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________________ समवसरणनी रचना करी छे. जगतारक परमात्मा श्री महावीरदेव पधार्या छे. गणधर श्री गौतमस्वामी वगेरे अनेक महामुनिओ देशना सांभळवा आवी गया छे. मगधसम्राट् श्री श्रेणिक महाराजा वगेरे अनेक राजन्यवर्ग विनयपूर्वक करयुगल जोडी देशना सांभळवानी तत्परता दाखवी रह्या छे. ए रीते अनेक व्यंतरभुवनपति-ज्योतिष्क-वैमानिक देवो अने देवीओ, नर अने नारीओ, तिर्यचो देशना सांभळवानी तमन्ना धरी रह्या छे. ए वखते श्री गौतम गणधर आदि अने महाराजा श्रेणिक आदि आत्माना उत्थानने लगता नैश्चयिक अने व्यवहारिक कक्षाना प्रश्नो पूछे छे अने प्रभु श्री महावीरदेव द्वारा सविस्तर समाधान करवामां आवे छे. ए समाधानना सारने श्री जैन महावीर गीतामां कंडारवामां आव्यो छे. आ छे श्री जैन महावीर गीतानी पूर्व भूमिका अथवा उत्थानिका. नयात्मक विचार एटले ? हवे आपणे आ ग्रंथनो नयनीतिनी दृष्टिए विचार करीए. " सर्व जैनोमां हुं जिन छु, बौद्धधर्मीओमां हुं बुद्ध छु, बैष्णवोमा हुं विष्णु छु, शैवोमां हुं शिव छु, हुं कृष्ण छं. हुं वासुदेव छ. हुं महेश छं. हुं सदाशिव छं. सर्व गुरु स्वरुप हुं छु. श्रद्धावान् मने मेळवी शके छे. समुद्रोमा हुँ सागर छं. नदीओमा हुँ गंगा छु.१ [ महावीर गीता अ. १, लो. १५-१६-१७ ] आनो अर्थ एवो थाय के ईश्वर सर्व व्यापक छे. त्यारे नींचेनी वात एथी जुदी आवे छे. "हुँ स्वर्गमां नथी. हुं पाताळमां नथी. मारो वास सदा १. " जिनोऽहं सर्वजनेषु, बुद्धोऽहं बौद्धधर्मिषु । वैष्णवानमहं विष्णुः, शिवः शैवेषु वस्तुतः ॥१५।। कृष्णोऽहं वासुदेवोऽहं, महेशोऽहं सदाशिवः ।। सर्वगुरुस्वरूपोऽहं, श्रद्धावान् मां प्रपद्यते ।।१६॥ सागरोऽहं समुद्रेषु, गङ्गाऽहं स्यन्दिनीषु च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001703
Book TitleJain Mahavira Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherShrimad Buddhisagar Sahitya Prakashan Granthamala Ahmedabad
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Sermon
File Size18 MB
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