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भक्तिमा छे. ज्यां मारा भक्तो होय छे, त्यां आनंदाद्वैतरूपे हुं पण विद्यमान छु." [महावीर गीता अ, २, "लो १ ]
आ रीते एक ज ग्रंथमां बे भिन्न भिन्न वातो जोवा मळे छे. एकमां सर्व व्यापकता जणावी छे अने बीजामां नियत सीमावद्ध वास जणाव्यो छे. सामान्यतः आ श्लोको विरुद्धवर्णनात्मक जणाय छे. पण आपणे नयसापेक्षतानो विचार करीए तो सुस्पष्ट समाधान मेळवी शकीए. अत्रे एक स्थळनो निर्देश करीए छीण. पछी वाचके स्वमति परिकर्मित करी विचारी लेवा श्रम लेवो. " एगे आया.” "आत्मा एक छे."
[श्री स्थानांग सूत्र, अ. १, सू २. ] आ आगमिक पदमां सामान्यतः एकात्मवाद के अद्वैतवादन प्रतिबिंब जणावानो भ्रम उत्पन्न थई शके छे, कारण के जैनो आत्माने अनंत माने छे. आत्माओ संख्यातीत छे, गणनातीत छे एवा पाठो ठेर ठेर छे; जेमके
“पृथ्वी शस्त्रनो आरंभ करनाराओ अनेक जातना जीवोनो नाश करे छे."
“जलने आश्रयी अनेक जीवो रहेला होय छे एम हुँ
कहुं छं."3
"दरेक जीवोने आयुष्य प्रिय होय छे. सुखने इच्छता होय छे. दुःखने धिक्कारता होय छे. मृत्यु-वध अप्रिय होय छे. प्रियजीवी होय छे. जीवन जीववानी इच्छावाळा होय छे. दरेक
आत्माने पोतानुं जीवन प्रिय होय छे."४ १. नाहं स्वर्गे च पाताले, भक्तयां वासो ऽस्ति मे सदा ।
मद्भक्ता यत्र तत्राऽहमानन्दाद्वैतरूपतः ॥१॥ २. पुढवीसत्थं समारंभेमाणा अणेरूवे पाणे विहिंसइ ॥
[ श्री आचारांग, अ. १, उ. २, सू. १५ ] ३. से बेमि संति पाणा उदयनिस्सिया जीवा अणेगे ॥
[श्री आचारांग. अ. १, उ. ३, सू. २४ ] १. सव्वे पणा पियाउया, सुहमाया, दुक्खपडिकूला, अप्पियवहा, पियर्जाविणो, जीविउकामा, सम्वेसि जीवियं पियं ॥
[ श्री आचारांग, अ. २, उ. ३, सू. ८१]
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