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विश्ववत्सल जगतारक श्री तीर्थंकर देवो पूर्वनो त्रीजो भव आराधना अने साधनामां ज पूर्ण करता होय छे. तीर्थकरना भवमां पण ते कैवल्य प्राप्ति अगाउ आत्मसाधनामां मस्त होय छे. आटली आराधना अने साधनाना बळर्नु एकीकरण थवा द्वारा कैवल्य प्राप्त थाय अने पछी प्रथम दिनना एक प्रहर जेटला ट्कागाळामां तीर्थनी स्थापना, गणधरोनी रचना, हजारोनी दीक्षा, देशविरतिधर बनाववाचं कार्य थई जतुं होय छे. अनेक आत्माओ सम्यक्त्व अने मार्गानुसारी गुणोने पामता होय छे. ___ आपणे एम विचार करीए के अल्पकाळमां विराट कार्य केम थतां हशे? पण ए बुद्धिना मापदंडथी नहि मापी शकाय. ए अन्तर्यामी पुरुषोनी प्रवृत्तिओमां अकल्प्य बळ होय छे. एटला माटे ज आपणे एमने झूकी पडीए छीए. श्री तीर्थंकर परमात्मा जेवी शक्ति अन्यमां न संभवे, पण एथी न्यून गणधरोमां होय छे अने एथी न्यून महात्मा पुरुषोमां होय छे. उत्थानिका:
आर्यदेशमां महात्मा पुरुषोनुं प्रभुत्व रहेतुं आव्युं छे अने रहेशे. एनुं कारण महात्माओनी परोपकारजन्य प्रवृत्तिमा समायेलु छे. करणाशील महात्माओ द्वारा जगतने दरेक विषयना ग्रंथोनुं मेटणुं मळ्युं छे. धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष ए चारे पुरुषार्थ उपर ग्रंथोनी रचना करेली छे. अर्थ अने काम पण धर्मनियंत्रित होय तो अमुक आत्माओ माटे सापेक्षनयथी कल्याणकर मान्या छ. ए दृष्टिए धर्मनियंत्रित अर्थकामना पुरुषार्थ उपर ग्रंथो रचवा ए पण परोपकारनुं कार्य गण्यं छे. आ विषयनी वधु स्पष्टता अत्रे बिनजरुरी छे एटले विराम कर छं. कारण के जे ग्रंथ उपर प्रस्तावना लखवा बेठो छु ए ग्रंथ धर्माश्रित अर्थ काम पुरुषार्थने लगतो होत तो एना स्पष्टीकरणनो विचार करत. . परंतु आ ग्रंथरत्न आत्मतत्त्वनी मुख्यता राखीने महात्मा पुरुषे रच्यो छे. आत्मतत्त्वनी साथे आत्माने मोक्षप्रापक तत्त्वो पण जणाव्यां छे. परन्तु ए बधां तत्त्वो पाछळ एकज प्राणतत्त्व पडेलु जणाय छे, अने ते आ छे : " आत्मन् ! तुं ज परात्मा छे,
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