तथा । क्रियते सर्वथा यत्सा, वीरसेवैव युक्तितः ॥ विश्ववर्तिमनुष्याणां, कल्याणाय विवेकिभिः। सर्वत्र क्रियते यत्स, वीर एवाऽस्ति मुक्तये ॥ स्वायत्तवित्तसत्तादिशक्तीनां रक्षणेऽखिलम् । धर्मिभिः क्रियते यत्तन्महावीरस्य सेवनम् ॥ बाह्यान्तरस्वशक्तीनां, स्वातन्त्र्यार्थ कलौ युगे। महावीरस्य सेवैव, क्रियते यव्यवस्थया । धर्म्ययुद्धादिकं सर्व, सत्यधर्मस्य रक्षणे। वीरसेवैव संबोध्यं, तत्र दोषा न धर्मिणाम् ॥ ... २२० पापदोषनिवृत्त्यर्थ, क्षात्रकर्मविवेकिभिः । क्रियते तत्र दोषास्तु, निर्दोषार्थ च मुक्तये ॥ सर्वबाह्यान्तरव्यक्तशक्तिवीराप्तये सदा । क्रियन्ते यानि कर्माणि, तानि सर्वाणि मुक्तये ॥ २२२ श्रीमहावीरसेवाया, आत्मोत्क्रान्तिः क्षणे क्षणे । स्वात्मनः श्रीपरब्रह्मरूपं व्यक्तं प्रजायते ॥ देहप्राणवियोगेन, मृत्युः स्याद् व्यवहारतः । देहाणवियोगेऽपि, चेतनो नैव नश्यति ॥ देहप्राणवियोगस्तु, जायते जीर्णवस्त्रवत् । कृतकर्मप्रसंगेन, प्राप्नोत्यात्माऽपरं वपुः ॥ अन्याऽन्यदेहसंयोगे, स्वात्मोत्क्रान्तिः प्रजायते । अनुभवानां व्यक्तत्वात्पूर्णोऽनुक्रमतो भवेत् ॥
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चेटकस्तुति: ]
अनुक्रमेण देहानां प्राप्तौ ज्ञानांशशक्तयः । पूर्णत्वेन विकासन्ते, चेतने ज्ञेयभावतः ॥ अतः प्राणवियोगोऽस्ति, मृत्युरात्मोन्नतिक्रमे । आत्मनो व्यक्तिरूपत्वाद्गण्यते योगिभिः शुभः ॥ नाप्नोति मृत्युतो भीति, महावीरस्य सेवकः । देहादिस्वार्पणे योगी, कुत्राऽपि नैव मुह्यति ॥ पूर्णतेजोऽर्णवो वीरो, बहिरन्तः प्रकाशकः । तदशा अन्यदेवाद्या, यथाब्धौ जलबिन्दवः ॥ परिपूर्ण परब्रह्म, महावीरोदधिर्महान् । तत्तरङ्गसमा ज्ञेया, अन्यदेवाश्च देवताः ॥ देवा देव्यश्च लीयन्ते यस्य तेजोऽर्णवे सदा । महावीरोऽस्तु शान्त्यर्थ, सर्वत्र व्यापकः प्रभुः ॥ व्यक्ताव्यक्ततया धर्मा, जैनधर्मोदधौ सदा । जलबिन्दुसमा ज्ञेयाः, पूर्णब्रह्मप्रतिष्ठिते ॥ बहिरन्तः सदा पूर्णसर्वशक्तिमहोदधिः । महावीरोऽस्ति तच्छक्तिबिन्दुरूपाऽन्यदेवताः ॥ निरञ्जनो निराकारस्तेजोरूपमहाप्रभुः । महावीरो जगत्येकः, सर्वधर्मनियामकः ॥
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यस्य तेजोऽर्णवे सव, विश्वं बिन्दुसमं सदा । भाति सोऽस्ति महावीरः सर्वतो यः परात्परः ॥ नरनारायणा यस्य, सर्वव्यापकतेजसि । विस्फुलिङ्गसमा भान्ति, महावीरः स शक्तिदः ॥ ज्योतिषामपि यो ज्योतिर्भासकः सर्वतेजसाम् । परब्रह्ममहावीरे, लीनोऽस्मि पूर्णरागतः ॥
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[चेटकस्तुतिः जगत्त्रये न सारोऽस्ति, महावीरप्रभु विना । त्यक्त्वाऽन्यत्सच्चिदानन्दे, वीरे लीनोऽस्मि भावतः॥ २३९ तत्त्वमसि परब्रह्म ! महावीर ! जगत्त्रये । त्वां विनाऽन्यपदार्थेषु, मग्नता नैव जायते ।। यत्र तत्र महावीर ! त्वज्योतिर्भासते हृदि । त्वयि मदीयचित्तस्य, लीनताऽस्तु स्वभावतः ॥ २४१ भक्त्याऽहं त्वयि लीनोऽस्मि, सर्वव्यापकतेजसि। त्वां विनाऽन्येषु भावेषु, नैव रागोऽस्ति मे क्वचित् ॥ २४२ परब्रह्म महावीर ! त्वयोद्धारोऽस्ति मामकः । त्वयि मदात्मनः सर्वमर्पणं मुक्तिहेतवे ॥
२४३ मदीयज्योतिषां योगस्त्वत्पूर्णाखण्डतेजसि । ऐक्यरूपेण सर्वत्र, सर्वथा जायतां सदा ॥ २४४ पूर्णरागेण मग्नस्त्वदनन्तानन्ततेजसि । अनन्तानन्ततेजोन्धिरात्माऽसंख्यप्रदेशवान् ॥ २४५ पूर्णानन्दमहाज्योतिः, सर्वत्र सर्वशक्तिमान् । महावीर परब्रह्म ! त्वमेवाहमभेदतः ॥ परब्रह्मणि संलीने, मत्ततेंदो न भासते । सविकल्पदशायां तु, स्वामिसेवकभावता॥ २४७ निर्विकल्पपरब्रह्मसमाधावात्मशक्तयः । विकासन्तेऽनुभूयन्ते, योगिभिनिर्विकल्पकैः ।। २४८ निर्विकल्पनिराकारपरब्रह्ममहौजसि । स्वयि लीनः परप्रीत्या, नामरूपादितः परे ॥ मोहादिसंक्षयेणैव, सर्वथा सर्वदा त्वयि । शुद्धात्मलीनता मुक्तिरात्मरूपा स्वभावतः ॥ २५०
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चेटकस्तुतिः] आत्माऽसंख्यप्रदेशेषु, ज्ञानानन्दादिपूर्णता। आविर्भावेण सा व्यक्ता, पूर्णमुक्तिः स्वभावतः॥ २५१ प्ररूपिता अपेक्षातो, मोक्षभेदा अनेकशः । त्वया पूर्णावबोधेन, मग्नता चाऽस्तु मे त्वयि ॥ २५२ आत्माऽसंख्यप्रदेशी त्वं, परात्मा परमेश्वरः । त्वमेवाऽहं समाधिस्थो, व्यक्तशक्तिस्वभावतः ॥ २५३ त्वयि रागस्तु मे पूर्णो. मुक्तिरूपा च मग्नता । कलौ त्वयि महाप्रीत्या, मुक्तिरेवाऽस्ति देहिनाम् ॥ २५४ आत्मप्रदेशरूपन्तु, पूर्णसर्वज्ञमन्तरा। ज्ञायते नैव केनाऽपि, विश्वासस्तत्र मुक्तिदः ॥ २५५ अतितर्का न कर्तव्या, जनैः श्रीवीरभाषिते । अरूप सर्वथा वेत्ति, सर्वज्ञः पूर्णभावतः ॥ २५६ स्वदुक्तसर्वतत्त्वेषु, श्रद्धा मेऽस्ति सुखावहा। त्वयि संपूर्णविश्वासो, व्यक्तस्त्वं मदि प्रभो !॥ २५७ गतिस्त्वमेव जीवानां, भक्तानां पूर्णरागतः । स्वस्वरूपन्तु वेत्सि त्वं, सर्वज्ञदृष्टिशक्तितः॥ २५८ स्वयि संपूर्णविश्वास्ये, विश्वानन्तमहौजसि । पूर्णरूपेण लीनोऽहं, यद्योग्यं तत्कृरुष्व मे ॥ 'शुद्धात्ममत्स्वरूपस्त्वं, मत्तदैक्यं स्वभावतः। त्वमेवाऽहं महादेव! द्रव्यपर्यायसाम्यतः ।। पूर्णब्रह्म महावीर ! केवलज्ञानतेजसि। विस्फुलिङ्गसमा वेदा, दृष्टिवादागमादयः ॥ २६१ अनन्तागमवेदाद्या, दृष्टिवादादयस्तथा । उत्पद्यन्ते विलीयन्ते, त्वदीयज्ञानवारिधौ ॥
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[ चेटकस्तुतिः दुर्बलानामनाथानां, पीडाकारकमानवाः। निर्वशास्ते प्रजायन्ते, प्रान्ते च दुःख भोगिनः॥ त्यागिनां दुर्बलानाञ्च, पीडनं दुःखकारकम् । तेषां दुराशिषा दुःखदावाग्नितप्तमानवाः ॥ २६४ निरपराधिजीवानां, हिंसकाः पापयोनिषु । जायन्तेऽनेकदेहस्ते, मुक्ति यान्ति न दुर्जनाः ॥ अनाथानां सहायेन, लोका यान्ति परं पदम् । अनाथा यत्र पीडयन्ते, तत्र दुःखपरम्परा ॥ २६६ महावीरकृपायोग्या, जायन्ते न नराधमाः । शुद्धबुद्धिं न ते यान्ति, गुरुवीरकृपां विना ॥ महावीरे त्वयि पूर्णश्रद्धावास्त्वजनोऽस्म्यहम् । स्वां विनाऽन्यं न याचेऽहं, प्रसीद परमेश्वर !॥ ..... २६८ त्वय्यहं पूर्ण विश्वासी, स्मरामि त्वां क्षणे क्षणे । त्वद्वियोगं सहे नाऽहं, क्षणमात्रमपि प्रभो ॥ २६९ याहरभावो भवेद्यस्य, त्वं तादृक् तद्धदि स्वयम् । व्यक्तो भव निजात्मस्त्वं, पूर्णरूपेण मद्धदि ॥ २७० आत्मनो ज्ञानचारित्रपर्यायाणां विशेषतः । प्राकटयं व्यक्तरूपं यत्त्वं तदेव नमोऽस्तु ते ॥ २७१ सत्पुण्यैश्यसे देव ! पापैस्तु नैव दृश्यसे । पुण्यमार्गप्रवृत्तानां, हृत्सु त्वं शर्मकारकः ॥ संवनिर्जराभेदेश्यस्त्वं त्वज्जनदि । पापमार्गप्रवृत्तानां, हृदि त्वं नैव गोचरः ॥ २७३ सर्वचैतन्यरूपेण, सर्वत्र सर्वदेहिषु । दृश्यसे त्वं स्वभावेन, चैतन्यसंघकल्पितः॥
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चेटकस्तुतिः ] देहेन्द्रियमन:स्वेव, चैतन्यानन्दशक्तयः । आत्मन एव ताः सन्ति, सोऽहं साक्षात्स्वयंप्रभुः॥ २७५. अन्यायासक्तिसंमोहम्मादाऽधर्ममत्सराः। बाघभोगविलासाश्च, सर्वसाम्राज्यनाशकाः ॥ २७६ अतिभोगविलासेन, देशसंघस्य संक्षयः । सर्वशक्तिविनाशश्च, लोकानां परतन्त्रता । स्वजनैः सर्वदा धार्या, शुद्धात्मानन्दलक्षता। बाह्यन्द्रियोपभोगेषु, वर्तमानैरपि ध्रुवम् ॥ २७८. स्वदीयधर्मसाम्राज्यनाशकाः सर्वदुगुणाः । तेभ्योऽतस्त्वजनैदरं, स्थेयमात्मविवेकतः ॥ २७९. त्वया प्रकाशिता वेदाश्चत्वारः संहितास्तथा। स्मृत्युपनिषदः सर्वाः, स्थाबादामृतनिझराः ॥ २८०. ऐतिहासिकवृत्तान्तदृष्टिवादागमादयः । पूर्वप्रकीर्णसूत्राद्या, गणेशै रचितास्तथा ॥
२८१ पार्श्वनाथजिनेन्द्रेण, वेदागमाः प्रकाशिताः । अन्येऽपि विद्यमानाच, गीताद्याः स्यात्पदाङ्किताः॥ २८२ पूर्णज्ञानसमुद्रे ते, बिन्दुरूपाः स्वरूपतः । आत्मशुद्धयुद्भवे ज्ञाने, भासन्ते ते विदां हृदि ॥ २८३ सम्यक्त्वदृष्टिलोकानां, सम्यक्त्वदृष्टियोगतः। सम्यक्तया प्रभासन्तेऽन्येवां मिथ्यातया च ते ॥ २८४ हिमालयोत्तरे खण्डे, सर्वसिद्धान्तवेदिनः। देवाः सन्ति महावीरभक्ताः पुस्तकरक्षकाः ॥ २८५ महावीरोक्तसिद्धान्तगुप्तपुस्तकरक्षकाः । भावियुगप्रधानाग्रे, कथयिष्यन्ति तान्स्वयम् ।।
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[चेटकस्तुतिः करिष्यन्ति च ते प्रीत्या, जैनधर्मप्रभावनाम् । “प्राकटयं देवदेवीनां, कलौ जातेस्तथाऽवधेः॥ २८७ चमत्कारेण सूर्याद्या, जैनधर्मोन्नतिं शुभाम् । करिष्यन्ति महावीरजैनेन्द्रभक्तिभाविताः ॥ २८८ अनाद्यनन्तकालीना, त्वद्गीता सत्यभावतः। त्वन्मुखाव्यक्ततां प्राप्ता, जयत्वाचन्द्रभास्करम् ॥ २८९ त्वद्भक्तैः सर्वजातीयगृहस्थैस्त्यागिभिस्तथा । स्वदुक्तसर्वयोगेषु, वर्तितव्यं प्रयत्नतः ॥ ॐ अर्ह श्रीमहावीर ! सर्वकल्याणकारक!। जैनधर्मप्रचाराय, भव सर्वत्र शक्तिदः ॥ त्वज्ज्ञानस्य प्रभावेण, संस्तुतः सर्वयोगतः । सर्वनयोक्तिगंभीरा, स्तुतिस्तव कृता मया ॥ प्रवर्त्तन्ते मदुक्त्या ये, त्वदाज्ञायां महाजनाः। * परब्रह्मपदं यान्ति, शुद्धात्मत्वत्प्रसादतः ॥ अन्यत्किश्चिन्न वाञ्छामि, स्वांविना भुवनत्रये । यद्यद्धाञ्छामि तत्तत्त्वं, यत्र तत्र यदा तदा ॥ मददि त्वं सदैवाऽसि, मत्सर्वस्वस्वरूपक !। मनोवाकायकर्माणि, त्वत्सेवैव भवन्तु मे ॥ ब्रह्माण्डे विद्यते यद्यत्तत्तत्पिण्डेऽस्ति वस्तुतः। भावान्तशोधकोऽनन्ते, वीरे याति लयं क्रमात् ॥ २९६ दृश्याऽदृश्यं प्रियं सर्व, महावीरः स्वयं हृदि । आकर्षति महाशक्त्या, ज्ञानेन पूर्णचेतनः ॥ २९७
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चेटकस्तुतिः ] प्रियात्प्रियतरं गच्छन्ननन्ते परमात्मनि।. अनुक्रमाल्लयं याति, प्रेमपाकात्स्वयं जनः ॥ यद्यदंशेन मोहस्य, नाशः स्यात्तत्तदंशतः । प्राकटयमात्मवीरस्य, जायतेऽनुभवस्ततः ॥ आत्मरूपमहावीररागान्मोहस्य संक्षयः । सर्वेषामात्मनां राग, एव वीरस्य पूजनम् ॥ राग एवाऽस्ति वैराग्यं, महावीरपरात्मनि । सर्वविश्व महावीर प्रभुरेकोऽस्ति सत्तया ॥ अनन्ताऽनन्तपिण्डेषु, ब्रह्माण्डेषु च सत्तया । महावीरमभुर्विश्वे, व्यापकोऽस्ति बृहस्पतिः ॥ अनाद्यनन्तकालीनो, वीरोऽस्ति द्रव्यतः स्वयम् । ज्ञानादिव्यक्तपर्यायात्सादिसान्तोऽस्त्यपेक्षया ॥ सर्वरसस्वरूपोऽस्ति, महावीरप्रभुहृदि । सर्वनयप्रबोद्धारो, जानन्त्येवमपेक्षया ॥ एकोऽस्ति द्रव्यतो वीरः, पर्यायावहुधा सदा । एकानेकमयं वीरमात्मानं समुपास्महे ॥ सुषुप्त्याद्यास्ववस्थासु, महावीरस्वरूपताम् । विज्ञाय श्रीमहावीराः, स्वयं भवत मानवाः॥ राश्यादिकालरूपेण, महावीरो महेश्वरः। स्वाधिष्ठानादिचक्रेषु, धीरः शक्तिप्रदायकः ॥ ब्रह्मरन्ध्र महावीरश्चिदानन्दः प्रभुः स्वयम्। . तीर्थस्थानस्वरूपोऽस्ति, गुणस्थानप्ररोहकः ॥
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[ चेटकस्तुतिः हृदभूभ्यां सर्वतीर्थानि, सन्ति सन्तो निबोधत । ब्रह्माण्डवर्तितीर्थानि, पिण्डे सन्ति निभालत ॥ ३०९ सर्वतीर्थमहावीरो, द्रव्यतो भावतस्तथा । आध्यात्मिकमहाशक्तिप्रद आत्मा स्वभावतः॥ यस्याग्रे दृष्टिवादाद्या, वेदोपनिषदागमाः । विस्फुलिंगसमा भान्ति, तं वीरं समुपास्महे ।। ३११ भूता भवन्ति वेदाद्या, भविष्यन्ति यदात्मतः। वर्द्धमानं महावीरमनन्तं समुपास्महे ॥ योगसंकेतनामानि, सूर्यादीनि स्वभावतः । आत्मवीरस्य बोध्यानि, साक्षाद्वीरमुपास्महे ॥ ३१३ अनन्तलयसर्गेषु, महावीरो महेश्वरः । पराहन शाश्वतः पूर्णः, प्रकृतेयः परात्परः॥ ३१४ वीरः कर्ता तथा कर्म, वीरः करणमुच्यते । संप्रदानमपादानमाधार आत्मरूपतः ॥ षट्कारकखरूपोऽस्ति, पूर्णशुद्धात्मभावतः । अशुद्धकारकाणां यः, शुद्धताकारकः स्वतः ॥ अयं साक्षान्महावीरो, देहयोगेन देहिनाम् । तारकः केवलज्ञानी, वीतरागो जिनेश्वरः ॥ ३१७ इन्द्रादिसर्वदेवानां, देवीनाश्च मनीषिणाम्। शासकः श्रीमहावीरः, सर्वविश्वस्य जीवकः॥ ___३१८ सप्तधातुमहापर्वेष्टितात्मा जिनेश्वरः। चतुर्दशमहालोकाऽऽकारदेहस्य धारकः ॥
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चेटकस्तुतिः ] अनन्तदेहपृथ्वीनां, ज्ञानाऽनुभवधारकः । भूलोकानां ग्रहाणाञ्च, शासकः पूर्णशक्तितः॥ लय एव महारात्रिः, सर्ग एव महादिनम् । लयसर्गेषु सूत्रात्मा, महावीरो महाजिनः ॥ अभिन्नो लयसर्गेभ्यो, महावीरो जिनेश्वरः । पर्यायाणां गुणानां यो, व्ययोत्पादस्य धारकः ॥ महावीरगुणानां च, पर्यायाणां स्वभावतः। लयस! व्ययोत्पादौ, बोद्धव्यौ सर्वयुक्तितः ॥ स्थूलसूक्ष्मेषु भावेषु, व्ययोत्पादधुवात्मता। ब्रह्माण्डेषु च पिण्डेषु, वीरज्ञानेन बोध्यते ॥ सर्वब्रह्माण्डपिण्डानां, व्ययोत्पादधुवात्मता। सर्वज्ञश्रीमहावीराद्भिन्नाऽभिन्ना स्वभावतः ॥ अभेद ज्ञानपर्याययोगेन सर्वसत्तया। परब्रह्ममहावीर, एक एव प्रभुर्महान् ॥ केवलज्ञानपर्यायज्ञेयानां भिन्नयोगतः। भिन्नं जगन्महावीराद्भिन्नद्रव्याद्यपेक्षया ॥ सर्वब्रह्माण्डसारोऽस्ति, मनुष्ये सूक्ष्मरूपतः। अतो मनुष्यदेहेन, वीरात्मा प्राप्यते जनैः ॥ मानवपिण्डचक्राणां, ध्यानयोगेन मानवैः। सर्वब्रह्माण्डवस्तूनां, ज्ञानं हि क्रियते स्वतः ॥ सर्वब्रह्माण्डबोधार्थ, पिण्डचक्रेषु धारणा। ध्यानयोगः समाधिश्च, साध्यो पूर्णविवेकतः॥
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__ [चेटकस्तुति शुद्धात्मश्रीमहावीरप्राप्त्यर्थ भव्यमानवैः । पिण्डध्यानं विवेकेन, कर्त्तव्यमुपयोगतः ॥ ज्ञाते प्रभौ महावीरे, ज्ञातव्यं नावशिष्यते । ज्ञातो येन महावीरो, ज्ञातं तेन जगत्त्रयम् ॥ ३३२ सर्वरसोत्तमो वीरः, परब्रह्म सदुच्यते । एकोऽप्यनेकरूपेण, संकोचकविकासकः ॥ असंख्यातप्रदेशानां, संकोचो लय उच्यते । सर्ग एव विकासश्च, ध्रौव्यमात्मस्वरूपतः ॥ ३३४ आत्मरूपमहावीरः, सर्वज्योतिःप्रकाशकः । हृदि शोध्यो जनैः सर्वैः, सदगुरोः सत्यबोधतः ॥ ३३५. सर्वग्रहेषु यो वीरः, सर्वपिण्डेषु शाश्वतः। ब्रह्माण्डे सैव पिण्डेषु, सर्वसंग्रहसत्तया ॥ प्रकृत्यां वर्तमानोऽपि, भिन्नः प्रकृतितः स्वयम् । प्रकृतिर्योनिरूपाऽस्ति, ज्ञानलिङ्गं स्वयं प्रभुः॥ ३३७ लिङ्गप्रकृतिसंबन्धाद्विश्वोत्पत्तिः प्रजायते । ब्रह्माण्डेषु च पिण्डेषु, ज्ञेयमेवं स्वकर्मतः ॥ ब्रह्मैव श्रीमहावीरः, पिता विश्वस्य गीयते । प्रकृतिः शक्तिमातैर, ज्ञानं नन्दिः प्रकीर्त्यते ॥ ३३९. कर्मरूपमहायोनिरात्मलिङ्ग सदुच्यते । मन एव महानन्दिर्वीरस्यैवं त्रिमूर्तिता। महावीरो महादेवो, नाऽन्योऽस्ति भुवनत्रये । महावीरोऽस्ति सद्विष्णुर्यशोदा श्रीहदि स्थिता ॥ ३४१
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चेटकस्तुतिः ] ज्ञानाग्निर्हदयाकाशं, दर्शनं भूमिरुच्यते। आनन्दो वायुरेवाऽस्ति, सूर्यात्मा विश्वपावकः ॥ जलं शुद्धरसो ज्ञेय, इत्येवं सर्वरूपकः । आत्मरूपमहावीरः, पिण्डब्रह्माण्डवान्स्वयम् ॥ युगकल्पमहाकल्पलयसर्गविधायकः। महादेवमहावीरः, पश्चाननस्त्रिलोचनः॥ द्वित्रिचतुर्महानेत्रः, पश्चनेत्रोऽस्ति सर्वतः । सहस्राक्षो बहिश्चान्तः, सर्वविश्वप्रकाशकः ॥ चतुष्कोणस्त्रिकोणश्च, षट्कोणो ज्ञानचिह्नतः। महावीरप्रभुळक्तो, ज्ञायते सिद्धयोगिभिः॥ जिनालयस्थकूर्मादिज्ञानसंकेतचिह्नतः । महावीराऽहतो ज्ञान, ज्ञायते सर्वयोगिभिः ॥ चतुर्दशमहास्वप्नसंकेतज्ञानयुक्तयः। जैनधर्मस्य सिद्धान्तान्, दर्शयन्ति न संशयः ॥ अष्टमङ्गलसङ्केतो, जैनेन्द्रधर्मदर्शकः । दर्शयन्ति महाज्ञानं, यक्षदेव्यादिमूर्तयः॥ गुप्तज्ञानस्य चिहानि, महावीरेण युक्तितः। जिनालयादिभिः सम्यग्दर्शितानि यथा तथा ॥ पञ्चदशादिसद्यन्त्रैस्तीर्थसङ्केतबोधतः । आत्मरूपमहावीरगुप्तज्ञानं प्रकाशितम् ॥ देवविद्याधरादीनां, गुप्तः सङ्घः कलौ युगे। रक्षणं क्रियते तेन, गुप्तज्ञानस्य युक्तितः ॥ तत्प्राकटयं पुनः सैव, करिष्यति न संशयः। . महावीराहतो भक्तास्तजानन्ति विवेकतः॥
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[ चेटकस्तुतिः पञ्चमारे महावीरयोगिनां मण्डलं स्वयम् । जैनधर्मप्रवृत्त्यर्थ, प्रविश्य सूरिसाधुषु ॥ गृहस्थगुरुचित्तेषु, यद्योग्यं तत्करिष्यति । महावीरोपदेशेन, ज्ञात्वैवं वच्मि भावतः ॥ ३५५ सर्वे तेजस्विनः सन्तु, भवन्तु ब्रह्मवेदकाः । सर्वविघ्नानि नश्यन्तु, महावीरप्रसादतः ।। श्रोतारः सर्ववक्तार, आनन्दाद्वैितयोगिनः । भवन्तु सर्वमाङ्गल्यरूपा विश्वसहायकाः॥ ३५७ परब्रह्ममहावीररूपा भवन्तु देहिनः । सर्वजातीयलोकानां, भवन्तु शर्मसंपदः॥ ३५८ ॐ अर्ह श्रीमहावीर !, कुरु शान्ति जगत्त्रये । ... कल्याणं कुरु सर्वेषां, जैनानां सर्वशक्तितः॥ मङ्गलं भगवान्वीरो, मङ्गलं जैनशासनम् । मङ्गलं जैनसंघोऽस्तु, सर्वजातीयदेहिनाम् ॥ नयैर्नयोपभेदैश्च, संस्तुतस्त्वं महाशयैः । सर्वज्ञो वीतरागोऽसि, जैनेन्द्रो विश्वशासकः ॥ स्तुत एवं मया प्रेम्णा, द्वादशव्रतधारिणा । चेटकेनाऽऽहंतेनैव, भारतदेशभूभुजा ॥ विद्यालक्ष्मीमहासत्तास्वातन्त्र्यादिप्रदायकम् । त्वदुक्तसर्वयोगेन, जैनं जयतु शासनम् ।।
इति श्रीजैनमहावीरगीतायां चेटकस्तुति: समाप्ता
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शक्तियोगाऽनुमोदना
शक्तियोगं समाकर्ण्य, युवराजा भयोऽभयः । हर्षोल्लासेन संस्तौति, शक्तियोगं गुणालयम् ॥ सिंहवज्जैनसंघेन, स्थातव्यं सर्वशक्तिभिः । सिंहाङ्कितो महावीर, आज्ञापयति सर्वथा ॥ जयतु श्रीमहावीरो, जैनधर्मप्रकाशकः । पातु चरमतीर्थेशो, जैनानां सर्वशक्तिदः ॥ सर्वपराक्रमख्यातः, सिंहलाञ्छन संज्ञया । पञ्चमारे महावीरो, भूयान्नः सर्वशक्तिदः ॥ प्राप्तव्या जैनसंघेन, सर्वजातीयशक्तयः । जैनानां जीवनं नैव, कलौ शक्ति विना कदा ॥ मनोवाक्कायशक्तीनां विकासो योग्यशिक्षणैः । कर्त्तव्यः सर्वसंघेन, देशकालानुसारतः ॥ स्वात्मरक्षण शस्त्रादिशिक्षणं सर्वयुक्तितः । सर्वथा सर्वदा ग्राह्यं, धर्मस्वातन्त्र्यरक्षकम् ॥ विद्याव्यापारसत्तादिशक्तीनां रक्षणार्थिभिः । शौर्यायैः सिंहवज्जैनैः, स्थेयं सर्वत्र कर्मसु ॥ निर्बला नैव जीवन्ति, शक्तिविद्याधनं विना । प्राकटयं सर्वशक्तीनां, जैनसंघोन्नतिप्रदम् ॥
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[शक्तियोगाऽनुमोदना कलिधर्माऽनुसारेण, सर्वजातीयशक्तये। जैनानां वर्त्तनं धर्म्यमैक्यञ्च सर्वशक्तिदम् ॥ अल्पदोषमहालाभकारकमपवादतः । चतुर्वर्णस्थसज्जैनैः, सेव्यं कर्मसु शक्तिदम् ॥ सूरिवाचकसाधूनां, साध्वीनाश्चाऽपवादतः । शक्तिवर्द्धककर्माणि, शुभानि पञ्चमारके ॥ शक्तिदायककर्माणि, जैनानामपवादतः । भविष्यक्ति कलौ तत्र, वर्त्तनं धर्महेतवे । देशकालाऽनुसारेण, स्वातल्यशक्तिवर्द्धकाः। उपाया यत्नतः सेव्या, विद्याक्षात्रबलप्रदाः ॥ श्रीवीरस्यार्पणं कृत्वा, संप्राप्तसर्वसंपदाम् । जैनैरैक्यं विधायैवं, साध्या सर्वोन्नतिः सदा ॥ प्रतिपक्षिजनैः सार्द्ध, सावधानतया सदा । सर्वशक्तिबलेनैव, वर्तितव्यं सुयुक्तितः॥ राज्यधर्मादिसाम्राज्यरक्षकवर्तकानि वै । कर्माणि जैनसंघेन, कर्तव्यानि विशेषतः ॥ प्रजाराष्ट्रमहासंघविकासाय मनीषिभिः । उदाराशयबन्धेन, संपाद्याः सर्वशक्तयः॥ चतुर्विधप्रजासंघस्वातन्त्र्यशक्तिवर्द्धकाः। औत्सर्गिकाऽपवादाभ्यां, संस्थाप्या धर्मानीतयः ॥ शक्तियोगः सदा श्रेष्ठो, वर्द्धमानेन भाषितः । संप्रति भारते तस्य, महत्ता भाविनी तथा॥
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शक्तियोगाऽनुमोदना ]
भविष्यज्जैनसंघेन, शक्तियोगाप्तये सदा । वर्त्तितव्यं प्रयत्नेन, तत्र श्रीर्विजयो
ध्रुवम् ॥
देशकालसमाजानुसारिणो धर्म्यनीतितः । शक्तियोगं समालम्व्य, जैना जयन्तु सर्वदा ॥ शक्तियोगः समाख्यातो, महावीरेण सर्वथा । संस्तुतः शक्तियोगस्तु, श्रेणिकाऽभयमन्त्रिणा ॥ इति श्रीजैन महारगीतायां शक्तियोगाऽनुमोदना समाप्ता
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इन्द्रादिस्तुतिः
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इत्थं श्रीमहावीरवाक्प्रबन्धं सुधोपमम् । समाकर्ण्याऽति सन्तुष्टाः, गौतमश्रेणिकादयः ॥ देवा इन्द्रादयः सर्वे, प्रणमन्ति पुनः पुनः । तथैव यक्षिणीमुख्या, देव्यः स्तुवन्ति भूरिशः ॥ प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च, धर्मावेतौ प्ररूपितौ । गृहस्थत्यागिधर्मेभ्यः, क्लेशा नश्यन्ति सर्वथा ॥ स्वन्नामरूपयोर्वीर ! मग्नचित्तो भविष्यति । देवा देव्यश्च तस्यैव करिष्यन्ति सहायकम् ॥ दुःखसंकट मग्नानां त्वद्भक्तानां सहायताम् । hot प्रीत्या करिष्यामि त्वद्धर्मोऽस्ति जयावहः ॥ आचार्येष्ववतीर्याऽहं करिष्ये धर्मविस्तृतिम् । प्राप्स्यन्ति देवदेव्यश्च त्वद्भक्तगृह्जन्मताम् ॥ दिक्पालाः प्रेमतः सर्वे, कुर्वन्तस्त्वत्पदाऽचैनम् । धर्मोद्धारकसूरीशसाहाय्यं कुर्वते सदा ॥ गुप्तागुप्तोपदेशस्ते, कलौ सर्वत्र वर्त्तते । सर्वदा मत्सहायेन, दैवी संपद्भविष्यति ॥ देवबलात्करिष्यन्ति, त्वद्भक्ता धर्मसङ्गतिम् । आसुरीशक्तिरत्यन्तं, प्रलयं यास्यति स्वयम् ॥
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इन्द्रादिस्तुतिः ]
सर्वाः पूर्वादिका विद्या, गोपयिष्यन्ति देवताः । तत्प्राकट्यं च सूर्यग्रे, करिष्यन्ति पुनः पुनः ॥
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साहाय्यं सूरिवर्याणां प्रविधाय पुनः पुनः । जैनधर्मस्य संसेवां, करिष्ये भक्तिभावतः ॥ मम सेवापरा देवा, देव्यश्च भुवनत्रये । जैनानां रागभावेण करिष्यन्ति सहायताम् ॥ महावीर प्रभो ! जेता, त्वया सर्व प्रमीयते । उत्पद्यतेऽखिला त्वत्तो, धर्मसृष्टिः सुखप्रदा ॥ स्वदाज्ञायां सदा धर्मस्त्वं स्वात्माऽभिन्न इष्टदः । शुद्धात्मा त्वं सदा पूज्यस्त्वयि लीनोऽस्मि सर्वथा ॥ ज्ञाते त्वय्यखिलं ज्ञातं त्वत्प्राप्तौ प्राप्यतेऽखिलम् । सर्वेशानो मुनीन्द्रस्त्वं, त्वयि सर्व समाप्यते ॥ योगिनो ये निरासक्त्या, त्वत्प्रेम्णाऽऽनन्दभोगिनः । भूत्वा त्वां प्रतिपद्यन्ते, दोषाञ्जित्वाऽतिवेगतः ॥ वीररूपान्समान् जीवान् दृष्ट्वा धर्मे विधास्यति । लप्स्यते शाश्वतं शर्म, स त्वद्भक्तशिरोमणिः ॥ पूर्वरागेण लोके त्वां, सेविष्यन्ते नरादयः । तेषां मनोरथान सर्वान्पूरयिष्यामि निश्चितम् ॥ सर्वदेवास्तथा धर्मास्त्वत्स्वरूपसमाश्रिताः । एवं विदित्वा त्वामेकं, सेवते भक्तशेखरः ॥ स्वत्तो महान्न कोsप्यस्ति सत्यमेतन्न संशयः । निराकारश्च साकारस्त्वं व्यक्तोऽव्यक्त ईश्वरः ॥ सर्वोपायान्करिष्येऽहं, जैनधर्मविवृद्धये । जैना जयन्ति सर्वत्र, श्रद्धाबलेन सर्वदा ॥
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[ इन्द्रादिस्तुतिः अधर्मिभिर्जनैः साकं, धर्म्ययुद्धविधायकाः। सर्ववर्णगता जैना, जैनधर्मप्रभावकाः ॥ अधर्मनाशकाचार्या, बहवो जैनभूमिपाः । वर्द्धयिष्याम्यहं जैनान्भूत्वा तेषां सहायकः ॥ ग्लानता जैनधर्मस्य, जैनानाच यदा तदा । सूरीन्प्रविश्य धर्मस्य, विधास्येऽहं महोदयम् ॥ वीरप्रभोः सदाज्ञायां, जैनानां स्वाऽर्पणं शुभम् । धर्म्ययुद्धेषु जैनानां, स्वाऽर्पणं धर्म एव सः॥ दुष्टधर्मिजनैः सार्द्धमखिला जैनधर्मिणः । सर्वोपायैः प्रयुद्धयन्ते, विजयन्ते च महलात् ॥ जैनधर्मस्य रक्षार्थमधर्मस्य निवृत्तये । युद्धमावश्यकं ज्ञेयमापत्तौ शक्तिवृद्धये ॥ सकलाऽऽसुरशक्तीनां, नाशं कर्तु सदाहताः। धर्म्ययुद्धं प्रकुर्वन्तो, लभन्ते स्वर्गसम्पदम् ॥ यादृशास्तादृशा जैना, महावीरानुयायिनः । मृत्वा स्वर्गादिकं यान्ति, शुद्धब्रह्माहताः स्वयम् ॥ वेषबाह्यक्रियाचारशास्त्रमोहनिवारकाः । महावीराऽऽहंता वेषाद्यैरपि मुक्तिगामिनः ॥ सर्वोत्कृष्टमहावीरः, शुद्धब्रह्मस्वरूपवान् । पार्श्व दूरेऽन्तरे बाह्ये, सर्वेष्वपि न सर्ववान् ॥ परमाहन्महावीरप्रभोः शरणमाहताः। कुरुध्वं मुक्तिलाभाय, सर्वदोषनिवृत्तये ॥ शंसन्ति जैनधर्म ये, कुर्वन्ति तस्य सिद्धताम् । पूर्णरागेण संसेव्यास्ते वित्तादिसहायतः ॥
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इन्द्रादिस्तुतिः ] जैनधर्मस्य वक्तारो, जैनशास्त्रस्य लेखकाः । तेषां सेवा शुभा कार्या, सर्वस्वाऽर्पणयोगतः ॥ जैनब्राह्मणलोकानां, सेवाभक्तिविशेषतः । कर्त्तव्या जैनधर्मस्य, प्रचाराय मनीषिभिः ॥ आत्मैव जैनधर्मोऽस्ति, द्रव्यतो भावतस्तथा । स्वाऽधिकारेण संसेव्यः, सर्वजैनैः स्वशक्तितः ॥ ३६ प्राणान्तेऽपि न सन्त्याज्यो, जैनधर्मो जनैः कदा। मिथ्यात्विनां कुतकैश्च, भ्रान्तिः कार्या न कहिंचित् ॥ ३७ जैनधर्मे वरं मृत्युजनानां स्वर्गमोक्षदः। इति विश्वासतो जैना, यान्ति सर्वोन्नति सदा ॥ जैनधर्म विना नाऽन्यो, धर्मो ग्राह्या कदा जनैः । जैनधर्मो न मोक्तव्यश्चक्रवादिलाभतः ॥ जैनधर्मो न मोक्तव्यो, लक्ष्मीसत्तापलोभनैः । जैनत्वं श्रद्धया रक्ष्यमापत्काले कलादिभिः ॥ आपदादिप्रसंगेषु, कलौ युगे विशेषतः । सर्वजातीयजैनानां, रक्षणार्थ स्वशक्तितः॥ ये जैनाः स्वात्मभोगादि, कुर्वन्ति ते वने रणे। गृहे मृत्वा दिवं यान्ति, देहादिमोहनाशकाः॥ स्वदेशभूमिरक्षार्थ, तथा धर्मस्य रक्षणे। सर्वजातीयजैनानां, रक्षार्थ व्यवहारतः ॥ देहादीनां ममत्वं ये, त्वजन्ति नैव वस्तुतः । ते जैना अधमा ज्ञेया, निर्जीवा धर्मनाशकाः ॥ स्वधर्मदेशरक्षातो, धर्मिजैनपरम्परा। . रक्ष्यतेऽतः प्रयत्नेन, कर्त्तव्यं देशरक्षणम् ॥
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[ इन्द्रादिस्तुति जीवनं निष्फलं ज्ञेयं, स्वदेशरक्षणं विना। जीवनं निष्फलं ज्ञेयं, जैनानां भक्तिमन्तरा ।। प्रशस्यं जीवनं ज्ञेयं, स्वदेशधर्मरागिणाम् । विज्ञेयं जीवनं श्रेष्टं, जैनधर्मानुयायिनाम् । आत्मभोगं विना जैना, बाह्यजीवनमोहिनः । जीवमाना न जीवन्ति, नश्यन्ति सर्वथा भुवि ।। परस्परसहायन, जैना जीवन्ति सर्वदा। महावीरप्रभुश्रद्धाभक्तित ऐक्यभावतः॥ जैनधर्मसमो धर्मो, नैव भूतो भविष्यति । जैनधर्म समाराध्य, जैना यान्ति परं पदम् ॥ श्रीमहावीरभक्तेभ्यो, ददामि दर्शनं शुभम् । जैनानां वंशरक्षादि, करोमि भक्तिभावितः॥ वीरजन्मादिधस्त्रेषु, चन्द्रसूर्याडितर्ध्वजः। रथयात्राः प्रकर्त्तव्या, महासंघेन भक्तितः ॥ परस्परसहायार्थ, जैनानां तत्त्ववेदिनाम् । व्यवस्था वित्तदानानां, विधातव्या यथावलम् ॥ जैना जयन्ति सर्वत्र, पुरुषार्थपरायणाः । धर्मार्थकामसंपन्नाः, कलाशक्तिविवईकाः ॥ मनोवाकायशक्तीनां, बर्द्धकाः सर्वयुक्तितः । सर्वजातीयजैनानां, कलौ कलावतां बलम् ॥ सत्त्वरजस्तमोयुक्ता, जैना वीरस्य सेवकाः। तारतम्यविशेषेण, परब्रह्मपदाश्रिताः ।। परब्रह्ममहावीरानैव कोऽपि महाप्रभुः। सर्वात्मानो महावीरसमाः सत्तादियोगतः ॥
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इन्द्रादिस्तुतिः ]
आत्मन्येव महावीरं, महावीरे निजात्मताम् । पश्यन्तो योगिनो मुक्ति, याता यास्यन्ति यान्ति च ।। ५८: गीताभ्यासरता लोका, महावीरं निजात्मनि । पश्यन्तः प्राप्नुवन्त्येव, स्वकीयवीररूपताम् ॥ पञ्चयज्ञा विधातव्या, गृहस्थैर्धर्मवर्द्धकाः । ब्रह्मचर्याश्रमादीनां कर्त्तव्यं पालनं सदा ॥ विद्याव्यापार शस्त्राद्यैराजीविकाप्रधारणम् । कर्त्तव्यं सर्वजातीयजैनैः सर्वव्यवस्थया ॥ मल्लयुद्धादिकं कर्म कर्त्तव्यं प्रत्यहं शुभम् । मान्यं कदापि नाssसेव्यं, शक्तिवर्द्धककर्मसु ॥ जैनधर्म शुभाः सर्वे, धर्मा गच्छन्त्यसंशयम् । अतः कदापि नो त्याज्यो, जैनधर्मः शिवप्रदः ॥ अनायनन्तकालीनो, जैनधर्मः सुखावहः । अर्हन्तो देवदेवेशा, जैन धर्मप्रकाशकाः ॥ सर्वदेवेशवीरेण, जैनधर्मः प्रकाशितः । संप्रति जैनतीर्थेशमहावीरस्य शासनम् ॥ महावीरस्य साम्राज्ये, तद्गीता तत्स्वरूपिणी । मत्वैवं मानवैर्धार्या, सर्वशक्तिप्रदा कलौ ॥ महावीरपरब्रह्मप्राप्त्यर्थं सर्वदेहिनाम् । महावीरस्य गीतायाः, समं नाऽन्यजगत्त्रये ॥ जिनालयेषु तत्पाठ, स्वाध्यायश्च करोति यः । महावीरपरब्रह्म, प्रादुर्भवति तद्धदि ॥ गीताभ्यास कराञ्जनान्धनधान्यादिदानतः । सन्तोषयन्ति ये जैनास्ते मुक्तिश्रियमाप्नुयुः ॥
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[ इन्द्रादिस्तुतिः नव्यान्ये जनयिष्यन्ति, सर्ववर्णसदाहतान् । अवश्यमेव ते जैनाः, स्वर्गमुक्तिसुखाश्रिताः ॥ यावज्जीवं सदा जैनैः, सर्वोपायैर्जनाः परे । जैनधर्मरताः कार्याः, प्रविधाय सहायताम् ॥ श्रीमहावीरगीतायाः, प्रचारः सुखदायकः। 'सर्वत्र प्रविधातव्यो, जैनधर्माभिवृद्धये ॥ सिद्धाचलादितीर्थेषु, गङ्गादितीरसन्निधौ । महावीरप्रभोर्यज्ञः, कर्तव्यो मन्त्रयोगतः ॥ आम्राश्वत्थमहाशालवटादीनामधस्तले।। महावीरप्रभोर्गीता, वाच्या यज्ञादिपूर्वकम् ॥ “यतिसन्यासिसाधूनां, गङ्गादितीर्थवासिनाम् ।। वीरगीतानुरक्तानां, जैनधर्मानुयायिनाम् ॥ -- भोजनादिप्रबन्धेन, भक्तिः कार्या सदाहतैः । तेषां भक्त्या भवेन्मुक्तिः, शीघ्रश्च सर्वसंपदः ॥ गीताभ्यासकसाधूनां, ब्राह्मणादिनृणां तथा। कर्त्तव्यं सेवनं भक्त्या, सर्वधर्माऽनुयायिभिः ॥ सर्वजातीयसज्जैनीरगीता स्वसद्मनि । विद्भिजैनधर्मज्ञैर्वाचनीया शिवप्रदा ॥ स्वगृहे जैनगीतायाः, पाठानष्टोत्तरं शतम् । विधापयन्ति ये जैनब्राह्मणद्वारयाऽऽर्हताः ॥ सज्जैना वित्तपुत्रादिसत्तया परिभूषिताः । देवलोकं समासाद्य, मोक्षसिद्धिं प्रयान्ति ते ॥ -गीतायां श्रीमहावीरप्रभाविव मुदान्विताः । श्रद्धया वर्तमानास्ते, भवन्त्यहत्प्रभोः समाः ॥ ८१
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इन्द्रादिस्तुतिः] मत्वाऽभेदं महावीरगीतयोर्ये पठन्ति ताम् । शुद्धात्मावं महावीरं, हृद्याविर्भावयन्ति ते॥ गृहिजैनद्विजैर्लग्नसंस्कारं प्रविधाप्य ये। जैना गृहाश्रमं धृत्वा, योग्याः स्युस्ते यथाविधि ॥ . स्वगृहे श्रीमहावीरगीतापाठाञ्छुभङ्करान् । शुभलग्नप्रसङ्ग ते, कारयेयुः सुखाप्तये ॥ श्रीमहावीरगीतायाः, श्लोकान्कण्ठे प्रकुर्वताम् । बालवृद्धयुवादीनां, कार्य सन्मानपूजनम् ॥ व्यावहारिकविद्याभिः, सह पुत्रादिसन्ततिम् । पाठयेयुर्महावीरगीतां सर्वविद्याहताः ॥ . भरतोपज्ञवेदानां, गीतायां विनिवेशितः। सर्वसारस्ततः पूर्णश्रद्धया तां पठेजनः ॥ . सर्वत्र शुभकार्येषु, वीरगीताप्रवाचनम् । श्रवणं मृत्युकाले च, स्वर्गसिद्धिप्रदं भवेत् ॥ वीरगीताप्रचारार्थ, यतन्ते विमलाशयाः। ते निजात्मानमहन्तं, महावीरं प्रकुर्वते ॥ पठन्ति वीरगीतां ये, नृपत्यमात्यसैनिकाः। तेषां राज्यमहालक्ष्मीसत्तापुत्रादिवर्द्धनम् ॥ येषु देशेषु राज्येषु, वीरगीताप्रपाठनम् । तद्देशादिकवृद्धिश्च, विभवो जायते स्थिरः ॥ नाद्यानाद्रितीर्थेषु, सभायां मन्दिरे तथा । गीतापाठकलोकानां, सिद्धिर्भवति सत्वरम् ॥ महोत्सवेषु सर्वेषु, जिनजन्मोत्सवादिषु । गीतायाः श्रवणात्पाठाच्छिवं यान्त्यखिला जनाः॥ ९३. ।
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_ [इन्द्रादिस्तुतिः महावीरस्य गीतायाः, पाठकश्रोतृदेहिनाम् । प्रभावनां प्रकुर्वन्ति, ते स्युजैनोत्तमाः सदा ॥ श्रीमहावीरगीतायाः, मन्तार आस्तिका जनाः। सर्वदेवेश्वरं वीरं, ध्यात्वा यान्ति शिवं पदम् ।। सर्वसमर्पणं कृत्वा, मनोवाकायतो जनैः। महावीरस्य कर्त्तव्यं, शरणं सिद्धिदायकम् ॥ समालम्ब्य महावीरं, जैनधर्मश्च भक्तितः। महावीरस्य गीतायाः, पाठः कार्यो दिने दिने । जैनानां जैनधर्मस्य, शत्रूणां ये प्रतिक्रियाम् । कुर्वन्ति ते महाजैना, मुक्ति यान्ति न संशयः ॥ ९८ वीरगीताविरुद्धानां, खण्डनेऽस्ति महाफलम् । जैनधर्मविरुद्धानां, कुतर्काणां च खण्डने ॥ ९९ महावीरस्य विश्वासे, वादानां न प्रयोजनम् ।। महावीरस्य गीतायां, शङ्का कार्या न सजनैः ॥ १०० तर्काणां प्रतितर्काणां, वादान् सन्त्यज्य ये जनाः। महावीरञ्च तद्गीतां, श्रयन्ति ते शिवाध्वगाः॥ वेषाचारविरोधेऽपि, यतिसन्यासियोगिनः। जैनधर्माश्रिता मुक्तिं, यान्ति गीताप्रचारतः ॥ अनाद्यनन्तकालीन, आत्मवीरः सनातनः। साद्यनन्तो महावीरः, शुद्धपर्यायतो जिनः॥ अनाद्यनन्तकालीनो, जैनधर्मः सनातनः। अनाद्यनन्तकालीनो, जैनसंघः सनातनः ॥ अनाद्यनन्तकालीना, महावीरस्य पर्यवाः । दर्शनज्ञानचारित्ररूपा ज्ञेयाः स्वभावतः॥
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इन्द्रादिस्तुतिः ] जैना जयन्तु सर्वत्र, ज्ञानादिशक्तियोगतः । महावीरोक्तसद्योगैर्जनानां सर्वदोन्नतिः॥ सर्वदा सर्वथा सर्वविश्वकल्याणकारणम् । अनाद्यनन्तकालीनं, जयताज्जैनशासनम् ॥ सर्वजातीयजीवास्तु, जैनाः सन्ति तथा जिनाः । नयैः सर्वैः सदा ख्यातं, जयताज्जैनदर्शनम् ॥ सर्वदर्शनरूपोऽस्ति, सर्वधर्मस्वरूपवान् । परब्रह्ममहावीरो, जयतात्परमेश्वरः ॥
इति श्रीजैनमहावीरगीतायामिन्द्रादिस्तुतिः समाप्ता
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मंगलम्
पठनीया सदा गीता, पाठनीया परैरपि । मुमुक्षुणा सदा मान्या, पूज्या वन्द्या च भावतः ॥ महावीरगीता शुद्धा, बुद्धिसागरसूरिणा। परंपरोद्धता ज्ञेया, प्रकटीकृता भावतः ॥ सर्वमंगल मांगल्यं, सर्वकल्याणकारणम् । प्रधानं सर्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥
इति श्रीअध्यात्मज्ञानदिवाकर-जैनाचार्य-श्रीमद्बुद्धिसागरसूरीश्वरविरचिता श्रीसर्वनिगमागमस्वरूपा
श्रीजैनमहावीरगीता समाप्ता
sssssssssss
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க்கைக்காகக்
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________________ जैन महावीर गीता આવરણ * દીપક પ્રિન્ટરી * અમદાવાદ 1 For Private & Pershmaluser.onless