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________________ १७ 66 जिन पोते दाता है. जिन पोते ज भोक्ता छे. आ पूर्ण विश्व पण जिन छे. जिन सर्वत्र जयवंत छे. जे जिन छे ते ज हुं पोतेज धुं." 559 आ रीते विचारतां विश्व ए जिन छे. अर्थात् साधकने सूर्य, चंद्र, आकाश, पाताळ, समुद्र, पर्वत, वसुन्धरा वगेरे दृश्यमान अने अदृश्यमान पदार्थों जिनमय लागे. ए जेम सापेक्ष छे एम आ ग्रंथ सापेक्ष छे. चालु ग्रन्थना प्रथम अध्ययनना १५-१६-१७ श्लोकोमां जे कांई कहेवामां आव्युं छे ते ईश्वरना ज्ञानगुणने आश्रयीने. कैवल्यप्राप्ति पछी ज्ञान सर्वत्र सर्वदा व्यापक होय छे. वीजी रीते विचारीए तो केवलिसमुद्घात वखते आत्मा सर्व व्यापक बनी जाय छे. एवखते चौदे राजलोकना अणु अणुमां ए होय छे. ए समयनी अपेक्षाए आ वात सुघटित वनी जाय छे. एटले जैनदर्शनमां सर्ववादोनो-सर्व नयनीतिओनो समावेश थई जाय छे. ए छतां अन्य दर्शनोमां जैनदर्शननो समावेश न ज बनी शके. नदीओ समुद्रमां समाई शके छे, पण नदीओमां समुद्र समाय ? जैनदर्शन सागर समो छे. नयनीति अपनाव्या विना ग्रंथवाचन लाभकर्ता न बनी शके, एटलेज पूर्वपुरुषोए स्यादवादनी स्तुतिओ गाई छे : 66 हे प्रभो ! रसथी उपविद्ध बनेल लोहधातु (सुवर्ण थवाना कारणे) इटार्थ सिद्धि माटे थाय छे, एम आपना 'स्यात्' पदनी महोर लागेला नयो अभिप्रेत फळने आपनारा थाय छे. ( वाक्यो- पदो के शब्दोना वास्तविक अर्थ आपना 'स्यात्' पद युक्त होय तो ज थाय छे.) एटला खातर ज हितैषी आर्प: पुरुषो आपने चरणे नमता होय छे. १२ आ रीते नयात्म दृष्टिनो विचार कर्यो. १. “जिनो दाता जिनो भोक्ता, जिन: सर्वमिदं जगत् । जिनो जयति सर्वत्र, यो जिनः सोऽहमेव च ॥ "" - श्री सिद्धसेनीय शक्रस्तव २. नयास्तव स्यात्पदसत्त्वाञ्छिता, रसोपविद्वा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमार्या प्रणता हितैषिणः ॥ Jain Education International - हेमचन्द्रसूरि, द्वात्रिंशिका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001703
Book TitleJain Mahavira Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherShrimad Buddhisagar Sahitya Prakashan Granthamala Ahmedabad
Publication Year
Total Pages308
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Sermon
File Size18 MB
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