Book Title: Aagam 41 2 PIND NIRYUKTI Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४१/२] श्रीपिण्डनिर्युक्तिः (मूल)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित- सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः “पिण्डनिर्युक्ति” मूलं एवं वृत्ति: [मूल-निर्युक्तिः + भाष्यं + मलयगिरिसूरि-विरचिता वृत्तिः] [आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) पुनः संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) 23/04/2015, गुरुवार, २०७१ वैशाख सुद ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४१/२] मूल सूत्र -[२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि विरचिता वृत्तिः ~0~ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) । मूलं -1 . “नियुक्ति: -1 + भाष्यं [-] + प्रक्षेपं -" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र gaoooooooooooooooooooooooooodaaes श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे अन्याङ्कः ४४. श्रीमद्रबाहुस्वामिप्रणीता-सभाष्या-श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविवृता श्रीपिण्डनियुक्तिः॥ &oooot ||-|| दीप Spopo Oppppppẽ अनुक्रम प्रसेधिका-शेठ देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धारभाण्डागारसंस्था विख्यातिकारका-शाह नगीनभाई घेलाभाई जहेरी अस्पैक कार्यवाहक मुंबई ४२६ झवेरीबजार । [अस्य पुनर्मुद्रणायाः सर्वेऽधिकारा एतज्ञाण्डागारकार्यवाहकाणामायत्ताः स्थापिताः भगवडीरस्य २४४४. किमनूपस्य १९४४. सुमिरते. १९१८. प्रथम संस्करणम् । प्रतयः १००० निवेंशः साझेरुप्यक: Rs. 1-8-0. . pppppppppppppppppppppppppppppp पिण्डनियुक्ति सूत्रस्य मूल "टाइटल पेज" Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाइका: ६६०+३७+६ पिण्डनिर्यक्ति मल-सत्रस्य विषयानक्रम दीप-अनक्रमा: ७०३ | पृष्ठांक: - ००७ मूलांक: विषयः ००१ प्रस्तावना गाथा ४३६ उत्पादना ६८४ । प्रमाण ७११ । उपसंहार पृष्ठांक ००४ २४२ ३४८ मूलांक: विषय: ००२ | पिण्ड ५५८ | एषणा | ६९७ । अंगार-धूम | मूलांक: १०१ उदगम ६७८ । संयोजना ७०३ | कारण पृष्ठांक: ०८४ ३४६ २९४ ३५३ ३५५ ३५९ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: ~ 2~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पिण्डनियुक्ति- मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले "श्री पिण्डनियुक्ति:" नामसे सन १९१८ (विक्रम संवत १९७४) में देवचन्द्र लालभाइ पुस्तकोद्धार संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | हमने जब "आगमसुत्ताणि" (सटीक) नामसे ४५ आगम-सटीकं का प्रकाशन करवाया तब हमारे संपादन कार्यमे इसी प्रत का सहारा लेकर हमने भी "पिण्डनियुक्ति-सटीकं" का पुन: संपादन एवं प्रकाशन किया है | जो "आगमसुत्ताणि" (सटीक) के २६ वे भागमे मुद्रित हुआ है, और इन्टरनेट पर भी "आगमसुत्ताणि" (सटीक) ४१/२ के रुपमे है। जीसे हमारे द्वारा प्रकाशित 'डीवीडी' मे भी स्थान दिया है। * हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र-नियुक्ति-भाष्य आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र, नियुक्ति, भाष्य आदि चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके | बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का नियुक्ति/भाष्य/प्रक्षेप का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा आदि के नंबर अलग-अलग होने से हमने उसे अलग-अलग दिए है और उसके लिए ||-|| ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' आदि शब्द लिख दिया है | अनेक स्थानोमे पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट्स भी दी है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसिको मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ........मुनि दीपरत्नसागर. ~ 3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं ] » “नियुक्ति: H + भाष्यं +] + प्रक्षेपं . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र II-II अहम्. श्रेष्ठि-देवचन्द्र लालभाई-जैनपुस्तकोद्धार-ग्रन्थाङ्केश्रीमहद्रबाहुस्खामिप्रणीता-सभाष्या-श्रीभन्मलयगिर्याचार्यविवृता, श्रीपिण्डनियुक्तिः। दीप अनुक्रम ॥ॐ नमो वीतरागाय ॥ जयति जिनवर्द्धमानः परहितनिरतो विधूतकर्मरजाः । मुक्तिपथचरणपोषकनिरवद्याहारविधिदेशी ॥१॥ नत्वा गुरुपदकमलं गुरूपदेशेन पिण्डनियुक्तिम् । निवृणोमि समासेन स्पष्ट शिष्यावबोधाय ॥२॥ आह-नियुक्तयो न स्वतन्त्रशास्त्ररूपाः किन्तु तत्चत्सूत्रपरतन्त्राः, तथा तद्व्युत्पत्याश्रयणात् , तथाहि-सूत्रोपासा अर्थाः स्वरूपेण सम्बद्धा अपि शिष्यान् प्रति नियुज्यन्ते-निश्चितं सम्बद्धा उपदिश्ये व्याख्यायन्ते यकाभिस्ता नियुक्तयः, भवताऽपि च प्रत्यक्षायि-पिण्डनियुक्तिमहं विटणोमि, ' तदेषा पिण्डनियुक्तिः कस्य सूत्रस्य प्रतिबद्धति ?, उच्यते, इह दशाध्ययनपरिमाणश्चूलिकायुगलभूपितो दशवै १ उपदर्य पू० वृत्तिकार रचिता आरंभिकगाथा: ~ 4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [-] .→ “नियुक्ति: [१] + भाष्यं [-] + प्रक्षेपं - . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१|| श्रीपिण्ड- कालिको नाम श्रुतस्कन्धा, तत्र च पञ्चममध्ययनं पिण्डैषणानामक, दशबैकालिकस्य च नियुक्तिश्चतुर्दशपूर्वविदा भद्रबाहुस्वामिना नियुक्तिः | कृता, तत्र पिष्टैषणाभिधपश्चमाध्ययननियुक्तिरतिप्रभूतग्रन्थत्वात्पृथक् शास्त्रान्तरमिव व्यवस्थापिता, तस्याश्च पिण्डनियुक्तिरिति नाम कृतं, पिण्डैषणानियुक्तिः पिण्डनियुक्तिरिति मध्यमपदलोपिसमासाश्रयणाद्, अत एव चादावत्र नमस्कारोऽपि न कृतो, दशवकालिकनियुक्त्यन्तर्गतत्वेन तत्र नमस्कारेणैवात्र विनोपशमसम्भवात्, शेषा तु नियुक्तिर्दशवैकालिकनियुक्तिरिति स्थापिता ॥ अस्याश्च पिण्डनियुक्तेरादाक्यिमधिकारसङ्काहगाया पिंडे उग्गमउप्पायणेसणा [स]जोयणा पमाणं च । इंगाल धूम कारण अट्टविहा पिंडनिज्जुत्ती ॥ १॥ | व्याख्या-पिण्ड संघाते ' पिण्डनं पिण्ड:-सङ्घातो बहूनामेकत्र समुदाय इत्यर्थः, समुदायश्व समुदायिभ्यः कथञ्चिदभिन्न इति त एवं बहवः पदार्थो एकत्र समुदिताः पिण्डशब्देनोच्यन्ते, स च पिण्डो यद्यपि नामादिभेदादनेकपकारो वक्ष्यते तथाऽजीह संयमादिरूपभावपिण्डोपकारको द्रव्यपिण्डो गृहीष्यते, सोऽपि च द्रव्यपिण्डो यद्यप्याहारशय्योपधिभेदात् विप्रकारः, तथाऽप्यत्राहारशुद्धेः प्रक्रान्तत्वादाहाररूप एवाधिकरिष्यते, ततस्तस्मिन्नाहाररूपे पिण्डे विषयभूते प्रथमत उद्मो वक्तव्यः, तत्र उद्गमः उत्पत्चिरित्यर्थः, उद्मशब्देन च इह उद्गमगता दोषा अभिधीयन्ते, तथाविवक्षणात् , ततोऽयं वाक्यार्थ:-प्रथमत उद्गमगता आधार्मिकादयो दोषा वक्तव्याः, ततः ' उप्पा यणत्ति उत्पादनमुत्पादना, धात्रीत्वादिभिः प्रकारः पिण्डस्य सम्पादनमिति भावः, सा वक्तण्या, किमुक्तं भवति ?-उद्गमदोषाभिधानानअन्तरमुत्पादनादोषा धात्रीत्वादयो वक्तव्याः, तत 'एसण' ति एपणमेपणा सा वक्तव्या, एषणा विधा-तयथा-गवेषणेषणा ग्रहण दीप अनुक्रम [१] 'पिण्डनियुक्ति' विषय-अधिकार संग्रहगाथा ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||||| दीप अनुक्रम [8] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २/१ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) ●→ “निर्युक्तिः [१] + भाष्यं [-] + प्रक्षेपं [-]" FO आगमसूत्र - [ ४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित चणा ग्रासैषणा च तत्र गवेषणे - अन्वेषणे एषणा - अभिलाषो गवेषणैषणा, एवं ग्रहणैषणा ग्रासैपणाऽपि भावनीये, तत्र गवेषणैषणा उद्गमोत्पादनाविषयेति तद्ग्रहणेनैव गृहीता द्रष्टव्या, ग्रासैपणा त्वभ्यवहारविषया ततः संयोजनादिग्रहणेन सा ग्रहीष्यते, तस्मादिह पारि | शेष्यादेषणाशब्देन ग्रहणैषणा गृहीता द्रष्टव्या, ग्रहणैषणाग्रहणेन च ग्रहणैपणागता दोषा वेदितव्याः, तथाविवक्षणात्, ततोऽयं भावार्थ:उत्पादनादोषाभिधानानन्तरं ग्रहणैषणागता दोषाः शङ्कितम्रक्षितादयोऽभिधातव्याः, ततः संयोजना वक्तव्या, तत्र संयोजनं संयोजनागृदध्या रसोत्कर्षसम्पादनाय सुकुमारिकादीनां खण्डादिभिः सह मीलनं, सा द्रव्यभावभेदाद् द्विधा, वक्ष्यति च 'दब्बे भावे संयोजणा य' इत्यादि, ततः प्रमाणं कालसङ्ख्यालक्षणं वक्तव्यं, चकारः समुचये, स च भिन्नक्रमत्वात्कारणशब्दानन्तरं द्रष्टव्यः, ततः, 'इंगाल धूम' त्ति अङ्गारदोषो धूमदोपश्च यथा भवति तथा वक्तव्यं तदनन्तरं 'कारण' ति यैः कारणैराहारो यतिभिरादीयते यैस्तु न तानि कारणानि च वक्तव्यानि सूत्रे च विभक्तिलोप आर्षत्वात्, तदेवम् 'अष्टविधा' अष्टमकारा अष्टभिरर्याधिकारैः सम्बद्धेति भावार्थः, पिण्डनिर्युक्ति:पिण्डैषणानिर्युक्तिः ॥ स्यादेतद्, एतेऽष्टावप्यर्थाधिकाराः किं कुतश्चित्सम्बन्धविशेषादायाताः उत यथाकय शिक्तव्या:, ? उच्यते, सम्बन्धविशेषादायाताः तथाहि — पिण्डैपणाऽध्ययननिर्युक्तिर्वतुमुपक्रान्ता, पिण्डेषणाऽध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि तद्यथा— उपक्रमो निक्षेपोऽनुगमो नयथ, तत्र नामनिष्यन्ने निक्षेपे पिण्डेपणाऽध्ययनमिति नाम, ततः पिण्ड इति अध्ययनमिति च व्याख्येयं तत्राध्ययनमिति प्रागेव द्रुमपुष्पिकाऽध्ययने व्याख्यातम्, इह तु पिण्ड इति व्याख्येयं तत एव एपणा, एपणा च गवेषणैषणा ग्रहणैषणा ग्रासैषणा च गवेषणैषणादयश्च उद्मादिविषयास्ततस्ते वक्तव्याइत्यष्टौ पिण्डादयोऽधिकाराः ॥ तत्र प्रथमतः पिण्ड इति व्याख्यायते, व्याख्या च तच्च भेदपर्यायैः, अतः प्रथमतः पिण्डशब्दस्य पर्यायानभिधित्सुराद Ja Eucation into For Parts Only ~6~ >******** Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२] .→ “नियुक्ति: [२] + भाष्यं ] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२|| श्रीपिण्ड- पिंड निकाय समूहे संपिंडण पिंडणा य समवाए । समुसरण निचय उवचय चए य जुम्मे य रासी य ॥२॥ नियुक्ति ॥२ ॥ व्याख्या-एते सर्वेऽपि सामान्यतः पिण्डशब्दस्य पर्यायाः, विशेषापेक्षया तु कोऽपि कापि रूढः, तत्र पिण्डशब्दो गुदपिण्डादिरूपे । साते रूढो, निकायशब्दो भिक्षुकादिसडाते, समूहशब्दो मनुष्यादिसमुदाये, संपिण्डनशब्दः सेवादीनां खण्डपाकादेव परस्परं सम्यक्|संयोगे, पिन्टनाशब्दोऽपि तत्रैव, केवलं मीलनमा संयोगे, समवायशब्दो वणिगादीनां सहाते, समवसरणशब्दः तीर्थकतः सदेवमनुजा-18 मुराणां पदि, निचयशब्दः सूकरादिसङ्कगते, उपचयशब्दः पूर्वावस्थातः प्रचुरीभूते सातविशेषे, चयशब्द इष्टिकारचनाविशेषे, युग्मशब्दः पदार्थद्वयसकरते, राशिशब्दः पूगफलादिसमुदाये, तदेवमिह यद्यपि पिण्डादयः शब्दाः लोके प्रतिनियत एव सङ्घातविशेष रूढार,तथापि सामान्यतो यद् पुत्पत्तिनिमित्त सातत्वमात्रलक्षणं तत्सर्वेषामप्यविशिष्टमितिकृत्वा सामान्यतः सर्वे पिण्डादयः शब्दा एकार्थिका उक्ताः, ततो न कचिदोपः ।। तदेवं पिण्डशब्दस्य पर्यायानभिधाय सम्पति भेदानाचिरख्यासुराह पिंडस्स उ निक्खेबो चउक्कओ छक्कओ व कायब्बो। निक्खेवं काऊणं परूवणा तस्स कायव्वा ॥ ३ ॥ । __व्याख्या-'पिण्डस्य' प्रागुक्तशब्दार्थस्य तुशब्दः पुनरर्थे, स च निक्षेपशब्दानन्तरं योज्यो, 'निक्षेपो' नामादिन्यासरूपा पुनश्चतुष्ककः षट्कको वा कर्तव्यः, तब चत्वारः परिमाणमस्येति चतुष्का, “सङ्ख्याडतेवाशत्तिष्टेः कः" इति का प्रत्ययः, ततो काभूयः स्वार्थिककप्रत्ययविधानाचतुष्कका, एवं षट्ककोऽपि वाच्यः, इह यत्र वस्तुनि निक्षेपो न सम्पम् विस्तरतोऽवगम्यतेऽवगतो या विस्मृतिपथमुपगतस्तत्राप्यवश्यं नामस्थापनाद्रव्यभावरूपश्चतुष्कको निक्षेपः कर्तव्य इति प्रदर्शनार्थ चतुष्काहणं, यत्र तु तथाविधगुरुस 000000000000000000रूबरू दीप अनुक्रम ॥ २ ॥ [२] 'पिण्ड' शब्दस्य पर्याया: वर्णयते Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४] → “नियुक्ति: [४] + भाष्यं ] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४|| म्पदायतः सविस्तरमाधिगतो भवति नाप्यधिगतो विस्मृतिपथमुपगतस्तत्र सविस्तरं निक्षेपो वक्तव्य इति न्यायप्रदर्शनार्थ षट्कराहणं, तथा |चौक्त-जित्य य जं जाणिजा निक्खेवं निक्खिये निरवसेसं | जत्थ वि य न जाणिज्जा चउकयं निक्खिये तत्व"॥ १॥ ततधैतदयोक्तं ॥३॥ का भवति-यदि पटूको निक्षेपः सम्पगधिगतो भवति अधिगतोऽपि च न विस्मृतस्तदा पटूकरूपो निक्षेपः कर्तव्या, अन्यथा तु नियमतचतु करूप इति । एवं च निक्षेपं कृत्वा तस्य पिण्डस्य प्ररूपणा कर्तव्या, येन पिण्डेनेहाधिकारः स पिण्डः मरूपणीय इति भावार्थः । इदमेव च नामादिभेदोपन्यासेन व्याख्यायाः फलं यदुत यावन्तो विवक्षितशब्दवाच्या पदार्था घटन्ते तान् सर्वानपि यथास्वरूपं वैविक्त्येनोपदर्य-13 येन केनचिनामाघन्यतमेन प्रयोजनं स युक्तिपूर्वमधिक्रियते शेषास्त्वपाक्रियन्ते तथा चोक्तम्-'अप्रस्तुतार्थापाकरणात्मस्तुतार्थव्यायुरणाच निक्षपः फलवानिति, इह 'चतुष्कः पदको वा निक्षेपः कर्तव्य' इत्युक्तं तत्र नानिर्दिष्टस्वरूप चतुष्कं पदकं वा निक्षेपं शिष्याः स्वयमेवावग-1 तुमीशास्ततोऽवश्यं तत्स्वरूपं निर्देष्टव्य, सत्र पटुके निर्दिष्टे तदन्तर्गतत्वाचतुष्कोऽर्धाभिरिष्ठो भवति, ततः स एव पटुकनिक्षेपोनिर्दिश्यते । इति, एतदृष्टान्तपुरस्सरं प्रतिपिपादयिषुराइ कुलए उ चउब्भागस्स संभवो छक्कए चउण्हं च । नियमेण संभवो अत्थि छक्कगं निक्खिये तम्हा ॥ ४ ॥ व्याख्या-यथा 'कुलके' चतुःसेतिकाप्रमाणे चतुर्भागस्य-सेतिकाप्रमाणस्य सम्भवो-विद्यमानताऽवश्य भाविनी, एवं षट्के निक्षेपे १ यत्र च यं जानीयात् निक्षेपं निक्षिपेत् निरवशेषम् ! यत्रापि च न जानीयात् चतुष्कक निक्षिपेत्तत्र ॥ १॥ दीप अनुक्रम [४] ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) मूलं [१] .→ “नियुक्ति: [१] + भाष्यं ] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीपिण्ड- प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५|| चतुर्णा निक्षेपस्य-चतुष्करूपस्य निक्षेपस्य नियमेन-अवश्यतया सम्भवोऽस्ति, ततस्तमेव पदककमिह निक्षिपामि-पदकरूपमेव निक्षेपं घरू- नियुक्तिः पयामि, तस्मिन् प्ररूपिते तस्यापि चतुष्करूपस्य निक्षेपस्य प्ररूपितत्वभावादिति भावार्थः । प्रतिज्ञातमेव निहियति नाम ठवणापिंडो वे खेत्ते य काल भावे य। एसो खलु पिंडस्स उ निक्खेवो छबिहो होइ ॥ ५ ॥ व्याख्या-'नाम' ति नामपिण्डः स्थापनापिण्ड: ' द्रव्ये ' द्रव्यविषयः पिण्डो द्रव्पपिण्डा, द्रव्यस्य पिण्ड इत्यर्थः, तथा 'क्षेत्रे क्षेत्रस्य पिण्डः, एवं कालपिण्डो भावपिण्डव, 'एप:' अनन्तरोक्तः खलु 'पिण्डस्य' पिण्डशब्दस्य निक्षेपो भवति ।। तत्र नामपिण्डस्य | व्याख्यानाय स्थापनापिण्डस्य तु सम्बन्धनायाह गोणं समयकयं वा जं वावि हवेज तदुभएण कयं । तं विति नामपिंडं ठवणापिंडं अओ वोच्छं॥६॥ व्याख्या-इह यत् पिण्ड इति वर्णावलीरूपं नाम स नामपिण्डः, नाम चासौ पिण्ड नामपिण्ड इति ध्युत्पते।, नाम च चतुद्धों तयथा-गौर्ण समय तदुभयजमनुभयजं च, तत्र गुणादागतं गौणम , अथ कोऽसौ गुणः । कथं च तत आगतम्, उच्यते, इद शब्दस्या व्युत्पत्तिनिमिर्च योऽयों यथा ज्वलनस्य दीपनं 'ज्वल दीप्ता' विति वचनात स गुणः, गुणवेद परतत्रो विवक्षितो न पारिभाषिको रूपादिः, तेन यद्यच्छन्दस्य वस्तुनि प्रवर्त्तमानस्य व्युत्पत्तिनिमिचं द्रव्यं गुणः क्रिया वा स गुण इत्यभिधीयते, तत्र द्रव्यं व्युत्पचिनिमित्त शृङ्गी दन्ती विषाणीत्यादी, गुणो जातरूपं सुवर्ण स्वादुरसा श्वेत इत्यादी, क्रिया तपनः श्रमणो दीपो हिंस्रो ज्वलन इत्यादी, जातिया नाम्नो व्युत्पत्तिनिमित्तं न भवति, किन्तु प्रवृत्तिनिमित्तं यथा गोशब्दस्य गोजातिः, तथाहि-गोशब्दस्य गमनक्रिया व्युत्पत्तिनिमित, न॥ गोवं, गच्छतीति गौरिति व्युत्पत्तेः, केवलमेकार्थसमवायवलादूमनक्रियया सुरककुदलालसानादिमच प्रवृत्तिनिमित्तमुपलक्ष्यते इति ग दीप अनुक्रम 'पिण्ड'स्य षड् निक्षेपा: ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) मूलं [६] .→ “नियुक्ति: [६] + भाष्यं ] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६|| च्छत्यगच्छति वा गोपिण्डे गोशब्दस्य प्रवृत्तिः, एवं सर्वेष्वपि जातिशब्देषु नामम् व्युत्पत्तिनिमित्तवत्सु भावनीयं, ये तु जातिशब्दा व्युस्पतिरहिता यथाकथञ्चिजातिमत्सु रूदिमुपागतास्तेषु व्युत्पत्तिनिमित्तमेव नास्तीति कुतस्तत्र जातेव्युत्पत्तिनिमित्तत्वप्रसङ्गः, तस्माज्जातिः । (परतन्त्रापि न शब्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तमिति न सा गुणग्रहणेन गृह्यते, ये तु मोत्वविशिष्टा गोमानित्यादयो जातिव्युत्पत्तिनिमित्ता न ते नामरूपा इति न तैव्य॑भिचारः, ततो गुणादागतं गौणं, व्युत्तचिनिमिचं द्रव्यादिरूपं गुणमधिकृत्य यद्वस्तुनि प्रवृत्तं नाम तद्रौणनामेति भावार्थः, एतदेव च नाम लोके यथार्थमित्याख्यायते, तथा समयनं यदन्वर्थरहित समय एवं प्रसिद्धं ययौदनस्य प्राभूतिकेति नाम, उभयज यद्गुणनिष्पन्न समयपसिद्धं च, यथा धर्मध्यजस्य रजोहरणमिति नाम, इदं हि समयपसिद्धमन्वधेयुक्तं च, तथाहि-बाह्यमाभ्यन्तरं च रजो|| हियते अनेनेति रजोहरणं, तत्र बाहरजोऽपहारित्वमस्य सुप्रतीतम्, आन्तररजोऽपहरणसमर्थाश्च परमार्थतः संयमयोगाः, तेषां च कारणमिदं धर्मलिङ्गमिति कारणे कार्योपचाराद्रजोहरणमित्युच्यते, उक्तं च-"हेरइ रओ जीवाणं वझं अभितरं च ज तेणं । रयहरणति पञ्चद कारणकजोक्याराओ ॥ १ ॥ संयमजोगा इत्थं रओहरा तेसि कारणं जेणं । रयहरणं उवयारा भन्नइ तेणं रओ कम्मं ॥२॥" अनुभयज यदन्वर्थरहितं समयाप्रसिद्धं च, यथा कस्यापि पुंसः शौर्यक्रौर्यादिगुणासम्भवेनोपचाराभावे सिंह इति नाम, यद्वा देवा एनं देयासुरिति व्युत्पतिनिमित्चासम्भवे देवदत्त इति नाम । एवं पिण्ड इति वर्णावलीरूपमपि नाम गौणादिभेदाचतुर्दा, तत्र यदा बहूनां सजातीयानां विजा तीयानां वा कठिनद्रव्याणामेकत्र पिण्डने पिण्ड इति नाम प्रवर्तते तद्गौणं, व्युत्पत्तिनिमित्तस्य वाच्ये विद्यमानत्वात् , यदा तु समयपरिभा2 १ हरति रजो जीवानां बाह्यमाभ्यन्तरं च यत्तेन । रजोहरणमिति प्रोच्यते कारणे कार्थोपचारात् ॥ १॥ संयमयोगा अत्र रोहरकास्तेषां कारणं येन । रजोहरणमुपचारात् भव्यते तेन रजः कर्म ॥२॥ दीप अनुक्रम ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) मूलं [६] .→ “नियुक्ति: [६] + भाष्यं ] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६|| श्रीपिण्ड- Mषया पानीयेऽपि पिण्ड इति नाम प्रयुज्यते तदा समयज, लोके हि कठिनद्रव्याणामेकत्र संश्लेपे पिण्ड इति प्रतीत, न तु द्रवदण्यसलगते,ततः नियुक्ति पिण्डन पिण्ड इति व्युत्पत्त्यर्थाघटनान गौणम्, अथ च समये प्रसिद्धं, तथा च आचाराने द्वितीये श्रुतस्कन्धे प्रथमे पिण्डैषणाभिधाने॥ ४ ॥ ध्ययने सप्तमोदेशकसूत्रे से भिक्खू वा भिकावुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविढे समाणे जं पुण पाणगं पासेज्जा, तंजहातिलोदगं वा तुसोदग वा' इत्यादि, अत्र पानीयमपि पिण्डशब्देनाभिहितं, ततः पानीये पिण्ड इति नाम समयप्रसिद्धं, न चान्वर्थयुक्तमिति समयनमित्युच्यते, यदा पुनभिक्षुर्भिक्षुकी वा भिक्षार्थ प्रविष्टा सती गृहपतिकुले गुढपिण्डमोदनपिण्ड सक्तपिण्डं वा लभते तदा पि-12 ण्डाब्दस्तत्र प्रवर्त्तमान उभयजः, समयमसिद्धत्वादन्वर्थयुक्तत्वाच, यदा पुनः कस्यापि मनुष्यस्य पिण्ड इति नाम क्रियते न च शरीरा-1 वयवसङ्घातविवक्षा तदा तदनुभयनं ।। सम्पति गाथाक्षराणि विवियन्ते-यत्पिण्ड इति नाम गौणं, यद्वा समयकृत-समयमसिद्धं, यदा भवेतदुभयकृतम् , उभयं-गुणः समयश्च तब तदुभयं च तदुभयं तेन कृतं तदुभयकृत, समयपसिद्धमन्वर्थयुक्तं चेत्पर्षः, अपिशब्दायद्वाऽनुभयजमन्वर्थविकलं समयाप्रसिद्धं च तन्नामपिण्डं ब्रुवते तीर्थकरगणधराः, अत ऊर्च स्थापनापिण्डमहं वक्ष्ये ।। एनामेव गाथां भाष्यकृत्समपञ्च च्याचिख्यासुः प्रथमं गौणं नाम व्याख्यानयनाद गुणनिष्फन्नं गोणं तं चेव जहत्थमत्थवी बेंति । तं पुण खवणो जलनो तवणो पवनो पईवो य॥१॥ (भा०) ____ व्याख्या-गुणेन परतन्त्रेण व्युत्पत्तिनिमित्तेन द्रव्यादिना यन्निष्पन्न नाम तद्गौणं, यञ्च (स्प) गुणैर्निष्पन्नं तद्गुणाचस्मिन् वस्तु | न्या गतमिति " तत आगत " इत्यनेनाणपत्ययः, तदेव च गौणं नाम ' अर्थविदः ' शब्दार्थविदो यथार्थ ब्रुवते, गौणं च नाम त्रिधा, | तयथा-द्रव्यनिमित्तं गुणनिमित्तं क्रियानिमित्तं च, एतच्च मागेव भावित, तत्र पिण्ड इति नाम क्रियानिमित, पिण्ड नमिति व्युत्पत्तेः, तत| दीप अनुक्रम ॥ ४ ॥ ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७] "नियुक्ति : [६...] + भाष्यं [१] + प्रक्षेपं " . प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१|| उदाहरणान्यपि क्रियानिमित्तान्येव दर्शयति-'तं पुण' इत्यादि, तत्पुनगौण नाम क्षपण इत्यादि, तत्र क्षपयति कोणीति क्षपण:-क्षपकपिः, इह आपकर्षेः क्षपणलक्षणां क्रियामधिकृत्य क्षपण इति नाम प्रवृत्तमतो गौणम्, एवं शेषेष्वप्युदाहरणेषु भावना कार्या, तथा ज्वलतीति ज्वलनो-वैश्वानरः, तपतीति तपनो-रविः, पवते पुनातीति वा पवनो-वायुः, प्रदीप्यते इति प्रदीपादीपकलिका, चकारोऽन्येषामप्पेबंजातीयानामुदाहरणानां समुच्चयार्थः । तदेवं सामान्यतो गौणं नाम व्याख्यातं, सम्पति पिण्ड इति नाम गौर्ण समपकृतं च व्याचिख्यासुराह-18 पिंडण बहुव्वाणं पडिवक्खेणावि जत्थ पिंडक्खा । सो समयकओ पिंडो जह सुत्तं पिंडपडियाई ॥२॥ (भा०) ISIA व्याख्या-बहुना सजातीयानां विजातीयानां वा कठिनद्रव्याणां यत् पिण्डनम् --एकत्र संश्लेषस्तत्र पिण्ड इति नाम प्रवर्तमानं || मौणमिति शेषो, व्युत्पत्तिनिमित्तस्य तत्र विद्यमानत्वात् , तथा प्रतिपक्षणाप्यत्र प्रकरणात्सतिपक्षशब्दः कठिनद्रव्यसंश्लेपाभाववाची, ततोध्यमर्थः-पत्र प्रतिपक्षेणापि-बहूनां द्रव्याणां मीलनमन्तरेण तावत्पिण्ड इति नाम मवर्चत एव, न काचित्तत्र व्याहविरिस्पषिशब्दाथै, सम-11 यमसिद्धया 'पिण्डाख्या ' पिण्ड इति नाम, स पिडाख्यावाचामपिण्डः समयकृत इत्युच्यते, तत्र नामनामव तोरभेदोपचारादेवं निर्देश उपचाराभाचे त्वयमर्थ:-तत्र वस्तुनि तत्पिण्ड इति नाम समयकृतमिति, एतदेव दर्शयति-'जह सुन पिंडपडियाई यथेत्युपदर्शने पिण्डेति || पिण्डपातग्रहणं, तत एवं गाथायां निर्देशो द्रष्टव्यः-- पिंडबायपडियाए ' इत्यादि, आदिशब्दात् 'पविढे समाणे' इत्यादिसूत्रपरिग्रहः, तच पागेव दर्शितम् , इयमत्र भावना-अत्र सूत्रे प्रभूतकठिनद्रव्यपरस्परसंश्लेषाभावेऽपि पानीये पि०४ इति नामान्वर्थरहित समयप्रसिद्धया प्रयुज्यते, अत इदं समयजमभिधीयते इति ।। सम्पत्युभयर्ज पिण्ड इति नाम दर्शयति जस्स पुण पिंडवायट्ठया पविठ्ठस्स होइ संपत्ती । गुडओयणपिंडेहिं तं तदुभयपिंडमाहंसु ॥ ३ ॥ (भा.) दीप अनुक्रम [७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४९/२], मूलसूत्र - [०२/२] “पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९] ७ "नियुक्ति: [६...] + भाष्यं [३] + प्रक्षेपं ।" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीपिण्ड ॥५ ॥ प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३|| व्याख्या-यस्य पुनः कस्यचित्पिण्डपातार्थतया-पिण्डपात:-आहारलाभस्तदर्थतया साधोइपतिगृहं प्रविष्टस्य सतो भवति आसमाप्तिः, 'गुडओअणपिडेहि ति 'व्यत्ययोऽप्यासा' मिति माकृतलक्षणवशात्पष्टयर्थे तृतीया, ततोऽयमों-गुडौदनपिण्डोर्गुडपिण्डस्यौदन पिण्डस्य चेत्यर्थः, गुडौदनग्रहणमुपलक्षणं, तेन सक्तुपिण्डादेश्च या सम्माप्तिस्तं गुडपिण्डादिकं तदुभयपिण्डं गुणनिष्पन्नसमयमसिद्धपिण्ड-18 शब्दवाच्यमुक्तवन्तस्तीर्थकरगणधराः, इहापि नामनामवतोरभेदोपचारादेवं गाथायां निर्देशः, उपचाराभावे त्वयं भावार्थ:-तद्विषयं पिण्ड इति । नाम उभयजम् , अन्धर्थयुक्तत्वात्समयप्रसिद्धत्वाचेति ।। सम्मत्युभयातिरिक्त सामान्यतो नाम प्रतिपादयति: उभयाइरित्तमहवा अन्नं पिहु अस्थि लोइयं नाम । अत्ताभिप्पायकयं जह सीहगदेवदत्ताई ॥ ४ ॥ (भा०) व्याख्या-'अथवे ति नामप्रकारान्तरतायोतका, 'उभयातिरिक्तं गौणसमयजविभिन्नम, अम्पदप्यस्ति 'लौकिक' लोके प्रसिद्धमा-16 त्माभिप्रायकृतं नाम, अनुभयजमिति भावार्थः, तदेवोदाहरणेन समर्थयमान आह-यथा सिंहकदेवदत्तादि, आदिशब्दायज्ञदत्तादिपरिग्रहः, इदं हि सिंहदेवदत्तादिकं नाम शौर्यक्रौर्यादिगुणनिबन्धनोपचाराभावे देवा एनं देयासुरिति व्युत्पत्त्यर्थासम्भवे च यस्य कस्यचिदात्माऽभिमा-1 यतः पित्रादिभिदीयमानं न गौणमन्वविकलवानापि समयप्रसिद्धमत उभयातिरिक्तमिति, एवं पिण्ड इत्यपि नाम उभयातिरिक्तं भावनीयं ।।। ननु पिण्ड इति नाम नियुक्तिगाथायामुभयातिरिक्तं नोपन्यस्तं, तत्कथं भाष्यकृता व्याख्यायते?, तदयुक्तं, नोपन्यस्तमित्यसिद्धे, अपिश- ब्देन तत्र मूचितत्वात् , तथा चाह भाष्यकृत| गोण्णसमयाइरित्तं इणमन्नं वाऽविसूइयं नाम । जह पिंडउत्ति कीरइ कस्सइ नाम मणूसस्स ॥ ५॥ (भा०) दीप अनुक्रम ॥५॥ ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११] . “नियुक्ति : [६...] + भाष्यं [५] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५|| व्याख्या--इदं पिण्ड इति नाम अन्यद्वा गौणसमयातिरिक्तं ' गौणसमयजविभिन्नमपिशब्दसूचितमस्ति, तदेव दर्शयति-यथा । कस्यापि मनुष्यस्य पिण्ड इति नाम क्रियते, तद्धि न गौणं प्रभूतद्रव्यसंश्लेषासम्भवाच्छरीरावयवसङ्घातस्य चाविवक्षणात नापि समयकृतम् || |अत इदमुभयांतिरिक्तमिति । ननु समयकृतोभयातिरिक्तयोने कश्चित्परसरं विशेष उपलभ्यते, उभयत्राप्यन्वर्थविकलवादात्माभिमायकृतस्वाविशेषाच, तत्कथं द्वयोरुपादानं !, साङ्केतिकमित्येवोच्यताम्, एवं हि द्वयोरपि नाणं भवति, तदयुक्तम् , अभिमायापरिज्ञानाद, इह दिएका यल्लौकिकं नाम साङ्केतिकं तत्पृथग्जनाः सामयिकाश्च व्यवहरन्ति, यत्पुनः समय एव साङ्केतिक तत्सामयिका एव न पृथगजनाः ॥ तथा चाह भाष्यकृद। तुल्लेऽवि अभिप्पाए समयपसिद्धं न गिहए लोओ। जं पुण लोयपसिद्धं तं सामइया उवचरन्ति ॥ ६ ॥ (भा.) ___ व्याख्या-इहाभिप्रायशारदेन पदैकदेशे पदसमुदायोपचारादभिप्रायकृतत्वमुच्यते, तत्रायमर्थ:-अभिप्रायेण-इच्छामात्रेण कृतं न तुः वस्तुबलमवृत्तमभिप्रायकृतं, तस्य भावोऽभिमायकृतत्वं साङ्केतिकत्वमित्यर्थः तस्मिस्तुल्येऽपि-समानेऽपि, आस्तामसमाने इत्यपिशब्दार्थः | समयप्रसिद्ध 'लोक' पृथगूजनरूपो न गृहाति-न समयमसिद्धेन साङ्केतिकेन नाम्ना व्यवहरति, न खलु पृथगजनो भोजनादिकं समुदेशादिना समयप्रसिद्धेन साङ्केतिकेन नाम्ना व्यवहति, यत्पुनल्लोकमसिद्धं तत्पृथगजनाः सामयिकाश्चो पचरन्ति, तत इत्यं समयकृतोभयातिरिक्तयोः स्वभावभेदाद् तड्डयोरपि पृथगुपादानयर्थवत्, एतेन गौणोभयकृतयोरपिस्वभावभेदसूचनेन पृथगुपादानं सार्थकमुपपादितं द्रष्टव्य, तथाहि-यद्यपि गौणमुभयकृतं चान्वर्थयुक्तत्वेनाविशिष्टं, तथापि यद्रौणं तत्पृथगजनाः सामयिकाश्च व्यवहरन्ति, यत्पुनः समयमसिद्धं गाणं । तत्सामयिका एव न पृथाजनाः, तेषां तेन प्रयोजनाभावात् , समयप्रसिद्धन दिनाना गौणेनापि यथोक्तसमयपरिपालननिष्पन्नचेतसां गृही-18 दीप अनुक्रम [११] ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं । → “नियुक्ति: [६...] + भाष्यं [६] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीपिण्ड निर्वाक्तिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६|| तवतानां प्रयोजनं न गृहस्थानाम्, अतः स्वभावभेदात्तयोरपि पृथगुपन्यासः सार्थक इति ॥ तदेवं नामपिण्डो नियुक्तिकृतोपदर्शितो भायकृता समपश्च व्याख्यातः, साम्पतं यत्पूर्व प्रतिज्ञातं नियुक्तिकृता-'ठवणापिंडं अतो घोच्छ ' तत्समर्थयमानः स एवाइ अक्खे वराडए वा कढे पुत्थे व चित्तकम्मे वा। सब्भावमसम्भावं ठवणापिंडं बियाणाहि ॥ ७॥ व्याख्या-सत इव विद्यमानस्येव भावः सत्ता-सद्भावः, किमुक्तं भवति?-स्थाप्यमानस्येन्द्रादेरनुरूपाङ्गोपाङ्गचिहवाइनपहरणादि-की परिकररूपो प आकारविशेषो यदर्शनात्साक्षाद्विद्यमान इवेन्द्रादिलक्ष्यते स सद्भावः, तदभावोऽसद्भावः, तब सनावमसमावचाभित्य 'अक्षेपका चन्दनके कपर्दे चराटके वाशब्दोऽडलीयकादिसमुच्चयार्थः, उभयत्रापि च जातावेकवचनं, तथा 'काष्ठे' दारुणि 'पुस्ते' दिउल्लिकादी, वा शब्दो केप्यपापाणसमुच्चये, चित्रकर्मणि वा या पिण्डस्य स्थापना साक्षादिः काष्ठादिष्याकारविशेषो वा पिण्डखेन स्थाप्यमानः स्थापना कापिण्डः, इयमत्र भावना-पदा काष्ठे लेप्ये उपले चित्रकर्मणि वा प्रभूतद्रव्यसंश्लेषरूपः पिण्डाकारः साक्षाद्विधमान इवालिख्यते, यद्वा अक्षाः कपका अङ्गलीयकादयो वा एकत्र संश्लेष्य पिण्डत्वेन स्थाप्यन्ते यथेष पिण्डः स्थापित इति तदा तत्र पिण्डाकारस्योपलभ्यमानत्वात्सद्भावत पिण्डस्थापना, यदा त्वेकस्मिनक्षे बराटकेऽङ्गलीयके वा पिण्डत्वेन स्थापना एष पिण्डो मया स्थापित इति तदा तत्र पिण्डाकारस्पानुपलभ्यमानत्वात् , अक्षादिगतपरमाणुसङ्घातस्य चाविवक्षणादसद्भवतः पिण्डस्थापना, चित्रकर्मण्यपि यदा एकविन्द्वालिखनेन पिण्डस्थापना यथैष पिण्ट आलिखित इति विवक्षा तदाप्रभूतद्रव्यसंश्लेवाकारादर्शनादसद्भावपिण्डस्थापना, यदा पुनरेकविन्द्रालिखनेऽपि एप मया गुडपिण्ड ओदनपिण्डः सक्नुपिण्डो वाऽऽलिखित इति विवक्षा तदा सद्भावतः पिण्डस्थापना ।। अमुमेव सद्भावासद्भावस्थापनाविभागं भाष्यकृदुपदर्शयति दीप अनुक्रम [१२] ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र |||| दीप अनुक्रम [१४] मूलं मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित 4❖❖❖❖04 “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) Education Internation ८० → “निर्युक्तिः [७] + भाष्यं [७] + प्रक्षेपं आगमसूत्र [४१ / २ ], मूलसूत्र [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः इको उ असन्भावे तिण्हं ठवणा उ होइ सम्भावे । चित्तेसु असम्भावे दारुअलेप्पोबले सियरो ॥ ७ ॥ ( मा० ) व्याख्या - एकोऽक्षो वराटकोऽङ्गुलीयकादिर्वा यदा पिण्डत्वेन स्थाप्यते तदा सा पिण्डस्थापना 'असद्भावे 'असद्भावविषया, अ सद्भांचिकीत्यर्थः तत्र पिण्डाकृतेरनुपलभ्यमानत्वात्, अक्षादिगतपरमाणुसङ्घातस्य चाविवक्षणात् । यदा तु त्रयाणामक्षाणां वराटकानामङ्गुली यकादीनां वा परस्परमेकत्र संश्लेषकरणेन पिण्डत्वेन स्थापना तदा सा पिण्डस्थापना 'सद्भावे' सद्भाविकी, तत्र पिण्डाकृतेरुपलभ्यमानत्वात्, त्रयाणां चेत्युपलक्षणं तेन द्वयोरपि बहूनां चेत्यपि द्रष्टव्यं । तथा 'चित्रेषु' चित्रकर्मसु यदैकविन्द्रा लिखनेन पिण्डस्थापना तदा साऽप्यसद्भावे, यदा तु चित्रकर्मस्वपि अनेकविन्दुसंश्लेषालिखनेन प्रभूतद्रव्यसङ्घातात्मक पिण्डस्थापना तदा सा सद्भावस्थापना, पिण्डाकृतेस्तत्र दर्शनात् । २ तथा दारुकलेप्योपलेषु पिण्डाकृतिसम्पादनेन या पिण्डस्य स्थापना स 'इतर' सद्भावस्थापनापिण्डः, तत्र पिण्डाकारस्य दर्शनात् ॥ तदे ४ वमुक्तः स्थापनापिण्डः सम्प्रतिद्रव्यपिण्डस्यावसरः, स च द्विधा-आगमतो नोआगमतञ्च तत्राऽगमतः पिण्डशब्दार्थस्य ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः 'अनुपयोगो द्रव्य मिति वचनात्, नोआगमतस्त्रिधा, तद्यथा - ज्ञशरीरद्रव्यपिण्डः भव्यशरीरद्रव्यपिण्डः ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यपिण्डथ, तत्र पिण्डशब्दार्थज्ञस्य यच्छरीरं सिद्धशिलातकादिगतमपगतजीवितं तद् भूतपिण्डशब्दार्थ परिज्ञानकारणत्वात् ज्ञशरीरद्रव्यपिण्डः, यस्तु बालको नेदानीमवबुध्यते पिण्डशब्दार्थम् अब चावश्यमायत्यां तेनैव शरीरेण परिवर्द्धमानेन भोत्स्यते स भावपिण्डशब्दार्थ परिज्ञानकारणत्वाद भन्यशरीरद्रव्यपिण्डः । ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तं तु द्रव्यपिण्डं निर्युक्तिकृदाह तिविहो उ दव्वपिंडो सच्चित्तो मीसओ अचित्तो य । एक्केकरस य एतो नव नव भेआ उ पत्तेयं ॥ ८ ॥ For Parata Lise Only ~ 16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१५] .” “नियुक्ति: [८] + भाष्यं [७...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु तेर्मलयाग प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८|| ॥ ७ ॥ दीप अनुक्रम [१५]] व्याख्या-शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यपिण्डखिघा, तयथा-सचित्तो मिश्रोऽचित्तश्च, तत्र मिश्रः सचित्ताचित्तरूपः, इह पृथिवीकायादिकः पिण्डवेनाभिधास्यते, स च पूर्व सचित्तो भवति, ततः स्वकायशस्त्रादिभिः प्रामुकीक्रियमाणः कियन्तं कालं मिश्रो भवति, तत ऊर्ध्वमचित्तः, तत एतदर्थख्यापनार्थ सचित्तमिश्राचित्ताः क्रमेणोक्ताः । इतो' भेदत्रयाभिधानादनन्तरम् 'एकैकस्य सचित्तादेर्भेदस्य प्रत्येक नव नव भेदा वाच्या भवन्ति ।। तानेव नव नव भेदानाह पुढवी आउकाओ तेऊ वाऊ वणस्सई चेव । बेइंदिय तेइंदिय चउरो पंचेंदिया चेव ॥ ९॥ व्याख्या-इह पिण्डशब्दः पूर्वगाथातोऽनुवर्तमानः प्रत्येकं सम्बध्यते, तद्यथा-पृथिवीकायपिण्डोऽप्रकायपिण्डस्तेजस्कायपिण्डो वायुकायपिण्डो वनस्पतिकायपिण्डो दीन्द्रियपिण्डस्त्रीन्द्रियपिण्डश्चतुरिन्द्रियपिण्डः पश्चेन्द्रियपिण्डश्च ।। सम्पत्यमीषामेव नवानां भेदानां सचित्तत्त्वादिक विभावयिषुः प्रथमतः पृथिवीकाये भावयति पुढवीकाओ तिविहो सच्चित्तो भीसओ य अञ्चित्तो । सच्चित्तो पुण दुविहो निच्छयववहारओ चेव ।। १०॥ ____ व्याख्या-पृथिवीकायखिविधा, तयथा-सचित्तो मिश्रोऽचित्तश्च, सचित्तः पुनधिा, तद्यथा-निधयतो व्यवहारतश्च ॥ एतदेव निश्चयव्यवहाराभ्यां सचित्तस्य वैविध्यं प्रतिपादयतिनिच्छयओ सच्चित्तो पुढविमहापव्ययाण बहुमज्झे । अचित्तमीसवज्जो सेसो बवहारसच्चित्तो ॥ ११ ॥ व्याख्या-निश्चयतः सचित्तः पृथिवीकायो धर्मादीनां पृथिवीनां मेर्वादीनां महापर्वतानामुपलक्षणमेतत् तेन टङ्कादीनां च, बहुम द्रव्यपिण्डे पृथ्वी आदि ५ तथा बेइन्द्रियादि ४ इति नव-पिण्डानाम् वर्णनं आरभ्यते ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१८] . "नियुक्ति: [११] + भाष्यं [...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||११|| ध्यभागे वेदितव्या, ताचित्तताया मिश्रतायाश्च हेतूना शीतादीनामसम्भवात् , शेषः पुनः अचित्तमिश्रवजों वक्ष्यमाणस्थानसम्भविमिश्राचितिव्यतिरिक्तो निरावाधारण्यभूम्यादिषु व्यवस्थितो व्यवहारतः सचित्तो वेदितव्यः । उक्तः सचित्तपृथिवीकायः, सम्पति तमेव मिश्रमाह खीरदुमहे? पंथे कट्टोले इंधणे य मीसो उ । पोरिसि एग दुग तिगं बहुइंधणमज्झथोवे य ॥ १२ ॥ व्याख्या-खीरदुमद्देह 'त्ति क्षीरद्रुमा' चटाश्वत्थादयस्तेषामधस्तात्-तले यः पृथिवीकायः स मिश्रः, तत्र हि क्षीरद्रुमाणां माधुर्येण शस्त्रत्वाभावात् कियान्सचित्तः शीतादिशखसम्पर्कसम्भवाञ्च कियानचित्त इति मिश्रता, तथा पर्थि ग्रामानगराद्वा बहिर्यः पृथिवकिायो । वर्तते सोऽपि मिश्रो, यतस्तत्र गन्त्रीचक्रादिभिर्य उत्खातः पृथिवीकायः स कियान्सचित्तः कियांश्च शीतवातादिभिरचित्तीकृत इति मिश्रा, 'कहोले ति कृष्टो हलविदारितः सोऽपि प्रथमतो हलेन विदार्यमाणः सचित्तः ततः शीतवातादिभिः कियानचित्तीक्रियते इतिमिश्रः, तथाऽऽद्रों जलमिश्रितः, तथाहि-मेघस्यापि जलं सचित्तपृथिवीकायस्योपरि निपतत् कियन्तं पृथिवीकार्य विराधयति ततो जलापृथिवीकायो मिश्र उ-11 पपद्यते, सोऽप्यन्तमहत्तोदनन्तरमचित्तीभवति, परस्परशस्त्रत्वेन द्वयोरपि पृथिव्यप्काययोरचितीभवनसम्भवात् , यदा त्वतिप्रभूतं मेघजलंग निपततितदा तज्जलं यावाद्यापि स्थिति बनाति तावत् मिश्रः पृथिवीकायः, स्थितिबन्धे तु कृते सति सचित्तोऽपि सम्भाव्यते, तथा 'इन्धने गोमयादी मिश्रः, तथादि-गोमयादिकमिन्धनं सचित्तपृथिवीकायस्य शखं, शस्त्रेण च परिपीच्यमानो यावन्नायापि सर्वथापरिणमति | तावन्मिश्रः । अवेन्धनविषये कालमानमाह-पोरिसी'त्यादि, बहिन्धनमध्यगत एका पौरुषी यावन्मिश्रो मध्यमेन्धनसम्पृक्तस्तु पौ-1 पीद्विकम् अल्पेन्धनसम्पृक्तस्तु पौरुषीत्रिकं तत ऊर्द्धमचित्त इति ।। तदेवमुक्तो मिश्रः पृथिवीकाय:, साम्पतमचित्तमाह दीप अनुक्रम [१८] ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२०] . "नियुक्ति: [१३] + भाष्यं [...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियुतेर्मलयगिरीयाचिः ॥८॥ प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१३|| पृथ्वीपिण्डनिक्षेप दीप अनुक्रम सीउण्हखारखत्ते अग्गीलोणूसअंबिलेनेहे । वुकंतजोणिएणं पयोयणं तेणिमं होइ ॥ १३ ॥ व्याख्या-इह सर्वत्र सप्तमी तृतीयाऽर्थे प्राकृतलक्षणवशात, तथा चाइ पाणिनिः प्राकृतलक्षणे-व्यत्ययोऽप्यासा' मित्यत्र सूत्रे सप्तमी तृतीयार्थे, यथा 'तिमे तेसु अलंकिया पुहवी' इति, ततोऽयमर्थः-शीतोष्णक्षारक्षत्रेण, तत्र शीत-अतीतम् उष्णः-सूर्यादिपरितापः क्षार:-यवक्षारादिः क्षत्र-करीपविशेषः, एतैः, तथा ' अग्गिलोणूसअंबिलेनेहे' इति, अग्नि:-पैश्वानरः लवणं-प्रतीतम् ऊपः-ऊपरादिक्षेत्रोद्भवो लवणिमसम्मिश्रो रजोविशेषः, आम्ल-कालिकं स्नेहः-तैलादिः एतैश्वाचितः पृथिवीकायो भवति, इद शीताम्यम्लक्षारक्षत्रस्नेहाः परकायशस्त्राणि, ऊपः स्वकायशस्त्रम् , उष्णवेद सूर्यपरितापरूपः स्वभावोष्णः तथाविधपृथिवीकायपरितापरूपो वा गृह्यते, नाग्निपरितापरूपस्तस्यामिग्रहणेनैव गृहीतत्वात्। ततः सोऽपि, स्वकायशस्त्रोपादानेन परकायशखोपादानेन चान्यान्यानि स्वकायपरकायशस्खापलक्ष्यन्ते, यथा कटुकरसो मधुररसस्य स्वकायशस्त्रमित्यादि, एतेन पृथिवीकायस्याचित्ततया भवनं चतुद्धों प्रतिपादितं द्रष्टाप, तयथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतच, तब स्वकायेन परकायेण वा यदचिचीकरणं तद्रव्यतः यदा तु क्षारादिक्षेत्रोत्पत्रस्य मधुरादिक्षेत्रोवनस्य च तुल्प-1 वर्णस्य भूम्यादेः पृथिवीकायस्य परस्परं सम्पर्केगाचित्तताभवनं तदा तत् क्षेत्रता, क्षेत्रस्य प्राधान्येन विवक्षणात, यहा मा भूदपरक्षेत्रोद-1 चेन पृथिवीकायान्तरेण सह मीलनं, किन्त्वन्यत्र क्षेत्रे योजनशतात्परतो यदा नीयते तदा सर्वोऽपि पृथिवीकायः सर्वस्मादपि क्षेत्रायोजन शतादूर्द्धमानीतो भिन्नाहारत्वेन शीतादिसम्पर्कतथावश्यमचित्तीभवति, इत्यं च क्षेत्रादिक्रमेणाचित्तीभवनमएकापादीनामपि भावनीयं, या त्रिभिस्तैरलङ्कृता पृथ्वी। [२०] ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२०] .. "नियुक्ति: [१३] + भाष्यं [७...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१३|| वनस्पतिकायिकानां, तथा च हरीतक्पादयो योजनशवादूईमानीताऽचिचीभूतत्वादोपपायर्थ साधुभिः प्रतिगृह्यन्ते इति । कालतस्त्वधिचता स्वभावतः स्वायुःक्षयेण, सा च परमार्थतोऽतिशयज्ञानेनैव सम्यक्परिज्ञायते न छामस्थिकज्ञानेनेति न व्यवहारपथमवतरति, अत एव च तृषाऽतिपीडितानामपि साधूनां खभावतः स्वायुःक्षयेणाचित्तीभूतमपि तडागोदकं पानाय वर्द्धमानस्वामी भगवान् नानुज्ञातवान् , इत्थंभूतस्याचित्तीभवनस्य छास्थानां दार्चक्षस्वेन मा भूत सर्वत्रापि तहागोदके सचिनेऽपि पाश्चात्यसाधूनां प्रवृत्तिप्रसङ्ग इतिकत्वा, भावतोऽचित्तीभवन पूर्ववर्णादिपरित्यागतोऽपरवादितया भवनं । तदेवमुक्तोऽचित्तोऽपि पृथिवीकायः। एतेन चाचित्तेन साधूनां प्रयोजनं, तथा चाह-'युक्त इत्यादि, पुत्कान्ताः-अपगता योनिः-उत्पत्तिस्थानं यत्र तेन विध्वस्तयोनिना-पामुकेन 'इदं वक्ष्यमाणस्वरूपं प्रयोजनं साधूनां भवति ।। तदेवोपदर्शयतिA अवरद्विगविसबंधे लवणेन व सुरभिउवलएणं वा । अच्चित्तरस उ गहणं पओयणं तेणिमं बडनं ॥ १४ ॥ व्याख्या-अपराधनम् अपराद्ध-पीडाजनकता तदस्यास्तीति अपराद्धिको लूतास्कोट: सपोदिशो वा विष-प्रतीतं तब दद-1 प्रभृतिषु चारितं सम्भवति तयोरुपशमनाय बन्ध इव बन्धः-प्रलेपस्तस्मिन् कर्तव्येऽचित्तपृथिवीकायस्प गौरमृत्तिकाकेदारतरिकादिरूपस्य || ग्रहणं प्रयोजन, यद्वा लवणेन प्रतीतेन 'अचित्तस्स' ति विभक्तिपरिणामेनेह तृतीयान्तं सम्बध्यते, अचित्तेनालवणभक्तभोजनादौ प्रयोजनम् , अथवा मुरभ्युपलेन-गन्धपापाणेन गन्धरोहकाख्येन प्रयोजनं, तेन हि पामाप्रसूतदातधातादिः क्रियते, चाशब्दो विकल्पार्थः, अथवा तेन पृथिवीकायेनेदमन्यत्प्रयोजनम् ।। तदेवाह ठाणनिसियणतयट्टण उच्चाराईण चेव उस्सग्गो । घुट्टगडगलगलेको एमाइ पओयणं बहुहा ॥ १५ ॥ दीप अनुक्रम [२०] ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२२] . "नियुक्ति: [१५] + भाष्यं [...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पृथ्वीपिण्डनिक्षेपे रीयावृत्तिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५|| पिण्डनियु- व्याख्या-इह साधुभिः सचित्तमिश्रपरिहारद्वारेणाचित्ते भूतलमदेशे यत् स्थान-कायोत्सग्गों विधीयते, यच निषीदनम्-उपवेशनं मलयाग यच्च त्वम्वनं-स्वापः, यश्च उच्चारादीनां पुरीषप्रस्रवणश्लेष्मनिष्ठधूतानामुत्सर्गः, तथा यो घुट्टको-लेपितपात्रमणताकारकः पाषाणो ये च डगलका:-पुरीपोत्सर्गानन्तरमपानमोज्छनकपाषाणादिखण्डरूपा यश्च लेपो-भोगपुरपाषाणादिनिष्पन्नस्तौम्बकपात्राभ्यन्तरे दीयते, एवमादि ॥९ ॥ बहुधा ' बहुप्रकारम् अचित्तेन पृथिवीकायेन प्रयोजनम् ।। उक्तः सचित्तादिभेदभिन्नः पृथिवीकायपिण्डः, सम्पत्यष्कायपिण्डं सचित्तादिभेदभिन्नमाह आउक्काओ तिविहो सच्चित्तो मीसओ य अच्चित्तो । सच्चिचो पुण दुविहो निच्छयववहारओ चेव ॥ १६॥ व्याख्या-अप्कायत्रिविधा, तद्यथा-सचित्ती मिश्रोऽचित्तश्च, तत्र सचित्तो द्विधा-निश्यतो व्यवहारतश्च ॥ एतदेव सचित्तस्य निश्रयव्यवहाराभ्यां वैविध्यमुपदर्शयति- . घणउदही घणवलया करगसमुहहहाण बहुमज्झे । अह निच्छयसच्चित्तो ववहारनयस्स अगडाई ॥ १७ ॥ व्याख्या-'घनोदधयः नरकपृथ्वीनामाधारभूताः कठिनतोयाः समुद्राः, 'धनवलयाः' तासामेव नरकपृथिवीनां पार्श्ववर्तिहत्ताकारतोयाः ये च 'करकाः' धनोपलाः तथा 'समुद्रहदानां' लवणादिसमुद्रपद्यादिहदानां च बहुमध्यभागे येऽप्कायाः 'अह' चि एप सर्वोप्यष्कायो 'निश्चयसचित्तः' एकान्तसचिचः, शेषस्तु 'अवटादि' अक्टवापीतडागादिस्थः, इहावादिस्थोऽवटादिशब्देनोक्ता, तातस्थ्येन तद्वयपदेशप्रत्तेः, यथा मञ्चाः क्रोशन्तीत्यादौ, तत्रावट: कूपस्तदादिगतोऽप्कायो 'व्यवहारनयस्य' ब्यवहारनयमतेन सचित्तः ।। उक्तः सचित्तोऽकायः, सम्मति मिश्रमाह दीप अनुक्रम [२२] 'अप्काय'पिण्डस्य निक्षेपा: वर्णयते ~ 21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२५] .. "नियुक्ति: [१८] + भाष्यं [७...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८|| उसिणोदगमणुबत्ते दंडे वासे य पडियमित्तंमि । मोत्तूणादेसतिगं चाउलउदगेऽबहुपसन्नं ॥ १८ ॥ व्याख्या-अनुद्वृत्ते दण्डे, अत्र जाताचेकवचनं, ततोऽयमर्थ:--अनुत्तेषु त्रिषु दण्डेषु-उत्कालेषु यदुष्णोदकं तन्मिश्रमिति प्रस्तावादादम्यते, तथाहि-प्रथमे दण्डे जायमाने कश्चित्परिणमति कश्चिन्नेति मिश्रा, द्वितीये प्रभूतः परिणमति स्तोकोऽवतिष्ठते, तृतीये तु सर्वोऽप्यचित्तो भवति, ततोऽनुवृत्तेषु त्रिषु दण्डे पूष्णोदकं (मिथ) सम्भवति, तथा वर्षे-वृष्टौ पतितमात्रे यजलं ग्रामनगरादिषु प्रभूततिर्यग्मनुष्यप्रचारसम्भविषु भूमी वर्चते तयावन्नायाप्यचित्तीभवति तावनिमश्रमवगन्तव्यं, ग्रामनगरादिभ्योऽपि बहिस्तायदि स्तोक मेघजलं निपतति तदानीं तदपि जापतितमा मिश्रमवसेय, पृथिवीकायसम्पर्कतस्तस्य परिणममानत्वाव, यदाऽप्यतिप्रभूतं जलं मेघो वर्षति तदापि प्रथमतो निपतत पृथिवी कायसम्पर्कतः परिणममानं मिश्र, शेषं तु पश्चानिपतत् सचित्तमिति, तथा 'मुक्त्वा ' परिहत्य ' आदेशत्रिक' मतत्रिक, तदुक्ता मिश्रता न ग्राह्येति भावार्थः, 'चाउलोदकं तण्डुलोदकम् 'अबहुप्रसन्न ' नातिस्वच्छीभूतं, मिश्रमिति गाथार्थः । अबहुप्रसन्नमित्यत्रादावकारलोप आर्षत्वात् ।। आदेश्वत्रिकमेव दर्शयति भंडगपासवलग्गा उत्तेडा बुन्बुया न संमंति । जा ताव भीसगं तंदुला य रज्झंति जावऽन्ने ॥ १९ ॥ व्याख्या-तण्डलोदके तण्डुलप्रक्षालनभाण्डादन्यस्मिन् भाण्डे मक्षिष्यमाणे ये त्रुटित्वा भाण्डकस्य पार्थेषु 'उत्चेडा' विन्दवो लग्नाः ते यावन्न 'शाम्यन्ति ' विध्वंसमुपगच्छन्ति तावत्नत्तण्डलोदकं मिश्रमित्येके १, अपरे पुनराहुः-तण्डुलोदके तण्डुलप्रक्षालनभाण्डकादपरस्मिन् भाण्डके प्रक्षिप्यमाणे ये तण्डुलोदकस्योपरि समुद्भूता बुद्धदास्ते यावदद्यापि 'न शाम्यन्ति 'न विनाशमियूति तावत्तत्तण्डलोदकं दीप अनुक्रम [२५]] ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२६] . "नियुक्ति: [१९] + भाष्यं [...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१९|| दीप अनुक्रम पिण्डनि-मिश्रमिति २, अन्ये पुनरेवमाहुः-तण्डुलप्रक्षालनानन्तरं तण्डुला राद्धमारवास्ततस्ते यावन्न राध्यन्ति, यावन्नावापि सिध्यन्तीति भावः | अप्कायपिकेमेलयगि- तावत्तत्तण्डलोदकं मिश्रमिति ३॥ एषां त्रयाणामप्यादेशानां दूषणान्याह पिण्डनिक्षेपे रीयावृतिः एए उ अणाएसा तिन्निवि कालनियमस्सऽसंभवओ । लुक्खेयरमंडगपवणसंभवासंभवाईहिं॥२०॥ ॥१०॥ व्याख्या-एते त्रयोऽप्यादेशा अनादेशा एव, तुशब्द एवकारार्थो भिन्नक्रमश्च, कुतोऽनादेशाः ? इत्याह-कालनियमस्यासम्भवात, हान खलु बिन्द्वपगमे बुहुदापगमे तण्डुलपाकनिष्पत्ती चा सदा सर्वत्र प्रतिनियत एव कालः, येन प्रतिनियतकालसम्भविनो मिश्रत्वादूम | चित्तत्वस्याभिधीयमानस्प न व्यभिचारसम्भवः, कथं प्रतिनियत: कालो न घटते ? इति कालनियमासम्भवमाह-'लुक्खेयरे' त्यादि,रूक्षेत-18 रभाण्डपवनसंभवासम्भवादिभिः, अत्रादिशब्दाचिरकालसलिलभिन्नत्वाभिन्नत्वादिपरिग्रहः, इयमच भावना-इह पदापाकतः प्रथममानीतं || चिरानीतं वा स्नेहजलादिना न भिन्न भाण्डं तलमुच्यते, स्नेहादिना तु भिन्न स्निग्ध, तत्र रूक्षे भाण्टे तण्डलोदके प्रक्षिप्यमाणे ये बिन्दवः। पार्थेषु लगास्ते भाण्डस्य रूक्षतया अटित्येव शोषमुपयान्ति, स्निग्वे तु भाण्डे भाण्डस्य स्निग्यतया चिरकालं, ततः पथमादेशवादिनां मते कले भाण्डे चिन्दूनामपगमे परमार्थतो मिश्रस्याप्यचित्तवसम्भावनया ग्रहणप्रसङ्गः, स्निग्धे तु भाण्डे परमार्थतोऽचित्तस्यापि बिन्दूनामनपगमे मिश्रत्वेन सम्भावनया न ग्रहणमिति । तथा बुद्बुदा अपि प्रचुरखरपवनसम्पर्कतो झटिति विनाशमपगच्छन्ति, अनुरखरपवनस-1 ॥१०॥ पोभावे चिरमप्यवतिष्ठन्ते, ततो द्वितीयादेशवादिनामपि मते यदा खरमचुरपवनसम्पर्कतो झटिति विनाशमैयरुर्बुद्धदास्तदा परमार्थतो मिअस्यापि तण्डुलोदकस्याचित्तवेन सम्भावनया ग्रहणप्रसङ्गः, यदा तु खरपचुरपवनसम्पर्कोभावे चिरकालमध्यवतिष्ठन्ते बुद्धदाः तदा परमाथ-18 तोऽचित्तस्यापि तण्डुलोदकस्य बुद्बुददर्शनतो मिश्रत्वशडूनयां न ग्रहणमिति । येऽपि तृतीयादेशवादिनस्तेऽपि न परमार्थं पोलोचितवन्तः, [२६] ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२७] .. "नियुक्ति: [२०] + भाष्यं [७...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२०|| तण्डुलानां चिरकालपानीयभिन्नाभिन्नत्वेन पाकस्यानियतकालत्वात् , तथाहि-ये चिरकालसलिलभिन्नास्तण्डुला न च नवीना इन्धनादि | सामग्री च परिपूर्णा ते सत्वरमेव निष्पधन्ते, शेपास्तु मन्द, ततस्तेषामपि मतेन कदाचिम्मिश्रस्याप्यचित्तत्वसम्भावनया ग्रहणमसङ्गः, कदाचित्पुनरचित्तीभूतस्यापि मिश्रत्वशङ्कासम्भवादग्रहणमिति त्रयोऽप्यनादेशाः ॥ सम्पति यः प्रवचनाविरोधी आदेशः प्रागुपदिष्टस्त विभायिघुराह जाव न बहुप्पसन्नं ता मीसं एस इत्थ आएसो। होइ पमाणमचित्तं बहुप्पसन्नं तु नायब्वं ॥२१॥ व्याख्या-यावत्तण्डुलोदकं न बहुप्रसन्न' नातिस्वच्छीभूतं तावन्मिश्रमगन्तव्यम्, एषः 'अत्र' मिश्रविचारपक्रमे भवत्यादेशः प्रमाणं, न शेषः, यत्तु 'बहुप्रसन्नम्' अतिस्वच्छीभूतं तदचितं ज्ञातव्यं, ततोऽचित्तत्वेन तस्य ग्रहणे न कश्चिदोषः ।। उक्तो मिश्रोऽप्कायः, अधुना तमेवाचित्तमाह सीउण्हखारखत्ते अग्गीलोणूसअंबिलेनेहे । वुकंतजोणिएणं पओयणं तेणिम होइ ॥ २२ ॥ व्याख्या---इयं गाथा प्रागिव व्याख्येया, नवरं पृथिवीकायस्थानेऽप्कायाभिलापः कर्तव्यः । इह या स्वकायपरकायशस्त्रपोजना द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया वाऽचित्तत्वभावना सापि मागिव यथायोगमकायेऽपि भावनीया । तथा यदा दधितैलादिसत्केषु घटेषु क्षिप्तस्य शुद्धजलादेरुपरि दध्यायवयवसका तरी जायते तदा सा यदि परिस्थूरा त:कया पौरुष्या तत्परिणमति, मध्यमभावा चेत्तद्विाभ्यां पौरुषीभ्यां, स्तोका चेत्तर्हि तिमृभिः पौरुषीभिरिति ।। इइ तेन व्युक्रान्तयोनिकनाप्कायेनेदं प्रयोजनमित्युक्तम् , अतस्तदेव दर्शयति दीप अनुक्रम [२७] ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३०] . "नियुक्ति: [२३] + भाष्यं [...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२३|| केमेलयगिरीयावृत्तिः ॥११॥ दीप अनुक्रम [३०] परिसेयपियणहत्थाइधोवणं चीरधोवणं चेव । आयमण भाणधुवणं एमाइ पओयणं बहुहा ॥ २३ ॥ | अकायपि व्याख्या-परिपेको-दृष्यणादेशस्थितस्योपरि पानीयेन परिषेचनं, पानं तडपनोदाय जलस्याभ्यबहरणं, 'हस्तादिधावनं' करच-1 रणप्रभृतिशरीरावयवानां कारणमुद्दिश्य प्रक्षालनं, 'चीवरधावनं ' वस्खमक्षालनम् , अस्य भिन्नविभक्तिनिर्देशो न सदैव साधुनोपधिप्रलालनं कर्त्तव्यमिति प्रदर्शनार्थः, 'आचमनं' पुरीपोत्सर्गानन्तरं शौचकरणं 'भाणधुवर्ण ति पात्रकादिभाजनप्रक्षालनम्, एवमादिकम्, आदिशब्दात ग्लानकार्यादिपरिग्रहः, अचित्तेनाप्कायेन प्रयोजनं, 'बहुधा' वहुप्रकारं द्रष्टव्यम् ।। इह चीवरधावनमित्युक्तं, तच्च संयतानां वर्षाकालादर्वाक कल्पते न शेषकालं, योषकाले खनेकदोपसम्भवात, तानेय दोषान दर्शयति उउबद्ध धुवण बाउस बंभविणासो अठाणठवणं च । संपाइमबाउवहो पावण भूओवघाओ य ॥ २४ ॥ ध्याख्या-वर्षाकालस्य प्रत्यासन्न कालमपहाय शेषे ऋतुबद्ध काले चीवरस्य धावने चरणं वकुशं भवति, उपकरणवकुशत्वात् , तथा 'ब्रह्मविनाश' मैथुनप्रत्याख्यानभङ्गः, प्रक्षालितवास परिधानभूपितशरीरो हि विरूपोऽपि रमणीयत्वेन प्रतिभासमानो रमणीनां रमणयोग्योऽयमिति माथेनीयो भवति, किं पुनः शरीरावयवरामणीयकोपशोभितः, ततः समस्तकामिनीनां प्रार्थयमानानां सललितदर्शिततियेम्वलिताक्षनिरीक्षणाङ्गमोटनव्याजोपदर्शितकक्षामूलसद्धृत्ततारमणीयपीनकठिनपयोधरविस्तारगम्भीरनाभीपदेशपरिभावनतोऽवश्यं ब्रह्मचर्यादपभ्रंशम ॥१२॥ बाधिश्रयते, तथा अस्थानस्थापनम् , इयमत्र भावना-पदि नाम कथञ्चित्तववेदितया संयमविषयनिष्पकम्पनत्यवष्टम्भतो न ब्रह्मचर्यादपभ्र श्यति, तथाऽपि कोकेन सोऽस्थाने स्थाप्यते, यथा नूनमयं कामी, कथमन्यथाऽऽत्मानमित्थं भूषयति?, न खल्वकामी मण्डनप्रियो भवतीति, तथा । ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३१] . "नियुक्ति: [२४] + भाष्यं [...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२४|| संपातिमाना मक्षिकादीनां प्रक्षालनजलादिषु निपततां वायोश्च वधः' विनाशो भवति, तथा 'प्लावनेन ' प्रक्षालनजलपरिष्ठापने पृथिव्या रेलणेन भूतोपघात:' पृथिव्याश्रितकीटिकादिसवोपमदों भवति, तस्मान ऋतुबद्ध काले वस्त्रं प्रक्षालनीयम् ।। नन्वते दोषा वर्षाकालादागपि धावने सम्भवन्ति ततस्तदानीमपि न चीवराणि प्रक्षालनीयानि, तन्न, सदानी चीवरामक्षालनेऽनेकदोषसम्भवात् तानेवाह अइभार चुडण पणए सीयलपाउरणऽजीरगेलण्णे । ओहावणकायवहो वासासु अ धोवणे दोसा ॥ २५ ॥ । व्याख्या-इह वर्षाकालादोगपि यदि वासांसि न प्रक्षाल्यन्ते तदानीम् ' अतिभारः' गुरुत्वं वस्त्राणां भवति, तथाहि-वासांसि मलविद्धानि यदा जलकणानुषक्तसमीरणमात्रेणापि स्पृष्टानि भवन्ति तदाऽपि स मलः क्लिनीभूय-दृढतरं वस्त्रेषु सम्बन्धमापद्यते, कि पुनर्वासु सर्वतः सलिलमयीषु ?, ततो वर्षासु क्लिन्नमलसम्पर्कतो वासांसि गुरुतरभाराणि भवन्ति, तथा 'चुडणन्ति वाससा वर्षा-2 कालादब्बोगप्यधावने वर्षासु जीर्णता भवति शाटो भवतीत्यर्थः, किमुक्तं भवति ?-यदि नाम वर्षाकालाद|गपि वस्त्राणि न प्रक्ष्याल्यन्ते ततो वर्षामु तेषां मलक्लिन्नतया जीर्णताभवनेन शाटो भवति, न च वर्षास्वभिनववस्त्रग्रहणं, न चाधिकः परिग्रहः, ततो ये वस्त्राभावे दोषाः समये प्रसिद्धास्ते सर्वेऽपि यथायोगमुपढौकन्ते इति, तथा मलक्लिन्नेषु वखेषु शीतलजलकणसंस्पर्शतो मलस्याद्रीभावतः 'पनकः' वनस्पतिविशेषः प्राचुर्येणोपजायते, तथा च सति माणिव्यापादनासक्तिः, तथा निरन्तरं सर्वतः मसरेण निपतति वर्षे शीतले च मारते वाति मामलस्याद्रीभावतः शीतलीभूतानां वाससां प्रावरणे भुक्ताऽऽहारस्याजीर्णतायाम्-अपरिणती 'ग्लानता' शरीरमान्धमुज्जृम्भते, तथा च सति प्रवचनस्यापभाजना, यथा-अहो बठरशिरोमणयोऽमी तपखिनो न परमार्थतस्तत्त्ववेदिनो ये नाम वर्षांखप्रक्षालितानां वाससां परिभोगे| |मान्यमुपजायते इत्येतदपि नावबुध्यन्ते ते पृथग्जनापरिच्छेयं स्वर्गापवर्गमार्गमवगच्छन्तीति दुःश्रद्धेयं, तथा वर्षास्वमक्षालितानि वस्त्राणि दीप अनुक्रम [३१] ~ 26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३२] . "नियुक्ति: [२५] + भाष्यं [...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियुतेर्मलयगि- रीयातिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२५|| मादृत्य भिक्षार्थ विनिर्गतस्य साधोमेघदृष्टौ मलिनवख कम्बलसम्पावतोऽकायविराधना भवति, एते 'वर्षाखिति वर्षाकालपत्यासन्नोऽपि अप्कायपिकालो वर्षा इत्युच्यते, तत्सामीप्यात् , भवति च तत्सामीप्यात्तच्छन्दव्यपदेशो, यश गङ्गायां घोष इत्यत्र, ततो 'वर्षासु' वर्षाप्रत्यासने पिण्डानिक्षेपे काले वस्त्रादीनामप्रक्षालने दोषाः तस्मादवश्यं वर्षाकालादार वासांसि प्रक्षालनीयानि । ये च सम्पातिमसत्त्वोपघातादयो दोपाधीवर-18 प्रक्षालने मागुक्तास्तेऽपि सूत्रोक्तनीत्या यतनया प्रवर्त्तमानस्य न सम्भवन्तीति वेदितव्यम् । यो हि सूत्राज्ञामनुसृत्य यतनया सम्यक् | प्रवर्तते स यद्यपि कथश्चित्पाण्युपमईकारी तथापि नासौ पापभाग् भवति, नापि तीव्रपायश्चित्तभागी, सूत्रबहुमानतो यतनया प्रवर्त-18 मानत्वात् , वक्ष्यति च सूत्रम्-'अपने चिय वासे सम्बं उपदि धुवंति जयणाए' इति, ततो न कविदोषः, नापि तदा वखमक्षाकने बकुशं चरणं, सूत्राज्ञया प्रवर्गमानत्वात् , नाप्यस्थानस्थापनदोपो, लोकानामपि वर्षासु वाससामपाक्षलने दोषपरिशानभावात् , न चैतेऽनन्तरोक्ता अतिभारादयो दोषा ऋतुबद्धे काले वाससामप्रक्षालने सम्भवन्ति, तस्मान्न तदा प्रक्षालनं युक्तमिति स्थितम् ।। सम्पति वर्षाकालादा-1 गपि यावानुपधिरुत्कर्षतो जघन्यतश्च प्रक्षालनीयो भवति तावत्तमभिषित्सुराह अप्पत्तेच्चिय वासे सव्वं उवहिं धुवति जयणाए । अस इए उ दवस्स य जहन्नओ पाय निज्जोगो॥२६॥ 'अप्राप्ते एव ' अनायाते एव वर्षे' वर्षाकाले, वर्षाकालात् मनागक्तिने काले इस्पर्थः, जलादिसामठ्यां सत्यां 'उपधिम् 18 उपकरणं यतनया यतयः प्रक्षालयन्ति, 'द्रवस्य ' जलस्य पुनः 'असति' अभावे, जघन्यतोऽपि पात्रनियोगोऽवश्यं प्रक्षालनीयः, इह निस्पूर्वो युजिरुपकारे वर्तते, तथा चोक्तं-'पाठो दुखले निजोगो उबयारो' इति, ततो नियुज्यते-उपक्रियतेऽनेनेति नियोंग-उपकरणम् , १ अप्राप्तायामेव वर्षायां सर्वमुपधि प्रक्षालयन्ति यतनया । दीप अनुक्रम [३२] ॥१२॥ ~ 27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं । → नियुक्ति: [२६] + भाष्यं [७...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२६|| अकर्तरीत्यनेन बञ् प्रत्ययः, पात्रस्य नियोगः पात्रनिर्योगः-पात्रोपकरणं पात्रकबन्धादिः, उक्तं च-"पेत्तं पत्ताबंधो पायहवणं च पायके सरिया । पटलाई रयत्ताणं च गोच्छओ पायनिज्जोगो ॥” इति । आह-कि सब्येषामेव वस्त्राणि वर्षाकालादागेव पक्ष्याल्यन्ते ? कि वास्ति केपाश्चिद्विशेषः ?, अस्तीति ब्रूमः ।। केपामिति चेदत आह| आयरिय गिलाणाण य मइला मइला पुणोऽवि धावति । मा हु गुरूण अवण्णो लोगंमि अजीरणं इयरे ॥ २७॥ व्याख्या-इह ये कृतपूविणो भगवत्मणीतप्रवचनानुगताचारादिशास्त्रोपधानानि अधीतिनः स्वसमयशानेषु ज्ञातिनः सकलस्वपरसमयशाखार्थेषु कृतिनः कारितिनश्च पञ्चविषेष्वाचारेषु प्रवचनार्थव्याख्याधिकारिणः सद्धम्मदेशनाऽभियुक्ताः सूरयस्ते आचार्याः, आचार्यग्रहणमुपलक्षणं तेनोपाध्यायादीनां प्रभूणां परिग्रहः, तेषां, तथा 'ग्लानाः' मन्दाः तेषां च, पुनः पुनः मलिनानि वखाणि 'धाव्यन्ते प्रक्षाल्यन्ते, मलिनानीत्यत्र नपुंसकत्वे प्राप्तेऽपि सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतलक्षणवशात् , तथा चाह-पाणिनिः स्वमाकृतलक्षणे-"लिङ्ग व्यभिचार्यपी"ति, प्रस्तुतेऽर्थे कारणमाह-'मा हु' इत्यादि, मा भवतु, 'हु' निश्चितं, गुरूणां मलिनवलपरिधाने लोके ' अवर्णः' अ-14 श्लाघा, यथा-निराकृतयोऽमी मलदुरभिगन्धोपदिग्धदेहास्ततः किमेतेषामुपकण्ठं गतैरस्माभिरिति, तथा 'इतरस्मिन् ' ग्लाने मा भवत्वनीमिति भूयो भूयो मलिनानि तेषां प्रक्षाल्यन्ते । सम्पति ये उपधिविशेषा न विश्रभ्यन्ते तनामनाई गृहीत्वा तेषां धावने विधिमाह पायरस पडोयारो दुनिसिज्ज तिपट्ट पोत्ति रयहरणं । एए उन बीसामे जयणा संकामणा धुवर्ण ॥२८॥ १ पात्रं पात्रबन्धः पात्रस्थापनं च पात्रकेशरिका । पटला रजत्राणं च गोच्छकः पात्रनियोगः ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [३३] पिण्डनिक्षेपे वस्त्र-धावन विधि: ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३५] .. "नियुक्ति: [२८] + भाष्यं [७...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२८|| दीप अनुक्रम [३५] पिण्डनियु व्याख्या-प्रत्यवतायते पात्रमस्मिन्निति प्रत्यवतार:-उपकरणं पात्रस्य प्रत्यवतार:-पात्रवः पात्रनियोगः पदुिधः, तथा रजोहर- पिण्डनिक्षेपे मलयगि णस्य सक्ते दे निषये, तद्यथा-बाह्या अभ्यन्तरा च, इह सम्पति दशिकाभिः सह या दण्डिका क्रियते सा सूत्रनीत्या केवलैब भवति न वधावनं रीयावृत्तिः सदशिका, तस्या निषधात्रयं, तब या दण्डिकाया उपरि एकहस्तप्रमाणायामा तियग्वेष्टकायपृथुत्वा कम्पलीखण्डरूपा सा आद्या निषद्या, तस्याश्चाग्रे दशिकाः सम्बध्यन्ते, तां च सदशिकामने रजोहरणशब्देनाचार्यों ग्रहीष्यति, ततो नासाविह ग्राह्या, द्वितीया तु एनामेव निषद्यां तिर्यग् बहुभिःष्टकरावेष्टयन्ती किश्चिदधिकहस्तप्रमाणायामा हस्तप्रमाणमात्रपृथुत्वा वखमयी निषद्या सा अभ्यन्तरा निषयोच्यते, तृतीया तु तस्या एवाभ्यन्तरनिषद्यायास्तियन्वेष्टकान् कुर्वती चतुरङ्गलाधिकैकहस्तमाना चतुरस्रा कम्बलमयी भवति, सा चोपवेशनोपकारित्वादधुना पादपोच्छनकमिति रूढा, सा बाह्या निषयेत्यभिधीयते, मिलितं च निषयात्रयं दण्डिकासहितं रजोहरणमुच्यते, ततो रजोहरणस्य सक्ते द्वे निषये इति न विरुध्यते, तथा प्रयः पट्टाः, तद्यथा-संस्तारकपट्ट उत्तरपट्टश्वोलपट्टश्य, एते च सुमतीता, तथा 'पोत्ति'त्ति मुखपोतिका, मुखपिधानाय पोत-वस्त्रं मुखपोतं मुखपोतमेव इस्वं चतुरङ्गलाधिकक्तिस्तिमात्रप्रमाणत्वात् मुखपोतिका, मुखवत्रिकेत्यर्थः, 'अतिवर्त्तन्ते । 18|| स्वार्थे प्रत्ययकाः प्रकृतिलिङ्गवचनानी ति वचनान प्रथमतो नपुंसकत्वेऽपि प्रत्यये समानीते खीत्वं, तथा 'रजोहरणं ति दण्डिकायष्टकवय-18 प्रमाणपृथुत्वा एकहस्तायामा हस्तत्रिभागायामदशापरिकलिता प्रथमा या निषद्या प्रागुक्ता सा रजोहरणं, तथा च भाष्यकद्रक्ष्यति-'एगनिसज्जं च रयहरण, बाह्याभ्यन्तरनिषद्यारहितमेकनिषधं सदर्श रजोहरणमिति । एतानुपधिविशेषान 'न विश्रमयेत् । नापरिभोग्यान् स्थापयेत् , कस्मादिति चेत् ?, उच्यते, प्रतिवासरमवश्यमेतेषां विनियोगभावात् , ततो यतनया-वखान्तरितेन हस्तेन ग्रहणरूपया सक्रम णा-षट्पदिकानामप्रक्षालनीयेषु वस्त्रेषु सङ्क्रमणं, ततो धावनं' प्रक्षालनमिति ।। एनामेव गाथां भाष्यकूद गाथात्रयेण व्याख्यानयति 0000०००००००००००००००००० ~ 29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३५] » “नियुक्ति: [२८] + भाष्यं [८] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८|| पायरस पडोयारो पत्तगवज्जो य पायनिजागो । दोन्नि निसिज्जाओ पुण अभितर बाहिरा चेव ॥ ८॥ संथारुत्तरचोलग पट्टा तिन्नि उ हवंति नायब्वा । मुहपोत्तियत्ति पोची एगनिसेज्जं च रयहरणं ॥९॥ एए उ न वीसामे पइदिणमुवओगओ य जयणाए । संकामिऊण धोवंति छप्पइया तत्थ विहिणा उ ॥१०॥(भाष्यम्) व्याख्या-एतास्तिस्रोऽपि व्याख्यातार्थाः, नवरं 'संकामिऊण' इत्यादि, तत्र विश्रामाभावे सति यतनया पदपदिका अन्यत्र सक्रमय्य विधिना 'धावयंति' प्रक्षालयन्ति ॥ तदेवमविश्रमणीय उपधिरुक्तः, तद्भणनाच शेषो विश्रमणीयोपधिर्गम्यते, ततस्तस्य विश्रमणविधि विभणिषुरिदमाह जो पुण वीसामिज्जइ तं एवं बीयरायआणाए । पत्ते धोवणकाले उवहिं वीसामए साहू ॥ २९ ॥ व्याख्या-यः पुनरूपधिः प्राप्त धावनकाले-प्रक्षालनकाले, अनेन अकालमसालने भगवदाज्ञाभङ्गालक्षणं दोषमुपदर्शयति, 'विश्रम्यते' निःशेषषट्पदिकाविशोधनार्थमपरिभुक्तो ध्रियते, तमुपधि वीतरागाऽऽज्ञया' सर्वज्ञोपदेशेन, सर्वशोक्तमवधार्येति भावः, 'एवं' वक्ष्यमाणेन प्रकारेण, साधुर्विश्रमयेत् ॥ विश्रमणाप्रकारमेवाह अभितरपरिभोगं उरि पाउणइ नाइदूरे य। तिन्नि य तिन्नि य एगं निसिं तु काउं परिच्छिज्जा ॥ ३० ॥ व्याख्या-यह साधूनां द्वौ कल्पौ सौमौ एकः कम्बलपयः, तत्र यदा ते प्राब्रियन्ते तदा एकः क्षोमोऽभ्यन्तरं प्रावियते, शरीर-| दीप अनुक्रम [३६] ~ 30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४०] » “नियुक्ति: [३०] + भाष्यं [१०] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३०|| पिण्डनियु- कर्मलयगि- रीयातिः ॥१४॥ विधिः लमः मावियते इत्यर्थः, द्वितीयः क्षोमस्तस्योपरि, तृतीयः कम्बलमयस्तस्याप्युपरि, ततः प्रक्षालनकाले विश्रमणाविधिमारम्भे रात्रौ स्वपन | पिण्डनिक्षेपे अभ्यन्तरपरिभोग सदैव शरीरेण सह संलग्नं परिभुज्यमानं क्षौम कल्पमुपरि शेषकल्पद्वयादहिखीणि दिनानि यावत्पाहणोति येन तत्स्थाः वधावनषट्पदिकाः क्षुधा पीब्यमाना आहारार्थम् अथवा शीतादिना पीब्यमानास्तं बहिः प्राब्रियमाणं कल्पमपहायान्तरे कल्पवये शरीरे वा लगन्ति, एष प्रथमो विश्रमणाविधिः, एवं त्रीणि दिनानि प्रात्य ततस्त्रीण्येव दिनानि यावदात्री स्वापकाले नातिदुरे स्थापयति, किमुक्त एष जयमा विध भवति ?-स्वापकाले संस्तारकतट एवं स्थापयति, येन प्रथम विश्रमणविधिना या न निःमृताः पटपदिकास्ता अपि क्षुधा पीढच-14 माना आहारार्थ ततो विनिर्गत्य संस्तारकादौ लगन्ति, एप द्वितीयो विश्रमणाविधिः, तत एका 'निशां' रात्रिं, तुः समुच्चये, स्वपन | स्वापस्थानस्योपरि लम्बमानमधोमुखं शरीरलनभायपर्यन्तं प्रसारितं कृत्वा संस्थापयेत्, संस्थाप्य च पश्चात्परीक्षेत, दृष्ट्या प्रावरणेन च षट्पदिका निभालयेत्, तद्यथा-प्रथमं तावदृष्टया निभालयेत् , दृड्या निभालिता अपि यदि न दृष्टास्ततः सूक्ष्मपदपदिकारक्षणार्थ भूयः शरीरे प्राकृणोति, येन ता आहारार्थ शरीरे लगन्ति, एवं परीक्षणे कृते यदि ता न स्युस्तदा प्रक्षालयेत् , अथ स्युस्तीह पुनः पुनर्निोल्य यदा न सन्तीति निश्चितं भवति तदा प्रक्षालयेत्, एवं सप्तभिर्दिनः कल्पशोधना, एतदनुसारेण शेषस्याप्युपधेः शोधना भावनीया । इह विश्रमणा प्रक्षालनीयस्यापरिभोगरूपा उक्ता, ततो यत्तस्य वहिः प्रावरणादिरूपः परिभोगः स परमार्थतोऽपरिभोग इति न तदा विश्रमणा विरुध्यते । एनामेव गायां भाष्यकृद् व्याख्यानयतिधोवत्थं तिन्नि दिणे उवरि पाउणइ तह य आसन्नं । धारेइ तिन्नि दियहे एगदिणं उबरि लंबतं ॥११॥ (भा०) इयं व्याख्यातार्था । अत्रैव विश्रमणाविधौ मतान्तरमाह दीप अनुक्रम [४०] ~31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४१] » “नियुक्ति: [३१] + भाष्यं [११] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१|| केई एकेकनिास संवासेउं तिहा परिच्छंति । पाउणइ जइ न लग्गंति छप्पइया ताहि धोवति ॥ ३१॥ व्याख्या केचिद् एके सूरय एवमाहुरेकैका 'निना' रात्रि 'त्रिया' त्रिभिः प्रकारैः पूर्वोक्तः संवास्य तद्यथा-एकां निशां शोधनीय कल्प यहिः पाहणोति, द्वितीयां निशं संस्तारकतटे स्थापयति, तृतीयां तु निशां स्वपन स्वापस्थानस्योपरि लम्बमानमधोमुखं प्रसा-15 रितं शरीरलनमायपर्यन्तं स्थापयति, एवं त्रिधा संवास्य 'परीक्षन्ते ' दृष्ट्या निभालयन्ति, निभालितान्न दृष्टास्ततः सूक्ष्मपदपदिकाविशोधनार्थ शरीरे प्राकृण्वन्ति, पाटने च यदि 'न लगति' न लगाः प्रतिभासन्ते पदपदिकास्ततः प्रक्षालयन्ति, लगन्ति चेचहि भूयो भूयस्तावदृष्टया शरीरप्रावरणेन च परीक्षन्ते यावन्न सन्तीति निश्चितं भवति, ततः प्रक्षालयन्तीति, एषोऽपि विधिरदूषणात्समीचीन इवाऽऽचार्यस्य । प्रतिभासत इति मन्यामहे ॥ वखप्रक्षालनं च जलेन भवति, अतो जलग्रहणे विधिविशेषमाहनिब्बोदगस्स गहणं केई भाणेसु असुइ पडिसेहो । गिहिभायणेसु गहणं ठिय वासे मीसगं छारो ॥ ३२ ॥ व्याख्या-वर्षामु गृहच्छादनमान्तगलितं जलं नीबोदकं तस्य, इद्द यदि वर्षाकालादाक् सोऽप्युपधिः कथञ्चित्सामग्र्यभावतो न प्रक्षालितस्तहि प्राप्ते वर्षे सति साधुभिनीबोदकस्य-गृहपटलान्तोत्तीर्णस्य जलस्य वस्खपक्षालनार्थ ग्रहणम्' आदानं कर्तव्यं, तद्धि रजोगुण्डितधूमधूम्रीकृतदिनकरातपसम्पर्कमोष्मतीव्रसंस्पर्शतः परिणतत्वादचित्तम् , अतस्तद्हणे न काचिद्विराधना, नीबोदकस्य ग्रहणे केचिदामाहु-भाजनेषु' स्वपात्रेषु नीबोदकस्य ग्रहणं कर्त्तव्यमिति, अनाऽचार्य आह–'अमुइ पडिसेहो' 'अमुई ति भावप्रधानोऽयं निर्देशः,ततो-11 यमर्थ:-अशुचित्वाद्' अपवित्रत्वात्परोक्तविधिना नीबोदकग्रहणस्य प्रतिषेधः, नीबोदकं हि मलिनं मलिनत्वाचाशुचि ततः कथं येषु पात्रेषु |भोजन विधीयते तेषु तस्य ग्रहण पपत्रं भवति ?, मा भूत लोके प्रवचनगहों यथाऽमी अशुचय इति, ततः 'गृहिभाजनेषु' गृहिसत्केषु कु दीप अनुक्रम [४२]] ~ 32 ~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३२|| दीप अनुक्रम [४३] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) ● → "निर्युक्तिः [३२] + भाष्यं [११... ] + प्रक्षेपं " F आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्यण्डिकादिषु भद्रेषु तस्य नीत्रोदकस्य ग्रहणं, तब नीवोदकग्रहणं 'स्थिते' निहते 'वर्षे ' दृष्टौ, अन्तर्मुहर्त्तादूर्द्धमिति गम्यते, अन्तर्मुहर्त्तन मलयगि- सर्वात्मना परिणमनसम्भवात् नास्थिते, किमित्याह — 'मीसगं'ति मिश्र, निपतति वर्षे नीवोदकं मिश्र भवति तथाहि पूर्व निपतितरीयावृत्तिः मचितीभूतं तत्कालं तु निपतत्सचित्तमिति मिश्र, ततः स्थिने वर्षे तत्प्रतिग्राद्यं तस्मिथ प्रतिगृहीते तन्मध्ये 'छारो 'ति क्षारः प्रक्षेपणीयो येन भूयः सचितं न भवति, जलं हि केवलं मासुकीभूतमपि भूयः प्रहरत्रयादूर्ध्वं सचितीभवति, ततस्तन्मध्ये क्षारः क्षिप्यते, अपि चक्षारप्रक्षेपे समलमपि जलं प्रसन्नतामाभजति, प्रसवेन च जलेन प्रक्षाल्यमानान्याचार्यादिवासांसि सुतेजांसि जायन्ते तत एतदर्थमपि क्षारप्रक्षेपो न्याय्यः ॥ सम्प्रति धावनगतमेव क्रमविशेषमाह ।। १५ ।। गुरुपच्चखाणिगिलाणसे हमाईण घोत्रणं पुव्वं । तो अप्पणो पुव्यमहाकडे य इयरे दुबे पच्छा ॥ ३३ ॥ व्याख्या - गुरुप्रत्याख्यानिग्लानशैज्ञादीनां 'पूर्वी' प्रथमं घावनं कुर्यात् ' ततः ' पश्चादात्मनः इयमंत्र भावना - इह साधुभिः परम हितमात्मनः समीक्षमाणैरवश्यं गुर्वादिषु विनयः प्रयोक्तव्यः, विनयवलादेव सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रवृद्धिसम्भवाद्, अन्यथा दुर्विनीतस्य सतो गच्छवासस्यैवा सम्भवतः सकलमूलहानिप्रसक्तेः, ततो धावनमवृत्तेन साधुना प्रथमतो गुरूणाम् आचार्याणां वासांसि प्रक्षालनीयानि, ततः प्रत्याख्यानिनां क्षपकमभृतीनां तदनन्तरं ग्हानानां ततोऽनन्तरं शैक्षकादीनां तत्र शैक्षा अभिनवप्रवजिता आदिशब्दाद्वालादिपरिग्रहः, सूत्रे च 'सेहमाईण' इत्यत्र मकारोऽलाक्षणिकः, 'ततः ' तदनन्तरमात्मनः इह सर्वेषामपि गुर्वादीनां यथायोगं त्रिविधान्यपि प्रक्षालनीयवखाणि सम्भवन्ति, तद्यथा यथाकृतान्यल्पपरिकर्माणि बहुपरिकर्माणि च तत्र यानि परिकर्म्मरहितान्येव तथारूपाणि लधानि तानि यथाकृतानि यानि चैकं वारं खण्डित्या सीवितानि ताम्पत्यपरिकर्माणि यानि च बहवा खण्डिलासीवितानि तानि बहुपरि Eaton Intentional For Parts Use Only ~33~ पिण्ड निक्षेपे वधावने जलग्रहः ।। १५ ।। arra Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४४] » “नियुक्ति: [३३] + भाष्यं [११...] + प्रक्षेपं . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३३|| कर्माणि, ततस्तत्रापि धावनक्रममाह-'पुग्वमहागडे यत्ति, पूर्व प्रथमं सर्वेषामपि यथाकृतानि वासांसि धारयेत्, पश्चास्त्रमेण इतरे दे, किमर्थमिति चेत् ? उच्यते-विशुद्धाध्यवसायस्फातिनिमित्तं, तथाहि-यान्यल्पपरिकम्माणि तानि बहुकम्मापेक्षया स्तोकसंयमव्याघातकारीणि भवन्तीति तदपेक्षया शुद्धानि, वेभ्योऽपि यथाकृतान्यतिशुद्धानि, मनागपि पलिपन्धदोपकारित्वाभावाव, ततो यथा यथा पूर्व पर्व शुद्धानि प्रक्षाल्यन्ते तथा तथा संपमबहुमानढद्धिभावतो विशुद्धाध्यवसायस्फातिरिति पूर्व यथाकृतानीत्यादिक्रमः।। सम्मति प्रक्षालनक्रियाविधिमुपदर्शयति ___ अच्छोडपिट्टणासु य न धुवे धोए पयावणं न करे । परिभोग अपरिभोगे छायायव पेह कल्लाणं ॥ ३४॥ __ व्याख्या-इह वस्त्राणि धावन् आच्छोटनपिट्टनाभ्यां न धावेत् , तत्र आच्छोटनं-रजकरिव शिलायामास्फालनं पिट्टन-धनहीनरण्डारमणीभिरिव पुनः पुनः पानीयप्रक्षेपपुरस्सरमुयात्विट्टनेन कुट्टनं, सूत्रे च सप्तमी तृतीयाऽर्थे, यथा 'तिम तेमु अलहिन्या पुहवी' इत्यादी, तृशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः, स च पाणिपादन प्रमृज्य प्रमुज्य यतनपा प्रक्षालयेदिति समुचिनोति, ततो 'धौते ' प्रक्षालिते, धावनजलस्पर्शजनितशीतापनोदायात्मनो वखस्य वा शोषणायाग्नेः प्रतापनं न कुर्यात्, मा भूत धावनजलाद्रीभूतहस्तादितो वखतो या कथश्चिद्विन्दुनिपातेनाग्निकायविराधना, यद्येवं तर्हि कथं वस्त्रस्य शोषणं कर्तव्यमिति शोषणविधिमाइ-परिभोग्यानि आरिभोग्यानि च यथाक्रमं छायाऽऽतपपोशोपयेत् , सूत्रे च विभक्तिलोप आपत्वात , परिभोम्येषु दि वाघु तथा पूर्व शोधितेष्वपि कथश्चित् पट्पदिकाः सम्भवन्ति, सा च प्रक्षालनकाले तथोपमर्दिताऽपि कथञ्चिजीविता सती दिनकराऽऽतपसम्पर्क म्रियन्ते, ततस्तद्रक्षणार्थ तानि छायायां शोषयेत् , १ त्रिभिस्तैरलयकृता पृथ्वी। दीप अनुक्रम [४४] 10666044200000०००००००००००० ~34 ~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३४|| दीप अनुक्रम [४५] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [४५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्युतेर्मलयगिरीयावृत्तिः ॥ १६ ॥ ● → "निर्युक्तिः [३४] + भाष्यं [११... ] + प्रक्षेपं " ८० आगमसूत्र - [ ४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः इतराणि त्वातपे, दोषाभावात्, तानि च छायायामावपे च शेोषार्थी विसारितानि निरन्तरं 'पेहि'त्ति प्रेक्षेत, येन परास्कन्दिनो नापहरन्ति इह पूर्वोक्तविधिना यतनापुरस्सरमपि धान्यमानेषु वस्त्रेषु कथञ्चिद्रायुविराधनारूपः षट्पदकोपमर्दादिरूपो वाऽयमोऽनि सम्भा व्यते, ततस्तच्छुद्धधर्थं तस्य साधेोर्गुरुणा कल्याणसंज्ञं प्रायश्चित्तं देयम् ॥ तदेवमुक्तः समपञ्चमप्कायपिण्डः, सम्मति तेजस्कायापेण्डमाहतिविहो उक्काओ सच्चित्तो भीसओ य अचित्तो। सच्चितो पुण दुविहो निच्छयववहारओ चेव ॥ ३५ ॥ व्याख्या – त्रिविधस्तेजस्कायः, तद्यथा- सचित्तो मित्रोऽचित्तथ, सचित्तः पुनद्विविधः निश्वयतो व्यहारत ।। निश्रयव्यवहा राभ्यामेव सचित्तस्य द्वैविध्यमाह इगपागाईणं बहुमज्झे विज्जुमाइ निच्छ्यओ । इंगालाई इयरोति व्याख्या - इष्टकापाकः प्रतीतः, आदिशब्दात् कुम्भकारपाकेक्षुरसकथनतुल्या(चुल्या) दिपरिद्रहः, तेषां च बहुमध्यभोग विदादिश्व, विद्युदुकाप्रमुखतेजस्कायो निश्रयतः सचित्तः, शेषस्त्वङ्गारादिकः, 'अङ्गारः 'ज्याकारहितोऽग्निः, आदिशब्दाद् ज्वालादिपरिग्रहः, व्यवहारतः सचित्तः ॥ सम्मति मिश्रं तेजस्काय माह मुम्मुरमाईड मिस्सो उ ॥ ३६ ॥ व्याख्या – ' मुर्मृरः' कारीषोऽग्निः, आदिशब्दादर्द्धविध्यातादिपरिग्रहः इत्थंभूतो मिश्र इति ॥ साम्प्रतमचित्तं तेजस्कायपिण्डमाह For Par Lise Only अथ तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय पिण्ड विषयक वर्णनं क्रियते ~35~ पिण्ड निक्षेपे तेजस्कायः ।। १६ ।। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४८] .→ “नियुक्ति: [३५] + भाष्यं [११...] + प्रक्षेपं . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३७|| ओयणवंजणपाणगआयामुसिणोदगं च कुम्मासा । डगलगसरक्खसूई पिप्पलमाई उ उवओगो ॥ ३७ ॥ व्याख्या-ओदना शाल्पादि भक्तं व्यञ्जन-पत्रशाकतीमनादि पानकं-काजिक, तत्र वश्रावण प्रक्षिप्यते, ततस्तदपेक्षया काजिकस्याग्निकायता आयामम्-अवश्रावणम् उष्णोदकम्-उवृत्तत्रिदण्डम्, एतेषां च पदानां समाहारद्वन्दा, चकारो मण्डकादिसमुच्चयार्थः, 'कुहाल्मापाः' पक्वा मापाः, एते चौदनादयोऽग्निनिष्पन्नत्वेनानिकार्यत्वादग्नयो व्यपदिश्यन्ते, भवति च तत्कार्यत्वात्तच्छन्देन व्यपदेशो यथा ॥ दम्मो भतितोऽनेनेत्यादी, ओदनादयश्चाचित्तास्तत एतेषामचित्ताग्निकायत्वेनाभिधानं न विरुध्यते, तथा 'डगलकाः' पकेटकानां खण्डानि 'सरजस्कः' भस्म 'सूची' लोहमयी वस्त्रसीवनिका, अथवा सरक्खसूइत्ति रक्षा-भस्म सह रक्षया वर्तते इति सरक्षा सूची, किमुक्तं । भवति?-रक्षा सूची चेति, 'पिप्पलकः किश्चिदकः क्षुरविशेषा, आदिशब्दानखरदनिकादिपरिग्रहः, एतानि च गलकादीनि पूर्वमग्नि रूपतया परिणतान्यासीरन्, ततो भूतपूर्वगत्या सम्मस्पप्यामिकायत्वेन ध्यपदिश्यन्तेऽचित्तानि च, न चैतेपामचिचामिकायत्वाभिधाने विबरोधः ॥ सम्मत्यचिनामिकायस्य प्रयोजनमाह--'उबओगो' एतेषामोदनादीनां य उपयोगो-भोजनादावुपयुज्यमानता तदचिचानि कायेन साधनां प्रयोजन, द्रव्यादिभेदाच चतुर्विधत्वमचिचाग्निकायस्थ प्रागिव यथायोगं भावनीयम् ।। उक्तस्तेजस्कायपिण्डः, सम्मति | वायुकायपिण्डमाह बाउक्काओ तिविहो सच्चित्तो मीसओ य अच्चित्तो। सच्चित्तो पण दुविहो निच्छयववहारओ चेव ॥ ३८ ॥ व्याख्या-वायुकायखिविधः, तयथा-सचित्तो मिश्रोऽचित्तश्च, सचित्तः पुनधिा-निश्चयतो व्यवहारतश्च ।। एतदेव निश्चयव्यवहाराभ्यां सचित्तस्य वैविध्यमचित्तं चाह दीप अनुक्रम [४८] esccessencoarn ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५०] .→ “नियुक्ति: [३९] + भाष्यं [११...] + प्रक्षेपं . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३९|| सवलय घणतणुवाया अइहिम अइदुहिणे य निच्छयओ। वबहार पाइणाई अताई य अचित्तो ॥३९॥ पिण्डनिक्षेपे केमेलयगि-1 वातकायः रीयावृत्तिः व्याख्या-सह वलयैर्वर्तन्ते इति सवलया ये 'पणतणुवाय 'त्ति वातशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, घनवातास्तनुवाताच, किमुक्तं || भवति ?-ये नरकपृथिवीनां पार्थेषु घनवातास्तनुवाता वा वलयाकारेण व्यवस्थिता वलपशब्दयापा, ये च नरकधियीनामेवाधस्ताद् || ॥१७॥ धनवातास्तनुवाताच, तथा ' अइहिम अइदुदिणे अति अतिशयेन हिमे निपतति अतिशयेन च 'दुर्दिने मेघतिमिरे मेधैर्गगनमण्डलस्याऽsच्छादने ये वायवः, एष सर्वोऽपि वायुकायो निश्चयतः सचित्तः, अतिहिमातिदुर्दिनाभावे तु या 'प्राचीनादिवातः ' पूर्वादिदिग्वातः स. व्यवहारतः सचित्ता, यस्तु 'आक्रान्तदिकः' आक्रान्तपनादिसमुत्थमभृतिकः पञ्चप्रकारो वक्ष्यमाणस्वरुपः सोऽचित इति ।। आक्रान्तादिस्वरुपमेवाह अकंतर्धतघाणे देहाणुगए य पीलियाइसु य । अच्चित्त वाउकाओ भणिओ कम्मट्टमहणेहिं ॥ ४० ॥ व्याख्या-आक्रान्ते-पादेनाकान्ते कर्दमादी यो बातश्चिदिति शब्दं कुर्वन् समुच्छलति, यश्चाध्माते मुखबातभृते इत्यादौ वर्तते यो वा 'घाणे' तिलपीडनयन्त्रे तिलपीडनवशात्सशब्दं विनिर्गच्छन्नुपलभ्यते, यश्च 'देहानुगतः' शरीराश्रितः, उच्छासनिःश्वासबातनि-|| सगरूपः,' पीलितं' सजलं निश्चोत्यमानं वस्त्रादि, आदिशब्दात्तालसन्तादिपरिग्रहः, तेषु च यः सम्भवति वातः एष पञ्चपकारोऽपि वातः कर्माष्टकमधनैरचित्ता प्रतिपादितः ।। सम्पति मिश्रं वायुकार्य प्रतिपिपादयिषुटत्यादिस्थस्याचित्तवातकायस्प जले स्थितस्य क्षेत्रमाश्रित्य स्थलस्थितस्य (च) कालमाश्रित्याचित्तादिविभागमाह दीप अनुक्रम [५०] ~37~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१२] .→ “नियुक्ति: [४१] + भाष्यं [११...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४१|| दीप अनुक्रम हत्थसयमेग गंता दइओ अञ्चित्तु बीयए मीसो। तइयंमि उ सच्चित्तो वत्थी पुण पोरिसिदिणेस ॥४१॥ व्याख्या-इदोर्जुमपाटितेनापनीतमस्तकेन निकर्षितचन्तिर्वतिसर्वास्थ्यादिकचवरेणापरचर्ममयस्थिग्गलकस्थगितापानच्छिद्रेण सङ्कीर्णमुखीकृतग्रीवान्तर्विवरेणाजापश्वोरन्यतरस्य शरीरेण निष्पन्नश्चममयः प्रसेवक: कोत्पलकापरपयोयो इतिः, स चाचित्तमुखवातभृतः। सन् दवरकेण गाढवद्धमुखो नयादिजले प्लाव्यमानः क्षेत्रतो हस्तशतमेकं यावदन्ता तावत्सः 'तिः' इतिस्थो वातकायोऽचित्तः, प्रथमे| च हस्तशतेऽतिक्रान्ते सति द्वितीये प्रविशन् मिश्रो भवति, स च मिश्रस्तावद्भवति यावद् द्वितीयहस्तशतपर्यन्तः, ततो द्वितीये हस्तशतेऽतिकान्ते तृतीये प्रविशन् सचिचो भवति, तत ऊर्दै सचित्त एक, अथवैकस्मिन्नेव हस्तशते गमनेन आगमनेन पुनर्गमनेन च क्रमेणाचित्तत्वादिकमवगन्तव्यं, यदिवा-हस्तशतगमनकालं परिभाम्पैकस्मिन्नपि स्थाने जलमध्यस्थितस्योक्तक्रमेणाचित्तत्वादिकं परिभावनीयं, इतिग्रहणं चो-18 पलक्षणं तेन वस्तावप्येवं द्रष्टव्यं, बस्तिश्च इतिवत्स्वरूपतो भावनीयः, नवरमपरचर्ममयस्थिम्गलकस्थगितग्रीवान्तर्विवरोऽतिविटतमुखीकृतपाश्चात्यप्रदेशः स विशेषः, तथा 'वत्थी पुण पोरसिदिणेमुनि स्थले स्निग्धं रुक्षं च कालमाश्रित्य ' वस्तिः । बस्तिस्थो वातः, उपलक्षशणमेतत् , तेन दृतिस्थोऽपि वातः स्थलस्थः स्निग्धं रूक्षं च कालमधिकृत्य यथाक्रमं पौरुषीषु दिनेषु चाचित्तादिरुपो वेदितव्यः ॥ एनमेव गाथाञ्चयवं भाष्यकृद् गाथाचतृष्टयेन व्याख्यानयति निडेयरो य कालो एगंतसिणिहमज्झिमजहन्नो । लुक्खोधि होइ तिविहो जहन्न मझो य उफोसो ॥१२॥ एगंतसिणिहमी पोरिसिमेग अचेअणो होइ । बिइयाए संमीसो तइयाइ सचेयणो वत्थी ॥ १३ ॥ [१२] ~ 38~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१५] . “नियुक्ति: [४१] + भाष्यं [१४] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियुकेमेलयगिरीपादृचिः कककक०० प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१४|| ॥१८॥ मज्झिमनिद्धे दो पोरिसीउ अञ्चित्तु मीसओ तइए। चउत्थीए सचित्तो पवणो दइयाइ मज्झगओ ॥१४॥ पिण्डनिक्षेपे वातकायः पोरिसितिगमच्चित्तो निहजहन्नंमि मीसग चउत्थी। सच्चित्त पंचमीए एवं लुक्खेऽवि दिण वुड़ी ॥१५॥ (भा.) व्याख्या-इह काला सामान्यतो द्विविधः, तद्यथा-निग्धो रूक्षश्च, तब यः सजलः सीतश्च स स्निग्धा, उष्णो रूक्षः, स्निग्धोपि विधा, तयथा-एकान्तस्निग्धो मध्यमो जघन्यश्च, तत्र एकान्तस्निग्धः अतिस्निग्धः, रूक्षोऽपि विधा, तबधा-अपन्यो मध्यम उत्कृष्टः उत्कृष्टो नाम अतिशयेन रूक्षः, तत्रैकान्तस्निग्धकाले बस्तिगतो वायुकायः उपलक्षणमेतत् तेन दृतिस्थोऽपि एका पौरुषी यावदचेतनो भवति, द्वितीयस्यास्तु पौरुष्याः पारम्भेऽपि मिश्रः, स च तावद्यावत्परिपूर्णा द्वितीया पौरुनी, तृतीयस्यां तु पौरुण्यामादित एवं सचित्तः, तत ऊर्दू सचित्त एव, मध्यमे तु स्निग्धकाले वे पौरुष्यौ यावदचित्तस्तृतीयस्यां तु पौरुष्या मिश्रा,चतुर्यो सचेतनः, जघन्ये च स्निग्धकाले हत्यादिमध्यगतो यायुः पौरुषीत्रिकं यावदचित्तः, चतुर्थपौरुष्पा मिश्रा, पञ्चम्यां तु सचेतनः, एवं रूक्षेऽपि द्रष्टव्यं, केवलं तत्र दिनदिः कर्तव्या, सा चैवं--जघन्यरूक्षकाले वस्त्यादिगतः पवनो दिनमेकमचित्तो द्वितीये दिने मिश्रस्तृतीये सचित्तः, मध्यमरूक्षकाले| दिनद्वपमचित्तस्तृतीयदिने मिश्रश्वतुर्थदिने सचेतना, उत्कृष्टरक्षकाले दिनत्रयमचित्तचतुर्थदिने मिश्रः पञ्चमदिने सचित्तः । सम्पत्यचित्तवायुकायप्रयोजनमाह दइएण वस्थिणा वा पओयणं होज्ज वाउणा मुणिणो। गेलन्नंमि व होज्जा सचित्तमीसे परिहरेज्जा ॥४२॥ व्याख्या-तिना' दृतिस्थेन 'वस्तिना' बस्तिस्थेन वेति समुच्चये नयाधुत्तारे प्रयोजनं भवेद्वायुना मुनेः, अनेन जलस्थो वायु दीप अनुक्रम [५५] ॥१८॥ ~ 39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७] » “नियुक्ति: [४२] + भाष्यं [१५] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४२|| ह्यते, अथवा 'ग्लानत्वे' मन्दत्वे सति वायुना प्रयोजनं भवति, क्वापि हि रोगे इत्यादिना संगृह्य चातोऽपानादौ पक्षिप्यते, अनेन स्थल-11 |स्थो गृहीतः, सचित्तमिश्री तु यत्नतः परिहरेत् , जलमध्ये त्वशक्ये परिहारे प्रायश्चित्तं पश्चादभिगृह्णीयात् । तदेवमुक्तो वायुकायापिण्डः-18 सम्पति वनस्पतिकायपिण्डमाहII वणस्सइकाओ तिविहो सच्चित्तो मीसओ य अच्चित्तो । सच्चित्तो पुण दुविहो निन्छयववहारओ चेव ॥४३॥ व्याख्या-वनस्पतिकायस्त्रिविधः, तयथा-सचित्तो मिश्रोऽचित्तश्च, सचित्तः पुनर्द्विधा, तद्यथा-निश्यतो व्यवहारतश्च ॥ इदमैव । निश्चयव्यवहाराभ्यां सचिवस्य द्वैविध्यं मिथं च प्रतिपादयतिसव्वोऽवऽणंतकाओ सच्चित्तो होइ निच्छयनयस्स । ववहारस्स य सेसो मीसो पव्वायरोट्टाई ॥ १४ ॥ व्याख्या-निचयनयस्य मतेन सर्वोऽपि 'अनन्तकायः वनस्पतिकायः सचित्तो भवति, शेषः पुनः 'प्रत्येकः' निम्बाम्रादिकः । काव्यवहारस्प' व्यवहारनयस्य मतेन सचिचः, मिश्रो म्लानलोट्टादिः, तत्र प्रम्लानः सर्वोऽपि वनस्पतिकायोऽर्द्धशुष्को ज्ञेयः, तत्र हि-योऽश: शुष्कः सोऽचित्तः शेषस्तु सचित्त इति मिश्रा, 'लोहः' घरट्टादिचूर्णः, तत्र काश्चिन्नखिकाः सम्भवन्ति ताश्च सचित्ताः शेषस्त्वचित्त इति| मिश्रा, आदिशब्दात्तत्कालदलितकणिकादिपरिग्रहः, तत्रापि कियन्तोऽवयवा अद्याप्यपरिणता इति सचित्ताः कियन्तस्त्वचिचा इति मिश्रता : साम्पतमचित्तं वनस्पतिकायमाह पुष्फाणं पत्ताणं सरडुफलाणं तहेव हरियाणं । बंटमि मिलाणंमी नायव्वं जीवविप्पजदं ॥ ४५ ॥ दीप अनुक्रम [१७] ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४५ || दीप अनुक्रम [६०] मूलं [६०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित • पिण्डनिर्यु - कैर्मलयगिरीयावृत्तिः ।। १९ ।। “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [४५] + भाष्यं [१५] + प्रक्षेपं " F आगमसूत्र - [४१/२ ] मूलसूत्र [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या -- पुष्पाणां पत्राणां 'शलादुफलानां' कोमलफलानां तथा 'हरितानां' वीहिकादीनां 'ते' प्रबन्धने ' म्लाने' शुष्कपाये ज्ञातव्यं स्वरूपं जीवविप्रमुक्तम् || सम्प्रत्यचित्तवनस्पतिकायस्य प्रयोजनमाह — संथारपायदंडगखोमिय कप्पा य पीढफलगाई। ओसह सज्जाणि य एमाइ पओयणं बहुहा ॥ ४६ ॥ व्याख्या - येऽमी 'संस्तारकादयः शय्यापट्टादयः यतिभिरभिसन्ते, यानि च पात्राणि ये च 'दण्डकाः' दण्डविदण्डादयः, यौ च क्षौमौ कल्पौ यच पीठफलकादिकम्, अत्रादिशब्दात्कपलिकादिपरिग्रहः, यानि औषधानि भेषजानि चेत्येवमादिकं 'बहुधा' बहुप्रकारं प्रयोजनमचित्तवनस्पतिकायस्थ, इह 'औषधानि ' केवलहरीतक्यादीनि 'भेषजानि' तु तेषामेत्र ट्र्यादीनामेकत्र मीलित्वा चूर्णानि, यद्वा ऽन्तरुपयोगीन्यौषधानि वहिरुपयोगीनि प्रलेपादीनि भेषजानि ॥ उक्तो वनस्पतिकायपिण्डः, सम्मति दीन्द्रियादिपिण्डचतुष्टयं प्रतिपि पादयिषुस्तत्प्रयोजनं चोपचिक्षिप्युरिदमाह Education Internation चियतियचउरो पंचिदिया य तिप्पभिइ जत्थ उ सर्मेति । सहाणे सहाणे सो पिंडो तेण कज्जमिणं ॥ ४७ ॥ व्याख्या – यत्र मेलके स्वस्थाने स्वस्थाने स्वेषाम् आत्मीयानां स्थानम् - अवस्थानं यत्र तत्र, सजातीयवर्गरूपे इत्यर्थः, द्वित्रिचतु पञ्चेन्द्रियास्त्रिप्रभृतयः संयन्ति एकत्र संश्लिष्टा भवन्ति, तद्यथा-त्रयः त्रयः चत्वारः चत्वार इत्यादि, त्रिप्रभृतिग्रहणं चोपलक्षणं, तेन द्वौ द्वावपि यत्र संश्लिष्यतः स पिण्डः, स्वस्थाने स्वस्थाने इति भूयोऽपि सम्बध्यते, ततोऽयमर्थः तेषां द्वीन्द्रियादीनां स्वजातौ स्वजातौ स पिण्डो वेदि १ दंडो बाहुपमाणी विडओ कक्खमितो उ ( दण्डो बाहुप्रमाणो विण्डकः कक्षामात्रस्तु ) For Pal Use Only ~ 41~ पिण्डनिक्षेप वनस्पति पिण्डः ।। १९ ।। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६२] » “नियुक्ति: [४७] + भाष्यं [१५] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४७|| वव्यः, सोऽपि च विधा, तद्यथा-सचित्तो मिश्रोऽपित्तश्च, तब सचित्ततिप्रभृतीनां अक्षादीनां जीवतामेकत्र संश्लेषण मिलन, मिश्रस्तेषामेव पाश्चिज्जीवतां केषाञ्चिन्मृतानामेकन संश्लेषः, अचिनो जीवविषमुक्तानां तेषामेवाक्षादीनामेकत्र मिलन, तेन च पिण्डेन अत्र जातावेकवचनं त' द्वीन्द्रियादिपिण्दै: 'कार्य' प्रयोजनम् 'इदं ' वक्ष्यमाणम् ।। तत्र द्वित्रिचतुष्पिण्डप्रयोजनं सार्द्धगाथयाऽभिधित्सुराह| बेइंदियपरिभोगो अक्खाण ससिप्पसंखमाईणं । तेइंदियाण उद्देहिगादि जंवा वए वेज्जो ॥४८॥ चरिदियाण मच्छियपरिहारो आसमच्छिया चेव ॥ व्याख्या--इह साघोदींन्द्रियादीनां यथासम्भव प्रयोजनं द्विधा, तयथा-शब्देन शरीरेण च, तत्र शब्देन प्रयोजनं शकुनादिपरि-1 भावने, तथाहि-शासशब्दमाकर्ण्यमानं प्रशस्तं महाशकुनमामनन्ति शाकुनिकाः, शरीरेण प्रयोजनं त्रिधा, तद्यथा-सम्पूर्णेन शरीरेण तदेकदेशेन शरीरसम्पर्कसमुद्रतेन चान्येन वस्तुना, तत्रामीषां चतुर्णामपि प्रयोजनानां मध्ये किमपि केषानित्साधूनामुपयोगवद्भवति, पाश्चित्तु चत्वार्यपि, तत्र द्वीन्द्रियाणां सम्पूर्णशरीरेण प्रयोजनं साक्षादभिधत्ते-दीन्द्रियाणां 'परिभोगः ' उपयोगोऽक्षाणां 'सशुक्तियादीनां ' शक्तिशङ्खादिसहितानां, तत्र 'अक्षाः' चन्दनकाः 'शुक्तयः सुप्रतीताः यत्र स्वातिनक्षत्रसम्भविजलसम्पर्कतो मौक्तिकानि जायन्ते, 'शङ्खाः शम्बूकाः, आदिशब्दात्कपर्दादिपस्हिा, तत्राक्षाणां कपर्दकादीनां चोपयोगः समवसरणस्थापनादौ शङ्कशुक्तिकानां चक्षुःपुष्पकाद्यपनोदादौ, त्रीन्द्रियाणां परिभोगमाह-त्रीन्द्रियाणां परिभोग उद्देहिकादि, इह उद्देहिकाशब्देन उद्देहिकाकृतवल्मीकमृचिका परिगृह्यते, आदिशब्दादन्यस्याप्येवंविधस्य त्रीन्द्रियमृत्तिकादेः परिग्रहा, स परिभोगः परिभोगविषयत्वात् , यद्वाऽत्र कर्मसाधनः परि दीप अनुक्रम [६२]] अथ द्वी, त्रि चतुर् पञ्च-इन्द्रियपिण्ड विषयक वर्णनं क्रियते ~ 42 ~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४८|| दीप अनुक्रम [ ६३ ] मूलं [६३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्युतेर्मलयगियावृत्तिः ।। २० ।। । “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) ●→ “निर्युक्तिः [४८] + भाष्यं [ १५...] + प्रक्षेपं F आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः भोगशब्दो विवक्षणीयः, परिभुज्यते इति परिभोगः - परिभुज्यमानता (स) च उद्देहिकामृत्तिकादेः सर्पदंशादौ दाहोपशमनाय वेदितव्यः, यद्वाकिमपि वैद्यस्त्रीन्द्रियविशेषशरीरादिकं बाह्यमलेपादिनिमित्तं वदेत् तद्वा परिभोगस्त्रीन्द्रियाणां तथा चतुरिन्द्रियाणां मध्ये मक्षिकाणां परिहारः- पुरीषं परिभोगः, तद्धि वमननिषेधादौ प्रत्यलमुपवर्ण्यते, यदा- अश्वमक्षिका उपयुज्यते अक्षिभ्योऽक्षरसमुद्धरणाय चैवेति एवंप्रायचतुरिन्द्रियपरिभोगसमुचयार्थः ॥ पञ्चेन्द्रियपिण्डविषये सामान्यत उपयोगमा ह- पंचेदिय पिंडंमि उ अव्यवहारी उ नेरइया ॥ ४९ ॥ व्याख्या - पञ्चेन्द्रियपिण्डे उपयोगविषयतया परिभाव्यमाने सर्वोऽपि तिर्यगादिपिण्डो यथायोगमुपयोगं समायाति, नैरयिकाः पुनः 'अव्यवहारिणः' अनुपयोगिनः ॥ तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यगुपयोगमाह चम्मद्विदंतनहरोमसिंगअविलाइछ्गणगोमुत्ते । खीरदधिमाइयाण य पंचिदियतिरियपरिभोगो ॥ ५० ॥ व्याख्या–पञ्चेन्द्रियतिरथां परिभोगश्चर्मास्थिदन्तनखरोमशृङ्गाविलादिच्छगण गोमूत्रे क्षीरदध्यादीनां च तत्र चर्मणः परिभोगः | क्षुरादिधरणार्थं कोशकादिकरणे, अस्थ्नो गृद्रनखिकादेः, तद्धि शरीरस्फोटापनोदायर्थं बादादौ बध्यते, दन्तस्य शूकरदंष्ट्रायाः, सा हि दृष्टिष्ट पुष्पिकापनोदाय घर्षित्वा क्षिप्यते, नखानां जीवविशेषसत्कानां ते हि कापि धूपे पतन्ति गन्धव तेषां कस्यापि रोगस्यापनोदाय प्रभवति, रोम्लामविमेषी (वी) ला सत्कानां तन्निष्पन्नो हि कम्बलः साधूनामुपयोगवान् शृङ्गस्य महिष्यादिसत्कस्य, तद्धि मार्गे गच्छात्परि Education Internation For Pale Only ~ 43~ पिण्डनिक्षेपे पश्चेन्द्रिय ड ॥ २० ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६५] .→ "नियुक्ति: [१०] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५०|| भ्रष्टानां साधूनां मीलनाय वाचते, तथाऽविलादिगणस्य गड्डरिकाया गडरकस्य वा, आदिशब्दादन्येषां च पुरीषस्य, गोमूत्रस्य पामामाधुपमईने, क्षीरादीनां भोजने ।। सम्पति मनुष्यस्य सचित्तादिभेदात् त्रिषिधस्याप्युपयोगमाह| सचित्ते पव्वावण पंथुवएसे य भिक्खदाणाई । सीसढिग अच्चित्ते मीसहिसरक्खपहपुच्छा ॥ ५१ ॥ व्याख्या-सचिने इति षष्ठीसप्तम्योरय प्रत्यभेदात् सचित्तस्य मनुष्यस्य प्रयोजनं पथि पृष्टे 'उपदेशः' कथनं, तथा भिक्षादानम्, आदिशब्दाद्वसत्यादिदानं चोपयोगः, शिरसोऽस्थि, तदि लिने व्याधिविशेषापनोदाय घर्पित्वा दीयते, यदा कदाचित्कवित्परिरुष्टो राजादिः साधूनां विनाशाय कृतोद्यमो भवेत् ततस्ते साधवः शिरोऽस्थिकमादाय कापालिकवेषेण नंष्ट्वा देशान्तरं वजितुमिच्छन्तीति । तेन प्रयोजनं, तथा मिश्रस्य मनुष्यस्पोपयोगः, 'अविसरक्खि ति ' अस्थिभिः ' आभरणकल्पैः भूषितस्य सरजस्कस्य सरक्षाकस्य वा भस्मावगुण्ठितवपुष्कस्येत्यर्थः, कापालिकस्य पार्चे यत्पयि विषये प्रच्छनम् ।। सम्पति देवताविषयमुपयोगमाह खमगाइ कालकाजाइएसु पुच्छिज्ज देवयं कचि । पंथे सुभासुभे वा पुच्छेज्जह दिव्य उवओगो ॥ ५२ ॥ व्याख्या-क्षपकादिः, आदिशब्दादत्राऽऽचार्यादिपरिग्रहा, क्षपकस्य हि तपोविशेषाकृष्टत्वेन प्रायः समासना एव देवता भवन्ति । नतत इद्द साक्षात्क्षपकग्रहणं कृतं, 'कालकार्यम् ' मरणरूपं प्रयोजन, तदादिकेषु प्रयोजनेपस्थितेषु काश्चिदेवतां पृच्छेत् , तथा पथिविषयेषु 'शुभाशुभे' सापायत्वे निरपायत्वे वा देवतां काञ्चन पृच्छेन्, एष 'दिव्य उपयोगः 'देवताविषय उपयोगः ।। तदेवं सचित्तादिभेदभिभत्रिपकारोऽपि द्रव्यपिण्डः प्रत्येकं पृथिवीकायादिभेदानवविध उक्तः, सम्पत्येतेषामेव नवानां पृथिवीकायादीनां ह्यादिमिश्रणतो मिश्र द्रष्यपिण्डमभिधित्मराह दीप अनुक्रम [६५] ~ 44 ~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६८] .→ “नियुक्ति: [१३] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५३|| पिण्डनियु- अह मीसओ य पिंडो एएसि चिय नवण्ह पिंडाणं । दुगसंजोगाईओ नायव्यो जाव चरमोत्ति ॥ ५३ ॥ पिण्डनिक्षेपे क्र्मळयगि मिश्रपिण्डः रीयावृत्तिः व्याख्या-अथेत्यानन्तर्ययोतने, केवलपृथिवीकायादिपिण्डाभिधानानन्तरं मिश्रकपिण्डो व्याख्यायते इति योतयति, 'मिश्रक: सजातीयविजातीयद्रव्यमिश्रणात्मकः पिण्डः एतेषामेव नवानां पिण्टानां द्वयादिसंयोगात्मको ज्ञातव्यः, तयथा-पृथिवीकायोऽकायश्चेति ।। २१ द्विकसंयोगे प्रथमो भङ्गः, पृथिवीकायस्तेजस्काय इति द्वितीयः, एवं द्विकसंयोगे षट्त्रिंशद्भङ्गा भावनीयाः, तथा त्रिकसंयोगे पृथिवीकायो कायस्तेजस्काय इति प्रथमो भगः पृथिवीकायोडप्कायो वायुकाय इति द्वितीयः एवं त्रिकसंयोगे चतुरशीतिकाः, तथा चतुष्कसंयोगे| पृथिवीकायोऽकायस्तेजस्कायो वायुकाय इति प्रथमो भङ्गः, पृथिवीकायोऽप्कायस्तेजस्कायो वनस्पतिकाय इति द्वितीयः, एवं चतुष्कसंयोगे पदिशं शतं भङ्गानां भावनीय, पञ्चकसंयोगेऽपि पड़िशं शतं, पडसंयोगे चतुरशीतिः, सप्तकसंयोगे पढ़िशव , अष्टकसंयोगे नव, नवकसंयोगे एकः, सर्वसङ्ख्यया भङ्गानां पञ्च शतानि यधिकानि, एतेषां च भङ्गानामानयनामियं करणगाथा, “ उभयमुहं रासिदुर्ग विडिल्लाणंतरेण भय पढमं । लदह रासिविभत्ते तस्सुवरि गुणितु संजोगा ॥१॥ अस्याक्षरगमनिका-दह नवानां पदानां यादि संयोगभङ्का आनेतुमभिप्रेतास्ततस्तावत्प्रमाणो द्वौ राशी उभयमुखौ स्थाप्येते, स्थापना चेयं अकस्योपरि नवका, तत एक-18 18|कसंयोगे नव भङ्गा द्रष्टव्याः, न च तत्र करणगाथाया व्यापारः, द्वयादिसंयोगभङ्गानयनायैव तस्याः प्रवृत्तत्वात् , ततोऽधस्तने राशी पर्यन्तव-13 मार्जिन एककस्थानन्तरेण द्विकलक्षणेनोपरितनराशौ प्रथममडूंनवकरूपं भजेत्-तस्य भागहारं कुर्यात, ततो लब्धाः सादोश्चत्वारः, तेन च सा-18|॥ २१ ॥ चतुष्केणाधोराशिनोपरितने प्रथमेऽङ्के विभक्ते लब्धेन तस्य द्विकलक्षणस्याङ्कस्योपरितनमङ्कमष्टकलक्षणं गुणयेत्-ताइयेत, जाता पत्रिंशत्र, इत्थं च गुणयित्वा 'संयोगाः' संयोगभना वाच्याः, यथा द्विकसंयोगे भङ्गाः पदत्रिंशदिति, ततोभूयोऽपि विसंयोगभङ्गानयनाय प्रथमपा-12 दीप अनुक्रम [६८] ~ 45~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६८] » “नियुक्ति: [१३] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५३|| दरहिता करणगाथा व्यापार्यते, अधस्तने राशौ स्थितेन द्विकादनन्तरेण त्रिकेणोपरितनराशिव्यवस्थित त्रिकोपरितनसप्तकरूपाङ्कापेक्षया आय पत्रिंशपमहूं भजेत, ततो लब्बा द्वादश तैश्चाधोराशिनोपरितनेऽङ्के विभक्ते लम्धेखिकलक्षणस्याङस्योपरितनं सप्तकलक्षणमडूं गुणयेत, गुणिते च सति जाताचतुरशीतिः, एतावन्तस्त्रिकसंयोगेष्वपि भङ्गा आनेतष्पाः, यावन्नवकसंयोगे एको भन्नः, तथा चाह-जाव चरिमोति तावहिकसंयोगादिको मिश्रपिण्डो ज्ञातव्यो यावचरमो नवकनिष्पन्न एकसङ्खचो मिश्रपिण्डा, स च लेपमधिकृत्योपदीते, इहालस्य धुरि मक्षितायां रजोरूपः पृथिवीकायो लगति, नदीमुत्तरतोऽकायः, लोहमयावपनघर्षणे तेजस्कायः, यत्र तेजस्तत्र वायुरिति वायुकायोऽपि, वनस्पतिकायो धूरेष, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः सम्पातिमाः सम्भवन्ति, महिप्यादिचर्ममयनाडिकादेश्च घृष्यमाणस्यावयवरूपः पश्चेन्द्रियपिण्डः, इत्थंभूतेन चाक्षस्य खञ्जनेन लेपः क्रियते इत्यसाबुपयोगी, इतिशब्दो मिश्रपिण्डसमाप्त्यर्थः, एतावानेव द्रव्यपिण्डो मिश्रः सम्भवतीति ।। सम्पत्यस्यैव मिश्रपिण्डस्य कानिचिदुदाहरणान्युपदर्शपति सोचीरा गोरसासव वेसण भेसज्ज नेह साग फले । पोग्गल लोण गुलोयण णेगा पिण्डा उ संजोगे ॥ ५४॥ । ___ व्याख्या- सौवीर' काजिक, तथाकायतेजस्कायवनस्पतिकायादिपिण्डरूपं, तथाहि-तत्राकायस्तण्डुलधावनं तेजस्कायोऽवश्रावर्ण वनस्पतिकायस्तण्डुलावयवा यत्सम्पार्वतस्तण्डुलोदकं गडुलमुपजायते, लवणावयवान केचन तत्र लवणसम्मिश्रतण्डलोदकादिभिः सह पतन्ति ततस्तत्र पृथिवीकायोऽपि सम्भवतीति, एवमन्यत्रापि भावना स्वधिया कर्तव्या, तथा 'गोरसं' तक्रादि, तचापकायत्रसकायसम्मिश्र भवति, तथा 'आसवः' मयं, तयाकायतेजस्कायवनस्पतिकायादिपिण्डरूपं, 'वेसन' जीरकलवणादि, तच वनस्पतिपृथिवीकायादिपिण्ड-18 रूपं, 'भेपर्ज' यवागूपभृति, तथाकायतेजस्कायवनस्पतिकायपिण्डरूपं, 'स्नेहा' घृतवशादि, तच्च तेजस्कायत्रसकायादिपिण्डरूपं, 'शा-18 दीप अनुक्रम [६८] ~ 46~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५४|| दीप अनुक्रम [ ६९ ] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) ●→ मूलं [ ६९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनतेर्मलयगि रीयावृत्तिः, ॥ २२ ॥ “निर्युक्तिः [५४] + भाष्यं [१५... ] + प्रक्षेपं " F आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः कः ' वत्थुलभञ्जिकादिरूपः, स च वनस्पतिकायपृथिवीकायत्र सकायादिपिण्डरूपः, 'फलम् ' आमलकादि, तथेह पकं ग्राह्यं ततस्तदपीत्थमेव भावनीयं, 'पोग्गलं ' मांसं तदपीह पकं गृह्यते, ततस्तदपि शाकवद्भावनीयं, 'लवणं' प्रतीतं तचाप्कायपृथिवीकायरूपं, 'गुडौंदनौ' प्रतीतौ तावपि फलवद्भावनीयौ, एवमन्येऽप्यनेके यथासम्भवं संयोगे पिण्डा भावनीयाः, केवलं तं तं संयोगं परिभाव्य यो यत्र | द्विक्संयोगादावन्तर्भवति स तत्र स्वयमेवान्तर्भावनीयः ॥ तदेवमुक्तः सप्रपञ्चं द्रव्यपिण्डः, सम्प्रति क्षेत्रकालपिण्डावभिधित्सुराद्द— तिनि उ पएससमया ठाणडिउ दविए तयाएसा । चउपंचमपिंडाणं जत्थ जया तप्परूवणया ॥ ५५ ॥ व्याख्या - इह क्षेत्रकालपिण्डौ 'नाम उवणापिंडे दबे खेत्ते य काल भावे य' इति गाथा निर्देशक्रमापेक्षया चतुर्थपञ्चमपिण्डौ, क्षेत्रम् - आकाशं कालः- समयविवर्तरूपः, तत्र त्रयः प्रदेशाः क्षेत्रप्रस्तावादाकाशमदेशाः तथा त्रयः समयाः कालस्य निर्विभागा भागाः, तुशब्दो विशेषणार्थः, स च परस्परमनुगता इति विशेषयति, 'चतुष्पञ्चमपिण्डयोः' क्षेत्रकालपिण्डयोः स्वरूपम्, इयमत्र भावना - त्रयः पर स्परमनुगता आकाशप्रदेशास्त्रयः परस्परमनुगताः समया यथाक्रमं क्षेत्रपिण्डः काळपिण्ड इति वेदितव्याः, त्रिग्रहणं चोपलक्षणं, तेन द्विचतुरादयोऽपि द्रष्टव्याः, तदेवं क्षेत्रकालपिण्डौ निरुपचरितौ प्रतिपाय सम्पति तावेव सोपचारावभिधत्ते – 'ठाणहिइड दविए तयासा | 'दविएत्ति' द्रव्ये - पुद्गलस्कन्धरूपे स्थानम् - अवगाहः स्थिति:- कालतोऽवस्थानं स्थानं च स्थितिश्व स्थानस्थिती ताभ्यां स्थानस्थितितः अत्र पञ्चमी 'यपः कर्माधारे' इत्यनेन सूत्रेण ततोऽयमर्थः स्थानं स्थितिं चाश्रित्य यस्तदाऽऽदेशः- क्षेत्रकालादेशः क्षेत्रकालमाधान्यविवक्षया क्षेत्रेण कालेन च व्यपदेशस्तस्माच्चतुष्पञ्चमपिण्डयोः प्ररूपणा कार्या, किमुक्तं भवति ?--स्कन्धरूपे पुद्गलद्रव्येऽवगाहचिन्तामाश्रित्य क्षेत्रप्राधान्यविवक्षया यदा क्षेत्रेण व्यपदेशो यथा एकप्रादेशिकोऽयं द्विप्रादेशिकोऽयं त्रिप्रादेशिक इत्यादि स इत्थं क्षेत्रतो व्यपदिश्यमानः अथ क्षेत्र काल पिण्ड विषयक वर्णनं क्रियते For Parts Only ~ 47~ 5000000000000000 पिण्डनिक्षेपे क्षेत्रकाल पिष्टः ॥ २२ ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७०] » "नियुक्ति: [१५] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५५|| क्षेत्रपिण्ड इत्युच्यते, क्षेत्रतो व्यपदिष्टः पिण्डः क्षेत्रपिण्ड इति व्युत्पत्तेः, यदातु कालतोऽवस्थानमधिकृत्य कालपाधान्यविवक्षया कालेन व्यपदेशो यथा-एकसामयिको द्विसामयिक इत्यादि तदा स कालपिण्डोऽपि भण्यते, कालतो व्यपदिष्टः पिण्डः कालपिण्ड इति समासाऽऽश्रयणात्, अथवा | त्रिप्रदेशाद्यात्मकक्षेत्रपिण्डे यादिवा त्रिसमयाधात्मक कालपिण्डे यदवस्थितं पुद्गलद्रव्यं तत्तदादेशात क्षेत्रकालव्यपदेशात्-क्षेत्रकालोपचारादित्यर्थः, यथाक्रम क्षेत्रपिण्डः कालपिण्डः । प्रकारान्तरेण सोपचारी क्षेत्रकालपिण्डावाह-'जत्थ जया तप्परूवणया''यत्र ' वसत्यादौ यदा प्रथमपौरुष्यादौ 'तत्मरूपणा' पिण्डमरूपणा क्रियते स पिण्डः प्ररूप्यमाणो नामादिपिण्डो वसत्यादिलेत्रमधिकृत्य क्षेत्रपिण्ड उच्यते यथाऽमुकवसतिरूपक्षेत्रपिण्ड इति, प्रथमपौरुष्यादिकं तु कालमधिकृत्य कालपिण्डो यथाऽमुकप्रथमपहरादिरूपः कालपिण्ड' इति ।। 'इद तिन्त्रि उ पएससमया' इत्यत्र पर आक्षेपमाह-ननु मूर्तेषु द्रव्येषु परस्परमनुवेधत: सङ्ख्यावाहुल्यतश्च पिण्ड इति व्यपदेशो घटते, क्षेत्रकालयोस्तु न परस्परमनुवेधो नापि काले सङ्घयावाहुल्यं, तथाहि-क्षेत्रमाकाशमुच्यते 'खेतं खलु आगास 'मिति वचनात, तथ नित्यमकृत्रिमत्वाद, ततः सदैव विविक्तपदेशात्मकतया व्यवस्थितमिति कथमाकाशप्रदेशानामनुवेधः, एकत्र मिश्रणाभावात् , कालोऽपि पूर्वापरसमयविविक्तो| वार्चमानिकसमयरूप एव पारमार्थिकः, पूर्वापरसमययोपिनष्टानुत्पन्नत्वेन परमार्थतोऽसत्वात् , सतां च परस्परमनुवेधः सङ्ख्यावाहुल्यं वा नासता सदसतां बा, ततः कालद्वयमपि नोपपद्यते इति कथं तत्र पिण्ड इति व्यपदेशः ?, अत्र प्रतिविधानमभिधित्सुराहमुत्तदविएस जुज्जइ जइ अन्नोऽन्नाणुवेहओ पिंडो । मुत्तिविमुत्तेसुवि सो जुज्जइ नणु संखबाहुल्ला ॥ ५६ ॥ व्याख्या-ननु यदि मूर्तेषु द्रव्येषु 'अन्योऽन्यानवेधतः । परस्परानुवेधतः, 'संखबाहुल्लार इत्यप्यत्र सम्बध्यते, 'सङ्ख्यावाहुआल्यतश्च' द्वयादिसख्यासम्भवतच पिण्ड इति व्यपदेशो 'युज्यते' योगमुपैति घटते इत्यर्थः, तहि स पिण्ड इति व्यपदेशः 'मूर्तिविमु दीप अनुक्रम [७०] ~ 48~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५६ || दीप अनुक्रम [७१] मूलं [७१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्युतेर्मलयगि याचि ॥ २३ ॥ “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) ●→ “निर्युक्तिः [ ५६ ] + भाष्यं [ १५... ] + प्रक्षेपं F आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः तेष्वपि ' मूर्त्तिरहितेष्वपि अमूर्तेष्वित्यर्थः, क्षेत्र प्रदेशकालसमयेषु युज्यते, तत्रापि पिण्डशब्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य परस्परानुवेधस्य सङ्ख्या-पिण्डनिक्षेपे बाहुल्यस्य च सम्भवात् तथादि - सर्वेऽपि क्षेत्रमदेशाः परस्परं नैरन्तर्यलक्षणेन सम्बन्धेन सम्बद्धा अवतिष्ठन्ते ततो यथा बादरनिष्पादिते चतुरस्रादिघने परस्परनैरन्तर्यरूपानुवेधतः सङ्ख्याबाहुल्यतश्च पिण्ड इति व्यपदेशः प्रवर्त्तते तथा क्षेत्रप्रदेशेष्वपि पिण्डशब्दः प्रवर्त्तमानो न विरुध्यते, तत्रापि परस्परनैरन्तर्यरूपस्यानुवेधस्य सङ्ख्याबाहुल्यस्य च सम्भवाद, तथा कालोऽपि परमार्थतः सन् द्रव्यं च ततः सोऽपि परिणामी, सतः सर्वस्य परिणामित्वाभ्युपगमाद्, अन्यथा सत्त्वायोगात्, एतचान्यत्र धर्मसङ्ग्रहणिटीकादौ विभावितमिति नेह भूयो विभाव्यते, ग्रन्थगौरवभयात, परिणामी चान्वयी तेन तेन रूपेण परिणममान उच्यते, ततोऽस्ति वार्त्तमानिकस्यापि समयस्य पूर्वापरसमयाॐ भ्यामनुवेधः केवलं सी पूर्वापरसमयावसन्तावपि बुद्धया सन्ताविव विवक्षितौ ततः सङ्ख्याबाहुल्यमपि तत्रास्तीति पिण्डशब्दमयविरोधः । सम्पति क्षेत्रे पिण्डशन्दमवृत्त्यविरोधं दृष्टान्तद्वारेण समर्थयते- Education Internation जह तिपएसो खंधो तिसुवि पएसेस जो समोगाढो । अविभागिण संबद्धो कहं तु नैवं तदाधारो ? ॥ ५७ ॥ व्याख्या -यथा कश्चिदनिर्दिष्ट व्यक्तिकः 'त्रिमदेशिकः ' त्रिपरमाण्वात्मकः स्कन्धस्त्रिष्वप्याकाशप्रदेशेष्ववगाढो न त्वेकस्मिन् द्वयोवेत्यपिशब्दार्थः, 'अविभागेन सम्बन्धो' विभागो-नैरन्तर्याभावस्तदभावोऽविभागो नैरन्तर्यमित्यर्थः तेन सम्बन्धो नैरन्तर्यसम्बन्धसम्बद्ध इति ॥ २३ ॥ भावः, पिण्ड इति व्यपदिश्यते, नैरन्तर्येणावस्थानभावात् सङ्ख्याबाहुल्यतथ, एवं- त्रिप्रदेशावगाढत्रिपरमाणुस्कन्च इव तदाधारः - त्रिपरमास्कन्धाधारः प्रदेशत्रयसमुदायः कथं तु न पिण्ड इति व्यपदिश्यते ?, सोऽपि पिण्ड इति व्यपदिश्यताम् उभयत्राप्युक्तनीत्या विशेषामा For Parts Only क्षेत्रकालपिण्डौ ~49~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७२] » “नियुक्ति: [१७] + भाष्यं [१५] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५७|| वात् ॥ सम्पति 'जस्थ जया तप्परूवणया' इत्येतद्वयाचिपासुर्नामस्थापनाद्रव्यभावपिण्डाना योगविभागसम्भवात् पारमार्थिक पिण्डत्वं क्षेत्रकालयोस्तु योगविभागासम्भवत औपचारिक प्रतिपादयन्नाहअहवा चउण्ह नियमा जोगविभागेण जुज्जए पिण्डो । दोसु जहियं तु पिण्डो वणिज्जइ कीरए वावि ॥ ५८॥ व्याख्या-अथवेति प्रकारान्तरद्योतने, पूर्व हिक्षेत्रकालयोर्यथासङ्खधं प्रदेशसमयानां परस्परानुवेधतः सङ्ख्यावाहुल्यतश्च पारमावाधिक पिण्डत्वमुक्त, यद्वा तन्न युज्यत एव, योगविभागासम्भवात्, तथाहि-लोक या योगे सति विभागः कर्तुं शक्यते विभागे वा सति | बायोगः तत्र पिण्ड इति व्यपदेशः, न च क्षेत्रप्रदेशेषु योगे सत्यपि विभागः कर्तुं शक्या, नित्पत्वेन तेषां तथा व्यवस्थितानामन्यथा कत्तु । मशक्यत्वात, ततो न तत्र पारमार्थिक पिण्डत्वं, तश समयो वर्तमान एच सन् नातीतोऽनागतो वा, तयोविनष्टानुत्पनत्वेनाविद्यमानत्वात् ततोऽत्र विभाग एव न तु कदाचनापि योग इति पारमार्थिकपिण्डत्वाभावः, ततोऽन्यथा क्षेत्रकालपिण्डमरूपणा कर्तव्येति प्रकारान्तरता, 'चतुर्णी' नामस्थापनाद्रव्यभावपिण्डाना 'योगविभागेन' योगविभागसम्भवेन नियमात्पिण्ड इति व्यपदेशो युज्यते, तथाहि-नाम्न:पिण्डो नामनामवतोरभेदोपचारात् यदा नाम्ना पिण्डो नामपिण्ड इति व्युत्पत्तेः पुरुषादिकमेव भांपते, तस्य च इस्तपादादिभिरवयक्तस्पापि खड्दादिभिर्विभागः कर्तुं शक्यते इत्यस्ति योगे सति विभागः, यद्वा पूर्व गर्भे मांसपेशीरूपस्य सतो इस्तादिभिरवपवेवियोगा। पश्चात्क्रमेण तैः सह संयोग इति विभागे सति योगः ततः पिण्डरूपता, तथा स्थापनापिण्डेशत्रिकादिको पूर्व विभागे सति संयोगः संयोगे वा सति विभाग इति पिण्डरूपता, द्रव्यापिण्डेऽपि गुडौदनादिके विभागपूर्वकः संयोगः संयोगपूर्वको वा विभागः सुप्रतीत इति पारमाविकपिण्डरूपता, भावपिण्डेऽपि भावभाववतोः कथञ्चिदभेदात्सावादिरेव मूतों विग्रहवान् गृखते, तर संपोगविभागौ नामपिण्ड इव तात्विका दीप अनुक्रम [७२] ~50~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८|| दीप अनुक्रम [७३] मूलं [७३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्यतेर्मलयगि यावृत्तिः ॥ २४ ॥ “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ ( मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) ●→ “निर्युक्तिः [५८] + भाष्यं [ १५... ] + प्रक्षेपं ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः विति पारमार्थिकी पिण्डरूपता, क्षेत्रकालयोर तूक्तनीत्या न संयोगविभागाविति न तत्र पिण्डशब्दमवृत्तिः, तस्मान्नामादिपिण्ड एव तत्तत् क्षेत्रनिवासादिकं पर्यायमुद्भूतरूपं विवक्षित्वा क्षेत्र पिण्डकाळ पिण्डशब्दाभ्यां व्यपदिश्यते, तथा चाह-'दो जहियं तु' इत्यादि 'द्वयोः ' क्षेत्रकाळयो: ' यत्र ' वसत्यादौ यदा वा प्रथमपौरुष्यादौ यः पिण्डो नामादिरूपो व्यावर्ण्यते यद्वा यत्र गृहे महानसादौ वा पिण्डो गुडपिण्डादिर्मोदकादिपिण्डो वा क्रियते यदा वा प्रथमप्रहरादौ निष्पाद्यते स व्यावर्ण्यमानो नामादिपिण्डः क्रियमाणो वा गुडौदनादिपिण्डस्तत्क्षे*त्रकालापेक्षया क्षेत्रपिण्डः कालपिण्डय व्यपदिश्यते यथाऽमुकवसत्यादिक्षेत्रपिण्डः प्रथमपौरुषीपिण्ड इत्यादि । उक्तौ क्षेत्रकालपिण्डौ, ससम्पति भावपिण्डमभिषिपुराह gasो उभावपिण्ड पत्थओ चैत्र अप्पसत्यो य । एएसिं दोपहंपि य पत्तेय परूवणं वोच्छं ॥ ५९ ॥ व्याख्या--' द्विविधः ' दिपकार: भावपिण्डः, तद्यथा— प्रशस्तोऽप्रशस्तथ तत एतयोर्द्वयोरपि प्रत्येकं प्ररूपणां प्ररूप्येते द्वाववि भावपिण्डौ यया गाथापद्धत्या सा प्ररुपणा तां वक्ष्ये ॥ प्रतिज्ञातमेव गाथाचतुष्टयेन निर्वाहयति विहाइ दसविहो पत्थओ चैव अप्पसत्थो य । संजमें विज्जाचरणे' नाणादितिगं च तिविहो उ ॥ ६० ॥ नाणं दंसण तब संजमो ये वय पंच छच जाणेज्जा । पिंडेसण पाणेसण उग्गहपडिमा य पिंडम्मि ॥ ६१ ॥ पत्रयणमार्या नव बंभत्ति' तह य समणधम्मो यें। एस पसत्थो पिंडो भणिओ कम्म महणेहिं ॥ ६२ ॥ अपसत्थो य असंजम अन्नाणं अविरई' य मिच्छत्तं । कोहायसवैकाय कम्मेगुती अहम्मो य ॥ ६३ ॥ Education Internation अथ भावपिण्डस्य वर्णनं क्रियते For Park Use Only ~51~ पिण्डनिक्षेपे भावपिण्डः ॥ २४ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७८] .→ “नियुक्ति: [६३] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६३|| - व्याख्या-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च भावपिण्डः प्रत्येकं 'दशविधः । दशभकारः, किंरुपः ! इत्पाह-' एकविधादिकः' एकविधो द्विवित्रिविधश्चतुर्विधो यावदशाविध इति, तत्र प्रथमत उद्देशक्रमप्रामाण्यानुसरणात्पशस्तं भावपिण्डं दशविधमप्यभिदधाति-'सञ्जमे'त्यादि, तत्रै कविधः प्रशस्तो भावपिण्डः संयमः, इह संयमो ज्ञानदर्शने चिना न भवति, 'पूर्वद्वयलाभः पुनरुत्तरलाभे भवति सिद्धः' इति वचन-14 प्रामाण्यात् , ततो ज्ञानदर्शने संयम एवान्तभूते विवक्षिते इति संयम एवैक: प्रशस्तभावपिण्डत्वेन प्रतिपाद्यमानो न विरुध्यते, द्विविधः पिण्डो | विद्याचरणे' विद्या-ज्ञानं चरणं-क्रिया, अत्र सम्यगदर्शनं ज्ञान एवान्तर्भूतं विवक्षितमिति न पृथग्गणितं, विवक्षा हि वनधीना, वक्ता च कदाचित्संक्षेपेणाभिधित्सुस्तां तां प्रत्यासत्तिमधिकृत्य तत्वदन्तर्भावेनाभियचे कदाचित्पुनर्विशेषपरिज्ञानोत्पादनाय विस्तरेणाभिधित्सुः सर्व वैविक्त्येन पृथक् प्रतिपादयति, ततः कदाचित् ज्ञानादित्रिक संयम इति प्रतिपाद्यते कदाचित् ज्ञानक्रिये इति कदाचित्पुनः परिपूर्णमपि साक्षाद्यथा ज्ञानादित्रिकमिति न कश्चिदोषः, त्रिविधः पिण्डः पुनः 'ज्ञानादित्रिक ज्ञानदर्शनचारित्राणि, चतुर्विधः पिण्डो ज्ञानदर्शनतपःसंय-18 माः, पञ्चविधः पञ्च व्रतानि-प्राणातिपातमृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहनिवृत्तिलक्षणानि, अत्रापि ज्ञानदर्शने अन्तर्भूते विवक्षिते इति न पृथ-18 गणिते, रात्रिभोजनविरमणमच्येतेषु पञ्चसु यथायोगमन्तर्भूतं विवक्षितं ततो न पञ्चविधत्वव्याघाता, एवमुत्तरतापि यथायोगमन्तभावभावना|| भावनीया, पड्डिधो भावपिण्डा-पद् व्रतानि, तत्र पञ्च ब्रतानि पूर्वोक्तान्येव माणातिपातविरमणादीनि षष्ठं तु रात्रिभोजनविरमणलक्षणं, तथा सतविधे पिण्डे-सप्त पिण्डैपणाः सप्त पानेषणाः सप्त अवग्रहप्रतिमाः, तत्र पिण्डैपणाः पानैषणाश्च सप्त संमष्टादयः, ताश्चेमा:-'संसहम-13 । १ अवग्रहप्रतिमाः सप्त, अवगृह्यते इत्यवग्रहस्तस्य प्रतिमा अभिग्रहाः, तत्र पूर्वमेवैवंभूतः प्रतिश्रयो मया ग्राह्यो नान्यथाभूस इति विचिन्त्य तमेव याचित्वा गृहतः प्रथमा १ । तथा यस्यैर्वभूतोऽभिग्रहो भवति-अहं खल्लन्येषां कृतेऽत्रग्रहं ग्रहीष्यामि, अन्यैश्व गृहीतेऽवग्रहे वत्स्यामीति द्विती दीप अनुक्रम [७८] ~52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७८] .→ “नियुक्ति: [६३] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६३|| पिण्डनियु- व्याग रीयावृत्तिः ॥२६॥ संसट्टा उद्धढ तह अपलेवढा चेव । उग्गहिया पगहिया एशियधम्मा य सचमिया ॥१॥ अवग्रहमतिमा वसतिविषयनियमविशेषाः, पिण्डनिक्षेप तथाऽष्टविधः पिण्डोष्टौ प्रवचनमातरः, ताश्च पश्च समितयस्तिस्रो गुप्तयः, तथा नवविधः पिण्डो नव बह्मचर्यगुप्तयः, तासां चेदं स्वरूपं-वसहि प्रशस्तापश सस्ताभावपिकह निसिजिदिय कुटुंतर पुन्बकीलिय पणीए । अइमायाहार विभूसणं च नव बंभगुत्तीओ ॥१॥' 'तथा चेति समुच्चये, दशविधः पिण्डोला ण्डा दशमकारः श्रमणधर्मः, स चाय-खंती य महवऽज्जब मुत्ती तव संजमे य बोदव्वे । सर्च सोयं आकिंचणं च बभं च जइधम्मो || दीप अनुक्रम [७८] या, तत्र प्रधमा सामान्येन, इयं तु गच्छान्तर्गतानां साम्भोगिकानां चोयुक्तविहारिणां यतस्तेऽन्योऽन्वार्थ याचन्ते २ । अन्यार्थमवप्रहं याचिष्ये । | अन्यावगृहीते तु न स्थास्यामीत्येषाहालन्दिकानां, यतस्ते सूत्रावशेषमाचार्यादभिकाङ्क्षन्त आचार्यार्थ तं याचन्ते ३ । अहमन्यार्थमवग्रहं न याचिध्ये, अन्यावगृहीते तु वस्यामीति, एषा गच्छ एवोद्युतविहारिणां जिनकल्पाद्यर्थ परिकर्म कुर्वता ४ । आत्मकृतेऽवग्रह याचिष्ये न परार्थम् , एषा जिनक|ल्पिकस्य ५ । यदीयमहमवग्रहं ग्रहीष्यामि तदीयमेव चेत्कटादि संस्तारकं ग्रहीष्यामि, अन्यथोस्कुटुक उपविष्टो वा रात्रि गमयिष्यामीत्येषा जिनकल्पिकादेः६ । सप्तमी त्वैव पूर्वोक्ता नवरं यथासंस्तृतमेव शिलादि प्रहीष्यामि नान्यदिति ७ ॥२ व्याख्या-असंसृष्टा हस्तमात्राभ्यां चिन्त्या, “असंसटे हत्थे असंसट्टे मते, अखरंटिअत्तियुत्तं भवइ, एवं गृहत: प्रथमा, गाथाभड़भयाद्विपर्ययनिर्देशः १, संसृष्टापि ताभ्यां चिन्त्या, " संसट्टे हत्थे संसट्टे | मत्ते, खरंटिमत्तिबु भवा २, उद्धता पाकस्थानाद्यत् स्थाल्यादौ स्वयोगेन भोजनजातमुद्धतं तत एव गृहतः ३, अल्पलेपाऽल्पशब्दोऽभाववाचकततो निलेप पृथुकादि गृहतः ४, अवगृहीता भोजनकाले भोक्तुकामस्य शरावादिना यदुपहतं तत एव गृहतः ५, प्रगृहीता भोजनवेलायां भोक्तुकामाच दातुमभ्युद्यतेन भोत्रा वा स्वहस्तादिना यत्मगृहीतं तहतः ६, उज्झितधर्मा यत्परित्यागार्ह भोजनजातमन्ये च द्विपदादयो नावकान्ति तदह | त्यक्तं वा गृहतः ७ । पानैषणा अय्येवमेव, नवरं चतुर्थ्यामायामसापीरादि निर्लेप ज्ञेयं । ॥२५॥ ~534 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७८] » “नियुक्ति: [६३] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६३|| प्रशस्तभावपिण्डस्योपसंहारमाह-एसो' इत्यादि, 'एष'दशमकारोऽपि भावपिण्डः काष्टकमयनैः-तीर्थकृनिर्भणितः, अनेन स्वमनीपिकाव्युदासमाह ।। सम्पति अप्रशस्तं भावपिण्डं दशविधमपि क्रमेणाह-'अपसत्यो य' इत्यादि, अप्रशस्तः पुनर्भावपिण्ड एकविधोऽसंयमो विरत्यभावः, अत्राज्ञानमिथ्यात्वादीनि सोण्यप्यन्तर्भूतानि विवक्ष्यन्ते सतो न कश्चिदोषः, द्विविधोऽज्ञानाविरती, पशब्दो मिथ्यात्वशब्दा*नन्तरं योजनीयः, अत्र मिथ्यात्वकषायादयः सर्वेऽप्यत्रैवान्तर्भूता विवक्षितास्ततो न द्विविधत्वव्याघातः, एवमुत्तरत्राप्यन्तर्भावभावना भाव नीया, विविधो मिथ्यात्वं चशब्दादज्ञानाविरती च, चतुर्विधः चत्वारः क्रोधादयः क्रोधमानमायालोभाः, पश्चविधः पञ्चाश्रवद्वाराणि प्राणातिपातमपावादादत्तादानपैथुनपरिग्रहरूपाणि, पड्डिधः 'काय'ति कायवधा:-पृथिवीकायिकादिविनाशाः, सप्तविधः कर्मणि-कर्मविषयो द्रष्ट-|| व्यः, इह कर्मशब्देन कर्मबन्धनिबन्धनभूता अध्यवसाया गृहान्ते, भावपिण्डाधिकारान् , तत आयुर्वर्जशेषसप्तकर्मबन्धनिवन्धनभूताः काषायिका |अकापायिका बा परिणामविशेषा जातिभेदापेक्षया सप्तभेदाः सप्तविघोऽप्रशस्तो भावपिण्डः, अष्टविधोऽपि भावपिण्डः कर्मविषयः, तत्रापीयं । भावना-कर्माष्टकबन्धनिबन्धनभूताः काषायिकाः परिणामविशेषा जातिभेदापेक्षयाऽटभेदा अष्टविधोऽप्रशस्तो भावपिण्डः, 'अगुत्तीओचि। नवब्रह्मचर्यगुप्तिमतिपक्षभूता नवाब्रह्मचर्यगुप्तयः, तथा अधर्मो-दशविधधर्मप्रतिपक्षभूतो दशविधोऽप्रशस्तो भावपिण्डः । सम्मति प्रशस्ता-1 प्रशस्तयोर्भावपिण्ड यो क्षणमाह| बज्झइ य जेण कम्म सो सब्बो होइ अप्पसत्थो उ । मुच्चइ य जेण सो उण पसत्थओ नवरि विन्नेओ ॥६४॥ ___व्याख्या-इह येन भावपिण्डेनेकविधादिकेन भवर्तमानेन 'कर्म' ज्ञानावरणीयादि बध्यते, चशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः, स च दीर्घस्थित्तिकदीर्घसंसारानुवन्धि विपाककटुकं च येन बध्यते इति समुचिनोति, स सर्वोऽप्यपशस्तो भावपिण्डो ज्ञातव्यः, येन पुनरेकविधादिना दीप अनुक्रम [७८] ~ 54~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७९] .→ “नियुक्ति: [६४] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६४|| पिण्डनियु- तर्मलयगि- रीयाचिः ॥२६॥ प्रवर्त्तमानेन कर्मणः सकाशात् शनैः शनैः सर्वात्मना वा मुच्यते स प्रशस्तो भावपिण्डो विजेयः, आह-पिण्डो नाम बहूनामेकत्र मीलनमु-पिण्डनिक्षेप च्यते, पिण्डनं पिण्ड इति व्युत्पत्तेः, भावाश्च संयमादयो यदा प्रवर्तन्ते तदैकसङ्ख्या एव, एकस्मिन् समये एकस्यैवाध्यवसायस्य भावात्म शस्तापशततः कर्थ पिण्डत्वम् ? इति, अत्रोत्तरमाह स्ताभावधिदसणनाणचरित्ताण पज्जवा जे उ जत्तिया वावि । सो सो होइ तयक्खो पज्जयपेयालणा पिंडो ॥६५॥ | व्याख्या-इह चारित्रग्रहणेन तपामभृत्यपि गृह्यते, तस्यापि विरतिपरिणामरूपतया चारित्रभेदत्वात् , ततो दर्शनशान चारित्राणां || प्रत्येक ये ये 'पर्यवाः ' पर्यायाः अविभागपरिच्छेदरूपा यदा यदा ' यावन्तो ' यत्परिमाणा वर्तन्ते स स तदा तदा तत्तदाख्यो-दर्शनाख्यो ज्ञानाख्यश्चारित्राख्यः 'पर्यवपेयालना पिण्डः' पर्यायप्रमाणकरणेन पिण्डः पर्यायसंहतिचिवक्षया पिण्डो भवतीत्यर्थः, इयमत्र भावना-18 इह यदा संयम एव केवलः प्राधान्येन विवक्ष्यते न तु सती अपि ज्ञानदर्शने संयमस्य तदविनाभावित्वेन तयोस्तत्रैवान्तर्भावविवक्षणात तदा ये तस्य संयपस्याविभागपरिच्छेदारख्याः पर्यायास्ते समुदायेनैकत्र पिण्डीभूय व्यवतिष्ठन्ते, परस्परं तादात्म्यसम्बन्धेन सम्बद्धत्वात् , ततः संयमपर्यायसंहत्पपेक्षया पिण्ड इति संयम एकविधभावपिण्डत्वेनोच्यमानो न विरुध्यते, यदा तु तस्मिन्नेव संयमरूपेऽव्यवसाये पृया ज्ञानविवक्षा क्रियाविवक्षा च भवति, यथा-वस्तुयाथात्म्यपरिच्छेदरूपोऽशो ज्ञानं प्राणातिपातादिविरतिरूपः परिणामविशेषस्तु क्रियेति । तदा ये ज्ञानस्याविभागपरिच्छेदरूपाः पर्यायास्ते परस्परं वादात्म्यसम्बन्धेनावस्थिता इति ज्ञानपिण्डा, ये तु क्रियाया अविभागपरिच्छेद- २ रूपाः पर्यायास्ते क्रियापिण्डा, ततो द्विविधो भावपिण्डो ज्ञानक्रियाख्यः प्रतिपाद्यमानो न विरुध्यते, यदा तु तस्मिन्नेव संयमरूपेऽध्यवसाये पृथग ज्ञानविवक्षा दर्शनविवक्षा चारित्रविवक्षा च, यथा वस्तुयाथात्म्पपरिच्छेदरूपोऽशो ज्ञानं तस्मिन्नेव वस्तुनि परिच्छिद्यमाने जिनैरिस्थ दीप अनुक्रम ७ि९] ~55~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८०] » "नियुक्ति: [६५] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६५|| मुक्तम् अत इदं तथेतिप्रतिपचिनिवन्धनं रुचिरूपः परिणामविशेषो दर्शन, प्राणातिपातादिपिरातरूपस्तु परिणामविशेषचारित्रमिति, तदा यज्ञानस्याविभागपरिच्छेदरूपाः पर्यायास्ते समुदिता ज्ञानपिण्डो ये तु दर्शनस्य ते दर्शनपिष्टः ये तु चारित्रस्य ते चारित्रपिण्ड इति त्रिविधो ज्ञानदर्शनचारित्रारूपो भावपिण्ड उपपद्यते, यदा तु तपोरूपोऽपि परिणामो भवति भिन्नश्च चारित्राद्विवक्ष्यते तदा त्रयः पिण्डाः पूवोंताश्चतुर्थस्तु तपापिण्ड इति चतुर्विधो भावपिण्डः, यदा तु पञ्च महाव्रतान्येव केवलानि विवक्ष्यन्ते ज्ञानदर्शनतपांसि पुनस्तत्रैवान्तर्भूतानि तदा ये पाणातिपातविरतिपरिणामस्याविभागपरिच्छेदरूपाः पर्यायास्ते परस्पर समुदितत्वात् माणातिपातविरतिपिण्डः ये तु मृपावादविरतिपरिणामस्य ते मृषावादविरतिपिण्डः एवं यावद्ये परिग्रहविरतिपरिणामस्य से परिग्रहविरतिपिण्ड इति पञ्चविधो भावपिण्ड उपपद्यते, एवं शेषेष्वपि पिण्डेषु पिण्डत्वभावना भावनीया । एवमप्रशस्तेष्वपि भावपिण्डेषु ।। तदेवं पिण्डनं पिण्ड इति भावविषयां व्युत्पत्तिमधिकृत्य संय-18 मादेः पिण्डस्वमुक्तम् , अथवा भावपिण्डविचारे पिण्डशब्दः कर्तृसाधनो विवक्ष्यते, यथा पिण्डयति-कर्मणा सहात्मानं मिश्रयतीति पिण्डो भावश्चासौ पिण्डश्च भावपिण्डः, एतदेवाह-- कम्माण जेण भावेण अपगे चिणइ चिकणं पिंडं । सो होइ भावपिंडो पिंडयए पिंडणं जम्हा ।। ६६ ॥ व्याख्या--येन 'भावेन । परिणामविशेषेण कर्मणां पिण्ड 'चिकणन्ति ' अन्योऽन्यानुवेधेन गादसंश्लेषरूपमात्मनि चिनोति स भावो भवति भावपिण्डः, अत्र हेतुमाह-पस्मात्पिण्डनमिति पिण्डयते आत्मा स्वेन सह येन तत्पिण्डनं-कर्म ज्ञानावरणीयादि तत्पिण्ड-15 यति-आत्मना सह सम्बद्धं करोति स भावस्तस्मात्कारणात्स भावपिण्ड इत्युच्यते, अत्र चेत्यं प्रशस्तामशस्तत्वभावना-येन भावेन शुभं| दीप अनुक्रम [८०] finational ~56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८१] .→ “नियुक्ति: [६६] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६|| पिण्डनियु-कर्म आत्मन्युषचीयते स प्रशस्तो भावपिण्डः येन त्वशुभं सोऽप्रशस्त इति ॥ तदेवमुक्तो भावपिण्डः, तदुक्तौ च व्याख्याताः पदपि ना-पिण्डनिक्षेपे तेर्मलयगिमादयः पिण्डाः, सम्पत्यमीषां पिण्डाना मध्ये येनात्राधिकारस्तमभिधित्सुराह 1 अधिकारदश्यावृत्तिः दब्ये अच्चित्तेणं भावंमि पसत्थएणिहं पगयं । उच्चारियत्थसरिसा सीसमइविकोवणट्ठाए ॥ ६ ॥ ॥२७॥ व्याख्या-'इइ' अस्यां पिण्डनियुक्तौ 'द्रव्ये ' द्रव्यपिण्डविषये 'अचित्तेन ' अचित्तद्रव्यपिण्डेन 'भावे ' भावपिण्डविषये पुनः प्रशस्तेन' प्रशस्तभावपिण्डेन 'प्रकृतं प्रयोजनं, यद्येवं तर्हि शेषाः किमर्थमभिहिताः ? अत आह–'उच्चारिए 'त्यादि, शेषा-नामा-18 दयः पिण्टाः पुनरुचरितार्थसहशा उच्चरित:-प्रतिपादितः योऽर्थः पिण्डशब्देनान्वर्थयुक्तेन तत्सदृशाः-सेन तुल्याः, तेषामपि पिण्डा इत्येवमुच्चार्यमाणत्वात, ततः शिष्याणां मतेः विकोपनं-प्रकोपनं झटिति तत्तदर्यव्यापकतया प्रसरीभवनं तदर्थमुक्ताः, इयमत्र भावना-जगति नामादयोऽपि पिण्डा उच्यन्ते, तत्रापि पूर्वोक्तमकारेण पिण्डशब्दप्रतिदर्शनात् , केवलमिह तेषां मध्येऽचित्तद्रव्यपिण्डेन प्रशस्तेन च भावपिण्डेनाधिकारः, न शेरप्रस्तुतत्वादिति, अस्यार्थस्य वैविक्त्येन प्रतिपादनार्थ शेषनामादिपिण्डोपन्यास इति । आइ-मुमुक्षूणां सकलकर्मशृङ्खलावन्धविमोक्षाय प्रशस्तेन भावपिण्डेन प्रयोजनं भवतु, अचित्तेन तु द्रव्यपिण्डेन किं प्रयोजनम् !, उच्यते, भावपिण्डोपचयस्य तदुपष्टम्भकत्वाद्, एतदेवाह आहारउवाहिसेज्जा पसत्थपिंडरसुबग्गहं कुणइ । आहारे अहिगारो अट्ठहिं ठाणेहिं सो सुडो ॥ ६८ ॥ १स (द्रव्यपिण्डः) उपष्टम्भको यस्य तत्त्वं दीप अनुक्रम [८१] ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८३] » "नियुक्ति: [६८] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६३|| व्याख्या-इहाचित्तद्रव्यापिण्डविधा, तद्यथा--आहाररूप उपधिरूपः शय्यारूपथ, एप च विविधोऽपि प्रशस्तस्य-ज्ञानसंवमादि-16 रूपस्य भावपिण्डस्य 'उपग्रहम्' उपष्टम्भं करोति, सतसिविधेनाप्यतेन यतीनां प्रयोजनं, केवलमिह ग्रन्ये 'अधिकार प्रयोजनम्, 'आहारे' आहारपिण्डे, स चाष्टभिः स्थान:-उद्रमादिभिः परिशुद्धो यथा यतीनां गवेषणीयो भवति तथाऽभिधास्पते ॥ किं कारणमत्र विशेषत आ-18 Jol हारपिण्डेन प्रयोजनम् ?, अत आह निवार्ण खल कर्ज नाणाइतिगं च कारणं तस्स । निव्वाणकारणाणं च कारणं होइ आहारो ॥ ६९ ॥ व्याख्या-इह ममणां कार्य कर्तव्यं निर्वाणमेव न शेष, खलुशब्दोऽवधारणार्थः, शेषस्य सर्वस्यापि तुच्छत्वात् , 'तस्य' निर्वाणस्य कारणं 'झानादित्रिक' ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इति (तत्वा०अ०१सू०१) वचनप्रामाण्यात, ततस्तदवश्यमुपादेयम् , उपायसेवामन्तरेणोपेयमात्यसम्भवात् , तेषां जानादीनां निर्वाणकारणानां कारणमष्टभिः स्थानः परिशुद्ध आहारः, आहारमन्तरेण धर्मकायस्थितेरसम्भवात् , उद्मादिदोषदुष्टस्य च चारित्रभ्रंशकारित्वात् ।। एतदेवाहारस्य निर्वाणकारणज्ञानादिकारणत्वं दृष्टान्तेन समर्थयते जह कारणं तु तंतू पडस्स तेसिं च होंति पम्हाई । नाणाइतिगरसेवं आहारो मोक्खनेमस्स ॥ ७० ॥ व्याख्या-यथा पटस्य तन्तवः कारणं तेषामपि तन्तूनां कारणानि पक्ष्माणि भवन्ति, ' एवम् ' अनेन प्रकारेण ज्ञानादित्रिकस्य 'मोक्खनेमस्स ति नेमशब्दो देश्यः कार्याभिधाने रूढः, ततो मोक्षो नेमः-कार्य यस्य तस्य कारणं भवत्याहारः । इह कवित ज्ञानादीनां मोक्षकारणतामेव न प्रतिपद्यते, विचित्रत्वात्सवनित्तटचेः, ततस्तं पति ज्ञानादीनां मोक्षकारणता रष्टान्तेन भावयति दीप अनुक्रम [८३] ~58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८६] .→ “नियुक्ति: [७१] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७१|| पिण्डनियु- जह कारणमणुवहयं कज्ज साहेइ अविकलं नियमा । मोक्खक्खमाणि एवं नाणाईणि उ अविगलाई ॥१॥ आहारादेतेर्मलयगि- व्याख्या-यथा बीजादिलक्षणं कारणमनुपहतम्-अग्न्यादिभिरविध्वस्तम् 'अविकलं' परिपूर्णसामग्रीसम्पन्न नियमाद कुरादिल- भावापाडता क्षणायाजराया तिक्षणं कार्यं जनयति, 'एवम् ' अनेनैव प्रकारेण ज्ञानादीन्यप्यविकलानि-परिपूर्णानि तुशब्दादनुपहतानि च नियमतः 'मोक्षक्षमाणि ' मो-18 पक्रमच ॥२८॥ क्षलक्षणकार्यसाधनानि भवन्ति, तथाहि-संसारापगमरूपो मोक्षः, संसारस्य च कारणं मिथ्यात्वाज्ञानाविरतयः, तत्पतिपक्षभूतानि च ज्ञा-3 नादीनि, सतो मिथ्यात्वादिजनितं कर्म नियमतो ज्ञानायासेवायामपगच्छति, यथा हिमपातजनितं शीतमनलासेवायामिति, कारणानि मोक्षस्य ज्ञानादीनि, तानि च परिपूर्णानि तुशब्दादनुपातानि च, अनुपहतत्वं च चारित्रस्योद्मादिदोषपरिशुद्धाहारग्रहणे सति, नान्यथा, ततोऽभिः स्थानराहारो यतिभिध इत्येतदा वक्तव्यम् , अत आहारपिण्डेनेहाधिकारः ।। तदेवमुक्तः पिण्डः, सम्पत्पेषणा वक्तव्या, ततः। पिण्डस्योपसंहारमेषणायाधोपक्षेपं चिकीरिदमाह संखेवर्षिडियत्थो एवं पिंडो मए समक्खाओ । फुडवियडपायडत्थं वोच्छामी एसणं एत्तो ।। ७२ ।। व्याख्या एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण 'सक्षेपपिण्डितार्थ: सोपेण-समासेन सामान्यरूपतयेत्यर्थः पिण्डितः-एकत्र मीलितः तात्पर्यमात्रव्यवस्थापितोऽर्थः-अभिधेयं यस्य स तथारूप: पिण्डो मया व्याख्यातः, 'इत:' ऊर्द्धम् एषणाम् एषणाभिधायिका गाथासन्ततिं ' स्फुटविकटमकटार्थी स्फुट:-निर्मल: न तासानवबोधेन कइमलरूपः विकट:--सूक्ष्ममतिगम्यतया दुर्भेदः प्रकट:-तथाविधविशिष्टवचनरचनाविशेषतः सुखप्रतिपायो योऽक्षरेष्वव्याख्यातेष्वपि प्रायः स्वयमेव परिस्फुरचिव लक्ष्यते स प्रकट इति भावार्थः अर्थःअभिधेयं यस्याः सा तथा तां वक्ष्ये ॥ तत्र तसभेदपर्यायव्याख्येति प्रथमतः मुखावयोधार्थमेषणाया एकाधिकान्यभिपिरसुराह दीप अनुक्रम [८६] ~59~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [८८] » “नियुक्ति: [७३] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७३|| एसण गवेसणा मग्गणा य उग्गोवणा य बोद्धव्वा । एए उ एसणाए नामा एगढ़िया होति ॥ ७३ ॥ व्याख्या--एषणा गवेषणा मार्गणोद्गोपना एतानि चशब्दादन्वेषणाप्रभृतीनि चैषणाया एकाथिकानि नामानि भवन्ति, तत्र 'इषु इच्छायां' एषणम् एषणा इच्छा, गवेषणा-अन्वेषणा गवेपणं गवेषणा, मार्गणं मार्गणा, उद्गोपनम् उद्रोपना ।। एवं नामान्यभिधाय सम्पति भेदानभिधित्सुराह नाम ठवणा दबिए भावमि य एसणा मुणेयव्वा । वे भावे एकेकया उ तिबिहा मुणेयव्वा ॥ ७ ॥ व्याख्या-एपणा चतुविधा ज्ञातव्या. तयथा-नामैपणा स्थापनैषणा तथा 'व्ये 'द्रव्यविषयैषणा 'भावे भावविपया च, तब नामैषणा एषणा इति नाम यदा-जीवस्याजीवस्य वैषणाशब्दान्वर्थरहितस्य एषणा इति नाम क्रियते सनामनामवतोरभेदोपचारात्, यदानाना एषणा नामैषणा इति व्युत्पत्तेनामैषणेत्यभिधीयते, स्थापनैषणा एपणाचतः साध्वादेः स्थापना, इहैषणा साध्वादेराभिन्ना तत उपचारात्साध्वादिरेव एषणेत्यभिधीयते, ततः स स्थाप्यमानः स्थापनैषणा, स्थाप्यते इति स्थापना स्थापना चासौ एवणा च स्थापनैषणा, द्रव्यषणा द्विधा-आगमतो नोआगमतच, तत्राऽऽगमत एपणाशब्दार्थस्य ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, 'अनुपयोगो द्रव्य मिति वचनात् , नोआगमतविधा, तद्यथा-शरीरद्रव्यैषणा भव्यशरीरद्रव्यषणा ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यपणा च, तत्रैषणाशब्दार्थज्ञस्य यच्छरीरमपगतजीवित सिद्धशिलातलादिगतं तद्भूतभावतया ज्ञशरीरद्रव्यैपणा, यस्तु वालको नेदानीमेषणाशब्दार्थमवबुध्यते अथ चापत्या तेनैव शरीरसमुछ्येण परिवर्द्धमानेन भोत्स्यते स भाविभावकारणत्वाद्भव्यशरीरद्रव्यैषणा, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता तु द्रव्यैपणा सचित्तादिद्रव्पविष-| दीप अनुक्रम [८८] | 'एषणा' संबंधी कथनं आरभ्यते ~ 60 ~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९०] .→ “नियुक्ति: [७५] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७|| पिण्डनियु- या, भाषणाऽपि द्विधा-आगमतो नोआगमतच, तत्र आगमत एषणाशब्दार्थस्य परिज्ञाता तत्र चोपयुक्तः, 'उपयोगो भावनिक्षेप' इति एषणानिमेलयगि- वचनात्, नोआगमतो गवेषणाएषणादिभेदात विधा, तत्र नामैपणां स्थापनैपणां द्रव्यैषणां आगमतो नोआगमतश्च शशरीरभव्यशरीररूपा क्षेपाः रापाटाचा भावेषणां वागमतः सुज्ञानत्वादनादृत्य शेषां द्रव्यषणां भावैपणां च व्याचिख्यासुरिदमाह-'दवे' इत्पादि, द्रव्ये-द्रव्यविषया 'भावे ॥२९॥ च' भावविषया, एकैका 'प्रिविधा विकारा ज्ञातव्या, तत्र द्रव्यविषया त्रिविधा सचित्तादिभेदात् , तयथा-सचित्तद्रव्यविषया अचित्तद्रयविषया मिश्रद्रव्यविषया च, भावविषयापि विधा गवेषणादिभेदात् , तद्यथा-गवेषणषणा ग्रहणपणा ग्रासैपणा च ॥ तत्र द्रव्यैषणापि सचित्तद्रव्यविषया विधा, तयथा-दिपदविषया चतुष्पदविषया अपदविषया च, तत्र प्रथमतो द्विपदद्रव्यविषयामेपणामाइ-- जम्मं एसइ एगो सुयरस अन्नो तमेसए नहूँ । सत्तुं एसइ अन्नो पएण अन्नो य से मच्चु ॥ ७५ ॥ व्याख्या-इह यद्यपि एपणादीनि चत्वारि नामानि मागेकाथिकान्युक्तानि, तथाऽपि तेषां कथश्चिदर्थभेदोऽप्यस्ति, तथाहि-एषणा बा इच्छामात्रमभिधीयते, तच गवेषणादावपि विद्यते, अत एव गवेषणादय एपणायाः पर्याया उक्ताः, गवेषणादीनां तु परस्परं नियतोऽप्यर्थ-| भेदोऽस्ति, तथाहि-गवेषणमनुपलभ्यमानस्य पदार्थस्य सर्वतः परिभावन, मार्गण-निपुणबुद्धयाऽन्वेषणम् , उगोपन-विवक्षितस्य पदार्थस्य जनप्रकाशचिकीपी, तत एतेषां क्रमेणोदाहरणान्याह-एकः कोऽप्यनिर्दिष्टनामा देवदत्तादिकः सन्तस्यादिनिमित्तं सुतस्य 'जन्म' उत्पत्ति माएपते' इच्छति, इदमेषणाया उदाहरणम्, अन्यः पुनः कोऽपि यज्ञदत्तादिकः सुतं कापि नष्टम् 'एपते' गवेषयते, इदं गवेषणाया उदा-1 नाहरणम् , अन्यः कोऽपि विष्णुमित्रादिकः 'पदेन' पदानुसारेण धूलीबहलभूमिसमुत्थचरणप्रतिविम्बानुसारेणेत्यर्थः, शत्रुम् 'एप' मृगयते ॥ इदं मागंणाया उदाहरणम्, अन्यः पुनः 'से' तस्य शत्रोः 'मृत्यु'मरणम् 'एपते । उद्गोपयति, सर्वजनप्रकाशं मृत्युमभिधातुमभिल दीप अनुक्रम [९०] 6660400000000000०.००० 4 ~61~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९०] → “नियुक्ति: [७५] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७|| पतीत्यर्थः, इदमुद्रोपनाया उदाहरणम् । तदेवमुक्ता सचित्तद्विपदद्रव्यविषया एषणा, सम्मति सचित्तचतुष्पदापदविषयां मिश्रविषयामचिविषयां च प्रतिपादयति एमेव सेसएसुवि चउप्पयापयअचित्तमीसेसु । जा जत्थ जुज्जए एसणा उ तं तत्थ जोएज्जा ॥ ७६ ॥ व्याख्या-'एवमेव ' द्विपदेष्विव 'शेषेष्वपि ' द्विपदेभ्यो व्यतिरिक्तेष्वपि चतुष्पदापदाचित्तमिश्रेषु गवादिवीजपूरकादिद्रम्मादिकटककेयूरायाभरणविभूषितसुतादिरूपेषु द्रव्येषु विषयेषु या यत्रैषणा-इच्छागवेषणामार्गणादिरूपा 'युज्यते' घटते तां तत्र पूर्वोक्तगा-1 यानुसारेण योजयेत्, यथा कोऽपि दुग्धाभ्यवहाराय गामिच्छति, कोऽपि पुनस्तामेव कापि नष्ट गवेषयते, अन्यः पुनस्तामेव गां परास्क|न्दिभिरपहियमाणां गवादिपदप्रतिविम्बानुसारेण मृगयते, कोऽपि पुनः स्वशौर्यप्रकटनाय जनप्रकाशं व्याघ्रमपगतासं चिकीर्षति, एवमपदादिष्यपि भावना कायों ।। उक्ता द्रव्येषणा, साम्मतं भावेषणां निमकारामभिषित्सुराह भावेसणा उ तिविहा गवेसगहणेसणा उ बोद्धव्वा । गासेसणा उ कमसो पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥ ७७ ।। व्याख्या-'भावः' झानादिरूपः परिणामविशेषः वद्विषया एषणा भाषणा, यथा ज्ञानदर्शनचारित्राणामेकदेशतः समूलपातं वा। घावो न भवति तथा पिण्डादेषणमिति भावः, साऽपि 'त्रिया' त्रिप्रकारा 'क्रमशः' क्रमेण प्रज्ञता वीतरागैः, केन क्रमेण ! इत्यत आहगवेसे 'त्यादि, पूर्व गवेषणेषणा ततो ग्रहणपणा ततो ग्रासैषणा || कस्मात्पुनरित्वं गवेषणादीनां क्रम ? इत्याइअगविट्ठस्स उ गहणं न होइ न य अगहियरस परिभोगो । एसणतिगरस एसा नायव्वा आणुपुथ्वी उ ॥ ७८ ॥ दीप अनुक्रम [९०] SAREauraton Intemational ~62~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१३] → “नियुक्ति: [७८] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं ।" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||७८|| दीप अनुक्रम [९३]] पिण्डनियु-18 व्याख्या-इह न 'अगवेषितस्य ' अपरिभावितस्य पिण्डादेग्रहण, नाप्यगृहीतस्य परिभोगः, तत एपगात्रिकस्य एषा ' पूर्वोक्ता |गवेपणानि तेमेलयगि-18'आनुपुनी' क्रमो ज्ञातव्यः ।। सम्पति गवेषणाया नामादीन् भेदानाह क्षेपाः रीयात्तिः नामं ठवणा दविए भावंमि गवेसणा मुणेयव्वा । दव्वंमि कुरंगगया उग्गमउप्पायणा भावे ॥ ७९ ॥ ॥३०॥ व्याख्या-'नाम 'ति नामगवेषणा स्थापनागवेषणा एते च एपणे इव सप्रपञ्च स्वयमेव भावनीये, 'द्रव्ये ' द्रव्यविषया 'भावे भावविषया, तत्र द्रव्यविषया आगमनोभागमभेदाद्विधा, तत्राऽऽमतो गवेषणाशब्दार्यज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, 'अनुपयोगो द्रव्य 'मिति । वचनात् , नोआगमतस्त्रिधा शरीरभव्यशरीरतद्वयतिरिक्तभेदात् , तत्र ज्ञशरीरभव्यशरीररूपे द्रव्पगवेषणे एषणे इव भावनीये, शशरीरभव्य-MAI शरीरव्यतिरिक्तगवेषणा सचिचादिद्रव्यविपया, तत्र कुरङ्गगजा उदाहरणं, तथा चाह-दमि कुरंगगया' द्रव्ये-द्रव्यविषयायां गवेपणायां कुरङ्गाः-मृगाः गजाः-हस्तिनो दृष्टान्ताः, 'भावे' भावविषया गवेषणा 'उग्गम उपायणचि सूचनात्सूत्रमिति न्यायागमोत्पाद-14 नादोपविमुक्काहारविषया ।। यदुक्तं-'दब्बंमि कुरंगगया' इति, तत्र कुरणादृष्टान्तं गाथादिकेनाभिधित्सुराह जियसत्तु देवि चित्तसभ पविसणं कणगपिट्ठपासणया । दोहल दुब्बल पुच्छा कहणं आणा य पुरिसाण॥८॥ सीवन्निसरिसमोयगकरणं सीवन्निरुक्खहेढेसु । आगमण कुरंगाणं पसत्थ अपसत्थ उवमा उ ॥ ८१ ॥ व्याख्या-मुगम, नवरं भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदं-क्षितिप्रतिष्ठितं नाम नगरं, तत्र राजा जितशत्रुस्तस्य भार्या पट्टमहा-81 देवी नाम्ना सुदर्शना, तस्याः कदाचिदापन्नसत्त्वाया राज्ञा सह चित्रसभायां प्रविष्टायाचित्रलिखितान् कनकपृष्ठान्मृगानवलोक्य तन्मांसभ-1 In३०॥ ~634 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९६] .” “नियुक्ति: [८१] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: . प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८१|| क्षणे दोहदमजायत, दौहदे चासम्पद्यमाने तस्याः खेदवशतः शरीरस्य दौर्बल्यमभवत्, तच्च दृष्ट्वा नृपतिः सखे तां पृष्टयान् , यथा-दा प्रिये ! किमतीव शरीरे तब दौर्बल्यमजायत !, ततः सा दोहदमचकयत । ततो राजा सत्वरं कनकटकुरकानयनाव पुरुषान् प्रेषितवान् , तिऽपि च पुरुषाः स्वचेतसि चिन्तयामासुः-इह यस्य यदलभं स तत्रासक्तः सन् प्रमादभावं भजमानः मुखेनैव बध्यते, कनकपृष्ठानां च कुरगाणामिष्टानि श्रीपीफलानि, तानि च सम्पति न विद्यन्ते, ततस्तत्सदृशान्मोदकान् कृत्वा श्रीपणांक्षतळेषु सर्वतः पुञ्जकपुञ्जका-|| कारेण क्षिप्त्वा तेषां समीपे पाशान स्थापयाम इति तथैव कृतं, ते च कनकपृष्ठा रुरवो निजेन यूधाधिपतिना सह स्वेच्छया परिभ्रमन्तस्तत्रागताः, यूथाधिपतिय श्रीपणीफलाकारान् पुञ्जकपुञ्जकस्थितान्मोदकानवलोक्य मृगानुक्तवान् , यथा--भो रुखो ! युष्माकं बन्धनार्थमिदं केनापि धूर्तेन कृतं कूटं वर्तते, यत्तो न सम्पति श्रीपर्णीफलानि सम्भवन्ति, न च सम्भवन्त्यपि पुञ्जकपुञ्जकाकारेण घटन्ते, अथ : मन्पेयास्तथाविधपरिभ्रमद्वातसम्पर्कतः पुजकपुञ्जकाकारेण घटन्ते, तदप्ययुक्तं, ननु पुरापि वाता वान्ति स्म, न तु कदाचनाप्पेवं पुञ्जकपु-18 अकाकारण भवन्ति स्म, तथा चैतदेव नियुक्तिकारः पठति विइअमेयं कुरंगाणं, जया सीवन्नि सीयइ । पुरावि वाया वायंता न उणं पुंजकपुंजका ॥ ८२ ॥ व्याख्या-'विदित' प्रतीतम् , एतत्कुरगाणां यदा श्रीपणी 'सीदति' धातूनामनेकार्थत्वाकलति, तस्मान्नेदानी फलानि सम्भवन्ति, सम्भवन्तु वा तथाऽपि कथं पुजकपुञ्जकाकारेण स्थितानि !, वातशाचेन्ननु पुरापि वाता वान्ति स्म, न पुनरेवं पुञ्जकपुञ्जकाः फलानामभवन, तस्मास्कूटमिदमस्माकं बन्धनाय कृतं वत्तते इति मा यूयमेतेषामुपकण्ठं गमत, एवमुक्ते यैस्तद्वचः प्रतिपनं ते दीर्घजीविनो बनेषु स्वेच्छाविहारसुखभागिनश्चाजायन्त, यैस्त्वाहारलम्पटतया तदवो न प्रतिवनं ते पाशवन्धनादिदुःखभागिनोऽभवन् । इह या दीप अनुक्रम ~64~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९७] » “नियुक्ति: [८२] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं [] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: N प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८|| दीप अनुक्रम [९७]] पिण्टनियु- थाधिपतेः श्रीपीफलसदृशमोदकद्रव्यसदोषत्वनिर्दोषत्वपर्यालोचनं सा द्रव्यगवेषणा । इह निीतकारण 'पसत्यअपसत्य उवमा उ' इति द्रव्यागवेषतर्मलयाग-ALIENCE रीयावृत्तिः प्रतिपादयता दार्शन्तिकोऽप्यर्यः सूचितो द्रष्टव्यः, स चाय-पूयाधिपतिस्थानीया आचार्याः मृगयूथस्थानीयाश्च साधवः, तत्र ये गुरुनियोगतणार्या कुरा आधाकादिदोषदुष्टाहारपरिहारिणस्ते प्रशस्तकुरकोपमा द्रष्टव्याः, ये वाहारलाम्पटवतो गुज्ञिामपाकृत्याधाकादिपरिभोगिणो | दृष्टान्तः ३१॥ बभूवः ते अमशस्तकुरङ्गसदृशा वेदितव्याः, अत्रार्थे च कथानकमिदं-हरन्तो नाम सन्निवेशः, तत्र यथाऽऽगर्म विहरन्तः समिता नाम सूरयः समाययुः, तत्र च मिनदचो नाम आवक आसीत् , स च जिनवचनसाधुभक्तिपरीतचेता दानशौण्डः कदाचित्साधुनिमित्तं भक्तमाधाकर्म कारितवान, सूरयव सर्वमपि ते वृत्तान्तं कथन्नित्परिज्ञातवन्तः, ततस्तैः साधवस्तत्र प्रविशन्तो निवारिताः, यथा-भोः। साधवस्तत्र साधुनिमित्त आहारः कृतो वर्चते इति मा तत्र पूर्य गमत, एवमुक्ते यैस्तद्वचः प्रतिपन ते आधाकर्मपरिभोगजनितपापकमेणा न बद्धा गुर्वाज्ञा च परिपालिता, ततः शुद्धशुद्धतरसंयमप्रवृत्तिभावतो मुक्तिसुखभागिनोऽभवन् , यैस्त्वाहारलाम्पटयतो भाविनं| दोषमवगणय्याधाकर्मणि झपा इव बडिशनिवेशिते मांसे मवृत्ताः ते कुगतिहेत्वाधाकर्मपरिभोगतो गुवोज्ञाभावश्च दीर्घतरसंसारभागिनो जाताः।। साम्पतं गजदृष्टान्तमाह हत्थिरगहणं गिम्हे अरहट्टेहिं भरणं च सरसीणं । अच्चुदएण नलवण आरूढा गयकुलागमणं ॥ ८३ ॥ - व्याख्या-दस्तिग्रहणं मया कार्यमित्येवं राज्ञश्चिन्ता, ततस्तद्भहणाय ग्रीष्मकालेऽपि पुरुषप्रेषणा तैश्च सरसीनामरघट्टकैर्भरणं । ॥३१॥ कृतं, ततोऽत्युदकेन नलवनान्यतिशयेन प्ररूढानि, ततो गजकुलस्यागमनमिति गाथातरार्थः ॥ भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तवेदम-आनन्दं नाम पुरं, तत्र रिपुमईनो नाम राजा, तस्य भार्या धारिणी, तस्य च पुरस्य प्रत्यासर्व गजकुलशतसहस्रसंकुलं ~65M Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८३ || दीप अनुक्रम [82] मूलं [९८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ********* “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं " ८० --> “निर्युक्तिः [८३] + आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः विन्ध्यमरण्यं ततो राजा कदाचिद् गजबलं महावलमित्यवश्यं मया गजा ग्रहीतव्या इति परिभाव्य गजग्रहणाय सत्वरं पुरुषान् प्रेरयामास, ते च पुरुषाञ्चिन्तितवन्तो यथा- गजानां नलचारिरभीष्टा, सा च सम्पति ग्रीष्मकाले न सम्भवति, किन्तु वर्षासु तत इदानीमरघटैः सरसीर्विभ्रमो येन नलवनान्यतिप्ररूढानि भवन्तीति तथैव कृतं नलवनप्रत्यासन्नाच सर्वतः पाशा मण्डिताः, इतच परिभ्रमन्तो यूथा| धिपतिसहिता इस्तिनः समाजग्मुः, यूयाधिपतिश्च तानि नलवनानि परिभाव्य गजान् प्रति उवाच -भोः स्तम्बेरमा ! नामूनि नलवनानि * स्वाभाविकानि, किन्त्वस्माकं बन्धनाय केनापि धूर्चेन कृतानि कूटानि, यत एवं नलवनान्यतिप्ररूढानि सरस्यो वाऽतीव जलसम्भृता वर्षासु सम्भवन्ति नेदानीं ग्रीष्मकाले, अथ वीरन् प्रत्यासन्नविन्ध्यपर्वतनिर्झरणप्रवाहत एवं सरस्यो भृता नलवनानि चातिप्ररूढानि * ततो नामूनि कूटानि, तदयुक्तम्, अन्यदाऽपि हि खलु निर्झरणान्यासरिन, न चैवं कदाचनाप्यतिजकभृताः सरस्योऽभूवन, तथा चैतदर्थसङ्ग्राहिकामेव नियुक्तिकारो गाथां पठति विइयमेयं गजकुलाणं, जया रोहंति नलवणा । अन्नयावि झरंति हृदा, न य एवं बहुओद्गा ॥ ८४ ॥ व्याख्या - विदितमेतद् गजकुलानां यदा 'रोहन्ति ' अतिशयेन प्ररूढानि भवन्ति नलवनानि, तस्मान्नामुनि स्वाभाविकानि, अथ निर्झरणवशादेवं प्ररूढानि तत आह-अन्यदाऽपि इदा झरन्ति न त्वेवं कदाचनापि बहूदकाः सरस्योऽभवन् तस्माद्धर्तेन केनाप्यमूनि कृतानि कूटानीति मात्र यूयं यासिष्ट, एवमुक्ते यैस्तद्वचः प्रतिपन्नं ते दीर्घकालं वनस्वेच्छाविहारसुखभागिनो जाताः, यैस्तु न कृतं ते चन्धबुभुक्षादिदुःखभागिनः, इहापि गजयूथाधिपतेर्नळ वनसदोषनिर्दोषरूपतापरिभावनं द्रव्यगवेषणा, दाष्टन्तिकयोजना तु पूर्व Eucation Intention For Penal Use Only ~66~ waryra Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [९९] → “नियुक्ति: [८४] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उद्गमस्यैकार्थिकानि भेदाच प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८४|| पिण्डनियु- चत स्वयमेव भावनाया, तदेवमुक्ता द्रव्यगवेषणा, साम्पतं भावगवेषणा कर्तव्या, सा च उगमाशुद्धाहारविषया, तत्र प्रथमत उद्गमस्यै- तर्मलयगि काथिकानि नामानि नामादिकांश्च भेदान प्रतिपादयतिरीयाचिः उग्गम उग्गोवण मग्गणा य एगद्रियाणि एयाणि । नामं ठवणा दविए भावमि य उग्गमो होई ॥८५॥ | ॥३२॥ व्याख्या-उद्गम उगोपना मार्गणा च एकाथिकान्येतानि नामानि, स चोद्मश्चतुर्धा भवति, तयथा-'नाम'ति नामोद्गमः-यद- दम इति नाम, अथवा जीवस्पाजीवस्य वा यद् उद्गम इति नाम स नामनामवतोरभेदोपचारात्, यद्वा नान्ना उद्मो नामोद्गम इति व्युत्पत्तेनोंमोद्रमः, स्थापनोद्गमः उद्मः स्थाप्यमानः, 'द्रव्ये' द्रव्यविषयः, 'भावे' भावविषयः । तत्र द्रव्योगमो विवा-आगमतो नोआगमतथ, नोआगमतोऽपि त्रिधा-ज्ञशरीरभव्यशरीतद्वयतिरिक्तभेदात् , तत्राऽऽगमतो नोआगमतश्च ज्ञशरीरभव्यशरीररूपी द्रव्यगवेपणा६ वद् भावनीयौ, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं तु द्रव्योगमं तथा नोभागमतो भावोद्गमं च प्रतिपादयति दुव्बंमि लड्डुगाई भावे तिविहोग्गमो मुणेयव्यो । दसणनाणचरिते चरित्तुगमेणेत्थ अहिगारो ॥ ८६ ॥ व्याख्या-'द्रव्ये ' द्रव्यविषये उद्गमः 'लड्डुकादौ' लड्डुकादिविषयो लड्डुकादेः सम्बन्धी वेदितव्या, अत्राऽऽदिशब्दाद ज्योतिरादिपरिग्रहा, तथा 'भावे' भावविषयः 'त्रिविधः' त्रिपकारः ज्ञातव्यः, तद्यथा-'दर्शने ' दर्शनविषयः ज्ञाने' ज्ञानविषयः, चारित्रे' चारित्रविषयः, अत्र तु चारित्रोद्गमेनाधिकार:-प्रयोजनं, चारित्रस्य प्रधानमोक्षाङ्गत्वात्, तथाहि-ज्ञानदर्शने सती अपि न चारित्रमन्तरेण कर्ममलापगमाय प्रभवतः, श्रेणिकादौ तबाऽनुपलम्भात्, चारित्रं पुनरवश्यं ज्ञानदर्शनाविनाभावि स्वरूपेणाप चाभि दीप अनुक्रम [९९]] ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀. ॥३२॥ 'उद्गम स्य पर्याया: एवं तस्य विषयक वर्णनं ~67~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०] → “नियुक्ति: [८६] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||८|| ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ नवकम्मोपादाननिषेधपूर्वोपार्जितकापगमकरणस्वरूपं, ततस्तत्प्रधानं मोक्षस्याङ्गं, प्रधानानुयायिन्पश्च प्रेक्षावतां प्रात्यः, ततोऽत्र चारित्रोद्गमेन प्रयोजनम् ।। लड्डुकादेरित्यत्रादिशब्देन लब्धं ज्योतिरुद्रमादिरूपं द्रव्योगमं विवरीतुमाइ| जोइसतणोसहीणं मेहरिणकराणमुग्गमो दधे । सो पुण जचो य जया जहा य दवुगामो वयो । ८७ ॥ व्याख्या-ज्योतिषां-चन्द्रसूर्यादीनां तृणानां दर्भादीनां औषधीनां-शाल्यादीनां मेघानां-जीमूतानां ऋणस्य-उत्तमाय दातव्यस्य कराणा-राजदेवभागानां, उपलक्षणमेतत् अन्येषामपि द्रव्याणां, य उद्गमः स 'द्रव्ये' ग्यविषयो द्रम्पप सम्बन्धी वेदितव्यः | स पुनद्रव्योगमः 'यतः' यस्मात्सकाशात 'यदा' यस्मिन् काले 'यथा' येन प्रकारेण भवति तथा वाच्यः, तत्र ज्योतिषां मेघानां च। आकाशदेशात् तृणानामौषधीनां च भूमेः ऋणस्य व्यवहारादेः कराणां नृपतिनियुक्तपुरुषादेः, तथा यदेति ज्योतिषां मध्ये सूर्यस्य प्रभाते शेषाणां तु कस्यापि कस्याश्चिदेलायां तृणादीनां प्रायः श्रावणादौ, तथा यथेति ज्योतिषां मेघानां चाऽऽकाशे प्रसरणेन तृणानामौषधीनां च भूमी स्फोटयित्वा ऊर्दू निस्सरणेन ऋणस्य पञ्चकशतादिवर्द्धनरूपेण कराणां प्रतिवर्ष गृहस्य गृहस्य उम्मद्वयादि ग्राह्यमित्येवंरूपेण, एवं शेषाणामपि द्रव्याणां यतो यदा यथा च यथासम्भवमुद्रमो भावनीयः । इद पार 'दब्बंमि लड्डुगाई' इत्युक्तं, तेन च लड्डुकप्रियकुमारकथानकं सूचितम् , अतस्तदेवेदानी गाथात्रयेणोपदर्शयति वासहरा अणुजत्ता अत्थाणी जोग किड्डकाले य । घडगसरावेसु कया उ मोयगा लड्डुगपियरस ॥ ८८॥ जोग्गा अजिण्ण मारुय निसग्ग तिसमुत्थ तो सुइसमुत्थो । आहारुग्गमचिंता असुइति दुहा मलप्पभवो ॥ ८९ ॥ दीप अनुक्रम [१०१] . . ~68~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०५] .→ "नियुक्ति: [९०] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं ।" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: द्रव्योद्गमे तेर्मलयगिरीयावृत्तिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||९०|| तस्सेवं बेरगुग्गमेण सम्मत्तनाणचरणाणं । जुगवं कमुग्गमो वा केवलनाणुग्गमो जाओ ॥ ९ ॥ व्याख्या-'वासगृहात् ' वासभवनात् अनुयात्रा-निर्गमः, तत आस्थान्यां योग्य क्रीडा सा व्यधीयत, ततः 'काले' भोजन- लड्डुकमिवेलायर्या तस्य 'लड्डुकप्रियस्य' मोदकप्रियस्य कुमारस्य योग्या घटेषु शरावेषु च कृत्वा मोदका जनन्या प्रेषिताः, ते च परिजनेन सह स्वेच्छ तेन भुक्ताः, ततो भूयोऽपि योग्यक्रीडा निरीक्षणासक्तचित्ततया तस्य रात्री जागरणभावतस्ते मोदका न: कथा जीणोंः, ततोऽजीणेदोषप्रभावतोऽतीव पूतिगन्धो मारुतनिसर्गोऽभवत् , तत आहारोगमचिन्ता जाता, यथा 'त्रिसमुत्या' घृतगुडक-1 णिकासमुद्भवा एते मोदकाः, ततः शुचिसमुत्थाः, सूत्रे च जातावेकवचनं, केवळ द्विधा मलप्रभवोऽयं देहः, ततस्तत्सम्पर्कतोऽशुचयो | जाता इत्येवं तस्य वैराग्योरमेन ज्ञानदर्शनचारित्राणां युगपत्क्रमेण वा उद्मो जातः, ततः केवलज्ञानोद्गम इति गाथातरार्थः ।। भावार्थस्तु | कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-श्रीस्थलकं नाम नगरं, तत्र राजा भानुः, तस्य भार्या रुक्मिणी, तया सुरूपनामा तनयः, स च यथासुखं पञ्चभिधात्रीभिः परिपाल्यमानः प्रथममुरकुमार इवानेकस्वजनहृदयाभिनन्दनं कुमारभावमधिरुरोह, ततः शुक्लपक्षचन्द्रबिम्बामिव | प्रतिदिवसं कलाभिरभिवर्द्धमानः क्रमेण कमनीयकामिनीजनमनःप्रहादकारिणीं यौवनिकामधिजगाम, तस्मै च स्वभावत एव रोचन्ते मोदकाः | ततो लोके तस्य मोदकपिय इति नाम प्रसिद्धिमगमत, स च कुमारोऽन्यदा वसन्तसमये वासभवनात पातरुत्थाय आस्थानमण्डपि-1 कायामाजगाम, तत्र च निजशरीरलवणिमापाकृतमुरसुन्दरीरूपाहडनरमनोहरविलासिनीजनगीतनृत्तादिकं परिभावयितुं पावत्तेत, तत्र च स्थितस्य भोजनवेलायामागतायां भोजननिमिचं जननी प्रधानशरावसम्पुटेषु शेषपरिजननिमित्तं च घटेषु कृत्वा मोदकान् प्रेषितवती, ततस्तेन परिजनेन सह मोदका यथेच्छं बुभुजिरे, ते च रात्रावपि गीतनृत्तादिव्यालिप्तचिचतया जागरणभावतो न जीर्णाः, ततोऽजीण दीप अनुक्रम [१०५] ~69~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०५] → “नियुक्ति: [९०] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||९०|| दोषप्रभावतोऽधोवातोऽतीय पूतिगन्धिनिर्जगाम, तद्न्धपुद्गलाश्च सर्वतः परिभ्रमन्तस्तन्नासिका प्रविविशुः, ततस्तं तथारूपं पूतिगन्धमाघ्रया चिन्तयामास, यथाऽमी मोदका घृतगुडकणिकादिनिष्पन्नास्ततः शुचिद्रव्यसमुत्था एवैते केवलमयं यो देहो जननीशोणितजनक्शुक्ररूपद्विधामलमभवत्वादशुचिरूपः, तत्सम्पर्यवशतोऽशुचिरूपा जाताः, दृश्यन्ते च कर्पूरादयोऽपि पदार्थाः स्वरूपतः सुरभिगन्धयोऽपि देहसम्प-18 केतः क्षणमात्रेण दुरभिगन्धयो जायमानाः, क्षणान्तरे शरीरगन्धस्यैव पूत्पात्मकस्योपलम्भात् , तत इत्यमशुचिरूपस्यानेकापायशतसकुलस्य शरीरस्यापि कृते ये गृहमासाद्य नरकादिकुगतिविनिपातकारीणि पापकर्माणि सेवन्ते ते सचेतना अपि मोहमयनिद्रोपहतविवेकचेतनत्वादचेतना एव परमार्थतो बेदितव्याः, यदपि च तेषां शास्त्रादिपरिज्ञानं वदपि परमार्थतः शरीरायासफलं, यद्वा तदपि पापानुवन्धिकम्मोदयतस्तथाविधक्षयोपशमनिवन्धनत्वादशुभकर्मकार्यवेति तस्ववेदिनामुपेक्षास्पदं, विद्वचा हि सा तत्त्ववेदिनां प्रशंसाहो या यथाऽवस्थितं वस्तु विविच्य हेयोपादेयहानोपादानप्रवृत्तिफला, या तु सकलजन्माभ्यासमवृत्या कथमपि परिपाकमागवाऽपि सती सदैव तथाविधपापकम्मोदयवशत एकान्ताशुचिरूपेष्वपि युवतिजनवदनजघनवक्षोरुहादिशरीरावयवेषु रामणीयकव्यावर्णनफला सा इहलोकेऽपि शरीरायासफला परलोके च कुगतिविनिपातहेतुरित्युपेक्षणीया, ये पुनः परमर्पयः सर्वदैव सर्वज्ञमतानुसारितोगमशाखाभ्यासतो विदितय थाऽवस्थितहेयोपादेयवस्तव इत्थं शरीरस्याशुचिरूपतां परिभाष्य युवतिकलेघरेषु नाभिरज्यन्ते नापि कम्मोणि स्वशरीरकृते पापानि समाचिरन्ति किन्तु शरीरादिनिस्पृहतया निरन्तरं सम्यक्शास्त्राभ्यासतो ज्ञानामृताम्भोधिनिमनाः सममित्रशत्रवः परिषहादिभिरजिताः सक लकम्मनिम्मूलनाय यतन्ते ते धन्यास्ते तत्त्वेदिनस्तानहं नमस्करोमि तदनुष्ठितं च मार्गमिदानीमनुतिष्ठामि, इत्येवं तस्य मोदकमियस्य || कुमारस्य वैराग्योद्गमेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामुद्रमो बभूक, ततः केवलज्ञानोद्गम इति ॥ तदेवमुक्तं मोदकप्रियकुमारकथानकं, सम्पति दीप अनुक्रम [१०५] ~ 70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||९०|| दीप अनुक्रम [१०५ ] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [ १०५ ] ● → “निर्युक्तिः [ ९०] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं " FO मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः पिण्डनिर्यु यदुक्तं चारित्रोद्मेनाधिकार' इति, तत्र चारित्रस्योमेनाधिकारः शुद्धस्य द्रष्टव्यो नाशुद्धस्य, अशुद्धस्य मोक्षलक्षण कार्यसम्पादकत्वालगियोगात्, न खलु बीजमुपहतमङ्कुरं जनयति, सर्वत्राप्यनुपहतस्यैव कारणस्य कार्यजनकत्वात्, चारित्रस्य व शुद्धेः कारणं द्विवा, तयथाआन्तरं वाद्यं च ते द्वे अपि प्रतिपादयति यावृत्तिः ॥ ३४ ॥ दंसणनाणप्पभवं चरणं सुसु तेसु तरसुद्धी । चरणेण कम्मसुडी उग्गमसुद्धा चरणसुद्धी ॥ ९१ ॥ व्याख्या --- इह यतो ज्ञानदर्शनप्रभवं चारित्रं, ततस्तयोः शुद्धयोस्तस्य चारित्रस्य शुद्धिर्भवति नान्यथा, तस्मादवश्यं चारित्रशुद्धिनिमित्तं चारित्रिणा सम्यग्ज्ञाने सम्यग्दर्शने च यतितव्यं यत्न निरन्तरं सद्गुरुचरणकमलपर्युपासनापुरस्सरं सर्वज्ञमतानुसारितर्कागमशास्त्राभ्यासकरणम्, एतेन चारित्रशुद्धेरान्तरं कारणमुक्तम्, अथ चारित्रशुद्धयाऽपि किं प्रयोजनं येनेत्थं तच्छुद्धिरन्वेष्यते ?, अत आह-चरणेन कर्म्मशुद्धिः, चरणेन विशुद्धेन कर्म्मणो-ज्ञानावरणीयादिकस्य शुद्धिः - अपगमो भवति, तदपगमे चात्मनो यथाऽवस्थितस्वरूपलाभात्मको मोक्षः, ततो मोक्षार्थिना चरणशुद्धिरपेक्ष्यते, तथा न केवलयोरेव ज्ञानदर्शनयोः शुद्ध चारित्रशुद्धिः किन्तुद्रमशुद्धौ चारित्रशुद्धिः । एतेन वाह्य कारणमुक्तं, ततश्ररणशुद्धिनिमित्तं सम्यग्दर्शनज्ञानवतापि नियमत उद्रमदोषपरिशुद्ध आहारो ग्राह्यः । ते चौद्रमदोषाः पोडश, तानेव नामतो निर्दिशति Eucation International आहा मुद्देसिय पूईकम्मे ये मीसजाएँ य । ठवणौ पाहुडियाएं पाओअर कीर्य पामिचे ॥ ९२ ॥ परियट्टिएँ अभिडे उम्भिन्ने" मालोहडे" इय । अच्छिज्जे" अणिसैट्टे अज्झोयरे य सोलसमे ॥ ९३ ॥ For Park Lise Only ~71~ उद्मशुद्धेमोसदेतुता ।। ३४ ।। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०८] → “नियुक्ति: [९३] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||९३|| ध्याख्या-'आधाकम्भेति आघानं-आधा उपसर्गादात' इत्यङ्-प्रत्ययः, साधुनिमित्त चेतसः प्रणिधान, यथाऽमुकस्य साधो कारणेन मया भक्तादि पचनीयमिति, आधया कर्म-पाकादिक्रिया आषाकर्म तद्योगाद् भक्ताद्ययाधाकर्म, इह दोषाभिधानसक्रमेऽपि यदोषवतोअभिधानं तदोपदोपवतोरभेदविवक्षया द्रष्टव्यं, यद्वा-आधाय-साधुं चेतसि प्रणिधाय यत्क्रियते भक्तादि तदाधाकम्में, पृषोदरादित्वा | यलोपः १, तथा उद्देशनम् उद्देशः-यावदर्थिकादिप्रणिधानं तेन निर्दृत्तमौदेशिकं २, तथा उद्गमदोषरहिततया स्वतः पवित्रस्य सतो भक्तादेरन्यस्याविशुद्धकोटिकभक्तादेरवयवेन सह सम्पर्कतः पूते:-पूतीभूतस्य कर्म-करणं पूतिकर्म तयोगाद्भक्तायपि पूातकम्म ३, तथा मिश्रेण-कुटुम्बप्रणिधानसाधुप्रणिधानमीलनरूपेण भावेन जातं यद् भक्कादि तन्मिश्रजातं ४, तथा स्थाप्यते-साधुनिमित्तं कियन्तं कालं यावनिधीयते इति स्थापना, यदा-स्थापनं साधुभ्यो देयमितिबुद्धथा देयवस्तुनः कियन्तं कालं व्यवस्थापनं स्थापना, तद्योगादेयमपि स्था-||3|| पना ५, तथा कस्मैचिदिष्टाय पूज्याय वा बहुमानपुरस्सरीकारेण यदभीष्टं वस्तु दीयते तत्माभूतमुच्यते, ततः प्रातमिव भाभृतं साधुभ्यो |३|| भिक्षादिकं देयं वस्तु, प्राभृतमेव प्राभूतिका, 'अतिवर्तन्ते स्वार्थे प्रत्ययकाः प्रकृतिलिङ्गवचनानीति वचनात् पूर्व नपुंसकत्वेऽपि कमत्यये समानीते सति स्त्रीत्वं, यद्वा-प इति प्रकर्षण आ इति साधुदानलक्षणपर्यादया भृता निर्वाचिता यका भिक्षा सा प्राभृता, ततः खार्थिककप्रत्ययविधानात् प्राभूतिका ६, तथा साधुनिमित्तं मण्यादिस्थापनेन भित्ताचपनपनेन वा पादुः-प्रकटत्वेन देयस्य वस्तुनः || करणं प्रादुष्करणं तद्योगाद्भक्ताद्यपि मादुष्करणं, यद्वा प्रादुः-प्रकटं करणं यस्य तत् प्रादुष्करणं ७, तथा क्रीतं यत्साध्वर्थ मूल्येन परिगृहीतं ८, सथा 'पामिथे' इति अपमित्य-भूयोऽपि तव दास्यामीत्येवमभिधाय यत् साधुनिमिचमुछि गृखते तदपमित्यम, इह | १ 'अव्ययस्ये त्यत्राव्ययशब्दसम्बन्धिनो हि स्वादेर्लप, तेन प्रणम्येत्यादौ भावप्रधानत्वेन कोदो अवसभानवा अन्यपदार्थादिसम्बन्धि दीप अनुक्रम [१०८] ~ 72 ~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||९३ || दीप अनुक्रम [१०८] मूलं [ १०८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्यु - तेर्मलयगि यातिः ›❖❖❖� “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) --> ।। ३५ ।। यदपमित्य गृह्यते तदप्युपचारादपमित्यमित्युक्तं ९ तथा परिवर्त्तितं यत्साधुनिमित्तं कृतपरावर्त्त १० तथा अभिहृतं यत्साधुदानाय स्वग्रामात्परग्रामाद्वा समानीतम्, अभि-साध्वभिमुखं हृतं स्थानान्तरादानीतम् अभिहृतमिति व्युत्पत्तेः ११, तथा उद्भेदनम् उद्भिनंसाधुभ्यो घृतादिदाननिमित्तं कुतुपादेर्मुखस्य गोमयादिस्थगितस्योद्घाटनं तयोगादेयमपि घृतादि उद्भिन्नं १२, तथा मालात् पञ्चादेर* पहृतं साध्वर्थमानीतं यद्भक्तादि तन्मालापहृतं १३, तथा आच्छियते-अनिच्छतोऽपि भृतकपुत्रादेः सकाशात्साबुदानाय परिगृह्यते यत् * तदाच्छेयं १४, तथा न निसृष्टं सर्वैः स्वामिभिः साबुदानार्थमनुज्ञातं यत् तदनिसृष्टं १५, तथा अधि-आधिक्येन अवपूरणं स्वार्थदत्ता● द्रहणादेः साध्वागमनमवगम्य तद्योग्यभक्तसिद्ध्यर्थं माचुर्येण भरणम् अध्यवपूरः, स एव स्वार्थिककप्रत्ययविधानादध्यवपूरकः तद्योगाद्भक्ताद्यप्यध्यवपूरकः, षोडश उद्गमदोषाः । तदेवमुक्तान्युद्गमदोषनामानि सम्प्रति 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात्मथमत आधाकर्म्मदोषं व्याचिख्यास्तत्प्रतिबद्धद्वारगाथामाह “निर्युक्तिः [९३ ] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं " ८० आगमसूत्र [४१ / २ ], मूलसूत्र [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Ecation Internationa त्वाभावेनाव्ययसम्बन्धित्वायुक्तं स्यादेर्लुप्, अत्युचैसः पुरुषस्येत्यादौ तु न स्थादेर्लुम्, अतिक्रान्तादिसम्बन्धित्वेनाव्ययसम्बन्धित्वाभावात् नन्वेवमुबैः पुरुषस्येत्यादावपि स्यादेर्लुन्न प्राप्नोति, अत्रापि पुरुपलक्षणान्यपदार्थसम्वन्धिस्यादिभावात् नैवम्, अत्रापि स्यादेरुचैराद्यव्ययसम्बन्धित्वात्, य एवोचैःशब्देन विशेषणतया पुरुषलक्षणोऽन्योऽयं उच्यते तस्यैव हि सम्बन्ध्यत्र स्यादिः, एवमपमित्यमित्यादावपि नाव्ययसम्बन्धित्वाभावात्स्यादेलुप्, अपमित्येत्यनेन प्राकालविशिष्टं भूयोऽपि तव दास्यामीत्येवमभिधानमात्रं यदि प्रोच्यते तथा हि स्यादव्ययसम्बन्धित्वं स्यादेः, न त्वेवमत्र, अपमित्येत्यस्य भूयोऽपि तव दास्यामीत्येवमभिधाय यत्साधुनिमित्तमुच्छिन्नं गृह्यते तस्यान्नादेरभिधानात् तेनात्र अपमित्यदोषसम्बन्धी स्यादिर्न प्राकालविशिष्ट भूयोऽपि तव दास्यामीत्यर्थाभिधायिनोऽपमित्येति सवान्तस्य यथा 'प्रसज्यस्तु निषेधकदि 'त्यत्र प्रसङ्गङ्कृत्वेत्यर्थस्य प्रसज्येत्यस्य सम्बन्धित्वाभावात्स्यादेर्न लुप् प्रसज्यप्रतिषेधेतिसमाससम्बन्धित्वात्स्यादेः । For Parts Only ~73~ 19 00000000 उद्रमदोषाआधाकमांद्याः ॥ ३५ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१०९] → “नियुक्ति: [९४] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||९४|| आहाकम्मिय नामा एगट्ठा कस्स वावि किं वावि । परपक्खे य सपक्खे चउरो गहणे य आणाइ ॥९॥ व्याख्या-इह प्रथमत आधाकम्मिकस्य नामान्येकाथिकानि वक्तव्यानि, ततस्तदनन्तरं कस्यार्थाय कृतमाधाकर्म भवतीति विचारणीयं, तदनन्तरं च किस्वरूपमाषाकर्मेति विचार्य, तथा 'परपक्षः' गृहस्थवर्ग: 'स्वपक्षः' साध्वादिवर्गः, तत्र परपक्षनिमित्तं कृतमाधाकर्म न भवति, स्वपक्षनिमित्तं तु कृतं भवतीति वक्तव्यं, तथा आधाकर्मग्रहणाविषये चत्वारोऽतिक्रमादयः प्रकारा भवन्तीति वक्तव्यं, तथा 'ग्रहणे' आधाकर्मणो भक्तादेरादाने आज्ञादयः 'सूचनात्सूत्रमिति न्यायादाशाभङ्गादयो दोषा वक्तव्याः ॥ तत्रैकाधिकाभिधानलक्षणं प्रथमं द्वारं विवक्षुराह आहा अहे य कम्मे आयाहम्मे य अत्तकम्मे य । पडिसेवण पडिसुणणा संवासऽणुमोयणा चेव ॥ ९५ ॥ व्याख्या-'आहा अहे य कम्मे 'त्ति अत्र कर्मशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, चकारश्च कम्मेत्यनन्तरं समुच्चयाओं द्रष्टव्यः, तत एवं निर्देशो ज्ञातव्य:-श्राधाकर्म अधःकर्म च, तत्राऽऽधाकम्र्मेति प्रागुक्तशब्दार्थम् , अधःकम्र्मेति अधोगतिनिबन्धनं कर्म अधाकर्म, तथाहि-भवति साधूनामाधाकर्म भुञ्जानानामधोगतिः, तन्निबन्धनप्राणातिपाताद्यास्रवेषु प्रवृत्तेः, तथा आत्मानं दुर्गतिमपातकारणतया हन्तिविनाशयतीत्यात्मनं, तथा यत् पाचकादिसम्बन्धि कर्म-पाकादिलक्षणं ज्ञानावरणीयादिलक्षणं वा तदात्मनः सम्बन्धि क्रियते अनेनेति । आत्मकर्म । एतानि च नामान्याधाकर्मणो मुख्यानि सम्पति पुनयः प्रतिषेवणादिभिः प्रकारैस्तदाधाकर्म भवति तान्यप्यभेदविवक्षया | नामत्वेन प्रतिपादयति-पडिसेवणेत्यादि' प्रतिसेव्यते इति प्रतिपेवणं, तथा आधाकर्मनिमन्त्रणानन्तरं प्रतिश्रूयते-अभ्युपगम्यते यत दीप अनुक्रम [१०९] SARERatinintentmatra अथ आधाकर्म दोष संबंधी वर्णनं क्रियते ~ 74~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११०] → “नियुक्ति: [९५] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||९५| दीप अनुक्रम [११०] पिण्डनियु- आधाकर्म तन प्रतिश्रवणं तथा आधाकम्पभोक्तृभिः सह संवसन-संवासः तद्वशात् शुद्धाहारभोज्यपि आधाकर्मभोजी द्रष्टव्यः, या हि |आधाकमैंतेर्मलयगि- तैः सह संवासमनुमन्यते स तेपामाधाकर्मभोक्तृत्वमप्यनुमन्यते, अन्यथा तैः सह संवसनमेव नेच्छेन, अन्यच संवासवशतः कदाचिदा, कार्थिकानि रीयादृत्तिःधाकर्मगतमनोज्ञगन्धाघ्राणादिना विभिन्नचित्तः सन् स्वयमप्याधाकर्मभोजने प्रवर्चेत, ततः संवास आधाकर्मदोपहेतुत्वादाधाकर्म उक्तः समिक्षपाश्च तथा 'अनुमोदनम् ' अनुमोदना-आधाकर्मभोक्तृमचंसा, साऽपि आधाकर्मसमुत्थपापनिबन्धनत्वादाधाकर्मप्रवृत्तिकारणत्वाच आधाकम्मति उक्तं, अमीपां च प्रतिपेवणादीनामाधाकर्मत्वमात्मकर्मरूपं नाम प्रतीत्य वेदितव्यं, तथा च वक्ष्यति-'अचीकरेइ कंपमित्यादि। इह आधाकम्भेति शब्दार्थविचारे आधया कर्म आधाकर्मेत्युक्तं, साऽपि चाधा नामादिभेदाचतुर्दा, तद्यथा-नामाधा स्थापनाधा द्रव्याधा भावनाधा च, तत्र नामाधा स्थापनाचा द्रव्याधाऽपि च आगमतो नोआगमतश्च शरीररूपा भव्पशरीररूपा चैपणेव भावनीया, शरीनरभव्यशरीरव्यतिरिक्तां तु द्रव्याधामभिधित्मुराह धणुजुयकायभराणं कुडुंबरज्जधुरमाइयाणं च । खंधाई हिययं चिय दध्वाहा अंतए धणुणो ॥ ९६ ॥ ____ व्याख्या-इह द्रव्याधायां विचार्यमाणायामाधाशब्दोऽधिकरणप्रधानो विवक्ष्यते आधीयतेऽस्यामित्याधा, आश्रय आधार इत्यनाशान्तरं तत्र 'धणु 'चि धनुः चापं तदाधा-आश्रयः प्रत्यश्चाया इतिसामर्थ्यागम्यते, 'यूपः' प्रतीतः, 'काय' कापोती यया पुरुषाः स्कन्धा-16 रूढया पानीयं वदन्ति 'भरा' यवसादिसमूहः, तथा 'कुटुम्ब' पुत्रकलबादिसमुदायः, 'राज्य' प्रतीतं, तयोः घू:-चिन्ता आदि-18 ॥३६॥ शब्दान्महाजनधूम्प्रभृतिपरिग्रहः, तेषां च यथासलचं द्रव्याधा-द्रव्यरूप आधारः स्कन्धादि हृदयं च, तत्र स्कन्धो बलीवदोदिस्कन्धो नरादिस्कन्धश्च परिगृह्यते, आदिशब्दागन्यादिपरिग्रहः, तत्र यूपस्य द्रव्याधा द्रव्यरूप आश्रयो वृषभादिस्कन्धः, स हि यूपस्तत्रा-10 ~ 75~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१११] → “नियुक्ति: [९६] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२६|| glssरोप्यते, कापोत्या आश्रयो नरस्कन्धः, नरो हि पानीयानयनाय कापोती स्कन्धेन वहति, भरस्थाश्रपो गन्पादिः, महापमाणो हि भरो गन्यादिनैवानेतुं शक्यते नान्येन, तथा कुटुम्बचिन्ताया राज्यचिन्तायाश्चाश्रयः 'हृदय' मनः, हृदयमन्तरेण चिन्ताया अयोगात धनुर्विपये भावनामाह-'अन्तके' करहसझे धनुषः सम्बन्धिनि प्रत्यश्वाऽऽरोप्यते ततो धनुः प्रत्यञ्चाया आश्रयः, एवं शेषाणामपि यूपादीनां प्रत्याश्रयत्वं भावनीयं, तब भावितमेव ।। उक्ता द्रव्याधा, सम्पति भावाधा वक्तव्या, सा प दिया-आगमतो नोआगमतच, तत्रागमत आधाशब्दार्थपरिज्ञानकुशलः तत्र चोपयुक्तः, 'उपयोगो भावनिक्षेप' इति वचनात् , नोआगमतस्तु भावाधा यत्र तत्र वा मन:प्रणिधानं, तथादि-भावो नाम मानसिकः परिणामः तस्य चाधानं-निष्पादनं भवति मनसस्तदनुगुणतया तेन तेन रूपेण परिणमने सति नान्यथा, सतो मनामणिधानं भावाधा, सा चेह प्रस्तावात्साघुदानार्थमोदनपचनपाचनादिविषया द्रष्टव्या तया यत्कृतं कर्म--ओदनपाकादि तदाधाकर्म, तथा चाह नियुक्तिकृत् ओरालसरीराणं उद्दवण तिवायणं च जरसट्टा । मणमाहिता कीरइ आहाकम्मं तय बैंति ॥ ९७ ॥ व्याख्या-औदारिकं शरीरं येषां ते औदारिकशरीराः-तिर्यञ्चो मनुष्याच, तत्र तिर्यश्च:-एकेन्द्रियादयः पञ्चेन्द्रियपर्यन्ता द्रष्टव्याः, एकेन्द्रिया अपि सूक्ष्मा बादराश्च, नन्विद येऽपद्रावणयोग्यास्तियेचस्ते ग्राह्याः, न च सूक्ष्माणां मनुष्यादिकृतमपद्रावणं सम्भवति, सूक्ष्मत्वादेव, ततः कथं ते इह गृह्यन्ते!, उच्यते, इह यो यस्मादविरतः स तदकुर्वनापि परमार्थतः कुर्वन्नेव अवसेयो यथा रात्रिभोजनादानिवृत्तो रात्रिभोजनं, गृहस्थव सूक्ष्मैकेन्द्रियापदाषणादनिवृत्तः, ततः साध्वर्थं समारम्भं कुर्वन् स तदपि कुन्नवगन्तव्य इति सूक्ष्मग्रहणं, यदाएकेन्द्रिया बादरा एव ग्राद्या न सूक्ष्माः, तथा च वक्ष्यति भाष्यकृत्-"ओरालगहणेणं तिरिक्खमणुयाऽहवा मुहुमवजा " तेषामो-|| दीप अनुक्रम [१११] ~ 76~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११२] → “नियुक्ति: [९७] + भाष्यं [१५...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रस्त गमावावावक किमप्र I/e दीप दाप पिण्डनियु- दारिकशरीराणां यदपद्रावणम्-अतिपातविवर्जिता पीडा, किमुक्तं भवति?-साध्वर्थमुपस्क्रियमाणेष्वोदनादिषु यावदद्यापि शाल्यादिव- आधाकर्म नस्पतिकायादीनामविपात:-प्राणव्युपरमलक्षणो न भवति तावदागवचिनी सर्वाऽपि पीडा अपद्रावणं, यथा साध्वर्थं शाल्योदनकृते । ताहेत: रीयात्तिः शालिकरटेयोचद्वारद्वयं कण्डनं, तृतीयं तु कण्डनमतिपातः, तस्मिन् कृते शालिजीवानामवश्यमतिपातभावात, ततस्तृतीयं कण्डनपतिपात-|| ग्रहणेन गृह्यते, वक्ष्यति च भाष्यकृत्-" उद्दवणं पुण जाणमु अइवायविवन्जियं पीडं" ति, उद्दवणशब्दात्परतो विभक्तिलोप आपत्वात् , तथा 'तिपायणं' ति त्रीणि कायवाग्मनांसि, यद्वा त्रीणि देहायुरिन्द्रियलक्षणानि पातनं चातिपातो विनाश इत्यर्थः, तत्र च विधा समासविवक्षा, तबधा-पष्टीतत्पुरुषः पश्चमीतत्पुरुषस्तृतीयातत्पुरुषश्न, तत्र पठीतत्पुरुषोऽयं-त्रयाणां कायवादमनसां पातनं-विनाशनं विपातनम् । एतम परिपूर्णगर्भजपश्चेन्द्रियविर्यग्मनुष्याणामवसेयम्, एकेन्द्रियाणां तु कायस्यैव केवलस्य विकलेन्द्रियसम्मूछिमतियेमनुष्याणां तु कायवचसोरेवेति, यदा-त्रयाणां देहापुरिन्द्रियरूपाणां पातन-विनाशनं त्रिपातनम्, इदं च सर्वेषामपि तियेग्मनुष्याणां परिपूर्ण घटते, केवलं यथा येषां सम्भवति तथा तेषां वक्तव्यं यथैकेन्द्रियाणां देहस्य-औदारिकस्य आयुषा-तियेंगापूरूपस्य इन्द्रिय स्य-स्पर्शनेन्द्रियस्य, द्वीन्द्रियाणां देहस्यौदारिकरूपस्य आयुषस्तिर्यगायुष इन्द्रिययोश्च स्पर्शनरसनलक्षणयोरित्यादि, पञ्चमीतत्पुरुष|| स्त्वयं-त्रिभ्यः-कायवाश्मनोभ्यो देहायुरिन्द्रियेभ्यो वा पातनं-च्यावनमिति त्रिपातनम् , अत्रापि त्रिभ्यः परिपूर्णेभ्यः कायवाङ्म नोभ्यः पातनं गर्भजपश्चेन्द्रियतिर्यन्मनुष्याणाम् एकेन्द्रियाणां तु कायादेव केवलाद् विकलेन्द्रियसंमूर्षिछमतियंदमनुष्याणां तु काया-||॥३७॥ ग्भ्यामिति, देहायुरिन्द्रियरूपेभ्यस्तु त्रिभ्यः पातनं सर्वेषामपि परिपूर्ण सम्भवति, केवलं यथा येषां सम्भवति तथा तेपी मागिव वक्तव्यं, तृतीयातत्पुरुषः पुनरयं-त्रिभिः कायबामनोभिर्विनाशकेन स्वसम्बन्धिभिः पातनं-विनाशनं त्रिपातनं, चशब्द: समुच्चये, भिन्नवि 冷冷冷冷冷冷心冷心冷冷冷冷冷冷中中中中中中會冷?999 ~ 77~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११३] → “नियुक्ति: [९७] + भाष्यं [१६] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१६|| भक्तिनिर्देशश्वशब्दोपादानं च यस्य साध्वर्थमपद्रावणं कृत्वा गृही स्वार्थमतिपातं करोति तत्कल्प्य, यस्य तु गृही त्रिपातनमपि साध्वर्थे । विधत्ते तन्न कल्प्यमिति ख्यापनार्थम् , इत्थंभूतमौदारिकशरीराणामपद्रावणं त्रिपातनं च यस्य साधोरेकस्पानेकस्य वार्थाय-निमित्र 'मन आधाय' चित्तं प्रवर्त्य क्रियते तदाधाकर्म ब्रुवते तीर्थकरगणधराः । इमामेव गाथा भाष्पकृद् गाथात्रयेण व्याख्यानयति__ ओरालग्गहणेणं तिरिक्खमणुयाऽहवा सुहुमवज्जा । उद्दवणं पुण जाणसु अइवायविवज्जियं पीडं ॥ २५ ॥ कायवइमणो तिनि उ अहवा देहाउइंदियप्पाणा । सामित्तावायाणे होइ तिवाओ य करणेसुं ॥ २६ ॥ हिययंमि समाहेउं एगमणेगं च गाहगं जो उ । वहणं करेइ दाया कायेण तमाह कम्मति ॥ २७ ॥ (भा.) व्याख्या-मुगमाः, नवरं 'देहाउइंदियप्पाणे 'ति देहायुरिन्द्रियरूपास्त्रयः प्राणाः, 'सामित्ते'त्यादि, स्वामित्वे-स्वामित्वविषये सम्बन्धविवक्षयेति भावार्थः, एवमपादाने-अपादानविवक्षया करणेषु विषये करणविवक्षया अतिपातो भवति, यथा त्रयाणां पातनं त्रिपा-18 तनं, यद्वा-त्रिभ्यः पातनं त्रिपातनं, त्रिभिर्वा करणभूतैः पातनं त्रिपातनं, भावार्थस्तु मागेवोपदर्शितः ॥ तदेवमुक्तमाधाकर्मनाम, सम्प-15 त्यधाकर्मनाम वक्तव्यं, तदपि चापाकर्म चतुओं, तद्यथा-नामाधःकर्म स्थापनाधःकर्म द्रव्याधःकर्म भावाधाकर्म च, एतच्चाधाकर्मवत्तावद्वक्तव्यं यावन्नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीररूपं द्रव्याधःकर्म, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं तु द्रव्याधःकर्म नियुक्तिकृदाह जं दव्वं उदगाइस छूढमहे वयइ जं च भारेणं । सीईए रज्जुएण व ओयरणं दब्बहेकम्मं ॥ १८ ॥ दीप अनुक्रम [११३] 40000000000000000000००००००कर अत्र मूल संपादने '२५' इत्यादि भाष्य क्रमांकनं स्खलनत्वात् मुद्रितं दृश्यते तेषां क्रमाकनं '१६, १७, १८ इत्यादि सन्ति ~ 78~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११६] .→ “नियुक्ति: [९८] + भाष्यं [१८] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु-18 प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||९८|| व्याख्या-यक्किमपि 'द्रव्यम् ' उपलादिकम् 'उदकादिषु' उदकदुग्धादिषु मध्ये लिप्तं सत् 'भारेण' स्वस्य गुरुतया अधो अध:कर्मतेर्मळयगि- ब्रजति, तथा 'जं चेति' यच 'सीईए प्रति निश्रेण्या रज्ज्वा वा अवतरणं पुरुषादेः कूपादौ मालादेवो भुवि ततः अधोऽधो वजनम-3 वाहेत: रीयावृत्तिः । वितरणं वा द्रव्याधःकर्म, द्रव्यस्प-उपलादेरधः-अधस्ताद्मनरूपमवतरणरूपं वा कर्म द्रव्याधाकमेति व्युत्पतेः ।। सम्पत्ति भावाध:कम्मेराणोऽवसरः, तच्च द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्र आगमतोऽधाकर्मशब्दार्थशाता तब चोपयुक्तः, नोआगमत आह संजमठाणाणं कंडगाण लेसाठिईविसेसाणं । भावं अहे करेई तम्हा तं भावहेकम्मं ।। ९९ ॥ व्याख्या-संयमस्थानानां वक्ष्यमाणानां 'कण्डकानां सङ्ख्यातीतसंयपस्थानसमुदायरूपाणाम् , उपलक्षणमेतत् पदस्थानकानां संयमश्रेणेय, तथा लेषानां तथा सातवेदनीयादिरूपशुभप्रकृतीनां सम्बन्धिना स्थितिविशेषाणां च सम्बन्धिषु विशुद्धेषु विशुद्धतरेषु । स्थानेषु वर्तमान सन्तं निजं 'भावम् ' अध्यवसायं यस्मादाधाकर्म भुञ्जानः साधुरधः करोति-हीनेषु हीनतरेषु स्थानेषु विषते तस्मानदाधाकम्में भावाधाकर्म, भावस्य-परिणामस्प संयमादिसम्बन्धिषु शुभेषु शुभतरेषु स्थानेषु वर्तमानस्य अध:-अधस्तनेषु हीनेषु| दीनतरेषु स्थानेषु कर्म-क्रिया यस्मात्चद्भावाध:कर्मेति व्युत्पत्तेः ।। एनामेव गाथा भाष्यकद् गाथात्रयेण व्याख्यानयति तत्थाणता उ चरित्तपज्जवा होति संजमट्ठाणं । संखाईयाणि उ ताणि कंडगं होइ नायव्वं ॥२८॥ संखाईयाणि उ कंडगाणि छठ्ठाणगं विणिहिट्ठ । छट्ठाणा उ असंखा संजमसेढी मुणेयध्वा ॥ २९ ॥ किण्हाइया उ लेसा उक्कोसविसुद्धिठिइबिसेसाओ। एएसि विसुद्धाणं अयं तग्गाहगो कुणइ ॥३०॥ (भा०) दीप अनुक्रम [११६] ॥३८॥ 14. wmera | अब मूल संपादने '२८' इत्यादि भाष्य क्रमांकनं स्खलनत्वात् मुद्रितं दृश्यते तेषां क्रमाकनं '१९, २०, २१ एव भवति ~ 79~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१२०] → “नियुक्ति: [१९] + भाष्यं [२१] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१|| दीप अनुक्रम [१२०] व्याख्या--इह सर्वोत्कृष्टादपि देशविरतिविशुद्धिस्थानाजघन्यमपि सर्वविरतिविशुद्धिस्थानमनन्तगुणम् , अनन्तगुणता च सर्वचापि षटस्थानकचिन्तायां सर्वजीवानन्तकप्रमाणेन गुणकारेण द्रष्टव्या, इयं चात्र भावना-जघन्यमपि सर्वविरतिविशुद्धिस्थान केवलिप्रज्ञाच्छेदकेन छियते, छिया छिया च निर्विभागा भागाः पृथक् क्रियन्ते, ते च निर्षिभागा भागाः सर्वसङ्कल्पनया परिभाष्यमानाःया सर्वोत्कृष्टभेदेन देशविरतिविशुद्धिस्थानगता निर्विभागा भागाः सर्वजीवानन्तकरूपेण गुणकारेण गुण्यमाना यावन्तो जायन्ते तावल्प-10 माणाः पाप्यन्ते, अत्राप्ययं भावार्थ:-इह किलासत्कल्पनया सर्वोत्कृष्टस्य देशविरतिविशुद्धिस्थानस्य निर्विभागा भागा दश सहस्राणि १००००, सर्वजीवानन्तकप्रमाणश्च राशिः शतं, ततस्तेन शनसख्येन सर्वजीवानन्तकपमाणेन राशिना दशसहस्रसङ्पाः सर्वोत्कृष्ट-1 देशविरतिविशुद्धिस्थानगता निर्विभागा भागा गुण्यन्ते, जातानि दश लक्षाणि १००००००, एतावन्तः किल सर्वजवन्यस्यापि सर्वविरतिविशुद्धिस्थानस्य निर्विभागा भामा भवन्ति । सम्पति सूत्रमनुम्रियते--'तत्र' तेषु संयमस्थानादिषु वक्तव्येषु प्रथमतः संयमस्थान मुच्यते इति शेषः, 'अनन्ता' अनन्तसङ्ख्याः पाश्चात्यासत्कल्पनया दशलक्षप्रमाणा ये चारित्रपर्याया:-सर्वजघन्य चारित्रसत्कविशुद्धिस्थानबगता निर्विभागा भागाः ते समुदिताः संयमस्थानम्, अथोत्सर्वजघन्यं भवति, तस्मादनन्तरं यद्वितीयं संयमस्थानं तत्पूर्वस्वादनन्त भागवद्धं, किमुक्तं भवति ?-प्रथमसंयमस्थानगतनिर्विभागभागापेक्षया द्वितीयसंयमस्थाने निर्विभागा भागा अनन्ततमेन भागेनाधिका भवन्तीति, तस्मादपि यदनन्तरं तृतीयं तत्ततोऽनन्तभागद्धम्, एवं पूर्वस्मादुत्तरोचराण्पनन्ततमेन भागेन वृद्धानि निरन्तर संयमस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावदङ्गुलमात्रक्षेत्रास-ख्येयभागमतप्रदेशराशिप्रमाणानि भवन्ति, एतावन्ति च समुदितानि स्थानानि कण्डकमित्युच्यते, तथा चाह-'सइनख्यातीतानि' असरूपेयानि तुः पुनरर्थे 'तानि' संयमस्थानानि कण्डकं भवति ज्ञातव्यं, कण्डक नाम समयपरिभाषया ~80~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१२०] → “नियुक्ति: [१९] + भाष्यं [२१] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१|| दीप अनुक्रम [१२०] पिण्डनियु-12ङ्गलमात्रक्षेत्रासख्येयभागगतपदेशराशिप्रमाणा सख्याऽभिधीयते, तथा चोक्त-"केण्डति इत्य भण्णइ अंगुलभागो असंखेजो।" तमेलयगि- अस्माच कण्डकात्परतो यदन्यदनन्तरं संयमस्थानं भवति तत्पूर्वस्मादसपेयभागाधिकम्, एतदुक्तं भवति–पाश्चात्यकण्डकसत्क- ताइतः रीयावृत्तिः ||चरमसंयमस्थानगतनिर्विभागभागापेक्षया कण्डकादनन्तरे संयमस्थाने निर्विभागा भागा असङ्ख्येयतमेन भागेनाधिकाः पाप्यन्ते, ततः। पराणि पुनरपि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि यथोत्तरमनन्तभागद्धानि भवन्ति, ततः पुनरेकमसचेयभागाधिक संयमस्थानं, ततो भूयोऽपि ततः पराणि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि यधोत्तरमनन्तभागवृद्धानि भवन्ति, ततः पुनरप्येकमसङ्ख्ये यभागाधिकं संयमस्थानम्, एवमनन्तभागाधिकैः कण्टकप्रमाणैः संयमस्थानयवाहितानि असमस्येयभागाधिकानि संपमस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावत्तान्यपि कण्डकमात्राणि भवन्ति, ततश्चरमादसख्येयभागाधिकात् संयमस्थानात्पराणि यथोत्तरमनन्तभागद्धानि कण्डकमात्राणि संयमस्थानानि भवन्ति, ततः परमेकं सख्येयभागाधिक संयमस्थानं, ततो मूलादारभ्य यावन्ति संयमस्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति भूयोऽपि तेनैव क्रमेणाभिधाय पुनरप्येकं सख्येयभागाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम् , इदं द्वितीयं सख्येयभागाधिक संयमस्थानं, ततोऽनेनैव क्रमेण तृतीयं वक्तव्यम्, अमूनि चैवं सङ्घयेभागाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति, तत उक्तक्रमेण भूयोऽपि सङ्खचेयभागाधिकसंयमस्थानप्रसङ्गे सङ्घधेयगुणाधिकमेकं संयमस्थानं वक्तव्यं, ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्ति संयमस्थानानि भागतिक्रान्तानि तावन्ति भूयोऽपि तथैव वक्तव्यानि, ततः पुनरप्येकं सङ्खयेयगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यं, ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति संथमस्थानानि तथैव वक्तव्यानि, ततः पुनरप्येकं सङ्ख्येयगुणाधिकं संयमस्थानम्, अमून्यप्येवं सहायगुणाधिकानि संयमस्था १ कण्डकमिति अत्र भण्यते अङ्गुलभागोऽसंख्येयः । ॥३२॥ ~81~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१२०] → “नियुक्ति: [१९] + भाष्यं [२१] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१|| दीप अनुक्रम [१२०] नानि तावद्वक्तव्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति, तत उक्तक्रमेण पुनरपि सङ्घचेयगुणाधिकसंयमस्थानप्रसङ्गेऽसङ्ग्येयगुणाधिकं संयमस्थान । वक्तव्यं, ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्ति संथमस्थानानि मागतिक्रान्तानि तावन्ति तेनैव क्रमेण भूयोऽपि वक्तव्यानि, ततः पुनरप्ये कमसङ्खचेयगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम्, ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति संयमस्थानानि तथैव वक्तव्यानि, ततः पुनरपि एकमसंख्येयगुणाधिक संयमस्थानं वक्तव्यम्, अमूनि चैवमसङ्खयेयगुणाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति, ततः पूर्वपरिपाट्या पुनरप्यसङ्खधेयगुणाधिकसंयमस्थानप्रसङ्गेऽनन्तगुणाधिक संयमस्थानं वक्तव्यं, ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्ति संपमस्था-|| नानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति तथैव क्रमेण भूयोऽपि वक्तव्यानि, ततः पुनरप्पेकमनन्तगुणाधिक संयमस्थानं वक्तव्यं, ततो भूयोऽपि मूलादारभ्य तावन्ति संयमस्थानानि तथैव वक्तव्यानि, ततः पुनरप्पेकमनन्तगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम् , एवमनन्तगुणाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावत्कण्डकमात्राणि भवन्ति, ततो भूयोऽपि तेषामुपरि पञ्चद्धयात्मकानि संयमस्थानानि मूलादारभ्य तथैव । वक्तव्यानि, यत्पुनरनन्तगुणवृद्धिस्थानं तन्त्र प्राप्यते षट्स्थानकस्य परिसमाप्तत्वात् , इत्थंभूतान्यसङ्ग्यानि कण्डकानि समुदितानि पदस्थानकं भवति, तथा चाह भाष्यकृत्-'संखाईयाणि उ कंडगाणि छहाणगं विणिदिई' सुगम, अस्मिश्च षट्स्थानके घोढा वृद्विरुक्ता. तद्यथा-अनन्तभागवृद्धिरसङ्घचेयभागवृद्धिः सङ्खयेयभागढद्धिः सङ्ख्यगुणवृद्धिरसङ्ख्थेयगुणद्धिरनन्तगुणद्धिश्च, तत्र यादृशोऽनन्ततमो भागोऽसङ्खधेयतमः सङ्खचेयतमो वा गृहाते याइशस्नु सङ्खयेयोऽसङ्ख्ये योऽनन्तो वा गुणकारः स निरूप्यते-वत्र यदपेक्षयाऽनन्तभागट-18 द्धता तस्य सर्वजीवसइख्याप्रमाणेन राशिना भागो हियते हृते च भागे यलुब्धं सोऽनन्ततमोभागः, तेनाधिकमुत्तरं संयमस्थानं, किमुक्तं || | भवति ?-प्रथमस्य संयमस्थानस्य ये निर्विभागा भागास्तेषां सर्वजीवसङ्ख्याममाणेन राशिना भागे हुते सति ये लभ्यन्ते तावत्प्रमाणे ~82~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१२०] → “नियुक्ति: [१९] + भाष्यं [२१] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: वाहेतुः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१|| दीप अनुक्रम [१२०] पिण्डनियु-निविभागै गर्दितीये संयमस्थाने निर्विभागा भागा अधिकाः प्राप्यन्ते, द्वितीयस्य संयमस्थानस्य ये निर्विभागा भागास्तेषां सर्वजीवसङ्ख्या अधःकर्ममेळयगि-प्रमाणेन राशिना भागे हृते सति यावन्तो लभ्पन्ने तावत्प्रमाणनिर्विभागै गैरधिकास्तृतीये संयमस्थाने निर्विभागा भागाः प्राप्यन्ते, एवं रीयावृत्तिः यद्यत् संयमस्थानमनन्तभागद्धमुपलभ्यते तत्तत्पावास्यस्य पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य सर्व जीवसल्ख्याप्रमाणेन राशिना भागे हृते सति || ॥४०॥ यद्यलुभ्यते तावत्यमाणेन तावत्प्रमाणेनानन्ततमेन भागेनाधिकमवगन्तव्यम् , अप्सहयेयभागाधिकानि पुनरेवं–पाश्चात्यस्य पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य सत्कानां निर्विभागभागानामसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशपमाणेन राशिना भागे हृते सति यद्यल्लभ्यते स सोऽसङ्ख्यतमो भागः, ततस्तेन तेनासङ्घयतमेन भागेनाधिकानि असलयेयभागाधिकानि वेदितव्यानि, सङ्खधेयभागाधिकानि चै-पाचात्यस्य पाचा-12 त्यस्य संयमस्थानस्योत्कृष्टेन सङ्खधेयेन भागे हृते सति यद्यल्लभ्यते स स सङ्खधेपतमो भागः, ततस्तेन तेन सङ्घयतमेन भागेनाधिकानि सङ्खयेयभागाधिकानि संयमस्थानानि वेदितव्पानि, सङ्घयेयगुणवृद्धानि पुनरेवं-पाचात्यस्य पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य ये ये निर्विभागा। भागास्ते ते उत्कृष्लेन सडचेयकममाणेन राशिना गुण्यन्ते, गुणिो च सति यावन्तो यावन्तो भवन्ति तावत्प्रमाणानि तावत्पमाणानि स-118 येयगुणाधिकानि संयमस्थानानि द्रष्टव्यानि, एवमसङ्ख्येयगुणद्धानि अनन्तगुणवृद्धानि च भावनीयानि, नवरमसख्येयगुणद्धौ पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य निर्षिभागा भागा असरूयेयलोकाकाशपदेशनमाणेनासङ्ख्येयेन गुण्यन्ते, अनन्तगुणयुद्धी तु सर्वजीवप्रमाणेनानन्तेन, इत्थं च भागहारगुणकारकल्पनं मा वमनीपिकाशिल्पकल्पितं मस्थाः, यत उक्तं कर्मप्रकृतिसजदण्या पटूस्थानकगतभागहारगुणकारविचाराधिकारे-सव्वजियाणपसंखेजलोग संखिज्जगस्स जिहस्स | भागो तिमु गुणणातिमु” इति, प्रथमाञ्च षट्स्थानकादूर्घमुक्तकमेणैव ।। द्वितीयं षट्स्थानकमुत्तिष्ठति, एवमेव च तृतीयम् , एवं षट् स्थानकान्पपि तादाच्यानि यावदसङ्खधेयलोकाकाशपदेशपमाणानि भवन्ति, ~83~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१२०] → “नियुक्ति: [१९] + भाष्यं [२१] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१|| दीप अनुक्रम [१२०] ००००००००००००००००००44600000०००० उक्तंच-छहाणगणवसाणे अयं छहाणयं पुणो अन्नं । एवमसला लोगा छहाणाणं मुणेपण्या ॥१॥” इत्यंभूतानि चासङ्गयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि पट् स्थानकानि संयमणिरुच्यते, तथा चाह-छहाणा उ असंखा संजमसेही मुणेयवा। तथा 'लेसा'त्ति | कृष्णादयो लेश्याः, स्थितिविशेषा उत्कृष्टानां सर्वोत्कृष्टानां सातावेदनीयमभृतीनां विशुदप्रकृतीनां सम्बन्धिनो विशुद्धाः स्थितिविशेषा वेदितव्याः, तत एतेषां संयमस्थानादीनां सम्बन्धिषु शुभेषु स्थानेषु वर्तमानस्तद्वाहका-आधाकम्भग्राहक आत्मानमेतेप-संयमस्थानादीनां विशुद्धानामधोवस्तात्करोति ॥ यदि नाम संयमस्थानादीनामधस्तादात्मानमाधाकर्मग्राही करोति ततः किं दूषणं तस्यापतितमत आह भावावयारमाहेउमापगे किंचिनूणचरणग्गो । आहाकम्मग्गाही अहो अहो नेइ अप्पाणं ॥ १० ॥ भावानां संयमस्थानादिरूपाणां विशुद्धानामधस्तात् हीनेषु हीनतरेषु अध्यवसायेषु 'अवतारम्' अवतरणमात्मनि आधाय । कृत्वा 'किश्चिनूनचरणग्गो' इति इह चरणेनाग्र:-प्रधानश्चरणानः, स च निश्चयनयमतापेक्षया क्षीणकषायादिरकपायचारित्रः परिगृह्यते, न च तस्य प्रमादसम्भवो नापि लोल्यम् , एकान्तेन लोलादिमोहनीयस्य विनाशात, ततो न तस्याधाकर्मग्रहणसम्भव इति किश्चिन्ननग्रहणं, किश्चिम्यूनेन चरणेनाम: प्रधानः किश्चिम्यूनचरणाग्रः, स च परमार्थत उपाशान्तमोह उच्यते, अतिशयख्यापनार्थ चैतदुक्तं, ततोऽयमर्थ:किश्चिन्यूनचरणाग्रोऽपि यायदास्तां प्रमत्तसंयतादिरिति, आधाकर्मग्राही अधोऽयो-रत्नप्रभादिनरकादी नयत्वात्मानम्, एतदूपणमाधाकर्मग्राहिणः ।। एतदेव भावयति-- बंधइ अहेभवाऊ पकरेइ अहोमुहाई कम्माई । घणकरणं तिब्वेण उ भावेण चओ उवचओ य ॥ १०१ ॥ ~84~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१०१|| दीप अनुक्रम [१२२] मूलं [१२२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्युतेर्मलयगि याहृतिः ॥। ४१ ।। “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) ● → “निर्युक्तिः [१०१] + भाष्यं [ २१...] + प्रक्षेपं " आगमसूत्र - [ ४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या — आधाकर्म्मग्राही विशुद्धेभ्यः संयमादिस्थानेभ्यो ऽवतीर्य 'अध:' अधोऽधोवर्तिषु होनेषु हीनतरेषु भावेषु वर्त्तमानोऽधोभवस्य रत्नप्रभादिनारकरूपस्य भवस्य सम्बन्धि आयुः 'करोति' बन्नाति, शेषाण्यपि कर्माणि गत्यादिनामादीनि 'अधोमुखानि' अधोगत्य भिमुखानि अधोगतिनयनशीलानि इत्यर्थः, 'मकरोति' प्रकर्षेण दुस्सहकटुकतीचानुभावयुक्ततथा करोति-बध्नाति, बद्धानां च सतामाधाक विषयपरिभोगला म्पय्यवृद्धितो निरन्तरमुपजायमानेन 'तीत्रेण' तीव्रतरेण 'भावेन' परिणामेन धनकरणं यथायोगं निधेत्तिरूपतया निकाचनारूपतया वा व्यवस्थापनं, तथा प्रतिक्षणमन्यान्यपुद्गलग्रहणेन चय उपचयथ, तत्र स्तोकतरा दृद्धिश्रयः प्रभूततरा वृद्धिरुपचयः, एतेन च व्याख्याप्रज्ञ सिसूत्रमाचार्येणानुवर्तितं तथा च व्याख्यामज्ञतावालापकः - "आहाक में णं जमाणे समणे निमांये अडकम्मपगडीओ बंधइ अहे पकरेइ अहे चिणइ अहे उवचिणइ" इत्यादि । तत एवं सति तेसिं गुरुणमुदएण अप्पगं दुग्गईऍ पवडतं । न चएइ विधारेउं अहरगतिं निति कम्माई ॥ १०२ ॥ व्याख्या—' तेषाम् ' अधोभवायुरादीनां कर्म्मणां 'गुरूणां ' अधोगतिनयनस्वभावतया गुरूणीव गुरूणि तेषाम्, 'उदयेन' विपाकवेदनानुभवरूपेण, विपाकवेदनानुभवरूपोदयवशादित्यर्थः, दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं ' विधारयितुं ' निवारयितुम् आधाकर्म्मग्राही न * शक्रोति यतोऽतः कर्माणि अधोभवायुरादीनि उदयप्राप्तानि वलादू 'अधरगतिं ' नरकादिरूपां नयन्ति न च कर्म्मणां कोऽपि बलीयान, १ स्थित्यनुभागयो वृहत्करणमुद्रर्चना, तयोरेव म्हस्वीकरणमपवर्त्तना, उद्धत्तनाऽपवर्त्तनावशेषसङ्कमादिकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापनं निवत्तिः, ॐ समस्तकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापनं निकाचना, [ सङ्क्रमः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशानामन्यकर्मरूपतया स्थितानामन्यकर्मस्वरूपेण व्यवस्थापनम्, आदिशब्देनोदीरणोपशमने गृह्येते ] २ आधाकर्म भुञ्जानः श्रमणो निर्मन्थोऽशै कर्मप्रकृतीनाति अबः प्रकरोति अवचिनोति अब उपचिनोति । Eaton International For Parts Use Only ~ 85~ अधःकर्मताहेतुः ॥ ४१ ॥ yog Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१२३] .→ “नियुक्ति : [१०२] + भाष्यं [२१...] + प्रक्षेपं ।" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१०२|| अन्यथा न कोऽपि नरकं यायात्, न वा कोऽपि दुःखमनुभवेत, तस्मादाधाकर्म अधोगतिनिबन्धनमित्यधःकम्त्यु च्यते ॥ तदेवमुक्तमधःकर्मति नाम, सम्पत्यात्मननान्नोऽवसरः, तदपि चात्मघ्नं चतुद्धों, तद्यथा-नामात्मघ्नं स्थापनात्मघ्नं द्रव्यात्मनं भावात्मनं च, इदमप्यधःकर्मवत्तावन्दावनीयं यावनोआगमतो ज्ञशरीरद्रव्यात्मन्नं भव्यशरीरद्रव्यात्मनं, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं तु द्रव्यात्मनं नियुक्तिकदाह अहाए अणट्ठाए छक्कायपमहणं तु जो कुणइ । अनियाए य नियाए आयाहम्मं तयं बेति ॥ १०३ ॥ व्याख्या-यो यही 'अर्थाय स्वस्य परस्य या निमित्तम् 'अनाय' प्रयोजनमन्तरेण एवमेव पापकरणशीलतया 'अणियाए या। कानियाएति निदानं निदा-पाणिहिंसा नरकादिदुःखहेतुरिति जानताऽपि यद्वा साधूनामाधाकर्म न कल्पते इति परिज्ञानवताऽपि यज्जी-|| वानां प्राणव्यपरोपणं सा निदा, तभिषेधादनिदा, पूर्वोक्तपरिज्ञानविकलेन सता यत्परमाणनिवईणं सा अनिदेति भावार्थः, अधवा स्वार्थ परार्थ चेति विभागेनोद्दिश्य यत पाणव्यपरोपणं सा निदा, तनिषेधादनिदा यत् सं पुत्रादिकमन्यं वा विभागेनाविविच्य सामान्येन विधीयते, अथवा व्यापाद्यस्य सवस्य हा ! धिक् सम्पत्येष मां मारयिष्यतीति परिजानतो यत् प्राणव्यपरोपणं सा निदा, तद्विपरीता हाअनिदा, यदजानतो व्यापायस्य सत्वस्य व्यापादनमिति ।। तथा चाह भाष्पकत जाणंतु अजाणतो तहेव उद्दिसिय ओहओ वावि । जाणग अजाणगं वा वहेइ अनिया निया एसा ॥३१॥ (भा०)| भा० २२ व्याख्यातार्या, ततो निदयाऽनिदया वा यः पटकायप्रमर्दनं करोति-पण्णां पृथिव्यादीनां कायानां प्राणव्यपरोपणं विदधाति, तत पदकायममर्दनं आत्मनं नोआगमतो द्रव्यात्मानं वृवन्ति तीर्थकरगणधराः । अथ पटुकायममर्दनं कथं नोआगमतो द्रव्यात्मन्न ?, यावता : भावात्मनं कस्मान्न भवति ?, अत आह दीप अनुक्रम [१२३] SARERatin international अत्र मूल संपादने '३१' इति भाष्य क्रमांकनं स्खलनत्वात् मुद्रितं दृश्यते तेषां क्रमाकनं '२२ एव भवति ~86~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) मूलं [१२५] → “नियुक्ति: [१०३] + भाष्यं [२२] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनिकेर्मलयगि-1 रीयावृत्तिः आत्मत्रताहतः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१०३|| ॥४२॥ दीप अनुक्रम [१२५] व्याया खलु काया । व्याख्या-'कायाः पृथिव्यादयः खलु' निश्चयेन 'द्रव्यात्मानो' द्रव्यरूपा आत्मानः, जीवानां गुगपर्यायवत्तया द्रव्यत्वात् , उक्तं च-"अजीवकायाः धर्माधर्माकाशपुद्गलाः, द्रव्याणि जीवाश्चे" (तचा० अ०५-सू. १-२)ति । ततस्तेषां यदुपमईनं तद् द्रव्यात्मन्नं भवति। उक्तं द्रग्यात्मत्रं, सम्मति भावात्मन्नं वक्तव्यं तच्च द्विधा-आगमतो नोआगमतच, तत्र आगमत आत्मनशब्दार्थज्ञाता तत्र चोपयुक्तः, नोआगमतो भावात्मन्नमाह भावाया तिन्नि नाणमाईणि । परपाणपाडणरओ चरणायं अप्पणो हणइ ॥ १०४ ॥ व्याख्या-'भावात्मानो' भावरूपा आत्मानः त्रीणि ज्ञानादीनि 'ज्ञानदर्शनचारित्राणि, आत्मनो हि पारमार्थिक स्वस्वरूपं ज्ञानदर्शनचरणात्मकं, ततस्तान्येव परमार्थत आत्मानो न शेष द्रव्यमात्र, खस्वरूपाभावात्, ततो यश्चारित्री सन् परेषां पृथिव्यादीनां ये माणाः-इन्द्रियादयः तेषां यत पातन-विनाशनं तस्मिन् रत:-आसक्तः स आत्मनश्चरणरूपं भावात्मानं हन्ति, चरणात्मनि च इते ज्ञानदर्शनरूपायप्यात्मानौ परमार्थतो हतावेव द्रष्टव्यो, यत आह निच्छयनयरस चरणायविघाए नाणदसणवहोऽवि । ववहाररस उ चरणे हामि भयणा उ सेसाणं ॥१०५॥ व्याख्या-निश्चयनयस्य मतेन चरणात्मविघाते सति ज्ञानदर्शनयोरपि वधो-विघातो द्रष्टव्यः, ज्ञानदर्शनयोहि फलं चरणप्रतिपत्तिरूपा सन्मार्गप्रतिः, सा चेन्नास्ति तहि ते अपि ज्ञानदर्शने परमार्थतोऽसती एव, स्वकार्याकरणात , उक्तं च मूलटीकायां-'चरणा ॥४२॥ ~87~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१२७] .→ “नियुक्ति: [१०५] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१०५|| त्मविपाते शानदर्शनवयोऽपि, तयोश्चरणफलत्वात्, फलाभावे च हेतोनिरर्थकत्वादिति, अपिच-यधरण प्रतिपयाऽऽ हारलाम्पट्यादिना तितो न विनिवर्तते स नियमाउदगवदाशाविलोपादिदोषभागी, भगवदाज्ञाविलोपादौ च वर्तमानो न सम्पज्ञानी नापि सम्पदर्शनी, उक्त च-"आणाए थिय चरणं तम्भंगे जाण किन भगति । आणं च आइको कस्साएसा कुणइ सेसं ? ॥१॥" तथा "जो अहवायं न कुणइ मिच्छट्ठिी तओ हु को अन्नो ? । वड्ढेइ य मिच्छत्तं परस्स सके जणेमाणो ॥ २॥" ततश्चरणविधाते नियमतो ज्ञानदर्शनवि-1 घातः, 'व्यवहारस्य' व्यवहारनयस्य पुनर्मतेन हते चरणे 'शेषयोः शानदर्शनयोः 'भनना' कचिदवतः कचिन, य एकान्तेन भगवतो विप्रतिपन्नस्तस्य न भवतो यस्तु देशविरति भगवति श्रद्धानमा वा कुरुते तस्य व्यवहारनयमतेन सम्पष्टित्वाद्भवत इति, ततो निश्चय-12 नयमतापेक्षया चरणात्मनि हते ज्ञानदर्शनरूपावप्यात्मानौ इतावेवेति परमाणव्यपरोपणरतः समूकघातमात्पन्न इति परमाणव्यपरोपणमात्मनं, तय साधोराधाकर्म भुजानस्यानुमोदनादिद्वारेण नियमतः सम्भवतीत्युपचारत आधाकर्म आत्मन्नमित्युच्यते ॥ तदेवमुक्तमात्मन्ननाम, ||| सम्मत्यात्मकर्मनाम्नोऽवसरः, तदपि चात्मकर्म चतुर्दा, तद्यथा-नामात्मकर्म स्थापनात्मकर्म द्रव्यात्मकर्म भावात्मकर्म च, इदं| चाधाकर्मेव तावदावनीयं यावनोआगमतो भव्यशरीरद्रव्यात्मकर्म, शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं तु द्रव्यात्मकर्म प्रतिपादयति दध्वंमि अत्तकम्मं जं जो उ ममायए तयं दव्वं । व्याख्या-यः पुरुषो यद् द्रम्मादिक द्रव्यं 'ममायते ' ममेति प्रतिपद्यते तत्-ममेति प्रतिपादनं तस्य पुरुषस्य 'दव्वंमि अत्तक१ आज्ञवैव धरणं तने जानीहि किन भग्नमिति । आज्ञा चातिक्रान्तः कस्यादेशात् करोति शेषम् ॥१॥ २ यो यथावाई न करोति मिथ्या दृष्टिस्ततः क एवान्यः । वर्धयति च मिथ्यात्वं परस्य शक जनयन् ।।२।। दीप अनुक्रम [१२७] ~88~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१२७] → “नियुक्ति: [१०५] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: व्याख्या प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१०५|| दीप अनुक्रम [१२७] पिण्डनियु- म्मति ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्ये-द्रव्यविषयमात्मकर्म भवति, आत्मसम्बन्धित्वेन कर्म-करणम् आत्मकर्मेति व्युत्पत्त्याश्रय-18 केर्मलयगि-ISरीयावृत्तिः णात् । भावात्मकर्म च द्विधा, तद्यथा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्राऽऽगमत आत्मकर्मशब्दार्थज्ञाता तत्र चोपयुक्तः, नोआगमतः पुनराह भावे असुहपरिणओ परकम्मं अत्तणो कुणइ ॥ १०६ ॥ ॥४३॥ व्याख्या-अशुभपरिणतः' अशुभेन प्रस्तावादाधाकर्मग्रहणरूपेण भावेन परिणतः परस्य-पाचकादेः सम्बन्धि यत् कर्म-Ma पचनषाचनादिजनितं ज्ञानावरणीयादि तत् आत्मनः सम्बन्धि करोति, तच्च परसम्बन्धिनः कर्मणः आत्मीयत्वेन करणं 'भावे' भावतः । आत्मकर्म, नोआगमतो भावात्मकर्मेत्यर्थः, भावेन-परिणामविशेषेण परकीयस्यात्मसम्बन्धित्वेन कर्म-करणं भावात्मकम्मेंति व्युत्पत्तेः॥ एतदेव सार्द्धया गाथया भावयति| आहाकम्मपरिणओ फासुयमवि संकिलिट्ठपरिणामो । आययमाणो बज्झइ तं जाणसु अत्तकम्मन्ति ॥ १०७ ॥ __ परकम्म अत्तकम्मीकरेइ तं जो उ गिहिउं भुंजे । व्याख्या-प्रामुकम्-अचेतनम् उपलक्षणमेतद् एषणीयं च स्वरूपेण भक्तादिकमास्तामाधाकम्मेंत्यपिशब्दार्थः, 'सकिष्टपभारिणामः सन्' आधाकर्मग्रहणपरिणतः सन् 'आददानो' गृहन् यथाऽहमतिशयेन व्याख्यानलब्धिमान् मगुणाश्चासाधारणविद्वत्तादिरूपाः सूर्यस्य भानव इव कुत्र कुत्र न प्रसरमधिरोहन्ति !, ततो मगुणावर्जित एष सर्वोऽपि लोकः पक्त्वा पाचयित्वा च मामिष्टमिदमोदनादिकं प्रयच्छत्तीत्यादि, स इत्थमाददानः साक्षादारम्भकत्व ज्ञानावरणीयादिकर्मणा बध्यते, ततस्तद् ज्ञानावरणीयादिकर्म ܀܀܀܀܀܀ ~89~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१२९] → “नियुक्ति: [१०७] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१०७|| बन्धनमात्मकर्म जानीहि, इयमत्र भावना-आधाकर्म यद्वा स्वरूपेणानाधाकापि भक्तिवशतो मदर्थमेतन्निष्पादितमित्याधाकर्मग्रहणपरिणतो यदा गृह्णाति तदा स साक्षादारम्भकत्तेच स्वपरिणामविशेषतो ज्ञानावरणीयादिकर्मणा बध्यते, यदि पुनर्न गृह्णीयाचा न वध्यते, तत आधाकर्मग्राहिणा यत्परस्य पाचकादेः कर्म तदात्मनोऽपि क्रियते इति परकर्म आत्मकर्म करोतीत्युच्यते, एतदेव स्पष्ट व्यनक्ति-'परकम्मे 'त्यादि, तत आधाकर्म यदा साधुहीत्वा भुते स परस्य पाचकादेयत्कर्म तदात्मकर्मीकरोति, आत्मनोऽपि सम्बन्धि करोतीति भावार्थः ।। अमुं च भावार्थमस्य वाक्यस्याजानानः परो जातसंशयः प्रश्नयति तत्थ भवे परकिरिया कहं नु अन्नत्थ संकमइ ? ॥ १०८ ॥ व्याख्या-तत्र' परकर्म आत्मकर्मीकरोतीत्यत्र वाक्ये भवेत् परस्य वक्तव्यं यथा-कथं 'परक्रिया' परस्य सत्कं ज्ञानावरणीयादिकर्म अन्यत्र आधाकर्मभोजके साधौ संक्रामति', नैवं सक्रामतीति भावः, न खलु जातुचिदपि परकृतं कर्म अन्यत्र सङ्का कामति, यदि पुनरन्यत्रापि सङ्क्रामेत् वदि क्षपकश्रेणिमधिरूढः कृपापरीतचेताः सकलजगजन्तुकम्मनिर्मूलनापादनसमर्थः सर्वेषामपि | जन्तूनां कर्म ज्ञानावरणीयाद्यात्मनि सङ्क्रमय्य क्षपयेत् । तथा च सति सर्वेषामेककालं मुक्तिरुपजायेत, न च जायते, तस्मान्नैव परकृतकर्मणामन्यत्र सङ्क्रमः, उक्तं च-"क्षपकश्रेणिपरिगतः स समर्थः सर्वकम्मिणां कर्म । क्षपयितुभेको यदि कर्मसक्रमः स्यात्परकृतस्य ॥१॥ परकृतकर्मणि यस्मान्न कामति सक्रमो विभागो वा । तस्मात्सत्त्वानां कर्म यस्य यत्तेन तदेयम् ॥ २॥" ततः कथमुच्यते-परकर्म आत्मकमींकरोतीति ? । इदं च वाक्यं पूर्वान्तर्गतमन्यथाऽपि केचित्परमार्थमजानाना व्याख्यानयन्ति, ततस्तमतमपाकर्तुमुपन्यस्यन्नाह दीप अनुक्रम [१२९] SAREauratonintentmational ~ 90 ~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१३१] .→ “नियुक्ति: [१०९] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु-1 तमलयगिरीयातिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१०९|| ॥४४॥ दीप अनुक्रम [१३१] कूडउवमाइ केइ परप्पउत्तेऽवि बेंति बंधोत्ति । आत्मकर्मीव्याख्या-'केचित् । स्वयूथ्या एव प्रवचनरहस्यमनानानाः 'कूटोपपया' कूटष्टान्तेन ब्रुवते 'परप्रयुक्तेऽपि ' परेण पाचका-II करना दिना निष्पादितेऽप्योदनादौ साधोस्तद्भग्राहकस्प भवति बन्धः, एतदुक्तं भवति-यथा व्याधेन कूरे स्थापिते मृगस्यैव बन्यो न व्याधस्य, ४ात्मकता तथा गृहस्थेन पाकादी कृते तद्भाहकस्य साधोबन्धो न पाककर्तुः, ततः परस्य यत्कर्म ज्ञानावरणीयादि सम्भवति तदाधाकर्मग्राही स्वस्यैव सम्बन्धि करोतीति परकर्म आत्मकम्मींकरोतीत्युच्यते, तदेतदसदुत्तरं, जिनवचनविरुद्धत्वात् , तथादि-परस्यापि साक्षादारम्भकलेन नियमतः कर्मबन्धसम्भवः, ततः कथमुच्यते तद्राहकस्य साघोबन्धो न पाककर्तुः, न च मृगस्यापि परपयुक्तिमात्राद् बन्धः, किन्तु स्वस्मादेव प्रमादादिदोषात्, एवं साधोरपि । तथा चैतदेव नियुक्तिकदाह भणइ य गुरू पमत्तो बज्झइ कूडे अदक्खो य ॥ १०९॥ एमेव भावकूडे बज्झइ जो असुभभावपरिणामो । तम्हा उ असुभभावो बज्जेयवो पयत्तेणं ॥ ११॥ व्याख्या-'भणति' प्रतिपादयति, 'च:' पुनरर्थे, पुनरर्थश्चायम्-एके केचन सम्पग्गुरुचरणपर्युपासनाविकलतया यथाऽवस्थित तत्त्वमवेदितारोऽनन्तरोक्तं ब्रुवते, गुरुः पुनर्भगवान् श्रीयशोभद्रसूरिश्वमाह, एतेनैतदावेदयति-निनवचनमवितथं जिज्ञासुना नियमतः प्रज्ञावताऽपि सम्यग्गुरुचरणकमलपर्युपासनमास्थेयम्, अन्यथा प्रज्ञाया अवैतथ्यानुपपत्तेः, उक्तं च-"तत्तदुस्प्रेक्षमाणानां, पुराणैराग-18| ॥४४॥ विना। अनुपासितवृद्धानां, प्रज्ञा नातिप्रसीदति ॥ १॥" गुरुवचन मेव दर्शयति-मृगोऽपि खा कूटैः स वध्यते यः पमत्तोऽदक्षश्च भवति यस्त्वप्रमत्तो दक्षश्च स कदाचनापि न बध्यते, तथाहि-अपमत्तो मृगः प्रथमत एक कूरदेश परिहरति, अथ कथमपि प्रमादरशात कूटदेश-|| ~91~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१३२] → "नियुक्ति: [११०] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||११०|| मपि प्राप्तो भवति तथापि यावन्नाद्यापि बन्धः पतति तावदक्षतया अगिति तद्विषयादपसर्पति, यस्तु प्रपत्तो दक्षतारहितश्च स बध्यते एच, तस्मान्मृगोऽपि बध्यते परमार्थतः स्वप्रमादक्रियावशतो न परप्रयुक्तिमात्रात् , 'एवमेव ' अनेनैव मृगदृष्टान्तोक्तमकारेण 'भावकूटे' संयमरूपभाववन्धनाय कूटमिव कूटम्-आधाकर्म तत्र स 'वध्यते ' ज्ञानावरणीयादिकर्मणा युज्यते, योऽशुभभावपरिणामः-आहारकाम्पठ्यत ||| आधाकर्मग्रहणात्मकाशुभभावपरिणामो न शेषः, न खल्वाधाकर्मणि कृतेऽपि यो न तद्हाति नापि मुझे स ज्ञानावरणीयादिना पापेन । बध्यते, न हि कूटे स्थापितेऽपि यो मृगस्तदेश एव नाऽऽयाति आयातोऽपि यत्नतस्तद्देश परिहरति स कूटेन बन्धमामोति, तन्न परमयुक्तिमात्राइन्धो येन परोक्तनीत्या परकृतकर्मण आत्मकम्मीकरणमुपपद्यते, किन्त्वशुभाध्यवसायभावतः, तस्मादशुभो भाव आधाकर्मग्रहणरूपः साधुना प्रयत्नेन वर्जयितव्यः, परकर्म आत्मकर्म करोतीत्यत्र च वाक्ये भावार्थः प्रागेव दर्शितः, यथा परस्य पाचकादेर्यकर्म तदात्मकमीकरोति, किमुक्तं भवति ?-तदात्मन्यपि कर्म करोतीति, ततो न कश्चिदोषः, परकम्मेणश्वात्मकम्मीकरणमाधाकम्मेणाही ग्रहणे भोजने वा सति भवति, नान्यथा, तत उपचारादाधाकर्म आत्मकर्मत्युच्यते ।। ननु तदाधाकर्म यदा स्वयं करोत्यन्यवाही हाकारयति कृतं वाऽनुमोदते तदा भवतु दोषो, यदा तु स्वयं न करोति नापि कारयति नाप्यनुमोदते तदा कस्तस्य ग्रहणे दोष इति!, अत्राह | कामं सयं न कुव्वइ जाणंतो पुण तहावि तग्गाही । वड्ढेइ तप्पसंगं अगिण्हमाणो उ बारेइ ॥११॥ | व्याख्या-'काम' सम्मतमेतद् , यद्यपि स्वयं न करोत्याधाकर्म उपलक्षणमेतन्न कारयति, तथाऽपि मदर्थमेतन्निष्पादितमिति जानानो यद्याधाकर्म गृह्णाति तहिं तदाही 'तत्पसङ्गम् ' आधाकर्मग्रहणपसङ्गं बर्द्धयति, तथाहि-यदा स साधुराधाकर्म जानानो । गृह्णाति तदाज्येषां साधूनां दायकानां चैवं बुद्धिरुपजायते-नाऽऽधाकर्मभोजने कश्चनापि दोषः, कथमन्यथा स साधु नानोऽपि गृही दीप अनुक्रम [१३२] ~ 92 ~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||११९|| दीप अनुक्रम [१३३] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> मूलं [१३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित �♦♦♦♦♦♦❖❖❖0 "निर्युक्तिः [ १११] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " FO आगमसूत्र - [४१/२ ], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः पिण्डनिर्यु - तवानिति, तत एवं तेषां बुद्धयुत्पादे सन्तत्या साधूनामाधाकर्म्मभोजने दीर्घकालं पद्जीवनिकायविधातः स परमार्थतस्तेन प्रवर्त्यते यस्तु तेर्मलयगि न गृह्णाति स इत्थंभूतप्रसङ्गवृद्धिं निवारयति, प्रवृत्तेरेवाभावात्, तथा चाह--' अगिण्हमाणो उ वारेइ ' ततोऽतिप्रसङ्गदोषभयात्कृतकारिरीयावृत्तिः * तदोषरहितमपि नाधाकर्म्म भुञ्जीत, अन्यच तदाधाकर्म्म जानानोऽपि भुञ्जानो नियमतोऽनुमोदते, अनुमोदना हि नाम अप्रतिषेधनम्, 'अप्रतिषिद्धमनुमत 'मिति विद्वत्मवादात्, तत आधाकर्म्मभोजने नियमतोऽनुमोदनादोषोऽनिवारितप्रसरः, अपि च एत्रमाधाकभोजने ॐ कदाचिन्मनोज्ञाहार भोजनभिन्नदंष्ट्रतया स्वयमपि पचेत्पाचयेद्दा, तस्मान्न सर्वथाऽऽधाक भोक्तव्यमिति स्थितम् || तदेवमुक्तमात्मकर्मेति नाम, सम्मति प्रतिषेत्रणादीनि नामानि वक्तव्यानि तानि चात्मकम्मैति नामाङ्गत्वेन प्रवृत्तानि ततस्तेषामात्मकम्मेति नामाङ्गत्वं परस्परं * गुरुलघुचिन्तां च चिकीर्षुरिदमाह ।। ४५ ।। अत्तीकरेइ कम्मं पडिवाईहिं तं पुण इमेहिं । तत्थ गुरू आइपयं लहु लहु लहुगा कमेणियरे ॥ ११२ ॥ व्याख्या - तत्पुनर्ज्ञानावरणीयादिकं परकर्म 'आत्मीकरोति ' आत्मसात्करोति 'एभिः ' वक्ष्यमाणस्वरूपैः प्रतिषेवणादिभिः ततः प्रतिषेवणादि विषयमाधा कर्मापि प्रतिषेवणादिनाम, तत्र तेषां प्रतिषेवणादीनां चतुर्णां मध्ये 'आदिपदं ' प्रतिषेवणालक्षणं 'गुरु' महादोषं, शेषाणि तु पदानि प्रतिषेवणादीनि लघुलघुलघुकानि द्रष्टव्यानि, प्रतिषेवणाऽपेक्षया प्रतिश्रवणं लघु प्रतिश्रवणादपि संचासनं लघु संवासनादप्यनुमोदनमिति । सम्प्रत्येतेषामेव प्रतिषेवणादीनां स्वरूपं दृष्टान्तांथ प्रतिपिपादयिषुस्तद्विषयां प्रतिज्ञामाहपडिसेवणमाईणं दाराणऽणुमोयणावसाणाणं । जहसंभत्रं सरूवं सोदाहरणं पवक्खामि ॥ ११३ ॥ व्याख्या - प्रतिषेवणादीनां द्वाराणामनुमोदनापर्यवसानानां यथासम्भवं यद्यस्य सम्भवति तस्य तत्स्वरूपं 'सोदाहरणं' सह 'प्रतिषेवना' स्वरुपम् एवं दृष्टांताः कथयते For Park Use Only ~93~ ♦❖❖❖❖❖❖ आधाकर्मग्रहणे म सङ्गः प्रतिपेवणादि प्रायश्चित ॥ ४५ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१३५] → “नियुक्ति: [११३] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||११३|| दीप अनुक्रम [१३५] शन्तं प्रवक्ष्यामि, तत्र प्रथमतः प्रतिपेवणास्वरूपं वक्तव्यं, तत्रापि य आधाकर्म स्वयमानीय मुङ्गेस आधाकर्मपतिसेपी प्रतीत एच ॥ केवळमिह ये परेणोपनीतमाधाकर्म भुञ्जानस्य न कश्चिदोष इति मन्यन्ते तन्मतविकुट्टनार्थ परेणोपनीतस्याऽऽधाकर्मणो भोजने प्रतिषेवणादोषमाह अन्नेणाहाकम्म उवणीयं असइ चोइओ भणइ । परहत्येणंगारे कइंतो जह न डज्झइ हु ॥ ११ ॥ एवं खु अहं सुद्धो दोसो देंतस्स कूडउवमाए । समयत्थमजाणतो मूढो पडिसेवणं कुणइ ॥ ११५ ॥ व्याख्या-'अन्येन ' साधुना भक्तादिकमाधाकर्म ' उपनीत ' गृहस्थगृहादानीय समर्पितं तद्योऽश्नाति स प्रतिषेवणां करोतीति | बासम्बन्धः, स चाधाकर्म भुञ्जानः केनाप्यपरेण साधुना धिम्गहामहे यच तत्र भवान्विद्वानपि संपतोऽप्याधाकर्म भुञ्जीतेति चोदितः। विक्षिप्तः सन् प्रत्युत्तरं भणति-यथा न मे कश्चिदोषः, स्वयंग्रहणस्याभावात्, यो हि नाम स्वयमाधाकर्म गृहीत्वा मुझे तस्य दोषो, यस्तु परेणोपनीतं मुड़े तस्य न कश्चित, तथा चात्र दृष्टान्तो यथा-परहस्तेनाङ्गारान् कर्षयन दबते, एवमहमप्याधाकर्मभोजी 'खु' नानिवितं शुद्ध एव, दोपः पुनर्ददतो यथा परस्य स्वहस्तेनाकारानाकर्षतः, एवं 'कूटया उपमया' अलीकेन रष्टान्तेन 'समयार्थ' भग-1 वित्प्रवचनोपनिषदं “जैस्सहा आरंभो पाणिवहो होइ तस्स नियमेणं । पाणिवहे वयभंगो वयभंगे दोग्गई चेव ॥१॥" इत्यादिरूपम् अजानाना, अत एव मूढः प्रतिषेवणं कुरुते ॥ तदेवमुक्त प्रतिवणस्य स्वरूप, सम्पति प्रतिश्रवणस्य स्वरूपमाह१ यस्यार्थमारम्भः प्राणियो भवति तस्य नियमेन । पाणिव व्रतमको प्रतभने दुर्गतिरेव ॥ १ ॥ ~94~ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१३८] .→ "नियुक्ति: [११६] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रतिषेवणादौ दोषाः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||११६|| दीप अनुक्रम [१३८] पिण्डनियु- उवओगंमि य लाभ कम्मग्गाहिस्स चित्तरक्खट्ठा । आलोइए सुलई भणइ भणंतस्स पडिसुणणा ॥ ११६ ॥ तेर्मलयगि-18 । व्याख्या-इह यो गुरुरूपयोगकरणवेलायां कर्मग्राहिण आधाकर्मग्रहणाय प्रवृत्तस्य शिष्यस्य 'चित्तरक्षार्थ' मनोज्यथाभावनिवारत्तिःणार्थ दाक्षिण्याद्युपेतो 'लाभ भणति लाभ इति शब्दमुच्चास्यति, तथाऽऽधाकर्मणि गृहस्थगृहादानीय आलोचिते श्राद्धिकयेदं करोटिकया दत्तमित्येवं निवेदिते 'मुलद्धं 'शोभनं जातं यचयेदं लब्धमिति भणति तस्य गुरोरिस्थं भणतः प्रतिथवर्ण नाम दोषः, सूत्रे तु खीत्यनिर्देशः पाकृतत्वात् , माकृते हि लिझं व्यभिचारि, यदाह पाणिनिः स्वमाकृतलक्षणे-" लिङ्गं व्यभिचार्यपी"ति, मतिश्रवणं च नामाभ्युपगमः ।। सम्मति संवासानुमोदनयोः स्वरूपं प्रतिपादयति संवासो उ पसिद्धो अणुमोयण कम्मभोयगपसंसा। एएसिमदाहरणा एए उ कमेण नायव्वा ॥ ११७ ॥ व्याख्या-'संवासः' आधाकर्मभोक्तृभिः सहकत्र संवसनरूपः प्रसिद्ध एव, अनुमोदना त्वाधाकर्मभोजकप्रशंसा-कृतपुण्या: मुलब्धिका एते ये इत्थं सदैव लभन्ते भुञ्जते वेत्येवंरूपा ॥ तदेवमुक्तं प्रतिपेवणादीनां चतुणोंमपि स्वरूप, सम्मत्येतेषामेव प्रतिषेवणा-11 दीनां क्रमेण 'एतानि ' वक्ष्यमाणस्वरूपाणि उदाहरणानि ज्ञातव्यानि, सूत्रे च उदाहरणशब्दस्य पुंल्लिङ्गता प्राकृतलक्षणवशात् ।। तत्र यान्युदाहरणानि वक्तव्यानि तेषां नामानि क्रमेण प्रतिपादयति| पडिसेवणाएँ तेणा पडिसुणणाए उ रायपुत्तो उ । संवासमि य पल्ली अणुमोयण रायदुट्ठो य ॥ ११८ ॥ व्याख्या--प्रतिषेवणस्य स्तेना उदाहरणं, मतिश्रवणस्य तु राजपुत्रं, राजपुत्रोपलक्षिताः शेषाः पुरुषाः, संवासे 'पल्ली' पल्लीवास्तव्या वणिजः, अनुमोदनायां राजदुष्टो, राजदुष्टोपलक्षितास्तत्पशंसाकारिणः ।। तत्र प्रथमतः प्रतिषेषणसम्बधिनं स्तेनदृष्टान्तं भावयति ॥४६॥ ~ 95~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१४१] .→ "नियुक्ति: [११९] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||११९|| दीप अनुक्रम [१४१] गोणीहरण सभूमी नेऊणं गोणिओ पहे भक्खे । निविसया परिवेसण ठियात्रि ते कृविया पत्थे ॥ ११९ ॥ व्याख्या-इह गाथाक्षरयोजना सुगमत्वात्स्वयमेव कर्तव्या केवलं 'निर्विशका' उपभोक्तारो, निष्पूर्वस्य विशेरुपभोगे वर्तमानत्वात् , तथा चोक्तम्-“निर्वेश उपभोगः स्यात् , 'कूजकाः' व्याहारकारिणः, गवां व्यावर्तका इत्यर्थः, 'घत्थे' इति गृहीताः, कथानकमुच्यते-रह कचिदामे बहवो दस्यवः, ते चान्यदा कुतश्चित्सन्निवेशाद्गा अपहृत्य निजग्रामाभिमुखं प्रचलिताः, गळतां च तेषामपान्तराले केऽप्यन्ये दस्थवः पथिका मिलितवन्तः, ततस्तेऽपि तैः साई बजन्ति, वजन्तश्च स्वदेशं प्राप्ताः, ततः प्राप्तः स्वदेश इति निर्भया भोजनवेलायां कतिपया गा विनाश्य भोजनाय तन्मांसं पक्तमारब्धवन्तः, अस्मिय प्रस्तावे केऽप्यन्येऽपि पधिकाः समायपुः, ततस्तेऽपि || तर्दस्युभिभोजनाय निमन्त्रिताः, ततो गोमांसे पके केऽपि चौरा: पथिकाश्च भोक्तुं प्रवृत्ताः, केऽपि गोमांसभक्षणं बहुपापभिति परिभाव्य न भोजनाय प्रवृत्ताः, केवलमन्येभ्यः परिवेषणं विदधति, अत्रान्तरे च निष्पत्याकारनिशितकरवाकभीषणमूर्नयः समाययुः कूजकाः, ततस्तैः सर्वेऽपि भोक्तारः परिवेषकाच परिगृहीताः, तत्र ये पधिका अपान्तराले मिलितास्ते पथिका वयमिति त्रुवाणा अपि चौरोपनीतगोमांसभक्षणपरिचषणपत्ततया चारचदुष्टा इति गृहीता विनाशिताथ ।। अमुमेवा) दाष्टोन्ति के योजयति| जेऽविय परिवेसंती. भायणाणि धरति य । तेऽवि बझंति तिव्वेण, कम्मुणा किमु भोइणो? ॥ १२ ॥ ___व्याख्या-इह चौराणां येऽपान्तराले भोजनवेलायां वा थे मिलिताः पथिकास्तत्रापि ये परिवेषमात्र भाजनधारणमात्रं वा कृतवन्तस्तेऽपि कूजकैरागत्य बद्धा विनाशिताश्च, एवमिहापि ये साधबोज्येभ्यः साधुभ्यः आधाकर्म परिवेषयन्ति वा घरन्ति तेऽपि तीवेण: दुस्सहविपाकेन नरकादिगतिहेनुना कर्मणा वध्यन्ते, किं पुनराधाकर्मभोजिनः । तत एतद्दोषभयात्परिवेषणादिमात्रमध्याधाकर्मणः ~96~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१२०|| दीप अनुक्रम [१४२ ] मूलं [१४२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्युतेर्मलयगि यावृति: ॥ ४७ ॥ “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) → "निर्युक्तिः [ १२० ] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " FO आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः प्रतिषेवर्ण यतिभिर्न कर्त्तव्यम, इह चौर स्थानीया आधाकर्म्मनिमन्त्रिणः साधवो गोमांसभक्षकचौरपथिकस्थानीयाः स्वयंगृहीत निमन्त्रिताधाकर्मभोजिनो गोमांसपरिवेषकादिस्थानीया आधाकर्म्मपरिवेषकादयः गोमांसस्थानीयमाधाक पथस्थानीयं मानुषं जन्म कूजकस्थानी यानि कर्माणि मरणस्थानीयं नरकादिप्रपातः ।। सम्पति प्रतिश्रवणस्य पूर्वोक्तं राजसुतदृष्टान्तं भावयति— सामत्थण रायसु पिवहण सहाय तह य तुण्डिका । तिपि हु पडिसुणणा रण्णा सिहंमि सा नन्थि ॥ १२१ ॥ Education Internation व्याख्या - गुणसमृद्धं नाम नगरं तत्र महाबलो राजा तस्य शीला नाम देवी, तयोर्विजितसमरो नाम ज्येष्ठः कुमारा, सच राज्यं जिघृक्षुः पितरि दुष्टाशयश्चिन्तयामास यथा ममैप पिता स्थविरोऽपि न म्रियते नूनं दीर्घजीवी सम्भाव्यते ततो निजभटान् सहायीकृत्यैनं मारयामीति, एवं च चिन्तयित्वा निजभटैः समं मन्त्रयितुं प्रावर्तत तत्र कैचिदुक्तं वयं ते साहायककारिणोऽपरैरुक्तम्-एवं कुरु, केचित्पुनस्तृष्णीं प्रतिपेदिरे, अपरे पुनश्वेतस्यप्रतिपद्यमानाः सकलमपि तद्वृत्तान्तं राज्ञे निवेदयामासुः, ततो राजा ये साहायकं प्रतिपक्षा ये चैवं कुवित्युक्तवन्तो येऽपि च तूष्णीं तस्थुः तान् सर्वानपि ज्येष्ठं च कुमारं वैवस्वतमुखे प्रतिचिक्षेप, यैस्त्वागत्य निवेदितं ते पूजिताः, गाथाक्षरयोजना त्वियं-' सामत्थणं ' स्वभटैः सह पर्यालोचनं, 'राजहुए चि तृतीयार्थे सप्तमी, ततोऽयमर्थः- राजमुतेन कर्तुमारब्धमिति शेषः, तत्र केचिदुक्तं पितॄहनने कर्त्तव्ये तव सहाया वयमिति ' तथा ' इति समुचये चशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः स च केचिदेवं कुर्विति भाषितवन्त इति समुचिनोति, केचित्पुनस्तूष्णीका जाता:- मौनेनावस्थिताः, एतेषां च त्रयाणामपि प्रतिश्रवणदोषः, यैस्तु राज्ञे शिष्टं तेषां 'सा' तत् प्रतिश्रवणं नास्ति । अमुमेवार्थ दार्शन्तिके योजयति भुंज न भुंजे भुंजसु तइओ तुसिणीए भुंजए पढमो । तिव्हंपि हु पडिसुणणा पडिसेहंतस्स सा नत्थि ॥ १२२ ॥ For Penal Lise On ~97~ प्रतिषेवणायां स्तेनो दाहरणं ॥ ४७ ॥ yor Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१४४] .→ "नियुक्ति: [१२२] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१२२|| व्याख्या-इह किल केनापि साधुना चत्वारः साधव आधाकर्मणे निमन्त्रिता यथा भुड्गध्वं यूयमेनमाहारमिति, तत्रैवं निमन्त्रणे कृते प्रथमो मुझे, द्वितीयः माह-नाई भुञ्जे मुडव त्वमिति, तृतीयो मौनमाश्रितः, चतुर्थः पुनः प्रतिषिद्धवान् यथा-न कल्पते । साधूनामाधाकर्म तस्मादहं न भुझे इति, तत्र त्रयाणामायाना प्रतिश्रवणदोषः, चतुर्थस्य प्रतिपेषतः 'सा' तत्पतिश्रवणं नास्ति, अत्राह-नन्यायस्याधाकर्म भुखानस्य प्रतिपेवणलक्षण एव दोषः, कथं प्रतिश्रवणदोष उक्तः, उच्यते, इह यदाऽऽधाकर्मनिमन्त्रितः संस्तदोजनमभ्युपगच्छति तदा नाद्यापि प्रतिपेवणमिति प्रतिश्रवणदोपः, तत ऊई तु प्रतिषेवणं, ततो न कश्चिदोषः । अथामीषामेव । भोजकादीनां कस्कः कायिकादिको दोषः स्याद् !, अत आह| आणत जगा कम्मुणा उ बीयरस वाइओ दोसो । तइयरस य माणसिओ तीहि विसुद्धो चउत्थो उ ॥१२॥ व्याख्या हय आधाकर्मणः स्वयमानेता यथानीतस्य निमन्त्रितः सन् भोक्ता तौ द्वावपि कर्मणा-आनयनभोजनरूपया कायक्रियया तुशब्दान्मनसा वाचा च दोषवन्तो, द्वितीयस्य तु भुक्ष्य त्वं नाई भुझे इति ब्रुवाणस्य याचिको दोषः, उपलक्षणमेतन्मानसिकच, तृतीयस्य तु तूष्णी स्थितस्य मानसिको, यस्तु चतुर्थः स त्रिभिरपि दोपैर्विशुद्धः, तस्माचतुर्थकल्पेन सर्वदेव साधुना भवितव्यम् ।। सम्मति दृष्टान्तोक्तस्य कुमारस्य ये दोषाः संप्रभवन्ति तानुपदश्योधाकम्मेणो भोक्तरि योजयति पडिसेवण पडिसुणणा संवासऽणुमोयणा उ चउरोवि । पियमारग रायसुए विभासियव्वा जइजणेऽवि ॥ १२४॥ ____ व्याख्या-पितृमारके राजमुते प्रतिषेवणप्रतिश्रवणसंवासानुमोदनारूपाश्चत्वारोऽपि दोषा घटन्ते, तथाहि-तस्य स्वयं पितृमारणाय प्रवृत्तत्वात्मतिषेवणं, वयं तव सदाया इति निजभटवचनं प्रतिपद्यमानस्य प्रतिश्रवणं, तैरेव सार्द्धमेकत्र निवसनेन संवासः, तेषु बहुमानक दीप अनुक्रम [१४४] Factainiorary.om ~ 98~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१४६] → “नियुक्ति: [१२४] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१२४|| पिण्डनियु-बरणादनुमोदना, एवं यतिजनेऽप्याधाकर्मणो भोक्तरि 'विभाषितव्याः ' योजनीयाः, अत्र यः स्वयमानीयान्यैः सह मुले तत्र प्रथमतो प्रतिश्रवणे तेर्मळयगि- योज्यन्ते, तस्याऽऽधाकर्म गृहस्थगृहादानीय भुञ्जानस्य प्रतिषेवणं, गृहस्थेनाऽऽयाकर्मग्रहणाय निमन्त्रितस्य तदहणाभ्युपगमः प्रतिश्र- राजमुतोरीवात्तिः वर्ण, यस्मै वदाधाकर्म आनीय संविभागेन प्रयच्छति तेन सहकत्र संवसतः संवासः, तत्रैव बहुमानकरणादनुमोदना, यथान्येनानीत- दा० सेवामाधाकर्म निमन्त्रितः सन् मुड़े तस्य प्रथमतो निमन्त्रणाऽनन्तरमभ्युपगच्छतः प्रतिश्रवणं, ततो भुञानस्य प्रतिषेवणं, निमन्त्रकेण सह से एल्युदा० ॥४८॥ कत्र संवसतः संवासः, तत्र बहुमानकरणादनुमोदना, तदेवं यत्र प्रतिषेवणं तत्र नियमतश्चत्वारोऽपि दोषाः, प्रविश्रवणे च केवले त्रयः हासंवासे द्वौ, अनुमोदनायां त्वनुमोदनैव केवला, अत एवादिपदं गुरु शेषाणि तु पदानि लघुलपुलघुकानीति ॥ सम्मति संवासे पछी-|| दृष्टान्तं भावयति| पल्लीवहमि नट्ठा चोरा वणिया वयं न चोरत्ति । न पलाया पावकरत्ति काउं रन्ना उवालडा ॥ १२५ ॥ व्याख्या-वसन्तपुरं नाम नगरं, तत्रारिमर्दनो नाम राजा, तस्य प्रियदर्शना देवी, तस्य वसन्तपुरस्य प्रत्यासमा भीमाभि-15 धाना पल्ली, तस्यां च बहवो भिल्लरूपा दस्यवः परिवसन्ति वणिजश्थ, ते च दस्यवः सदैव स्वपल्ल्या विनिर्गत्य सकलमष्यस्मिद्दनराजमण्डलमुपद्रवन्ति, न स कश्चिदस्ति राज्ञः सामन्तो माण्डलिको वा यस्तान् साधयति, ततोऽन्यदा तत्कृतं सकलमण्डलोपद्रवमाकण्ये महाकोपाचेश-| पूरितमानसो राजा स्वयं महती सामग्री विधाय भिल्लान् प्रति जगाम, भिल्लाश्च पल्लिं मुक्त्वा सम्मुखीभूय सङ्काम दातुमुद्यताः, राजा ॥४८॥ पवलसेनापरिकलिततया तान् सर्वानप्यवगणय्य सोत्साहो हन्तुमारब्धवान्, ते चैवं हन्यमानाः केऽपि तत्रैव परासवो बभूवः, केऽपि पुनः पलायितवन्तः, राजा च सामर्षः पल्ली गृहीतवान् , वणिजश्च तत्रत्या न वयं चौरास्ततः किमस्माकं राजा कारष्यति ? इति युद्धया नाने दीप अनुक्रम [१४६] ~99~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१४] » “नियुक्ति: [१२५] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१२५|| शन, राज्ञा च तेऽपि ग्राहिताः, ततस्तैर्विज्ञपयांचके यथा-देव ! वयं वणिजो न चौरा इति, ततो राजावादीत-यूर्य चौरेभ्योऽप्यतीवाप-1 राधकारिणो येऽस्माकमपराधकारिभिधौरैः सह संक्सथेति, ततो निगृहीताः । गाथाक्षरयोजना तु सुगमत्वात्स्वयं कार्या । दार्शन्तिके योजनां करोति आहाकडभोईहिं सहवासो तह य तब्विवज्जंपि । दसणगंधपरिकहा भाविति सुलहवितिपि ॥ १२६ ॥ भावना-यथा वणिजां चौरैः सहकत्र संवासो दोषाय बभूव तथा साधूनामप्याधाकर्मभोक्तृभिः सहकत्र संबासो दोषाय वेदिमतव्यः, यतः 'तद्विवजेमपि आधाकर्मपरिहारमपि तथा 'सुरुक्षत्तिमपि पृष्ठ-अतिशयेन रूक्षा द्रष्यतो विकल्पपरिभोगेण भावतोऽभि-11 प्वङ्गाभावेन निःस्नेहा वृत्तिः-वर्तनं यस्य स तथा तमपि आधाकर्मसम्बन्धिन्यो दर्शनगन्धपरिकथा ‘भावयन्ति' आधाकर्मपरिभोगबाछापादनेन बासयन्ति, तथाहि 'दर्शनम् ' अवलोकनं, तच मनोझमनोजतराधाकाहारविषयं नियमाद्वासयति, यतः कस्य नाम शाकुन्दावदातो रसपाकमिधाननिष्णातमहासूपकारसुसंस्कृतः शाल्याधोदनो न मनःक्षोभमुत्पादयति, गन्धोऽपि सधस्तापितघृतादिसम्बन्धी नासिकेन्द्रियाप्यायनशीलो बलादपि तदोजने श्रद्धामुपजनयति, परिकथाऽपि च विशिष्टविशिष्टतरद्रव्यनिष्पादितमोदकादिविषया विधीयमाना तदास्वादसम्पच्याशंसाविधौ चेत उत्साहयितुमीश्वरा, तथादर्शनात् , ततोऽवश्यमाधाकर्मभोक्तृभिः सह संबासो यतीनां । दोषायेति ।। अनुमोदनायां राजदुष्टदृष्टान्तं भावयति रायारोहऽवराहे विभूसिओ घाइओ नयरमज्झे । धन्नाधन्नत्ति कहा वहाबहो कप्पडिय खोला ॥ १२७॥ व्याख्या-श्रीनिलयं नाम नगरं तत्र गुणचन्द्रो नाम राजा, तस्य गुणवतीपमुखमन्तःपुरं, तत्रैव च पुरे सुरूपो नाम वणिक, स: दीप अनुक्रम [१४७] ~ 100~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१२७|| दीप अनुक्रम [१४९ ] मूलं [ १४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनतेर्मलयगियाहृत्तिः ।। ४९ ।। “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [१२७] + भाष्यं [ २२...] + प्रक्षेपं " ० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः च निजशरीरसौन्दर्यविनिर्जितनकरध्वजलवणिमा कमनीयका मिनीनामतीच कामास्पदं स्वभावतश्च परदाराभिवङ्गलालसः, ततः सोऽन्यदा राजाऽन्तःपुरसन्निवेशसमीपं गच्छन्नन्तःपुरिकाभिः सस्नेहमवलोकितः तेनापि च ताः साभिलापमवेक्षिताः, ततो जातः परस्परमनुरागः, दूतीनिवेदितप्रयोगवशेन च ताः प्रतिदिनं तेन सेवितुमारब्धाः राज्ञा च कथमप्ययं वृत्तान्तो जज्ञे, ततो यदा सोऽन्तःपुरं प्राविशत्तदा निजपुरुपैग्रहितो ग्राहयित्वाच्च यैरेवाभरणैरलङ्कृतोऽन्तःपुरं प्रविवेश तैरेवाभरणैर्विभूषितो नगरमध्ये चतुष्पथे सकलजनसमक्षं विचित्रकदर्थनापुरस्सरं विनिपातितो राजा चान्तः पुरविध्वंसेनातीव दूनमनास्तस्मिन् विनाशितेऽपि न कोपाऽऽवेशं मुञ्चति, ततो हरिकान् प्रेषयामास, यथा रे! दुरात्मानं तं ये प्रशंसन्ति ये वा निन्दन्ति तान् द्रयानपि मां निवेदय ? इति एवं च ते प्रेषिताः कापटिक वेषधारिणः सर्वत्रापि नगरे परिभ्रमन्ति, लोकांश्च तं विनाशितं दृष्ट्वा केचन ब्रुवते, यथा अहो ! जातेन मनुजन्मनाऽवश्यं तावन्मर्त्तव्यं परं या अस्मादृशामधन्यानां दृष्टिपथमपि कदाचनापि नायान्ति ता अप्येष यथासुखं चिरकालं भुक्त्वा मृतस्तस्मादन्य एष इति, अपरे ब्रुवते - अधन्य एप उभयलोकविरुद्धकारी, स्वामिनोऽन्तःपुरिका हि जननीतुल्याः, ततस्तास्वप्येष सञ्चरन् कथं प्रशंसामर्हति शिष्टेभ्यः ? इति, ततस्ते द्वयेऽपि *हेरिकैर्निवेदिता राज्ञेो राज्ञा च ये तस्य निन्दाकारिणस्ते सबुद्धय इतिकृत्वा पूजिताः, इतरे तु कृतान्तमुखे प्राक्षिष्यन्त, गाथाक्षरयो*जना त्वेवं-- राज्ञोऽवरोध - अन्तःपुरं तद्विषयेऽपराधे यैरेवाऽऽभरणैर्विभूषितोऽन्तःपुरे प्रविष्टस्तैरेव विभूषितो नगरमध्ये घातितः, ततः कापटिकवेषधारिणः 'खोला: देरिका राज्ञा नियुक्ताः, लोकानां च तद्विषया धन्याधन्यकथा, ततो धन्यकथाकारिणां विनाशः इतरेषां ॥ ४९ ॥ त्वविनाश इति, दान्तिक योजना त्वेवम् एके साधवस्तावदाधाकर्म भुञ्जते, तत्रापरे जल्पन्ति -- धन्या एते सुखं जीवन्ति, अन्ये ब्रुवतेघिगेतान् ! ये भगवत्प्रवचनप्रतिषिद्धमाहारमश्नन्ति तत्र ये प्रशंसिनस्ते कर्म्मणा बध्यन्ते इतरे तु न, इद्दान्तः पुरस्थानीयमाधाकर्म, अन्तः Education International For Parts Only आधाकर्मणि अनुमो ~ 101 ~ दनायां राजदष्टोदा ० you Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१४९] → “नियुक्ति: [१२७] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२७|| पुरद्रोहकारिस्थानीया आधाकर्मभोजिनः साधवः, नृपस्थानीयं ज्ञानावरणादिकं कर्म, मरणस्थानीयः संसारः, तत्र ये आधाकर्मभोक्तृमशंसकास्ते कर्मराज्ञो निग्राह्याः, शेषास्त्वनिग्राह्याः ॥ सम्पत्यनुमोदनाप्रकारमेव दर्शयति साउं पज्जत्तं आयरेण काले रिउक्खमं निदं । तग्गुणविकत्थणाए अभुंजमाणेऽवि अणुमन्ना ॥ १२८ ॥ ___व्याख्या-आधाकर्मभोजिन उद्दिश्य केचिदेवं युवते-वर्य तावन्न कदाचनापि मनोझमाहारं लभामहे, एते हुनः सदैव स्वादु लभ-8 ते, तदपि च 'पर्याप्तं ' परिपूर्ण, तत्रापि 'आदरेण बहुमानपुरस्सरं तत्रापि 'काले प्रस्तुतभोजनवेलायां तदपि 'ऋतुक्षम शिशिरादिऋतूपयोगि तथा 'खिग्ध घृतपूरादि, तस्माद्धन्या अमी मुखं जीवन्ति, एवं 'तद्गुणविकत्यनया' तद्गुणप्रशंसया 'अभुमानेऽपि' अनभ्यवदर-18 त्यपि 'अनुमन्या अनुमोदना, इह अनुमन्याजनितो दोषोऽपि कार्य कारणोपचारादनुमन्येत्युक्तः, ततोऽयमर्थ:-अभुञ्जानेऽपि अनुमो-18 दनाद्वारेणाधाकर्मभोजिन इव दोषो भवतीति, अन्ये तु तद्गुणविकत्यनामेवं योजयन्ति-आधाकर्मभोजिनं कोऽपि कन्दर्पणानाभोगेन वा पृच्छति-साधु लब्धं त्वया भोजनं, तथा पर्याप्तं, तथा आदरेण भक्त्या इत्यादि?, तत्राप्यविरोधः॥ तदेवमुक्तान्याधाकर्मणो नामानि, तदुक्तौ च यदुक्तं माम् मूलद्वारगाथायाम् ‘आधाकम्मियनामा' इति तयाख्यातं, सम्पति 'एगहा। इत्यवयवं व्याचिख्यामुरिदमाह___ आहा अहे य कम्मे आयाहम्मे य अत्तकम्मे य । जह बंजणनाणत्तं अत्थेणऽवि पुच्छए एवं ॥ १२९ ॥ व्याख्या-अत्र पर एवं पृच्छति, यथा आधाकर्म अधःकर्म आत्मघ्नमात्मकर्म इत्येतेषु चतुर्यु नाममु व्यञ्जनैर्नानात्वं विद्यते, तथा 'अर्थेनापि ' अर्थापेक्षयापि, नानात्वमस्ति किंवा न? इति, पृच्छतवायमभिप्रायः-इह आधाकादीनां नाम्नां सर्वेषामपि व्युत्प-18 चिनिमित्तं पृथक् पृथगुक्तं, तद्यथा-आधया कर्म आधाकर्म, अत्र साधुविषयमणिधानपुरस्सरपाकादिक्रियास्वारम्भो व्युत्पत्तिनिमित्तम् , दीप अनुक्रम [१४९] ~ 102~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१२९|| दीप अनुक्रम [१५१] मूलं [ १५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्यकमलयगि यावृत्तिः ॥ ५० ॥ “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [१२९] + भाष्यं [ २२...] प्रक्षेपं " ८० + आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अधोऽधःकर्म अधः कर्म्म, अत्र विशुद्धेभ्यः संयमादिस्थानेभ्योऽघोऽधस्तरामागमनम् आत्मानं हन्तीत्यात्मनामति, अत्र चरणाद्यात्मविनाशनं, परकर्म्य आत्मकर्म क्रियते इत्यात्मकर्म्म, अत्र परकर्म्मण आत्मसम्बन्धितया करणं, तस्त्रेऽत्र संशयो, यथा व्युत्पत्तिनिमित्तं पृथक् पृथग भिन्नमेवं प्रवृत्तिनिमित्तमपि पृथक् पृथग् भिन्नं यथा घटपटशकटादिशब्दानां, किंवा न यथा घटकलशकुम्भादीनामिति, अत्र आहा अहे य कम्मे इत्यादावक्षरयोजना प्रागिव भावनीया ॥ एवं परेण प्रश्ने कृते सति शिष्यमतिमागरभ्याधानाय सामान्यतो नामविषयां चतुर्भङ्गिकामाह- एगहा एगवंजण एगड्डा नाणवंजणा चैव नाण्ड एगवंजण नाणहा वंजणानाणा ॥ १३० ॥ व्याख्या—इह नामानि जगति प्रवर्त्तमानानि कानिचिदुपलभ्यन्ते एकार्थानि एकव्यञ्जनानि कानिचिदेकार्थानि नानाव्यञ्जनानि, * कानिचिन्नानार्थानि एकव्यञ्जनानि कानिचित्पुनर्नानार्थानि नानाव्यञ्जनानि ॥ अस्या एव चतुर्भङ्गिकायाः क्रमेण लौकिकनिदर्शनानि 5 गाथाद्वयेनोपदर्शयति दिहं खीरं खीरं एगह एगवंजणं लोए। एगहं बहुनामं दुद्ध पओ पीलु खीरं च ॥ १३१ ॥ गोमहिसिअाखीरं नाडं एगवंजणं नेयं । धडपडकडसगडरहा होइ पिहत्थं पिनामं ॥ १३२ ॥ व्याख्या – इह सर्वत्रापि जातावेकवचनं, ततोऽयमर्थः – एकार्थानि एकव्यञ्जनानि नामानि लोके प्रवर्त्तमानानि दृष्टानि, यथा क्षीरं क्षीरमिति, इयमत्र भावना - एकत्र कचिदृहे गोदुग्धादिविषये क्षीरमिति नाम महत्तमुपलब्धं तथाऽन्यत्रापि गोदुग्धादावेव विषये Eaton Internation For Pralkata Use Only ~103~ आधाकुमैंकार्याः ॥५०॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१५४] → “नियुक्ति: [१३२] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१३२|| दीप अनुक्रम [१५४] क्षीरमिति नाम प्रवर्त्तमानमुपलभ्यते, एवं ततोऽप्यन्यत्र गृहान्तरे, ततोऽमूनि सर्वाण्यपि क्षीरं क्षीरमित्येवरूपाणि नामानि एकार्थानि एकजायनानि, तथा एकार्थानि बहुव्यञ्जनरूपाणि नामानि यथा दुग्धं पयः पील कीरमिति, अनि हि नामानि सर्वाण्यपि विवक्षितगो-|| दुग्धादिलक्षणेकार्थाभिधायितया नानापुरुपरेककालं क्रमेणकपुरुषेण का प्रयुज्यमानानि एकार्थानि नानाध्यञ्जनानि च ततो द्वितीये भले निपतन्ति, नानार्थान्येकव्यञ्जनानि, यथा-गोमहिष्यजासम्बन्धिषु क्षीरं क्षीरमिति नामानि प्रवर्त्तमानानि, एतानि हि नामानि सर्वाण्यपि समानव्यञ्जनानि भिन्नभिन्नगोदुग्धमहिषीदुग्धादिरूपार्थवाचकतया भिन्नानि च तत उच्यन्ते-नानार्थान्येकव्यञ्जनानि, नानार्थानिक नानाव्यञ्जनानि यथा घटपटशकटरथादीनि नामानि ॥ तदेवमुक्तानि चतुर्भशिकाया निदर्शनानि, साम्पतमिमामेव चतुर्भङ्गिकामाधाकर्म-18 जाणि यथासम्भवं गाथायेन योजयति आहाकम्माईणं होइ दुरुत्ताइ पढमभंगो उ । आहाहेकम्मति य बिइओ सकिंद इव भंगो ॥ १३३ ॥ आहाकम्मतरिया असणाई उ चउरो तइयभंगो। आहाकम्म पड़च्चा नियमा सुन्नो चरिमभंगो॥ १३ ॥ व्याख्या-आधाकादीनां नाम्नां युगपद्द्दभिः पुरुषैरेकेन वा कालभेदेनैकस्मिन्नेव अशनादिरूपे वस्तुनि यद् 'द्विरुक्तादि द्विरुच्चारणादि, आदिशब्दात त्रिरुच्चारणादिपरिग्रहः, स भवति प्रथमो भङ्गः, किमुक्तं भवति ?-एकत्र वसतावशनविषये केनाप्याघाकसम्मेति नाम प्रयुक्तं, तथाऽन्यत्रापि वसत्यन्तरेऽशनविषये एवाधाकम्मति नाम प्रयुज्यते, तथा ततोऽन्यत्रापि वसत्यन्तरे, तान्यमूनि सर्वा-18 ण्ययाधाकम्मति नामानि एकार्थानि एकव्यञ्जनानि इति प्रथमे भनेऽवतरन्ति, आधाकर्म अधाकम्मेत्यादीनि तु नामानि विवक्षिताश-18 नादिरूपैकविषये प्रवर्तमानानि द्वितीयो भङ्गः, एकार्थानि नानाव्यञ्जनानीत्येवंरूपद्वितीयभङ्गविषयाणि 'सकिंद इवे ति यथा इन्द्रः शक्र ~ 104~ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१५४] → “नियुक्ति: [१३२] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१३२|| इत्येवमादीनि नामानि, तथा 'अशनादयः' अशनपानखादिमस्यादिमरूपाः चत्वार 'आधाकान्तरिता' आधाकर्मशब्देन व्यव- आधाकहिता यथाशनमाधाकर्म पानमाधाकम्र्मेत्येवमादि, 'तृतीयभङ्गः तृतीयभङ्गविषयाः, अत्राप्ययं भावार्थ:-यदाऽशनादयः प्रत्येकमाधाकर्म | मणि एआधाकम्मेति देशभेदेन बहुभिः पुरुषैरेककालमेकेन वा पुरुषेण कालभेदेनोच्यन्ते तदा तानि आधाकर्म आधाकम्मेति नामानि काधादिनानार्थान्येकव्यञ्जनानीति तृतीये भङ्गेऽवतरन्ति, अधाकर्मरूपं नामाश्रित्य पुनश्चरमो भङ्गो नानार्थानि नानाव्यञ्जनानीत्येवरूपो नियमाच्छून्य आषाकर्म आधाकम्मत्येवमादिनाम्नां सर्वेषामपि समानव्यञ्जनत्वात , उपलक्षणमेतत, तेन सर्वाष्यपि नामानि प्रत्येकं चर-1 रामभङ्गेन वर्तन्ते, यदा तु कोऽप्यशनविषये आधाकम्मेति नाम मयुङ्क्ते पानविषये त्वधःकति खादिमविषये स्वात्मनमिति खादिमविषये स्वात्मकम्मेति तदाऽमूनि नामानि नानार्थानि नानाव्यञ्जनानि चेति चरमोऽपि भगः पाप्यते, इह विवक्षिताशनादिरूपकविषये प्रवर्तमानानि आधाकाधाकर्मप्रभृतीनि नामानि द्वितीयभङ्ग उक्तस्ततस्तदेव भावयति इंदत्थं जह सदा पुरंदराई उ नाइवत्तंते । अहकम्म आयहम्मा तह आहे नाइवर्तते ॥ १३५ ॥ व्याख्या-यथा 'इन्द्रार्थम् ' इन्द्रशब्दवाच्यं देवराजरूपं 'पुरन्दरादयः' पुरन्दरशक्र इत्येवमादयः शब्दा नातिवर्तन्ते-नातिकमन्ति, तथा अध:कम्मेवात्मनशब्दो उपलक्षणमेतत् आत्मकर्मशब्दश्च 'आह'न्ति सूचनात्सूत्र मिति न्यायादापाकम्मोध-आधाकम्भेशब्द-|| नावाच्यं नातिवन्ते, यदेव येन दोपेण दुष्टमाधाकर्मशब्दवाच्यमोदनादि तदेव तेनैव दोषेण दुष्टमधःकादयोऽपि शब्दा ब्रुवते इति ॥५१॥ भावः । एतदेव भावयति आहाकम्मेण अहेकरेति जं हणइ पाण भूयाई। जं तं आययमाणो परकम्मं अत्तणो कुणइ ॥ १३६ ॥ 00000000000000004666 दीप अनुक्रम [१५४] TRIAnsurary.orm ~ 105~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१५८] → “नियुक्ति: [१३६] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१३६|| व्याख्या-आधाकर्मणा भुज्यमानेन कृत्वा यस्माद्विशुद्धेभ्यो विशुद्धतरेभ्यः संयमादिस्थानेभ्योऽवतीर्याधस्तादात्मानं करोति तेन || कारणेन तदेवाधाकर्म अध:कम्र्मेस्युच्यते, तथा यस्मादाधाकर्मणा भुज्यमानेन कृत्वा स एव भोक्ता परमार्थतः 'माणान् द्वीन्द्रियादीन | भूतान् ' वनस्पतिकायान् उपलक्षणमेतत् जीवान् सच्चांश्च हन्ति-विनाशयति, 'जस्सहा आरंभो पाणिवहो होइ तस्स नियमेण ' इति । वचनप्रामाण्यात, प्राणादीवघ्नन् नियमतः चरणादिरूपमात्मानं हन्ति, 'पाणिवहे वैयभंगो' इत्यादिवचनाचत आधाकर्म आत्मनमि।त्युच्यते, तथा ' यत्' यस्मात्कारणात् 'तत् । आधाकर्म आददानः परस्य-पाचकादेः सम्बन्धि यस्कम्र्म-आरम्भजनितं ज्ञानावरणी यादिकमुत्पन्नमासीत् तदात्मनोऽपि करोति, ततस्तदाधाकर्म आत्मकम्मॆत्युच्यते, तस्मादधःकर्मादीनि नामानि सर्वाप्पपि नाधाकर्मशब्दार्थमतिवर्तन्ते इति द्वितीये भङ्गेऽवतरन्ति । तदेवं भूलद्वारगाथायां 'एगट्ठा' इत्यपि व्याख्यात, सम्मति 'कस्स पाव' इत्यवयव । व्याचिख्यासुराहकरसत्ति पुच्छियमी नियमा साहम्मियरस त होइ । साहम्मियस्स तम्हा कायब्ध परूवणा बिहिणा ॥ १३७ ॥ व्याख्या-'कस्य' पुरुषविशेषस्य अर्थाय कृतमाधाकर्म भवतीति परेण पृष्टे उत्तरमभिधीयते, नियमात्साधर्मिकस्यार्थाय कृतं तत् ' आधाकर्म भवति, तस्मात्साधर्मिकस्यागमोक्तेन विधिना प्ररूपणा कर्तव्या । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति १ प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूतास्तु तरचः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रियाः प्रोक्ताः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः ॥ १॥ २ यस्यार्थमारम्भः प्राणिवधः भवति तस्य नियमेन। ३ प्राणिवधान् तभङ्गः । दीप अनुक्रम [१५८] Taurasurare.org ~ 106~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१६०] » “नियुक्ति: [१३८] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: आधाकर्म पिडनियुतेर्मष्यगिरीयावृत्तिः णि साघमिकमरू प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१३८|| ॥५२॥ नाम ठवणा दबिए खेत्ते काले अ पवयणे लिंगे । दसण नाण चरित्ते अभिम्गहे भावणाओ य ॥ १३८॥ व्याख्या-नाम ति नाम्नि साम्पिकः, स्थापनासाधर्मिकः, 'द्रव्ये द्रव्यविषयः साधर्मिक एवं क्षेत्रसाधर्मिकः, कालसाप-II मिका, प्रवचनसाधर्मिकः, लिङ्गसाधर्मिकः, दर्शनसाधर्मिकः, ज्ञानसाधर्मिक, चारित्रसाधर्मिकः, अभिग्रहसाधर्मिकः, 'भावणाओ य'त्ति पणा भावनातश्च साधर्मिको भवति, तदेवं द्वादशधा साधर्मिकाः ।। एनामेव गाथां गाथात्रयेण व्याख्यानयति नामंमि सरिसनामो ठवणाए कट्ठकम्ममाईया। दव्वंमि जो उ भविओ साहमि सरीरगं चेव ॥ १३९ ॥ खेते समाणदेसी कालंमि समाणकालसंभूओ। पवयणि संघेगयरो लिंगे स्यहरणमुहपोती ॥ १४॥ दसण नाणे चरणे" तिग पण पण तिविह होइ उ चरित्ते। दव्याइओ अभिग्गह अह भावणमो अणिचाई ॥१४॥ व्याख्या-'नाम्नि' नामविषयः सार्षिक: सदृशनामा, किमुक्तं भवति ?-विवक्षितस्य साघोर्यन्नाम तदेव यदा इतरस्यापि तदानीं स इतरस्तस्य साधोनामसाधर्मिको भवति, यथा देवदचनाम्नः साघोदेवदत्तनामा कश्चिव, तथा 'स्थापनायां ' स्थापना-| विषये साधर्मिकः 'काष्ठकम्मोदिका' दारुमयपतिमापभृतिका, इह स्नेहवशात् कश्चिन्त्रिजपुत्रादेः साधोजींवतो मृतस्य वा काष्ठमयीं मतिमां कारयति सा प्रतिमा अन्येषां जीवतां संयतानां स्थापनासाधर्मिकः, आदिशब्दात्पाषाणादिकातिमापरिग्रहः, अनेन सद्भाव-III स्थापनासाधर्मिक उक्को, यदा त्वक्षादौ साधुस्थापना तदा सोऽसद्भावस्थापनासाधर्मिक, तथा द्रव्ये भावप्रधानोऽयं निर्देशः 'द्रव्यत्वे व्यत्वविषयः साधर्मिको यो भव्यो योग्यः साधर्मिकत्वस्य, किमुक्तं भवति ?-यस्तेनैव शरीरसमुच्छूयेण प्रवर्द्धमानेन साधोः साध दीप अनुक्रम [१६०] साधर्मिकाणां द्वादश-भेदा: उच्यते ~ 107~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१६३] → “नियुक्ति: [१४१] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१४१|| कमिको भविष्यतीति स भव्य इत्यर्थः, तथा यञ्च साधर्मिकशरीरं सिद्धिशिलातलादिगतमपगतजीवितं भव्यशरीररूपोऽतीतसाधर्मिकशरीर रूपश्च द्रव्यसाधर्मिकः, 'क्षेत्रे' क्षेत्रविषयः साधर्मिक, 'समानदेशी' समानदेशसम्भूतः, कालसाधर्मिकः समानकालसम्भूतः, प्रवचनसाधर्मिक: साध्वादिचतृष्टयरूपसङ्खमध्यादन्यतमः कश्रित, लिङ्गसाधर्मिको स्यहरणमुहपोती इति सूचनात् सूत्रमितिन्यायात् रजोहरणमुखपोतिकाग्रुपकरणवान्, 'दर्शनसाधर्मिकः' समानदर्शनः, दर्शनं च विधा, तद्यथा-सायिक क्षायोपशमिकमौपशमिकं च, ततो दर्शनद्वारेण यः साधर्मिकः सोऽपि त्रिधा, तद्यथा-सायिकदर्शनसाधर्मिक क्षायोपशमिकदर्शनसाधर्मिक औपशमिकदर्शनसाधर्मिकश्च, तत्र क्षायिकसम्यग्दृष्टेः क्षायिकसम्यम्टष्टिः क्षायिकदर्शनसाधर्मिक इत्यादि, 'ज्ञानसाधर्मिक' समानज्ञान:, ज्ञानं च पश्वधा, तथथामतिझानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं केवलज्ञानं च, ततो ज्ञानद्वारेण साधर्मिकोऽपि पञ्चधा, तयथा-पतिज्ञानसाधर्मिक इत्यादि तत्र मतिज्ञानिनो मतिज्ञानी मतिज्ञानसाधर्मिक इत्यादि । चारित्रसाधर्मिकः समानचारित्रः, चारित्रमपि च पञ्चधा, तद्यथा--सामायिक छेदोपस्थापनं परिहारविशुद्धिक सूक्ष्मसम्परायं यथाख्यातं च, ततश्चारित्रेण साधर्मिकोऽपि पञ्चधा, तयथा-सामायिकचारित्रसाधवार्षिकश्छेदोपस्थापनिकचारित्रसाधर्मिक इत्यादि, तत्र सामायिकचारित्रस्य योऽपरः सामायिकचारित्रः स सामायिकचारित्रसाधर्मिक इत्यादि, 'तिविह होइ उ चरिते' मतान्तरेण पुनश्चारित्रे-चारित्रविषयः साधर्मिकत्रिविधो भवति, यतश्चारित्र मतान्तरेण विधाऽत्र विवक्षित, तद्यथा-क्षायिक क्षायोपशमिकमौपशमिकं च, ततस्तद्वारेण यः साधर्मिकः सोऽपि त्रिधा, तयथा-सायिकचारित्रसाधर्मिक इत्यादि, तत्र क्षायिकचारित्रस्यापरः क्षायिकचारित्र: क्षायिकचारित्रसाधर्मिक इत्यादि, अभिग्रहा द्रव्यादी-द्रव्यादिविषयाश्चतुर्विधास्तद्यथा-द्रव्याभिग्रहाः क्षेत्राभिग्रहाः कालाभिग्रहाः भाषाभिग्रहाच तद्वारेण साधर्मिका अपि चतुर्विधास्तद्यथा-द्रव्याभिग्रहसाध । दीप अनुक्रम [१६३] Marauranorm ~ 108~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१४‍|| दीप अनुक्रम [१६३] मूलं [ १६३ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्युक्तेर्मलयगि- : यावृत्तिः ॥ ५३ ॥ “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्ति: [१४१] + भाष्यं [ २२...] + प्रक्षेपं " • आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः र्मिकाः क्षेत्राभिग्रहसाधर्मिका इत्यादि, तत्र द्रव्याभिग्रहस्यापरो द्रव्याभिग्रहो द्रव्याभिग्रहसाधर्मिक इत्यादि, भावना द्वादशधा तद्यथाअनित्यत्वभावना ( १ ) अशरणत्वभावना ( २ ) एकत्वभावना ( ३ ) अन्यत्वभावना ( ४ ) अशुचित्वभावना (५) संसारभावना (६) कमश्रवभावना (७) संवरभावना (८) निर्जरणभावना (९) लोकविस्तार भावना (१०) जिनप्रणीतधर्मभावना (११) बोधिदुर्लभत्वभावना ( १२ ), भावनाद्वारेण साधर्मिका अपि द्वादशधा तद्यथा - अनित्यत्वभावनासाधर्मिको ऽशरणत्वभावनासाधर्मिक इत्यादि, तत्रानित्यत्वभावनासहितस्यापरोऽनित्यत्वभावनासहितोऽनित्यत्वभावनासाधर्मिक इत्यादि, तदेवं व्याख्याताः सर्वेऽपि साधर्मिकाः । सम्प्रत्येतानेवाधिकृत्य कल्प्याकल्प्यविधिर्वक्तव्यः, तत्र नामसाधर्मिकमधिकृत्य प्रथमतः कल्प्या कल्पविधि गाथायेन | प्रतिपादयति जायंत देवदत्ता गहीव अगिहीव तेसि दाहामि । नो कप्पई गिहीणं दाहंति विसेसिये कप्पे ॥ १४२ ॥ पाडीसुवि एवं मीसामीसेसु होइ हु विभासा । समणेस संजयाण उ बिसरिसनामाणवि न कप्पे ॥ १४३ ॥ व्याख्या - इह कोऽपि पितरि मृते जीवति वा तन्नामानुरागतस्तन्नामयुक्तेभ्यो दानं दिल्युरेवं सङ्कल्पयति, यथा यावन्तो गृहस्था अगृहस्था वा देवदत्तास्तेभ्यो मया भक्तादिकमुपस्कृत्य दातव्यं तत्रैवं सङ्कल्पे कृते देवदताख्यस्य साधोर्न कल्पते, देवदत्तशब्देन तस्यापि सङ्कल्पविषयीकृतत्वात्, यदा पुनरेवं सङ्कल्पयति, यथा यावन्तो गृहस्था देवदत्तास्तेभ्यो दातव्यमिति तदा एवं 'विशेषिते ' निर्द्धारिते सति तद्योग्यमुपस्कृतं देवदत्ताख्यस्य साधोः कल्पते, तस्य विवक्षितसङ्कल्पविषयीकरणाभावात्, तथा पाखण्डिष्वपि मिश्रा - मिश्रेष्वेवं पूर्वोक्तप्रकारेण विभाषा कर्त्तव्या, इह सामान्यसङ्कल्पविषया मिश्रा उच्यन्ते, यथा यावन्तः पाखण्डिनो देवदत्ता इति प्रति Education Internation For Parts Only ~109~ आधाकर्मणि साधर्मिकमरूपणा | ॥ ५३ ॥ waryara Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१६५] → “नियुक्ति: [१४३] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१४३|| नियतसङ्कल्पविषयास्त्वमिश्रा यथा यावन्तः सरजस्काः पाखण्डिनो यदिवा सौगता देवदत्ता इत्यादि, तत्र यावन्तो देवदत्ताः पाखण्डिन इति मिश्रसङ्कल्पे कृते न कल्पते पाखण्डिदेवदत्तशब्दाभ्यां देवदत्ताख्यस्यापि साधोः सङ्कल्पविषयीकृतत्वात् , यदा पुनरमियः सङ्कल्पो यथा यावन्तः सरजस्काः पाखण्डिनो देवदत्ता यदिवा यावन्तः सौगता देवदत्ता यदा साधुव्यतिरेकेण सर्वेऽपि पाखण्डिनो देवदत्ताहस्तेभ्यो दास्यामीति, तदा देवदत्ताख्यस्य साधोः कल्पते, तस्य सङ्कल्पविषयीकरणाभावात् , यथा च पाखण्डिषु मिश्रामिश्रेषु विभाषा कृता तथा श्रमणेष्वपि मिश्रामिश्रेषु कर्तव्या, श्रमणा हि शाक्यादयोऽपि भण्यन्ते, यतो वक्ष्यति-निग्गंथसकतावसगेरुयआजीव पञ्चद्दा समणा'ततो यदेवं मिश्रा सङ्कल्पो यावन्तः श्रमणा देवदत्ताख्यास्तेभ्यो दास्यामीति तदा देवदत्वाख्यस्य साधोर्न कल्पते, तस्य श्रमणदेवदत्तशब्दाभ्यां सङ्कल्पविषयीकृतत्वात् , यदा पुनरेवममिश्रः सङ्कल्पो याचन्तः शाक्याः श्रमगा यदिवा आजीविका देवदत्ता यदा-साधुव्यतिरेकेण सर्वं श्रमणा देवदत्तास्तेभ्यो दास्यामीति तदा कल्पते, तस्य विवक्षितसङ्कल्पविषयीकरणाभावात् , संयतानां तु निम्रन्थानां विसदृशनानामपि सङ्कल्पे कृते देवदत्ताख्यादेः साधोन कल्पते, किमुक्तं भवति ?-चैत्रनाम्नोऽपि संयतस्योद्देशेन कृतं । देवदत्ताख्यस्य साधोने कल्पते, तथा भगवदाज्ञाविजूंभणात, यदा पुनस्तीर्थकरपत्येकबुद्धसङ्कल्पनेन कृतं तदा कल्पते, तीर्थकरप्रत्येकबुद्धानां सङ्घातीतत्वेन सडमध्यवर्तिभिः साधुभिः सह साधर्मिकत्वाभावात् , ' संजयाण उ विसरिसनामाणविन कप्पे' इति वचनाचार्थापत्त्या यावन्तो देवदत्ता इत्यादी विसदृशचैत्रादिनाम्नां साधूनां कल्पत एवेति प्रतिपादितं द्रष्टव्यं । तदेवमुक्तो नामसाधर्मिकमधिकृत्य कलप्याकल्प्यविधिः, सम्पति स्थापनाद्रव्यसाधर्मिकावधिकृत्य तमाह--- नीसमनीसा व कडं ठयणासाहम्मियम्मि उ विभासा । दवे मयतणुभत्तं न तं तु कुच्छा विवज्जेज्जा ॥१४॥ दीप अनुक्रम [१६५] ~110~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१४४|| दीप अनुक्रम [१६६ ] मूलं [ १६६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्यु - तेर्मलयगि यावृत्तिः ॥ ५४ ॥ Jan Educatin “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [१४४] + भाष्यं [ २२...] + प्रक्षेपं " • आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या - इह कोऽपि गृही गृहीतमवज्यस्य मृतस्य जीवतो वा पित्रादेः स्नेहवशात् प्रतिकृतिं कारयित्वा तत्पुरतो ढौकनाय बलिं निष्पादयति, तन्निष्पादनं च द्विधा, तयथा - निश्रया अनिश्रया च तत्र ये रजोहरणादिवेषधारिणो मत्पितृतुल्यास्तेभ्यो दास्यामीति सङ्कल्प्य निष्पादयति तदा तद्बलिनिष्पादनं निश्राकृतमुच्यते, यदा त्वेवंविधः सङ्कल्पो न भवति, किन्त्वेवमेव ढौकनाय बलिं निष्पादयति तदा तद्बलिनिष्पादनमनिश्राकृतमुच्यते, तथा चाह-'नीसमनीसा व कटं' इह प्रथमा तृतीयार्थे वेदितव्या, ततोऽयमर्थः --- निश्रयाऽनिश्रया वा यत्कृतं - निष्पादितं भक्तादिस्थापनासाधर्मिकविषये तत्र विभाषा कर्त्तव्या, यदि निश्राकृतं तदपि च ढौकितमढौकितं वा तर्हि न * कल्पते, अनिश्राकृतं तु ढौकितमढौकितं वा कल्पते, परं तत्रापि प्रवृत्तिदोषप्रसङ्ग इति पूर्वसूरयो निषेधमाचक्षते तथा 'द्रव्ये ' द्रव्यसाधर्मिकविषये यन्मृततनुभक्तं- तत्कालं मृतस्य साधोर्या तनुस्तस्याः पुरतो ढौकनाय यदशनादि तत्पुत्रादिना कृतं तन्मृततनुभक्तं तदपि द्विधा- निश्राकृतमनिश्राकृतं च तत्र साधुभ्यो दास्यामीति सङ्कल्प्य कृतं निश्राकृतमितरत्तु स्वपित्रादिभक्तिमात्रकृतमनिश्राकृतं, तत्र यन्निश्राकृतं तन्निषेधयति-नैव कल्पते, इतरच्वनिश्राकृतं कल्पते, किन्तु तद्ग्रहणे लोके जुगुप्सा-निन्दा प्रवर्त्तते यथा अहो ! अमी भिक्षवो निःशूका मृततनुभक्तमपि न परिहरन्तीति ततो विवर्जयन्ति तत्साधवः ।। सम्मति क्षेत्रकालसाधर्मिकावधिकृत्यातिदेशेन कल्प्या कल्प्यविधिमाहपासंडियसमणाणं गिहिनिग्गंथाण चेव उ विभासा । जह नामंमि तहेव य खेते काले य नायन्त्रं ॥ १४५ ॥ व्याख्या – यया ' नाम्नि ' नामसाधर्मिकविषये पापण्डिनां श्रमणानां ' गिहित्ति' सूचनात्सूत्रमिति न्यायाद गृह्यगृहिणां निर्ग्र १ अन्यत्र प्रसिद्धस्यान्यत्र कथनमतिदेशः । rationa For Penal Use On ~ 111~ आधाकर्म णि स्थाप नाद्रव्यसा ॥ ५४ ॥ org Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१६] “नियुक्ति: [१४५] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१४५| दीप अनुक्रम [१६७] न्यानां च विभाषा कृता तथा क्षेत्रे काले च विभाषणं ज्ञातव्यं, तत्र 'क्षेत्र सौराष्ट्रादिकं 'कालो' दिनपौरुष्यादिकः, तत्र क्षेत्रविषये । Tell विभाषा एवं-यदि सौराष्ट्रवेशोत्पत्रेभ्यः पापण्डिभ्यो मया दातव्यमिति सङ्कल्पः तदा सौराष्ट्र देशोत्पत्रस्य साधोने कल्पते, सौराष्ट्रदेशोल्प-11 नत्वेन तस्यापि सङ्कल्पविषयीकरणात, शेषदेशोत्पन्नानां तु कल्पते, तेषां सङ्कल्पविषयीकरणाभावात् , यदि पुन: सौराष्ट्रदेशोत्पन्नेभ्यः पाप-| डिभ्यः सरजस्केभ्यो यदिवा सौगतेभ्यो यद्वा साधुन्यतिरेकेण सर्वपापण्डिभ्यो दास्यामीति सङ्कल्पः तदा सौराष्ट्रदेशोत्पन्नस्यापि साधोः कल्पते, तस्य सङ्कल्पाक्रोडीकरणात, एवं श्रमणेष्वपि सामान्यतः सङ्कल्पितेषु न कल्पते, साधुव्यतिरेकेण तु सङ्कल्पितेषु कल्पते, तथा भागृहागृदिषु सामान्यतः सौराष्ट्रदेशोत्पनत्वेन सङ्कल्पितेषु न कल्पते, केवलेषु तु गृहिषु कल्पते, निग्रेन्येषु तु सौराष्ट्र देशोत्पन्नेष्वसौराष्ट्रदेशो-पी पन्नेषु वा संकल्पितेषु सौराष्ट्रदेशोत्पन्नानामन्यदेशोत्पन्नानां वा सर्वथा न कल्पते, तदेवं क्षेत्रसाधर्मिके विभाषा भाविता, एवं कालसाधर्मिकेऽपि भावनीया, यथा विवक्षितदिनजातेभ्यः पापण्डिभ्यो मया दातव्यमिति सङ्कल्पिते तस्यापि तद्दिनजातस्य साधोने कल्पते, तस्यापि : तदिनजातत्वेन सङ्कल्पाविषयीकरणात, शेषदिनजातानां तु कल्पते, सङ्कल्पविषयीकरणाभावात, इत्यादि सबै पूर्वोक्तानुसारेण भावनीयं, प्रवचनादिपदसप्तके पुनरेवं पूर्वाचार्यव्याख्या-प्रवचनलिङ्गदर्शनज्ञानचारित्राभिग्रहभावनारूपेषु सप्तमु पदेषु द्विसंयोगभङ्का एकविंशतिः, तद्यथा-प्रवचनस्य लिङ्गेन सहको, दर्शनेन सह द्वितीयो, ज्ञानेन सह तृतीयः, एवं यावद्भावनया सह षष्ठ इति पद भङ्गाः, एवं लिङ्गस्य दर्शनादिभिः सह पञ्च, दर्शनस्य ज्ञानादिभिः सह चत्वारः, ज्ञानस्य चारित्रादिभिः सह त्रयः, चारित्रस्याभिग्रहभावनाभ्यां द्वौ, अभिग्रहस्य भावनया सहक इत्येकविंशतिः, एतेषु चैकविंशतिसङ्ख्येषु भङ्गेषु प्रत्येकमेकैका चतुर्भङ्गिका, तयथा-प्रवचनतः साधर्मिको न लिङ्गतः, लिङ्गतः साधर्मिको न प्रवचनता, प्रवचनतः साधर्मिको लिन्तश्च, न प्रवचनतो न लिङ्गतच, शेषेषु भङ्गेषु यथास्थानं चतुर्भङ्गिका दर्शयिष्यते ।। तत्र प्रथमचतुर्भडिकाया आधभङ्गद्वयोदाहरणमुपदर्शयति Hrwasaram.org ~112~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१४६|| दीप अनुक्रम [१६८ ] मूलं [ १६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनियु क्तेमलयगि यावृत्तिः ॥ ५५ ॥ “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्ति: [१४६] + भाष्यं [ २२...] प्रक्षेपं " ८० + आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः दस ससिहागा सावग पवयण साहम्मिया न लिङ्गेण । लिङ्गेण उ साहम्भी नो पवयण निहगा सव्वे ॥ १४६ ॥ व्याख्या--प्रवचनतः साधर्मिका न लिङ्गेन अविरतसम्यग्दृष्टेरारभ्य यावदशमीं श्रावकप्रतिमां प्रतिपन्ना ये श्रावकास्तेऽत्र द्रष्टव्याः, कुत इत्याह-' दस ससिहागा' इत्यत्र 'निमित्तकारणहेतुष्षु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति न्यायाद्धेती प्रथमा, ततोऽयमर्थःयतस्ते दशमीं श्रावकप्रतिमां प्रतिपन्नाः 'सशिखाकाः ' शिखासहिताः केशसहिता एवेत्यर्थः, ततस्ते प्रवचनत एव साधर्मिका भवन्ति न लिङ्गतो, ये स्वेकादशीं श्राचकप्रतिमां प्रतिपन्नास्ते निष्केशा इत्यादिना लिङ्गतोऽपि साधर्मिका भवन्तीति तद्विवर्जनम्, एतेषां चार्थाय यस्कृतं तत्साधूनां कल्पते, तथा लिङ्गतः साधर्मिका न प्रवचनतो निवाः तेषां प्रवचनवहिर्भूतत्वेन प्रवचनतः साधर्मिकत्वाभावात् लिङ्गं तु तेषामपि रजोहरणादिकं विद्यते इति लिङ्गतः साधर्मिकाः तेषामप्पर्थाय कृतं साधूनां कल्पते, निहवा दिवा-छोके निवत्वेन ज्ञाता | अज्ञाताच, तत्र ये ज्ञातास्ते इद ग्राद्याः, अज्ञातानां लोके साधुत्वेन व्यवहरणभावतः प्रवचनान्तर्वर्त्तित्वात् इहाय भयेन उदाहृते शेषमुत्तरं भङ्गद्वयं स्वयमेव श्रोतारोऽवभोरस्यन्ते इति बुद्धया निर्मुक्तिकृनोदाहृतवान्, अनेनैव च कारणेन शेषाणामपि चतुर्भङ्गिकाणामाद्यमेव भङ्गद्वयमुदाहरिष्यति नोत्तरं भङ्गद्वयं वयं तु सुखावबोधायोदाहरिष्यामः, तत्रास्यामेव प्रथमचतुर्भङ्गिकायां प्रवचनतः साधर्मिका लिङ्गतथेति तृतीयभङ्गे उदाहरणं साधवः एकादशीं प्रतिमां प्रतिपन्नाः श्रावका वा, तत्र साधूनामर्थाय कृतं न कल्पते श्रावकाणा स्वर्थाय कृतं कल्पते, न प्रवचनतः साधर्मिका नापि लिङ्गतस्तीर्थकरमत्येकबुद्धाः तेषां प्रवचनलिङ्गातीतत्वात् तेषापर्याय कृतं कल्पते, द्वितीया चतुमेङ्गिका प्रवचनतः साधर्मिका न दर्शनतो, दर्शनतः साधर्मिका न प्रवचनतः, प्रवचनतः साधर्मिका दर्शनतथ न प्रवचनतो न दर्शनतः, तत्राद्यभङ्गद्वयोदाहरणमाह Education International आधाकर्मणि साधर्मिकाणां चतुर्भङ्गी कथयते For Park Use Only ~113~ आधाकर्म णि साधमिकचतु भेङ्गयः | ॥ ५५ ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१६९] → “नियुक्ति: [१४७] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१४७|| विसरिसदसणजुत्ता पवयणसाहम्मिया न दंसणओ । तित्यारा पत्तेया नो पश्यणदंसप्ताहम्मी ॥ १४७ ॥ व्याख्या-प्रवचनतः सामिका न दर्शनतः, 'विसदृशदर्शनयुक्ताः' विभिन्नायिकादिसम्यक्त्वयुक्ताः साधवः श्रावका वा, किमुक्तं भवति ?-एकेषां साधूनां श्रावकाणां वा क्षायोपशमिक दर्शनमपरेषां त्वौपशमिक क्षाषिक वा ते परस्परं प्रवचनतः साधर्मिका न दर्शनतः, सत्र साधूनामर्थाय कृतं साधूनां न कल्पते श्रावकाणां त्वर्थाय कृतं कल्पते तथा दर्शनतः साधर्मिका न मवचनतः, तीर्थकराः प्रत्येकबुद्धा वा समानदर्शना वेदितव्याः, तेषामर्थाय कृतं साधूनां कल्पते, प्रवचनतः साधर्मिका दर्शनतव, साधवः श्रावका वा समानदर्शनाः, अत्रापि साधूनामर्थाय कृतं न कल्पते श्रावकाणां त्वाय कृतं कल्पते, न मवचनतो नापि दर्शनतस्तीर्थकरप्रत्येकबुद्धनिवाः, तत्र तीर्थकराः प्रत्येकबुद्धाश्च विभिन्नदर्शना वेदितव्याः, निहवाश्च मिथ्यादृष्टयः प्रतीता एव, एतेषां च सर्वेषामर्थाय कृतं कल्पते । तृतीया चतुभङ्गिका प्रवचनतः साधर्मिका न ज्ञानतः, ज्ञानतः साधर्मिका न प्रवचनतः, प्रवचनतोऽपि साधर्मिका ज्ञानतश्च, न प्रवचनतो नापि ज्ञानतः, एवं चतुर्थ्यपि चतुर्भङ्गिका प्रवचनस्य चारित्रेण सह वेदितव्या, एतयोईयोरपि चतुर्भडिकयोरायमाद्यं भङ्गदयमतिदेशेनोदाहरति नाणचरित्ता एवं नायबा होति पवयणेणं तु । व्याख्या-यथा प्रवचनेन सह दर्शनमुक्तम् , एवं ज्ञानचारित्रे अपि प्रवचनेन सह ज्ञातव्ये, तद्यथा-प्रवचनतः साधर्मिका न ज्ञानतः, विसदृशज्ञानसहिताः साधवः श्रावका वा, अत्रापि यदि साधनस्तार्ह न कल्पते, अथ श्रावकास्तहि कल्पते, ज्ञानतः साधर्मिका न प्रवच दीप अनुक्रम [१६९] ~114~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१६९] → “नियुक्ति: [१४७] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१४७|| पिण्डनियुनतः, तीर्थकराः प्रत्येकबुद्धा वा समानज्ञानाः, तेपामर्थाय कृतं कल्पते, प्रवचनत: साधर्मिका ज्ञानतश्च, साधकः श्रावका वा समानज्ञानाः आधाकर्मकेमेळयगि-1 अत्रापि साध्वयं कृतं न कल्पते, श्रावकाणां स्वर्थाय कृतं कल्पते, न प्रबचनतो नापि ज्ञानतस्तीर्थकरमत्येकवद्धनिद्वाः, तत्र तीर्थकराःणि साधा रीयावृत्तिः प्रत्येकबुद्धाश्च विभिन्नज्ञाना बेदितव्याः, निदवास्नु मिथ्याष्टित्वादशानिनः प्रतीता एव, एतेषां सर्वेपामध्यर्थाय कृतं कल्पते, तथा प्रवच- कचतुस /नतः साधर्मिका न चारित्रतः साधवः श्रावकाच, तत्र साधको विसदृशचारित्रसहिता बेदितव्याः, श्रावकाणां त्वविरतसम्यग्दृष्टीनां सर्वथा । पिरत्यभावेन देशविरताना तु देशचारित्रतया चारित्रता साधर्मिकत्वाभावः मुमतीतः, साध्वथै चेत्कृतं न कल्पते श्रावकार्य चेदि | कल्पते, चारित्रतः साधर्मिका न प्रवचनतः, तीर्थकरमत्येकबुद्धाः समानचारित्राः, तेषामर्थाय कृतं कल्पते, प्रवचनतः साधर्मिकाश्चारित्र तश्च साधवः समानचारित्राः, तेषामर्थाय कृतं न कल्पते, न प्रवचनतो नापि चारित्रतस्तीर्थकरसस्पेकबुद्धनिङ्गवाः, तत्र तीर्थकरमस्पेकबुद्धा Te|विसदृशचारित्रा वेदितव्याः, निहवास्त्वचारित्रिण एव, एतेषां च सर्वेषामप्यर्थाय कृतं कल्पते ॥ पश्चमी चतुर्भगिका प्रवचनतः साधर्मिका नाभिग्रहतः, अभिग्रहतः साधर्मिका न प्रवचनतः, प्रवचनतोऽपि साधर्मिका अभिग्रहतश्च, न प्रवचनतोऽपि नाप्यभिग्रहतश्च, एवं षष्ठयपि चतुर्भङ्गिका प्रवचनस्य भावनया सह वेदितव्या, एतयोईयोरपि चतुर्भङ्गिकयोः प्रत्येकमार्य भङ्गाद्वयमदाहरति पवयणओ साहम्मी नाभिग्गह सावगा जइणो ॥ १४८ ।। साहम्मऽभिग्गहेणं नोपवयण निण्ह तित्थ पत्तेया । एवं पवयणभावण एत्तो सेसाण वोच्छामि ॥ १४९ ॥ ___ व्याख्या-प्रवचनतः साधर्मिका नाभिग्रहतः श्रावका यतयश्च विसदृशाभिग्रहसहिताः, तत्र श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साधू दीप अनुक्रम [१६९] ~115~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७१] → “नियुक्ति: [१४९] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१४९|| ||नाम् , अभिग्रहेण सामिका न प्रवचनेन, निह्नवतीर्थंकरप्रत्येकबुद्धाः, एतेषां चाय कृतं कल्पते, प्रवचनतः साधर्मिका अभिग्रहता। साधवः श्रावकाच समानाभिग्रहाः, अत्रापि श्रावकाणामोंय कृतं कल्पते न साधूनां, न प्रवचनतो नाप्यभिग्रहतः, तीर्थकरप्रत्येकबुद्ध|| निहवा विसदृशाभिग्रहकलिता निरभिग्रहा बा, तेषामोय कृतं कल्पते, 'एवं पवयणभावण 'चि एवं-पूर्वोक्तेन प्रकारेण प्रवचनभावनेति-18 प्रवचनभावनाचतुर्भमिका भावनीया, तद्यथा-प्रवचनतः साधर्मिका न भावनातः, साधवः श्रावका वा विसदृशभावनाकाः, अत्रापि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनां, भावनातः साधर्मिका न प्रवचनतः, निवतीर्थकरमत्येकबुद्धास्तेषामर्थाय कृतं कल्पते, प्रवचनतः || साधर्मिका भावनातच, साधवः श्रावकाश्च समानभावनाकाः, तत्र आवकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनां, न प्रवचनतो नापि भावनातः | तीर्थकरमत्येकबुद्धनिहवा विसदृशभावनाकाः, एतेषामर्थाय कृतं कल्पते, तदेवमुक्तानि प्रवचनाश्रितानां पण्णां चतुर्भशिकानामुदाहरणानि, एत्तो सेसाण बोच्छामिति इत ऊर्च शेषाणां चतुर्भगिकाणामुदाहरणानि वक्ष्ये । प्रतिज्ञातमेवातिदेशेन निर्वाहयति---- लिंगाईहिवि एवं एकेकेणं तु उवरिमा नेया । जेऽनन्ने उवरिल्ला ते मोत्तुं सेसए एवं ।। १५०॥ | व्याख्या-'लिङ्काईहिवि' इत्यत्र सप्तम्यर्थे तृतीया ततोऽयमर्थः-एवं-पूर्वोक्तेन प्रकारेण लिङ्गादिष्वपि-लिङ्गदर्शनप्रभृतिष्ववि पदेषु एकैकेन लिङ्गादिना पदेन 'उपरितनानि' दर्शनज्ञानप्रभृतीनि पदानि नयेत् , किमुक्तं भवति ?-लिङ्गदर्शनप्रभृतिषु पदेषु दर्शनज्ञानादिभिः पदैः सह याश्चतुर्भशिकास्ताः पूर्वोक्तानुसारेणोदाहरेत्, अतीवेदं सक्षिप्ततरमुक्तम्, अतोन्यक्षेण विवक्षुरिदमाह जेऽनन्ने' इत्यादि, ये अनन्ये-उदाहरणापेक्षया अन्यादृशा न भवन्ति भङ्गाः तान्मुक्त्वा शेषकान् भङ्गकान् एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण जानीत, इयमत्र भावना-इह लिङ्गदर्शनयोय चत्वारो भङ्गाः सोदाहरणा वक्ष्यन्ते-तादृशा एवं प्राय उदाहरणापेक्षया लिङ्गज्ञानलिङ्ग दीप अनुक्रम [१७१] 4000०००००००00000000000000000000 RurationA L I m urary.org ~116~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७२] → “नियुक्ति: [१५०] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५०|| पिण्डनियु-18चरणयोरपि भङ्गाः, ततस्तान् मुक्त्वा लिङ्गदर्शनलिङ्गाभिग्रहादिसत्कान् भङ्गानुदाहरिष्यामीति, तत्र लिङ्गदर्शनयोरियं चतुर्भतिका आधाकर्म लिङ्गतः साधर्मिका न दर्शनतः, दर्शनतः सामिका न लिङ्गतः, लिङ्गतोऽपि साधर्मिका दर्शनतश्च, न लिङ्गतो नापि दर्शनतः, तत्राचं साधरीयात्तिः भङ्गद्वयमुदाहरति मिकचतु भेङ्गन्यः ॥५७॥ लिङ्गेण उ साहम्मी न दंसणे वीसुदसि जइ निण्हा । पत्तेयबुद्ध तित्थंकरा य बीयंमि भगमि ॥ १५॥ व्याख्या-लिङ्गेन साधर्मिका 'न दसणे' इत्पत्र तृतीयार्थे सप्तमी न दर्शनेन, 'विष्यगदर्शना' विभिन्नदर्शना यतयो निह. वाथ, उपलक्षणमेतत् , विभिन्नदर्शना एकादापतिमापतिपन्नाः श्रावकाच, तत्र निहवा मिथ्याष्टियान दर्शनतः साधर्मिकाः, अत्र च। कानिहवानां श्रावकाणां चार्थाय कृतं कल्पते न यतीनां, द्वितीये भने दर्शनतः साधर्मिका न लिङ्गत इत्येवंरूपे प्रत्येकबुद्धास्तीकृत एका दशमतिमापतिपन्नवर्जाः श्रावकाश्च समानदर्शना ज्ञेयाः, नेपामर्थाय कृतं कल्पते, शेष भादयं वषमुदाइरामः, लिङ्गतः साधमिका दर्शनतश्च । बासमानदर्शना साधव एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नाः श्रावकाश, अवापि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनां, न लिङ्गतो नापि दशेनतो |विसहशदर्शनाः प्रत्येकबुद्धतीर्थकरा एकादशप्रतिमापतिपनवजोः श्रावकाच, तेपामर्थाय कृतं कल्पते, लिङ्गज्ञानचनुभङ्गिका क्षेत्र, लिङ्गतः। साधर्मिका न ज्ञानतः, ज्ञानतः साधर्मिका न लिङ्गतः, लिङ्गतः साधर्मिका ज्ञानतश्च, न लिङ्गतो नापि ज्ञानतः, अस्याश्चतुर्भशिकाया आ यभङ्गयोदाहरणानि पायो लिङ्गदर्शनचतुर्भनिकायद्वयसहशानीतिकृत्वा नियुक्तिकबोदाहरति, ततो वयमेवोदाहराम:-लिङ्गतः साध-18|॥५॥ भार्मिका न ज्ञानतः, विभिन्नशाना यतय एकादशी प्रतिमा प्रतिपत्राः श्रावका निहवाश्थ, अत्रापि श्रावकाणां निहवानां चार्थीय कृतं कल्पते ना यतीना, ज्ञानतः साधर्मिका न लिङ्गतः समानज्ञानास्तीर्थकरप्रत्येकबुद्धा एकादशमतिमावोः श्रावकाच, तेपामर्थाय कृतं कल्पते, लिङ्गतः दीप अनुक्रम [१७२] 4 ~117~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७३] → “नियुक्ति: [१५१] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५१|| साधर्मिका ज्ञानतश्च समानज्ञानाः साधव एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नाः श्रावकाच, अत्रापि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनां, न || लिङ्गतो नापि ज्ञानतो, विभिन्नज्ञानाः प्रत्पेकबुद्धतीर्थकरा एकादशमतिमापतिपन्नवी श्रावकाच, एतेषामर्थाय कृतं कल्पते, लिङ्गचरणयोरियं चतुर्भड्किा , लिगतः सार्मिका न चरणत:, चरणत: साधर्मिका न लिङ्गतो, लिङ्गतः साधर्मिकाश्चरणतय, न लिङ्गतो नापि चरणतः, अस्या अपि चतुर्भनिकाया उदाहरणानि प्रायः पूर्वसदृशानीतिकृत्वा नियुक्तिन्नोदाहृतवान् ततोऽइमेवोदाहरामि, लिङ्गतः साधर्मिका न चरणतो विभिन्नचारित्रा यतया, एकादशी प्रतिमा प्रतिपनाः श्रावका नियान, अत्र श्रावकाणां निद्ववानां चार्थाय कृतं कल्पते न यतीनां, चरणत: साधर्मिका न लिङ्गता, प्रत्येकबुद्धास्तीर्थकृतच समानचारित्राः, तेपामर्थाय कृतं साधूनां कल्पते, लिङ्गतः साधर्मिकावरणतश्च । समानचारित्रा यतयः, तेषामर्थाय कृतं न कल्पते, न लिङ्गतो नापि चरणतो विसदृशचरणाः प्रत्येकबुद्धतीर्थकरा एकादशप्रतिमावर्जाः श्रावकाच, तेषामर्थाय कृतं करपते ।। लिङ्गाभिग्रहयोश्चतुर्भङ्गिका इयं-लिङ्गतः साधर्मिका नाभिग्रइतः, अभिग्रहतः साधर्मिका न लिङ्कतो, कित: साधर्मिका अभिग्रहतध, न लिङ्गतो नाप्यभिग्रहतः, तत्रार्थ भयमुदाहरति| लिंगेण उ नाभिग्गह अणभिग्गह वीसुऽभिग्गही चेव । जइ साबग बीयभंगे पत्तेयबुहा य तित्थयरा ॥ १५२ ॥ ___ व्याख्या-लिङ्गेन साधर्मिका नाभिग्रहतोऽनभिग्रहाः, यद्वा विष्वाभित्रहिणो' विभिन्नाभिग्रहकलिता यतय एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नाः श्रावकाच वेदितव्याः, उपलक्षणमेतन्निवाथ, अआपि निदवानां श्रावकाणां चार्थाय कृतं कल्पते न यतीनाम् १, अभिग्रहतः सापमिका न लिङ्गात इत्येवंरूपे द्वितीये भने प्रत्येकबुद्धास्तीर्थ कराश्वशब्दादेकादशप्रतिमावर्जाः श्रावकाच समानाभिग्रहा द्रष्टव्या:, एतेषाकामयोंय कृतं कल्पते २, लिङ्गतः साधर्मिका अभिग्रहतश्च समानाभिग्रहाः साधर एकादशी प्रतिमा प्रतिपत्राः श्रावका निद्ववाथ, अत्रापि दीप अनुक्रम [१७३] ~118~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७५] → “नियुक्ति: [१५३] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५३| भयः पिण्डनियु- श्रावकनिहवानामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनां ३, न लिङ्गतो नाप्यभिग्रहतश्च विसदृशाभिग्रहास्तीर्थकरमत्येकबुद्ध कादशप्रतिमावर्जश्रावका आधाकर्मतमेळयाग- एतेषामर्थाय कृतं कल्पते ॥ लिङ्गभावनयोरियं चतुर्भडिका-लिङ्गतः साधर्मिका न भावनातः भावनातः साधर्मिका न लिङ्गतो लिङ्गतःसाधरापाष्ठात्तः साधर्मिका भावनातश्च न लिङ्गतो नापि भावनातः, तत्रास्या उदाहरणान्यतिदेशेनाह मिकचतु॥५८॥16 एवं लिङ्गेण भावण । व्याख्या-यथा लिने अभिग्रहेण भने दाहृतमेवं भावनयाऽऽप्युदाहर्त्तव्यं । तच्चैवम्-लिङ्गातः साधर्मिका न भावनातः, भावनारनाहिता विष्वगूभावना वा यतय एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नाः श्रावका निहवाच, अत्र श्रावकनिहवानामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनामयोय १, भावनातः साधर्मिका न लिङ्गतः, प्रत्येकयुद्धास्तीर्थकृत एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नाः श्रावकाश्च समानभावनाकाः, एतेषामोय कृतं कल्पते २ मालिङ्गतः साधर्मिका भावनातश्च समानभावनाकाः साधव एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नाः आवका निहवाच, अत्रापि श्रावकनिहवानामर्थाय । कृतं कल्पते न यतीनां ३, न लिङ्गतो नापि भावनातो विसदृशभावनाकास्तीर्थकरमत्येकबुद्धैकादशपतिमावर्जबावकाः, एतेषामोय कृतं । कल्पते ॥ तदेवं लिङ्गविषया पञ्च चतुर्भङ्गिका उक्ताः, सम्पति दर्शनस्य नानादिभिः सह वक्तव्याः, तत्र दर्शनज्ञानयोरियं चतुभेनिका-- दर्शनतः सार्मिका न ज्ञानतः ज्ञानतः साधार्मका न दर्शनतः दर्शनतोऽपि साधर्मिका ज्ञानतश्च न दर्शनतो नापि ज्ञानतः, तत्राचं ॥५८॥ भङ्गादयमुदाहरति दसणनाणे य पढम भंगो उ । जइ साबग बीसुनाणी एवं चिय बिइयभंगोऽवि ॥ १५३ ॥ दीप अनुक्रम [१७५] ~119~ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७५] → “नियुक्ति: [१५३] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५३|| व्याख्या-'दर्शनज्ञाने' दर्शनज्ञानविषयायां 'चा' समुच्चये, प्रथमो भगो दर्शनतः साधर्मिका न ज्ञानत इत्येवरूपः 'विष्यम्ज्ञानिनः' विभिन्नज्ञानाः समानदर्शना यतयः श्रावकाच वेदितव्याः, तत्र श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनामर्थाय कृतम् । एवमेव ज्ञानतः साधर्मिका न दर्शनत इत्येवंरूपो द्वितीयो भङ्गोऽपि ज्ञातव्यः, तत्रापि यतयः श्रावकाच वेदितव्या इत्यर्थः, केवलं विभिन्नदर्शनाः समानज्ञानाः, अत्रापि कल्प्याकल्प्यविधिः प्रागिव, ज्ञानतः साघमिका दर्शनतच समानज्ञानाः समानदर्शना यतयः श्रावकाच, अत्रापि कल्प्याकल्प्यविधिः माग्वत , न ज्ञानतो नापि दर्शनतो विसदृशज्ञानदर्शनाः साधवः श्रावका निहवाश्च, अत्र श्रावकनिहवानामर्थाय कृतं कल्पते न साधनां ।। दर्शनचरणयोचतुर्भशिका त्वियं-दर्शनतः साघमिका न चरणतः चरणतः साधर्मिका न दर्शनतः दर्शनतोऽपि साधर्मिकाश्चरणतश्च न दर्शनतो नापि चरणतः, तत्राय भङ्गद्वयमुदाहरतिदसणचरणे पढमो सावग जइणो य बीयभंगो उ । जइणो विसरिसदंसी दंसे य अभिग्गहे वोच्छं । १५४ ॥ व्याख्या-'दर्शनचरणे' दर्शनचरणचतुर्भङ्गिकायां प्रथमो भङ्गो दर्शनतः सामिका न चरणत इत्येवंरूपः समानदर्शनाः श्रावका : विसदृशधरणा यतयच, अत्र श्रावकाणामर्याय कृतं कल्पवे न यतीनामोंय कृतं १, द्वितीयो भङ्गः पुनश्चरणतः सामिका न दर्श-13 नत इत्येवंरूपो विसदृशदर्शनाः समानचारित्रा यतयः, एतेपामर्थाय कृतं न कल्पते २, दर्शनतः साधर्मिकाश्चरणतश्च समानदर्शनचरणा यतयः, अप्रापि न कल्पते ३,न दर्शनतो नापि चरणतो निदवा विसदृशदर्शनाः श्रावका विसदृशदर्शनचरणा यतयश्च, तत्र निवश्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न यतीना, दर्शनाभिग्रहयोरियं चतुर्भगिका-दर्शनतः साधर्मिका नाभिग्रहतः, अभिग्रहतः साधर्मिका न दर्शनतः, दीप अनुक्रम [१७५] ~ 120~ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७६] » “नियुक्ति: [१५४] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५४|| पिण्डनियु- दर्शनतः साधर्मिका अभिग्रहतश्च, न दर्शनतो नाप्पभिप्रहतः, तत्राय भङ्गादपमुदानिहोरिदमाह-'दसग' इत्यादि, दर्शनेऽभिग्रहे चायभ- आधाकर्मतेर्मळयगि-1 अद्वयमधिकृत्योदाहरणं वक्ष्ये । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति आणि साधरीयावृत्तिः शर्मिकचतुसावग जइ वीसऽभिग्गह पढमो बीओ य भेडया ॥५॥ व्याख्या-समानदर्शनाः 'विष्वगभिग्रहाः ' विभिन्नाभिग्रहाः श्रावका यतयश्च दर्शनतः साधर्मिका नाभिग्रहत एवंरूपः प्रथमो | भङ्गः, अत्रापि श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनां, द्वितीयोऽपि भनोऽभिग्रहतः साधर्मिका न दर्शनत इत्येवलक्षणः श्रावकयतिरूप एव, केवलं ते यतयः थावकाश्च विसदृशदर्शनाः समानाभिग्रहा वेदितव्याः, उपलक्षणमेतत, तेन निहवाश्च समानाभिग्रहाः ज्ञातव्याः, अत्र श्रावकनिहवानामर्थाय कृतं कल्पते न यतीनां, दर्शनतः साधर्मिका अभिग्रहतश्च समानदर्शनाभिग्रहाः साधुश्रावकाः, अत्रापि । श्रावकाणामर्थाय कृतं कल्पते न साधना, न दर्शनतो नाप्यभिग्रहतो विसदृशदर्शनाभिग्रहाः साधुश्रावकनिहवाः, अत्र कल्प्याकल्प्यविधिद्वितीयभङ्गवत् । दर्शनभावनयोरियं चतुर्भङ्गिका-दर्शनतः साधर्मिका न भावनातो, भावनातः साधर्मिका न दर्शनतः, दर्शनतोऽपि साधर्मिका भावनातच, न दर्शनतो नापि भावनातः । अस्या आधभषोदाहरणातिदेशार्थमाह भावणा चेवं । व्याख्या-न्यथा दर्शनेन अभिग्रह उदाहृत एवं भावनाऽप्युदाहर्तव्या, सा चैव-दर्शनतः साघमिका न भावनातः, विसदृशभावनाकाः समानदर्शनाः श्रावका यतयः, भावनातः साधर्मिका न दर्शनतो विसरश दर्शनप्तपानभावनाकाः साधवः आवका निवाश्च, दर्श दीप अनुक्रम [१७६] &000000000000000000 ~121~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७] “नियुक्ति: [१५५] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५५| नतः साधर्मिका भावनातच समानदर्शनभावनाकाः साधुश्रावकाः, न दर्शनतो नापि भावनातो विसदृशदर्शनभावनाकाः साधुश्रावकनिवाः, अत्र चतुर्वपि भङ्गेषु कल्प्याकल्पविधिः पागिव । तदेवं दर्शनविषया अपि चतस्रश्चतुर्भङ्गिका उक्ताः, सम्पति ज्ञानस्य चारित्रादिभिः सह वक्तव्याः, ताश्चातिदेशेनाह नाणेणऽवि नेज्जेवं व्याख्या-यथा दर्शनेन सह चतस्रश्चनुर्भङ्गिका उक्ताः एवं ज्ञानेनापि सह चारित्रादीनि पदान्यधिकृत्य तिस्रवतुर्भङ्गिका भावनीयाः । अतीवेदं सद्धिसमुक्तमतः स्पष्टं विवियते-जानचरणयोरियं चनु निका, ज्ञानतः साधर्मिका न चरणतः, चरणतः सामिका न ज्ञानतः, ज्ञानतोऽपि साधार्मिकाश्चरणतच, न ज्ञानतोऽपि नापि चरणतः । तत्र ज्ञानतः साधर्मिका न चरणतः, समानज्ञानाः श्रावका विसदृशचरणसमानज्ञाना यतयश्च, अत्र श्रावकाणामय कृतं कल्पते न यतीनां १, चरणतः साधर्मिका न ज्ञानतो विसदृशज्ञानाः समानचरणा यतयः, अत्रन कल्पते २, ज्ञानतः साधमिकाथरणतश्च समानज्ञानचरणा यतयः, अत्रापि न कल्पते ३, न ज्ञानतो नापि चरणतो विसदृशज्ञानचरणा यतयो विसाशज्ञानाः श्रावका निहवाश्च, अत्र श्रावकनिदवानामर्धाय कृतं कल्पते न यतीनां ४, ज्ञानाभिग्रहयोरियल चतुर्भलिका-ज्ञानतः साधर्मिका नाभिग्रहतः, अभिप्रहतः साधर्मिका न ज्ञानतः, ज्ञानतोऽपि साधर्मिका अभिग्रहतश्च, न ज्ञानतो नाप्यभिन-18 हतः । तत्र ज्ञानतः साधर्मिका नाभिग्रहतः सपानज्ञाना विसदृशाभिग्रहाः साधुश्रावकाः, अत्र श्रावकाणापर्थाय कृतं कल्पते न साधूनाम् १, अभिग्रहतः साधर्मिका न ज्ञानतो विसशज्ञानाः समानाभिप्रहाः साधुश्रावकाः समानाभिग्रहा निहवाश्थ, अत्रापि श्रावकनिहवानामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनां २, ज्ञानतः साधर्मिका अभिग्रहतच समानज्ञानाभिग्रहाः साधुश्रावकाः, अत्र कल्प्याकलप्यविधिः प्रथमभङ्ग इव ३, दीप अनुक्रम [१७७] ~122~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७] “नियुक्ति: [१५५] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: कर प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५५| पिण्डनियु-न ज्ञानतो नाप्यभिग्रहतो विसदृशज्ञानाभिग्रहाः साधुश्रावका विसदशाभिग्रहा निवाश्च, अत्र द्वितीयभङ्गे इव कल्प्याकल्प्यभावना ४ा आधाकर्मतेमेकयगि-ज्ञानभावनयोरियं चतुर्भडिका-ज्ञानतः साधर्मिका न भावनातः, भावनातः साधामिका न ज्ञानतः, ज्ञानतोऽपि साधमिका भावनातचणि साधरीयावृत्तिः न ज्ञानतो नापि भावनातः । तत्र ज्ञानतः साधर्मिका न भावनातः समानज्ञाना विसदृशभावनाकाः साधुश्रावका १, भावनातः साध-समचतुः ॥६॥ मिका न ज्ञानतो विसदृशज्ञानाः समानभावनाकाः साधुश्रावकाः समानभावना निहवाश्च २, ज्ञानतः साधर्मिका भावनातच समानज्ञानभावनाकाः साधुश्रावकाः ३, न ज्ञानतो नापि भावनातो विसदृशभावनाः साधुश्रावका विसहशभावना निवाश्च ४, अत्र चतुर्वपि भङ्गकेषु कल्प्याकम्प्यभावना मागिव । तदेवं ज्ञानविषया अपि तिस्रश्चतुर्भनिका उक्ताः, सम्मति चरणेन सह यचनु निकाद्वयं || तदुदाहमाह एत्तो चरणेण वोच्छामि ॥ १५५ ॥ व्याख्या-इत ऊर्दै चरणेन सह ये द्वे चतुङ्गिके तदुदाहरणानि वक्ष्ये तत्र चरणाभिग्रहयोरियं चतुर्भशिका-चरणतः सामिका नाभिग्रहतः, अभिग्रहतः साधर्मिका न चरणतः, चरणतोऽपि साधर्मिका अभिग्रहतश्च, न चरणतो नाप्यभिग्रहतः । तत्राचं भङ्गाद्वयमुदाजिहीर्घराह जइणो वीसाभिग्गह पढ़मो बिय निण्हसावगजइणो उ (ईणो)। व्याख्या-चरणतः सार्मिका नाभिग्रहत इत्येवरूपः प्रथमो भगः, समानचरणा 'विष्वगभिग्रहाः' विभिन्नाभिग्रहा यतयः, अत्र। न कल्पते, अभिग्रहतः साधर्मिका न चरणतः इत्येवंरूपो द्वितीयो भङ्गः समानाभिग्रहा निहवाः श्रावका विभिन्नचरणा यतयश्च, अत्र दीप अनुक्रम [१७७] ६०॥ IATIOTarmera ~123~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५६|| दीप अनुक्रम [१७८] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> + प्रक्षेपं " • आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः “निर्युक्ति: [१५६] + भाष्यं [ २२...] मूलं [ १७८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित श्रावकाणां निवानां चार्थाय कृतं कल्पते न यतीनां २, चरणतः साधमिका अभिग्रहतथ समानचरणाभिग्रहा यतयः, अत्र न कल्पते ३, न चरणतो नाप्यभिग्रहतः विसदृशाभिग्रहचरणाः साधवों विसदृशाभिग्रहाः श्रावकनिवाथ, अत्र कल्प्या कल्प्यभावना द्वितीयभङ्ग इव ४, चरणभावनयोरियं चतुर्भङ्गिका-चरणतः साधर्मिका न भावनातः भावनातः साधर्मिका न चरणतः चरणतः साधर्मिका भावनातच न चरणतो नापि भावनातः अस्या उदाहरणान्यतिदेशत आह एवं तु भावणासुवि व्याख्या—यथा चरणेन सहाभिग्रहे उदाहृतम् एवं भावनास्वप्युदाहर्त्तव्यं तचैवं चरणतः साधर्मिका न भावनातः समानचरणविभिन्नभावना यतयः १, भावनातः साधर्मिका न चरणतः समानभावना निहवाः श्रावका विभिन्नचरणा यतपथ २, चरणतः | साधर्मिका भावनातच समानचरण भावना यतयः ३, न चरणतो नापि भावनातो विसदृशचरण भावनाः साधवो विसदृशभावनाः श्रावका निवास ४, अत्र चतुर्ष्वपि भङ्गकेषु कल्प्या कल्प्यविधिः प्रागिव । तदेवं चरणविषयेऽपि द्वे चतुर्भङ्गिके उक्ते, सम्प्रत्यभिग्रह भावनयोचतुर्भङ्गिकां वक्तुकाम आइ वोच्छं दोपहंतिमाणित्तो ॥ १५६ ॥ व्याख्या - इत ऊर्ध्वं द्वयोरन्तिमयोः - अभिग्रहभावनाळक्षणयोः पदयोश्चतुर्भङ्गिकामुदाहरणतो वक्ष्ये । तत्र तयोरियं चतुर्भङ्गिका| अभिग्रहतः साधर्मिका न भावनातः, भावनातः साधर्मिका नाभिग्रहतः, भावनातः साधर्मिका अभिग्रहतथ, नाभिग्रहतो नापि भावनातः तत्राद्यं भङ्गद्वयमुदाजिहीर्षुराद - Ja Education International For Parts Only ~ 124~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१७९] → “नियुक्ति: [१५७] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: आधाकर्म पिण्डनियुमेलयगिरीयारतिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५७|| ॥६१॥ जइणो सावा निण्हव पढमे बिइए य हुंति भंगे य। व्याख्या-अभिग्रहतः साधर्मिका न भावनात इत्येवंरूपे प्रथमे भङ्गे भावनातः साधर्मिका नाभिग्रहत इत्येवरूपे द्वितीये च भङ्गे । णि साधयतयः आयका निहवाश्च भवन्ति, केवलं प्रथमभने समानाभिग्रहा विसदृशभावना वेदितव्याः, द्वितीये भने पुनः समानभावना विसदशा- मिक भरूभिग्रहाः, अभिग्रहतः साधर्मिका भावनातच समानभावनाभिग्रहाः साधुश्रावकनिहवाः, नाभिग्रहतो नापि भावनातो विसदृशभावना पणा भिग्रहाः साधुश्रावकनिहवाः । अत्र चतुपि भङ्गेषु आवकनिहवानामर्थाय कृतं कल्पते न साधूनामिति । तदेवमुक्का एकत्रितिरपि चतुर्भत्किाः , सम्पति सामान्यकेचलिनं तीर्धकरं चाधिकृत्य कल्प्याकल्प्यविधि कथयति केवलनाणे तित्थंकरस्स नो कप्पइ कयं तु ॥ १५७॥ व्याख्या-'केवलज्ञाने' केवलज्ञानिनः सामान्यसाधोः, उपलक्षणमेवत, तेन तीर्थकरमस्पेकबुद्धर्जानां शेषसाधूनामित्यर्थः । तीर्थकरस्य, तीर्थकरग्रहणमुपलक्षणं तेन प्रत्येकबुद्धस्य चार्थाय कृतं यथाक्रमं न कल्पते, तुशब्दस्यानुक्तार्थसमुदायकत्वात् कल्पते च, इयमत्र भावना-तीर्थकरप्रत्येकबुद्धवर्जशेपसाधूनामर्थाय कृतं न कल्पते, तीर्थकरप्रत्येकबुद्धानां त्वाय कृतं कल्पते, तथाहि-तीर्थकरनिमित्तं सुरैः कृतेऽपि समवसरणे तत्र साधूनां देशनाश्रवणार्थमुपवेशनादि कल्पते, एवं भक्तायपि, एवं प्रत्येकबुदस्यापि । सम्मति याना-15 नित्य पूर्वोक्ता भङ्गाः सम्भवन्ति स्म तान् प्रतिपादयति ६१॥ पत्तेयबुद्ध निण्हव उवासए केवलीवि आसज्ज । खड्याइए य भावे पडच भंगे उ जोएज्जा ॥ १५८ ॥ व्याख्या-प्रत्येकबुद्धान निसवान् 'उपासकान् श्रावकान् 'केवलिनः' तीर्थकरान् अपिशब्दाच्छेप साधू माश्रित्य तथा क्षायि दीप अनुक्रम [१७९] ~125~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१८०] → “नियुक्ति: [१५८] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५८|| कादीन् भावान् । क्षायिकक्षायोपशामिकौपशमिकानि दर्शनानि, चशन्दाद्विचित्राणि ज्ञानानि चरणानि अभिप्रहान् भावनाच प्रतीत्य भङ्गान् योजयेत् । ते च तथैव योजिताः । तत्र प्रथमचतुर्भङ्गिका प्रवचनलिङ्गविषयामधिकृत्य विशेषतः कल्प्याकल्प्यविधिमाह| जत्थ उ तइओ भंगो तत्थ न कप्पं तु सेसए भयणा । तित्थंकरकेवलिणो जहकप्पं नो य सेसाणं ॥ १५९॥ व्याख्या-यत्र साधर्मिक तृतीयो भङ्गः प्रवचनतः साधर्मिका लिङ्गत्तश्चेत्येवंरूपस्तत्र न कल्पते, यतः प्रवचनतो लिङ्गतश्च साधर्मि-18 का प्रत्येकबुद्धतीर्थकरवर्जा यतयः ततस्तेषामर्थाय कृतं न कल्पते, तुशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः, स च श्रावकस्पैकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नस्य तृतीयभङ्गभाविनोऽप्याय कृतं कल्पते इति समुचिनोति, केचिदाहुः-एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नः साधुकल्प इति तस्याप्पय कृतं न कल्पते, तदयुक्तं, मूलटीकायामस्याथेस्यासम्मतत्वात् , मूलटीकायां हि लिङ्गाभिग्रहचतुर्भङ्गिकाविषये कल्प्याकल्प्यविधिरेवमुक्त:-"लिडे । नो अभिम्गहे जइ साहू न कप्पइ गिहत्यनिण्हवे कप्पइ "चि इह लिङ्गयुता गृहस्था एकादशी प्रतिमा प्रतिपन्नाः श्रावका एव लभ्यन्ते ततस्तेषामर्थाय कृतं कल्प्यमुक्तं, 'सेसए भयण त्ति शेषके भगकत्रये 'भजना' विकल्पना कचित् कथाश्चिकल्पते कचिन, भङ्गचतुष्टयमप्यधिकृत्य सामान्यत उदाहरति-तित्थंकरे 'त्यादि, यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः तीर्थकरकेवलिनोऽर्थाय कृतं कल्पते, इह तीर्थकर उत्पन्नकेवलज्ञान एव मायः सर्वत्रापि भूमण्डले प्रतीतो भवति, प्रतीतस्य च तीर्थकरस्यार्थाय कृतं कल्पते नामतीतस्प ततः केवलिग्रहणं, यदा | पुनश्छमस्थावस्थायामपि तीर्थकरत्वेन प्रतीतो भवति तदा तस्यामध्यवस्थायां तन्निमित्तं कृतं कल्पते, तीर्थकरग्रहणं च प्रत्येकबुद्धानामुपलक्षणं, तेन तेषामध्यर्थाय कृतं कल्पते, 'नो य सेसाणं 'ति शेषसाधूनामर्थाय कृतं न कल्पते, इदं च सामान्यत उक्त, ततोऽपुमेवार्थमुपजीव्य मृतीयवर्जे शेपे भङ्गत्रये भजना स्पष्टमुपदश्यते-प्रवचनतः साधर्मिका न लिङ्गतः, एकादशमतिमापतिपय ः शेषावकास्ते दीप अनुक्रम [१८०] ~ 126~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१८१] → “नियुक्ति: [१५९] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: आधाकर्मणि कित दातद्वार प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१५९|| दीप अनुक्रम [१८१] पिण्डनियु-पामर्थाय कृतं कल्पते, ये तु चौरादिमुपितरजोहरणादिलिङ्गाः साधवस्तेषामर्थाय कृतं न कल्पते, द्रव्यलिङ्गापेक्षया साधर्मिकत्वाभावेऽपि तमलयागि- भावतश्चरणसाधर्मिकत्वात् , लिङ्गतः साधर्मिका न प्रवचनतो निवाः ते यदि लोके निवत्वेन ख्यातास्ततस्तेषामर्थाय कृतं कल्पते. रायाटत्ति अन्यथा न, न प्रवचनतो न लिङ्गतः तीर्थकरप्रत्येकबुद्धास्तेषामर्थाय कृतं कल्पते, तदेवं प्रथमचतुभद्रिकामधिकृत्य कल्प्याकल्प्यविधिरुक्तः, एतदनुसारेण च शेषास्वपि चतुर्भङ्गिकामु विज्ञेया, सच प्रागेव प्रत्येकं दर्शितः । सर्वत्राप्ययं तात्पर्यार्थीऽवधारणीयः-यदि तीर्थकराः प्रत्येकबुद्धा निवाः श्रावका वा तर्हि तेषामर्थाय कृतं कल्पते साधूनामर्थाय कृतं न कल्पते । तदेवमुक्तः करप्याकल्प्यविधिः, तदुक्तौ च आहाकम्मियनामे 'त्यादिमूलद्वारगाथायां 'कस्स बाबी 'ति व्याख्यातं, सम्मति 'किं वावी 'ति व्याचिख्यासुराहकिंतं आहाकम्मति पुच्छिए तरसरूवकहणत्थं । संभवपदारसणत्थं च तरस असणाइयं भणइ ।। १६०॥ व्याख्या-किं तदाधाकर्म इति शिष्येण पृष्टे 'तत्स्वरूपकथनार्थम् ' आधाकर्मस्वरूपकथनार्थ तस्य ' आधाकर्मणः सम्भवप्रदर्शनार्थं च 'अशनादिकम् ' अशनपानखादिमस्वादिमं गुरुर्भणति, इयमत्र भावना-अशनादिस्वरूपमाधाकर्म-अशनादावेच चाधाकर्मजाण: सम्भवः, ततो गुरुः किमाधाकम् इति पृष्टः सनशनादिकमेव वक्ति, तथा च शय्यम्भवमूरिराधाकर्म दर्शयन् पिण्टेपणाध्ययने|ऽशनादिकमभिधत्ते, तद्यथा-" असणं पाणगं चेव, खाइमं साइमं तहा । जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा, समणवा पगडं इमं ॥१॥ तं भवे भत्तपार्ण तु, संजयाण अकप्पियं । दंतियं पडियाइकरखे, न मे कम्पइ तारिसं ॥२॥" इति । सम्पत्यशनादिकमेव व्याचष्टे १ अशनं पानकमेव खाद्य खाद्यं तथा । यजानीयाच्छणुयाद्वा श्रमणार्थ प्रकृतमिदम् ॥ १॥ तवेदतपानं तु संयतानामकल्पिकम् । ददतीं प्रत्याचक्षीत न मे कल्पते तादृशम् ॥ २॥ ~127~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र || १६१ | दीप अनुक्रम [१८३] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) प्रक्षेपं " --> “निर्युक्तिः [१६१] + भाष्यं [ २२...] + ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [१८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित Jin Eucator सालीमाइ अबडे फलाइ सुंठाइ साइमं होइ । व्याख्या - शाल्यादिकमशनम्, अवट इति वापिकूपतडागाद्युपलक्षणं, ततः कूपत्रापीतडागादो यज्जलं तत्पानं, तथा 'फलादि ' | फलं- नालिकेरादि, आदिशब्दाचिञ्चिणिकापुष्पादिपरिग्रहस्तत् खादिमं, शुण्ठ्यादिकं स्वादिमं तत्र शुण्ठी प्रतीता, आदिशब्दाद हरीतक्यादिपरिग्रहः । तदेवं व्याख्यातान्यशनादीनि सम्मत्येतेष्वेवाधाकरूपेषु प्रत्येकं भङ्गचतुष्टयमाह- तरस कडनिट्ठियमी सुद्धमसुद्धे य चत्तारि ॥ १६१ ॥ व्याख्या— तस्येति प्रस्तावात् साधोरर्थाय ' कृतमित्यत्र बुद्धावादिकर्मविवक्षायां कप्रत्ययः, ततोऽयमर्थः कर्तुं प्रारब्धं, तथा तस्य साधोरर्थाय 'निष्ठितं ' सर्वथा प्रासुकीकृतमिति, अत्र विषये 'चत्वारि' इति चत्वारो भगा भवन्ति, तत्र प्रथम एष एव भङ्गः तस्य कृतं तस्य निष्ठितं द्वितीयस्तस्य कृतमन्यस्य निष्ठितं तृतीयोऽन्यस्य कृतं तस्य निष्ठितं चतुर्थोऽन्यस्य कृतमन्यस्य निष्ठितं । तत्र प्रथमो व्याख्यातो द्वितीयादीनां तु भङ्गानामयमर्थः- पूर्व तावत्तस्य साधारर्थाय कर्तुमारब्धं ततो दातुः साधुविषयदानपरिणामाभावतोऽभ्यस्य- आत्मनः स्वपुत्रादेर्वाऽर्थाय निष्ठां नीतं, तथा प्रथमतोऽन्यस्य पुत्रादेरात्मनो वाऽर्थाय कर्तुमारब्धं ततः साधुविषयदानपरिणामभावतः साधोरर्याय निष्ठां नीतं, तथा प्रथमत एवान्यस्य निमित्तं कर्तुमारब्धमन्यस्यैव च निमित्तं निष्ठां नीतम्, एवमशने पाने खादिमे स्वादिमे च प्रत्येकं चत्वारश्रुत्वारो भङ्गा भवन्ति, तत्र 'सुद्धममुद्धे य'त्ति आर्षत्वात् शुद्धावशुद्धौ चेति द्रष्टव्यं तत्र शुद्धौ -साधोरासेवनायोग्यौ, तौ च द्वितीयचतुभङ्गौ, तथाहि क्रियाया निष्ठा प्रधाना, ततो यद्यपि प्रथमतः साधुनिमित्तं क्रिया प्रारब्धा तथापि निष्ठामन्यनिमित्तं नीतेति द्वितीयो भङ्गः साधोः कल्पते, चतुर्थस्तु भङ्गः शुद्ध एव, न तत्र विवादः, अशुद्धी - अकल्पनीयों, तौ च प्रथमतृतीयौ, तत्र प्रथम एकान्तेनाशुद्ध एव साध्वर्य For Parts Only ~128~ jonary.org Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१८३] » “नियुक्ति: [१६१] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु- तमलयगि- रीयादृत्तिः आधाकर्मणि संभवस्तस्य प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१६१|| भारब्धत्वानिष्ठितत्वाच, तृतीये तु भने यधपि पूर्व न साधुनिमिर्च पाकादिक्रियाऽऽरम्भस्तथापि सा साधुनिमित्तं निष्ठां नीता, निष्ठा च पघानेति न कल्पते । तदेवमाधाकर्मस्वरूपमुक्त, साम्प्रतमशनादिरूपस्याधाकम्मेणः सम्भवं प्रतिपिपादपिपुः कथानकं रूपकपटू केनाद कोदवरालगगामे बसही रमणिज भिक्खसज्झाए । खेचपडिलेहसंजय सावयपुच्छुज्जुए कहणा ॥ १६२॥ जुज्जइ गणरस खेत्तं नवरि गुरूणं तु नस्थि पाउग्गं । सालित्ति कए रुंपण परिभायग निययगेहेसु ॥ १६३ ॥ बोलिता ते व अन्ने वा, अडंता तत्थ गोयरं । सुणंति एसणाजत्ता, बालादिजणसंकहा ॥ १६४ ॥ एए ते जेसिमो रहो, सालिकूरो घरे घरे । दिन्नो बा से सयं देमि, देहि वा विति वा इमं ॥ १६५ ॥ थके थकावडियं, अभत्तए सालिभत्त्यं जायं । मज्झ य पइस्स मरणं, दियरस्स य से मया भज्जा ॥ १६६ ॥ चाउलोदगंपि से देहि, सालीआयामकंजियं । किमेयंति कयं नाउं, वजंतऽन्नं वयंति वा ॥ १६७ ॥ व्याख्या-इह सङ्कलो नाम ग्रामः, तत्र जिनदत्तनामा श्रावकः, तस्य भार्या जिनमतिः तत्र च ग्रामे कोया राल काश्च प्राचुर्ये णोत्पयन्ते इति तेषामेव कूरं गृहे २ भिक्षार्थपटन्तः साधो लभन्ते, वसतिरपि त्रीपशुपण्ड कविवर्जिता सपभूतलादिगुणैरतिरमणीया कल्पनीया च पाप्यते,स्वाध्यायोऽपि तत्र यसतामविघ्नमभिवर्द्धते, केवलं शासोदनो न प्राप्यते इति न केचनापि सूरयो भरेण तत्रावतिष्ठन्ते । अन्पदा च सङ्कलग्रामप्रत्यासन्ने भद्रिलाभिधाने ग्रामे केचित्सूरयः समाजम्मः, तैश्च सङ्कलपामे क्षेत्रमत्युपेक्षगाय साधवः मेष्यन्ते, साधवोऽपि तत्रागत्य यथागमं जिनदत्तस्य पार्षे वसतिमयाचिषत, जिनदतेनापि च साधुदर्शनसमुच्छलित समोदभरस मुद्भिनरोमाञ्चकञ्चु दीप अनुक्रम [१८३] ~129~ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१८९] → “नियुक्ति: [१६७] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१६७|| कितगात्रेण तेभ्यो वसतिः कल्पनीया उपादेशि, सायनश्च तत्र स्थिताः, ययाग भिक्षापयेशनेन वहिभूमौ स्थण्डिलनिरीक्षणेन च सकलमपि ग्रामं प्रत्युपेक्षितवन्तः, जिनदत्तोऽपि च श्रावको वसतावागत्य यथाविधि साधून वन्दित्वा महत्तरं साधुमपृच्छत्-भगवन् ! रुचितमिदं युष्मभ्यं क्षेत्रं ?, सूरयोऽत्र निजसमागमेनास्माकं प्रसादमावास्यन्ति ?, ततः स उपेठः साधुरवादीत-वमानयोगेन, ततो ज्ञातं जिनदत्तेन-यथा न रुचितमिदमेतेभ्यः क्षेत्रमिति, चिन्तपति च-अपेऽपि साधयोऽत्र समागच्छन्ति परं न केचिदवतिछुन्ते, तन जानामि | किमत्र कारणमिति, ततः कारणपरिज्ञानाय तेषां साधूनामन्यतमं कमपि साधुमनुं ज्ञात्वा पप्रच्छ, स च यथावस्थितमुक्तवान्, यथाऽत्र | सर्वेऽपि गुणा विद्यन्ते, गच्छस्यापि च योग्यमिदं क्षेत्र, केवलमाचार्यस्य प्रायोग्यः शाल्पोदनो न लभ्यते इति नावस्थीयते । तत एवं | कारणं परिज्ञाय तेन जिनदत्तश्रावकेणापरस्मादामात शालीवीजमानीप नियामक्षेत्रभूपितु चापिन, ततः सम्पनो भूवान् शालिः, अन्यदा | च यथाविहारक्रमं ते वाऽन्ये वा साधवः समायासिपुः, श्रावकश्च चिन्तयामास-यथैतेभ्यो मपा शाल्पोदनो दातव्यो येन सूरीणामिदं योग्य क्षेत्रमिति परिभाष्य साधयोऽमी सूरीनानयन्ति, तत्र यदि निजगृह एवं दास्यामि ततोऽन्तु गृहेषु कोद्रारालकर लभमानानामेतेपामा-18 धाकर्मशोत्पत्स्यते तस्मात्सर्वेष्वपि स्वजनगृहेषु शालि प्रेषयामीति तथैव च कृतं,सजनांचोक्तवान् यथा सयपपर्नु शालि पक्वा भुजताका साधुभ्योऽपि च ददत, एष च वृत्तान्तः सर्वोऽपि बालादिभिरवजन्मे, साधवश्च भिक्षार्थमटन्तो यथाऽऽगममेषणासमितिसमिता बालादीना मुक्तानि शृण्वन्ति, तत्र कोऽपि बालको वक्ति-एते ते सावो येषामय गृहे शाल्पोदनो निरपादि, अन्यो भाषने-साधुसम्बन्धी शाल्योदिनो मह्यं जनन्या ददे, दात्री वा कचिदेवं भाषते-दत्तः परकीयः शाल्पोदनः सम्पत्यात्मीयं किमपि ददामि, गृहनाय कोऽपि कापि बो दत्तः शाल्योदनः परकीयः सम्मत्यात्मीयं किमपि देहि, बालकोऽपि कापि कोऽपनभित्रो जननीं बो-म सावुसम्बन्धित दीप अनुक्रम [१८९] ~130~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१८९] → “नियुक्ति: [१६७] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: स्य संभवः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१६७|| पिण्डानियु- शाल्योदन देहीति, अन्यस्त्वीषदरिद्रः सहर्ष भाषते-अहो ! थक्के थकावडियमस्माकं सम्पन्नं, इह यद् अवसरेऽवसरानुरूपमाप- आधाकर्ममेळयगि- तति तत् थकथक्कावडियमित्युच्यते, ततः स एवमाह-येनाभक्ते भक्ताभावेऽस्माकं शालिभक्तमुदपादि । अत्रैवार्थे स लौकिक णि अशनरीयात्तिः बादृष्टान्तमुदाहरति, सूरग्रामे यशोधराभिधाना काचिदाभीरी तस्या योगराजो नाम भर्ता, बत्सराजो नाम देवरः, तस्य भायोग ॥६४॥ बायोधनी, अन्यदाच मरणपर्यवसानो जीवकोको मरणं चानियतहेतुकमनियतकालमिति योधनीयोगराजौ समकालं मरणमुपागतो, ततो यशोधरा देवरं वत्सराजमयाचत-तब भार्याऽहं भवामीति, देवरोऽपि च ममापि भार्या न विद्यते इति विचिन्त्य प्रतिपन्नवान् , ततः सा चिन्तयामास-अहो! अवसरेऽवसरापतितमस्माकमजायत, यस्मिन्नेवावसरे मम पतिः पश्चत्वमुपागमत् तस्मिन्नेवावसरे मम देवरस्यापि भार्या मृत्युमगच्छत् , ततोऽहं देवरेण भार्यात्वेन प्रतिपन्ना, अन्यथा न प्रतिपद्येत । तथा कापि चालको जननीमाचष्टेमातः ! शालितण्डुलोदकमपि साधुभ्यो देहि, अन्यस्त्वाह-शालिकाजिक, तत एचमादीनि बालादिजनजल्पितानि श्रुत्वा किमेतदिति पृच्छन्ति, पृष्टे च सति ये ऋजवस्ते यथावत्कयितवन्तो यथा युष्माकमायेदं कृतमिति, ये तु मायाविनः श्रावकेण वा तथा प्रज्ञापितास्ते न कथयन्ति, केवलं परस्परं निरीक्षन्ते, तत एवं नूनमिदमाधाकर्मेति परिज्ञाय तानि सर्वोण्यपि गृहाणि परिहत्यान्येषु भिक्षार्थमटन्ति स्म. ये च तत्र न निर्वदन्ति स्म ते तत्रानिर्वहन्तः प्रत्यासन्ने ग्रामे भिक्षार्थमगच्छन्, एवमन्यत्राच्याधाकम्मे सम्भवति, तच वालादिजल्पितविशेषैरवगत्य कथानकोक्तसाधुभिरिव नियमतो निष्कलसंयममिच्छुना परिहर्तव्यं, सूत्रं तु सकलमपि सुगम, नवरं 'रुंपण 'ति रोपणं । 'परिभायणत्ति गृहे परिभाजनं 'से' इति एतेभ्यः 'अचंति अन्य ग्रामम् । तदेवमुक्तोऽशनस्याधाकर्मणः सम्भवः, सम्पति पानस्याह लोणागडोदए एवं, खाणित्तु महुरोदगं । ढक्किएणऽच्छते ताब, जाव साहुत्ति आगया ॥ १६८ ॥ . दीप अनुक्रम [१८९] ~ 131~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१९०] → “नियुक्ति: [१६८] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१६८|| व्याख्या-यथाऽशनस्याधाकम्मणः कथानकसूचनेन सम्भव उक्तस्तथा पानस्याप्याधाकर्मणो वेदितव्यः, कथानकमपि तथैव, केवलमयं विशेषः-कचिद्धामे सर्वेऽपि कूपाः क्षारोदका आसीरन् , क्षारोदका नामामलकोदका विशेषाः, न स्वत्यन्तक्षारजला:, तथा सति ग्रामस्याप्यवस्थानानुपपत्तेः, ततस्तस्मिन् लवणावटे क्षेत्रे क्षेत्रप्रत्युपेक्षणाय साधवः समागच्छन् , परिभाषयन्ति स्म च यथाऽऽगम सकलमाप क्षेत्र, ततस्तन्त्रिवासिना श्रावकेण सादरमपरुध्यमाना अपि साधवो नावतिष्ठन्ते, ततस्तन्मध्यवर्ती कोऽपि ऋजुकोऽनवस्थानकारणं पृष्टः, स च यथावस्थित तस्मै कथयामास-यथा विद्यन्ते सर्वेऽप्यत्र गुणाः, केवलं क्षारं जलमिति नावतिष्ठन्ते, ततो गतेषु तेषु साधुपु स मधुरोदक कूपं खानितवान् , तं खानयित्वा लोकमचिजनितपापभयाद् फलकादिना स्थगितमुखं कृत्वा तावदास्ते यावत्ते वाज्ये वा साधवः समाकाययुः, समागतेषु च साधुपु मा मम गृहे केवले आधाकम्भिकशङ्का भूदिति प्रतिगृहं तन्मधुरमुदकै भाजितवान् , ततः पूर्वोक्तकधानकप्रकारेण| साधवो बालादीनामुल्लापानाकर्पोधाकम्मति च परिज्ञाय तं ग्राम परिहतवन्तः, एवमन्यत्राप्याधाकर्मपानीयसम्भवो द्रष्टव्यः, तेऽपि च । बालाघुल्लापविशेषैः परिकलय्य कथानकोक्तसाधव इव परिहरेयुरिति । सूत्रं सुगमम् । सम्पति खादिमस्खादिमयोराधाकर्मणोः सम्भवमाइकक्कडिय अंबगा वा दाडिम दक्खा य बीयपूराई । खाइमऽहिगरणकरणंति साइमं तिगडुगाईयं ॥ १६९ ॥ व्याख्या-कर्कटिका' चिर्भटिका 'आम्रकाणि' चूतफलानि, दाडिमानि द्राक्षाश्च मतीताः, बीजपूरकादिकम्, आदिवाबदाकपित्थादिपरिग्रहः, एतानाश्रित्य खादिमविषये 'अधिकरणकरणं भवेत् ' पापकरणं भवेत् , एतानि साधनां शालनकादिकार्येषु प्रयुज्यन्ते || इति तेषां वपनादि कुर्यादिति भावः । तथा 'त्रिकटुकादिकं ' मुण्ठीपिप्पलीमरिचकादिकमाश्रित्य स्वादिमे अधिकरणकरणं भवेत, साधू दीप अनुक्रम [१९०] ~ 132~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१९१] » “नियुक्ति: [१६९] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१६९|| पिण्डनियु- नामौषधाद्यर्थममूनि कल्पन्ते इति तेषां रोपणादि कुर्यादिति भावः । सम्मति यदुक्तं प्राक् तस्स कडनिहियम्मी ' त्यादि, तत्र कृतनि- आधाकर्मकेर्मलपगि-ष्ठितशब्दयोरर्थमाह |णि अशनरीयावृत्तिः स्य संभवः । असणाईण चउण्हवि आम जं साहुगहणपाउग्गं । तं निट्ठियं बियाणसु उवक्खडं तू कडं होइ ।। १७० ॥ ॥६५॥ ___ व्याख्या-अशनादीनां चतुर्णामपि मध्ये यत् 'आमम्' अपरिणतं सत् साधुग्रहणमायोम्यं कृतं, प्रासुकीकृतमित्यर्थः, तं निष्ठितं ? विजानीत, उपस्कृतं तु अत्रापि बुद्धावादिकम्र्मविवक्षायां कात्ययः ततोऽयमय:-उपस्कतुमारब्धमिति भावः कृतं भवति ज्ञातव्यम् ।। एतदेव विशेषतो भावयति कंडिय तिगुणुकंडा उ निहिया नेगदुगुणउक्कंडा । निट्ठियकडो उ कूरो आहाकम्मं दुगुणमाहु ॥ १७१ ॥ व्याख्या-इह ये तण्डुलाः प्रथमतः साध्वर्थमुप्ताः ततः क्रमेण करटयो जातास्ततः कण्डिताः, कथंभूताः कण्डिताः ? इत्याहत्रिगुणोत्कण्डाः' त्रिगुणं-त्रीन् वारान् यावत् उत्-मावल्येन कण्डनं-छटनं येषां ते त्रिगुणोत्कण्डाः, त्रीन् वारान् कण्डिता इत्यर्थः, ते | निष्ठिता उध्यन्ते, ये पुनर्वपनादारभ्य यावदेकगुणोत्कण्डा दिगुणोत्कण्डा वा कृता वर्तन्ते ते कृताः, अथवा मा भूवन साध्वमुताः केवलं ये कस्टयः सन्त: साध्वर्थं त्रिगुणोत्कण्डकण्डितास्ते निष्ठिता उपन्ते, ये वेकगुणोत्कण्डं द्विगुणोत्कर्ड वा कण्डितास्ते कृताः, अत्र वृद्धस-1 ॥६५॥ म्मदायः-इह यद्येकं वारं द्वौ वा वारौ साध्वर्थ कण्डितास्तृतीयं तु वारमात्मनिमित्त कण्डिता राद्धाश्च ते साधूनां करपन्ने, यदि पुनरेक द्वौ वा वारौ साध्व) कण्डितास्तृतीयं वारं स्वनिमित्तमेव कण्डिता रादास्तु आत्मनिमित्तं ते केपाश्चिदादेशेनैकेनान्यस्मै दत्तास्तेनाप्यन्य दीप अनुक्रम [१९१] ~ 133~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१९३] → “नियुक्ति: [१७१] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१७१|| ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀| स्मायित्येवं यावत्सहस्रसङ्घय स्थाने गताः, ततः परं गताः कपन्ते नार्वाक्, अपरेषां त्वादेशेन न कदाचिदपि, यदि पुनरेक द्वौ वा वारौ ||६|| हासाधनिमित्तमात्मनिमितं वा कण्डितास्तृतीयं तु वारमात्मनिमित्तं राधाः पुनः साध्वर्य ते न कल्पन्ते, यदि पनर द्वौ वा वारौ साधु निमित्तमात्मनिमित्तं वा कण्डितास्तृतीयं तु वारं साध्वमेव, तैरेव च तण्डलैः साधुनिमित्वं निष्पादितः कूरः स निष्ठितकृत उच्यते निप्रितराधाकर्मतंडुलैः कृतो-निष्पादितो राद्ध इत्यर्थः निष्ठितकृतः, स साधूनां सर्वथा न कल्पते, कुतः ? इत्याह-'आहाकम्मं | इत्यादि, आधाकर्म प्रतीतं द्विगुणमाहुस्तीथेकरादयस्तं निष्ठितकृतं कूरं, तत्रैकमाधाकम्मेनिष्ठिततण्डलरूप द्वितीयं तु पाकक्रियारूपं, तदेबचमुक्तो निष्ठितकृतशब्दयोरर्थः, सम्पति चतुष्प्यशनादिषु कृतनिष्ठितता भाव्यते-तत्र चपनादारभ्य याबद्वारद्वयं कण्डनं तावत्कृतत्वं, तृतीयवारं तु कण्डनं निष्ठितत्वम् , एतचानन्तरमेवोक्तं पाने कूपादिकं साधुनिमित्तं स्खनितं, ततो जलमाष्ट, ततो यावत प्रामुकीक्रियमाणं नाद्यापि सर्वथा प्रामुकीभवति तावत्कृतं, मासुकीभूतं च निष्ठितं, खादिमे कर्कटिकादयः साधुनिमित्तमुप्ताः क्रमेण निष्पन्ना यावद्दात्रादिना खण्डिताः, तानि च खण्डानि यावनाद्यापि मासुकीभवन्ति तावत्कृतत्वमक्सेयं, प्रामुकीभूतानि च तानि निष्ठितानि । एवं स्वादिमेऽपि विज्ञेयं । सर्वत्रापि च द्वितीयचतुर्थभङ्गो शुद्धौ, प्रथमवृतीयौ त्वशुद्धाविति । सम्मति खादिमस्वादिममाश्रित्य मतान्तरं प्रतिनिक्षिप्राहA छायपि विवज्जती केई फलहेडगाइयुत्तस्स । तं तु न जुज्जइ जम्हा फलंपि कप्पं बिइयभंगे ॥ १७२ ।। व्याख्या-इह 'फलहेतुकादेः' फलहेतोः पुष्पहेतोरन्यस्माद्वा हेतोः साध्वर्थमुप्तस्य वृक्षस्य 'केचिद् ' गीतार्थाश्छायामप्याधाककामिकक्षसम्बन्धिनीतिकृत्वा 'विवर्जयन्ति' परिहरन्ति, तत्तु छायाविवर्जन न युज्यते, यस्मात्फलमपि यदर्थं स वृक्ष आरोपितस्तत आधाकम्भिकटासम्बन्धिद्वितीये भते तस्य कृतमन्याथै निष्ठितमित्येवंहो वर्चमानं सन् कसते, किनक भवति ?-साध्वपारोपितेऽपि दीप अनुक्रम [१९३] ~ 134~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१९४] » “नियुक्ति: [१७२] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: आधाकर्म रीयावृत्तिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१७२|| पिण्डनियु-कदल्यादौ वृक्षे यदा फलं निष्पद्यमानं साधुसत्ताया अपनीयात्मसत्तासम्बन्धि करोति त्रोटयति च तदा तदपि कल्पते, किं पुनश्छाया , णि अशनमेलयगि- सा हि सर्वथा न साधुसत्तासम्बन्धिनी विवक्षिता, न हि साधुच्छायानिमितं स वृक्ष आरोपितस्तत्कथं न कल्पते ।। स्य संभवः परपच्चइया छाया न वि सा रुक्खोव्व वट्टिया कत्ता । नट्ठच्छाए उ दुमे कप्पइ एवं भणंतरस ॥ १७३ ॥ ॥६६॥ व्याख्या-सा छाया 'परप्रत्ययिका सूर्यहेतुका, न वृक्षमात्रनिमित्ता, तस्मिन् सत्यपि सूर्याभावे अभावात्, तथाहि-छाया-18 नाम पार्वतः सर्वत्रातपपरिवेष्टितमतिनियतदेशवतीं श्यामपुदलात्मक आतपाभावः, इत्थंभूता च छाया सूर्यस्यैव अन्वयव्यतिरेका, चतु-|| विधवेन द्वमस्य, द्रुमस्तु केवलं तस्या निमित्तमात्र, न चैतावता सा दुष्पति, छायापुद्गलानां दुमपुदलेभ्यो भिन्नत्वात्, न च 'वृक्ष इव' तरुरिव 'का' वृक्षारोपकेण वृद्धि नीता, तद्विषयतथारूपसङ्कल्पस्यैवाभावात, ततो नाधाकम्मिकी छाया । किं च-यद्याधाकम्मिकी | छायेति न तस्यामवस्थानं कल्पते तत एवं परस्य भणतो यदा घनपटलैराच्छादितं गगनमण्डलं भवति तदा तस्मिन् द्रुमे नपच्छाये सति । जातस्याधः शीतभयादिनाऽवस्थानं कल्पते इति प्राप्त न चैतयुक्तं, तस्मात्स एव म आधाकम्मिकस्तत्संस्पृष्टायाधः कतिपयप्रदेशाः पूतिरिति प्रतिपत्तव्यं, न तु च्छायाऽऽधाकर्मिकीति । पुनरपि परेपो दूषणान्तरमाहबहइ हायइ छाया तत्थिक पूइयंपि व न कप्पे । न य आहाय सुविहिए निव्वत्तयई रविच्छायं ॥ १७४॥ R ॥६६॥ व्याख्या-इह छाया तथातथासूर्यगतिवशावर्तते हीयते च ततो वेरस्तमयसमये प्रातःसमये चातिद्वाघीयप्ती विकर्द्धमाना छाया सकलमपि ग्राममभिव्याप्य वर्तते, अतस्तत्स्पृष्टं सकलमपि ग्रामसम्बन्धि वसत्यादिकं पूतिकमिव तृतीयोद्गमदोषदुष्टमशनादिकमिव न दीप अनुक्रम [१९४] ~135~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१७५|| दीप अनुक्रम [१९७] मूलं [१९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ›♦♦♦♦♦♦♦♦♦0000000 “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [१७५] + भाष्यं [ २२...] + प्रक्षेपं " ० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः कल्पते, न चैतदागमोपदिष्टं, तन्नाधाकम्पिकी वृक्षस्य छाया, अपि च- प्रागेवैतदुक्तं सूर्यमत्यया सा छाया न वृक्षहेतुका, न च सूर्यः सुविहितानाधाय छायां निर्वर्त्तयति ततः कथमाधाकर्मिकी ?। यदि पुनराधाकर्मिकी भवेद, हिं अघणघणचारगगणे छाया नट्ठा दिया पुणो होइ । कप्पइ निरायवे नाम आयवे तं विवज्जेउं ॥ १७५ ॥ व्याख्या -- अघना — बिरला घना-मेघाः चारिणः- परिभ्रमणशीला यत्र इत्यंभूते गगने, विरलाविरलेषु नभसि मेघेषु परिभ्रमत्सु इत्यर्थः, छाया नष्टापि सती दिवा पुनरपि भवति, ततो मेघैरन्तरिते सूर्ये 'निरातपे आतपाभावे तस्य वृक्षस्याधस्तनं प्रदेशं सेवितुं कल्पते, आतपे तु तं वर्जयितुं, न चायं विषयविभागः सूत्रेऽपदिश्यते न च पूर्वपुरुषाचीर्णो नापि परेषां सम्मतः तस्मादसदेतत्परोक्तमिति । इह पूर्वं वृक्षसम्बन्धित्वेन छायामाधाकर्मिंकीमाशङ्कय 'नट्टच्छाए उ दुमे कप्पर ' इत्यायुक्तम्, इदानीं तु रत्रिकृतत्वेनाधाकम्मिंकीमाशङ्कय 'कप्पइ निरायबे नाम' इत्याद्युक्तम्, अतो न पुनरुक्तता। सम्मति छायानिर्दोषतानिगमनमगीतार्थधार्मिकाणां परेषां किञ्चिदाश्वासनं च विवक्षुराह तम्हा न एस दोसो संभवई कम्मलक्खणविहूणो । तंपि य हु अइघिणिल्ला वज्जेमाणा अदोसिला ॥ १७६ ॥ व्याख्या - यस्मात्फलमपि द्वितीये भने कल्पते तथा रविहेतुका छाया इत्यादि चोक्तं तस्मादाधाकस्मिकी छायेति यो दोष उच्यते स एष दोषो न सम्भवति, कुतः ? इत्याह-'कर्म्मलक्षणविहीन' इति, अत्र हेतौ प्रथमा, कर्मेति च आधाकम्र्मेति द्रष्टव्यं ततोऽयमर्थः यत आधाकर्म्मलक्षणविहीन एष दोष:, न द्दि तरुरिव छायापि कर्त्रा वृद्धिं नीता इत्यादि, तस्मान्नैष दोषः सम्भवति, | अथवा ' तामपि' आधाकम्मिकटक्षच्छायां 'हुः निश्चितम् 'अतिघृणावन्तः अतिशयेन दयालबो विवर्जयन्तः परेऽदोषवन्तः । तदे tend For Pale Only ~ 136~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१९८] → “नियुक्ति: [१७६] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्ड नियु-1वमत प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१७६ वमुक्तमानुषङ्गिक, तदुक्तौ च 'आहाकम्भियनाम' इत्पादिमूलद्वारगाथायां 'किं वात्रि?' इति व्याख्यातं, सम्पति 'परपक्खो य सपक्खो आधाकर्मकेमेलपगि- |||| इति द्वारद्वयं व्याख्यानयन् प्रसङ्गतो निष्ठितकृतयोः स्वरूपं ताभ्यामुत्पन्न भङ्गचतुष्टयं चाह |णि स्वपररीयात्तिः पक्षी कृतपरपक्खो उ गिहत्था समणो समणीउ होइ उ सपक्खो । फासुकडं रडं वा निहियमियरं कडं सव्वं ॥ १७७॥18 निष्ठिते ॥६७॥ तस्स कडनिद्वियंमी अन्नस्स कडंमि निट्ठिए तस्स । चउभंगो इत्थ भवे चरमदुगे होइ कप्पं तु ॥ १७८ ॥ व्याख्या-इह परपक्षः 'गृहस्थाः' श्रावकादयः, तेषामर्याय कृतं साधूनामाधाकर्म न भवति, स्वपक्षः श्रमणाः' साधवः । समणीउ 'त्ति श्रमण्यो बतिन्यः, तेषामर्थाय कृतं साधूनामाधाकर्म पेदितव्यं, तथा प्रामुक कृतं करट्यादिकं सचेतनं सत् साध्वर्थं | निश्चेतनीकृतं यच्च स्वयमचेतनमपि तण्डुलादिकं कूरत्वेन निष्पादितं तनिष्ठितमित्युच्यते, इतरत्पुनरेकगुणद्विगुणकण्डिततण्डुलादिकं सर्वं कृत-18 मिति । अत्र च कृतनिष्ठितविषये तस्य साधोराय कृते निष्ठिते च तथा अन्यस्याप्यर्थाय कृते तस्य साधोराय निष्ठिते भक्तादौ चतुर्भ-13 जिका भवति, तब प्रथमतृतीयभङ्गौ साक्षाद्दर्शितो द्वितीयचतुर्थों तु गम्यौ, तौ चैवं-तस्य कृतमन्यस्य निष्ठितमन्यस्य कृतमन्यस्य निष्ठितं, तत्रोपात्त्योद्वयोभद्योः चरमो-अनुक्ती पाश्चात्यो द्वौ भङ्गो, द्वितीय) चतुर्थावित्यर्थः, प्रथमस्य हि द्वितीयः पाश्चात्यस्तृतीयस्य तु चतुथें तत उपाचप्रथमतृतीयभङ्गापेक्षया चरमी द्वितीयचतुर्थी लभ्येते, तस्मिंश्चरमदिक भवति कल्प्यमशनादि, एतच्च यद्यपि मागेवोक्तं तथापि ॥६७॥ विस्मरणशीलानां स्मरणाय भूयोऽयुक्तमिति न कश्चिदोषः । उक्तं परपक्षस्वपक्षरूपं द्वारद्वपं, सम्पति 'चउरो' इति व्याचिख्यासुराहA चउरो अइक्कमवइक्कमा य अइयार तह अणायारो । निहरिसणं चउण्हवि आहाकम्मे निमंतणया ॥ १७९ ॥ दीप अनुक्रम [१९८] SAREmiratulaildrona Hal- muraryana ~ 137~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१७९|| दीप अनुक्रम [२०१] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [१७९] + भाष्यं [ २२...] आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [२०१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित व्याख्या -- आधा कर्म्मणि विषये केनाप्यभिनवेन श्राद्धेन निमन्त्रणे कृते चत्वारो दोषाः सम्भवन्ति, तथथा -- अतिक्रमो व्यतिक्रमोऽतीचारोऽनाचारथ, एते चत्वारोऽपि स्वयमेव सूत्रकृता व्यारूपास्यन्ते, एतेषां च चतुर्णामपि 'निदर्शनं' दृष्टान्तो भावनीयः, तमपि च वक्ष्यति ॥ तत्र प्रथमत आधाकर्म्मनिमन्त्रणं भावयति सालीयगुलगोरस नवे वल्लीफलेस जाए । दाणे अहिगमसड्ढे आहायकए निमंतेइ ॥ १८० ॥ व्याख्या—'शालिषु' शाल्योदनेषु तथा घृतगुडगोरसेषु साधूनाधाय पट्कायोपमर्द्दनेन निष्पादितेषु नवेषु च वल्लीफलेषु जातेषु साधुनिमित्तमचिचीकृतेषु 'दाने' दानविषये कोऽप्यभिनवश्राद्धं:- अन्युत्पन्न श्रावको निमन्त्रयते, यथा भगवन ! प्रतिगृह्णीत यूयमस्मदष्ट दे शाल्योदनादिकमिति । ततथ + प्रक्षेपं " ८० आहाकम्मग्गहणे अइकमाईस वट्टए चउसु । नेउरहारिगहत्थी चउतिगदुगएगचलणेणं ॥ १८१ ॥ व्याख्या आधाकग्रहणे अतिक्रमादिषु चतुर्षु दोषेषु वर्त्तते, स च यथा यथा उत्तरस्मिन्नुत्तरस्मिन दोषे वर्त्तते तथा तथा तद्दोषजनितात्पापादात्मानं महता कष्टेन व्यावर्त्तयितुमीशः, अत्र दृष्टान्तमाह – 'नेउरे' त्यादि इह नूपुरपण्डितायाः कथानकमतिप्रसिद्धत्वाद् बृहत्वाच न लिख्यते, किन्तु धर्मोपदेशमालाविवरणादेरवगन्तव्यं तत्र नूपुरं-मञ्जीरं तस्य हारो-हरणं श्वशुरकृतं तेन या प्रसिद्धा सा नूपुरहारिका, आगमे चान्यत्र नूपुरपण्डितेति प्रसिद्धा, तस्याः कथानके यो हस्ती राजपत्नी सञ्चारयन् प्रसिद्धः स नूपुरहा रिका हस्ती स यथा ' चउतिगदुगएगचलणेणं 'ति पश्चानुपूर्व्या योजना, एकेन द्वाभ्यां त्रिभिचतुर्भिश्वरणैराकाशस्यैर्महता महत्सरेण कष्टेनात्मानं व्यावर्त्तयितुमीशः तथाऽऽयाकर्म्मग्राह्यपि, इयमत्र भावना - नूपुरहारिकाकथानके राज्ञा हस्ती स्वपत्नी मिण्डाभ्यां सह छिन्नटङ्के समारो For Parts Only ~138~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२०३] → “नियुक्ति: [१८१] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 64 प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८१|| पिण्डनियु- पितः, ततोऽपि मिण्टेन छिन्नटङ्कपर्वताग्रभागे व्यवस्थाप्यागेतनमेकं कंचिचरणमाकाशे कारितः, स च तथाकारितः सन् स्तोकेनैव क्लेशेन त आधाकर्मतमेळयगि- चरणं व्यावर्त्य तत्रैव पर्वते आत्मानं स्थापयितुं शक्रोति, एवं च साधुरपि कश्चिदतिक्रमाख्यं दोष प्राप्तः सन् स्तोकेनैव शुभाध्यवसायेन णि अतिरापाटात दोष विशोध्यात्मानं संयमे स्थापयितुमीशः, यथा च स हस्ती चरणद्वयमग्रेतनमाकाशस्थ क्लेशेन व्यावतयितुं शक्रोति, एवं च साधुरपि क्रमाचा | पुरहारिका व्यतिक्रमाख्यं दोषं विशिष्टेन शुभेनाध्यवसायेन विशोधयितुमीष्टे, यथा च स हस्ती चरणत्रयमाकाशस्यमेकेन केनापि पाश्चात्येन चरणेन ॥१८॥ इस्तिपदोलास्थितो गुरुतरेण कष्टेन व्यावर्तयितुं क्षमा, तथा साधुरप्यतीचारदोर्ष विशिष्टतरेण शुभेनाध्यवसायेन विशोधयितुं प्रभुः, यथा च स इस्ती पनयः चरणचतुध्यमाकाशस्थितं सर्वथा न व्यावर्तयितुमीशः, किन्तु नियमतो भूमौ निपत्य विनाशमाविशति, एवं साधुरप्पनाचारे वर्तमानो नियमतः संयमात्मानं विनाशयति । इह दृष्टान्ते चरणचतुष्टयं हस्तिना नोत्पाटितं, किन्तु दार्शन्तिके योजनानुरोधात् सम्भावनामङ्गीकृत्य प्रतिपादितम् । सम्पत्यतिक्रमादीनां स्वरूपमाह__ आहाकम्मनिमंतण पडिसुणमाणे अइक्कमो होइ । पयभेयाइ बइकम गहिए तइएयरो गिलिए ॥ १८२ ॥ व्याख्या-आधाकर्मनिमन्त्रणे सति तत् आधाकर्म 'प्रतिशृण्वति' अभ्युपगच्छति अतिक्रमो भवति, स च पात्रोद्दणादारभ्य | || तावत् यावन्नाधाप्युपयोगकरणानन्तरं ग्रहणाय प्रचलति, 'पदभेदादौ'च पदस्य-चरणस्य भेद-उत्पाटनं तदादों, आदिशब्दामने गृहप्रवेशने करोटिकोत्पाटने ग्रहणाय पात्रप्रसारणे च व्यतिक्रमो दोषः, गृहीते त्वाधाकर्मणि तृतीयोऽतीचारलक्षणो दोषः, स च तावद्यावदसतावागत्य गुरुसमक्षमालोच्य स्वाध्यायं कृत्वा गले तदाधाकर्म नाद्यापि मक्षिपति, गिलिते त्वाधाकम्मणि 'इतरः' चतुर्थो दोषा-अनाचारलक्षणः । तदेवं 'चउरो' इति व्याख्यातं, सम्पति 'महणे य आगाई' इति व्याख्यानयवाह दीप अनुक्रम [२०३] 1000000000000000000 ~139~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२०५] → “नियुक्ति: [१८३] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८३|| आणाइणो य दोसा गहणे जं भणियमह इमे ते उ । आणाभंगऽणवत्था मिच्छत्त विराहणा चेव ॥ १८३ ॥ व्याख्या-यदुक्तम् आधाकम्पियनामे ' त्यादिमूलद्वारगाथायामाधाकर्मग्रहणे 'आज्ञादयः' आज्ञाभङ्गादयो दोषाः ते इमे, वधया-आज्ञाभङ्गोऽनवस्था मिथ्यात्वं विराधना च ।। तत्र प्रथमत आज्ञाभङ्गदोपं भावयति| आणं सवजिणाणं गिण्हंतो तं अइक्कमइ लुडो । आणं च अइकमंतो कस्साएसा कुणइ सेसं ? ॥ १८ ॥ __व्याख्या-तिद्' आधाकमिकमशनादिकं सुब्धः सन् गृहानः सर्वेषामपि जिनानामाज्ञामतिकामति, जिना हि सर्वेऽप्येवदेव ब्रुवन्ति स्म-यदुत मा गृहीत मुमुक्षयो ! भिक्षय आधाकम्मिकां भिक्षामिति, ततस्तदाददानो जिनाज्ञामतिकामति, तां चातिक्रामन् । कस्य नाम ! आदेशाद्-आज्ञाया: 'शेपं' केशश्मश्रुलुश्चनभूशयनमलिनबासोधारणमत्युपेक्षणायनुष्ठानं करोति ?, न कस्यापीति भावः, सर्वस्यापि सर्वज्ञाऽऽज्ञाभङ्गकारिणोऽनुष्ठानस्य नैष्फल्यात् ।। अनवस्थादोषं भावयति एकेण कयमकजं करेइ तप्पच्चया पुणो अन्नो । सायाबहुलपरंपर वोच्छेओ संजमतवाणं ॥ १८५॥ ____ व्याख्या-इह प्रायः सर्वेऽपि प्राणिनः कर्मगुरुतया दृष्टमात्रमुखाभिलाषिणो न दीर्घमुखदर्शिनः तत एकेनापि साधुना यदाऽऽधाकर्मपरिभोगादिलक्षणमकार्यमासेव्यते तदा तत्मत्ययात् तेनापि साधुना तत्त्वं विदुषाऽपि सेवितमाधाकर्म ततो वयमपि किं न सेविप्यामहे । इत्येवं तमालम्बनीकृल्यान्योऽप्यासेवते तमप्यालम्ब्यान्यः सेवते, इत्येवं सातबहुलानां प्राणिनां परम्परया सर्वथा व्यवच्छेदः पामोति संयमतपसा, तयवच्छेदे च तीर्थव्यवच्छेदो, यश्च भगवतीर्थविलोपकारी स महाऽऽशातनाभागित्यनवस्थादोषभयान कदाचनाप्याधाकम्मे सेवनीयं ।। मिथ्यात्वदोष भावयति कककककक००००००००००००400000000001 दीप अनुक्रम [२०५] ~140~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२०८] » “नियुक्ति: [१८६] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८६|| पिण्डनियु-18| जो जहवायं न कुणइ मिच्छट्ठिी तओ हु को अन्नो ? । बड्ढेइ य मिच्छत्तं परस्स संकं जणेमाणो ॥१८६॥ आधाकर्मतेमळयाग व्याख्या-इह यद् देशकालसंहननानुरूपं यथाशक्ति यथावदनुष्ठानं तत्सम्यक्त्वं, यत उक्तमाचारसूत्रे-“जे माणति पासहा तं | are रीयावृत्तिः मानवस्थामिसम्मति पासहा, जं सम्मति पासहा तम्मोति पासहा" इति, ततो यो देशकालसंहननानुरूपं शास्पनिगूहनेन यथागमेऽभिहितं सथा न: ध्यात्वविकरोति ततः सकाशात्कोऽन्यो मिथ्याष्टिः, नैव कश्चित्, किन्तु स एव मिथ्यादृष्टीना धुरि युज्यते, महामियादृष्टित्वात् , कथं तस्य मिथ्याह राधनः भाष्टिता? इत्यत आह-'यदेइ' इत्यादि, चशब्दो हेती यस्मात्स यधावादमकुर्वन परस्य शडूनमुत्पादयति, यथा (तधादि)-यदि यत्प्रव|चनेऽभिधीयते तत्त तर्हि किमयं तच जानानोऽपि तथा न करोति !, तस्माद्वितयमेतत्यवचनोक्तमिति, एवं च परस्य शडून जनयन् मिथ्यात्वं सन्तानेन वर्द्धयति, तथा च प्रवचनस्य व्यवच्छेदः, शेवास्तु मिथ्यादृष्टयो नैवं प्रवचनस्य मालिन्यमापाय परम्परया व्यवच्छेदमाधातुमीशा, ततः शेषमिच्यादृष्टयपेक्षयाऽसौ यथावादमकुर्वन् महामियादृष्टिरिति ।। अन्य बड्ढेई तप्पसंगं गेही अ परस्स अप्पणो चेव । सजियंपि भिन्नदाढो न मुयइ निबंधसो पच्छा ॥ १८७ ॥ ____ व्याख्या-साधुराधाकर्म गृह्णानः परस्य 'एकेण कयमकज्ज' इत्यादिरूपया पूर्वोक्तनीत्या 'तत्प्रसङ्गम् ' आषाकर्मग्रहणकाप्रसङ्गं बयति आत्मनोऽपि, तथाहि-सकृदपि चेदाधाकम्में गृह्णाति नहिं तद्वतमनोज्ञरसास्वादलाम्पठ्यतो भूयोऽपि तदहणे प्रवत्तेते, तत|| ॥६९॥ एवमेकदाऽव्याधाकम्मे गृहन् परस्पात्मनश्च तत्पसङ्गं वर्दयति, तत्पसङ्गद्धौ च कालेन गच्छता परस्पात्मनच गृद्धिः--अत्यन्तमासक्तिः १ यन्मौनमिति पश्यत तत्सम्यक्त्वमिति पश्यत, यत्सम्यक्त्वमिति पश्यत तन्मौनमिति पश्यत । दीप अनुक्रम [२०८] 99.000 RELIERtun ~141~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२०९] → “नियुक्ति: [१८७] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८७|| उपजायते, ततो विशिष्टविशिष्टतरमनोहरसास्वाइनेन भिन्नदंष्टाको 'निन्धसः आगतवादयाबासनाको भूत्वा पचाप परो वा सजीवमपि, सचेतनमपि चूतफलादिकं न मुञ्चति, तदमोचने च दुरंदरतरमपसपनपगतसर्ववाजिनाचनपरिणामो मिथ्यात्वमापि 18 गच्छतीति ।। सम्पति विराधनादोषं भावयति खद्धे निद्धे य सया सुत्ते हाणी तिगिच्छणे काया । पडियरगाणवि हाणी कुणइ किलेसं किलिस्संतो ॥ १८८॥ व्याख्या-आधाकर्म प्रायः माघूर्णकस्यैव गौरवेण क्रियते, ततस्तस्वादु स्निग्धं च भवति, तस्मिथ 'खद्धे प्रचरे 'सिम्बे बहनेहे भलिते रुजा' रोगो ज्वरविसूचिकादिरूपः प्रादुर्भवति, इयमात्मविराधना, ततो रुजापीडितस्य 'सूत्रे' सूत्रग्रहणमुपलक्षणं अर्यस्य च हानिः, तथा यदि चिकित्सां न कारयति तर्हि चिरकालसंघमपरिपालनभ्रंशः, अथ कारयति तहि चिकित्सने क्रियमाणे कायाः तेजस्कायादयो विनाशमाविशन्ति, तथा च सति संयमविराधना, तथा प्रतिचारकाणामपि ' परिपालकानामपि साधूनां तयासत्यव्यापृततया सूत्रार्थहानिः, षट्कायोपमईकारणानुपोदनाभ्यां च संयमस्वापि हानिः, तथा प्रतिचारकास्तदुक्तं यावन्न प्रपारयन्ति तावत्सः 'विश्यमानः 'पीडां सोहमशक्नुवन् तेभ्यः कुष्यति, कुप्पश्च तेषामपि मनसि क्लेशमुत्पादयति, अथवा विषमानो-दीर्घकालं केशमनुभवन् प्रतिचारकाणामपि जागरणत: क्लेश-रोगमुत्पादयति, ततस्तेषामपि चिकित्साविधी पद कायविरावना । तदेवं व्याख्याता || सकलाऽपि ' आहाकम्मियनाम ' इत्यादिका मूलद्वारगाथा, सम्पत्याधाकर्मण एवाकल्प्यविधि विभणिपुः सम्बन्धमाहजह कम्मं तु अकप्पं तच्छिकं वाऽवि भायणठियं वा । परिहरणं तरसेव य गहियमदोसं च तह भणइ ॥ १८९ ॥ ___ व्याख्या-यथा 'कर्म' आधाकर्प अकरप्यम् , अभोज्यं यथा च तेनाधाकर्मगा सृष्टमकर यथा च 'भाजनस्थितं, दीप अनुक्रम २०९] ~142~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२११] → “नियुक्ति: [१८९] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: Allohgu प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१८९|| पिण्डनियु- यस्मिन् भाजने तदाधाकर्म प्रक्षिप्तं तस्मिन्नाधाकर्मपरित्यागानन्तरमकृतकल्पत्रयप्रक्षालने यत् क्षिप्त शुद्धमशनादि तदपि यथा न कल्प्यं | आधाकर्मकेमळयाग- यथा च तस्याधाकर्मणः परिहारो विध्यविधिरूपो यथा च गृहीतं सद्रक्तमदोष भवति तथा गुरुर्भणति । अनेन यथैवागमे पिण्डविशु मनिटा- णि तत्स्पृरयादृत्तिः कादिरभाणि तथैवाहमपि भणामीत्यावेदितं द्रष्टव्यम् , अनया च गायया पश्च द्वाराणि प्रतिपाद्यान्युक्तानि ।। सम्मति तान्येव सविशेष | ॥७०॥ प्रतिपाद्यत्वेनाद| अब्भोज्जे गमणाइ य पुच्छा दव्वकुलदेसभावे य । एव जयंते छलणा दिलुता तत्थिमे दोन्नि ॥ १९॥ व्याख्या-यथा साधूनामाधाकर्म तत्स्पृष्ट कल्पत्रयाप्रक्षालितभाजनस्थं वा अभोज्यं तथा भणनीयं, तथा अविधिपरिहारे गमना-18 नादिकाः कायक्लेशादिलक्षणा दोपा वक्तव्याः, तथा विधिपरिहारे कर्त्तव्ये यथा द्रव्यकुलदेशभावे पृच्छा कर्त्तव्या चशब्दायथा च न कत्रेच्या || तथा वक्तव्यम्, एवं यतमाने प्रायश्छलनाया असम्भवो, यदि पुनरेवमपि यतमाने ' छलना ' अशुद्धभक्तादिग्रहणरूपा भवेत् || ततस्तत्र दृष्टान्ताविमो बक्तब्यौ । इह 'अभोज्ये' इत्यनेन पूर्वगाधाया द्वारत्रयं परामष्टं 'गमणाइ य पुच्छा दबकुलदेसभावे य' इत्यनेन ||३| तु परिहरणस्य विशेषो वक्तव्य उक्तः, उत्तरार्दैन तु 'गहियमदोसं चेत्यस्य विशेषः । सम्प्रति प्रथम द्वारमाधाकम्मेणोऽकल्प्यतालक्षणं व्याचिख्यामुराह| जह वंतं तु अभोज भत्तं जइविय सुसक्कयं आसि । एवमसंजमवमणे अणेसणिज्जं अभोज तु ॥ १९१ ॥ व्याख्या-इह यद्यपि वमनकालादाग् 'भक्तम् । ओदनादिकं 'सुसंस्कृतं शोभनद्रव्यसम्पर्ककृतोपस्कारमासीत् तथापि यथा : तद्वान्तमभोज्यम् , एवमसंयमवमने कृते साधोरप्यनेषणीयमभोज्यमेव, 'तुः' एवकारार्थः, इयमत्र भावना-संयमप्रतिपत्तौ हि पूर्वमसंयमो| दीप अनुक्रम [२११] ॥७०॥ ~143~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१९९|| दीप अनुक्रम [२१३] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> + प्रक्षेपं " ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः “निर्युक्तिः [१९१] + भाष्यं [ २२...] मूलं [२१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित Education) वान्तः, असंयमरूपं चाधाकर्म्म, पदकायोपमर्द्दनेन तस्य निष्पन्नत्वात् न च वान्तमभ्यवर्त्तुमुचितं विवेकिनाम्, अतः साधोरनेषणीयमभोज्यमिति । पुनरप्याधाकर्म्मण एवाभोज्यतां दृष्टान्तान्तरेण समर्थयमानो गाथाद्वयमाह मज्जारखइयमंसा मंसासित्थि कुणिमं सुणयवंतं । वन्नाइ अन्न उप्पाइयंपि किं तं भवे भोजं ? ॥ १९२ ॥ केई भांति पहिए उट्ठाणे मंसपेसि वोसिरणं । संभारिय परिवेसण वारेइ सुओ करे घेत्तुं ॥ १९३ ॥ व्याख्या -- वक्रपुरं नाम पुरं, तत्र वसत्युग्रतेजाः पदातिः, तस्य भार्या रुक्मिणी, अन्यदा च उग्रतेजसो ज्येष्ठभ्राता सोदासाभिधानः प्रत्यासन्नपुरात् प्राघूर्णकः समाययौ, उग्रतेजसा च भोजनाय कापि मांसं कृत्वा रुक्मिण्यै समयमासे, तस्याश्च रुक्मिण्या गृहय्यापा| रव्यापृतायास्तन्मांसं मार्जारोऽवभक्षत्, इतथ सोदासोग्रतेजसो भोजनार्थमागमनवेला, ततः सा व्याकुली बभूव, अत्रान्तरे च कापि कस्यापि मृतस्य कार्पेटिकस्य शुना मांस भक्षयित्वा तद्गृहमाङ्गणप्रदेशे तस्याः साक्षात्पश्यन्त्याः पुरतः कथमपि वातसंक्षोभादिवशादुद्वमितं, ततः साऽचिन्तयत्-यदि नाम कुतोऽपि विपणेरन्यन्मांस क्रीत्वा समानेष्यामि तर्हि महदुत्सूरं लगिष्यति, प्राप्ता च समीपं पतिज्येष्ठयो भजन९ वेला, तस्मादेतदेव मांसं जलेन सम्यक् प्रक्षाल्य बेसवारेणोपस्करोमि, तथैव च कृतं, समागतौ सोदासोग्रतेजसौ उपविष्टौ च भोजनार्थ, * परिवेषितं तयोस्तन्मांस, ततो गन्धविशेषेणोग्रतेजसा विजज्ञे यथा वान्तमेतदिति, ततस्तेन साक्षेपं भ्रुवमुत्पाव्य रुक्मिणी पप्रच्छे, सा च * साटोप भ्रूत्सेपदर्शनतो विभ्यती पवनधुतवृक्षशास्त्रेव कम्पमानवपुर्यथाऽवस्थितं कथितवती, ततः परित्यज्य तन्मांसं साक्षेपं निर्भयै भूयोऽन्यन्मांसं पाचिता, तद्भुक्तं । प्रथमगाथाक्षरयोजना त्वेवं- मार्जारेण खादितं भक्षितं मांसं यस्याः सा मार्जारखादितमांसा मांसाशिन उग्रतेजसः स्त्री महेला अन्यन्मांसममामुवती श्वान्तं कुणपं-मांसं गृहीतवती, तच्च वेसवारोपस्कारेण वर्णादिभिरन्यदिवोत्पादितमपि किं भवति For Parata Use Only ~ 144~ Mayor Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२१५] → “नियुक्ति: [१९३] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डानिर्य तर्मळयगि प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१९३|| रीयात्तिः ॥७१॥ दीप अनुक्रम [२१५] भोज्यं !, नैव भवतीति भावः, एबमाधाकापि संयमिनामभोज्यं । केचित्पुनरत्रैव कथानके एक्माहुः, तस्या रुक्मिण्या गृहे कोऽप्यती- आधाकर्मसारेण पीडितो दुष्पभनामा कार्पटिकः किश्चिद्विविक्तं स्थानं याचितवान् , स चातीसारेण मांसखण्डानि व्युत्सृजति, ततः सोदासे प्राघू- णि वान्ताके समागते सति भर्चा च समानीते मांसे माजोरेण च तस्मिन् भक्षिते रुक्मिणी प्रत्यासना समागता भोजनवेलेति भयभीता अन्यन्मां-18 नादाने उसमपामुवती तान्येवातीसारच्युत्सृष्टानि मांसखण्डानि गृहीत्वा जलेन प्रक्षाल्य वेसवारेण चोपस्कृत्य भोजनायोपविष्टयोः पतिज्येष्ठयोः परिच- वेजउदा. षितवती, अय च सा तानि मांसखण्डानि गृहन्ती मृतसपत्नीपुत्रेणोग्रतेजसो जातेन गुणमित्रेण ददृशे, न च तदानीं तेन किमपि भयाद्वक्तुं शक्त, ततो भोजनकाले तौ द्वावपि पितृपितृव्यौ तेन करे गृहीत्वा निवारितो, यथा कार्पटिकातीसारसत्कान्यमूनि मांसखण्डानि तन्मा || यूयं विभक्षत, तत उग्रतेजसा सा दूरं निभेत्सयामासे, तस्यजे च तन्मांस । द्वितीयगाथाक्षरयोजना खे-केचिद्गणन्ति 'पथिक' पथिकस्य | उट्ठाणे: अतीसारोस्थाने मांसपेशीव्युत्सर्जनं, ततस्तन्मांसपेशीरादाय तास सम्भृत्य ' वेसवारणोपस्कृत्य परिवेषणे कृते सुतः करेण गृहीत्वा तौ पितृपितृव्यौ भोजनाय वारयति स्म, ततो यथा पुरीषमांसमभोज्यं विवेकिनामेवमाधाकापि साधूनामिति । किंच- । अविलाकरहीखीर ल्हसण पलंडू सुरा य गोमंसं । वेयसमएवि अमयं किंचि अभोजं अपिजं च ।। १९४॥ ___व्याख्या-'अविका करणी 'करभी' उष्ट्री तयोः क्षीर, तथा लशुनै पलाण्ड सुरा गोमांसं च घेदे यथायोग शेषेषु च 'समयेषु' निर्मपणीतेषु 'अमतम् ' असम्मतं भोजने पाने च, तथा जिनशासनेऽपि किश्चिदाधाकम्पिकादिरूपमभोज्यमपेयं च बेदितव्यं ॥१॥ इयमत्र भावना-पूर्वमिह संयमप्रतिपत्तावसंयमवमनेनाधाकापि साधुभिर्वान्तं, पुरीषमिवोत्सृष्टं वा, न च वान्तं पुरीषं वा भोक्तुमुचितं । विवेकिनामिति युक्तिवशादभोज्यमुक्तमाधाकर्म, अथवा मा भूत युक्तिः, केवलं वचनपामाण्पादभोज्यपबसे, तथा च मिथ्यादृष्टयोऽपि ~145~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२१] “नियुक्ति: [१९५] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१९५|| वेदेषु यथायोगमन्येष्यपि समयेषु गोमांसादिकं करभीक्षीरादिकं चाभिधीयमानं वचनमामाग्या पगमतस्तयेति प्रतिपयन्ते, तयदि मिथ्यादृष्टयः स्खसमयप्रामाण्याभ्युपगमतस्तथेति प्रतिपन्नाः ततः साधुभिर्भगवति सर्वज्ञे प्रत्ययदायवलम्बमानविशेषतो भगवत्प्रणीते वचस्पभिधीयमानमाधाकम्मोदिकमभोज्यमपेयं च तथेति प्रतिपत्तव्यम् । सम्मति तस्कृष्टस्पाकलप्पतामाह| वनाइजुयावि बली सपललफलसेहरा असुइनत्था । असुइस्स विप्पुसेणवि जह छिक्काओ अभोज्जाओ ॥ १९५ ॥ ___व्याख्या-यथा वर्णादियुतोऽपि 'बलि' उपहारः 'सपछलफलशेखरः' इह पललं-तिलक्षोद उच्यते फलं-नालिकेरादि तत्तहितः शेखरः-शिखा यस्य स तथा, आस्तामनेवविध इत्यपिशब्दार्थः, एतेनास्य प्राधान्यमुक्तं, स एवंविधोऽपि यदा अशुचौ न्यस्त:-पुरीपस्योपरि स्थापितः सन् अशुचेः 'विनुवापि' लोनापि, आस्ता स्तबकादिनेत्यपिशब्दार्थः, सृष्टो भवति तदा अभोज्यो भवति, एवं निर्दोषतया भोज्योऽप्याहार आधाकम्मोक्यवसंस्पृष्टतपा साचूनामभोज्यो वेदितव्यः । भोजनस्थितस्याकलप्यतां भावयति एमेव उज्झियमिवि आहाकम्ममि अकयर कप्पे । होइ अभोजं भाणे जत्थ व सुद्धेऽवि तं पडियं ॥ १९६ ॥ व्याख्या-यथा आधाकावयवेन संस्पृष्टमभोज्यम् एवं यस्मिन् भाजने सदाधाकर्म ग्रहीत तस्मिन्नाधाकर्मणपुनितेऽपि अकते कल्पे वक्ष्यमाणप्रकारेण कल्पत्रयेणामक्षालिते यद्वा यत्र भाजने पूर्व शुद्धेऽपि भक्ते गृहीते आधाकर्म स्तोकमात्रं पतितं तस्मिन् भाजने पूर्वगृहीते शुद्ध आधाकर्मणि च सर्वात्मना त्यक्ते पश्चादकृतकल्पे-वक्ष्यमाणप्रकारेणाकृतकल्पत्रये यद् भूयः शुद्धमपि प्रक्षिप्यते तदभोज्य-13 मवसेयं, न खलु लोकेऽपि यस्मिन् भाजने पुरीष पपतत्तस्मिन्नशुचिपरित्यागानन्तरममक्षाकिते यदा यस्मिन् भाजने भक्तादिना पूर्णेऽपि तदुपरि पुरीषं निपतितं भवेत् तस्मिन् पूर्वपरिगृहीतभक्तादिपुरीषपरित्यागानन्तरमप्रक्षालिते भूयः प्रक्षिसमशनादिकं भोज्यं भवति, पुरी दीप अनुक्रम [२१७] ~146~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२१८] » “नियुक्ति: [१९६] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: णि परिहा प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||१९६|| ॥७२॥ पिण्डनियु- स्थानीयं च संयमिनामाधाकर्म, ततस्तस्मिन् सर्वात्मना परित्यक्तेऽपि पश्चाददत्ते कल्पत्रये भाजने यत्प्रक्षिप्यते तदभोज्यमवसेयम् ॥ आधाकर्मतेर्मलयगि- सम्पति परिहरणं प्रतिपिपादयिषुरिदमाहरीयावृत्तिः रेविध्यविवंतुञ्चारसरिच्छं कम्मं सोउमवि कोविओ भीओ । परिहरइ सावि य दुहा विहिअविहीए य परिहरणा॥१९७॥ व्याख्या-वान्तसदृशमुच्चारसदृशं च आधाकर्म यतीन् प्रति प्रतिपाद्यमानं श्रुत्वा 'अपिः' सम्भावने सम्भाव्यते एतनियमतः 'कोविदः संसारविमुखमझतया पण्डितः अत एव 'भीतः आधाकर्मपरिभोगतः संसारो भवतीत्याधाकर्मणखस्तस्तदाधाकर्म 'परिहरति'न गृहाति, परिहरणं च द्विषा-विधिनाऽविधिना च, सूत्रे च परिहरणशब्दस्य स्त्रीत्वेन निर्देशः माकृतत्वात्, माकृते हि लिङ्ग व्यभिचारि । तत्राविधिपरिहरणं विभणिषुः कथानक गाथात्रयेणाह सालीओअणहत्थं दर्दु भणई अकोविओ देति । कत्तोचउत्ति साली वणि जाणइ पुच्छ तं गंतु ॥ १९८॥ गंतूण आवणं सो वाणियगं पुच्छए कओ साली ? । पञ्चंते मगहाए गोब्बरगामो तहिं वयइ ॥ १९९ ॥ कम्मासंकाएँ पहं मोत्तुं कंटाहिसावया अदिसि । छायंपि [वि]वज्जयंतो डज्झइ उण्हेण मुच्छाई ॥२०॥ व्याख्या-शालिग्रामे ग्रामे ग्रामणीनामा वणिक, तस्य भार्याऽपि ग्रामणीः, अन्यदा च वणिजि विपणि गते भिक्षार्थमटन्नकोMविदः कोऽपि साधुस्तद्गृहं प्रविवेश, आनीतश्च तद्भार्यया ग्रामण्या शाल्योदनः, साधुना चाधाकर्मदोषाशङ्कापनोदाय सा पाच्छे, यथा श्राविके ! कुतस्त्य एष शालिः ! इति, सा प्रत्युवाच-नाई जाने वणिक जानाति, ततो वणिज विपणी गत्वा पृच्छेति, तत एवमुक्तः सन । दीप अनुक्रम [२१८] PRIMasturare.org ~147~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२२२] → “नियुक्ति: [२००] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२००|| हास साधुस्तं शाल्पादनमपहाय वणिज विपणो गत्वा पृष्टवान् , वणिजाऽप्युक्तं-मगधजनपदमत्यन्तवतिनो गोरग्रामादागतः शाकिरेप इति, ततः स तत्र गन्तुं भावर्तत, तत्रापि साधुनिमित्तं केनापि श्रावकेणार्य पन्धाः कृतो भविष्यतीत्याधाकर्मशङ्कया पन्थानं विमुच्योत्पथेन व्रजति, उत्पथेन च व्रजन्नहिकण्टकश्वापदादिभिरभिद्रूयते, नापि काञ्चन दिशं जानाति, तथा आधाकर्मशडन्या वृक्षच्छायामपि परिहरन् मूर्तीि सूर्यकरनिकरप्रपातेन तप्यमानो मूर्छामगमत् , क्लेशं च महान्तं प्रापेति। इय अविहीपरिहरणा नाणाईणं न होइ आभागी। दव्वकुलदेसभावे विहिपरिहरणा इमा तत्थ ।। २०१॥ व्याख्या-इति । एवमुक्तेन प्रकारेणाविधिना परिहरणात् ज्ञानादीनामाभागी न भवति, तस्माद्विधिना परिहरणं कर्तव्पं, तच्च विधिपरिहरणम् 'इदं वक्ष्यमाणं द्रव्यकुलदेशभावानाश्रित्य 'तत्र' आधाकर्मणि विषये द्रष्टव्यम् । तत्र प्रथमतो द्रव्यादीन्येव गाथाद्वयेनाह ओयणसमिइमसत्तुगकुम्मासाई उ होति दवाई। बहुजणमप्पजणं वा कुलं तु देसो सुरहाई ॥ २०२॥ आयरऽणायर भावे सयं व अन्नेण वाऽवि दावणया । एएसि तु पयाणं चउपयतिपया व भयणा उ ॥ २०३ ॥Mal व्याख्या-ओदनः' माल्यादिकूरः 'समितिमाः' माण्डादिकाः सक्तवः कुल्माषाश्च प्रतीताः, आदिशब्दान्मुद्रादिपरिग्रहः, अमूनि भवन्ति ट्रव्याणि, कुलमल्पजनं बहुजनं वा, 'देशः' सौराष्ट्रादिका, भावे आदरोऽनादरो वा, एतावेव स्वरूपतो व्याख्यानयतिस्वयं वाऽन्येन वा-कर्मकरादिना यद् दापनं तौ यथासङ्घचमादरानादरी, एतेषां च पदानां 'भजना ' विकल्पना चतुष्पदा त्रिपदा । वा स्यात् , किमुक्तं भवति :-कदाचिचत्वार्यपि पदानि सम्भवन्ति कदाचित् त्रीणि, तत्र यदा चत्वार्यपि द्रव्यादीनि प्राप्यन्ते तदा चतु दीप अनुक्रम [२२२] ~148~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२२५] → “नियुक्ति: २०३] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२०३|| या: पिण्डनियु-गष्पदा, यदा तु नादरो नाप्यनादरः केवळ मध्यस्थत्तिता तदा भावस्पाभावात् त्रिपदेति ॥ सम्पति यादृशेषु द्रव्यादिषु सत्सु पृच्छा मा आधाकर्मतर्मळयगिMकर्त्तव्या यादृशेषु(च) न कर्त्तव्या तान्याह णि पृच्छोरीयावृत्तिः चिताद्रव्याal अणुचियदेसं व्वं कुलमप्पं आयरो य तो पुच्छा । बहुएबि नत्थि पुच्छा सदेसदविए अभावेवि ॥ २० ॥ ॥७ ॥ ___व्याख्या-यदा 'अनुचितदेशं विवक्षितदेशासम्भवि द्रव्यं लभ्यते तदपि च प्रभूतम् एतच 'आयरो य' इत्यत्र चशब्दालभ्यते, एतेन द्रव्यदेशावुक्ती, कुलमपि च 'अल्पम् ' अल्पजनम् , अनेन कुलमुक्त, आदरश्च प्रभूतः, एतेन भाव उक्तः, ततो भवति । पृच्छा, आधाकम्नेसम्भवात, 'बहुकेऽपि च स्वदेशद्रव्ये' प्रभूतेऽपि च तद्देशसम्भविनि लभ्यमाने द्रव्ये यथा मालबके मण्डकादौ नास्ति पृच्छा, यत्र हि देशे यद्रव्यमुत्पद्यते तत्र तत्मायः माधुर्येण जनैर्भुज्यत इति नास्ति तत्र बहुकेऽपि लभ्यमाने पृच्छा, आधाकम्मो-| सम्भवात, परं तत्रापि कुलं महदपेक्षणीयम् , अन्यथाऽल्पजने भवेदाधाकर्मेति शङ्कर न निवर्तते, तथा 'अभावेऽपि ' अनादरेऽपि नास्ति [पृच्छा, यो प्राधाकमें कृत्वा दद्यात् स प्राय आदरपपि कुर्यात, तत आदराकरणेन ज्ञायते यथा नास्ति तत्राधाकर्मेति न पृच्छा ।। तदेवं || यदा पृच्छा कत्चेव्या यदा च न कर्त्तव्या तत्प्रतिपादितं, सम्पति पृच्छायां यदा तद् ग्राह्यं भवति यदा च न तदेतत्यतिपादयति तुज्झट्टाए कयमिणमन्नोऽन्नमवेक्खए य सविलक्खं । वज्जति गाढव्हा का भे तत्तित्ति वा गिण्हे ॥ २०५ ॥ | ___ व्याख्या-इह या दात्री ऋत्री भवति सा पृष्टा सती यथावत्कथयति, यथा भगवन् ! तवार्थाय कृतमिदमशनादिकमिति, यत्तु || भवति मायाविकुटुम्ब तन्मुखेनैवमाचष्टे गृहार्थमेतत्कृतं न तवायेति, परं ज्ञाता वसमिति सविलक्षं सर्वाण्यपि मानुपाणि परस्परमवेक्षन्ते, दीप अनुक्रम [२०५] SAREnatininemamana ~ 149~ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२०५|| दीप अनुक्रम [२२७] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) • → मूलं [२२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित "निर्युक्तिः [२०५] + भाष्यं [ २२...] + प्रक्षेपं " • आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः कपोलोद्भेदमात्रं च इसन्ति, ततो यदा तवार्थायेदं कृतमिति जल्पति यद्वा 'सविलक्षं' सलज्जमन्योऽन्यमवेक्षन्ते चशब्दात् हसन्ति वा तदा साधवस्त देयमाधाकम्मैति परिज्ञाय वर्जयन्ति यदा तु कस्यार्यायेदं कृतमिति पृष्टा सती गाढं सत्यवृत्या रुष्टा भवति, यथा का'भ'भहारक! तव तप्तिः ? इति तदा नैवाधाकम्र्मेति निःशङ्कं गृह्णीत ॥ सम्प्रति 'गहियमदोस' चेत्यवयवं व्याचिख्यासुः परं प्रश्नयतिगूढायारा न करेंति आयरं पुच्छियावि न कर्हेति । थोवंति व नो पुट्ठा तं च असुद्धं कहं तत्थ ? ॥ २०६ ॥ Education Intonation व्याख्या-इह ये श्रावकाः श्राविकाश्यातीत्र भक्तिपरवशगा गूढाचाराच ते नादरमतिशयेन कुर्वन्ति, मा भून्न ग्रहीष्यतीति, नापि पृष्टाः सन्तो यथावत्कथयन्ति यथा तवार्थायेदं कृतमिति, अथवा स्तोकमिति कृत्वा ते साधुना न पृष्टाः अथ च तदेयं वस्तु 'अशुद्धम्' आधाकर्मदोषदुष्टम्, अतः कथं तत्र साधोः शुद्धिर्भविष्यति ? इति । एवं परेणोक्ते गुरुराद- आहाकम्मपरिणओ फायभोईवि बंधओ होइ । सुद्धं गवेसमाणो आहाकम्मेवि सो सुद्धो ॥ २०७ ॥ व्याख्या-- इह प्राकग्रहणेन एषणीयमुच्यते सामर्थ्यात् तथाहि साधूनामयं कल्पः- ग्लानादिप्रयोजनेऽपि प्रथमतस्तावदेषणीयॐ मेषितव्यं तदभावेऽनेषणीयमपि श्रावकादिना कारयित्वा श्रावाभावे स्वयमपि कृत्वा भोक्तव्यं, न तु कदाचनापि प्रासुकाभावेऽमासुकमिति, ततः कदाचिदप्यमामुक भोजनासम्भवे 'फानुयभोईवि' इति वाक्यमनुपपद्यमान मर्यास्माकशब्दमेषणीये वर्त्तयति, ततोऽयमर्थ:'प्राकभोज्यपि एषणीयभोज्यपि यद्याधाकर्म्मपरिणतस्तर्हि सोऽशुभकर्म्मणां बन्धको भवति, अशुभपरिणामस्यैव वस्तुस्थित्या बन्धकारणत्वात्, 'शुद्धम्' उगमादिदोषरहितं पुनर्गवेषयन् आधाकर्म्मण्यपि गृहीते भुक्ते च शुद्धो वेदितव्यः, शुद्धपरिणामयुक्तत्वात् । एत| देव कथानकाभ्यां भावयति — For Parts Only ~ 150 ~ aru Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२३०] → “नियुक्ति: [२०८] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२०८|| संघुद्दि सोउं एइ दुर्य कोइ भाइए पत्तो । दिन्नति देहि मज्झंतिगाउ साउं तओ लग्गो ॥ २०८॥ आधाकमेकेमेळयगि |णि परिणरीयावृत्तिः व्याख्या-शतमुखं नाम पुरं, तत्र गुणचन्द्रः श्रेष्ठी, चन्द्रिका तस्य भार्या, श्रेष्ठी च जिनप्रवचनानुरक्तो हिमगिरिशिखरानु- दोषादो कारि जिनमन्दिरं कारयित्वा तत्र युगादिजिनप्रतिमा प्रतिष्ठापितवान् , ततः सङभोज्यं दापयितुमारब्धम् । इतथ प्रत्यासने कस्मिविद् पी अशुद्ध॥७४॥ ग्रामे कोऽपि साधुवेषविडम्बकः साधुवेत्तते, तेन च जनपरम्परया शुश्रुषे यथा शतमुखपुरे गुणचन्द्रः श्रेष्ठी सङ्घभोज्यमय ददातीति, ततः शुद्धसाधून कास तदाणाय सत्वरमाजगाम, सङ्गभक्तं च सर्व दत्तं, तेन च श्रेष्ठी याचितो यथा मद्यं देहि, श्रेष्ठिना च चन्द्रिकाऽभ्यधायि, देहि साधवे- दा. sस्मै भक्तमिति, सा प्रत्युवाच-दत्तं सर्च न किमपीदानी वर्तते, ततः श्रेष्टिना सा पुनरप्यभाणि-देहि निजरसक्तीमध्यात्परिपूर्णमस्माथिति, ततः सा शाल्योदनमोदकादिपरिपूर्णमदात, साधुश्च सङ्गभक्तमिति बुद्धया परिगृह्य स्वोपाश्रये भुक्तवान्, ततः स शुद्धमपि भुञ्जान आधाकम्मेग्रहणपरिणामवशादाधाकर्मपरिभोगजनितेन कर्मणा बद्धः । एवमन्योऽपि वेदितव्या, सूर्य सुगम, नवरं देहि मज्झतिगाउ'चि| भार्यया दत्तमित्युक्ते श्रेष्ठी वभाण-देहि 'मम मध्यात्' मदीयभोजनमध्यात्, दत्ते च स्वादु मिष्टमिदं सलभक्तमिति भुञ्जानो विचिन्तयति, ततो 'लमः' आधाकर्मपरिभोगजनितकर्मणा बद्धः । तदेवम् 'आधाकम्मपरिणओ' इत्यादि कथानकेन भावितं, सम्पति 'सुदं] गवेसमाणो' इत्यादि कथानकेन भावयतिमासियपारणगढा गमणं आसन्नगामगे खमगे। सड़ी पायसकरणं कयाइ अज्जेज्जिही खमओ ॥ २०९॥ खेल्छगमल्लगलेच्छारियाणि डिभग निभच्छणं च रुंटणया । हंदि समणत्ति पायस घयगुलजुय जावणढाए ॥२१०॥ दीप अनुक्रम [२३०] ~151~ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२११|| दीप अनुक्रम [२३३] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२ / १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [२११] + भाष्यं [ २२...] + प्रक्षेपं " ० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [२३३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित एतमवकमणं जइ साहू इज्ज होज्ज तिनोमि । तणुकोटुंमि अमुच्छा भुमि य केवलं नाणं ॥ २११ ॥ व्याख्या - पोतनपुरं नाम नगरं तत्र पञ्चभिः साधुशतैः परिवृता यथागमं विहरन्तो रत्नाकर नामानः सूरयः समाययुः, तस्याश्च साधुपञ्चशत्या मध्ये प्रियङ्करो नाम क्षपकः, च मासमासपर्यन्ते पारणकं विदधाति, ततो मासक्षपणपर्यन्ते मा कोऽपि मदीयं पारणकमवयुध्याधाकम्र्म्मादिकं कार्षीदित्यज्ञात एव प्रत्यासन्ने ग्रामे पारणार्ये व्रजामीति चेतसि विचिन्त्य प्रत्यासन्ने कचिद् ग्रामे जगाम । तत्र च यशोमतिर्नाम श्राविका, तया च तस्य क्षपकस्य मासक्षपणकं पारणकदिनं च जनपरम्परया श्रुतं, ततस्तया तस्मिन् पारण कदिने कदाचि दद्य स क्षपकोऽत्र पारणककरणाय समागच्छेदितिबुद्धया परमभक्तिवशतो विशिष्टशालितण्डुलैः पायसमपच्यत, घृतगुडादीनि चोपवृंदकद्रव्याणि प्रत्यासनीकृतानि ततो मा साधुः पायसमुत्तमं द्रव्यमितिकृत्वाऽऽपाकर्मशङ्कां कार्षीदिति मातृस्थानतो वटादिपत्रैः कृतेषु शरावाकारेषु भाजनेषु डिम्भयोग्या स्तोका स्तोका क्षैरैयी प्रक्षिप्ता, भणिताच डिम्भा यथा रे बालकाः ! यदा क्षपकः साधुरीदृशस्तादृशो वा समायाति तदा यूयं भणत है अम्ब! प्रभूताऽस्माकं सैरेयी परिवेषिता ततो न शक्नुमो भोक्तुम्, एवं चोक्तेऽहं युष्मान्निर्भर्त्सयिष्यामि, ततो यूयं भणत किं दिने दिने पायसमुपस्क्रियते, एवं च बालकेषु शिक्षितेषु तस्मिन्नेव प्रस्तावे स क्षपको भिक्षाटन कथमपि तस्या एव गृहे प्रथमतो जगाम ततः सा यशोमतिरन्तः समुल्लसत्परमभक्तिर्मा साधोः काऽपि शङ्का भूदिति बहिरादरमकुर्वती यथास्वभाव| मवतिष्ठते, बालकाच यथाशिक्षितं भणितुं प्रवृत्ताः, तथैव च तया निर्भत्सिताः, ततः सरुषेवानादरपरया क्षपकोऽपि तया बभणे, यथाऽमी मचा बालकाः पायसमपि नैतेभ्यो रोचते, ततो यदि युष्मभ्यमपि रोचते तर्हि गृह्णीत क्षौरेयीं नो चेत् व्रजतेति तत एवमुक्ते स क्षपकसाधुर्निःशङ्को भूत्वा पायसं प्रतिग्रहीतुमुद्यतः सापि परमभक्तिमुद्रहन्ती परिपूर्णभाजनभरणं पायसं घृतगुडादिकं च दत्तवती, साधुव For Parts Only ~152~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२३३] → “नियुक्ति: [२११] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२११|| पिण्डनियुतमकपाग- रीयावृत्तिः ॥७॥ मनसि निःशङ्को विशुद्धाध्यवसायः पायसं गृहीत्वा भोजनाय वृक्षस्व कस्यचिदधस्ताद् गतवान् , गत्वा च यथाविधिरीयर्यापथिकादि प्रतिक्रम्य आधाकमेंस्वाध्यायं च कियन्तं कृत्वा चिन्तयामास, अहो ! लब्धमुत्कृष्टं मया पायसद्रव्यं धृतगुडादि च, ततो यदि कोऽपि साधुरागत्य संविभाग- णि परिणयति मा तहि भवामि संसारार्णवोत्तीर्णो, यतो निरन्तरं ये स्वाध्यायनिष्पन्नचेतसः प्रतिक्षणं परिभावयन्ति सकलमपि यथावस्थितवस्तुजा-1 तेर्दोषादो. पो अशुद्धतम्, अत एव च दुःखरूपात् संसाराद्विमुखबुद्धयो मोक्षविधावेकताना यथाशक्ति गुर्वादिषु यावृत्पोयताः ये वा परोपदेशमवणाः स्वयं साधसम्यक संयमानुष्ठानविधायिनश्च तेषां संविभागे कृते तद्भतं ज्ञानाद्युपष्टब्धं भवति, ज्ञानाद्युपष्टम्भे च मम महांल्लामा, शरीरकं पुनरिदम-|| दा० सारं मायो निरुपयोगि च, ततो येन तेन वीपष्टब्धं सुखेन वहतीत्येवं भुञ्जानोऽपि शरीरमू रहितः प्रवर्द्धमानविशुद्धाध्यवसायो भोजनानन्तरं केवलझानमासादितवान् । सूत्रं सुगमं नवरं 'खल्लगमल्लगलिच्छारियाणि ति मल्लक-शरावं तदाकाराणि यानि खल्लकानि-11 वटादिपत्रकृतानि भाजनानि दूतानीत्यर्थः, तानि केच्छारियाणि-डिम्भकयोग्यस्तोकस्तोकपायसपोपणेन खरण्टितानीव खरण्टितानि । कृतानि 'रुण्टणया' इति अवज्ञया 'इन्दी 'स्थामन्त्रणे, भोः श्रमण! यदि रोचते तहिं गृहाणेति शेषः, ततः पारीरयापनाय घृतगुदयुत पायसं| गृहीत्वैकान्तेऽपक्रमणं, शेष सुगमम् , एवमन्येषामपि भावतः शुद्धं गवेषयतामाधाकर्मण्यपि गृहीते भुक्ते वा न दोषः, भगवदाशाऽऽराधनात् ।। तथा च भगवदाज्ञाराधनकृतमेवादोष भगवदाज्ञाखण्डनकृतमेव च दोष विभावयितुकामः कथानकं रूपकचतुष्केणाह |||७५।। चंदोदयं च सूरोदयं च रन्नो उ दोन्नि उज्जाणा । तेसि विवरियगमणे आणाकोवो तओ दंडो ॥ २१२ ॥ सरोदयं गच्छमहं पभाए, चंदोदयं जंतु तणाइहारा । दुहा रवी पच्चुरसंतिकाउं, रायावि चंदोदयमेव गच्छे॥२१३॥ दीप अनुक्रम [२३३] ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ SAREauratonintamational ~ 153~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२३६] → “नियुक्ति: [२१४] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१४|| पत्तलदुमसालगया दच्छामु निवंगणत्तिदुञ्चित्ता । उज्जाणपालएहिं गहिया य हया य बद्धा य ॥ २१४ ॥ सहस पइहा दिट्ठा इयरेहि निवंगणत्ति तो बड़ा । नितस्स य अवरण्हे दंसणमुभओ वहविसग्गा ॥ २१५ ॥ ध्याख्या-चन्द्रानना नाम पुरी,तत्र चन्द्रावतंसो राजा, तस्य त्रिलोकरेखामभृतयोऽन्तःपुरिकाः,राजश्च द्वे उद्याने,तद्यथापर्वस्यां दिशि सूर्योदयाभिधानं, द्वितीय पधिमायां चन्द्रोदयाभिधान, तत्र चान्यदा प्राप्ते वसन्तमासे कस्मिचिदिने रामा निजान्त:पुरक्रीडाकौतुकार्थी जनानां पटहं दापितवान,यथा भोः शृणुल जनाः प्रभाते राजा सूर्योदयोयाने निजान्तःपुरिकाभिः सह स्वेच्छ विहरि-1 काव्यति, ततो मा तत्र कोऽपि यासीत् सर्वेऽपि तृणकाष्ठाहारादयश्चन्द्रोदयं गच्छन्विति एवं पटहे दापिते तस्य सूर्योदयोद्यानस्य रक्षणाय पदातीनिरूपितवान् , यथा न तत्र कस्यापि प्रवेशो दातव्य इति, राजा च निशि चिन्तयामास, सूर्योदयमुयानं गच्छतामपि प्रभाते सूर्यः । प्रत्युरसं भवति, ततः प्रतिनिवर्तमानानामपि मध्याहे, प्रत्युरसं च सूर्यो दुःखावहः, तस्माञ्चन्द्रोदयं गमिष्यामीति, एवं च चिन्तयित्वा । मातस्तथैव कृतवान् , इतश्व पटहश्रवणानन्तरं केऽपि दुर्वृत्ताश्चिन्तयामामुर्यथा न कदाचिदपि वयं राजान्तःपुरिका दृष्टयन्ता, मातश्च राजा सूर्योदये सान्तःपुरः समागमिष्यति, अन्तःपुरिकाश्च यथेच्छ विहरिष्यन्ति, तत: पत्रबहुलताशाखासु लीनाः केनाप्यलक्षिता वयं ताः परिभाक्यामः, एवं च चिन्तयित्वा ते तथैव कृतवन्तः, तत उद्यानरक्षकैः कथमपि ते शाखास्वन्तलीना दृष्टाः, ततो गृहीता लकुटादिभिश्च । हता रज्ज्वादिभिश्च बद्धाः, ये चान्ये तृणकाष्ठहारादयो जनास्ते सर्वेऽपि चन्द्रोदयं गताः, तैव सइसापविष्टैरने यथेच्छ राज्ञान्तःपुरिकाः क्रीडन्त्यो दृष्टाः, ततस्तेऽपि राजपुरुषैर्बद्धाः, ततो नगराभिमुखमुद्यानानिर्गच्छतो राज उद्यानपालकैः पुरुषैद्रयेऽपि बद्धा दर्शिताः, कथितश्च । दीप अनुक्रम [२३६] ~154~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२३७] → “नियुक्ति: [२१५] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१५|| पिण्डनियु- कमलयागि- रीयादृत्तिः ७ 400000000000000000000000 सर्वोऽपि यथावस्थितो वृत्तान्तः, तत्र ये आज्ञाभङ्गकारिणस्ते विनाशिताः, इतरे मुक्ताः, सूत्र सुगम, नवरं तो दंडोति दण्डो-पारणम्, आंधाकमेंएतद्भावनार्थ रूपकत्रयं सूरोदयमित्यादि, तत्र 'पच्चुरसं' प्रत्युरसम्-उरसः सम्मुखं, 'नितस्स यति उद्यानादपराहे निर्यतः राज्ञM णि परिणाउभयेषां दर्शनं, ततो यथाक्रमं वधविसगौं, एतेन यदुक्तम्-' अब्भोजे गमणाइ य' इत्यादिगाथायां 'दिईता तस्थिमा दोन्नि' तदया मप्राधान्ये ख्यातं, साम्पतं दार्शन्तिके योजनामाह धानोंदा ___जह ते दसणकखी अपूरिइच्छा विणासिया रण्णा । दिद्वेऽवियरे मुक्का एमेव इहं समोयारो ॥ २१६ ॥ व्याख्या-यथा ते दुर्वृत्ता दर्शनकाङ्गिणः अपूरितेच्छा अपि आज्ञाभनकारिण इति राज्ञा विनाशिताः, 'इतरे' च तृणकाष्ठाहारादयश्चन्द्रोदयोद्यानगता दृष्टेऽपि तैरन्तःपुरे आज्ञाकारित्वान्मुक्ताः, एवमेव इहापि आधाकर्मविषये 'समवतारो' योजना कार्या, सा चैवम्आधाकर्मभोजनपरिणामपरिणताः शुद्धमपि भुञ्जाना आज्ञाभङ्गकारित्वाकर्मणा बध्यन्ते, साधुवेषविडम्बकसाधुवन, शुद्ध गवेषयन्त | आधाकम्मोपि मुञ्जाना भगवदाज्ञाऽधनात् न बध्यन्ते, प्रियङ्कराभिधक्षपकसाधुवदिति ।। आषाकर्मभोजिनमेव भूयोऽपि निन्दतिआहाकर्म भुंजइ न पडिक्कमए य तस्स ठाणस्स । एमेव अडइ बोडो लुकविलुक्को जह कवोडो ॥ २१७ ॥ व्याख्या-य आधाकर्म भने न च तस्मात 'स्थानात आधाकर्मपरिभोगरूपात 'प्रतिकामति प्रायश्चित्तग्रहणेन निवर्तते. ॥७६ ।। स 'बोड: ' मुण्डो जिनाज्ञाभङ्गे निष्फलं तस्य शिरोलुश्चनादीति बोड इत्येवमधिक्षिपति, एवमेव निष्फलम् 'अति' जगति परिभ्रमति, अधिक्षेपसूचकमेव दृष्टान्तमाह-' लुकविलुको जह कवोडो' लुञ्चितविलुश्चितो यथा 'कपोत: ' पक्षिविशेषः, यथा तस्य लुश्चनमटनं च न दीप अनुक्रम [२३७] ~155~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२३९] → “नियुक्ति: [२१७] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१७|| धर्माय तथा साधोरप्याधाकर्मभोजिन इत्यर्थः, तत्र सामान्यतो लुञ्चनं बिच्छिच्या विशवरं वा लुञ्चनं विलुञ्चनम् ॥ सम्पत्याधाकर्मद्वारमुपसञ्जिहीर्घरौदेशिकं च द्वारं व्याचिख्यामुराह आहाकम्मदारं भणियमियाणि पुरा समुद्दिढ । उद्देसियंति वोच्छं समासओ तं दुहा होइ ।। २१८॥ व्याख्या-भणितमाधाकर्मद्वारम्, इदानीं 'पुरा' पूर्वम् औदेशिकमिति यद्वारं समुद्दिष्टं तद्वक्ष्ये । तच्च समासतो द्विधा भवति, विध्यमाइ ओहेण विभागेण य ओहे ठप्पं तु बारस विभागे । उद्दिट्ट कडे कम्मे एकेकि चउकओ भेओ ॥ २१९ ॥ व्याख्या-द्विविधपौशिक, तयथा-ओपेन विभागेन च, तत्र 'ओघः' सामान्य विभागः' पृथकरणम, इयं चात्र भावना-|| नादत्तमिह किमपि लभ्यते ततः कतिपया भिक्षा दद्म इति बुद्धया कतिपयाधिकतण्डुलादिप्रक्षेपेण यन्नित्तमशनादि तदोघौदेशिकम् । ओधेन' सामान्येन स्वपरपृथग्विभागकरणाभावरूपेणौदेशिकमोघौदेशिकमिति व्युत्पत्तेः, तथा वीवाहमकरणादिषु यदुद्धरितं तत् पृथकृत्वा दानाय कल्पितं सत् विभागौदेशिकं, विभागेन-स्वसत्ताया उचार्य पृथकरणेनौद्देशिक विभागौदेशिकमिति व्युत्पत्ते, तत्र यत् 'ओपे ओघविषयमौदेशिकं तत्स्थाप्यं, नात्र व्याख्येयं किन्त्वये व्याख्यास्यते इति भावः, यत्तु 'विभागे' विभागविषयं तत् 'बारस 'त्ति 'सूचनात्सूत्र 'मिति न्यायात् द्वादशधा-द्वादशप्रकारं । द्वादशप्रकारतामेव सामान्यतः कथयति- उदिह' इत्यादि, प्रथमतत्रिषा विभागौदेशिकं, तद्यथा-उद्दिष्टं कृतं कर्म च, तब स्वार्थमेव निष्पन्नमशनादिकं भिक्षाचराणां दानाय यत् पृथकल्पितं तदुदिष्ट, यत्पुनरुद्धरितं सत् शाल्यो दीप अनुक्रम [२३९] अथ 'औदेशिक द्वारम् प्रतिपाद्यते ~156~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२१९|| दीप अनुक्रम [२४१] मूलं [ २४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्युतेर्मलयगि रीयाहृत्तिः ॥ ७७ ॥ “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [२१९] + भाष्यं [ २२...] + प्रक्षेपं " ० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः दनादिकं भिक्षादानाय करम्बादिरूपतया कृतं तत्कृतमित्युच्यते, यत्पुनर्विवाहप्रकरणादावुद्धरितं. मोदकचूयादि योऽपि भिक्षाचराणां दानाय गुडपाकदानादिना मोदकादि कृतं तत्कर्मेत्यभिधीयते । एकैकस्मिन उद्दिष्टादिके भेदे 'चतुष्कको ' वक्ष्यमाणञ्चतुः सङ्ख्यो भेदो भवति, त्र्यश्वतुर्भिर्गुणिता द्वादश, ततो विभागौदेशिकं द्वादशधा । सम्प्रत्योचौदेशिकस्य पूर्व स्थाप्यतया मुक्तस्य प्रथमतः सम्भवमाह - जीवा कवि ओमे निययं भिक्खावि कइवई देमो । हंदि हु नत्थि अदिन्नं भुज्जइ अकयं न य फलेई ॥ २२० ॥ व्याख्या -- इह दुर्भिक्षानन्तरं केचिद्गृहस्था एवं चिन्तयन्ति - 'कथमपि महता कष्टेन जीविताः ' अयमे' दुर्भिक्षे ततः 'नियतं प्रतिदिवसं कतिपया भिक्षा दद्मो यतः 'हु' निश्चितं 'हन्दी 'ति स्वसम्बोधने नास्त्येतद् यदुत भवान्तरेऽदत्तमिह जन्मनि भुज्यते, नापीह भवेऽकृतं शुभं कर्म्म परलोके फळति, तस्मात्परलोकाय कतिपयभिक्षादानेन शुभं कर्मोपार्जयाम इत्योयौदेशिकसम्भवः । सम्प्रत्योघौदेशिकस्वरूपं कथयति — सा उ अविसेसि चिय मियंमि भत्तंनि तंडुले छुहइ । पासंडीण गिहीण व जो एहिइ तरस भिक्खट्टा ॥२२॥ व्याख्या - तुगृनायिका योषित प्रतिदिवसं यावत्प्रमाणं भक्तं पच्यते तावत्यमाण एवं भक्ते पक्तुमारभ्यमाणे पाखण्डिनां गृहिणां वा मध्ये यः कोऽपि समागमिष्यति तस्य 'भिक्षार्थी' मिक्षादानार्थम् 'अविशेषितमेव एतावत्स्वार्थमेतावच भिक्षादानार्थमित्येवं विभागरहितमेव तण्डुलान् अधिकतरान् प्रक्षिपति, एतदोघौदेशिकम् । अत्र परस्य पूर्वपक्षमाशङ्कयोत्तरमाह छउमत्थोघुस कहं वियाणाइ चोइए भणइ । उवउत्तो गुरु एवं गिहत्यसदाइ चिहाए ॥ २२२ ॥ Internationa For Pale Only ~157~ औदेशिके द्वादशधा विभागौ ० ॥ ७७ ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२४४] → “नियुक्ति: [२२२] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२२२|| व्याख्या-छवस्था अकेवली कथमोघौदेशिक-पूर्वोक्तस्वरूपं विजानाति !, न धेचं छपस्थेन ज्ञातुं शक्यते, यथा नात्र स्वार्थमारभ्यमाणे पाके मिक्षादानाय कतिपयतण्डलपक्षेप आसीदिति, एवं 'चोदिते ' प्रेरणे कृते गुरुर्भणति-' एवं ' वक्ष्यमाणपकारण गृहस्थशब्दादिचेष्टायामुपयुक्तो-दत्तावधानो जानातीति । एतदेव भावयति| दिनाउ ताउ पंचवि रेहाउ करेइ देइ व गणंति । देहि इओ मा य इओ अवणेह य एत्तिया भिक्खा ॥ २२३ ॥ ___ व्याख्या-यदि नाम भिक्षादानसङ्कल्पतः प्रथपत एवाधिकतण्डुलप्रक्षेपः कृतो भवेत् तहि माय एवं गृहस्थानां चेष्टाविशेषा भवेयुः, यथा दत्तास्ताः पञ्चापि भिक्षाः, इयमन भावना-कापि यदे मिक्षार्थे प्रविष्टाय साधने तत्स्वामी निजभाषया भिक्षा दापयति, सा च साधोः || शृण्वत एवेत्थं प्रत्युत्तरं ददाति-पथा ताः प्रतिदिवस सङ्कल्पिताः पश्चापि भिक्षा अन्यमिक्षाचरेभ्यो दत्ता इति, यहा-भिक्षा ददती || कादभिक्षापरिगणनाय भित्यादिषु रेखाः करोति, अथवा प्रथमेयं भिक्षा द्वितीये भिवेत्येवं गणयन्ती ददाति, यदिवा काचित् कस्या || अपि सम्मुखमेवं भणति-पथाऽस्मादुदिष्टदत्तिसत्कपिटकादेर्मध्यादेदि, मा च इत इति, अथवा प्रथमतः साधी विवक्षिते गृहे भिसाय प्रविष्टे || काचित्कस्याः सम्मुखमेवमाह-'अपनय' पृथकुरु विवक्षितात् स्थानादेवावतीभिक्षा भिक्षाचरेभ्यो दानायेति, तत एवमुल्लापश्रवणे रेखाकर्षणादिदर्शने च छास्थेनाप्योषौदेशिकं ज्ञातुं शक्यते, ज्ञात्वा च परिहियते, ततो न कश्चिदोपः । अत्र चायं दृद्धसम्पदाया-सङ्कल्पितासु दत्तिणु दचासु पृथगुद्धृतासु वा शेषपशनादिकं कल्प्यमवसेयमिति । इहोपयुक्तः सन् शुद्धमशुद्धं वाऽऽहारं ज्ञातुं शक्रोति, नानुपयुक्तः, ततो गोचरविषयां सामान्यत उपयुक्तता प्रतिपादयति सहाइएस साहू मुच्छं न करेज गोयरगओ य । एसणजुत्तो होज्जा गोणीवच्छो गवत्तिव्य ॥ २२ ॥ दीप अनुक्रम [२४४] ~ 158~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२४६] » “नियुक्ति: [२२४] + भाष्यं [२२...] + प्रक्षेपं " मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियुतमेलयगि- रीयावृत्तिः एषणोप प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२२४|| ॥७८|| व्याख्या-इह साधुः ‘गोचरगतः' भिक्षार्थं प्रविष्टः सन् 'शब्दादिषु' शब्दरूपरसादिषु मूछी न कुर्यात्, किन्वेषणायुक्त औद्देशिके उद्गमादिदोषषषणाभियुक्तो भवेत् , यथा गोवत्सः 'गवचिन्न 'त्ति गोभक्त इव ।। गोवत्सदृष्टान्तमेव गाथाद्वयेन भावयति योगे गोवऊसव मंडणवग्गा न पाणियं वच्छए न वा चारि । वणियागम अवरण्हे वच्छगरडणं खरंटणया ॥ २२५ ॥ त्सोदा. पंचविहविसयसोक्खक्खणी बहू समहियं गिहं तं तु । न गणेइ गोणिवच्छो मुच्छिय गढिओ गवत्तमि ॥ २२६ ॥ व्याख्या-गुणालयं नाम नगरं, तत्र सागरदत्तो नाम श्रेष्ठी तस्य भार्या श्रीमती नामा, श्रेष्ठिना च पूर्वतरं जीर्णमन्दिरं भइन्क्त्वा प्रधानतरं मन्दिरं कारयामासे, तस्य च चत्वारस्तनयाः, तद्यथा-गुणचन्द्रो गुणसेनो गुणचूडो गुणशेखरच, एतेषां च तनयानां: क्रमेण चतस्र इमा वध्वः, तद्यथा-प्रियङ्गुलतिका प्रियङ्गुरुचिका प्रियङ्गुसुन्दरी प्रियङ्गुसारिका च, कालेन च गच्छता श्रेष्टिनो भार्या मरणमुपजगाम, ततः श्रेष्ठिना मियङ्गलतिव सर्वगृहतप्ती निरोपिता, गृहे च सवत्सा गौर्विद्यते, तब गौर्दिबसे बहिर्गस्वा चरति, वत्सस्तु गृह : एच बद्धोऽवतिष्ठते, तस्मै च चारि पानीयं च चतस्रोऽपि वध्वो यथायोगं प्रयच्छन्ति । अन्यदा च गुणचन्द्रप्रियङ्गुलतिकापुत्रस्य गुणसागरस्य विवाहदिवस उपतस्थे, ततस्ताः सर्वा अपि वध्वस्तस्मिन् दिने सविशेषमाभरणविभूषिताः स्वपरमण्डनादिकरणब्यापृता अभूवन , ततो वत्सस्तासां विस्मृतिं गतो, न कयाचिदपि तस्मै पानीयादि दौकित, ततो मध्याह्ने श्रेष्ठी यत्र प्रदेशे वत्सो वत्तेते तत्र कथमपि समा-4७८ यातः, वत्सोऽपि च श्रेष्ठिनमायान्तं पश्यन्नारटितुमारब्धवान्, ततो जज्ञे श्रेष्टिना-यथाऽद्यापि बत्सो बुभुक्षितस्तिष्ठतीति, ततः कुपितेन तेन ताः सर्वा अपि पुत्रवध्वो निर्भर्सयामासिरे, ततस्त्वरितं प्रियङ्कलतिका अन्या च यथायोगं चारि पानीयं च गृहीत्वा वत्साभिमुखं चचाल, दीप अनुक्रम [२४६] ~159~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२२६|| दीप अनुक्रम [२४८] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> मूलं [ २४८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित भाष्यं [ २२...] “निर्युक्तिः [२२६] + + प्रक्षेपं " ८० आगमसूत्र [४१ / २ ], मूलसूत्र [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः वत्सश्च ताभिः सुरसुन्दरीभिरिव समलङ्कृतमपि तादृशं गृहं नावलोकते, नापि ताः सरागदृष्ट्या वधूः परिभावयति, किन्तु तामेव केवलां चारि पानीयं वा समानीयमानं सम्यक् परिभावयति । सूत्रं सुगमं, नवरं 'पञ्चविह ' इत्यादि, पञ्चविधविषयसौख्यस्य खनय इव खनयो या वध्वस्ताभिः समधिकम् ' अतिशयेन रमणीयतया अधिकतरं तट्टई 'न गणपति' न दृष्टया परिभावयति, नापि ता वधूः, एवं साधुरपि भिक्षार्थमटन रमणीया रमणीरवलोकयेत् नापि गीतादिषु चित्तं निवनीयात् किन्तु भिक्षामात्रानयनदानाद्युपयुक्तो भवेत्, तथा च | सति ज्ञास्यति शुद्धमशुद्धं वा भिक्षादिकम् । तथा चाह गमणागमणुकखेत्रे भासिय सोयाइइंदियाउतो । एसणमणेसणं वा तह जाणइ तम्मणो समणो ॥ २२७ ॥ व्याख्या -' गमनं ' साघोर्भिक्षादानार्थ भिक्षानयनाय दाच्या वजनम् ' आगमनं भिक्षां गृहीत्वा साधोरभिमुखं चलनम् उत्क्षेपः ' भाजनादीनामूर्ध्वमुत्पाटनस् उपलक्षणमेतत् तेन निक्षेपपरिग्रहः, ततो गमनादिपदानां समाहारो द्वन्द्रः तस्मिन, तथा 'भाषितेषु' जल्पितेषु देहि भिक्षामस्मै साधवे इत्यादिरूपेषु श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैरुपयुक्तः, तथा वत्स इव ' तन्मनाः ' स्वयोग्यभक्तपानीयपरिभावनमनाः सन् श्रमण एषणामनेषणां वा सम्यग् जानाति, ततो न कश्चिदोषः । उक्तमोघौदेशिकं, सम्पति विभागौदेशिकं विभणिषुः Jacaton Internation प्रथमतस्तावत्तस्य सम्भवमाह महईए संखडीए उव्वरियं कूरथंजणाईयं । पउरं दट्टण गिही भणइ इमं देहि पुण्णा ॥ २२८ ॥ व्याख्या - इह सडिर्नाम विवाहादिकं प्रकरणं, सड्यन्ते - व्यापायन्ते प्राणिनोऽस्यामिति सङ्घडिरिति व्युत्पत्तेः, तस्यां सङ्खयां यदुद्धरितं 'क्रूरव्यञ्जनादिकं ' शाल्योदनदध्यादिकं प्रचुरं तद्दृष्ट्वा गृही भणति स्वकुटुम्बप्तिकारकं मानुषं यथेदं देहि पुण्यार्थं भिक्षाच For Park Use Only ~160~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२५१] .→ “नियुक्ति: [२२८] + भाष्यं [२३] + प्रक्षेपं ।" .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत पिण्डनियु- केमेलयगिरीयावृत्तिः कर्मदा गाथांक नि/भा/प्र ||२३|| दीप अनुक्रम [२५१] रेभ्यः । तत्र यदा यथैवास्ति तथैव ददाति तदा तदुद्दिष्टं, यदा तु तद्देयं करम्बादिकं करोति तदा तत्कृत,यदा तु मोदकादिचूर्ण भूयोऽपि औदेशिगुटपाकदानादिना मोदकादि करोति तदा तत्कर्म, एवं विभागौदेशिकस्य सम्भवः । तथा चाह भाष्यकृत। तत्थ विभागुहेसियमेवं संभवइ पुब्बमुदिई । सीसगणहियढाए तं चेव विभागओ भणइ ॥ ३२ ॥ (भा.) भा० २३ व्याख्या-तत्रोद्धरिते प्रचुरकूरादौ एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण विभागौदेशिक पूर्वमुद्दिष्ट सम्भवति । सम्मति तदेव विभागौद्देशिका विभागतो भेदेन शिष्यगणहितार्थ ग्रन्थकारो भणति उद्देसियं समुद्देसियं च आएसियं समाएसं । एवं कडे य कम्मे एकेकि चउको भेओ ॥ २२९ ॥ व्याख्या-उदिष्टं' विभागौदेशिक चतुर्दा, तद्यथा-औदेशिक समुद्देशिकमादेशं समादेशं च, एवं कृते च कर्मणि च एकैकस्मिन् 'चतुष्कः' चतुःसङ्ख्यो भेदो दृष्टः, सर्वसङ्ख्यया द्वादशधा विभागौदेशिकम् ॥ सम्मत्यौदेशिकादिकं व्याचिख्यासुराह--- जावंतियमुद्देसं पासंडीणं भवे समद्देसं । समणाणं आएसं निग्गंथाणं समाएसं ॥ २३०॥ व्याख्या-इह यत् उदिष्ट कृतं कर्म वा यावन्तः केऽपि भिक्षाचराः समागमिष्यन्ति पाखडिनो गृहस्था वा तेभ्यः सभ्योऽपि दातव्यमिति सङ्कल्पितं भवति तदा तदौदेशिकमुच्यते, पाखण्डिनां देयत्वेन कल्पितं समुदेश, अपणानामादेश, निन्यानां समादेशं । ॥ ७९ ॥ सम्पत्यमीषामेव द्वादशानां भेदानामवान्तरभेदानाह छिन्नमछिन्नं दुविहं दब्वे खेत्ते य काल भावे य । निष्काइयनिष्फन्नं नायध्वं जं जहिं कमइ ॥ २३१ ॥ ~ 161~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२५४] → “नियुक्ति: [२३१] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२३१|| व्याख्या-उदिष्टमुदेशादिकं प्रत्येक द्विधा, तयथा-छिन्नमच्छिन्नं च, छिन्नं नियमितम् अच्छिमपनियमितं, पुनरपि छिन्नमच्छिन। | च चतुर्दा, तद्यथा-द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे च, एवं यथा उद्दिष्टमौदेशिकादि प्रत्यकेमष्टधा तथा निष्पादितनिष्पनामिति निष्पादितेन-गृहिणा | स्वार्थ कृतेन निष्पन यत करम्बादि मोदकादि वा तनिष्पादितनिष्पन्नामित्युच्यते, ततो यन्निष्पादितनिष्पन्न या को कर्मणि वा 'कापति घटते, यथा यदि करम्बादि वहिं कृते अथ मोदकादि तहि कर्मणि, तत्प्रत्येकादेशिकादिभेदभिन्नं छिन्नमच्छिन्नं चेत्यादिना प्रकारेणाष्टधा। ज्ञातव्यम् ।। सम्पत्यमुमेघ गाथार्थ व्याचिख्यासुः प्रथमतो द्रव्यायच्छिन्नं व्याख्यातिभत्तुवरियं खलु संखडीएँ तदिवसमन्नदिवसे वा । अंतो बहिं च सव्वं सबदिणं देहि अच्छिन्नं ॥ २३२ ॥ व्याख्या-यत् सङ्खड्यां भक्तमुद्धरित प्रायः प्राप्यते इति सङ्कुडिग्रहणम् , अन्यथा वन्यदापि यथासम्भवं द्रष्टव्य, तदिवसमिति 'व्यत्ययोऽप्यासा 'मिति प्राकृतलक्षणवशात् सप्तम्यर्थे प्रथमा, ततोऽयमर्थः-यस्मिन् दिवसे सलादः तस्मिन्नेव दिवसे, यहा-अन्य-18 स्मिन् दिवसे गृहनायको भार्यादिना दापयति, यथा यदन्तहस्य यच्च वदिः, अनेन क्षेत्राच्छिममुक्तं, तत् सर्व-सपस्तम् । अनेन द्रव्या-18 च्छिन्नमुक्तं 'सर्वदिन' सकलमपि दिनं यावद् , उपलक्षणमेतत् तेन कर्मरूपं मोदकादि प्रभूतान्यपि दिनानि यावदिति द्रष्टव्यम् , अनेन । कालाच्छिन्नमुक्तम, अशिष्टमम्-अनवरतं देहि, भावाच्छिन्नं तु स्वयमभ्यूा, तवं-यदि तव रोचते यदिवा न रोचते तथाप्यवश्यं दात-18 व्यमिति । सम्पति द्रव्यादिच्छिन्नमाह देहि इमं मा सेसं अंतो बाहिरगयं व एगयरं । जाव अमुगत्तिवेला अमुगं बेलं च आरम्भ ॥ २३३ ॥ दीप अनुक्रम [२५४] ~ 162~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२५६] → “नियुक्ति: [२३३] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२३३|| पिण्डनियुकेमेळयगिरीयात्तिः ।। ८०॥ व्याख्या--दर्द शाल्पोदनादिकमुद्धरितं देहि मा 'शेष' कोद्रवकूरादि, अनेन द्रव्यच्छिन्नमुक्तं, तदपि च शाल्पोदनादिकमन्तळ- २ औदेशिवस्थितं बहिर्व्यवस्थितं वा एकतरं न शेषम् , अनेन क्षेत्रच्छिन्नमुक्तं, तथाऽमुकस्या वेलाया आरभ्य यावदमुका वेला, यथा प्रहरादारभ्य। कभेदाः यावत्महरद्वयं तावदेहि, अनेन कालच्छिन्नमुक्तं, भावच्छिन्नं तु स्वयमभ्यूय, तथैवं यावत्तव रोचते तावदेहि मा स्वरुचिमतिक्रम्यापि ।। गाया सम्पत्युदिष्टमधिकृत्य कल्प्याकल्प्यविधिमाद| दवाईछिन्नपि हु जइ भणई आरओऽवि मा देह । नो कप्पइ छिन्नपि हु अच्छिन्नकडं परिहति ॥ २३४ ॥ ब्याख्या-रह यदू द्रव्यक्षेत्रादिभिः पृथग्निर्धारितं तदतिरिच्य शेषं समस्तमपि कल्पते, तस्य दानार्थं सङ्कल्पितत्वाभावात् केवलं द्रव्यादिच्छिन्नमपि-द्रव्यक्षेत्रादिभिः पृथनिर्धारितमपि हुः' निश्चितं यदि गृहस्वामी आरत एव-देयस्य वस्तुनो नियतादवधेरागपि । भणति, यथा मा इत ऊर्च कस्मायपि देहीति, यथा महरदयं यावत्पूर्व किश्चिदातुं निरोपितं, ततो दानपरिणामाभावादयोगेव निषेधति'मा इत ऊर्च दद्या'दिति तदा तच्छिन्नमपि कल्पते, तस्य सम्पत्यात्मीयसचाकीकृतत्वात, यत्पुनरच्छिमकृतमच्छिन्नम्-अनिद्धारित कृतं वर्तते तत्परिहरन्ति, अकल्प्यत्वात, इस्थमेव भगवदाज्ञाविजृम्भणात्, यदा स्वच्छिन्नमपि पवादानपरिणामाभावादवोगेवात्मार्थीकृतं भवति तदा तस्कल्पते । सम्पति सम्पदानविभागमधिकृत्य करण्याकल्प्यविधिमाह ॥८ ॥ अमुगाणंति व विजउ अमुकाणं मित्ति एत्थ उ बिभासा । जत्थ जईण विसिट्ठो निद्देसो तं परिहरंति ॥ २३५॥ व्याख्या-अमुकेभ्यो दद्यात् माऽमुकेभ्य इत्येवं सम्पदानविशेषविषये सङ्कल्पे कृते विभाषा द्रष्टव्या, कदाचित्कल्पते कदाचिन्न, दीप अनुक्रम [२५६] ~ 163~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२३५|| दीप अनुक्रम [२५८] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> + प्रक्षेपं " ० आगमसूत्र [४१ / २ ], मूलसूत्र [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः “निर्युक्तिः [२३५] + भाष्यं [२३...] मूलं [२५८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित तंत्र यदा कल्पते यंदा च न तदाह-' जत्थे 'त्यादि, यत्र देये वस्तुनि यतीनामप्यविशेषेण निर्देशो भवति यथा ये केचन गृहस्था अगृहस्था वा भिक्षाचरा यदिवा ये केचित्पाखण्डिनो यद्वा ये केचन श्रमणास्तेभ्यो दातव्यमिति तत्परिहरन्ति यत्र तु यतीनामेव विशेषेण निर्देशो यथा यतिभ्यो दातव्यमिति तत्परिहरन्त्येव नात्र कश्चित्सन्देह इति तत्पृथग्विशेषेण नोक्तं, यदि पुनर्गृहस्थेभ्य एव दीयतां यदिवा चरकादिभ्य एव पाखण्डिभ्यो न शेषेभ्यस्तदा कल्पते, अपि च संदिरसंत जो सुइ कप्पए तरस सेसए ठवणा । संकलिय साहणं वा करेंति असुर इमा मेरा ॥ २३६ ॥ व्याख्यापयन्नाद्याप्यौदेशिकं जातं वर्त्तते केवळं तदानीमेवोदिश्यमानं वर्त्तते, यथा इदं देहि मा शेषमित्यादि, वत्सन्दिश्यमानम्अर्थिभ्यो दानाय वचनेन सङ्कल्प्यमानं यः साधुः शृणोति तस्य तत्कल्पते तदैव दोषाभावात्, तदपि च उद्दिष्टदेशिकादि द्रष्टव्यं न कृतं कर्म च यत उक्तं मूलटीकायाम् – “अत्र चायं विधिःसंदिस्त जो सुणइ साहु उद्देसुदेसयं पहुंच, न य कडकम्माई, तं कप्पए तदैव दोषाभावादिति । यस्तु सन्दिश्यमानं न शृणोति तस्य न कल्पते, कुतः ? इत्याह--' उवगति स्थापनादोषात् स च निर्गतः सन्नन्येभ्यः साधुभ्यो निवेदयति, तथा चाह- 'सङ्कलिए'त्यादि 'अश्रुते' शेषसाधुभिरनाकर्णिते इयं पूर्वपुरुषाचीर्णा मर्यादा, यदुत संकुलिकया एकः सङ्घाटको यस्मै कथयति सोऽप्यन्यस्मावित्येवंरूपया 'साहूणं' कथनं करोति, वाशन्दो यदि साधवो बहुप्रमाणास्तदेकस्यावस्थानमिति सूचनार्थः, स सर्वेभ्यो निवेदयति, यथा माऽस्मिन् गृहे वाजिपुः, अनेषणा वर्त्तत इति । एवमपि यैः सङ्घटकैः धर्मपि न ज्ञातं भवति तेषां परिज्ञानोपायमाह- मा एयं देहि इमं पुढे सिद्धमि तं परिहरति । जं दिन्नं तं दिनं मा संपइ देहि गेव्हंति ॥ २३७ ॥ Education Interation For Para Use Only ~164~ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२६०] → “नियुक्ति: [२३७] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु तर्मलयगि प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२३७|| दीप व्याख्या-साधुनिमित्तं कुतोऽपि स्थानाद् भिक्षामाददती कयाचिनिषिध्यते-मैतद्देदि, किन्विदं विवक्षितभाजनस्थं देहि, तत २ ओदेशि एवं कृते निषेधिते साधुः पृच्छति-किमेतनिषिध्यते ?, किंवा इदं दाप्यते ? इति, ततः सा पाह-इदमेव दानाय कालेपतं, नेदमिति के दोष रीयाचिः तत एवं शिष्टे' कथिते साधवस्तत्परिहरन्ति, यदि पुनर्यदत्तं तदनं मा शेष सम्पति दद्यादिति निषिध्यात्मार्थीकृतमौदेशिकं भवति । झानहतु: ॥८ ॥ तदा तत्कल्पते इतिकृत्वा गृहन्ति, तदेवमुक्तमुद्दिष्टोदेशिकं । सम्मति कृतौदेशिकस्य सम्भयहेतून स्वरूपं च प्रतिपादयति रसभायणहेउं वा मा कुच्छिहिई मुहं व दाहामि । दहिमाई आयत्तं करेइ कूरं कडं एयं ॥ २३८ ॥ मा काहंति अवण्णं परिकलियं व दिजइ सुहं तु । वियडेण फाणिएण व निद्वेण समं तु वट्ठति ॥२३९॥ व्याख्या-रसेन ' दध्यादिना रूद्धमिदं भाजनं तस्मादेतेन दध्यादिना यदुद्धरितं शाल्योदनादि तत् करम्बीकृत्य रिक्तमिदं भाजनं करोमि येनान्यत्मयोजनमनेन क्रियते इति रसभाजनहेतोः, यदा-इदं दध्यादिनामिथितं कोषिष्पति, न च कुथितं पाखण्डचा-1 दिभ्यो दातुं शक्यते, यद्वा-दध्यादिसम्मिश्रमेकेनैव प्रयासेन सुखं दीयते, इत्यादिना कारणजातेन 'दध्यायाय' दध्यादिसम्मिश्र| करोति 'कूरम् ' ओदनम्, एतत् कृतं ज्ञातव्यं, तथा यदि भिन्नभिन्नमोदकाशोकवादिचूर्णीदास्यामि ततो मे पाखण्डचादयः अवणम् ।। अश्लाघां करिष्यन्ति, यद्वा-'परिकलितम् ' एका पिण्डीकृतं मुखेन दीयते, अन्यथा क्रमेण मोदकाशोकवस्यादिचूगी: स्वस्वस्थानाहदानीयानीय दाने भूयान गमनागमनप्रयासो भवति, अपान्तराले वा सा चूर्णिहस्तात् क्षरित्या पति, ततो विकटेन' मयेन देशविशेषाप-|| क्षमेतत् , यदा-'फाणितेन' ककवादिना यदा 'निग्धेन' घृतादिना मोदक चूर्णादि सा वर्तयन्ति' पिण्डतया बनन्ति । अत्र द्वयोरपि | गाथयोः पूर्वार्द्धाभ्यां सम्भवहेतच उक्ताः, उत्तराद्धाभ्यां तु स्वरूपम् । सम्मति कपाँदेशिकस्य सम्भवहेतून् स्वरूपं चातिदेशेनाह 00000000000000000000000000 अनुक्रम [२६०] . . . . . रा ॥ १ ॥ ~165~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२६३] → “नियुक्ति: [२४०] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं " . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२४०|| एमेव य कम्ममिऽवि उण्हवणे नवरि तत्थ नाणत्तं । तावियत्रि लीगएणं मोयगचुन्नी पुणकरणं ॥ २४ ॥ व्याख्या-यथा कृतस्य सम्भवः स्वरूपं चोक्तम् एवं कर्मण्यपि द्रष्टव्यं, नवरं तत्र कर्मणि 'उष्णापने उम्गीकरणे 'नानाव विशेषः, तथाहि-तापितविलीनेन' तापितेन विलीनेन च गुडादिना मोदकचूयाः पुनर्मोदकत्वेन करणं नान्यथा, तथा तुवर्यादिभक्तमपि राज्युपितं द्वितीयदिने भूयः संस्कारापादनेन कर्पतया निष्पाद्यमानं नानिमन्तरेण निष्पाद्यते ततोऽवश्यं कर्मयुषणायने नानात्वम् । सम्पत्यत्रैव कल्प्याकलयविधिमाह अमुगंति पुणो रडं वाहमकप्पं तमारओ कप्पं । खेत्ते अंतो बाहिं काले सुइव्वं परेव्वं वा ॥ २४१ ॥ व्याख्या-मिक्षार्थ प्रविष्ट साधं प्रति यदि ग्रहस्थो भणति-यथाऽन्यस्मिन् गृहे विहत्य च्यावर्तमानेन त्वया भयोऽपि मादे समागन्तव्यं, यतोऽहम् 'अमुकं' मोदकचूादि भूयोऽपि राद्धं गुडपाकादिदानेन मोदकादि कृत्वा दास्यामि, एवमुके तथाकृत्वा चेद-16 दाति तहि तन्न कल्पते, कम्मौदेशिकत्वात् , 'आरात् ' भूयः पाकारम्भादक पुनः कल्प्य, दोषाभावात् , तथा क्षेत्रेऽन्तर्वहिवा काले वस्तनं परतरदिनभवं वाऽकल्प्यमारत: कल्प्यम्, इयमत्र भावना-पद गृहस्पान्तबहिर्वा मोदकचूपादिक मोदकादितयोपस्करिष्यामि | कालविवक्षायां यदय श्वः परतरे वा दिने भूयोऽपि पक्ष्यामि तनुभ्यं दास्यामीत्युक्ते तथैव चेकवा ददाति ततो न कल्पते, भूयोऽपि पाकादू, आरतस्त्वसंसक्तं कल्पते । तथा चाह जं जह व कयं दाहं तं कप्पइ आरओ तहा अकयं । कयपाकमणित्ति ठियपि जावत्तियं मोत्तं ॥२४२॥ दीप अनुक्रम [२६३] ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ~166~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२४२|| दीप अनुक्रम [२६६] मूलं [ २६६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्यु- * केमलयगिरीयावृत्तिः ॥ ८२ ॥ “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) ⇒ ८० "निर्युक्तिः [ २४२ ] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या - यत् सामान्यतो द्रव्यं यद्वा-यथा क्षेत्रनिर्द्धारणेन वा भूयोऽपि कृतं दास्यामीत्युक्ते तथैव कृतं चेददाति न कल्पते, तथाऽकृतं तु भूयोऽपि पाकादारतः कल्पते, यत्तु निर्धारितक्षेत्र कालव्यतिरेकेण पच्यते तत्र दातुं सङ्कल्पितमिति कल्पते, यत्तु क्षेत्रका लनिर्द्धारणमविवक्षित्वैव सामान्यतो भूयोऽपि पक्त्वा दास्यामीति सङ्कल्पितं तदन्तर्बहिर्वा श्वस्तने परतरदिने वा न करूपते । अथ कम्मैदेशिकं कृतपाकमात्मार्थीकृतमपि यावदर्थिकं मुक्त्वा शेषमनिष्टं नानुज्ञातं तीर्यकरगणधरैः, यावदर्थिक स्वात्मार्थीकृतं कल्पते । अ*थाऽऽधाकम्मिक कम्मोदेशिकयोः कः परस्परं प्रतिविशेषः ?, उच्यते, यत् प्रथमत एव साध्वर्थ निष्पादितं तदाधाकम्र्म्म, यत् प्रथमतः सद् * भूयोऽपि पाककरणेन संस्क्रियते तत्कम्मैदेशिकमिति । उक्तमौदेशिकद्वार, सम्पति पूतिद्वारं वक्तव्यं-प्रतिश्रुतुर्द्धा तथथा - नामपूति: स्थापना पूर्तिर्द्रव्यपूतिर्भावपूतिश्व तत्र नामस्थापने सुज्ञानत्वादनादृत्य द्रव्यभावपूती प्रतिपादयति Ja Education Internation पूर्वकम्मं दुविहं दध्वे भावे य होइ नायव्वं । दव्वंमि छगणधम्मिय भावंमि य बायरं सुहुमं ॥ २४३ ॥ व्याख्या -' पूतिकर्म्म' पूतीकरणं द्विश, तयथा-'द्रव्ये' द्रव्यविषयं 'भावे' भावविषयं तत्र द्रव्ये 'गणाधार्मिकः ' गोमयोपलक्षितो धार्मिको दृष्टान्तः । भावविषयं पुनर्द्विधा बादरं सूक्ष्मं च, इह यद् द्रव्यस्य पूतिकरणं तद् द्रव्यपूतिः, येन पुनर्द्रव्येण भावस्य पूतिकरणं तद् द्रव्यमप्युपचाराद् भावपूतिः, ततो वक्ष्यमाणमुपकरणादि भावपूतित्वेनाभिधीयमानं न विरुध्यते । तत्र प्रथमतो द्रव्यपूति लक्षणमाह गंधाइगुणसमिद्धं जं दध्वं असुइगंधदव्यजुयं । पूइत्ति परिहरिज्जइ तं जाणसु दब्बपूइति ॥ २४४ ॥ For Parts On ) अत्र एका प्रक्षेप-गाथा वर्तते. सा मया संपादित: 'आगमसुत्ताणि मूलं वा सटीकं पुस्तके वर्तते ••• अथ पुतिकर्म-दोषस्य वर्णनं आरभ्यते ~167~ १२ औद्देशिके कर्मभेदः २ ३ पूतिदोष तद्भेदौ ॥ ८२ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२४४|| दीप अनुक्रम [२६८] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) "निर्युक्तिः [ २४४] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२...]" ←० आगमसूत्र [४१ / २ ], मूलसूत्र [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [ २६८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित व्याख्या - इह यत् पूर्वं स्वरूपतो 'गन्धादिगुणविशिष्टं सुरभिगन्धादिगुणविशिष्टमपि, अपिरत्र सामर्थ्याद्गम्यते, पञ्चादशुचिगन्धद्रव्ययुक्तं सत् पृतिरिति परिहियते तद्द्रव्यं जानीहि द्रव्यपूतिरिति । अत्रार्थे गाथाद्वयेनोदाहरणमाह गोडनिउत्तो धम्मी सहाऍ आसन्नगोहिभत्ताए । समियसुरवहमीसं अजिन्न सन्ना महिसिपोहो ॥ २४५ ॥ संज्ञायलित्तभत्ते गोडिगगंधोत्ति बलवणिआयो । उक्खणिय अन्न छगणेण लिंपणं दव्बपूई उ ॥ २४६ ॥ व्याख्या समिलं नाम पुरं, तत्र वहिरुद्याने सभाकलितदेवकुलिकायां माणिभद्रो नाम यक्षः, अन्यदा च तस्मिन् पुरे शीतलकाभिधमशिवमुपतस्थे ततः कैचित्तस्य यक्षस्योपयाचितकमिष्टं ययस्मादशिवाद्वयं निस्तरामस्ततस्तत्रैकं वर्षमष्टम्यादिपूयापनिकां करिष्यामः, ततो निस्तीर्णाः कथमपि तस्मादशिवात्, जातश्च तेषां चेतसि चमत्कारो यथा नूनमयं समातिहार्यो यक्ष इति, ततो देवशर्माभिवो भाटकप्रदानेन पूजाकारको बभणे, यथा वर्षमेकं यावदष्टम्यादिषु प्रातरेव यक्षसभां गोमयेनोपलिम्पेः, येन तत्र पवित्रीभूतायां वयमागत्योद्यापनिकां कुर्मः, तथैव सेन प्रतिपन्नं, ततः कदाचिदयोद्यापनिका भविष्यतीति कृत्वा सभोपलेपनार्थमनुद्रत एव सूर्ये कस्यापि कुटुम्बिनो गोपाठके उगणग्रहणाय प्रविवेश तत्र च केनापि कर्म्मकरेण रात्रौ मण्डरायभ्यवहारतो जाताजीर्णेन पश्चिमरात्रीभागे तस्मिन्नेव | गोपाटके क्षचित्मदेशे दुर्गन्धमजीर्ण पुरीषं व्युदसज्जि तस्य चोपरि कथमपि महिषी समागत्य छगणपोहं मुक्तवती, ततस्तेन स्थगितं तदजीर्ण पुरीषं देवशर्मणा न ज्ञातमिति देवशर्मा तं छगणपोई सकलमपि तथैव गृहीत्वा तेन सभामुपलिप्तवान्, उद्यापनिकाकारिणश्च जना नानाविधमोदनादिकं भोजनमानीय यावद् भोजनार्थं तत्रोपविशन्ति तावत्तेषामतीव दुरभिगन्धः समायातः, ततः पृष्टो देवशर्मा, यथा कुतो|ऽयमशुचिगन्धः समायाति? इति, तेनोक्तं-न जाने, ततस्तैः सम्यक् परिभावयद्भिरुपलेपनामध्ये वल्लाद्यवयवा ददृशिरे सुरागन्धथ निर्ज्ञातः, Education International For Parts Only ~168~ www.brary.org Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२७०] .→ "नियुक्ति: [२४६] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु- तमेळयगि- रीयाचिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२४६|| ततो जज्ञे यदुपलेपनमध्ये पुरीषमपतिष्ठते इति, ततः सर्वं भोजनमशुचीतिकृत्वा परित्यक्तम्, उपलेपनं च समूलमुत्खातम्, अन्येन च गोम-18| पूतिदोपे येन सभोपलेपिता, भोजनादिकं चान्यत् पक्त्या भुक्तमिति । सूत्र मुगम, नवरं 'धमीं' धार्मिक, 'समियत्ति मण्डकाः 'सञ्ज्ञा पुरीपम् , सभोपलेपअत्र यदुपलेपनं यच्च तत्र न्यस्तं भोजनादिकं तत्सर्वं द्रव्यपतिः ।। उक्ता द्रव्यपुतिः, अथ भावपूतिमाह तोदा० उ. दमकोटीचे उग्गमकोडिअवयवमित्तेणवि मीसियं सुसुद्धपि । सुद्धपि कुणइ चरणं पूई तं भावओ पूई ॥२४७ ॥ ___व्याख्या-'उद्गमस्या उद्गमदोपजालस्य या कोटयोऽस्त्रयः विभागा आधाकादिरूपा भेदा इत्यर्थः, ताश्च द्विधा-विशोधयोऽवि-18 शोधयश्च, तबेदाविशोधयो ग्राह्याः, तासामविशोधिरूपाणामुद्रमकोटीनामवयवमात्रेणापि मिश्रितपशनादिकं स्वरूपतः सुशुद्धमपि' उद्गमादिदोपरहितमपि सत् यद् भुज्यमानं चरणं 'शुद्धमपि । निरतिचारमपि पूर्ति करोति, तदशनादिकं भावपतिः। 'उनगमकोडी' इत्युक्त, ततस्ता एवोद्गमकोटीभिषितसुराह आहाकम्मुद्देसिय मीसं तह बायरा य पाहुडिया। पूई अज्झोयरओ उग्गमकोडी भवे एसा ॥ २४८ ॥ व्याख्या-आधाकर्म सकलं तथा औदेशिकं यावदर्थिक मुक्त्वा शेष कमदेिशिक 'मिड' पाखण्डिसाधुमिश्रजातं बादरा च प्राभतिका 'पूतिः' भावपूतिः अध्यवपूरकश्चोत्तरभेदद्वयात्मका, एषा भवति उद्गमकोटिरविशोधिकोटिरूपा, तदेवं भावपूर्ति स्वरूपत उपदय सम्पति भेदत आह बायर सुहम भावे उ पूइयं मुहुममुवरि वोच्छामि । उवगरण भत्तपाणे दुविहं पुण बायरं पूई ॥ २४९ ॥ दीप अनुक्रम [२७०] ~169~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२७३] → "नियुक्ति: [२४९] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [R...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२४९|| व्याख्या-भावे भावविषया पूतिधिा, तद्यथा-वादरा सूक्ष्मा च, सूत्रे च नपुंसकनिर्देशः प्राकृतत्वात् , तत्र समां भावपूर्तिमुपरि वक्ष्ये, बादरा पुनधिा, तद्यथा 'उपकरणे' उपकरणविषया 'भक्तपाने' भक्तपानविषया , नत्र भक्तपानपूर्ति सामान्यतो व्याचिख्यासुराह चुल्लुक्खलिया डोए दब्बीछूढे य मीसगं पूई । डाए लोणे हिंगू संकामण फोडणे धूमे ॥ २५ ॥ ध्याख्या-'चली प्रतीता. 'उखा' स्थाली 'डोयः वृहदारुहस्तकः, महाचट्टक इत्यर्थः, 'दबी लघीयान् दारुहस्तकः, एतानि || हाच सर्वाण्याधाकादिरूपाणि द्रव्यानि, सर्वत्रापि च तृतीयायें सप्तमी, ततोऽयमर्थः-एतैः सम्मिश्रं शुद्धमपि यदशमादि तत् प्रतिः । तत्र चुल्लयुखाभ्यां मिश्रिताभ्यां कृत्वा रन्धनेन यद्वा तत्र स्थापनेन, तथा 'डाय शाकं लवणं हिङ्गु च प्रतीतम् , एतैराधाकर्मिकैः सम्मिश्र पूतिः, तथा 'संक्रामणस्फोटनधूपैः' इति, तत्र संक्रामणम्-आधाकर्मभक्तादिखरण्टिते स्थाल्यादौ शुद्धस्याशनादेः पचन मोचनं वा, यद्वा दारुहस्तेनाधाकर्मणाऽन्यत्र स्थाल्यां सञ्चारणं, स्फोटनम्-आधाकर्मणा राजिकादिना संस्कारकरणं धूमः-हिङ्ग्वादिसत्को वधारः ।। एनामेव गायां च्याचिख्यामुः प्रथमत उपकरणशब्दं व्याख्यानयति सिझंतस्सुवयारं दिजंतस्स व करेइ जं दच्वं । तं उवकरणं चुल्ली उक्खा दध्वी य डोयाई ॥ २५१ ॥ व्याख्या-यच्चुल्यादिकं सिद्धयतोऽन्नस्य, यद्वा यदादिकं दीयमानस्य भक्तस्योपकारं करोति तच्चयादिकं दादिकं च उपकरणम्' इत्युच्यते, उपक्रियते अनेनेत्युपकरणमितिव्युत्पत्तेः । तत्र चुल्युखयोः स्थितमशनादिकमाश्रित्य कलप्पाकलप्पविधिमाह दीप अनुक्रम [२७३] ~170~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२५२|| दीप अनुक्रम [२७६] मूलं [ २७६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्युतेर्मलयगि रीयाहृतिः “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [२५२ ] + भाष्यं [ २३...] + प्रक्षेपं [२...]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः चुल्लुक्खा कम्माई आइमभंगेसु तीसुवि अकप्पं । पडिकुद्धं तत्थत्थं अन्नत्थगयं अणुन्नायं ॥ २५२ ॥ ॥ ८४ ॥ व्याख्या - इद्द चुल्युस्खे कदाचिद् द्वे अध्याधाकमिके आधाकर्मिककर्दमसम्मिश्र वा भवेतां, कदाचिदेकतरा काचित्, तत्र च भङ्गाअत्वारः, तद्यथा-चुल्ली आधाकर्मिकी उखा च १ चुल्ली आधाकर्मिकी नोखा २ उखा आधाकर्मिकी न चुल्ली ३ नोखा आघाकर्मिकी नापि चुली ४ । तत्रादिमेषु त्रिष्वपि भङ्गेषु रन्धनेनावस्थानमात्रेण वा स्थितमकल्प्यं प्रतिदोषात् । अकल्यस्यापि तस्य विषयविभागेन * कल्प्यताम कल्प्यतां चाह - ' तत्र ' चुल्यादौ रन्धनेनान्यतो वाऽऽनीय स्थापनेन स्थितं सत् 'प्रतिक्रुष्टं ' निराकृतम्, अन्यत्र गतं पुनस्तदेवानुज्ञातं तीर्थकरादिभिः इयमत्र भावना - यदि तत्र राद्धमथवाऽन्यतः समानीय स्थापितं ततो यदि तदेवान्यत्र स्वयोगेन नीतं भवति न साध्वर्थं तहिं कल्पते । तदेवं चुल्युखास्थितस्य कल्पयाकल्यविधिमुपदर्श्य सम्पति चुल्याद्युपकरणानां प्रतिभावं दिदर्शयिषुः 'चुलुकवलिया डोए' इति पूर्वोक्तगाथावयवं व्याख्यानयति — कम्मियकद्दममिस्सा खुली उक्खा य फडगजुया उ । उबगरणपृइमेयं डोए दंडे व एगयरे ॥ २५३ ॥ व्याख्या— आधाकम्मिकेन कर्द्दमेन या मिश्रा, किमुक्तं भवति ? – कियता शुद्धेन कियता चाधाकर्मिकेण या निष्पादिता चुली उखा च सा आधाकर्मिककर्दममिश्रा, कथम् ? इति, आह— 'फडगजुया उ 'त्ति, अत्र हेती प्रथमा तवोऽयमर्थः यतः फडुगेन- आधाकमिंकेन कर्दमसूचकेन युता तत आधाकर्मिककर्दम मिश्रा, सा इत्थंभूता उपकरणपूतिः, तथा 'ढोए ' इति देशे समुदायशब्दोपचारात् डोय इत्युक्ते डोयस्याग्रभागो गृह्यते, तस्मिन् यद्वा दण्डे एकतरस्मिन्नाधाकर्मणि स दारुहस्तकः पृतिर्भवति, एवमनया दिशा अन्यस्याप्युपकर Education International For Penal Lise Only ~ 171~ ३ प्रतिदोष स्वरूपभेदौ ॥ ८४ ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२७७] → "नियुक्ति: [२५३] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२५३|| पाणस्य पूतित्वं भावनीय, तत्र चुल्पुखाविषये कल्प्याकल्प्यविधिरनन्तरमेवोक्तो दारुहस्तके चाधाकर्मणि पूतिरूपे वा स्वपोगेन स्थालया। बहिष्कृते स्थाल्या स्थितमशनादि कल्पते, न तु तेन सम्मिश्रमिति । सम्पति 'दवी छुढे य' इति व्याचिख्यासुराह दब्बीछुढेत्ति जं वुत्तं, कम्मदव्वीऍ जं दए । कम्मं घट्टिय सुई तु, घट्टए हारपूइयं ॥ २५४ ॥ व्याख्या-दब्बी छुढे ' इति यत् प्रागुक्तं, तस्यायमर्थः-कर्मदा आधाकम्मिकदा यत् शुद्धमप्यशनादिकं घट्टयित्वा ददाति तद् 'आहारपूतिः। भक्तपूतिः । सा चेद्दवी स्थाल्याः सकाशानिष्काशिता तहिं स्थाल्याः सत्क कल्पते, यद्वा मा भूदाधाकमिकी दबी, केवलं शुद्धयाऽपि दा यदि पूर्वमाधाकर्मिक 'घट्टयित्वा' चालयित्वा पश्चादाधाकर्मावयवखरण्टितया यदपरं शुद्धमपि | भक्तादिकं घट्टयति घट्टयित्वा च ददाति तदप्याहारपूतिः । अस्यां च दव्या स्थाल्या निष्काशितायामपि पावासं स्थालीभक्तं न कल्पते,18 |आधाकावयवमिश्रितत्वात् । 'डाए' इत्याद्युत्तरार्द्ध व्याचिख्यासुराह अत्तद्विय आयाणे डायं लोणं च कम्म हिंगुं वा । तं भत्तपाणपूई फोडण अन्नं व जं छुहइ ॥ २५५॥ संकामेउं कम्मं सिहं जं किंचि तत्थ छूढं वा । अंगारधूमि थाली वेसण हेठा मुणीहि धूमो ॥ २५६ ।। " व्याख्या-आत्मार्थम् 'आदाने ' तक्रादिपाकारम्भकरणरूपे सति यदाधाकर्मिक 'डाय शाकं यदिवा लवणं यद्वा दिल्गुः अन्यद्वारा स्फोटनं राजिकाजीरकादि तत् तक्रादिकं तेन सम्मिथ भक्तपानपूतिः, एतेन 'डाए लोणे हिंगू फोडण' इति व्याख्यातं । तथा यस्यां स्थाल्या || राद्धमाधाकर्म तदन्यत्र संक्रमय्य-प्रतिक्षिप्य तस्यामेव स्थाल्पामकृतकल्पफ्यायां यदात्मार्थ सिद्ध किश्चित् यद्वा तत्र प्रक्षिप्तं तदपि भक्तपान दीप अनुक्रम [२७७] ~172~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२५६|| दीप अनुक्रम [ २८० ] मूलं [ २८० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्युतेर्मलयागियाष्टत्तिः ॥ ८५ ॥ “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [२५६] + भाष्यं [ २३...] + प्रक्षेपं [२...]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ***♠♠♠♠♠ वृति, अनेन 'संकवनं ति व्याख्यानं, तथा 'अङ्गारेषु' निर्देमाधिरूपेषु 'येसने 'बेसनग्रहणमुपलक्षणं तेन बेसन रिभरका प्रश्तेि : प्रतिदोष सति यो धूम उच्छलति स वेसनाङ्गारधूम इति ज्ञातव्यं, पूर्वगाथायां धूम इत्यस्य पदस्यायमर्थो भावनीय इत्यर्थः । वेसनशब्दस्य च व्यस्तः सम्बन्ध आत्यात अङ्गारादीनां च मध्ये एकं द्वे त्रीणि वाघाकर्मिकाणि द्रष्टव्यानि, अनेन च धूपेन या व्याप्ता स्थाली तक्रादिकं वा तदपि पूतिः । उक्ता बादरपूर्ति:, अथ सूक्ष्मपूतिमाह 'धूमेगंधे अवयवमाहिं सुहुमपूई उ । सुंदरमेयं पूई चोयग भणिए गुरू भइ || २५७ ॥ व्याख्या - अत्रैकारद्वयस्प छन्दोऽर्थत्वादादिशब्दस्य व्यत्ययान्मकारस्य चालाक्षणिकत्वादेवं निर्देशो द्रष्टव्य:-' इन्धन धूपगन्धा* यवयवैः' इति, इन्धनग्रहणं चोपलक्षणं, ततोऽङ्गारा अपि गृह्यन्ते, आदिशब्देन च बाष्पपरिग्रहः, ततोऽयमर्थः - इन्धनाङ्गारावयवधूमगन्धवाष्पैराधाकर्म्मसम्बन्धिभिः सम्मिश्रं यत् शुद्धमशनादिकं तत् सूक्ष्मपूतिः । एषा च किल सूक्ष्मपूतिर्न आगमे निषिध्यते, ततश्चोदक आइ' सुन्दरं ' युक्तमेनां पूर्ति वर्जयितुं, तत्कि नागमे निषिध्यते ?, एवं परेणोक्ते गुरुर्भणति धूमेगंधे अवयवमाई न पूइयं होइ । जेसिं तु एस पूई सोही नवि विज्जए तेसिं ॥ २५८ ॥ व्याख्या अत्रापि पदयोजना प्रागिव, ततोऽयमर्थः - इन्धनागारावयव धूम गन्धवाष्पैराधाकर्मसम्वन्धिभिर्मिश्रं पूतिर्न भवति, येषां तु मतेन पूतिर्भवति तेषां मतेन साधोः शुद्धिः सर्वथा न विद्यते । एतदेव भावयति— इंधन अगणी अवयव धूमो बप्फो य अन्नगंधो य । सब्र्व्वं फुसंति लोयं भन्नइ सव्वं तओ पूई ॥ २५९ ॥ Education Inn For PalPrata Use Only ~ 173~ बादरा पृ ति: सूक्ष्म पूते रसा ध्यता ॥ ८५ ॥ yor Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२५९|| दीप अनुक्रम [ २८३] मूलं [ २८३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ******** ◆◆◆◆◆◆◆◆000 “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [२५९] + भाष्यं [ २३...] + प्रक्षेपं [२...]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या – इन्धनाग्न्यवयवाः सूक्ष्मा ये धूमेन सहादृश्यमाना गच्छन्ति, तथा धूमो बाष्पोऽन्नगन्धव, एते सर्वेऽपि प्रसरन्तः किल | सकलमपि लोकं स्पृशन्ति, तत्पुद्गलानां सकलमपि लोकं यावद्गमनसम्भवात् ततस्तवाभिप्रायेण सर्वमपि पूतिरापद्यते, तथा च सति साधोः कथं शुद्धिः ? इति । अत्र परः प्रागुक्तविरोधं दर्शयन स्वपक्षं समर्थयति- नणु सुहूमपूइयस्सा पृथ्वदिट्ठस्सऽसंभवो एवं । इंघणधूमाईहिं तम्हा पूइत्ति सिद्धमिणं ॥ २६० ॥ व्याख्या --- ननु यदीन्धनाऽवयवादिभिः पूतिर्न भवेत्, एवं सति तर्हि पूर्वोद्दिष्टस्य 'भावंमि उ वायरं सुमं' इत्येवमुक्तस्य सूक्ष्मपूतेरसम्भवः प्राशोति, अन्यस्य सूक्ष्मपूतेरभावात्, तस्मात्सिद्धमिदं यदुत इन्धनधूमादिभिः सम्मिश्रं पूतिः सूक्ष्मपूतिरिति । अत्र गुरुराइचोयग इंघणमाईहिं चउहिंवी सुहुमपूइयं होइ । पन्नवणामित्तमियं परिहरणा नत्थि एयरस ॥ २६१ ॥ व्याख्या' हे चोदक !' प्रेरक ! ' इन्धनादिभिः ' इन्धनाग्न्यवयवधूमवाष्पगन्धैश्चतुर्भिरपि स्पृष्टं सूक्ष्मपूतिर्भवति, नात्र कश्चिद्विवादः, एनामेव च सूक्ष्मप्रतिमधिकृत्य प्रागुक्तं 'भावंमि उ बायरं सुहुमं' इति, केवलमिदं सूक्ष्मपूतित्वेन भणनं प्रज्ञापनामात्रं, परिहरणं पुनस्तस्या:-- सूक्ष्मपतेर्नास्ति, अशक्यत्वात् । एतदेव प्रपञ्चयति सज्झमसज्यं कज्जं सज्यं साहिज्जए न उ असज्यं । जो उ असज्झं साहइ किलिस्सइ न तं च साहेई ॥ २६२॥ व्याख्या -- इह द्विविधं कार्य - साध्यमसाध्यं च शक्यमशक्यं चेत्यर्थः, तत्र साध्यं साध्यते न त्वसाध्यं यस्त्वसाध्यं युष्मादृशः | साधयति स नियमात् क्लिश्यते, न च तत्कार्ये साधयति, अविद्यमानोपायत्वात्, एषोऽपि चानन्तरोक्तः सूक्ष्मपूतिरशक्यपरिहारः, ततो न परिहियते । सम्प्रति परो 'बायरं मुहुमं 'ति समर्थयमानोऽपरं सूक्ष्मपूर्ति तस्य परिहरणं च शक्यं प्रतिपादयति Education Intern For Pale Only ~ 174~ wlanerary org Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२८७] → "नियुक्ति: [२६३] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु केमेलयगिरीयात्तिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२६३|| ॥८६॥ आहाकम्मियभायणपरफोडण काय अकयए कप्पे । गहियं तु सुहुमपूई धोवणमाईहिं परिहरणा ॥ २६३ ॥ ३ पूतिदोघे व्याख्या-यत्र भाजने गृहीतमाधाकर्म तस्मिन् भाजने आधाकर्मपरित्यागानन्तरं 'प्रस्फोटनं कृत्वा' इस्तेनास्फालनादिना सूक्ष्मपूत र सर्वानन्याधाकावयवानपसार्य अकृते 'कल्पे' कल्पत्रये यद् गृहीतं तत्सूक्ष्मपूतिर्भवति, कतिपयोद्धरितमूक्ष्माधाकर्मावयवामिश्रणसम्भ- मार वात् , तस्य च सूक्ष्मपूते: परिहरणं धावनादिभिः, किमुक्तं भवति ?-पात्रस्याधाकर्मिकपरित्यागानन्तरं कल्पवयधावनेन प्रक्षालनं क्रियते । तर्हि सूक्ष्मपूतिनं भवति, तत एवं सूक्ष्मपूतेः परिहरणमपि घटते, तस्मादिदमेव सूक्ष्मपूतिस्वरूपमुच्यतामिति भावः, तदेतदयुक्तं, यत इयं 4 बादरपूतिरेव, तथाहि-गृहीतोऽस्ति तस्याधाकर्मणः सत्कैः स्थूलैः सिक्थायवयवैः । तन्मिथ सत्कथं स सूक्ष्मपूतिः । किश्शधोयंपि निरावयवं न होइ आहच्च कम्मगहणमि । न य अद्दव्वा उ गुणा भन्नई सुद्धी कओ एवं ? ॥ २६४ ॥ व्याख्या-कदाचित् कर्मग्रहणे' आधार्मिकग्रहणे सति तत्परित्यागानन्तरं पश्चात् 'धौतमपि' प्रक्षालितमपि पात्रं सर्वथा न निरवयवं भवति, पश्चादपि गन्धस्योपलभ्यमानत्वात, अथ गन्ध एवं केवल उपलभ्यते न तु तदवयवः कथिदस्तीति बेथे, तत आह-न| च' अद्रव्याः' द्रव्यरहिताः 'गुणाः' गन्धादयः सम्भवन्ति, ततो गन्धोपलम्भादवयं तत्र धीतेऽपि केचन सूक्ष्मा अवयवा द्रष्टव्याः, ततो भण्यते-'एवमपि ' अपिरत्र सामद्रिम्पते भवत्परिकल्पितमकारेणापि कुतः सूक्ष्पपूतेः 'शुद्धिः' परिहारो ?, नैव कथश्चन इति ॥८६॥ भावः, तस्मात्पूर्वोक्त एव सूक्ष्मपूतिः, तस्य च प्रज्ञापनामा, न तु परिहरणं कर्तुं शक्यमिति स्थितं । ननु यदि स परमार्थतः सूक्ष्मपूतिस्तवस्तस्यापरिहारे नियमादशुद्धिः पामोति, सोऽपि च सूक्ष्मपूतिः सकललोकव्यापीष्यते, गन्धादिपुगलानां क्रमेण सकललोकम्पापनसम्भ दीप अनुक्रम [२८७] ~ 175~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२८८] → "नियुक्ति: [२६४] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२६४|| सवात, ततो यदा तदा वा काप्याधाकर्मसम्भवे सर्वेषामपि साधूनामशुद्धिः मामोतीति, नैष दोषो, गन्धादिपुद्गलानां चरणभ्रंशापादनसामोयोगात, न चैतदनुपपन्नं, लोकेऽपि तथा दर्शनात, तथाहिलोएवि असुइगंधा विपरिणया दूरओ न दूसंति । नय मारंति परिणया दूरगयाओ(अवि) विसावयवा ॥ २६५ ॥ व्याख्या-लोकेऽपि 'अशुचिगन्धाः' अशुचिसत्का गन्धपुद्गला दूरत आगता विपरिणताः सन्तः स्पृष्टा अपि 'न दुष्यन्ति' न स्पृष्टिदोषमशुचिस्पर्शनरूपं लोकमसिद्धं जनयन्ति, न च विषावयवा अपि दूरगताः सन्तः 'परिणताः' पर्यायान्तरमापत्रा मारयन्ति, तथेहाप्याधाकर्मणः सम्बन्धिनो गन्धादिपुला दूरतः समागच्छन्तो विपरिणता न चरणमाणान् विनाशयितुमीशाः, नाप्याधाकर्मसंस्पर्शलक्षणं दोपं जनयन्तीति । तदेवमिन्धनायवयवापेक्षया यः सूक्ष्मपूतिस्तमपरिहार्य प्रतिपाद्य सम्पति शेपद्रव्यपूर्ति परिहार्य प्रतिपादयति सेसेहि उ दब्वेहि जावइयं फुसइ तत्तियं पूई । लेवेहि तिहि उ पूई कप्पइ कप्पे कए तिगुणे ॥ २६६ ॥ व्याख्या-शेषैः । इन्धनाद्यवयवव्यतिरिक्तः शाकलवणादिभिर्यावस्थाल्पादिपरिमितं द्रव्यं स्पृष्टं भवति तावत्पमाणं पूतिः, तथा : त्रिभिलेपः पूतिः, इयमत्र भावना-स्थाल्यां किलाधाकर्म राद्धं, ततस्तस्या अपनीतम् , अपनीते च तस्मिन् या पाश्चात्या खरण्टिः सा एको लेपः, ततस्तस्यामेव स्थाल्पामकृतकल्पत्रयायां शुद्ध राद्धं पूर्तिः, एवं वारद्वयमन्यदपि राद पतिः, चतुर्थे तु वारे राद्धं न पूतिः, अथात्मयोगेन यदि गृहस्थाः तस्याः स्थाल्याः निःशेषावयचापगमाय कल्पत्रयं ददाति तर्हि का वाचर्चा , तत आह-कल्पते तस्यां स्थाल्यां शुद्धपशनादि राई, यदि 'कल्पे' प्रक्षालने 'त्रिगुणे' त्रिसङ्गधे कृते सति राध्यसि, न शेषकालम् । एतदेव भावयति दीप अनुक्रम [२८८] SAREaratunintamatarnad ~ 176~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२९१] .→ "नियुक्ति: [२६७] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु प्रत गाथांक नि/भा/प्र तेर्मळयगिरीयावृत्तिः ॥८७॥ ||२६७|| इंधणमाई मोत्तुं चउरो सेसाणि होति व्वाइं । तेसिं पुण परिमाणं तयप्पमाणाउ आरम्भ ॥ २६७ ॥ ३ पूतिदोषे परिहार्यपूव्याख्या-इन्धनावयवादीनि चत्वारि पूर्वोक्तानि मुक्त्वा शेषाणि 'द्रव्याणि ' अशनादीनि पूतिकरणप्रवणानि ज्ञातव्यानि, तेषां तिः पूतिच शुद्धाशनादिपूतिकरणविषये परिमाणं त्वक्पमाणादारभ्य द्रष्टव्यम् । इयमत्र भावना-तण्डुलादीनामाषाकर्मणां गन्धादिचतुष्टयं परिहत्या शेष त्वगवयवमात्रमप्यादी कृत्वा यत्तते तेन स्पृष्टं शुद्धमप्यशनादि पूतिर्भवतीति । सम्पति दादं साधुपा चाश्रित्य प्रतिविषय ष पात्रयोः कल्प्याकल्प्यविधिमाह-- पढमदिवसंमि कम्मं तिन्नि उ दिवसाणि पूइयं होइ । पईसु तिसुन कप्पइ कप्पइ तइओ जया कप्पो ॥ २६८॥ व्याख्या-इह यस्मिन् दिने यत्र गृहे कृतमाधाकर्म तत्र तस्मिन् दिने 'कर्म' आधाकर्म व्यक्तमेतत् , शेषाणि तु त्रीणि दिनानि || पूतिर्भवति, तद्दं प्रतिदोषवद्भवतीत्यर्थः, तत्र च 'पूतिषु पूतिदोषवत्सु त्रिषु दिनेषु आधाकर्मदिने च सर्वसङ्ख्यया चत्वारि दिनानि |६|| यावन्न कल्पते, साधुपात्रे च पूतिभूते तदा शुद्धमशनादि ग्रहीतुं कल्पते यदा तृतीयः कल्पो दत्तो भवति, न शेषकालं, पूतिदोपसम्भवाव ।। सम्मस्पाधाकर्म पूर्ति च वैविक्त्येन प्रतिपादयनुपसंहरवि ॥८७॥ समणकडाहाकम्मं समणाणं जं कडेण मीसं तु । आहार उवहि वसही सव्वं तं पूइयं होइ ॥ २६९ ॥ व्याख्या-श्रमणानामर्थाय कृतमाहारोपधिवसत्यादिकं यत् तत्सर्वमाधाकर्म, यत्पुनः श्रमणानामर्थाय कृतेनाधाकर्मणा मिश्रमाहा-II रादि तत्सर्वं पूतिर्भवति । सम्प्रति परिझानोपायमाह दीप अनुक्रम [२९१] ~ 177~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [२९४] → "नियुक्ति: [२७०] + भाष्यं [२३...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२७०|| सडुस्स थेवदिवसेसु संखडी आसि संघभत्तं वा । पुग्छिन्तु निउणपुच्छं संलाबाओ बऽगारीणं ॥ २७॥ व्याख्या-यह प्रथमत आगतेन श्राद्धगृहे तथाविधं किमपि सङ्खड्यादि चिह्नमुपलभ्य पूतिदोषसंशयभावे श्राद्धस्य पार्थे उपलक्षगमेतत् श्राविकादेव पार्षे निपुणपृच्छं प्रष्टव्यं, यथा--युष्माकं गृहे 'स्तोकदिवसेषु । स्तोकदिवसमध्ये, प्रभूतदिवसातिक्रमेण प्रतिदोषो न सम्भवतीति स्तोकदिवसग्रहणं, 'मजदिः । वीवाहादिपकरणरूपा सङ्घभक्तं वा दत्तमासीत् ?, समाज्यां वा साधुनिमित्रं किमपि कृतजा आभवत !, ततस्तदिनादर्याग दिनत्रयं पूतिरितिकृत्वा परिहर्त्तव्यं, चतुर्थादिषु तु दिनेषु परिग्राह्यम्, अथवा कापि प्रश्नमन्तरेणाप्यमारिणीनां | संलापात् पूतिरपूतिर्वेति ज्ञातव्यं, ता हि अपृष्टा एवान्यमुद्दिश्य कथयन्ति, यथाऽस्माकं श्वः परतरे वा दिने सकभक्तं दचमासीव, यदासङ्गतिः सङ्खड्यां च कृतं साध्वर्य प्रभूतमशनादिकमिति, तत एवं तासां संलापानाकये पूत्यपूती शात्या परिहारग्रहणे कार्ये, उक्तं पूतिद्वारं । सम्पति मिश्रजातद्वारमाह मीसज्जायं जावंतियं च पासंडिसाहुमीसं च । सहसंतरं न कप्पइ कप्पइ कप्पे कए तिगुणे ॥ २७१॥ व्याख्या-मिश्रजातं विधा, तद्यथा-यावदर्थिकं पाखण्डिमिकं साधुमिश्रं च, तत्र यावन्तः केचन गृहस्था अगृहस्था वा भिक्षा-1 चराः समागमिष्यन्ति तेषामपि भविष्यति कुटुम्बे चेतिबुद्धया सामान्येन भिक्षाचस्योग्यं कुटुम्बयोग्यं चैकत्र मिलितं यत्पच्यते तद्या-1 चदर्थिक मिश्रजातं । यत्तु केवलपाखण्डियोग्यमात्मयोग्यं चैकत्र पच्यते तत्पाखण्डिमिश्र । यत्पुनः केवलसाधुयोग्यमात्मयोग्यं चैकन पच्यते | तत्साधुमिकं । श्रमणानां पाखण्टिबन्तर्भावविवक्षणात श्रमणमित्रं पृथनोक्तम् । एतच्च मिश्रजातं 'सालान्तरमपि' सहस्रान्तरे गतमपि| येन तस्कृतं तेनान्यस्मै दत्तं तेनाप्यन्यस्मै यावत्सहस्रतमाय दत्तं, ततोऽपि परं यदि साधने ददाति तथापि न कल्पते । भाजनशुद्धौ | दीप अनुक्रम [२९४] अथ 'मिश्रजात' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते ~178~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं .→ “नियुक्ति: [२७१] + भाष्यं [२४] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२४|| पिण्डनियु- विधिमाह-येन भाजनेन तन्मित्रं गृहीतं तस्मिन् भाजने मिश्रपरित्यागानन्तरं 'कल्पे ' प्रक्षालने त्रिगुणे कृतेऽन्यत् शुद्ध ग्रहीतुं कल्पते, ४ मिश्वजामेलयगि-I नान्यथा । एनामेव गायां भाष्यकृयाचिख्यासुः प्रथमतो मिश्रजातस्य सम्भवमाह ते भेदाः दुग्गासे तं समइच्छिउं व अडाणसीसए जत्ता । सड्ढी बहुभिक्खयरे मीसज्जायं करे कोई ॥ ३३ ॥ ( भा.) ॥८८॥ ___ व्याख्या-दुःखेन ग्रासो यत्र तद् दुर्गासं-दुर्भिक्ष तस्मिन् भिक्षाचरसत्त्वानुकम्पया, यद्वा तद् दुर्भिक्षं समतिक्रान्तः कश्चिद् युसुक्षा कष्ट महत्परिज्ञाय यदिवा 'अध्वशीर्षके - कान्तारादिनिगमरूपे प्रवेशरूपे खिन्नभिक्षाचरानुकम्पया यहा 'यात्रायां' तीर्थयात्रादिरूपे उत्सवविशेषे दानश्रद्धया कोऽपि 'श्रद्धी' श्रद्धावान् बहून भिक्षाचरानुपलभ्य 'मिश्रजात' पूर्वोक्तशब्दार्थ करोति । सम्मति याचदर्यि-18 कस्य मिश्रजातस्य परिज्ञानोपायमाह-- जावंतहा सिद्ध नेयं तं देह कामियं जइणं । बहुसु व अपहुप्पते भणाइ अन्नपि रंधेह ॥ २७२ ॥ व्याख्या-काचित् किमपि साधवे ददती कयाचित्पतिषिध्यते-नेदं दीयमानं यावदर्थ सिद्ध-यावन्तः केचनापि भिक्षाचराः समागमिष्यन्ति तेषामर्थाय सिद्धं, किन्तु विवक्षितं, तस्मात्तदेहि यतिभ्यः कामितं यावद्गृह्णन्ति तावत्पमार्ण, यद्वा प्रचुरेषु भिक्षाचरेषु समाग-1 छत्सु अग्रेतनप्रमाणे राध्यमाने 'अपभवति' अपूर्यमाणे गृहनायको भणति-नैतावता रादेन सरिष्यति ततोऽन्यदप्यधिक प्रक्षिप्य । राध्नुहि, एवं श्रुते यावदर्थिकं मिश्रं परिज्ञायते, ज्ञात्वा च परिहर्त्तव्यमिति । सम्पति पाखण्डिमिश्रसाधुमित्रे प्रतिपादयति अत्तहा रंधते पासंडीणंपि बिइयओ भणइ । निगंथट्ठा तइओ अत्तहाएऽवि रंधते ।। २७३ ॥ दीप अनुक्रम [२९६] 40000०००००ककककककका For P OW ~179~ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२७३|| दीप अनुक्रम [२९८] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [२७३ ] + भाष्यं [ २४...] + प्रक्षेपं [२...]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [ २९८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित व्याख्या- ' आत्मार्थ' कुटुम्बार्थं गृहिण्या 'राध्यमाने पच्यमाने गृहनायको यावदर्शिक मिश्रप्रवर्तकगृहनायकापेक्षया द्वितीयो भणति, यथा पाखण्डिनामप्यर्थायाधिकं प्रक्षिप । तथाऽऽत्मार्थमेव राध्यमाने तृतीयो गृहनायको ब्रूते, यथा-निर्ग्रन्थानामर्थायाधिकं प्रक्षिपेति । तत एवं श्रुते पाखण्डिमिश्रसाधुमिश्रयोरपि परिज्ञानं भवति । सम्पति यदुक्तमेतत् 'मिश्रजातं पुरुषसहस्रान्तरगतमपि न कल्पते' इति, तद्दृदृष्टान्तेन भावयति- विसघाइय पिसियासी मरइ तमन्नोवि खाइउं मरइ । इय पारंपरमरणे अणुमरइ सहस्ससो जात्र ॥ २७४ ॥ व्याख्या - इह कोऽपि वैधकेन विषेण घातितः, तस्य पिशितं योऽश्नाति सोऽपि म्रियते, तस्यापि मांसं यो भक्षयति सोऽपि त्रियते, एवं परम्परया मरणे तावद् ' अतु' पाश्चात्यः पाश्चात्यो त्रियते, यावत्ते म्रियमाणाः सङ्ख्यया सहस्रशो भवन्ति । इत्थं सहस्रवेधकस्य | विपस्य प्रभावः यत्सहस्रान्तरगतमपि मारयतीति भावः । एवं मीसज्जायं चरणष्पं हणइ साहु सुविसुद्धं । तम्हा तं नो कप्पइ पुरिससहस्संतरगयपि ॥ २७५ ॥ व्याख्या -' एवं ' सहस्रवेधकविपमिव यावदर्थिकपाखण्डिसाधुविषयं मिश्रजातमध्ये केनान्यस्मै दत्तं तेनाप्यन्यस्मायित्येवं परम्परया पुरुषसहस्रान्तरगतमपि साधोः सुविशुद्धं चरणात्मानं हन्ति, तस्मान्न कल्पते साधूनां सहस्रान्तरगतमपि मिश्रं । सम्पति साधुविषयं विधिमाहनिच्छोडिए करीसेण बावि उच्चट्टिए तओ कप्पा । सुक्कावित्ता गिण्हइ अन्न चउत्थे असुकेऽवि ॥ २७६ ॥ व्याख्या - मिश्र कथमपि गृहीते पश्चात्चस्मिंस्त्यक्ते सति भाजने 'निच्छोटिते' अङ्गुल्यादिना निरवयवे कृते यद्वा 'करीषेण Eaton Internationa For Parts Only ~ 180~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३०१] .→ "नियुक्ति: [२७६] + भाष्यं [२४...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२७६|| भेदाः दीप अनुक्रम [३०१] पिण्डनियु- शुष्कगोमयरूपेण उत्तिते पश्चात् त्रयः कल्पा दीयन्ते, तत आतपे तद् भाजनं शोपयित्वा पश्चात्तस्मिन्नव्यते-शुद्धं गृह्णाति, नान्यथा, पूति- ४ मिश्रजातेर्मकयगि- दोषसम्भवात, अन्ये तु सूरयः माहु:-चतुर्थे कल्ये दत्ते सति अशुष्केऽपि, गृहन्ति, नास्ति कश्चिदोषः, अयं च पक्षालनविषिः सर्वत्राप्यशो- कल्पकरीयादृचिःधिकोटिग्रहणे बेदितव्यः, उक्तं मिश्रद्वारम् । अथ स्थापनाद्वारमाह रण विधि: सटाणपरटाणे दुविहं ठवियं तु होइ नायव्वं । खीराइ परंपरए हत्थगय घरतरं जाव ।। २७७ ।। स्थापनाव्याख्या-स्थापितं साधुनिमित्तं घृतभक्तादि, तञ्च द्विधा, तद्यथा-स्वस्थाने परस्थाने च, तत्र स्वस्थानं चुल्पवचुझ्यादि, परस्थानं छब्बकादि, एकै द्विषा-अनन्तरं परम्परं च, तत्र यस्य साधुनिपित्तं स्थापितस्य सतो विकारान्तरं न भविष्यति यथा घृतादस्तदनन्तरस्थापित । क्षीरादिकं तु परम्परके परम्परास्थापितं , तथाहि-क्षीरं स्थापितं सद्दपि भवति, तद्दधि भूत्वा नवनीत, नवनीत भूत्वा घृतं, ततो यदैव साधुनिमि क्षीरं धृत्वा घृतीकृत्य ददाति तदा तत् क्षीरं परम्परास्थापितं भवति, एवमन्यदपीक्षुरसादिकं द्रष्टव्यं, तथा पशिस्थिते गृहत्रये उपयोगावकाशसम्भवे सति हस्तगतासु तिसूषु भिक्षास्वेकः साधुरेका भिक्षा सम्यगुपयोगेन परिभावयन् गृह्णाति, द्वितीयस्तु योहयोईस्तगते द्वे भिक्षे परिभावयति, ततो गृहत्रयात्परतो यावद्गृहान्तरं न भवति तावन तस्य स्थापनादोषः, गृहान्तरे तु साधुनिमिर्त हस्तगता भिक्षा स्थापना, तत्रोपयोगासम्भवात् । तत्रनामेव गार्था भाष्यकृयाचिख्यामुः प्रथमतः स्वस्थानमाह चुल्ली अवचुल्लो वा ठाणसठाणं तु भायणं पिढरे। सटाणटाणंमि य भायणठाणे य चउभंगा ॥३॥ (भा०) भा० २५ व्याख्या-द्विविधं स्थानं, तद्यथा-स्थानस्वस्थानं भाजनस्वस्थान च, तत्र स्थानरूपं स्वस्थानं चुल्ली अवचुलो बा, चुटया अब-प.] वादवचुल्लो, राजदन्तादित्वादवशब्दस्य पूर्वनिपातोऽदन्तता च, तत्र 'चुल्ली' प्रतीता, 'अवचुल्ल' अवल्हका, एतयोश्च स्थितं सद् भक्तं पच्यते, अथ 'स्थापना' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते ~ 181~ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३०३] → “नियुक्ति: [२७७] + भाष्यं [२५] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२५|| तत एतौ स्थानरूपं स्वस्थान, भाजनरूपं तु स्वस्थानं 'पिठरं' स्थाली, तत्र स्थानस्वस्थाने भाजनस्वस्थाने च चत्वारो भङ्गाः, तपथाचुल्यां स्थापित पिठरे च १, चुट्यां स्थापितं न पिठरे छम्बकादौ स्थापितत्वात २, न चुल्यां किन्तु पिठरे, तच्च चुहयवचुल्लाभ्यामन्यत्र । प्रदेशान्तरे स्थापितं द्रष्टव्यं ३, न चुल्यां न पिठरे चुल्यवचुल्लाभ्यामन्यत्र छब्बकादौ स्थापितमित्यर्थः ४ । सम्पति परस्थानमाह छब्बगवारगमाई होइ परट्राणमो वऽणेगविहं । सटाणे पिढरे छब्बगे य एमेव दूरे य ॥ २७८ ।। व्याख्या-छब्बकवारकादिकमनेकविध भाजनं परस्थानं भवति द्रष्टव्यं, तत्र 'छब्यक' पटलिकादिरूपं, 'वारका बघुर्घटः, आदि-1 शब्दात्पाकभाजनवर्जेचुल्यवचुल्लवशेषसकलभाजनपरिग्रहः, अत्रापि स्वस्थानपरस्थानापेक्षया चतुर्भङ्गी, तपथा-स्वस्थाने स्वस्थाने, स्वस्थाने परस्थाने, परस्थाने स्वस्थाने, परस्थाने परस्थाने । एनामेव चतुर्भङ्गी दर्शयति-'सटाण' इत्यादि, अत्र 'सहाणे पिढरे । छब्बगे य' इत्यनेन भङ्गादयं सूचितं, स्वस्थानस्य पिठरछब्बकाभ्यां प्रत्येकमभिसम्बन्धात, तद्यथा-स्वस्थाने चुल्यादौ पिठरे च, तथा । स्वस्थाने चुल्यादी छब्बके च परस्थाने, 'एमेव दूरे यति इह दूरं चुल्यवचुल्लाभ्यामन्यत्मदेशान्तर, तत्रापि तदपेक्षयाऽपि एवमेव भङ्गद्वयं द्रष्टव्यं, तद्यथा-भाजनरूपे खस्थाने पिठरे परस्थानेऽज्यत्र प्रदेशान्तरे, तथा परस्थानेऽन्यत्र प्रदेशान्तरे परस्थाने छब्यगादाविति || सर्वसङ्ख्यया चत्वारो भङ्गाः । तदेवं मूलगाथायाः सहाणेत्यादिपूर्वार्दै व्याख्यातम् । अथ 'खीराइ परंपरए' इति व्याचिख्यासुराह एकेकं तं दुविहं अणंतरपरंपरे य नायव्वं । अविकारिकयं दव्वं तं चेव अणंतरं होई ॥ २७९ ॥ व्याख्या-तत्साधुनिमित्त स्थापितमेकैकं स्वस्थानगतं पूरस्थानगतं च द्विविधं ज्ञातव्यं, तद्यथा-'अनन्तरे' अन्तराभावे, विकाररूपन्यवधानाभावे इत्यथे, 'परम्परके ' विकारपरम्परायामित्यर्थः, तत्र यत् को स्वयोगेनाविकारि भूयोऽसम्भविविकारं घृतगुडादि कृर्त दीप अनुक्रम ~ 182~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३०५] → "नियुक्ति: [२७९] + भाष्यं [२५...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु- तेर्मलयाग- रीयावृत्तिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२७९|| ॥९०॥RI दीप अनुक्रम [३०५] न हि तस्य भूयोऽपि विकारः सम्भवति तत्साधुनिमित्तं स्थापितमनन्तरम्-अनन्तरस्थापित, उपलक्षणमेतत, तेन लीरादिकमपि यस्मिन् दिने ५ स्थापसाधुनिमित्र स्थापितं यदि तस्मिन्नेव दिने ददाति तर्हि तदपि दध्यादिरूपं विकारान्तरमनापद्यमानमनन्तरस्थापितं द्रष्टव्यं, तदेव तु क्षीरं नादोषे स्व. साधुनिमित्तं धृतं सद्दध्यादिरूपतया परिकर्यमाणं परम्परास्थापितं भवति, एवमिक्षुरसादिकमपि तस्मिन्नेव दिने स्थापितं दीयमान- RICH परस्थान मनन्तरस्थापित, ककवादिरूपतया तु परिकर्म्यमाणं परम्परास्थापितमिति । सम्पति विकारीतराणि द्रव्याणि प्रतिपादयति विकार्य कि कारि द्रव्यउच्छुकूखीराईयं विगारि अबिगारि घयगुलाईयं । परियावज्जणदोसा ओयणदहिमाइयं वावि ॥ २८॥ विचार व्याख्या-इश्चक्षीरादिकं विकारि तस्य ककवादिदध्यादिविकारसम्भवात् , घृतगुडादिकं त्वविकारि तस्य भूयोऽपि विकारा-2 सम्भवात् , तथा 'ओदनदध्यादिकमपि' करम्बादिरूपं विकारि, कुत इत्याह-पर्यापादनदोषात, करम्बादिकं हि ध्रियमाणं नियमात् पयोपचते-कोथमायातीत्यर्थः, ततस्तदपि विकारि द्रव्यं । तदेवं विकारीतराणि द्रव्याप्यभिहितानि, सम्मति क्षीरादिकं परम्परा-1 स्थापितं भावयति उन्भट्ठपरिन्नायं अन्नं लद्धं पओयणे घेत्थी । रिणभीया व अगारी दहित्ति दाहं सुए ठवणा ॥ २८१ ॥ नवणीय मंथुतकं व जाव अत्तहिया व गिण्हंति । देसूणा जाव घयं कुसणंपि य जत्तियं कालं ॥२८॥ व्याख्या-'उम्भह'त्ति केनापि साधुना कस्याश्चिदगारिण्याः सकाशे क्षीरमभ्यर्थितं, ततस्तया प्रतिज्ञात-क्षणान्तरे दास्यामि,III साधुना चान्यत्रान्यत् क्षीरं लब्धं, ततः पूर्वमभ्यर्थितयाऽगारिण्या दुग्धसम्माप्तौ सत्यां साधु प्रति प्रत्यपादि-गृहाण भगवन्निदं दुग्धमिति, ~ 183~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३०८] → "नियुक्ति: [२८२] + भाष्यं [२५...] + प्रक्षेपं [R...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२८२|| साधुना चोक्तं-लम्धमन्यत्र मया दुग्ध, ततो यदि भूयोऽपि प्रयोजनं भविष्पति ताई 'घेत्थी' गृहीष्पामि, एवमुक्तं साऽगारिणी ऋणभी-1 तेव स्वयं नोपबुभुजे, किन्त्वेवं चिन्तयामास-:' कल्ये दपि कृत्वा दास्यामीति, तत एवं चिन्तयिता स्थापयति, ततो द्वितीयदिने दधि जातं तदपि साधुना न गृहीतं, ततो नवनीतं तकं च जातं, नवनीतमपि घृतं कृतं, इह क्षीरादिकं सकळमपि स्थापनादोषदुष्टत्वात् साधूनां न कल्पते, यद्वा क्षीरादिकं यावन्नवनीतं मस्तु तकं वा तावदेतानि सर्वाण्यप्यात्मार्थीकृतानि मा गृह्णीयात् साधुः कुटुम्बे भविष्यतीत्येवमात्मसचाकीकृतानि साधवो गृहन्ति । घृतं त्वात्मार्थीकृतमपि तेजःकायाऽऽरम्भादाधाकर्मेति न कल्पते, घृतं च स्थापित सत् तावद् । घटते याबद्देशोना पूर्वकोटी, तथाहि-पूर्वकोटयायुषा केनापि साधुना वर्षाष्टकप्रमाणेन कस्याश्चित्पूर्वकोव्यायुषोऽमारिण्या: पार्षे घृतं । ययाचे, तयोक्तं-क्षणान्तरे दास्यामि, साधुना चान्यत्र घृतं लब्ध, ततः सा ऋणभीतेव तावद् घृतं धृतवती यावत् साधोरायुः, ततो मुते सायौ तदन्यत्रोपयुक्तमिति नास्ति स्थापना, इह वर्षाष्टकस्याधः पूर्वकोटेरुपरि च चारित्रं न भवति, चारित्रिणं चाधिकृत्य स्थापनादोषः, ततो देशोना पूर्वकोटीत्युक्तम् । एवं गुडादेरप्यविनाशिनो द्रव्यस्य यथायोग स्थापनाकालपरिमाणं द्रष्टव्यं । 'कुसुणियमिति कुसुणितमपि करम्बादिरूपतया कृतमपि यावन्तं कालमविनाशि तावत्कालं तस्य स्थापना द्रष्टव्या, परतस्तु कुथितत्वादुज्यते एवेति |भावः । तदेवं क्षीरादिकं परम्परास्थापितमुक्तं, साम्पतमिक्षुरसादिकमपि परम्परास्थापितमाह रस कक्कब पिंडगुला मच्छंडिय खंडसकराणं च । होइ परंपरठवणा अन्नत्य व जुज्जए जत्थ ॥ २८३ ॥ व्याख्या-इह केनापि साधुना किमपि प्रयोजनमुद्दिश्य कोऽपीचरसं याचितः, स च प्रतिज्ञातवान-क्षणान्तरे दास्यामि, साधुना चान्योक्षुरसो लब्धः, पूर्वमभ्यर्थितश्च ऋणभीत इब तमिक्षुरसं ककवं करोति यावत् शर्करेति, एषां चेक्षुरसककवादीनामुत्तरोत्तरपिण्ड-12 &00000000000000000000000000000 दीप अनुक्रम [३०८] ~ 184~ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३०९] → "नियुक्ति: [२८३] + भाष्यं [२५...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२८३|| दीप अनुक्रम [३०९] पिण्डनियु- गुल्यादिपर्यायापादनपुरस्सरं त्रियमाणानां स्थापना परम्परास्थापना, एवमन्यत्रापि द्रव्यान्तरे यत्रै परम्परया स्थापना घटते तत्र पर- उद्गमैपणा-, तिमलयाग-||म्परास्थापना द्रव्या । यावच स्थापितस्प नापाकर्मसम्भवस्तावदात्मार्थीकृतं कल्पते, कृतपाकारम्भ तु न कल्पते । सम्मति 'हत्थगय घर- यां स्थापरीयावृत्तिःवर जाव' इति व्याचिख्यासुराह नादोष:५ भिक्खागाही एगत्थ कुणइ बिइओ उ दोसु उवओगं । तेण परं उक्खित्ता पाहुडिया होइ ठवणा उ ॥ २८४ ॥ ॥९ ॥ | व्याख्या-भिक्षाग्राही एकत्रोपयोगं करोति, द्वितीयस्तु योग्रहयोः, तत्र त्रिषु यदेपूपयोगसम्भवे स्थापनादोषो न भवति, गृहयात्परं साध्वर्यमुत्पाटिता भिक्षा माभूतिका स्थापना भवति ।। उक्तं स्थापनाद्वारं, सम्मति प्राभृतिकाद्वारमभिधित्सुराह पाहुडियावि हु दुविहा बायर सुहमा य होइ नायब्वा । ओस्सकणमुस्सकण कब्बट्ठीए समोसरणे ॥ २८५॥ ____ व्याख्या द्विविधा प्राभृतिका, तद्यथा-पादरा सूक्ष्मा च, एकैकापि द्विधा, तद्यथा-अवष्वष्कणेनोवष्कणेन च, सूत्रे चात्र विभक्तिलोप आपत्वात, तत्र 'अवष्वष्कणं' स्खयोगप्रवृत्तनियतकालावधेरवाकरणम् 'उत्वष्कर्ण' परतः करणं, तत्र बादशाभूतिकाविषयमाह-कम्पहीए समोसरणे' इह समयपरिभाषया कन्बही लघ्वी दारिका भण्यते तस्याः सत्कस्य, उपलक्षणमेतत्, पुत्रादेश्व सत्कस्य वीवाहस्यावष्वष्कणमुत्वष्कणं वा 'समवसरणे' साधुसमुदायविपये, इयमत्र भावना-साधुसमुदार्य यथाविहारक्रममायातं ||| दृष्ट्वा कोऽपि भावकश्चिन्तयति, यथा-ज्योतिर्विदोपदिष्टे विवाहदिने यदि विवाहः फियते ततोऽागेव सुविहितजनो विहारक्रमेण गमि-18|॥९॥ ष्यति ततो न किमपि मदीयं विवाहसम्भवं मोदकादिकं तण्डलधावनादि वोपकरिष्यते, तत एवं चिन्तयित्वार्धाग विवाई करोति, यदिवा भूयान मुविहितजनो यथाविहारक्रममागच्छन् श्रूयते वीवाहश्च तदागमनादक ततो न किमपि तेषां मदीयमुपकरिष्यतीति, तत ~185~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३१२] → “नियुक्ति: [२८५] + भाष्यं [२६] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२६|| दीप अनुक्रम [३१२] एवं विचिन्त्य परतो बीवाई करोति, इदं च विवाहस्यावष्वष्कणमुत्वष्कणं वा कृत्वा यदुपस्क्रियते भक्तादि सा चादरा माभृतिका ॥ सम्मत्यपसप्पणरूपां सूक्ष्ममाभृतिका भाष्यकृद्गाथाद्वयेनाइ-- ___ कन्तामि ताव पेलु तो ते देहामि पुत्! मा रोव । तं जइ सुणेइ साहू न गच्छए तत्थ आरंभो ॥३५॥ (भा०) भा०२६ ___ अन्न? उहिया वा तुम्भवि देभित्ति किंपि परिहरति । किह दाणि न उहिहिसी ? साहुपभावेण लब्भामो॥३६॥ (भा०) भा० २७ व्याख्या--काचित्कर्त्तनं कुर्वती भोजनं याचमानं बालकं प्रति वदति-कृणन्मि तावदिदं 'पेलु' रूतपूणिका, कृणन्मीति ‘कृदुपवेष्टने ' इत्यस्य रौधादिकस्य प्रयोगः, ततः पचात् 'ते' तुभ्यं दास्यामीति मा रोदी: अत्रान्तरे च साधुरागतो यदि शृणोति तर्हि तत्र हे न गच्छति, न तत्र भिक्षां गृह्णातीत्यर्थः, मा भून्साधुनिमित्त आरम्भो बालकभोजनदानतदनन्तरदस्तधावनादिरूपः, सा हि साध्वर्थमुत्थिता सती बालकस्यापि भोजनं ददाति, ततो हस्तधावनादिनाऽप्कायादिकं च विनाशयति, इह रूतपूणिकाकर्चनसमाप्त्यनन्तरं दातव्यतया बालकाय प्रतिज्ञाते भोजने साधुनिमित्तमर्वागुत्थानेन यदागेव बालस्य भोजनदानं तदवसर्पणम्, अथवा गृहस्था कर्चनं कुर्वती भोजनं याचमानं पुत्रं प्रति वदति-'अन्यार्थम्' अन्धन प्रयोजनेनोस्थिता सती 'तवापि' तुभ्यमपि किमपि खादिमादि दास्यामि, अत्रा न्तरे च साधुरागत एवं श्रुते परिदरति, अथवा तथाभूतगृहस्थावचनानाकर्णनेऽपि साधी सपागते बालको जननीं वदति-कथमिदानी दानोत्थास्यसि ?, समागतो ननु साधुस्ततोऽवश्यमुस्थातव्यं त्वया, तथा च सति साधुप्रभावेण वयमपि लप्स्वामहे, तत एवं बालकवचनं|| श्रुत्वा तया दीयमानं परिहरति, मा भूदवसणरूपसूक्ष्मप्राभृतिकादोषः । सम्पत्पुत्सप्पणरूपां सूक्ष्मप्राभृतिका गाथाद्वयेनाह--- ~186~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३१४] → “नियुक्ति: [२८६] + भाष्यं [२७] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२८६|| पिण्डनियु-18 मा ताव झंख पुत्तय! परिवाडीए इहेहि सो साहू । एयरस उठ्ठिया ते दाहं सोउं विवज्जेइ ॥ २८६॥ उद्पैषणाकेर्मलयगिअहवा-अंगुलियाए घेत्तुं कट्टइ कप्पट्ठओ घरं जत्तो । किति कहिए न गच्छइ पाहुडिया एस सुहुमा उ॥ २८७ ॥ यांपाभृतिरीयावृत्तिः कादोष:६ व्याख्या-इह काचिदस्था भोजनं याचमानं पुत्रं प्रतिपादयति-हे पुत्रक! मा तावशष-वारं वारं जल्प, इह परिपाट्या साधुरा॥९॥ गमिष्यति ततस्तस्यार्थमुत्थिता सती ते तुभ्यं दास्यामि, अत्रान्तरे च साधुरागत इदं वचः श्रुत्वा विवजेयति, मा भूदुत्सप्पणरूपसूक्ष्म माभूतिकादोषः, अत्राोंग विवक्षितस्य भोजनदानस्य साधुभिक्षादानेन समं परत: करणमुत्सप्पणम् , अथवा प्राक्तने जनन्योक्ते बाळकेन । श्रुते सति स 'कप्पहओ' बालकस्तं साधुमङ्गल्या गृहीत्वा यतो निजगृहं ततः समाकर्षति, ततः साधुस्तं बालकं पृच्छति-पया कि मामाक-14 सि?, ततः स पथावस्थित कथयति, पालकत्वेन ऋजुत्वात् , ततः कथिते तत्र न गच्छति, मा भूतसप्णरूपसूक्ष्मपाभृतिकादोषस-1 कम्पकः, एषा सर्वाऽप्यनन्तरोक्ता सूक्ष्मप्राभृतिका । सम्पति 'कन्चट्ठीए समोसरणे' इत्यस्यवं व्याचिरूपामुः प्रथमतोऽवष्वष्कणरूपां बादरमाभृतिकामाह| पुत्तस्स विवाहदिणं ओसरणे अइच्छिए मुणिय सट्टी। ओसकंतोसरणे संखडिपाहेणगदवट्ठा ॥ २८८ ॥ | व्याख्या-पुत्रस्य, उपलक्षणमतव पुत्रिकादेव, विवाहदिनं ज्योतिर्विदा 'अवसरणे' साधुसमुदाये यथाविहारक्रममतिक्रान्तेन्यत्र गते सत्युपदिश्यमानं श्रुत्वा श्रद्धी विवाहमवष्वष्कते, अर्वाग्दिनं दृष्ट्वा विवाई करोति, किमर्थम् !, इत्याह-समवसरणे' षष्ठी ॥१२॥ सप्तम्योरच प्रत्यभेदात्समवसरणस्य-साधुसमुदायस्य विवाहरूपायां सङ्खयां प्रहेणक-मोदकादि द्रवं-तण्डुलधावनादि तदर्थ-तदानार्थ, भावना च प्रथमगाथायामेव कृता । उत्सप्पेणरूपा बादरमाभूतिकामाह दीप अनुक्रम [३१४] 40000 अथ 'प्राभृतिका' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते ~ 187~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२८८|| दीप अनुक्रम [३१६] मूलं [ ३१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> "निर्युक्तिः [ २८८ ] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [२...]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अप्पत्तंमि य ठवियं ओसरणे होहिइत्ति उस्सकणं । व्याख्या--- स्थापितं विवाहदिनं किलामाप्ते यथाविहारक्रममनागते 'अवसरणे ' साधुसमुदायरूपे भविष्यति, ततो न किमपि मदीयं विवाहसत्कं साधूनामुपकरिष्यतीतिकृत्वा विवाहस्योत्सर्पणं करोति, साधुसमागमकाळ एवं करोतीत्यर्थः । उक्ता बादरा प्रा तिका । सम्प्रति द्विविधाया अप्यवसर्पणोत्सर्पणरूपायाः कर्त्तारं प्रतिपादयति तं पागडमियरं वा करेइ उज्जू अणुज्जू वा ॥ २८९ ॥ व्याख्या- 'ताम्' अवष्वष्कणोत्य्वष्कणरूपां द्विविधामपि ऋजुः प्रकटं करोति, सकलजननिवेदनेन करोति, अनुजुरितरत् प्रच्छन्नं, यथा न कोऽपि जानातीति भावः तत्र यदि प्रकटं करोति तर्हि तो जनपरम्परात एवं ज्ञात्वा परिहरन्ति अथाप्रकटं तहिं निपुणं शोधयित्वा वर्जयन्ति, निपुणशोधनेऽपि यदि कथमपि न परिज्ञानं भवति तदा न कविदोषः, परिणामस्य शुद्धत्वात् ॥ अथ किमर्थं चादरमवष्वष्कणादिकं करोति ?, तदाह- मंगलहेडं पुन्नट्टया व ओसक्कियं दुहा पगयं । उस्सक्कियपि किंति य पुढे सिहे विवज्जति ॥ २९० ॥ व्याख्या - 'प्रकृत' विवाहादिकं 'द्विधा' द्वाभ्यां प्रकाराभ्यामवष्वष्कितं भवति, तद्यथा-'मङ्गलहेतो: ' बीवादे गृहस्य साधुचरणैः स्पर्शनं तेभ्यो दानं च मङ्गलायेतिकृत्वा यद्वा-पुण्यार्थम्, एवमुत्वष्कितमपि द्विधा, ततो निपुगपृच्छं किमिदम् ? इति पृष्ठे गृहस्थेन च यथावस्थिते कथिते तद्वीवाहसत्कं परिहरन्ति मा भूद्धादरमाभृतिकादोषानुषङ्ग इति । ये तु न परिहरन्ति तेषां दोषमाह- Eaton Internation For Park Use Only ~188~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३१९] → "नियुक्ति: [२९१] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२९१|| उद्गमैपणा यां पादु| करणं.७ साधुत्रयकथा पिण्डनियु- पाहुडिभत्तं भुंजइ न पडिक्कमए अ तरस ठाणस्स । एमेव अडइ बोडो लुकविलुक्को जह कवोडो ॥ २९१ ॥ तेर्मलयनि व्याख्या-यः माभूतिकाभक्तं मुझे न च तस्मात् प्राभृतिकापरिभोगरूपान् स्थानात्मतिक्रामति स 'बोड' मुण्ड एवमेव-निष्फरीयावृत्तिः पलमटति यथा लुचितविलुश्चितकपोतः । उक्त प्राभृतिकाद्वारम् , अथ प्रादुष्करणद्वारं विभणिपुः प्रथमतस्तत्सम्भवं गाथाषट्रेनाइ--- ॥१३॥ लोयविरलुत्तमंगं तवोकिसं जल्लखउरियसरीरं । जुगमेत्तरदिहिं अतुरियचवलं सगिहमितं ॥ २९२ ॥ दटूण य अणगारं सट्टी संवेगमागया काइ । विपुलन्नपाण घेत्तृण निग्गया निग्गओ सोऽवि ॥ २९३ ॥ नीयदुवारमि बरे न सुज्झई एसणत्तिकाऊणं । नीहमिए अगारी अच्छइ विलिया व गहिएणं ॥ २९४ ॥ चरणकरणालसंमि य अन्नभि य आगए गहिय पुच्छा । इहलोगं परलोगं कहेइ चइउं इमं लोगं ।। २९५ ॥ नीयदुवारंमि घरे भिक्खं निच्छंति एसणासमिया । जं पुच्छसि मज्झ कहं कप्पइ लिंगोबजीवीऽहं ॥ २९६ ।। साहुगुणेसणकहणं आउट्टा तंमि तिप्पइ तहेव । कुक्कुडि चरति एए वयं तु चिन्नव्वया बीओ ॥ २९७ ।। - व्याख्या-काचित श्राविका 'अनगार' साधुमेकाकिविहारिणं लोचविरलोत्तमानम्, अबोतमाङ्गशब्देनोत्तमाङ्गस्थाः केशा उच्यन्ते, ततोऽयमर्थ:--लोचेन विरलोत्तमाङ्गकेशं तपाकृशं मलकलुषितशरीरं युगमात्रान्तरन्यस्तदृष्टिम् अस्त्वरितमचपलं स्वगृहमागच्छन्तं दृष्ट्वा संवेगमागता, ततो गृहमध्ये विपुलं भक्तं पानं च गृहीत्वा गृहमध्याद्विनिर्गता, सोऽपि च साधुनींचहारेऽस्मिन गृहे न शुध्यति ममै दीप अनुक्रम [३१९] अथ 'प्रादुष्करणत' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते ~ 189~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३२५] → “नियुक्ति: [२९७] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [R...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२९७|| 00000000000000000000000000000000 भाषणेतिकृत्वा ततः स्थानाद्विनिर्जगाम, निर्गते च तस्मिन् गृहीतेन भक्तपानेन सजातविप्रियेवावतिष्ठते, अान्तरे चरणकरणालसोऽन्यस्त स्मिन् गृहे साधुभिक्षार्थमागतः, ततस्तस्मै सा भिक्षा तया दत्ता, गृहीतायां च भिक्षायां स साधुः पृष्टः-यथा भगवन् ! इदानीमेव || साधुरीदशस्ताहशो वाऽत्र समागतः, परं तेन भिक्षा न गृहीता, त्वया गृहीबा, तत्र कि कारणं, ततः स पेहलौकिक भिक्षालाभमात्रा-1 दिकं पारलौकिकं धर्म यथाक्रममल्पगुणं बहुगुणं च विचिन्त्येमं लोक-लोकात् लभ्यं भिक्षामात्रादिकं परित्यज्योक्तवान् यथा नीचद्वारे गृहे साधव एषणासमितिसमिता भिक्षां नेच्छन्ति, तत्रान्धकारमावत एपणाशुद्धचभावात् , सोऽपि च भगवान् साधुरेपणासमितस्ततो न गृहीतवानिति, ययप्युक्तं-किं कारणं त्वया गृहीता ? इति, तत्राई लिङ्गमात्रोपनीची, न साधुगुणयुक्तः, ततः साधूनां गुणानेषणांच यथाऽऽगम कथितवान् , ततः सा स्वचेतसि चिन्तयामास-अहो ! जगति निजदोषप्रकटनं परगुणोत्कीचनं चातिदुष्कर, तदप्येतेन कृतमिति तस्मिन्नतिशयेन भक्तिं कृतवती, विपुलं च भक्तपानं तिप्पइ' इति तेपते क्षरति ददाति स्मेति भावार्थः, गते च तस्मिन्नन्यः कोऽप्यगणितदीर्घसंसारपरिभ्रमणभयो निर्द्धमा साधुराजगाम, सोऽपि भिक्षां दत्त्वा तथैव पृष्टः, ततः स पापीयानुक्तवान् -रते इत्थंभूताः 'कुक्कय्या ' मायया चरन्ति, ततस्त्वदीयचित्तावर्जनार्थ तेन मातृस्थानतो न भिक्षा गृहीता, यावता न तत्र कश्चिदोषः, ईदृशानि च । मातृस्थानबहुलानि व्रतान्यस्माभिरपि पूर्व चीर्णानि, परमिदानी चिन्तित-कि मातृस्थानकरणेनेति न मायां कुर्मः, ततः सा चिन्तितवती-अहो ! अयं निर्द्धमा महापापीयान् यस्तादृशमपि सार्बु निन्दतीति विसर्जितः । इत्यंभूता च भक्तिपरवशगा साधुदानाय पादुष्करणमपि कुयोंदिति प्रादुष्करणसम्भवः । सम्पति तदेव पादुष्करणं गाथाद्वयेनाह पाओकरणं दुविहं पागडकरणं पगासकरणं च । पागड संकामण कुडदारपाए य छिने व ॥२९८ ॥ दीप अनुक्रम [३२५] ~190~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||२९९|| दीप अनुक्रम [३२७] मूलं [ ३२७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्यु - तेर्मलयगि यावृत्तिः ॥ ९४ ॥ “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) → Eaton International ८० “निर्युक्तिः [२९९ ] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [२...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः रयणपईवे जोई न कप्पइ पगासणा सुविहियाणं । अतहि अपरिभुक्तं कप्पइ कप्पं अकाऊणं ॥ २९९ ॥ व्याख्या - प्रादुष्करणं द्विधा, तद्यथा-प्रकटकरणं प्रकाशकरणं च तत्र 'प्रकटकरणम्' अन्धकारादपसार्य वहिः प्रकाशे स्थापनं, 'प्रकाशकरणं' स्थानस्थितस्यैव भित्तिरन्ध्रकरणादिना प्रकटीकरणम्, एतदेवाह तंत्र प्रकटकरणमन्धकारादन्यत्र सङ्क्रामणेन प्रकाशकरणं, 'कुडदारपाए' इत्यादि, अत्र सर्वत्रापि तृतीयार्थे सप्तमी, कुड्यस्य द्वारपातेन-रन्ध्रकरणेन, यदिवा कुडयेन मूलत एव छिन्नेन येन | कुड्येन कुड्यैकदेशेन वाऽन्धकारमासीत् तेन मूलत एवापनीतेनेत्यर्थः चशब्दादन्यस्य द्वारस्य करणेन चेत्यादिपरिग्रहः, तथा 'रत्नेन ' * पद्मरागादिना 'प्रदीपेन' प्रतीतेन 'ज्योतिषा' ज्वलता वैश्वानरेण तत्रैवं प्रकाशना सुविहितानां न कल्पते, किमुक्तं भवति ?-प्रकाशकरणेन प्रकटकरणेन च यद्दीयते भक्तादि तत्संयतानां न कल्पते, तत्रैवापवादमाह -' अत्तद्वि 'चि आत्मार्थीकृतं तदपि कल्पते, नवरं * ज्योतिः प्रदीपौ वर्जयेत्, ताभ्यां प्रकाशितमात्मार्थीकृतमपि न कल्पते, तेजस्कायदीप्तिसंस्पर्शनात्, साबुपात्रमाश्रित्य विधिमाह - इह * सहसाकारादिना प्रादुष्करणदोषाघ्रातं कथमपि भक्तं पानं वा गृहीतं ततस्तद् अपरिभुक्तम् उपलक्षणमेतद् अर्द्धमुक्तमपि परिस्थाप्योदरित सिक्थुलेपादिना खरष्टितेऽपि तस्मिन् पात्रे 'कल्पं ' जलमक्षालनरूपमकृत्वाप्यन्यत् शुद्धं ग्रहीतुं कल्पते । एतदेव गाथाद्वयं विवरीषुः * प्रथमतश्चुद्धीसङ्क्रमणमाश्रित्य प्रकटकरणं स्पष्टयति- संचारमा चुली बर्हि व चुट्टी पुरा क्या तेसिं । तहि रंधंति कयाई उवही पूई य पाओ य ॥ ३०० ॥ व्याख्या - इह त्रिधा चुली, तयथा— एका सञ्चारिमा या गृहाभ्यन्तरवर्त्तिन्यपि बहिरानेतुं शक्यते, चशब्दात्साऽप्याधाकर्मिकी For Park Use Only ~ 191~ उमेषणायां प्रादुष्क रणदोषः७ ॥ ९४ ॥ nayor Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३२८] → “नियुक्ति: [३००] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३००|| दीप अनुक्रम [३२८] बटव्या, द्वितीया बहिरेव तेषां साधूनां निमित्तं चुल्ली पुरा कृता आसीत्, चशब्दाचदानी वा साधुनिमित्तं बहिश्चल्ली कता येदितव्या, कसा च तृतीया । ततो यदि कदाचित्तत्र तिम.णां चुल्लीनामन्यतमस्यां गृहस्था राध्यन्ति ततो द्वी दोषी, तयथा-उपकरणप्रतिः पाद करणं च, यदा च चूल्याः पृथकृतं तद्देयं वस्तु तदा मादुष्करणरूप एवैकः केवलो दोषः, पूतिदोपस्तूतीर्णः, यदा चुल्योऽपि शुद्धास्त दापि पादुष्करणरूप एवैको दोषः । यदर्थ मादुष्करणं गृहस्था कृतवती तं भिक्षायै गृहमागच्छन्तं दृष्ट्वा यहजुत्वेन भाषते तदाहAL नेच्छह तमिसंमि तओ बाहिरचुल्ली' साहु सिद्धपणे । इय सोउं परिहरए पुढे सिटुंमिवि तहेव ॥ ३०१ ।। व्याख्या-हे साधो ! त्वं 'तमिले' अन्धकारे भिक्षां नेच्छसि ततो बहिश्चुल्यां सिद्धं पक्कम् 'अन्न मिति अस्माभिर्भक्तमिति श्रुत्वा तया दीयमानं परिहरति, प्रादुष्करणदोषदुएत्वात् , तथा प्रादुष्करणशङ्कायां किमर्थमयमाहारोऽय गृहस्य पहिस्तात्पका, इत्येवं पृष्टे तया ऋजुतया यथावस्थिते कथिते तथैव परिहरति, एतेनायगाथायां 'संकामण' इत्यवयवो व्याख्यातः । नन्वयं सङ्कामणकृत आहारः केनापि प्रकारेण कल्पते? किं वा न ? इति, उच्यते, आत्मार्थीकृतः कल्पते, कथमस्थात्मार्थीकरणसम्भव ? इति चेदत आह मच्छियघम्मा अंतो बाहि पवायं पगासमासन्नं । इय अत्तट्ठियगहणं पागडकरणे विभासेयं ॥३०॥ व्याख्या-साध्वर्थ पूर्व बहिश्चुल्यादि कृत्वा काचिदेवं चिन्तयति-गृहस्यान्तर्मक्षिका धर्मश्च, उपलक्षणमेतत् , तेनान्धकार दूरंच पाकस्थानादोजनस्थानमित्यादिपरिग्रहः, बहिश्च प्रवातं तेन मक्षिकादयो न भवन्ति, तथा प्रकाशमासनं च पाकस्थानाभोजनस्थान, ततो वयमत्रैवात्मनिमित्तमपि सदैव पक्ष्याम इत्येवमात्मा कृते ग्रहणं, कल्पते इति भावः। इयं प्रकटकरणे कल्प्याकल्प्यविपया विभाषा, सम्पति कामकाशकरणं स्पष्टयन् 'कुडदारपाए' इत्यादि च्याचिख्यामुराह arelumurary.ou ~192~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३३१] .→ "नियुक्ति: [३०३] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियुतेर्मलयगिरीयावृत्तिः यांप्रादुष्करणदोप: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३०३|| ॥९ ॥ दीप अनुक्रम [३३१] कुडुस्स कुणइ छिडं दारं बड्ढेइ कुणइ अन्नं वा । अवणेइ छायणं वा ठावइ रयणं व दिप्पंतं ॥ ३०३ ॥ जोइ पइवे कुणइ व तहेव कहणं तु पुट्ट दुढे वा । अत्तहिए उ गहणं जोइ पइवे उ वजित्ता ॥ ३०४ ॥ व्याख्या-प्रकाशकरणाथै कुड्यस्य छिद्रं करोति, यद्वा द्वार लघु सद् 'वर्द्धयति ' बृहत्तरं करोति, यदिवाऽन्यड्वितीयं द्वारं करोति, अथवा गृहस्योपरितनं छादनं स्फेटयति, यदिवा दीप्यमानं रत्नं स्थापयति, यद्वा-ज्योतिः प्रदीपं वा करोति, तथैवानन्तरोक्तेन मकारेण स्वयमेव यदिवा पृष्टे सति मादुष्करणे कथिते यद्भक्तादि प्रादुष्करणदोषदुष्टं तत् साधूनां न कल्पते । यदि पुनः प्राक्तनेन प्रकारेणास्मार्थीकरोति तदा ग्रहणं कल्पते इति भावः । ज्योति:प्रदीपाभ्यां प्रकाशमात्माचीकृतमपि न कल्पते, तेजस्कायसंस्पशोत् । सम्पति अपरिभुत् कप्पइ कप्पं अकाऊणं' इति व्याचिख्यासुराह- . पागडपयासकरणे कयंमि सहसा व अबऽणाभोगा। गहियं विगिचिऊणं गेण्हइ अन्नं अकयकप्पे ॥ ३.५ ॥ व्याख्या-प्रकटकरणे प्रकाशकरणे वा कृते सति यत् सहसाऽनाभोगतो वा गृहीतं तद् 'विगिचिऊगं' परिष्ठाप्य तस्मिन् पात्रे उज्झिते लेशमात्रखरण्टितेऽपि 'अकृतकल्पे' जलपक्षालनरूपकल्पदानाभावेऽप्यन्यत शुदं गृहाति, नास्ति कश्चिदोपो, विशोधिकोटित्वात् ॥ उक्त प्रादुष्करणद्वारम् , अथ क्रीतद्वारमाहकीयगडंपि य दुविहं दवे भावे य दुविहमेक्केकं । आयकियं च परकियं परदवं तिविह चित्ताई ॥ ३०६ ॥ व्याख्या-क्रयणं क्रीतं तेन कृतं-निष्पादितं क्रीतकृतं, क्रीतमित्यर्थः, तदपि आस्तां प्रादुष्करणमित्यपिशब्दार्थः, द्विविधं द्विम ॥९५॥ अथ 'क्रीत' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते ~193~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३३४] → "नियुक्ति: [३०६] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [R...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३०६|| कारं, तद्यथा-'दब्वे भावे य' अत्र तृतीयार्थे सप्तमी, ततोऽयमर्थः-द्रव्येण क्रीत भावेन च क्रीतमित्यर्थः, पुनरप्येक द्रव्यकीतं भावक्रीतं च प्रत्येक द्विधा, तद्यथा-आत्मक्रीत परक्रीतं च, आत्मद्रव्यनीतमात्मभावक्रीतं च परद्रव्यकोत परभावक्रीतं चेत्यर्थः, तत्रात्मनास्वयमेव द्रव्येणोज्जयन्तभगवत्मतिमाशेषादिरूपेण प्रदानतः परमावयं यद्भतादि गृह्यते तदात्मद्रव्याक्रीत, यत्पुनरात्मना स्वयमेव भक्ताद्यर्थ धर्मकथादिना परमावज्ये भक्तादि ततो गृहाते तदात्मभावक्रीतं, तथा यत्र परेण साधुनिमित्तं द्रव्येण की तपाद्रव्पक्रीत, यत्पुनः परेण | साध्वर्थ निजविज्ञानप्रदर्शनेनापरमावळ ततो गृहीतं तत्परभावक्रीतं, तत्र 'विचित्रा सूत्रगति रिति प्रथमतः परद्रम्पकीतस्प स्वरूपमाहपरदव्यं-गृहस्थसत्कं द्रव्यं त्रिविध, तयथा-'चित्तादि' सचित्तमचित्तं मिथं च, तेन परेण सावर्थ यत्कीतं तत्सम्यकीतम् ।। उक्त परद्रव्यक्रीत, सम्पति शेष भेदत्रयं सामान्यतः कथयति आयकियं पुण दुविहं दध्वे भावे य व्व चुन्नाई । भावमि परस्सहा अहवावी अप्पणा चेव ॥ ३०७ ॥ व्याख्या-आत्मक्रीतं पुनद्विविध, तयथा-'दब्बे भावे य चि अत्रापि तृतीयार्थे सप्तमी, ततोऽयमः-आत्मनाऽपि क्रीतं द्विधा, विद्यथा-द्रव्येण भावेन च, तत्र द्रव्येण-चूणोंदिना वक्ष्यमाणेन, भावेन पुनः परस्य-साधोराय यनिजविज्ञान प्रदर्शनादिनोपाध्येते तद्भा वक्रीत, परभावक्रीतमित्यर्थः, अथवा भावेन यदात्मना स्वयमेवाहारा) धर्मकथादिना परमावर्य ततो गृपने तद्भावक्रीतम् , आत्मभाव| क्रीतमित्यर्थः । तदेवं सामान्यतस्त्रयोऽपि भेदा उक्ताः, सम्पत्यात्मव्यक्रांत समपञ्च विवरीपरिदमाह निम्मल्लगंधगुलिया बन्नय पोत्ताइ आयकय दवे । गेलने उड्डाहो पउगे चहुमारि अहिगरणं ॥ ३०८॥ दीप अनुक्रम [३३४] wirejarainrary.org ~194~ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३३६] .→ "नियुक्ति: [३०८] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३०८|| दीप अनुक्रम [३३६] पिण्डनियु- व्याख्या-निर्माल्य तीर्थादिगतसप्रभावप्रतिमाशेषा 'गन्धाः' पटवासादयः 'गुलिका ' मुखे प्रक्षेपकस्य स्वरूपपरावादि- उद्गमेषणातेर्मलयगि- कारिका गुटिका 'वर्णक: चन्दनं 'पोतानि' लघुवालकयोग्यानि वस्त्रखण्डानि, आदिशब्दात्कण्डकादिपरिग्रहः, एतानि कार्य कारणो- यां क्रीतरीयावृत्तिःपचारादात्मद्रव्यक्रीतानि, किमुक्तं भवति?–निर्माल्यादिपदानेन परमावर्ण्य यत्ततो भक्तादि गृह्यते तदात्मद्रव्यक्रांतामति । अत्र दोषा- दोषः८ नाह-'गेकन्ने' इत्यादि, निर्माल्यपदानानन्तरं यदि कथमपि दैवयोगतो ग्लानता भवति तहिं 'भवचनस्योड्डादः साधुनाऽहं ग्लानी॥९६॥ किकृत इत्यादि प्रजल्पनतः शासनस्य मालिन्योत्पते, अथ कथमपि 'प्रगुणः' नीरोगो भवति तर्हि स सर्वदा सर्वजनसमक्षं चढकारी भवति । यथाऽहं साधुना प्रगुणीकृतोऽतिशयी चासौ साधुः सकलज्ञातव्यकुशला परहितनिरत इत्यादि समक्ष परोक्षं वा सदैव प्रशंसां करोति, तथा च सत्यधिकरणं-भूयस्तस्याधिकरणप्रवृत्तिः, तादृशीं हि तस्य प्रशंसामाकान्योऽन्यः समागत्य तं साधु निर्माल्यगन्धादि याचते, ततHal|स्तत्मार्थनापरवशाः अधिकरणमपि समारभते । सम्मति परभावक्रीतं विवृण्वन्नाद वइयाइ मखमाई परभावकयं तु संजयहाए । उप्पायणा निमंतण कीडगडं अभिहडे ठविए ॥ ३०९ ॥ व्याख्या-वजिका' लघुगोकुलम्, उपलक्षणमेतत् , तेन पत्तनादिपरिग्रहः, तत्र जिकादौ 'मङ्खादिः' मङ्ग:-केदारको यः॥ पदमुपदर्य लोकमावर्जयति, आदिशब्दात्तथाविधान्यपरिग्रहः, भक्तिवशात् संयतार्थं यद् घृतदुग्धादेरुत्पादनं करोति कृत्वा च निमन्त्रपति तत्परभावक्रीतं, परेण-मजादिना संयतार्थ भावेन-स्वपटप्रदर्शनादिरूपेण क्रीतं परभावक्रीतम् , इत्थंभूते च परभावक्रीते त्रयो दोषा: ॥१६॥ एकं तावत्क्रीतं, द्वितीयमन्यस्मादन्यस्माद्गृहादानीतमित्यभ्याहृतम्, आनीयानीय चैकत्र साधुनिमित्तं स्थाप्यत इति स्थापितं, तस्मात्तादशमपि साधूनां न कल्पते । एतदेव गाथाद्वयेन स्पष्टयन्नाह ~195~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३३८] → “नियुक्ति: [३१०] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [R...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१०|| सागारि मंख छंदण पडिसेहो पुच्छ बहु गए वासे । कयरि दिसिं गमिस्सह ? अमुई तहिं संथवं कुणइ ॥ ३१ ॥ दिज्जते पडिसेहो कज्जे घेत्थं निमंतणं जइणं । पुचगय आगएK संछुहई एगगेहमि ॥ ३११॥ व्याख्या-शालिग्रामो नाम ग्रामः, तत्र देवशर्माभिधानो मङ्खः, वस्य च गृहैकदेशे कदाचित केचित् साधवो वर्षाकालमवस्थिताः सच मतस्तेषां साधूनामनुष्ठानमरक्तद्विष्टतां चोपलभ्यातीव भक्तिपरीतो बभूव, प्रतिदिवसं च भक्तादिना निमन्त्रयति, साधवच शय्यातरपिण्डोऽयमिति प्रतिषेधन्ति, ततः स चिन्तयामास-ययैते मम गृहे भक्तादि न गृह्णन्ति यदि पुनरन्यत्र दापयिष्यामि तथापि न ग्रहीध्यन्ति, तस्माद्वर्षाकालानन्तरं यत्रामी गमिष्यन्ति तत्राने गत्वा कधमप्येवेभ्यो ददामीति, ततः स्तोकशेपे वर्षाकाले साधवस्तेन पच्छिरे-- यथा भगवन् ! वर्षाकालानन्तरं कस्यां दिशि गन्तव्यं !, ते च यथाभावं कथयामासुः-यधाऽमुकस्यां दिशि, ततः स तस्यामेव दिशि कचिद्रोकुळे निजपटमुपदर्य बचनकौशलेन लोकमावर्जितवान् , लोकश्च तस्मै घृतदुग्धादिकं दातुं प्रावतिष्ठ, ततः स वभाण-यदा याचिष्ये (याचे) तदा दातव्यमिति, साधयश्च वर्षाकालानन्तरं यथाविहारक्रम तत्राजग्मुः, तेन चात्मानमज्ञापयता पूर्वमसिपिघृतदुग्धादिक प्रतिगृहं याचित्वैकत्र च गृहे संमील्य मुक्तं, ततः साधवो निमन्त्रिताः, तैश्च यथाशक्ति छद्मस्थदृष्टया परिभावितं, परं न लक्षितं, ततः शुद्ध-18 मितिकृत्या गृहीत, न च तेषां तथा गृह्णवां कश्चिदोषः, यथाशक्ति परिभावनेन भगवदाज्ञाया आराधितत्वात् , यदि पुनरित्थंभूतं कथमपि का ज्ञायते ताहि नियमतः परिहत्तेव्यं, क्रीताभ्यवहतस्थापनारूपदोषत्रयसद्भावादिति । सूत्र मुगर्म, नवरं 'सागारिक: ' शय्यातरः 'संस्तवः' परिचयः, निजपटमदशेनेन लोकावजेनमिति तात्पयाथः । तदेवमुक्तं परभावक्रीत, सम्पत्यात्मभावकीत स्पष्टयन्नाह धम्मकह वाय खमणं निमित्त आयावणे सुयट्ठाणे । जाई कुल गण कम्मे सिप्पम्मि य भावकीयं तु ॥३१२ ॥ दीप अनुक्रम [३३८] 16000रूर ~ 196~ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१२|| दीप अनुक्रम [ ३४०] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [३१२] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [२...]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [ ३४० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्युकर्मयागयादृत्तिः ॥ ९७ ॥ व्याख्या - धर्मकथादिषु भावक्रीतं भवति, इयमत्र भावना - यत् परचित्तावर्जनार्थं धर्मरूयां वादं 'क्षपणं' षष्टाष्टमादिरूपं तपो निमित्तमातापनां वा करोति, यद्वा -- श्रुतस्थानमाचार्योऽहमित्यादिकं कथयति, यदिवा जातिं कुलं गणं शिरखं कर्म वा परेभ्यः प्रकटयति, | इत्थं च परमाव यत्ततो भक्तादि गृह्णाति तदात्मभावक्रीतं यदा तु दुःखक्षयार्थं कर्मक्षयार्थं च धर्मकथादिकं यथायोगं करोति तदा इस भवचनप्रभावकतया महानिर्जराभागू भवति, उक्तं च--" पोवयणी धम्मकही बाई नेमित्तिओ तवस्सी य। विजा सिद्धो य कई अद्वेव पभावगा भणिया ॥ १ ॥ " सम्मति धर्मकथारूपं प्रथमं द्वारं प्रपञ्चयितुमाह धम्मकहाअक्खित्चे धम्मका उट्ठियाण वा गिण्हे । कति साह्यो चिय तुमं व कहि पुच्छिए तुसिणी ॥ ३१३ ॥ व्याख्या – आहाराद्यर्थे धर्मकथां कथयता यदा ते श्रोतारो धर्मकथया सम्यगाक्षिप्ता भवन्ति तदा तेषां पार्श्वे यथाचते, ते हि तदा प्रहर्षमागताः सन्तोऽभ्यर्थिता न तिष्ठन्ति यद्वा-धर्मकथात उत्थितानां सतां तेषां पार्श्वे यद्गुह्णाति तदात्मभावक्रीतम्, आत्मना - स्वयमेव भावेन-धर्मकथनरूपेण क्रीतमात्मभावकृतमिति, यद्वा-धर्मकथाकथकः कोऽपि प्रसिद्धो वर्त्तते, तदनुरूपाकारश्च विवक्षितः साधुः, ततस्तं श्रावकाः पृच्छन्ति यः 'कषी' धर्मकथाकथकः श्रूयते स किं त्वम्? इति, ततः स भक्तादिलोभादेवं वक्ति-यथा साधव एव प्रायो धर्मकथां कथयन्ति नान्यः, यदिवा तूष्णी-मोनेनावतिष्ठते, तवस्ते श्रावका जानन्ते यथा स एवायं केवलं गम्भीरत्वादात्मानं न साक्षाद्वचसा प्रकाशयतीति, ततः प्रभूततरं तस्मै प्रयच्छन्ति, तच्च तेभ्यः प्रभूततरं लभ्यमानमात्मभावकृतम्, आत्मना - स्वयमेव भावेन - स्वयमसोऽपि कथकः सोऽहं कथक इति ज्ञापनलक्षणेन क्रीतमितिकृत्वा । अथवा १ प्रवचनी धर्मकधी वादी नैमित्तिकः तपस्वी च । विद्यावान् सिद्धश्च कविरष्टावेव प्रभावका भणिताः ॥ १ ॥ For Penal Use On ~ 197~ ८क्रीतदोषः ॥ ९७ ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१४|| दीप अनुक्रम [ ३४२] मूलं [ ३४२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्युकर्मयाग यादृत्तिः ॥ ९७ ॥ “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [३१४] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [२...]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या - धर्मकथादिषु भावक्रीतं भवति, इयमत्र भावना - यत् परचित्तावर्जनार्थं धर्मरूयां वादं 'क्षपणं' षष्टाष्टमादिरूपं तपो निमित्तमातापनां वा करोति, यद्वा -- श्रुतस्थानमाचार्योऽहमित्यादिकं कथयति, यदिवा जातिं कुलं गणं शिरखं कर्म वा परेभ्यः प्रकटयति, | इत्थं च परमाव यत्ततो भक्तादि गृह्णाति तदात्मभावक्रीतं यदा तु दुःखक्षयार्थं कर्मक्षयार्थं च धर्मकथादिकं यथायोगं करोति तदा इस भवचनप्रभावकतया महानिर्जराभागू भवति, उक्तं च "पोवयणी धम्मकही वाई नेमित्तिओ तवस्सी य। विज्जा सिद्धो य कई अद्वेव पभावगा भणिया ॥ १ ॥ " सम्मति धर्मकथारूपं प्रथमं द्वारं प्रपञ्चयितुमाह धम्मकहाअक्खित्चे धम्मका उट्ठियाण वा गिण्हे । कति साह्यो चिय तुमं व कहि पुच्छिए तुसिणी ॥ ३१३ ॥ व्याख्या – आहाराद्यर्थे धर्मकथां कथयता यदा ते श्रोतारो धर्मकथया सम्यगाक्षिप्ता भवन्ति तदा तेषां पार्श्वे यथाचते, ते हि तदा प्रहर्षमागताः सन्तोऽभ्यर्थिता न तिष्ठन्ति यद्वा-धर्मकथात उत्थितानां सतां तेषां पार्श्वे यद्गुह्णाति तदात्मभावक्रीतम्, आत्मना - स्वयमेव | भावेन-धर्मकथनरूपेण क्रीतमात्मभावकृतमिति यद्वा-धर्मकथाकथकः कोऽपि प्रसिद्धो वर्त्तते, तदनुरूपाकारश्च विवक्षितः साधुः, ततस्तं श्रावकाः पृच्छन्ति यः 'कधी' धर्मकथाकथकः श्रूयते स किं त्वम् ? इति, ततः स भक्तादिलोभादेवं वक्ति-यथा साधव एव प्रायो धर्मकयां कथयन्ति नान्यः, यदिवा तूष्णी-मोनेनावतिष्ठते, तवस्ते श्रावका जानन्ते यथा स एवायं केवलं गम्भीरत्वादात्मानं न साक्षाद्वचसा प्रकाशयतीति, ततः प्रभूततरं तस्मै प्रयच्छन्ति, तच्च तेभ्यः प्रभूततरं लभ्यमानमात्मभावकृतम्, आत्मना - स्वयमेव भावेन - स्वयमसोऽपि कथकः सोऽहं कथक इति ज्ञापनलक्षणेन क्रीतमितिकृत्वा । अथवा १ प्रवचनी धर्मकधी वादी नैमित्तिकः तपस्वी च । विद्यावान् सिद्धश्च कविरष्टावेव प्रभावका भणिताः ॥ १ ॥ Educationa For Park Use Only ८क्रीतदोषः ~ 198~ ॥ ९७ ॥ પેજ બદલાવવું અહી મૂળ પ્રતનું પૃષ્ઠ ૯૮/૧ સ્કેન થયું નથી તેને બદલે પૃષ્ઠ ૯૭/ર બે વખત સ્કેન થયેલ છે. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३४६] .→ "नियुक्ति: [३१६] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१६|| पिण्डनियु- चार्यत्वं, आदिशब्दात् मवर्चकत्वादिपरिग्रहः, तत्र भक्ताद्यर्थमाचार्या वयमुपाध्याया वयमित्यादि जनेभ्यः प्रकाशयति येन जना आचार्य- मामित्यमेलयगि-| स्वादिकमवगम्प प्रभूततरं वितरन्ति, गदा-ये आचार्या महाविद्वांसः श्रूयन्ते ते किं यूयम् ? इत्यादि तथैव भावनीय, जात्यादिकं त्वेत- दोपे भगिरीयावृत्तिः दर्थ कथयति येन समानं जात्यादिकमकई च शिल्पादि ज्ञात्वा प्रभूतं प्रयच्छन्ति, तव तथा प्रभूतं लभ्यमानमात्मभावक्रीतं । तदेवमुक्तं मन्युदाहरण ॥९८॥ क्रीतद्वारं, सम्पति प्रामित्यद्वारमाह पामिपि य दुविहं लोइय लोगुत्तरं समासेण । लोइय सझिलगाई लोगुत्तर वत्थमाईसु ॥ ३१६ ॥ व्याख्या-मामित्यमपि समासेन 'द्विविध' द्विपकार, तद्यथा-लौकिकं लोकोत्तरं च, तत्र लोके भवं लौकिक, तच साधुविषयं सज्झिलगाई' सझिलगा-भगिनी, आदिशब्दादात्रादिपरिग्रहः तस्मिन् , किमुक्तं भवति?-भगिन्यादिभिः क्रियमाणं द्रव्यमिति, अत्र च भगिनीशब्देन कथानकं सूचितं, तदने स्वयमेव वक्ष्यति, लोकोत्तरं प्रामित्यं वस्त्रादिषु । बलादिविषयं साधूनामेव परस्परमवसेयम् । इहलौकिकं भगिन्यादा' वित्युक्तं, तत्र भगिन्युदाहरणमेव गाथात्रयेण प्रकटयति सुयअभिगमनाय विही बहि पुच्छा एग जीवइ ससा ते । पविसण पाग निवारण उच्छिदण तेल्ल जइदाणं ॥३१७॥ अपरिमिय नेहवुड्डी दासत्तं सो य आगओ.पुच्छा । दासत्तकहण मा रुय अचिरा मोएमि एत्ताहे ॥ ३१८॥ भिक्खदगसमारंभे कहणाउट्टो कहिंति वसहित्ति । संवेया आहरणं विसज्जु कहणा कइवया उ ॥ ३१९ ॥ व्याख्या-कोशलाविपये कोऽपि ग्रामस्तत्र देवराजो नाम कुटुम्बी, सारिकाभिधा तस्य भार्या, तस्याच सम्मतप्रमुखा बहवः दीप अनुक्रम [३४६] अथ 'प्रामित्य' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते ~199~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१९|| दीप अनुक्रम [३४७] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [३१९] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [२...]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [ ३४७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित सुताः सम्मतिप्रभृतयश्च मभूता दारिकाः, तथ सकलमपि कुटुम्बं परमश्रावकं तथा तस्मिन्नेव ग्रामे शिवदेवो नाम श्रेष्ठी, तस्य भाव शिवा, अन्यदा च समुद्रघोषाभिधाः सूरयः समागच्छन्, तेषां समीपे जिनमणीतं धर्ममाकर्ण्य जातसंवेगः सम्मतो दीक्षां गृहीतवान्, कालक्रमेण च गुरुचरणप्रसादतोऽतावे गीतार्थः समजनि । स चान्यदा चिन्तयामास यदि मदीयः कोऽपि मत्रज्यां गृह्णाति ततः शोभनं भवति, इदमेव हि तात्रिकमुपकारकरणं यत्संसाराणवादुत्तारणमिति, तत एवं चिन्तयित्वा गुरूनापृच्छय निजबन्धुग्रामे समागमत तत्र च बहिः प्रदेशे कमपि परिणतवयसं पृष्टवान् पुरुषं यथाऽत्र देवराजाभिवस्य कुटुम्बिनः सत्कः कोऽपि विद्यते ? इति स प्राह- मृतं सर्व| मपि तस्य कुटुम्बं केवलमेका सम्मत्यभिधा विधवा पुत्रिका जीवतीति ततः स तस्या गृहे जगाम सा च भ्रातरमायान्तं दृष्ट्वा मनसि बहुमानमुद्वहन्ती वन्दित्वा कञ्चित्कालं पर्युपास्य च तन्निमित्तमाहारं पक्तुमुपतस्थे, साबुच तां निवारितवान् यथा न कल्पतेऽस्माकमस्मनिमित्तं किमपि कृतमिति, ततो भिक्षावेलायां सा दुर्गतत्वेनान्यत्र कचिदपि तैलमात्रमप्पलभमाना कथमपि शिवदेवाभिघस्य वणिजो विपस्तैलपलिकाद्वयं दिने दिने द्विगुणदृद्धिरूपेण कलान्तरेण समानीय भ्रात्रे दत्तवती, भात्रा च तं वृत्तान्तमजानता शुद्धमिति ज्ञात्वा प्रतिजगृहे, सा च तद्दिनं भ्रातुः सकाशे धर्म श्रुतवती, तेन न पानीयानयनादिना तत्तैलपलिकाद्वयं प्रवेशयितुं प्रपारितवती, द्वितीये च दिने भ्राता (यथा) विहारक्रमं गतः, ततस्तस्मिन्नपि दिने तद्वियोगशो का कीर्णमानसतया न तत्तैलपलिकाद्वयं द्विगुणीभूतं प्रवेशयितुं शक्तवती, तृतीये च दिने कर्षद्वयमृणे जातं तचातिप्रभूतत्वान्न प्रवेशयितुं शक्तम्, अपिच भोजनमपि पानीयानयनादिना कर्त्तव्यं, ततो भोजनार्थैव यत्नविधौ सकलमपि दिनं जगामेति न ऋणं प्रवेशयितुं शक्नोति, ततो दिने दिने द्विगुणदृद्धया प्रवर्द्धमानमृणमपरिमितघटप्रमाणं जातं, ततः श्रेष्ठिना सा बभणे - यथा मम तैलं देहि यद्वा मे दासी भव, ततः सा तैलं दातुमशक्नुवती दासत्वं प्रतिपेदे, कियत्सु च वर्षेष्वविक्रान्तेषु भूयो - Education International For Park Use Only ~200~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३४७] → "नियुक्ति: [३१९] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१९|| पिण्डनियु- पि सम्मतामिषः साधुस्तस्मिन्नेव ग्रामे यथाविहारक्रममागमत, सा च भगिनी स्वगृहे न दृष्टा, तत आगता सती पपच्छे, तया च प्राचीनः मामित्यतमेलयगि- सर्वोऽपि व्यतिकरस्तस्मै न्यवेदि यावदासत्वं शिवदेवगृहे जातमिति, निवेद्य च स्वदुःखं रोदितुं प्रवृत्ता, ततः साधुरखोचव-मा रोदी दोपे भगिरीयावृत्तिः रचिरादहं त्वां मोचयिष्यामि, ततस्तस्या मोचनोपायं चिन्तयन् प्रथमतः शिवदेवस्यैव गृहे प्रविवेश, शिवा च तस्य भिक्षादानार्थ जलेन हस्तौ | न्युदाहरणं पक्षालयितुं लग्ना, तां च साधुनिवारयामास, ययैवमस्माकं न कल्पते भिक्षेति, ततः समीपदेशवत्ती श्रेष्ठी प्रोवाच-कोत्र दोषः, ततः साधुः। कायविराधनादीन् दोषान् यथागर्म सविस्तरमचीकथत् ततः स आतो भणति यथा भगवन् ! कुछ युष्माकं वसतिर्येन तत्रागता वयं धर्म || शृणुमः ततः साधुरवादीत-नास्ति मेऽद्यापि प्रतिश्रयः, ततस्तेन निजगृहैकदेशे वसतिरदायि, प्रतिदिनं च धर्म शृणोति, सम्यक्त्वमणुव्रतानि च । मतिपन्नाानि, साधुश्च कदाचनापि वासुदेवादिपूर्वपुरुषाचीननेकानभिग्रहान् व्यावर्णयामास, यथा वासुदेवेनायमभिग्रदो जगृहे-पदि मदीयः पुत्रोऽपि प्रवज्यां जिघृक्षति ततोऽई न निवारयामीत्यादि, एवं च श्रुत्वा शिवदेवोऽप्यभिग्रहं गृहीतवान्-यदि भगवन् ! मदीयोऽपि कोऽपि भव्रज्यां प्रतिपद्यते ततोऽहं न निवारयामीति, अत्रान्तरे च शिवदेवस्य तनयो ज्येष्ठः सा च साधुभगिनी सम्मतिः प्रवज्यां ग्रहीतुमुपतस्थे, श्रेष्ठिना च वी द्वावपि विसर्जितो, ततः प्रव्रज्या प्रतिपन्नाविति । सूत्रं सुगम, केवलं 'श्रुताधिगमज्ञातविधिः श्रुताधिगमात् ज्ञातो विधिः-क्रियाविधिर्येन स तथा, अत्राह-नन्वेतल्यामित्यं साधुना विशेषतो ग्रहीतव्यं, परम्परया प्रव्रज्याकारणत्वात् , अत आह 'कइक्या उ' एवंविधा गीतार्थी विशिष्टश्रुतविदो देशनाविधिनिपुणाः कतिपया एव भवन्ति, न भूयांसः, कतिपयानामेव च प्रव्रज्यापरिMणामः, ततः पामित्यं दोषायैव । तदेवं तैलविषपे प्रामित्ये दोष उक्तः, सम्पत्यतिदेशेन वस्त्रादिविषये दोषानभिधित्सुराह एए चेव य दोसा सविसेसयरा उ वत्थपाएसं । लोइयपामिच्चेसं लोगुत्तरिया इमे अन्ने ॥ ३२० ॥ दीप अनुक्रम [३४७] ॥२९॥ R asurarycom ~ 201~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३४८] .→ "नियुक्ति: [३२०] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३२०|| व्याख्या-एते एव' दासत्वादयो दोषा वसपात्रविषयेषु लौकिकेषु प्रामित्येषु सविशेषतरा निगडादिनियन्त्रणपुरस्सरा द्रष्टव्याः, लोकोतरिकाः लोकोत्तरमामित्यविषयाः पुनरिमेऽन्ये दोषाः, तानेवाह| मइलिय फालिय खोसिय हियनढे वावि अन्न मग्गंते । अवि सुंदरेवि दिण्णे दुकररोई कलहमाई ॥ ३२१ ॥ व्याख्या-इह द्विधा लोकोत्तरं मामित्यं--कोऽपि कस्यापि सत्कमेवं वस्त्रादि गृह्णाति यया कियदिनानि परिभुज्य पुनरपि ते समर्पयिष्यामि, कोऽपि पुनरेवम्-एतावदिनानामुपरि तदेतत्सदृशमपरं वखादि दास्यामि, तत्र प्रथमे प्रकारे 'मलिनिते' शरीरादिमलेन लेदिते यदिवा पाटितेऽथवा 'खोसिते' जीर्णपाये कृते यदि वा चौरादिना हुते यदा-कापि मार्गपतिते कलहादयो दोषाः। द्वितीये च प्रकारेऽन्यदनादिकं याचमानो याचमानस्य 'अपिः' सम्भावनायां 'मुन्दरेऽपि' पूर्वभुक्तादवादेविशिष्टतरेऽपि दत्ते कोऽपि दुष्कररुचिर्भति, महता कप्टेन तस्य रुचिरापादयितुं शक्यते, ततस्तमधिकृत्य कलहादयो दोषाः सम्भवन्ति, तस्माल्लोकोत्तरमपि मामित्यं न कर्त्तव्यम् ।। अत्रैवापवादमाहका उच्चत्ताए दाणं दुल्लभ खग्गूड अलस पामिन्चे । तंपि य गुरुस्स पासे ठवेइ सो देइ मा कलहो । ३२२ ॥ ILL व्याख्या-इह दुर्लभे वस्त्रादौ सीदतः साधोर्यदि वस्त्रादिकमपरेण साधुना दातुमिष्यते तहि तस्य 'उश्चतया' मुधिकतया दानं कर्त्तव्यं, न पामित्यकरणेन, तथा यः 'खग्गूडः ' कुटिलो बैयाढत्यादौ न सम्यग् वर्चते योऽपि चालस: तौ दुर्लभवखादिदानमलोभनेनापि चैयाऋत्यं कार्येते, ततस्तद्विषयं पामित्यं सम्भवति, तत्रापि तदीयमानं वखादिक दायको गुरोः पार्थे स्थापयेत् , न स्वयं दद्यात, ततः स गुरुर्ददाति, मा भूदन्यथा तयोः परस्परं कलह इतिकृत्वा । उक्त प्रामित्यद्वारम्, अधुना परावर्तितद्वारमभिषित्सुराह दीप अनुक्रम [३४८] ~ 202~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३५१] .→ "नियुक्ति: [३२३] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: नितदोषा प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३२३|| पिण्डनियु- परियट्टियपि दुविहं लोइय लोगुत्तरं समासेणं । एकेकंपि अ दुविहं तद्दब्वे अन्नब्वे य ॥ ३२३ ॥ १८परिवतर्मलयगि व्याख्या-'परिवर्तितमपि ' उक्तशब्दार्थ 'समासेन ' सङ्केपेण द्विविधं, तद्यथा-लौकिक लोकोत्तरं च, एकैकमपि द्विविध, ।। रीयात्तिः । तद्यथा-'तहव्ये' तद्रव्यविषयम् 'अन्यद्रव्ये ' अन्यद्रव्यविषयं च, तत्र तव्यविषयं यथा कुथितं घृतं दत्त्या साधुनिमित्तं मुगन्धि घृतं । भ्राताभगि॥१०॥ गृह्णातीत्यादि, अन्यद्रव्यविषयं यथा कोद्रवकूर समर्पयित्वा साधुनिमित्तं शाल्योदनं गृह्णातीत्यादि, इदं च लौकिकम् , एवं लोकोत्तरमपि भावनीयं । सम्पति लौकिकस्योदाहरणं गाथात्रयेणाइ अबरोप्परसजिझलगा संजुत्ता दोवि अन्नमन्नेणं । पोग्गलिय संजयट्ठा परियट्टण संखडे घोही ।। ३२४ ॥ अणुकंप भगिणिगेहे दरिद्द परियट्टणा य कूररस । पुच्छा कोद्दवकूरे मच्छर णाइक्ख पंतावे ॥ ३२५ ॥ इयरोऽविय पंतावे निसि ओसबियाण तेसि दिक्खा य । तम्हा उ न घेत्तव्वं कइ वा जे ओसमेहिंति ॥ ३२६ ॥ व्याख्या-वसन्तपुरे नगरे निलयो नाम श्रेष्ठी, तस्य सुदर्शना नाम भार्या, तस्या द्वौ पुत्रौ, तद्यथा-क्षेमकरो देवदत्तश्च, लक्ष्मीनामा च दुहिता, तव वसन्तपुरे तिलको नाम श्रेष्ठी, सुन्दरी नाम तस्य महेला, तस्या धनदत्तः पुत्रो बन्धुमती दुहिता, तत्र क्षेमरः समितसूरीणामुपकण्ठे दीक्षा गृहीतवान्, देवदत्नेन च बन्धुमती धनदत्तेन च लक्ष्मीः परिणीता, अन्यदा च कर्मवशतो धनदत्तस्य दारिद्रयमुपतस्थे, ततः स प्रायः कोद्रवकूर मुक्त देवदत्तश्वेश्वरः, ततः स सर्वदेव शाल्योदनं मुझे, अन्यदा च स क्षेमङ्करः । साधुर्यधाविहारक्रमं तत्राजगाम, स च चिन्तयामास-यदि देवदत्तस्य भ्रातृगृहे गमिष्यामि ततो मे भगिनी दारिद्रयेणाहमभिभूता ततो. 令令令令令令令????????命令白宮會中中中中中中中心 दीप अनुक्रम [३५१] ।॥१०॥ JAMEnicsts अथ 'परिवर्तित' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते ~203~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३५४] → "नियुक्ति: [३२६] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [R...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३२६|| कान मम गृहे साधुरपि भ्राता समुत्तीर्ण इति परिभवं मंस्यते इति, ततोऽनुकम्पया तस्या एवं गृहे प्रविवेश, भिक्षावेलायां च तया लक्ष्म्या चिन्तितं-यथैकं तावदयं भ्राता द्वितीयं साधुः तृतीयं प्राघूर्णकः, मम च गृहे कोद्रवकूरा, ततः कथमसावस्मै दीयते?, शाल्पोदनच मम ग्रह न विद्यते, ततो भ्रातृजायाया बन्धुमत्याः सकाशात् कोद्रवोदनपरावर्तनेन शाल्योदनमानीय ददामीति तथैव कृतम्, अत्रान्तरे च। देवदचो भोजनार्थ स्वगृहमागतः, वन्धुमत्या च पप्रच्छे यथाऽय कोदवौदनो जेमितव्यः, तेन चाविज्ञातपरिवर्तनवृत्तान्तेन चिन्तितंयथाऽनया कृपणतया कोद्रवौदनो राद्धो न शाल्योदना, ततस्तां ताडयितुमारेभे, सा च ताब्यमाना पाह-किं मां ताडयसि!, तवैव | भगिनी कोद्रोदनं मुक्त्वा शाल्योदनं नीतवती, धनदत्तस्यापि च भोजनार्थभुपविष्टस्य यः शाल्योदनः क्षेमङ्करस्य दीयमान उद्वरितः । स गौरवेण लक्ष्म्या परिवेपितः, ततस्तेन सा पृष्टा-कुतोऽयं शाल्योदनः !, ततः कथितः सर्वोऽपि तया वृत्तान्तः, श्रुत्वा च तं वृत्तान्त चकोप धनदत्तो-यथा हा! पापे ! किमिति त्वया मानमेकं शाले: पक्त्वा साधवे शाल्योदनो न दत्तो यत्परगृहादानयनेन मम मालिन्यमापादितं, ततस्तेनापि सा ताडिता, साधुना चायं वृत्तान्तो गृहद्वयवर्ती सर्वोऽपि जनपरम्परातः शुश्रुवे, ततो निशि सर्वाग्यपि तानि प्रतिबोधितानि, यथेत्थमस्माकं न कल्पते परमजानता मया गृहीतम् । अत एव च कलहादिदोषसम्भवाद्भगवता प्रतिषिद्धं, ततो जिनप्रणीतं धर्म सविस्तरं कथितवान् , जातः सर्वेषामपि संवेगो, दत्ता च दीक्षा तेषां सर्वेषामिति । सूत्र मुगम, नवरम् 'अवरुप्परसज्झि लगा' इति लक्ष्मीदेवदत्तौ बन्धुमतीधनदत्तौ परस्परं 'सज्झिलगौं' भ्रातरौ, ते च 'अपि । लक्ष्मीवन्धुमत्यौ अन्नमन्त्रेणं 'ति । अन्योऽन्यमपि सम्बद्ध देवदत्तस्य भगिनी लक्ष्मीर्धनदत्तेन धनदत्तस्यापि भगिनी बन्धुमती देवदत्तेन परिणीता इत्यर्थः, 'पोग्गलिय'त्ति पौलिकस्य शाल्योदनस्य 'संयतार्थ 'क्षेमङ्करसाधुनिमित्तं परिवर्तनं कृतं, ततः 'संखडं। कलहस्ततः 'बोधिः' प्रव्रज्या, अस्या दीप अनुक्रम [३५४] ~ 204~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३२६|| दीप अनुक्रम [३५४] मूलं [ ३५४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्यु - तेर्मलयगि याहतिः ॥१०१॥ “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> ८० “निर्युक्तिः [३२६] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [२...]" आगमसूत्र - [ ४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः एव गाथाया विवरणभूतमुत्तरं गाथाद्वयं तदपि च सुगमं, नवरं 'मच्छर 'चि विभक्तिलोपात् मत्सरेण 'नाइक्ख 'ति परिवर्त्तनेऽकथिते ४१० परिव'पंतावे ' अताडयत्, 'उवसमियाण'त्ति उपशमितानां, ननु परिवर्तनमपीदं प्रवज्यायाः कारणं वभूव ततो विशेषतः साधुभिरिदमाचरणी यमत आइ' कइ व 'त्ति कति वा कियन्तो 'वा क्षेमङ्करसाधुसदृशा भविष्यन्ति ये इत्थं परिवर्तनसमुत्थं कलहमपनीय प्रवज्यां ग्राहविष्यन्ति तस्मान्नैवेदमाचरणीयम् । उक्तं लौकिकं परिवर्त्तनम्, अथ लोकोत्तरं तद्वक्तव्यं तत्र यत् साधुः साधुना सह वस्त्रादिपरिवर्त्तनं करोति तल्लोकोत्तरं परिवर्तनं तत्र दोषानुपदर्शयति ऊणहिय दुब्बलं वा खर गुरु छिन्न मइलं असीयसहं । दुव्वन्नं वा नाउं विपरिणमे अन्नभणिओ वा ॥ ३२७ ॥ व्याख्या—बत्रपरिवर्त्तने कृते सतीदं न्यूनं यत्तु मदीयं वस्त्रं बभूव तन्मानयुक्तं – प्रमाणोपपन्नं, यद्वा इदमधिकं मदीयं पुनर्मानयुक्तमेवं सर्वत्र भावना, नवरं 'दुब्र्बलं ' जीर्णमायं 'खरं' कर्कशस्पर्श 'गुरुः स्थूलसूत्र निष्पन्नतया भारयुक्तं ' छिन्नं' निपुष्पकं 'मलिनं मलाविलम् ' अशीतसई' शीतरक्षणासमं' 'दुर्खर्ण' विरूपच्छायम्, इत्थंभूतं स्वयमेव ज्ञात्वा 'विपरिणमेत्' घृष्टोऽहमिति विचिन्तयेत्, यद्वा-अन्येन साधुना खम्गूडेन भणित उत्पासितो विपरिणमेत् । अत्रैवापवादमाह - Education International एगस्स माणजुत्तं न उ चिइए एवमाइ कज्जेसु । गुरुपामूले ठेवणं सो दलयइ अन्नहा कलहो ॥ ३२८ ॥ व्याख्या - एकस्य साधीर्यस्य सत्कं तन्न भवति तस्य 'मानयुक्तं प्रमाणोपपन्नं बखादि, न द्वितीये द्वितीयस्य साधोर्यस्य सत्कं तस्य मानयुक्तं, किन्तु ? – न्यूनमधिकं वा, व्रत एवमादिषु कार्येषु समुत्पन्नेषु परिवर्त्तनस्य सम्भवो भवति, तत्र परिवर्तनस्य सम्भवे For Parts Only ~ 205~ ******* सिंतदोषः भ्राताभगि न्युदाहरणं ॥१०२॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३५६] .→ "नियुक्ति: [३२८] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३२८|| दीप अनुक्रम [३५६] यस्य सत्कं तद्वस्त्रादि तेन मुरुपादमूले तस्य वखादेः स्थापन कर्त्तव्यं, गुरुपादमूले मोक्तव्यमित्यर्थः, ततो वृत्तान्त: कथनीयः, वृत्तान्ते च 15 कथिते सति स गुरुर्ददाति 'अन्यथा' गुरुपादमूलस्थापनाथभावे 'कलहः' परस्परं रातिः सम्भवतीति । उक्त परिवर्तितद्वारस , अथा भ्याहृतद्वारमाह___ आइन्नमणाइन्नं निसीहऽभिहडं च नोनिसीहं च । निसिहाभिहडं ठप्पं वोच्छामी नोनिसीहं तु ॥ ३२९ ॥ व्याख्या-अभ्याहृतं द्विधा, तद्यथा-आचीर्णमनाचीर्णं च, तवानाचीर्ण द्विधा, तद्यथा-निशीथाभ्याहृतं नोनिशीथाभ्याहृतं च, तत्र निशीयम् -अर्द्धरात्रं तत्रानीतं किल प्रच्छन्नं भवति, एवं साधूनामपि यदविदितमभ्याहृतं तनिशीथाभ्याहृतामिव निशीथाभ्याहृतं, तद्विपरीतं नोनिशीथाभ्याहृतं यत्साधूनामभ्याहृतमिति विदितं भवति, तत्र निशीथाभ्याहृतं स्थाप्यम्, अग्रे वक्ष्यते इति भावः, सम्पति पुनवक्ष्यामि नोनिशीथाभ्याहृतं । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति सग्गाम परग्गामे सदेस परदेसमेव बोद्धव्वं । दुहिं तु परग्गामे जलथल नावोडु जंघाए ॥ ३३ ॥ व्याख्या-नौनिशीथाभ्याहृतं द्विविध, तद्यथा-'स्वग्रामे स्वग्रामविषय 'परग्रामे' परग्रामविषय, तत्र यस्मिन ग्रामे साधुनिवसति स| किल स्थग्रामः, शेषस्तु परग्रामः, तत्र 'परग्रामे' परग्रामविषयमभ्याहृतं द्विविधं, तद्यथा-स्वदेशं परदेशं च, स्वदेशपरग्रामाभ्याहृतं परदेशपर-11 ग्रामाभ्याहृतं चेत्यर्थः । तत्र स्वदेशो यत्र देशे मण्डले साथुर्वर्तते, शेषस्तु परदेशः । एतद्विविधमपि प्रत्येकं द्विधा, तद्यथा-'जलथल 'त्ति सूचनात्सूत्र 'मितिकृत्वा जलपथेनाभ्याहृतं स्थलपथेनाभ्याहृतं च, तत्र जलपयेनाप्यभ्याहृतं द्विधा-नावा उडुपेन च, उपलक्षणमेतत् || तेन स्तोकजलसम्भावनायां जवाभ्यामपि, तत्र नौ:-तरिका उडुपः-तरणकाष्ठं तुम्बकादि चोड्डपग्रहणेन गृहीतं द्रष्टव्यं, स्थलपथेनाप्यभ्या-11 Taurasurary.com अथ 'अभ्याहृत' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते ~206~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३५८] → "नियुक्ति: [३३०] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत पिण्डनियु- तेर्मलयाग- रीयावृत्तिः ॥१०२।। गाथांक नि/भा/प्र ||३३०|| हृतं द्विधा, तथया-जवाभ्यां-पद्याम् , उपलक्षणमेतत् , तेन गन्त्र्यादिना च॥ तत्रामूनेव जकस्थलाभ्याहतभेदान सप्रपञ्च विभावयन ||११अभ्यादोषान प्रदर्शयति हृतदोषः जंघा बाह तरीइ व जले थले खंध आरखुरनिबद्धा । संजमआयविराहण तहियं पुण संजमे काया ॥ ३३१ ॥ अत्थाहगाहपंकामगरोहारा जले अवाया उ। कंटाहितेणसाबय थलंमि एए भवे दोसा ॥ ३३२॥ व्याख्या-तत्र जलमागें स्तोकजलसम्भावनायां जयाभ्याम् अस्ताघसम्भावनायां बाहुभ्यां यदिवा तरिकया, उपलक्षणमेतत् , उडुपेन चाभ्याहृतं सम्भवति, स्थलमार्गे तु स्कन्धेन यद्वा 'आरखुरनिबद्ध ति अत्र तृतीयार्थे प्रथमा, ततोऽयमर्थः-आरकनिबद्धा गन्त्री क्या खुरनिवद्धा रासभवलीवोदयस्तैः, अत्र च दोषाः संयमविराधनाऽऽत्मविराधना च, 'तत्र' संयमाऽऽत्मविराधनामध्ये संयम-| विषया विराधना जलमार्गे स्थलमार्गे च 'काया' अपकायादयो विराध्यमाना द्रष्टव्याः । जलमार्गे आत्मविराधनामाह-'अत्याह'। इत्यादि, अत्र प्राकृतत्वात् कचिद्विभक्तिकोपः कचिद्विभक्तिपरिणामश्च, ततोऽयमर्थः-अस्ताचे पदादिभिरलभ्यमानेधोभूभागेऽधो-| निमज्जनलक्षणोऽपायो भवति, तथा 'ग्राहेभ्यः' जलचरविशेषेभ्यः यदा 'पन्तः' कलरूपात् अथवा मकरेभ्यः, यदिवा 'ओहारे नि करछपेभ्यः, उपलक्षणमेतत्, अन्येभ्यश्च पादयन्धकतन्त्वादिभ्यः 'अपाया' विनाशादयो दोपाः सम्भवन्ति । स्थलमार्ग आत्मविराधनामाह-कंटेस्पादि कण्टकेभ्यो यदिवाऽहिभ्यो यद्वा स्तेनेभ्योऽथवा श्वापदेभ्यः, उपलक्षणमेतत् , ज्वरायुत्पादकपरिश्रमादिभ्यश्च । 'स्थले ' स्थलमार्गे एत एवापायरूपा दोषाः प्रतिपचव्याः ।। उक्तमनाचीर्ण परप्रामाभ्याहृतं नोनिशीथं, सम्पति तदेव स्वग्रामाभ्याहृतं ॥१०॥ नोनिशीथं गाथाद्रयेनाद दीप अनुक्रम [३५८] 000000000000000000000000000000 ~ 207~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३३३|| दीप अनुक्रम [३६१] मूलं [ ३६१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ************ “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [३३३] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [२...]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः सग्गाऽवि यदुविहं घरंतरं नोघरंतरं चैव । तिघरंतरा परेणं घरंतरं तं तु नायव्वं ॥ ३३३ ॥ नोघरंतर ऽणेगविहं वाडगसाहीनिवेसणगिहेसु । काये खंधे मिम्मय कंसेण व तं तु आणेजा ॥ ३३४ ॥ व्याख्या- ' स्वग्रामेऽपि ' स्वग्रामविषयमध्यभ्याहृतं द्विविधं तथथा - गृहान्तरं नोगृहान्तरं च तत्र त्रिगृहान्तरात् परेण त्रीणि गृहाप्यन्तरं कृत्वा परतो यदानीतं तद्दान्तरं, एवं च सति किमुक्तं भवति ? - यद्दत्रयमध्यादानीयते उपयोगच तय)त्र सम्भवति तदाचीर्णमवसेयं, नोगृहान्तरमनेकविधं तच वाटकादिविषयं तत्र 'वाटकः परिच्छन्नः प्रतिनियतः सन्निवेशः 'साही ' वर्त्तनी सैबैका ऽपान्तराले विद्यते न तु गृहान्तरमित्यर्थः ' निवेशनम् ' एकनिष्क्रमणप्रवेशानि दद्यादिगृहाणि 'गृई' केवलं मन्दिरम् एतच सकलमपि वाटका | दिविषय मनाचीर्णमनुपयोगसम्भवे वेदितव्यं तदपि च गृहान्तराख्यं नोगृहान्तराख्यं च नोनिशीथं स्वग्रामाभ्याहृतं प्रतिलाभयितुमीप्सि तस्य साधोरुपाश्रयमानयेत् कापोत्या यदिवा स्कन्धेन, उपलक्षणमेतत् तेन करादिना च यदिवा मृन्मयेन भाजनेन यद्वा कांस्येन || सम्प्रत्यस्यैव स्वग्रामविषयनोनिशीथाभ्याहृतस्य सम्भवमाह सुन्नं व असइ कालो पगयं व पहेणगं व पासुता । इय एइ काइ घेतुं दीवेइ य कारणं तं तु ॥ ३३५ ॥ व्याख्या - इद साधुर्भिक्षाटन कापि गृहे प्रविष्टः परं तत्तदानीं 'शून्यं' बहिर्निर्गतमानुषमासीत्, यद्वाऽयापि तत्र राध्यते इति 'असन्' अविद्यमानो भिक्षाकालः, यदिवा तत्र प्रकृतं गौरवाईस्वजनभोजनादिकं वर्त्तते, न ततो तदानीं साधवे भिक्षा दातुं प्रपारिता, यदि वा विहृत्य साधोर्गतस्य पश्चात् 'प्रदेणकं लाहनकमागतं तचोत्कृष्टत्वात् किल साधवे दातव्यम्, अथवा तदा श्राविका 'प्रसृप्ता ' शयि Education International For Parts Only ~208~ www.ncbrary org Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३६३] .→ "नियुक्ति: [३३५] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उद्पषणाया अभ्याहदोषः ११ प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३३५|| ॥१०॥ दीप अनुक्रम [३६३] पिण्डनियु- ताऽऽसीत, ततो न साध भिक्षा दत्ता इति, पतैः कारणैः काचिन आदिका स्वहानुद्दीत्या साधोरुपाश्रयमानयेत्, तचानयनस्य कारणं ॥ तदा शून्यं गृहमासीदित्यादिरूपं दीपपति' प्रकाशयति, तत एवं नोनिशीथस्वग्रामाभ्याहृतसम्भवः । तदेवमुक्तं स्वग्रामपरग्रामभेदभिन्न रीयात्तिः नोनिशीथाभ्याहृतम्, अथ स्वग्रामपरग्रामभेदभित्रमेव निशीथाभ्याहृतमतिदेशेनाह एमेव कमो नियमा निसीहऽभिहडेऽवि होइ नायब्बो । अविइअदायगभावं निसीहि तं तु नायव्वं ।। ३३६ ॥ व्याख्या-य एव क्रमः स्वग्रामपरग्रामादिको नोनिशीधाभ्याहृत उक्तः स एव निशीथाभ्याहतेऽपि नियमात् ज्ञातव्यः । सम्पति निशीथाभ्याहतस्वरूपं कथयति-'अविइय' इत्यादि, अविदितो-यतिना न विज्ञातो दायकस्याभ्याहृतदानपरिणामो यत्र तदविदितदायकभावं निशीथापाहृतमवगन्तव्यं, किमुक्तं भवति ?-सर्वथा साधुनाऽभ्याहतत्वेन यदपरिज्ञातं तन्निशायामाहतमिति ॥ परमामा याहृतस्य निशीथस्य सम्भवं माथाचतुष्टयेनाह अइदूरजलंतरिया कम्मासंकाएँ मा न घेच्छंति । आणंति संखडीओ सड़ो सडी व पग्छन्नं ॥ ३३७ ॥ निग्गम देउल दाणं दियाइ सन्नाइ निग्गए दाणं । सिट्ठमि सेसगमणं दितऽन्ने वारयंतऽन्ने ॥ ३३८ ॥ मुंजण अजीरपुरिमडगाइ अच्छंति भुत्तसेसं वा । आगमनिसीहिगाई न भुजई सावगासका ॥ ३३९ ॥ उक्खित्तं निक्खिप्पइ आसगयं मल्लगंमि पासगए । खाभित्तु गया सड़ा तेऽवि य मु(स)हा असढ भावा ॥३४॥ व्याख्या-कचिद्रामे धनावप्रमुखा बहवः श्रावकाः धनवतीप्रभृतयश्च श्राविकाः, एते च सर्वेऽप्येककुटुम्बवर्तिनः । अन्पदा || 令哈西宁冷冷冷的心冷冷冷冷冷冷冷令分分合合令。 १०॥ ~ 209~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३६८] .→ "नियुक्ति: [३४०] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [२...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३४०|| तेषामावसथे बीचाहः समजान, वृत्ते च तस्मिन् प्रचुर मोदकायुद्धरितं, ततस्तैरचिन्ति-यथैतत्साधुभ्यो दीयतां येन महत्पुण्यमस्माकमुपजायते, अथ च केचित्साधवो दूरेऽवतिष्ठन्ते, केचित्पुनः प्रत्यासन्नाः, परमन्तराले नदी विद्यते, ततस्तेऽप्यप्कायविराधनाभयतो नागमिष्यन्ति, आगता अपि च मधुरं मोदकादिकमवलोक्य कथ्यमानमपि शुद्धमाधाकर्मशङ्कया न ग्रहीष्यन्ति ततो यत्र ग्रामे साधयो निवसन्ति तत्रैव प्रकाछनं गृहीत्वा बजाम इति, तथैव च कृतं, ततो भूयोऽपि चिन्तयन्ति-पदि साधूनाहय दास्यामस्ततोऽशुद्धमाशङ्कच ते न ग्रहीपन्ति तस्मात् द्विमादिभ्योऽपि किमपि दद्मः, तच तथा दीयमानमपि यदि साधवो न मेलिष्यन्ते ततस्तदयस्थैव तेषा-1 मशुद्धाशङ्का भविष्यति ततो यत्रोच्चारादिकार्यार्थ निर्गताः सन्तः साधवः प्रेक्षन्ते तत्र दम इति, एवं च चिन्तयित्वा विवक्षिते कस्मि-|| चित्प्रदेशे कस्यचिद्देवकुलस्य बहिर्भागे द्विनादिभ्यः स्तोकं स्तोकं दातुमारब्ध, तत उच्चारादिकार्याय विनिर्गताः केचन साधयो दृष्टाः, ततस्ते निमन्त्रिता यथा भोः ! साधनः ! अस्माकमुद्धरितं मोदकादि प्रचुरमवतिष्ठते ततो यदि युष्माकं किमप्युपकरोति वहि तत्पतिगृह्यतामिति, साधवोऽपि शुद्धमित्यवगम्य प्रत्यगृह्णन, तैश्च साधुभिः शेषाणामपि साधूनामुपादेशि-पथाऽमुकस्मिन् प्रदेशे प्रचुरमेषणीयमशनादि लभ्यते, ततस्तेऽपि तद्भहणाय समाजग्मुः, तत्र के श्रावकाः प्रचुर मोदकादिकं प्रयच्छन्ति, अन्ये च मातृस्थानतो निवारयन्ति, यथैताबडीयतां माअधिक, शेषमस्माकं भोजनाय भविष्यति, अन्ये पुनस्तानेव निवारयतः प्रतिपेषयन्ति-पथा न कोऽप्यस्माकं ||२|| मोक्ष्यते, सर्वेऽपि पायो भुक्ताः, ततः स्तोकमात्रेण किश्चिदुद्धरितेन प्रयोजन, तस्मायथेच्छं साधुभ्यो दीयतामिति । साधवश्व ये नमस्कारसहितपत्याख्यानास्ते भुक्ताः, ये च पौरुषीपत्याख्यानास्ते भुजाना वर्तन्ते, ये चाजीर्णवन्तः पूर्वार्दादि प्रतीक्षमाणा वन्ते ते नाद्यापि भुजते, श्रावकाच चिन्तयामासुः-पथेदानीं साधको भुक्ता भविष्यन्ति, ततो वन्दित्वा निजस्थानं बजाम इति, एवं चिन्तयित्वा 000000000000000000000000000रू. दीप अनुक्रम [३६८] ~210~ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३४१|| दीप अनुक्रम [ ३६९ ] मूलं [ ३६९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्युकर्मयगि यावृत्तिः ॥१०४॥ ❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖�* “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) → ८० “निर्युक्तिः [३४१] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [२...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | समधिकमहारवेळाया साधुवसतावागत्य नैषेधिक्यादिकां सकलामपि श्रावकक्रियां कृतवन्तः ततो ज्ञातं यथाऽमी श्रावकाः परमविवेकिनो, ज्ञाताच परम्परया विवक्षितग्रामवास्तव्याः, ततः सम्यग्विमर्शतो निश्चितं - नूनमस्मन्निमित्तमेतत् स्वग्रामादभ्याहृतमिति, ततो यैर्भुक्तं तैर्भुक्तमेव, ये त्वद्यापि पूर्वार्द्धादि प्रतीक्षमाणा न भुञ्जते तैर्न मुक्तं येऽपि च भुञ्जाना अवतिष्ठन्ते, तैरपि यः कवल उदक्षिप्तः स भाजनेऽमुच्यत, यत्तु मुखे प्रक्षिप्तं नाद्यापि गिलितं तन्मुखाद्विनिःसार्थ समीपस्थापिते मल के प्रचिक्षिपे, शेषं तु भाजनगतं सर्वमपि परिठापितं श्रावकाः श्राविकावर्ग सर्वोऽपि क्षमयित्वा स्वस्थानं जगाम तत्र ये भुक्ता ये चार्द्धमुक्तास्ते[ऽपि ] सर्वेऽप्यशठभावा इति शुद्धाः । सूत्रं सुगमं, केवलम् 'अइदूर जळंतरिय 'ति केचिदतिदूरे केचिन्नयाऽन्तरिताः । उक्तं परग्रामाभ्याहृतनिशीथम्, अय स्वग्रामाभ्याहृतं तदेव गाथाद्वयेनाह Eucation International लद्धं पणगं मे अमुगत्थगयाऍ संखडीए वा । वंदणगडपविद्वा देइ तयं पट्टिय नियत्ता ॥ ३४१ ॥ नीयं पहेणगं मे नियगाणं निच्छियं व तं तेहिं । सागारि सयझियं वा पडिकुटा संखडे रुहा ॥ ३४२ ॥ व्याख्या - इह काचिदभ्याहृताशङ्कानिवृत्यर्थं किमपि गृहं प्रति प्रस्थिता, ततो निवृत्ता सति साधोः प्रतिलाभनायोपाश्रयं प्रविश्य | साधुसम्मुखमेवमाह - भगवन् ! प्रदेणकमिदममुकस्मिन् गृहे गतया लब्धं यद्वा कापि सङ्घड्यां, सम्मति वन्दनार्थमत्र प्रविष्टा, ततो यदि युष्माकमिदमुपकरोति तर्हि प्रतिगृह्यतामिति तकदानीतं ददाति यद्वा एवमाह' निजकानां स्वजनानामर्थाय प्रहेणकं मया स्वगृहात् नीतं परं तैनैप्सितं, ततः स्वजनगृहात् प्रतिनिवृत्ता वन्दनार्थमत्रागतेति, तवस्तद्ददाति । यदिवा मायया काचिदभ्याहृतमानीय सागारिकांशय्यातरीं यद्वा ' सइज्झितं ' बसतीप्रवेशनीं पूर्वगृहीतसङ्केतां यथा साधवः शृण्वन्ति तथा प्रवक्ति-गृहाणेदं प्रहेणकमिति, तया च मातृ For Parts On ~ 211~ उद्गमैषणायां ११ अ भ्याहृतदो पे धनावहादिदृष्टान्तः ॥१०४॥ waryra Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३४२|| दीप अनुक्रम [ ३७०] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२ / १ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [३४२ ] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [२...]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [ ३७०] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित स्थानतः प्रतिषिद्धा यथा त्वयाऽप्यमुकस्मिन् दिने मदीयं प्रहेणकं न जग्रहे ततोऽहमपि त्वदीयं न ग्रहीष्यामीत्येवं निषिद्धा, ततः साऽपि मातृस्थानतः किञ्चित्परूपं प्रत्युक्तवती, द्वितीययाऽपि तथैव भाषितं तत एवं परस्परं 'संखडे' कलहे सति सा प्रणकनेत्री ' रुष्टा ' रो पवती बन्दनार्थ वसती प्रविशति, ततोऽनन्तरवृत्तं वृत्तान्तं कथयित्वा तदानीं ददाति । उक्तं स्वग्रामाभ्याहृतमपि निशीथं, सम्प्रत्यनाचीर्ण निगमयन्नाचीर्णस्य भेदानाह एयं तु अणाइन्नं दुविपि य आहडं समक्खायं | आइन्नपि य दुविहं देसे तह देसदेसे अ ॥ ३४३ ॥ व्याख्या—' एतत् ' पूर्वोक्तमभ्याहृतं निशीथनोनिशीथभेदाद् यद्वा स्वग्रामपरग्रामभेदाद्विविधमप्याख्यातमनाचीर्णम् - अकलानीयं सम्प्रत्याचीर्ण वक्ष्ये, तदपि द्विविधं तद्यथा-देशे देशदेशे च । सम्प्रति देशस्य देशदेशस्य च स्वरूपमाह - हत्थसयं खलु देसो आरेणं होइ देसदेसो य । आइन्नंमि ( उ ) तिगिहा ते चिय उवओगपुच्वागा ॥ ३४४ ॥ व्याख्या -' हस्तशतं ' हस्तशतममितं क्षेत्रं देशः, हस्तशतादाराद्धस्तशतमध्ये इत्यर्थः, देशदेशः, तत्र हस्तशतप्रमाणे आचीर्णे यदि गृहाणि त्रीणि भवन्ति नाधिकानि ततः कल्पते, तान्यपि चेद्राण्युपयोगपूर्वकाणि भवन्ति, उपयोगस्तत्र दातुं शक्यत इत्यर्थः, ततः कल्पते नान्यथेति । सम्पति गृहत्रयव्यतिरेकेण हस्तशतादिसम्भवं तद्विषयं करण्याकल्प्यविधिं चाह - परिवेसणपतीए दूरपवेसो य घसालगिहे । हत्यस्या आइन्नं गहणं परओ उपडिकुटं ॥ ३४५ ॥ व्याख्या---परिवेष्यते - भोजनं दीयते येभ्यस्ते परिवेषणाः- भुञ्जानाः पुरुषास्तेषां पङ्किः-श्रेणिस्तस्यां तत्र ह्येकस्मिन पर्यन्ते Education Immation For Parts Only ~ 212~ Wor Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३७४] → “नियुक्ति: [३४५] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियुतेर्मलयगि- रीयावृत्तिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३४५| मभ्याह दीप अनुक्रम [३७६] साधुसङ्घाटको वते द्वितीये तु देयं तिष्ठति, तत्र च स्पृष्टास्पृष्टभयादिना गर्नु न शक्यते, एवनुत्तरयोरपि पदयोर्भावनीय, ततः परिवे- उद्गमैपणापणपतयां, यदा 'दूरप्रवेशे' प्रलम्बगमनमार्गे चिण्डिकादौ, यदिवा घड्यशालायहे हस्तशतादानीतस्य ग्रहणमाचीर्ण, कल्पत इत्यर्थः, या आचीपरतस्त्वानीतस्य ग्रहणं 'प्रतिकुष्ट' निराकृतं तीर्थकरादिभिः ।। सम्पत्यस्यैवाचीर्णस्य भेदान प्रदर्शयति| उक्कोस मज्झिम जहन्नगं तु-तिविहं तु होइ आइ । करपरियत्त जहन्न सयमुक्कोसं मझिमं सेसं ॥ ३४६ ॥ तं ११ व्याख्या-त्रिविधमाचीर्णमभ्याहृतं, तद्यथा-उत्कृष्टं मध्यमं जघन्य च, तत्र यदा ऊ8ोपविष्टा वा कथमपि सपोगेन मुष्टिष्टहीतेन मण्डकादिना, यदिवा स्वापत्यादिपरिवेषणार्थमोदनभृतया करोटिकयोत्पाटितया व्यवतिष्ठते, अप्रान्तरे च कथमपि साधुरागच्छति | भिक्षार्थ, तस्मै च यदि करस्यं ददाति तदा करपरिवर्तनमात्र जपन्यम पाहृतमाचीफ, हस्तशतादभ्याहृतमुत्कृष्ट, शेषं तु हस्तशतमध्यवर्ति मध्यमं । तदेवमुक्तमभ्याहृतद्वारम् , अधोद्भिनद्वारमाहपिहिउब्भिन्नकवाडे फासुय अपफासुए य बोहब्वे । अफासु पुढविमाई फासुय छगणाइदद्दरए ॥ ३४७ ॥ व्याख्या-उद्भिनं द्विधा, तयथा-पिहितोद्भिवं कपाटोदिन्नं च, तत्र यत् कुतुपादेः स्थगितं मुखं साधूनां तैलघृतादिदानार्थमनिय तैलादि साधुभ्यो दीयते तद्दीयमानं तैलादि पिहितोद्भिनं, पिहितमुद्भिन्नं यत्र तत् पिहितोद्भिन्नमिति पुत्पतेः, तथा यत् पिहितं कपाटमदिय-उद्घाट्य साधुभ्यो दीयते तत् कपाटोनिन, व्युत्पत्तिः प्राणिव, तत्र पिहितोदिने यत्पिधानं तहिया, तयथा-बासुकम-16॥१०॥ मासुकं च, सचेतनमचेतनं चेत्यर्थः, तत्र 'अमास' सचित्तपृथिव्यादिमयं, 'प्रामुक' गणादिदईरके, तत्र छगण-गोमया, आदिशब्दावरमादिपरिग्रहः, दरकः-मुखबन्धनं चत्राखण्डम् । अत्र पिदिनोद्भिने कपाटोदि ने च दोषानभिषित्सुराह SAREnaturintamanna अत्र एका प्रक्षेप-गाथा वर्तते. सा मया संपादित: 'आगमसुत्ताणि' मूलं वा सटीकं पुस्तके वर्तते ~213~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३७७] → "नियुक्ति: [३४८] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३४८|| उब्भिन्ने छक्काया दाणे कयविकए य अहिगरणं । ते चेव कवाडंभिवि सविसेप्ता जंतमाईस ॥ ३४८॥ व्याख्या-उद्भिने-पिहितोद्भिन्ने षट् काया:-उद्भेदकाले पट कायाः पृथिवीकायादयो विराध्यन्ते, ततः प्रथमतः साधुनिमित्त तपादिमुखे उन्निन्ने सति पुत्रादिभ्यस्तैलादिमदाने, तथा क्रयविक्रये-क्रये विक्रो चाधिकरणं-बापपत्तिरुपजायते, तथा एत एवं 18 पट्कायविराधनादयो दोषाः ‘कपाटेऽपि कपाटोद्भिन्नेऽपि सविशेषास्तु 'यत्रादिषु' यन्त्ररूपकपादादिषु द्रष्टव्याः, तत्र यान्यतीव सम्पुटमागतानि कुञ्चिकया चोद्घाट्यन्ते यानि च ददरकोपरि पिट्टणिकाया एकदेशवासिनि मालमवेशरूपद्वारे तानि यन्त्ररूपकपाटानि | आदिशब्दात्परिघादिग्रहः । सम्मत्येनामेव गायां व्याचिख्यासुः प्रथमतः 'उन्भिन्ने छकाया' इत्यस्यवं व्याख्यानयन गाथाद्वयमाह सञ्चित्तपुढविलित्तं लेलु सिलं वाऽवि दाउमोलित्तं । सच्चि सुपुढविलेयो चिरंपि उदगं अचिरलिते ॥ ३४९॥ एवं तु पुय्वलित्ते काया उल्लिंपणेऽवि ते चेव । तिम्मेउं उवलिंपइ जउमुई वावि तावेउं ॥ ३५ ॥ व्याख्या--इइ कुतुपादिमुखं दईरकोपरि कदाचित् 'लेजु' लेष्टुं शिलां वा-पाषाणावई प्रसिप्प जलाद्रीकृत सचित्तपृथिवीकायलितं भवति, तत्र सचित्तपृथिवीलेपः सचित्तः सन् चिरकालमप्यवतिष्ठते, उदकं तु 'अचिरलिमे ' अचिरकाल लिसे सम्भ-11 यति, किमुक्तं भवति?-पदि चिरकालसचित्तपृथिवीकापलिममुद्भिधते तहि सचितथिवी कायविनाशोऽचिरलिले नियमानेऽकायस्यापविनाशः, अचिरलिप्तमप्यत्रान्तर्मुहूर्त्तकालस्य मध्यवत्तिं द्रष्टव्यम्, अन्तर्मुहूर्वानन्तरं पृथिवीकापशस्त्रसम्मत उदकपचि तीभवति, ततो न तद्विराधनादोषः, उपलक्षणमेतत् , तेन प्रसादेरपि तदाश्रितस्य विनाशसम्मको द्रष्टव्यः । एवमू-अनेन प्रकारेण पूर्वलिो साध्वर्थ मुनिया दीप अनुक्रम [३७७] अथ 'उदिन्न' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते ~214~ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३७९] » "नियुक्ति: [३५०] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३५०|| दीप अनुक्रम [३७९] पिण्डनियु-1-माने दोषा उक्ताः, एत एवं पृथिवीकायादिविराधनादोषा उपलिप्यमानेऽपि कुतुपादिमुखालघृतादिकं साधये दवा शेषस्य रक्षणार्थ | उद्गमैषणातर्मळयगि भूयोऽपि कुतुपादिमुखे स्थग्यमाने द्रष्टव्याः, तथाहि-भूयोऽपि कुतुपादिमुखं सचित्तपृथिवीकायेन जलाद्रीकृतेनोपलिम्पति, ततः पृथिबी- यां १२ऊरीयाचिः कायविराधनाऽकायविराधना च, पृथिवीकायमध्ये च मुद्रादयः कीटिकादयश्च सम्भवन्ति ततस्तेषामपि विराधना | तथा कोऽप्यभिज्ञानाद्भिनदोषः जतु तापयित्वा कुतुपादिमुखस्योपरि जमुद्रां ददाति, तदा तेजःकायविराधनाऽपि, यत्रानिस्तत्र वायुरिति वायुकायविराधना च, ततः ॥१०६॥ पिहितोदिन्ने षदकायविराधना । अमुमेवार्थ स्पष्टं भावयतिजह चेव पुवलित्ते काया दाउं पुणोऽवि तह चेव । उवलिप्पते काया मुइअंगाई नवरि छठे ॥ ३५१ ॥ व्याख्या-यथा चैव पूर्वलिले 'कायाः पृथिवीकायादयो विराध्यन्ते तथा साधुभ्यस्तैलादिकं दत्त्वा भूयोपि कुतुपादिमुखे उपलिप्यमाने काया विराध्यन्ते, नवरं षष्ठे काये तत्पकायरूपे विराध्यमाना जन्तवः पृथिव्याश्रिताः ' मुइंगादयः' पिपीलिकाकुन्थ्वादयो द्रष्टव्याः । सम्पति 'दाणे कयविकए य' इत्यवयवं व्याचिख्यामुराहपररस तं देइ स एव गेहे, तेल्लं व लोणं व घयं गुलं वा । उग्घाडिए तंमि करे अवस्स, सविक्कयं तेण किणाइ अन्न।।३५२॥ व्याख्या-तस्मिन् कुतुषादिमुखे साध्वर्थमुद्घाटिते सति 'परस्मै' याचकग्राहकादिकाय यद्वा-स्वकीय एव गृहे पुत्रादिभ्यस्तैलं ॥१०॥ लवणं घृतं गुडं वा ददाति, यदिवा स करोत्यवश्यं विक्रय, तेन च मूल्येनान्यत् क्रीणाति, एतच्च सर्व साध्वर्थमुद्घाटिते सति प्रवर्तते इति साधोः प्रवृत्तिदोषः । तथा चैतदे]व ' अहिंगरणम्' इत्यवयषं व्याचिख्यासुराह ~215~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३८२] .→ "नियुक्ति: [३५३] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३५३|| दाणे कयविकए वा होई अहिंगरणमजयभावरस । निवयंति जे य तहियं जीवा मुइयंगमूसाई ॥३५३ ॥ व्याख्या-दाने क्रये विक्रये वाऽनन्तरोक्तस्वरूपे प्रवर्तमाने साधोः 'अयतभावस्य ' अयतोऽशुद्धाहारापरिहारकत्वेन जीवरक्षणबारहितः भावः-अध्यवसायो यस्य स तथा तस्य ' अधिकरण ' पापप्रवृत्तिरुपजायते, तथा तस्मिन् कुनुपादिमुखे उद्घाटिते ये जीवा मुइ-12 हमपकादयो निपतन्ति निपत्य च विनाशमाविशन्ति तदप्यधिकरणं साधोरेव । सम्मति से पेव कवाडंमि' इत्यवयवं व्पाचिख्यामुराहजहेव कुंभाइसु पुब्बलित्ते, उब्भिज्जमाणे य हवंति काया। ओलिंपमाणेवि तहा तहेव, काया कवाडंमि विभासियव्वा ३५० व्याख्या--यथैव 'कुम्भादौ' घटादौ, आदिशब्दात्कुतुपादिपरिग्रहः, पूर्वलिले उनियमाने 'कायाः पृथिवीकायादयो विराध्यमाना भवन्ति, उपलक्षणमेतत् , तेन दानक्रयविक्रयाधिकरणप्रवृत्तिश्च भवति, तथा कपाटेऽपि पूर्वदत्ते साध्वर्थमुद्घाटयमाने वेदितव्याः, तथाहि-यदा कपाटात् माकथमपि पृथिवीकायो जलभृतः करको वा वीजपूरादिकं वा मुक्तं भवति तदा तस्मिन्नुद्घाटयमाने कपाटे तदिराधना भवति, जलभृते करकादौ तु भिद्यमाने [वा] पानीयं प्रसपेत् प्रत्यासनचुल्यादावपि प्रविशेत, तथा च सत्यग्निविराधना, यत्र चाग्निस्तत्र वायुरिति वायुविराधना च, मूहकादिविवरप्रविष्टकोटिकागृहगोधिकादिसत्चविनाशे त्रसकायविराधना चेति, दानक्रयविक्रयाधिकरणमत्तिभावना च पूर्ववत्कर्तव्या । 'सम्पति सविसेसा' इत्यवयवं व्याचिख्यासुराह घरकोइलसंचारा आवत्तण पीढगाइ हेट्रवरि । नितेवि एयअंतो डिभाईपेल्छणे दोसा ॥ ३५५॥ व्याख्या कपाटस्य ' सञ्चारात्' सञ्चलनागृहगोधिका, उपलक्षणमेतत् कीटिकोन्दुरादयश्च विराध्यन्ते, तथा मासादस्याधो भूमि दीप अनुक्रम [३८२] ~ 216~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३८४] → "नियुक्ति: [३५५] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३५५| पिण्डनियु-| रूपा पीठिकेव पीठिका-चयिका तबाध उपरितले च कपाटकदेशस्यावर्त्तने तदाश्रिताः कुन्थुपिपीलिकादयो विनाशमश्नुवते, तथोद्याव्य || उद्रमैषणातेर्मळयगि-1 कपाटे पश्चान्मुख नीयमानेऽन्तःस्थिते(रिति) अन्तःस्थितस्य डिम्भादेः प्रेरणे दोषा:-शिरःस्फोटनादयो भवन्ति । सम्पत्यपवादमाह- या १२ उरीयात्तिः घेप्पइ अकुंचियागंमि कवाडे पइदिणे परिवहते । अजऊमुदिय गंठी परिभुज्जइ दद्दरो जो य ॥ ३५६ ॥ ॥१०॥ ___ व्याख्या-'अकुञ्चिकाके ' कुचिकारहिते, कुञ्चिकाविवररहित इत्यर्थः, तत्र हि किल पृष्ठभागे उलालको न भवति वेन न घर्ष माणद्वारेण सत्चविराधना, यदा-' अकूइयागे'त्ति पाठः, तत्र 'अकूजिकाके कूजिकारहिते अक्रेङ्कारारावे, किमुक्तं भवति ?-यदुधाव्यमानं | कपाट क्रेडारवं न करोति, तद्धि पश्वास्क्रियमाणमूर्ध्वमस्तिर्यग् घर्षत प्रभूतसत्त्वव्यापादनं करोति तेन तर्जनं, तस्मिन्नपि किंविशिष्टे :इत्याह-प्रतिदिनं ' प्रतिदिवस-निरन्तरं 'प्रतिवहति' उद्घाध्यमाने दीयमाने चेत्यर्थः, तस्मिन् पायो न गृहगोधिकादिसत्त्वाश्रयस-| म्भवः, चिरकालमवस्थानाभावात् । इत्थंभूते कपाटे साध्वर्थमप्युद्घाटिते यद्ददाति गृहस्था तदृह्यते, स्थविरकल्पिकानामाचीर्णमेतत, वथा यश्च । दर्दरकः ' कुतुपादीनां मुखबन्धरूपः प्रतिदिवसं परिभुज्यते-बध्यते छोड्यते चेत्यर्थः। तत्र यदि जमुद्राव्यतिरेकेण केवलवस्त्रमात्रग्र|न्थिीयेत नापि च सचित्तपृथिवीकायादिलेपः तहि तस्मिन् साध्वर्थमुद्भिनेऽपि यहीयते तत्साधुभिगुह्यते इति उक्तमुद्भिनद्वारम् , अथ मालापहनद्वारमाह ॥१०७॥ मालोहडंपि दुविहं जहन्नमुक्कोसगं च बोद्धव्वं । अग्गतलेहि जहन्नं तबिवरीयं तु उक्कोसं ॥ ३५७ ॥ व्याख्या-मालापहृतं द्विविध, तयथा-जघन्यमुत्कष्टं च, तत्र यद्धन्यस्ताभ्यां पादयोस्प्रभागाभ्यां फलकसाभ्यां पाणिभ्यां | दीप अनुक्रम [३८४] अथ 'मालापहत' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते ~217~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३५७|| दीप अनुक्रम [३८६] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्ति: [३५७] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [ ३...]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [ ३८६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित चोत्पाटिताभ्यामूर्ध्वविलगितोचसिककादिस्थितं दात्रया दृष्टेगोचरं यदीयते तज्जन्यं माखापहृतं, 'तद्विपरीतं ' जयम्यविपरीतं बृदभिःथेण्यादिकमारुह्य प्रासादोपरितलादानीय दीयते तदुत्कृष्टं मालापहृतं । सम्मत्यनयोरेव दृष्टान्तौ सदोषौ वक्तुकाम आह--- भिक्खू जहन्नगंमी गेरुय उक्कोसगंमि दिहंतो । अहिडसणमालपडणे य एवमाई भत्रे दोस्सा ॥ ३५८ ॥ व्याख्या - जघन्ये मालापहृते भिक्षुर्वन्दको दृष्टान्तः, उत्कृष्टे 'गेरुका' कापिलः, तत्र जघन्ये मालापहृते ' अहिदशनं ' सर्पदशनम्, उत्कृष्टे मालात्पतनमित्येवमादयो दोषा अभूवन् ॥ तत्र मिष्टान्तं गाथाद्वयेनाह- मालाभिमुहं दट्टण अगारिं निग्गओ तओ साहू । तच्चन्निय आगमणं पुच्छा य अदिन्नदाणन्ति ॥ ३५९ ॥ माभि कुडे मोयग सुगंध अहि पविसणं करे डक्का | अन्नदिण साहु आगम निद्दय कहणा य संबोही ॥ ३६० ॥ व्याख्या - जयन्तपुरं नाम नगरं तत्र यक्षदिनो नाम गृहपतिः, तस्य भार्या वसुमती, अन्यदा च तदृद्दे धर्मरुचिनीम संयतो भिक्षार्थ मविवेश, तं च नियमितेन्द्रियम र तद्विष्टमेषणासमितमवलोक्य समुत्पन्नविशिष्टदानपरिणामेन यसदिनेन वसुमती सादरं बभणे, यथा देहि साधवेऽस्मै अमुकान मोदकानिति, ते च मोदका ऊर्ध्वं विलगितोच्चसिककमध्ये व्यवस्थिते घटेऽवतिष्ठन्ते ततः सा तद्रहणार्थमुत्थिता, साघुश्च तां मालापहृतां भिक्षामवबुध्यमानस्तद् हान्निर्जगाम । ततस्तरका तस्मिन्नेव गृहे भिक्षायै भिक्षुरागमत् पप्रच्छ च तं यक्षदिनो यथा किं [भोः?[ समं] तेन सिक्कादानीय दीपमाना भिक्षा न जगृहे, ? ततः स प्रवचनमात्सयोंदेवमुवाच - अदत्त दाना अमी खलु वराकास्ततो न लभन्ते पूर्व कर्मविनियोगतो युष्मादृशामीश्वराणां गृहेषु स्निग्धमधुरादिकं भोजनं भोक्तुं, किन्तु तैर्दुर्गतगृहेष्वन्तमान्तादिकं लचा भोक्तव्यमिति ततो Education International For Parts Only ~ 218~ www.aor Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३६०|| दीप अनुक्रम [ ३८९] मूलं [ ३८९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्युतेर्मलयगि रीयावृत्तिः ||१०८|| “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [३६० ] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [ ३...]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः द्विन्नदोषे यक्षदत्तहष्टान्तः यक्ष दिनेन तस्मायपि तानेव मोदकान् वसुमती दापिता, सा तस्मिन्नेव सिक्कविलगिते घंटे मोदकानादातुमचालीत्, घटे च महोत्समद्रव्य- उद्रमपणानिष्पन्नमोदकगन्धायाणवशतः कथमपि भुजङ्गमः समागतोऽवतिष्ठते, वसुमती चोत्पाव्य पाणी पादाग्रतलभरेण यावन्मोदकपटे क- ० यां १२ उकेलिपडवोपमं करं मक्षिपति तावद्भुजङ्गमः कामुक इव सादरं तं प्रत्यगृह्णात् ततो हा ! दष्टा दष्टेति पूत्कारं कुर्वती भूमौ निपपात, ददृशे च यक्षदिनेन फूत्कारं कुर्वन् दन्दशूकः, ततस्तत्क्षणादेव समाहूताः परममन्त्रवादिनः समानीतानि च नानाविधानि भेषजानि ततोऽद्याप्यार त्रुटितमिति मन्त्रौषधमभावतः सा नीरुम्बभूव, समाजगाम च भूयोऽप्यपरस्मिन् दिने स एव धर्मरुचिः संयतो भिक्षायै, उपालेभे च * यक्षदिनेन यथा दयामधानो धर्मस्तत्किं भोः साधो ! सुविदित तत्र तदानीं सर्पं पश्यतोऽयुपेक्षा प्रावर्त्तिष्ट ?, स प्राह- नाहमद्राक्षं तदानीं दन्दशूकं, केवलमयमस्माकं सार्वज्ञ उपदेशो यथा मा ग्राहिषुः साधवो ! मालापहृतं भिक्षामिति, ततोऽहं प्रतिनिवृत्तः, एवं चोक्ते | यक्षदिन्नः स्वचेतसि चिन्तयामास-अहो ! निरपायो भगवता निश्पादेशि भिक्षूणां धर्मः, य एव चेत्थं निरपायं धर्ममुपदिशति स्म स एव सर्वज्ञो न खलु सुधाभ्यवहारमन्तरेण सुधोद्वार उज्जृम्भते, एवं न यावत्ज्ञेयव्यापिज्ञानमन्तरेणेत्थं सकलकालमनपायिनो धर्मस्यो - * पदेशप्रवृत्तिः, बुद्धिप्रागल्भ्ये हि वचसि प्रागल्भ्यमुपालम्भि तस्मात्स एव सर्वज्ञ इति इत्यं च विचिन्त्य भक्तिवशोच्छलितपुलकजालोपशोभिततनुः सादरं धर्मरुचिश्रमणमवन्दत, वन्दित्वा च जिनप्रणीतं धर्म पप्रच्छ, स च कथयामास सङ्क्षेपतः, ततो जिनप्रणीतवाक्यामृतर● सास्वादतस्तेषामवजगाम सकलमपि मायासूनवीयादिसम्पादितकुवासनामयं गरलं, पश्यति च यथावस्थितानि हेयोपादेयानि वस्तूनि, प्रमोदते च जात्यन्ध इव चक्षुर्लाभे सविशेषतरं ततो मध्याह्ने विशेषतो गुरुसमीपे समागत्य धर्मं श्रुत्वा जातसंवेगो दम्पती अपि प्रवज्यां प्रपेदाते। सूत्रं सुगमं । सम्मत्यस्मिन्नेव जघन्ये माला पहतेऽन्यानपि दोषानभिधित्सुराह Eucation Internationa For Pale Only ~ 219~ ॥१०८॥ yor Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३९०] → “नियुक्ति: [३६१] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३६१|| आसंदिपीढमंचकजंतोडखल पडत उभयवहे । वोच्छेय पओसाई उड्डाहमनाणिवाओ य॥ ३१ ॥ व्याख्या-आसंदी' मश्चिका 'पी' गोमयादिमयमासनं 'मश्चक: ' प्रतीत: 'यन्त्र' बीमादिदलनोपकरणम्, 'उड्खलन प्रतीतः, एतेष्वासा, उपलक्षणमेतत् , पाणी चोत्पाठ्य ऊध्वंचिलगितसिककादिस्थितमोदकादिग्रहणे कथमपि यदि मश्चकादिहसनतो दात्री निपतति तर्हि 'उभयवधः' दायाः पृथिव्यादिकायादीनां च विनाशः । तत्र दाच्या हस्तादिभङ्गतो यदिवा विसंस्थुलपतनतः कथमध्यस्थानाभिधातसम्भवात्माणन्पपरोपणमपि, तया च निपतन्त्या भूम्याद्याश्रितानां पृथिवीकायादीनामपि विनाशः, यथैतस्मै भिक्षामई ददती । प्रागपि महत्यनर्थे पतितेति न कोऽप्यस्मै दास्यतीति तगृहे तद्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदः, तथा मुण्डेनानेन परमार्थतः पातितेति कस्यापि गृहस्वामिनः साधुविषयः प्रदेषोऽपि भवति, आदिशब्दात्ताडनादिपरिग्रहः, प्रद्वेषदग्धो हि कोऽपि कोपान्धतया ताडनमपि कुर्यान, कोऽपि निर्भसन, कोऽपि वधमपि, तथा च प्रवचनस्योड्डाहः-खिसा यथा-साध्वर्थमेषा भिक्षामाहरन्ती परामुरभूत, तस्मानामी साधवः कल्याणका-18 रिणः, कोके चाज्ञानवादः-एवंविधमपि दाभ्या अनर्थमेते न जानन्तीत्येवं मूर्खतापवादः, तस्माज्जघन्यमपि मालापहतमवश्यं परिहर्तव्यं ॥ हातदेवमुक्तो जघन्यस्य मालापहतस्य सदोषो दृष्टान्तोऽन्येऽपि च दोपाः, सम्पत्युत्कृष्टस्य तानाह एमेव य उक्कोसे वारणनिस्सेणि गुव्विणीपडणं । गम्भित्थिकुच्छिफोडण पुरओ मरणं कहण बोही ॥ ३६२ ॥ ___ व्याख्या-जयन्तीनाम पुरी, सत्र सुरदत्तो नाम गृहपतिः, तस्य भार्या वसुन्धरा, अन्यदा च तगृहे गुणचन्द्राभिधः साधुभिक्षार्थ माविशत, तं च प्रशान्तमनसमिहपरलोकनि:स्पृहं मूर्त धर्ममिव समागच्छन्तमवेक्ष्य सुरदचो बमुन्धरामभिहितवान-यथा देदि साधवे दीप अनुक्रम [३९०] ~220~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३९१] .→ "नियुक्ति: [३६२] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: रीयावृत्तिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३६१|| दृष्टान्तः दीप अनुक्रम [३९१] पिण्डनियुतर्मलयगि ||मालादानीय मोदकानिति, सा च तदानीमन्तर्वस्नी, परं पत्पुरादेशं देवताशेषाभिव प्रतीच्छन्ती मोदकानयनाय मालाभिमुखां निश्रेणिमारो- १३ मालाहुमयतिष्ट, साधुश्च न कल्पते मालापहृता भिक्षा संयतानामिति तां विनिवार्य तगृहानिःससार, ततस्तत्क्षण एव कोऽपि कापिलो भिक्षार्थ पहृतदोषे तस्मिन्नेव गृहे माविशत, सुरदतेन च स पृष्टो-यथा भोः ! कि संयतेन मालादानीयमाना भिक्षा न प्रतिजगृहे, ततः स मात्सर्यवशाद- बसुन्धरा॥१०॥ सम्बद्धं किमप्यमापिष्ट, ततस्तस्मायपि सुरदत्तो वसुन्धरया मोदकान् दापितवान, बसुन्धरा च मोदकानयनाथ निःश्रेणिमारोहन्ती कथ मपि पादहसनतो विसंस्थुलाङ्गी न्यपतत्, अधश्च व्रीहिदलनयन्त्रकमासीत्, ततस्तत्कीलकस्तस्या निपतन्त्याः कुक्षि द्विधा पाटयामास निर्गतश्च परिस्फुरस्ततो गर्भः, कीलकविदारिततया महापीडाऽतिशयभावतः पश्यतामेव सकललोकानां सदुःखं स्पन्दमानः | पञ्चत्वमगमत, तथा वसुन्धरा प, तत उच्छलितः पापीयसः कापिलस्यावर्णवादः, अन्यदा च भूयोऽपि तस्मिन्नेव गृहे स एव साधुभिक्षार्थमाजगाम, सुरदाचश्च तममाक्षीत-भगवन् ! यथा यूयं ज्ञानचक्षुषा दाव्या विनाशमवेक्षमाणा भिक्षा परिहतवन्तः तथाऽस्माकमपि किं नाचीकथत?, येन तदानीं सा मार्क नारोहेव, ततः साधुरवोचत्-नाहं किमपि जाने, केवलमयमस्माकं सार्वज्ञ उपदेशा-यथा न कल्पते । साधूनां मालापहृता भिक्षेति, ततः स पूर्ववदचिन्तयद्धर्ममश्रौषीत प्रवज्यां चाग्रहीदिति, सूत्र सुगम, नवरम् । एवमेव जघन्यमालापहते हाइवोत्कोऽपि मालापहते 'पडन्त उभयवहो' इत्यादयो दोषा वक्तव्याः । तत्र दाच्या वधे उदाहरणं 'वारणनिस्सेणि' इत्यादि । सम्म ॥१०९|| ति मालापहृतमेव भङ्गयन्तरेणाह| उड्महे तिरियपि य अहवा मालोहडं भवे तिविहं । उद्रे य महोयरणं भणियं कुंभाइस उभयं ॥ ३६३ ॥ व्याख्या--अथवा मालापहृतं त्रिविधं, तयथा-ऊर्ध्वमस्तिर्यक् च, तत्र ऊर्ध्वमेतदनन्तरोक्तमूर्ध्वविलगितसिककादिगतम् , अधो ~221~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३६३|| दीप अनुक्रम [३९२] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [३६३ ] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [ ३...]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [ ३९२ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित भूमिगृहादाववतरणं-प्रवेशः, तत्राघोऽवतरणेन यद्दीयते तदप्युपचारादयोऽवतरणं, तथा 'कुंभादिषु ' कुम्भोष्टिकाप्रभृतिषु यद्वर्त्तते देयं तदुभयम् - ऊर्ध्वाऽयोमालापहतस्वभावं भणितं तीर्थकरादिभिः तथाहि - बृहत्तरो वैस्तर कुम्भादिमध्यव्यवस्थितस्य देयस्य ग्रहणाय येन दात्री पास्पाटनादि करोति तेनोर्ध्वमालापहृतं येन त्वधोमुखं बाहुमतिप्रभूतं व्यापारयति तेनाधोमालापहतं, दोषा अत्रापि पूर्वकद्भावनीयाः । अत्रैवापवादमाह- दद्दर सिल सोत्राणे पुव्वारूढे अणुधमुक्खित्ते । मालोहडं न होई सेसं मालोहडं होइ ॥ ३६४ ॥ व्याख्या- 'दईर: ' निरन्तर काष्ठफलकमयो निःश्रेणिविशेषः 'शिला' प्रतीता 'सोपानानि ' इष्टकामयान्यवतरणानि, एतान्यारहा यद्ददाति तन्मालापहृतं न भवति, केवलं साधुरप्येपणाशुद्धिनिमित्तं प्रासादस्योपरि दर्दरादिना चटति, अपवादेन भूस्थोऽप्यानीतं गृह्णाति तथा पूर्वारूढः साध्वागमनादग्रतः स्वयोगेन निःश्रेण्यादिना प्रासादोपरि घटितो दाता यद्ददाति साधुपात्र के, कथंभूते ? इत्याहअनुयोत्क्षिप्ते, किमुक्तं भवति ? - भूमिस्थः संयतो दृष्टेरधः पात्रं धारयन् यावत्प्रमाणे उच्चैःस्थाने स्थितो दाता पात्रे हस्तं प्रक्षिप्य ददाति तावत्प्रमाणे पूर्वारूढो यद्ददाति तन्मालापहृतं न भवति, शेषं तु सर्वमप्यनन्तरोक्तं मालापहृतमवसेयम् । इद्दानुञ्चोत्क्षिप्तोयोत्क्षिप्तयोः स्वरूपमाह - तिरियायय उज्जुगण गिन्हई जं करेण पासंतो । एयमणुच्चुक्खित्तं उच्चुक्खित्तं भत्रे सेसं ॥ ३६५ ॥ व्याख्या - तिर्यग् आयतेन-दीर्घेण 'ऋजुकेन' सरलेन ' करेण' हस्तेन पात्रं दृष्ट्या निभालयन् यद्गृह्णाति तदित्थंभूतं पात्रमनुधोत्क्षिप्तमुच्यते, शेषं पुनरुवोत्क्षिप्तं, इयपत्र भावना - यद्दृष्टेरुपरि बाहुं प्रसार्य देयवस्तुग्रहणाय पात्रं धियते तत्तथा त्रियमाणमुच्चात्क्षिप्तमिति, Education nationa For Parks Use Only ~ 222~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३९४] → "नियुक्ति: [३६५] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु- केमेळयनि- रीयावृत्तिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३६५|| ॥११॥ एतेन चोर्ध्वाधोमालापहृतव्याख्यानेन तिर्यगपि मालापहृतं व्याख्यातं द्रष्टव्यं, तत्राप्ययं कल्प्याकल्प्यविधिः-यत्पादस्याधो मञ्चिकादि । १४आच्छे दत्त्वा गवाक्षादौ स्थितं दानाय बाई प्रसार्य महता कष्टेन समाकर्षति तन्न कल्पते, या भूमी स्वभावस्था गवाक्षादौ स्थितमयत्नेन । किश्चिदाहुं मसार्य साधोर्दानाय गृह्णाति तन्मालापहृतं न भवति, अतस्तस्कल्पते । तदेवमुक्तं मालापहृतम् , अथाऽऽच्छेधद्वारमाह यभेदाः | अच्छिज्जंपि य तिविहं पभू य सामी य तेणए चेव । अच्छिज्जं पडिकुटु समणाण न कप्पए घेत्तुं ॥ ३६६ ॥ | व्याख्या-आच्छेद्यमपि प्रागुक्तशब्दार्थ 'त्रिविध' त्रिप्रकार, तद्यथा-प्रभौ' प्रभुविषयं प्रभुरूपकाश्रितमित्यर्थः, एवं 'स्वामिनि स्वामिविषयं , स्तेनकविषयं च । एतच त्रिविधमध्याच्छेयं तीर्थकरगणधरैः 'प्रतिकुष्ट' निराकृतम्, अत: श्रमणानां || नाहीतुं न कल्पते । तत्र प्रथमतः प्रभुविषयं भावयति| गोवालए य भयएऽखरए पुत्ते य धूय सुहाए । अचियत्त संखडाई केइ पओसं जहा गोवो ॥ ३६७ ॥ व्याख्या-प्रभुकर्तृकमाच्छेचं 'गोपालके' गोपालविषय, तथा 'भृतकः' कर्मकरस्तद्विषयम् , अक्षरको-यक्षरकाभिधानो दास इत्यर्थः, तद्विषय, पुत्रविषयं दुहितृविषयं स्नुषाविषयम् , उपकक्षणमेतत् , भार्यादिविषयं च । अत्रैव दोपमाह-अचियत्त' इत्यादि, 'अचियत्तम् ' अमीतिः 'सङ्कटं ' कलह, आदिशब्दादात्मघातादिपरिग्रहः, केचित्पुनः प्रद्वेषमपि साधी गच्छन्ति, यथा 'गोपः' गोपा-II॥११॥ लकः । एनमेव दृष्टान्तं गाथाद्वयेन भावयति गोवपओ अच्छेत्तुं दिन्नं तु जइस्स भइदिणे पहुणा । पयमाणूणं दुहुँ खिसइ भोई रुवे चेडा ॥ ३६८ ॥ दीप अनुक्रम [३९४] अथ 'आच्छेध्य' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते ~223~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३६९|| दीप अनुक्रम [३९८] मूलं [ ३९८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [३६९ ] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [ ३...]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः पडियरणपओसेणं भावं नाउं जइस्स आलावो । तन्निब्बंधा गहियं हंदि स मुक्कोसि मा बीयं ॥ ३६९ ॥ व्याख्या --- वसन्तपुरं नाम नगरं तत्र जिनदासो नाम श्रावकः, तस्य भार्या रुक्मिणी, जिनदासस्य गृहे वत्सराजो नाम गोपालः, स चाष्टमे अष्टमे दिने सर्वासामपि गोमहिषीणां दुग्धमादत्ते, तथैव तस्य प्रथमतो धृतत्वात्, अन्यदा च साधुसङ्कटको मिक्षायै तत्रागमत्, इतश्च तस्मिन् दिने गोपालस्य सर्वदुग्धादानवारकः, ततस्तेन सर्वा अपि गोमद्दिष्यो दुग्धा महती पारिदुग्धस्यापूर्णा, जिनदासश्व जिनवचनभावितान्तःकरणतया साधुसङ्घाटकं परमपात्रभूतमायातमत्रलोक्य भक्तितो यथेच्छं भक्तपानादिकं तस्मै दत्तवान्, ततो 'दुग्धान्तानि भोजनानी'ति परिभाव्य भक्तितरलितमनस्कतया गोपालस्य दुग्धं बलादाच्छिय कतिपयं ददौ ततः स गोपालो मनसि साधोरुपरि मनाक प्रद्वेषं ययौं, परं प्रभूभयान्न किमपि वक्तुमीशितः, ततस्तत्पयोभाजनं कविषयन्यूनं स्वगृहे नीतवान्, तच्च तथाभूतं न्यून२ मवलोक्य भार्या सरोषं पृष्टवती, किमिति न्यूनमिदं पयोभाजनम् ? इति, ततो गोपेन यथावस्थिते कथिते साऽपि साधुमाक्रोष्टुं प्रावर्त्तत, ३. चेटरूपाणि च दुग्धं स्तोकमवलोक्य किमस्माकं भविष्यतीति रोदितुं महत्तानि तत इत्थं सकलमपि स्वकुटुम्बमा कुलमवेत्य स गोपः सञ्जातसाधुविषयमहाकोपः साधुं व्यापादयितुं चलितवान् दृष्ट्ट भिक्षार्थं परिभ्रमन् कापि प्रदेशे साधुः, ततः प्रधावितो लकुटमुत्पाट्य * साधोः पृष्ठतः, साधुनापि कथमपि पञ्चादवलोकने तं गोपं तथाभूतं कोपारुणनयनमालोक्य परिभावयामासे, नूनमेतस्य दुग्धं बलादा*च्छिय जिनदासेन मह्यं ददे तेन मम मारणार्थमिव कुपित एष समागच्छनुपलक्ष्यते, ततः साधुर्विशेषतः प्रसन्नवदनो भूत्वा तस्यैव सम्मुखं प्रत्यागन्तुं प्रावर्त्तत, वभाण च यथा-भो भोः क्षीरगृहनियुक्तक ! तव प्रभुनिर्बन्धेन मया तदानीं दुग्धमात्तं सम्पति तु गृहाण त्वमात्मीयं दुग्धमिति, एवं चोक्ते सत्युपशान्तकोपः साधुं प्रति स्वस्वभावं प्रकटितवान् यथा भोः साधो ! सुविहित ! तव मारणार्थमह Education Intention For Park Lise Only ~ 224~ 4444444 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [३९८] → "नियुक्ति: [३६९] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३६९|| पिण्डनियु मिदानीमागतः, परं सम्पति त्वद्वचनामृतपरिसेकत उपशशाम मे सर्वः कोपानलः, ततो गृहाण त्वमेवेदं दुग्धं, मुक्तश्चाक्षतपाणो मया, परं भूयो । १४आच्छेकेमेकपगि ऽप्येवमाच्छेय न ग्रहीतव्यमिति निवृत्तो गोपः, स्वस्थानं च गतः साधुरिति । सूत्रं सुगम, नवरं 'पयभाणूणं 'ति विभक्तिलोपाल्पयो- ये गोपाळ रीयात्तिः भाजनमूनं दृष्ट्वा ‘भोई' इति भोग्या-भार्या इत्यर्थः, 'रोवे 'नि रुदन्ति, 'इंदी ति आमन्त्रणे, तन्निर्बन्धात त्वदीयजिनदासा- दृष्टान्तः ॥११॥ ख्यमभुनिबन्धाद्गृहीतं, ततः स प्राइ-मुक्तोऽसि सम्मति मा द्वितीयं वारमेवं गृहीथाः । सम्पति गोपालविषय एव 'अचियत्तसंखडाई इत्येतद्वयाचिख्यासुराह नानिबिटु लब्भइ दासीवि न भुज्जए रिते भत्ता । दोन्नेगयरपओसं जं काही अंतरायं च ॥३७०॥ व्याख्या-प्रभुणा बलादाच्छिद्यमाने दुग्धे कोऽपि गोपो रुष्टः प्रभोः सम्मुखमेवमपि ब्रुवाणः सम्भाव्यते, यथा किमिति मदीयं || दुग्धं बलादागृहासि!, न खलु ' अनिर्दष्टम् ' अनुपार्जितमिह किमपि लभ्यते, ततो मया स्वशरीरायासबलेनेदं दुग्धमुपार्जितम् , अतः || कथमत्र प्रभवसि!, न हि दास्यप्यास्तामुत्तमवेश्यादिकमित्यपिशब्दार्थः, 'भक्ताहते' भक्तपानमते, भरणपोषणमृते इत्यर्थः, 'मुज्यते' भोक्तुं लभ्यते, ततो मदीयं भोजनमिदम् , अतो न तेत्र प्रभुत्वावकाशः, एवं चोक्ते सति कदाचिद्वयोरपि प्रभुगोपालकयोः परस्पर-| मेकतरस्य चा द्वितीयस्योपरि प्रदेषो वर्द्धते, मद्वेषे च वर्द्धमाने यत् करिष्यति धनहरणमारणादिकं तत्स्वयमेवाऽऽक्छेद्यादाने दोषत्वेन | विज्ञेयं । तथा यचान्तरायं गोपालकस्य तत्कुटुम्बस्य च तदपि दोषत्वेन विज्ञेयमिति । तदेवं गोवालपइ' इति व्याख्यातम् । एतदनुसाशारण च भूतकादावपि यथायोगमप्रीत्यादिकं सम्भावनीयमिति । सम्पति स्वामिविषयमाच्छेयं विभावपिपुराह सामी चारभडा वा संजय दट्टण तेसि अट्ठाए । कलुणाणं अच्छेज साहूण न कप्पए घेत्तुं ॥ ३७१ ॥ दीप अनुक्रम [३९८] Fone ~ 225~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३७१|| दीप अनुक्रम [ ४०० ] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [३७१] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [ ३...]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [४०० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित व्याख्या - इह स्वगृहमात्र नायकः प्रभुः ग्रामादिनायकः स्वामी चारभय वा स्वामिभटा वा तेऽपि स्वामिग्रहणेन गृह्यन्ते । संयतान् दृष्ट्वा तेषां संयतानामर्थाय 'करुणानां कृपास्थानानां दरिद्रकौटुम्बिकादीनां सम्बन्ध्याऽऽच्छिद्य यद्ददाति तत्साधूनां न कल्पते । एतदेव व्यक्तं भावयति आहारोव हिभाई जइअडाए उ कोइ अच्छिदे । संखडि असंखडीए तं गिण्हंते इमे दोसा ॥ ३७२ ॥ व्याख्या - यदि कोऽपि स्वामी भटो वा यतीनामर्थाय केषाञ्चित्सम्बन्ध्याहारोपध्यादिकं 'सङ्घच्या' कलहकरणेन 'असङ्खय्या' कळहाभावेन, कोऽपि हि तत्सम्बन्धिनि बलादाच्छियमाने कलहं करोति कोऽपि स्वामिभयादिना न किमपि वक्ति, तत उक्त सङ्घच्या सङ्घड्या बेति, बलादाच्छिय यतिभ्यो ददाति तद्यतीनां न कल्पते । यतस्तद्गृहति यत्ताविमे दोषाः ॥ तानेवाह- अचियत्तमंतरायं तेनाहड एगऽणेगवोच्छेओ । निच्छुभणाइदोसा तस्स अलंभे य जं पात्रे ॥ ३७३ ॥ व्याख्या— येषां सत्कमाच्छिय बलात् स्वामिना दीयते तेषाम् 'अचियत्तम्' अप्रीतिरुपजायते, तथा तेषाम् 'अन्तरायं ' दीयमानवस्तुपरिभोगहानिः कृता भवति, तथेत्थं साधूनामाददानानां स्तेनाहृतं भवति - अदचादानदोषो भवति, दीयमानवस्तुनायकेनाननुज्ञातत्वात् तथा येषां सम्बन्धि स्वामिना बलादाच्छिय दीयते ते कदाचित्मद्विष्टाः सन्तोऽन्यदाऽपि तस्यैकस्य साधोर्भरूपानव्यवच्छेदं कुर्वन्ति तथाऽनेन सम्प्रति बलादस्माकं भक्तादि गृहीतं ततः कालान्तरेऽप्यस्मै न किमपि दातव्यमस्माभिरिति, अथवा सामान्यतः प्रद्वेषमुपयान्ति यथाऽनेन संयतेन बलादस्माकं भक्तादि गृह्यते तस्मात्कालान्तरेण न कस्मायपि संयताय दातव्यमित्यनेकसाधूनां For Parts Only ~226~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४०२] .→ "नियुक्ति: [३७३] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [३...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३७३|| पिण्ट निर्य-||| भक्तादिव्यवच्छेदः, तथा ते रुष्टाः सन्तो यः पूर्वमुपाश्रयो दत्तः तस्मानिष्काशयन्ति, आदिशब्दात्खरपरुषाणि भाषन्ते इति परिगृह्यते ।।१४आच्छेकर्मळयनि-तथा तस्य उपाश्रयस्यालाभे यत् किमपि कष्टं प्राप्नुवन्ति तदप्याच्छेद्यादाननिमित्तमिति दोषः । सम्पति स्तेनाच्छेयं भावयति- ये दोषे स्तेरीयावृत्तिः तेणो व संजयट्ठा कलुणाणं अप्पणो व अट्ठाए । वोच्छेय पओसं वा न कप्पई कप्पणुन्नायं ॥ ३७४ ॥ नाच्छेद्य ॥११२॥ व्याख्या-इह स्तेना अपि केचित् संयतान् प्रति भद्रका भवन्ति, संयता अपि कापि दरिद्रसार्थेन सह व्रजन्ति, ततस्तान भिक्षावेलायां भिक्षामप्राप्नुबतो दृष्ट्वा संयतानामर्थाय यद्वा खस्याऽऽत्मनोऽर्थाय तेषां 'करुणानां कृपास्थानानां दरिद्रसार्थमानुपाणां सकाशादाच्छिद्य यददाति स्तेनः तत् स्तेनाच्छेयं द्रष्टव्यं, तब साधूनां न कल्पते, यतस्तस्मिन् गृह्यमाणे येषां सम्बन्धि तद्रव्यं ते पूर्वोक्तप्रकारेणैकानेकसाधूनां भक्तादिव्यवच्छेदं कुर्वन्ति, यदा-प्रद्वेष ' रोषमुपयान्ति, तथा च सति सार्थानिष्काशनं कालान्तरेऽपि तेषां पाचे उपाश्रयापतिलम्भ इत्यादयो दोपाः, यदि पुनस्तेऽपि साधिका वक्ष्यमाणपकारेणानुजानन्ते तहि कल्पते । एतदेव गाथाद्येन । स्पष्टं भावयति संजयभद्दा तेणा आयंती वा असंथरे जइणं । जइ देति न घेत्तब्वं निच्छुभवोच्छेउ मा होज्जा ॥ ३७५ ॥ घयसत्तुयदिढतो समणुन्नाया व घेत्तुणं पच्छा । देति तयं तेसिं चिय समणुन्नाया व भुंजंति ॥ ३७६ ।। ॥११॥ ___ व्याख्या-इह स्तेना अपि केचित् संयतभद्रका भवन्ति, साधवश्च कदाचिदरिद्रसार्थेन सह कापि ब्रजन्ति, ततस्तेषां साधूनां । भिक्षावेलायाम् 'असंस्तरे' अनिर्वाहे ते स्तेनाः स्वग्रामाभिमुखं प्रत्यागच्छन्तो वाशब्दात् स्वग्रामादन्यत्र गच्छन्तो वा यदि तेषां दरिद्र दीप अनुक्रम [४०२] ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ~ 227~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४०६] ., "नियुक्ति: [३७६] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [४]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३७६|| सार्थमानुपाणां बलादाच्छिद्य भक्कादि प्रयच्छन्ति तर्हि न ग्राह्यं, यतो मा भूत 'निच्छोभा' सार्थानिष्काशनं एकानेकसाधनां तेभ्यो भक्तादिव्यवच्छेदो या, यदि पुनस्तेऽपि सार्थिका स्तेनेबेलादाप्यमाना एवं अवते, पचास्माकमही घृतसक्तदृष्टान्त उपातिष्ठत, घृतं हि सक्तमध्ये प्रक्षिप्त विशिष्टसंयोगाय जायते, एवमस्माकमप्यवश्यं चौरग्रहीतव्यं, ततो यदि चौरा अपि युष्मभ्यं दापयन्ति ततो महानस्माकं ॥ समाधिरिति, तत एवं साथिकैरनुज्ञाताः साधवो दीयमानं गृहन्ति, पश्चाचौरेष्वपगतेषु भूयोऽपि तद्न्यं गृहीतं तेभ्यः समर्पयन्ति, यथा तदानीं चौरमतिभयादस्माभिहीत, सम्पति ते गतास्तत एतदात्मीयं द्रव्यं यूयं गृह्णीयति, एवं चोक्ते सति यदि तेऽपि समनुजानते यथा-युष्मभ्यमेतदस्माभिर्दत्तमिति तर्हि भुञ्जते, कल्पनीयत्वादिति । अनेन 'कप्पणुन्नार्य' इत्यवयवो व्याख्यातः । तदेवमुक्तमाच्छेद्य द्वारम् , इदानीमनिसृष्टद्वारमाहFI अणिसिट्ठ पडिकुडं अणुनायं कप्पए सुविहियाणं । लग चोल्लग जंते संखडि खीरावणाईस ॥ ३७७॥ ___व्याख्या-निसृष्टम् अनुज्ञातं तद्विपरीतमनिसष्टमननुज्ञातमित्यर्थः, तत् 'प्रतिक्रुष्ट' निराकृतं तीर्थकरगणधरैः, अनुजातं पुनः कल्पते सुविहितानां, तथानिसृष्टमनेकधा, तद्यथा-लडकविषयं ' मोदकविषय, तथा 'चोल्लकविषयं' भोजनविषय, 'यन्त्रे' इति । कोल्हकादिघाणकविषय, तथा 'संखडिविषय विवाहादिविषय, तथा 'क्षीरविषयं दुग्धविषय, तथा आपणादिविषयम, आदिशब्दा हादिविषयमवसेयम् , इयमत्र भावना-इह सामान्यतोऽनिसृष्टं द्विधा, तयथा-साधारणानिसष्ट भोजनानिसष्टं च, तत्र भोजनानिसृष्टं |चोल्लकशब्देनोक्तं, साधारणानिसृष्टं तु शेषभेदैरिति । तत्र मोदकविषयसाधारणानिसृष्टोदाहरणं गाथाचतुष्टयेनाह बत्तीसा सामन्ने ते कहिँ हाउं गयत्ति इअ वुत्ते । परसंतिएण पुन्नं न तरसि काउंति पच्चाह ।। ३७८ ॥ दीप अनुक्रम [४०६] JREMiraur अत्र एका प्रक्षेप-गाथा वर्तते. सा मया संपादित: 'आगमसुत्ताणि' मूलं एवं सटीकं उभये पुस्तके वर्तते अथ 'अनिसृष्ट' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते ~ 228~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४०९] → “नियुक्ति: [३७९] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [४...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३७९|| दीप अनुक्रम [४०९] अविय हु बत्तीसाए दिन्नेहिं तवेगमोयगो न भवे । अप्पवयं बहुआयं जइ जाणसि देहि तो मज्झं ॥ ३७९॥ १५अतिस रीयावृत्तिः लाभिय नेतो पुट्ठो किं लई नत्थि पेच्छिमो दाए । इयरोऽवि आह नाहं देमित्ति सहोढ चोरत्ति ।। ३८० ॥ Jटे द्वात्रिंशगिण्हण कट्टण ववहार पच्छकडुड्डाह पुच्छ निव्विसए । अपहुंमि भवे दोसा पहुंमि दिन्ने तओ गहणं ॥ ३८१॥ | मोदको ": दा. व्याख्या-रत्नपुरे पुरे माणिभद्रप्रमुखा द्वात्रिंशद्वपस्याः, ते कदाचिद्यापनानिमित्तं साधारणान मोदकान कारितवन्तः, कारयित्वा च समुदायेनोद्यापनिकायां गताः, तत्र चैको मोदकरक्षको मुक्तः, शेषास्त्वेकत्रिंशनयां स्नातुं गताः, अत्रान्तरे च कोऽपि लोलुपः । साधुभिक्षार्थमुपातिष्ठत, दृष्टाश्च तेन मोदकाः, ततो जातलाम्पट्यो धर्मलाभयित्वा तं पुरुष मोदकान् याचितवान् , स माह-भगवन् ! न। ममैकाकिनोऽधीना पते मोदकाः, किन्त्वन्येषामप्येकत्रिंशज्जनानां ततः कथमहं प्रयच्छामि !, एवमुक्त साधुराइ-ते 'कहिं 'ति कुत्र गताः सास पाह-नया सातुमिति, तत एवमुक्ते भूयोऽपि साधुस्तं प्रत्याइ-परसत्केन मोदकसमूहेन त्वं पुण्यं कर्तुं न शक्रोपि ? यदेवं याचितोबाऽपि न ददासि, महानुभाव ! मूढस्त्वं, यः परसत्कानपि मोदकान मां दत्वा पुण्यं नोपार्जयसि, अपि च द्वात्रिंशतमपि मोदकान् यदि मे| हाप्रयच्छसि तथापि तब भागे एक एव मोदको याति, तत एवमल्पव्ययं बहायं दानं यदि जानासि सम्यग्रहृदयेन तर्हि ततो देहि मे सर्वो- नपि मोदकानिति, तत एवमुक्ते दत्तास्तेन सर्वेऽपि मोदकाः, भृतं साधुभाजनं, ततः सञ्जातहर्षः साधुस्तस्मात्स्थानादिनिगेन्तुं प्रवृत्तः, अत्रा-1 ॥११३॥ कान्तरे च सम्मुखमागच्छन्ति माणिभद्रादयः, पृष्टश्च तैः साधुः-भगवन् ! किपत्र त्वया लब्धी, ततः साधुना चिन्तितं, ययेते ते मोदक- स्वामिनस्ततो यदि मोदका लब्धा इति वक्ष्ये तर्हि भूयोऽपि ग्रहीष्यन्ति, तस्मान्न किमपि लब्धमिति वच्मीति, तथैवोक्तवान् , ततस्तैर्मा ~229~ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४११] .→ “नियुक्ति: [३८१] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [४...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३८१|| मणिभद्रपमुखै राक्रान्तं साधुमवलोक्य सञ्जातशडैरभाणि-दर्शय निजभाजनं साधो ! येन प्रेक्षामहे, साधुश्च न दर्शयति, ततो वलात्म लोकितं, दृष्टा मोदकाः, ततः कोपारुणलोचनैः साधिशेष रक्षकपुरुषः पृष्टः-यथा कि भोः! त्वयाऽस्मै सर्वेऽपि मोदका दत्ताः?, स भयेन | कम्पमानोऽवोचत्न मया दत्ताः, एवं चोक्ते माणिभद्रादिभिः साधुरूचे-चौरस्त्वं पाप साधुवेपविडम्बकः 'सहोद' इति सलोपत्र इदानी प्राप्तोऽसि ? कुतस्ते मोक्ष इति गृहीतो वखाश्चले?, कर्षितो बहुना, ततः पथात्कृत इति गृहीत्वा सकलमपि पावरजोहरणादिकम-|| पकरणं गृहस्थीकृतः, ततः 'उड्डाह' इति नीतो राजकुलं, कथितो धर्माधिकरणिकानां, पृष्टश्च तैः साधुश्च न किमपि कज्जया वक्तुं शक्तवान , ततस्तैः परिभावित-नूनमेष चोर इति, परं साधुवेषधारीतिकृत्वा प्राणैर्मुक्तो निर्विषयश्चाऽऽज्ञापितः, एवमत्र भावना-अनायके दातरि | एतेऽनन्तरोका ग्रहणकर्षणादयो दोपा भवन्ति, 'पहुंमिचि तृतीया सप्तमी, यथा 'तिसु तेसु अलंकिया पुहवी' इत्यत्र, ततोऽयमर्थःतस्मात् 'प्रभुणा' नायकेन दत्ते सति साधुना ग्रहणं भक्तादेः कर्तव्यं, तत्राप्याच्छेचादिकं सम्यक् परिहर्त्तव्यमिति । उक्तं सोदाहरणं || मोदकद्वारम् , अधुना शेषाण्यपि द्वाराण्यतिदेशेन व्याख्यानयति एमेव य जंतंमिवि संखडि खीरे य आवणाईसं । सामन्नं पडिकुटुं कप्पइ घेत्तुं अणुन्नायं ॥ ३८२ ।।। व्याख्या-'एचमेव' मोदकोदाहरणप्रकारेण यन्त्रेऽपि सङ्खड्यामपि क्षीरे चाऽऽपणादिषु च यत् 'सामान्य' साधारणं तत् स्वामिभिः सर्वैरप्यनिसृष्टं सत् प्रतिक्रुष्टं तीर्थकरगणधरैः, अनुज्ञातं पुनः सर्वैरपि स्वामिभिः कल्पते ग्रहीतुं, तत्र दोपाभावात् । सम्पति चुल्लकद्वारस्य प्रस्ताक्नां चुल्लकस्य भेदं च प्रतिपादयवि चुल्लत्ति दारमहुणा बहुवत्तव्वंति तं कयं पच्छा । वन्नेइ गुरु सो पुण सामिय हत्थीण विन्नेभो ॥ ३८३॥ . दीप अनुक्रम [४११] ~230~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३८३|| दीप अनुक्रम [ ४१३] मूलं [४१३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्यु- * तेर्मलयगि रीयावृत्तिः ॥११४॥ 2 “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [३८३ ] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [ ४... ]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या - अधुना चुलकद्वारं व्याख्येयम्, अयोध्येत मूळगाथाया द्वितीये स्थाने निर्दिष्टमपि कस्माद्याख्यावेलाया पञ्चात्कृतं ?, तत आह-बहुवक्तव्यमिदं द्वारमतो व्याख्यावेलायां पथात्कृतं, तत्र 'गुरुः' तीर्थकरादिः 'वर्णयति' प्ररूपयति यथा स चुलको द्विधा, तद्यथा-स्वामिनो हस्तिनञ्च । तत्र प्रथमतः स्वाम्यनिर्दिष्टं चुलकमाह छिन्नमछिन्नो दुविहो होइ अछिन्नो निसिहअणिसिहो । छिन्नंभि चुल्लगंमी कप्पइ घेत्तुं निसिहंनि ॥ ३८४ ॥ व्याख्या - इह द्विधा चुलकः, तद्यथा— छिन्नोऽच्छिन्नथ, इयमत्र भावना - इइ कोऽपि कौटुम्बिकः क्षेत्रगतहालिकानां कस्यापि पार्श्वे कृत्वा भोजनं प्रस्थापयति, स यदेके कहालिकयोग्यं पृथक् पृथग भाजने कृत्वा प्रस्थापयति तदा स चुलुकछिन्नः यदा तु सर्वेषामपि हालिकानां योग्यमेकस्यामेव स्थाल्यां कृत्वा प्रेषयति तदा सोऽच्छिन्नः एवमन्यत्राप्युयापनिकादौ छिन्नाच्छिनत्वं चुल्लकस्य भावनीयम् । अच्छिन्नोऽपि द्विधा, तद्यथा - निसृष्टोऽनिसृष्ट, तत्र निसृष्टः कौटुम्बिकेन येषां च दालिकानां योग्यः स चुलकः तैव साधुभ्यो दानाय मुल्कलितः, इतरस्त्वमुत्कलितोऽनिसृष्टः । तत्र यस्य निमित्तं छिन्नः स एव चेतस्यात्मीयस्य छिन्नस्य दाता तर्हि तस्मिंश्छित्रेऽपि चुल्लके तत्स्वामिना दीयमाने साधूनां ग्रहीतुं कल्पते, दोषाभावात्, तथाऽच्छिन्नेऽपि सर्वैरपि तत्स्वामिभिर्निसृष्टे - अनुज्ञाते तं ग्रहीतुं कल्पते, तत्रापि दोषाभावात् । एनमेवार्थं सविशेषतरमाद छिन्नो दिमदिट्ठो जो य निसिद्धो भवे अछिन्नो य । सो कप्पइ इयरो उण अदिदिट्ठो वऽणुन्नाओ ॥ ३८५ ॥ व्याख्या - पचुद्धको यस्य निमित्तं छिन्नः स तने दीयमानो मूलस्वामिना कौटुम्बिकेनादृष्टो दृष्टो या कल्पते, तथा यथाच्छिन्नो Education International For Penal Use Only ~231~ १५ अतिसृ टदोषे छिभेवरा निसृष्टे ॥११४॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३८६|| दीप अनुक्रम [ ४१६] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [३८६ ] + भाष्यं [ २७...] + प्रक्षेपं [ ४... ]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [ ४१६] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित योऽपि च यस्य निमित्तं छिन्नः स स्वस्वस्वामिभिरनुज्ञातोऽन्येन दीयमानः स्वस्वस्वामिभिरदृष्टो दृष्टो वा कल्पते, 'इयरो उ ण 'चि इतर एतद्धतिरिक्तः तुः पुनरर्थे छिन्नोऽछिन्नो वा स्वस्वस्वामिभिरननुज्ञातोऽदृष्टो दृष्टो वा न कल्पते, प्रागुक्तग्रहणादिदोषसम्भवात्, अयं च विधिः साधारणानिसृष्टेऽपि वेदितव्यः । तथा चैतदेव गाथार्द्धेन प्रतिपादयति--- अणिसिहमणुन्नायं कप्प घेत्तुं तहेव अहिं । व्याख्या - अनिसृष्टं - साधारणानिसृष्टं पूर्व स्वस्वामिभिः सर्वैरननुज्ञातमपि यदि पश्चादनुज्ञातं भवति तर्हि कल्पते तद्रहीतुं । तथाऽनुज्ञातं सद् सर्वैः स्वामिभिरन्यत्रगतत्वादिना कारणेनादृष्टमपि ग्रहीतुं कल्पते, दोषाभावात् । सम्प्रति हस्तिनचुलका निसृष्टं गाथोतरार्द्धन भावयति जडुरस य अनिसिहं न कप्पई कप्पइ अदिहं ॥ ३८६ ॥ व्याख्या - हस्तिनो भक्तं मिण्ठेनानुज्ञातमपि राज्ञा गजेन चानिसृष्टम् अननुज्ञातं न कल्पते, वक्ष्यमाणग्रहणादिदोषमसङ्गात् : तथा मिण्ठेन स्वलभ्यं भक्तं दीयमानं गजेनादृष्टं कल्पते, गजदृग्रहणे तु वक्ष्यमाणोपाश्रयभङ्गादिदोषप्रसङ्गः । अस्यैव विधेरन्यवाकरणे दोषानाह निवपिंडो गयभत्तं गहणाई अंतराइयमदिनं । डुंबरस संतिएवि हु अभिक्ख वसहीऍ फेडणया || ३८७ ॥ Eaton International For Penal Use Only ~ 232~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४१७] .→ "नियुक्ति: [३८७] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३८७|| पिण्डनियु- व्याख्या-इह यजस्य भक्तं तदाशः पिण्डो-राज्ञो भक्तं, ततो राज्ञाऽननुज्ञातस्य ग्रहणे ग्रहणादयो-ग्रहणाकर्षणवेपोदालना- २५ अनितेर्मलयगि- दयो दोषा भवेयुः, तथा 'आन्तरायिकम् । अन्तरायनिमिर्च पापं साधोः प्रसज्यते, राजा हि मदीयाज्ञामन्तरेणैष साधवे पिण्ड ददातीति | मष्टदोषः रीयातिःल्टः सन् कदाचिद् मिष्ठं स्वाधिकारावंशयति, ततो मिण्ठस्य वृत्तिच्छेदः साधुनिमित्त इति साधोरन्तरायिक पार्ष, तथा 'अदिन' ति१६ अध्य वपूरका ॥११॥ || अदत्तादानदोषो, राज्ञाऽननुज्ञातत्वात, तथा 'टुम्बस्य मिण्ठस्य सत्के पिण्डे मिण्टेन स्वयं दीयमाने 'अभीक्ष्णं' प्रतिदिवसं यदि साधुस्तं पिण्डं गजस्य पश्यतो गृह्णाति तदा मदीयकवकमध्यादनेन मुण्डेन पिण्डो गृह्यते इत्येवं कदाचिद्रुष्टः सन् यथायोग मागें परिभ्रमन्नु- पाथेय तं साधुं दृष्ट्वा तमुपाश्रयं स्फोटयेत , साईं च कथमपि प्राप्य मारयेत् , तस्मान्न गजस्य पश्यतो मिण्ठस्यापि सत्तं गृह्णीयात् । तदेवमुक्तमनिमष्टद्वारम्, अधुनाऽध्यवपूरकद्वारमाह अझोयरओ तिविहो जावंतिय सघरमीसपासंडे । मूलंमि य पुवकये ओयरई तिण्ह अह्राए ॥ ३८८ ॥ व्याख्या-अध्यवपूरक: 'त्रिविधः' त्रिपकारः, तद्यथा-जातिय' इति स्वगृहमिश्रशब्दयोरत्रापि सम्बन्धनात् स्वगृयावदविकमिशः 'सघरमीसे 'ति अब साधुशब्दोऽध्याहियते, स्वगृहसाधुमिश्रा, 'पासंडे' इति अत्रापि यथायोग स्वगृहमिश्रशब्दसम्बन्धः, स्वगृहपापण्डिमिश्रः, स्वगृहश्रमणमिश्रः स्वगृहपापण्डिमिशेऽन्तर्भावित इति पृथनोक्तः । त्रिविधस्यापि सामान्यतो लक्षणमाह-मूलंमी 'ल्पादि, मूले-आरम्भेऽनिसन्धुक्षणस्थाळीजलपक्षेपादिरूपे पूर्व-यावदर्थिकाद्यागमनात् प्रथममेव स्वार्य निष्पादिते पचायथासम्भव | ॥११॥ 'त्रयाणां' यावदर्थिकादीनामोय 'अवतारयति' अधिकतरांस्तण्डुलादीन् प्रक्षिपति, एषोऽध्यवपूरकः, अत एव चास्य मिश्रजातानेदः, यतो मिश्रजातं तदुच्यते यत्प्रथमत एव यावदर्थिकाद्यर्थमात्मार्थं च मिश्रं निष्पाद्यते, यत्पुनः प्रथमत आरभ्यते स्वार्थ पश्चात्यभूतान るゆらゆらゆらりゆらりゆらゆるゆるゆるなるなるなるなる दीप अनुक्रम [४१७] अथ 'अध्यवपूरक' दोषस्य वर्णनं आरभ्यते ~233~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४१८] → "नियुक्ति: [३८८] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [४...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३८८|| दीप अनुक्रम [४१८] र्थिनः पापण्डिनः साधून वा समागतानवगम्य तेषामायाधिकतरं जळतण्डुलादि प्रक्षिप्यते सोऽध्ययपूरक इति मिश्रजातादस्य भेदः। अमुमेव भेदं दर्शयति तंडुलजलआयाणे पुल्फफले सागवेसणे लोणे । परिमाणे नाणतं अज्झोयरमीसजाए य ॥ ३८९ ॥ ___व्याख्या-इह 'व्यत्ययोऽप्यासा 'मिति वचनात्सप्तमी यथायोग षष्ठयर्थे तृतीयार्थे च वेदितव्या, ततोऽयमर्थ:-अध्यवपूरकस्य । मिश्रजातस्य च परस्परं नानात्वं तण्डुलजलपुष्पफलशाकवेसनलवणानाम् 'आदाने' आदानकाळे यत् विचित्रं परिमाणं तेन द्रष्टव्यं, तथाहि । मिश्रजाते प्रथमत एवं स्थाल्यां प्रभूतं जलमारोप्यते, अधिकतराव तण्डुलाः कण्डनादिभिरुपक्रम्यन्ते, फलादिकमपि च प्रथमत एव । प्रभूततरं संरभ्यते, अध्ययपूरके तु प्रथमतः स्वार्थ स्वोकतरं तण्डुलादि गृह्यते, पश्चाद्यावदर्थिकादिनिमित्तमधिकतरं तण्डलादि मक्षिप्यते, तस्मात्तण्डुलादीनामादानकाले यद्विचित्रं परिमाणं तेन मिश्राध्यवपूरकयोनानात्वमवसेयं । सम्पत्यध्यवपूरकस्य कल्प्याकल्प्यविधिमाद जावंतिए विसोही सघरपासंडि मीसए पूई । छिन्ने विसोही दिन्नंमि कप्पइ न कप्पई सेसं ॥ ३९ ॥ व्याख्या-यावदर्थिक ' यावदपिकमिश्रेऽध्यवपूरके शुद्धभक्तमध्यपतिते यदि तावन्मात्रमपनीयते ततो विशोधिर्भवति, अत एव । च स्वगृहयावदर्थिकमिश्रोऽध्यवपूरको विशोधिकोटिवक्ष्यते, स्वगृहपापण्डिमिश्रे उपलक्षणमेतत् स्वगृहसाधुमिश्रे च शुद्धभक्तमध्यपतिते पूतिर्भवति, सकलमपि तद्भक्तं पूतिदोषदृष्टं भवतीत्यर्थः, तथा विशोधिकोटिरूपे यावदर्थिकाध्यवपूरके छिन्ने यावन्तः कणाः कार्पटिकाद्यर्थ पश्चालिप्ताः तावन्माने स्थाल्पाः पृथकृते सति यद्वा तावन्माने कापटिकादिभ्यो दत्ते सति शेषमुद्धरितं यद्भक्तं तत्साधूनां कल्पते, शेषं पुनः mitaram.org ~234~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४२०] → "नियुक्ति: [३९०] + भाष्यं [२७...] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३९०|| पिण्डनियु- कर्मळयगि- रीयात्तिः ॥११६॥ दीप अनुक्रम [४२०] स्वगृहपापण्डिमिश्रस्वगृहसाधुमिश्राध्यवपूरकरूपं न कल्पते, किमुक्तं भवति ?-यदि तत्तावन्मात्रं स्थाल्याः पृथकृतं दत्तं वा पापण्ड्यादि- उद्गमदोभ्यस्तथापि यच्छेषं तन्त्र कल्पते इति । 'जातिए विसोही' इत्यवयवं विशेषतो व्याख्यानयति पाणां विछिन्नंमि तओ उक्कड़ियंमि कप्पइ पिहीकए सेसं । आहावणाए दिन्नं च तत्तियं कप्पए सेसं ॥ ३९१ ॥ शोध्यवि शोधिको___ व्याख्या-विशोषिकोटिरूपे यावदर्थिकेऽध्यवपूरके यावदधिकं पश्चात् पक्षिप्त तावन्मात्रे 'छिने' पृथकृते तत्र छेदो रेखयापि टीता भवति तदाइ-'तओ उकट्टियमि' ततः स्वस्थानादुस्कर्षिते-उत्पाटिते, इहोत्कर्षितं स्वस्थानादुरपाट्य शेषभक्तस्योपरि निक्षिप्तमपि भण्यते ततो विशेषणान्तरमाह-पृथकृते स्थाल्या बहिनिष्काशिते शेषं यद्भक्तं तत्साधूनां कल्पते । अथवा 'आभावनया' उद्देशेन न तु । सिक्थादिपरिगणनेन यदि तावन्मात्र कार्पटिकादिभ्यो दत्तं स्यात् ततः शेष कल्पते । तदेवमभिहितमध्यवपूरकद्वार, तदभिधानाचाभिहिताः षोडशाप्युदमदोषाः । सम्पत्येतेषामेव विभागमाह एसो सोलसभेओ, दुहा कीरइ उग्गमो । एगो विसोहिकोडी, अविसोही उ चावरा ॥ ३९२ ॥ व्याख्या-एप पोडशभेद उद्मः सामान्येन द्विधा, तद्यथा-एको विशोधिकोटिएको भेदो विशोधिकोटिरूपः अपरा च 'अविशोधिः । 'अविशोधिकोटि:' अविशोषिकोटिरूपो द्वितीयो भेद इत्यर्थः । तत्र यद्दोषस्पृष्टभक्त तावन्मात्रेऽपनीते सति शेष कल्पते स ॥११६॥ दोषो विशोधिकोटिः, शेषस्त्वविशोधिकोटिः । तत्र प्रथमतोऽविशोधिकोठिमाह आहाकम्मुद्देसिय चरमतिगं पूइ मीसजाए य । बायरपाहुडियावि य अज्झोयरए य चरिमदुर्ग ॥ ३९३ ॥ ~ 235~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४२३] → “नियुक्ति: [३९३] + भाष्यं [२८] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३९३|| दीप अनुक्रम [४२३] व्याख्या-भाषाकर्म समभेदम्, १'औद्देशिकस्य' विभागौदेशिकस्यान्त्यभेदत्रयं २ तथा 'पूतिः' भक्तपानरूपा ३ मिश्रजातं ' पापण्डिगृहमिश्रसाधुगृहमिश्ररूपं ४ बादरा पाभृतिका ५ अध्यवपूरकस्य च 'चरमद्रिक ' स्वगृहपापण्डिमिश्रस्वगृहसाधुमिश्ररूपस ६, एते उद्गमदोषा अविशोधिकोटिः । अनया चाविशोधिकोठ्या अवयवेन स्पृष्टं शुद्ध भक्तं यद्दोषदुष्टं भवति तं दोषमाइउग्गमकोडी अवयव लेवालेवे य अकयए कप्पे । कजियआयामगचाउलोयसंसहपूईओ ॥ ३९४ ॥ व्याख्या-उद्रमकोव्याः' उगमदोषरूपाया अविशोधिकोव्या 'अवयवेन' शुष्कसिकथादिना तथा 'लेपेन' तकादिना 'अलेपेन' बलचणकादिना संस्पृष्टं यद्भक्तं तस्मिन्नुज्झितेऽपि यत् अकृते कल्पे-अकृतकल्पत्रये इत्यर्थः पात्रे यत्पश्चात्परिगृह्यते तत्पूतिरवगन्तव्यम् । भाइ कथिन्मतिदौर्बल्यादित्य विकल्पेत-यथा यदेव साधूनाधाय निर्मितं तदेवैकमोदनमाधाकर्म भवति, न शेषमवश्रावणकामिकादि, भातस्तत्संस्पृष्ट पूतिर्न भवतीति ततस्तदभिमायनिराकरणार्थमाह-'कजि' इत्यादि, इह साध्वर्थमोदनेऽभिनिवर्णमाने यत्तत्सक काजिकादि तदप्याधाकमैंव, तदवयवरूपत्वात् , ततः काञ्जिकेनाऽऽयामेन-अवश्रावणेन चाउलोदकेन च यत्संस्पृष्टं तदपि प्रतिर्भवति । एतदेव पकत्रयेण भाष्यकृयाख्यानयतिसुकेणऽवि जं छिकं तु असुइणा धोबए जहा लोए। इह सुक्केणऽवि छिकं धोवइ कमेण भाणं तु ॥ (भा. ३७) भा. लेवालेवत्ति जं वुत्तं, जंपि दव्वमलेवडं । तैपि घेत्तुं ण कप्पंति, तकाइ किमु लेवडं ? ॥ (भा० ३८) भा०२९ SARERainintamanna अत्र आरभ्य भाष्य क्रम-संख्याविषयक मुद्रण दोष: संभाव्यते, तत्कारणात् पूज्यपाद् सागरानन्दसूरिजी संपादिता 'आगममञ्जूषा'या: उद्धृत क्रम मया अत्र प्रक्षेपितम् ~236~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४२७] → “नियुक्ति: [३९४] + भाष्यं [३०] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु विशोध्य प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३९४|| केमेकयगिरीयावृत्ति ॥११॥ विशोधिकोटीता दीप अनुक्रम [४२७] आहाय जं कीरइ तं तु कम्म, वज्जेहिही ओयणमेगमेव । सोवीर आयामग चाउलो वा, कम्मति तो तगहणं करेंति ॥ (भा० ३९) भा० ३० व्याख्या-सुगमं नवरमाधरूपकेण 'अवयय' इति पदं व्याख्यातं, द्वितीयरूपकेण 'लेबालेव' इति, तत्रापं भावार्थ:बलचनकादिद्रव्यमलेपकृत् यदि प्रथममनाभोगादिकारणतः पात्रे गृहीत्वा पश्चात्कथमपि परिज्ञाते परित्यज्य पात्रं कल्पयन्ति-कल्पत्रयेण प्रक्षालयन्ति, किं पुनस्तकादिकं लेपकगृहीत्वा, तत्र सुतरां कल्पत्रयेण प्रक्षालनं कर्तव्यम् इति परिज्ञापनार्थे लेपालेप इत्युक्त, तथा यदेव का मुख्यवृत्त्या साधूनाधाय क्रियते तदेवाधाकर्म नान्यदिति बुद्धया शिष्या वर्जयिष्यन्ति ओदनमेक केवलं न शेष तण्डुलोदकादिकं ततो गुरचो-भद्रबाहुस्वामिनः सौवीरावश्रावणतण्डुलोदकान्यप्याधाकर्मेवि परिज्ञापनार्थ तद्भहण-सौवीरादिग्रहणं विशेषतः कुर्वन्ति । तदेवमविशोधिकोटिरुक्ता, सम्पति विशोधिकोटिमाह। सेसा विसोहिकोडी भत्तं पाणं विगिंच जहसत्ति । अणलक्खिय मीसदवे सव्वविवेगेऽवयव सुद्धो ॥ ३९५ ॥ व्याख्या-शेषौघौदेशिक नवविधमपि च विभागौदेशिकम् उपकरणपूतिमिश्रस्यायो भेदः स्थापना सूक्ष्ममाभूतिका पादुष्करणं क्रीतं पामित्यकं परिवर्तितमभ्याहृतमुद्भिवं मालापहतमाच्छेद्यमनिसष्टमध्यवपूरकस्यायो भेदश्चेत्पेवंरूपा विशोषिकोटिः, विशुध्यति शेषं शुद्ध भक्तं यस्मिन्नुढते यद्वा विशुद्धयति पात्रमकृतकल्पत्रयमपि यस्मिन्नुज्झिते सा विशोधिः, सा चासौ कोटिव-भेदक्ष विशोधिकोटिः , उक्तं च-" उद्देसियमि नवगं उवगरणे जं च पूइयं होई । जातियमीसगयं च अज्झोयरए य पढमपयं ॥ १ ॥ परियट्टिए ॥११७॥ ~ 237~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४२८] .→ "नियुक्ति: [३९५] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३९५|| अभिहडे उन्भिन्ने मालोहडे इय । अस्छिजे अणिसिढे पाओयर कीय पामिचे ॥ २॥ मुहमा पाहुडियावि य ठवियगपिंटो य जो भवे । दुविहो । सन्चोवि एस रासी विसोहिकोडी मुणेपन्चो ॥३॥" अत्र विधिमाह-'विगिंच जहसति ' अनया विशोधिकोठ्या यत् संस्पृष्टं भक्तं पानं वा तद्यथाशक्ति विगिश्च परित्यज, इयमत्र भावना-भिक्षामटता पूर्व पात्रे शुदं भक्तं गृहीतं, ततस्तत्रैवानाभोगादिकारण-18 विशतो विशोधिकोटिदोषदुष्टुं गृहीतं, पश्चाच कथमपि ज्ञात-यथेतद्विवक्षितं विशोधिकोटिदोषदुष्टुं मया गृहीतमिति, ततो यदि तेन विनापि|| निर्वहति तर्हि सकलमपि तद्विधिना परिष्ठापयति , अथ न निर्वदति तदा यदेव विशोधिकोटिदोषदुष्टं तदेव तावन्मात्रं सम्यक् परिझाय। परित्यजति, यदि पुनरलक्षितेन सदृशवर्णगन्धादितया पृथक् परिज्ञातुमशक्येन मिश्रितं भवति यदा 'द्रवेण' तक्रादिना तदा सर्वस्यापि बातस्य विवेकः, कृते च सर्वात्मना विवेके यद्यपि केचित्सूक्ष्मा अवयवा लगिता भवन्ति तथापि तत्र पात्रेऽकृतकल्पेऽप्यन्यतः परिगृहन शुद्धो पतिः, स्यक्तभक्तादेविंशोधिकोटित्वाद्, विवेकश्चतृो भवति, तयथा-द्रव्यतः क्षेपतः कालतो भावतच, तथा चाहका दब्बाइओ विवेगो दब्बे जं दध्वजं जहिं खेत्ते। काले अकालहीणं असढो जं पस्सई भावे ॥ ३९६ ॥ व्याख्या-'द्रव्यादिकः' द्रव्यक्षेत्रकालभावविषयो विवेकः, तत्र यव्यं परित्यजति स द्रव्यविवेकः, तथा परित्याज्यं यत्र क्षेत्रे परित्यज्यते स क्षेत्रविवेकः, क्षेत्रे विवेकः क्षेत्रविवेक इति व्युत्पत्तेः, तथा यद्विशोधिकोटिदोषदुष्टमकालहीन-शीघ्रं परित्यज्यते एष कालतो विवेका, इह यदैव दोषदुष्ट भक्तादिपरिज्ञातं तदैव तत्कालविलम्बाभावेन परित्यक्तव्यं, परित्यागबुदद्या वा पृथगू-भिन्ने स्थाने कर्त्तव्यम-18 न्यथा भावतस्तत्परिग्रहात्संयमहानिप्रसक्तेः, तत उक्तमकालहीनमिति , तथा यत् ' अशटः' अरक्तद्विष्टः सन् दोषदुष्टं पश्यति दृष्ट्वा । दीप अनुक्रम [४२८] H armurary.om द्रव्य-आदिभि: भक्तादि विवेकं वर्णयते ~238~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४२९] → "नियुक्ति: [३९६] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत भिभक्ता गाथांक नि/भा/प्र ||३९६|| दीप अनुक्रम [४२९] पिण्डनिघु- चाकालहीनं शीघ्रं परित्यजति स 'भावे' भावतो विवेकः । इह निर्वाहे सति विशोधिकोटिदोषसम्मिश्रं सकलमपि परित्यक्तव्यम् , केर्मळयगि-1 अनिर्वाहे तु तापमात्र, तत्र विधिमुपदर्शयितुकामः प्रथमतश्चतुर्भलिकामाहरीयावृत्तिः सुकोल्लसरिसपाए असरिसपाए य एत्थ चउभंगो। तुल्ले तुल्लनिवाए तत्थ दुवे दोन्नतुल्ला उ॥ ३९७ ॥ दिक्वेिक ॥११८॥ व्याख्या-अत्र शुष्कस्थाऽद्रस्य च 'सदृशे' समानेऽन्यस्मिन् वस्तुनि मध्ये पतिते सति तथा ' असदृशे' असमानेऽन्यस्मिन् । वस्तुनि मध्ये पतिते सति चतुर्भनी भवति, सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश आपत्त्वाद, चत्वारो भङ्गा भवन्तीत्यर्थः, ते चेमे-शुष्के शुष्कं पतितं, शुष्के भाम, आर्दै शुष्कम्, आर्दै आमिति, तत्र येन येन पदेन यो यौ महौलब्धौ तौ तौ तथा दर्शयति-तत्यति तत्र 'तल्ये समाने सति अन्यस्मिन् वस्तुनि मध्ये तुल्यनिपातेऽधिकरणसदृशस्य वस्तुनः प्रक्षेपे ' द्वौ' प्रथमचतुर्थरूपौ भनौ लब्धौ, तौ च 'सुक्कोलकसरिसपाए' इत्यनेन पदेन सूचिती, तथा द्वौ भक्ती द्वितीयतृतीयरूपौ'अतुल्यात्' विसहशाव पक्षिप्यमाणात् लम्धी, ती च 'असरिस-1 पाए या इत्यनेन पदेनोक्तौ । तदेवं चतुर्भङ्गिकामभिधाय सम्मत्यत्रैवोद्धरणविधिमाहII सके सुक्कं पडियं विगिचिउं होइ तं सुहं पढमो । बीयंमि दवं छोढुं गालंति दवं करं दाउं ॥ ३९८ ॥ तइयंमि कर छोडं उल्लिंचइ ओयणाइ जं तरइ । दुल्लहदव्वं चरिमे तत्तियमित्तं विगिचंति ॥ ४९९ ॥ व्याख्या-'शुष्के' वल्लचनकादौ मध्ये यत् ' शुष्कं ' वल्लुचनकादि पतितं तत्सुख-जलपक्षेपादिकष्टमन्तरेण 'विगिंचिउँ होइन परित्यक्तुं भवति, परिस्याज्यं भवतीत्यर्थः, एष प्रथमो भङ्गः, तथा द्वितीये भने 'शुष्के' बल्लचनकादौ मध्ये कथमया, तीमनादि विशो A udioraryara ~239~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४३२] .→ "नियुक्ति: [३९९] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३९९|| धिकोटिदोषवत् पतितमित्येवंरूपे 'द्रवं, काञ्जिकादि तत्र मध्ये प्रभूतं प्रक्षिप्य पश्चात्पात्रमवनम्य पात्रकर्णैकदेशे च शुद्धभक्तपानरक्षणार्थ | करं च दत्त्वा सर्व द्रवं गालयन्ति । तथा तृतीये शुद्धे आदें तीमनादौ मध्यपतितं शुष्कं कूरवालचनकादिरूपमोदनमित्येवरूपे तत्र तीमनादौ || मध्ये 'कर' हस्तं प्रक्षिप्यौदनादि यद्यावन्मात्रं शक्नोति तावन्मात्रमशठा सन् 'उल्लिंचति' आकर्षति, ततः शेष तीमनादि कल्पते, तथा 'चरमे ' आर्दै आई पतितमित्येवरूपे यदि तद्रव्यं 'दुर्लभम् । अन्यत्र न प्राप्यते तत्रोदेशतस्तावन्मात्रं परित्यजन्ति, शेष कल्पते, एषा चतुर्भलिका साधूनामसंस्तरणे वेदितव्या, संस्तरणे च सकलमपि परित्यजन्ति । तथा चाह संथरे सव्वमुझंति, चउभंगो असंथरे । असढो सुज्झई जेसुं, मायावी जेसु बज्झई ॥ ४०॥ की व्याख्या-'संस्तरे' निर्वाहे सति सर्वमपि पात्रस्थितं विशोधिकोटिसंसृष्टमुज्झन्ति, ' असंस्तरे' अनिर्वाहे पुनः 'चतुर्भङ्गी कचत्वारोऽनन्तरोक्ता भङ्गाः, सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश आर्षत्वात् , कथंभूतास्ते भङ्गाः' इत्पाह-येषु भा 'अशठः' अरक्तदिष्टः सनी वर्तमानः शुध्यति-शुद्धिमापद्यते, मायावी च येषु बध्यते । तदेवं विशोध्यविशोधिरूपं कोटिद्वयं सपपञ्चमुक्तम् , इदानीं तदेवोपसंहारव्याजेन सङ्क्षेपत आहकोडीकरणं दुविहं उग्गमकोडी विसोहिकोडी य । उग्गमकोडी छक्कं विसोहिकोडी अणेगविहा ॥ ४.१ ॥ व्याख्या-कोटीकरणं 'द्विविध' द्विप्रकार, द्विधा कोटिरित्ययः, तद्यथा-उद्मकोटिविशोधिकोटिश्च, तत्रोद्रमकोटिः 'पटकम् । आधाकर्मिकौदेशिकान्त्यभेदत्रिकादिषदभेदाः, विशोधिकोटिः पुनरनेकविधा-ओघौदेशिकादिरूपा । सम्पत्यन्यथा कोटीः प्रतिपादयति दीप अनुक्रम [४३२] ~240~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४३५] » "नियुक्ति: [४०२] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत द्यादयो गाथांक नि/भा/प्र ||४०२|| दीप अनुक्रम [४३५] पिण्डनियु नव चेव अढारसगं सत्तावीसा तहेव चउ पन्ना । नउइ दो चेव सया उ सत्तरी होइ कोडीणं ॥ ४.२॥ तेर्मळयगि व्याख्या-प्रथमतः कोटयो नव भवन्ति, तद्यथा-स्वयं हननमन्येन घातनमपरेण हन्यमानस्यानुमोदनं, तथा स्वयं पचनमन्येन रीयादृत्तिः पाचनमपरेण पच्यमानस्यानुमोदनं, तथा स्वयं क्रयणमन्येन क्रायणमपरेण क्रीयमाणस्यानुमोदनम् , इहाद्याः षडविशोधिकोटयोऽन्तिमास्तु तिस्रो विशोधिकोटयः, एता अपि नवकोटीः कोऽपि रागेण सेवते कोऽपि द्वेषेण, ततो द्विकेन गुणिता अष्टादश भवन्ति, अथवैवं ता:॥११९| कोऽपि मिथ्याष्टिः कुशाखसम्पर्कसमुत्थवासनावशतो निःशहू. सेवते, कोऽपि सम्पदृष्टिः सन् विरतोऽप्यनाभोगादिकारणतोऽपरिज्ञानतः, कोऽपि पुनः सम्यग्दृष्टिरपि सनविरतत्वेन गार्हस्थ्यमवलम्बमानः, ततो मिथ्यात्वाज्ञानाविरतिरूपेण त्रिकेण नव गुणिताः सप्तविंशतिभ वति, रागद्वेषौ त्वत्र पृथग्न विवक्ष्येते, यदा तु पृथम् विवक्ष्येते तदा ताभ्यां सप्तविंशतिर्गणिता चतुष्पश्चाशद्भवति, तथा ता एव नव कोटयः दाकदाचित पुष्टमालम्बनमधिकृत्य दशविधक्षान्त्यादिधर्मपरिपालनार्थ सेव्यन्ते. यथा दर्भिक्षे कान्तारे चान्येन फलादिनाऽभ्यवहुतेनाई देह धृत्वा शान्ति मार्दवमार्जवं यावद्दाम पालयिष्यामीति हन्ति, एवमन्येन घातनायपि भावनीय, ततो नव दशभिर्गुणिता जाता नवतिः, इयं च सामान्यतश्चारित्रनिमित्ता, काचित् पुनश्चारित्रनिमित्ता विशिष्टज्ञानलाभसम्भवनिमित्ता च, यथाऽस्मिन् कान्तारादावनेन फलादिनाऽभ्यवहतेन देवमह धृत्वा क्षान्त्यादिकं पालयिष्यामि प्रभूतानि च शाखाण्यध्येष्ये इति हन्तीत्यादि, एषा च ज्ञानस्य प्राधान्यविवक्षणात ज्ञाननिमित्ता भण्यते, काचित्पुनश्चारित्रनिमित्ता दर्शनस्थिरीकरणहेतुशास्त्रार्यपरिज्ञाननिमिचा च, यथाऽस्मिन् कान्तारादावनेन फलादि- M नाऽभ्यवहतेन देहं परिपाल्य क्षान्त्यादिकं पालयिष्यामि दर्शनं च निर्मलं विधास्ये इति हन्तीत्यादि, एषा च दर्शनस्य प्राधान्यविवक्षणादर्शननिमिचाऽभिधीयते, तत एवं त्रिप्रकारा नवतिरिति त्रिभिर्नवनिर्गुण्यते, ततो वे शते सप्तत्यधिक कोटीनां भवतः , उक्तं च-" रागोई ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ aan ~ 241~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४३५] .→ "नियुक्ति: [४०२] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४०२|| मिच्छोई रागाई समणधर्म नाणोई । नवे नवे सत्तावीसी नर्वे नईएँ उ गुणकारा ॥१॥" या तु दर्शनस्थिरीकरणार्थ प्रभूतषशाखावगाहनार्य चारित्रार्थ च सेव्यते सा सामान्यतश्चारित्रनिमित्तायामन्तर्भाच्यते, ततो न सूत्रोक्तभेदसंख्यानियमव्याघातः । सम्पत्युद्मदारदोषाणां वक्ष्यमाणोत्पादनाद्वारदोषाणां च यतः सम्भवस्तांस्तदुत्थितान् वैविक्त्येनाह सोलस उग्गमदोसे गिहिणो उ समुढ़िए वियाणाहि । उप्पायणाएँ दोसे साहूउ समुट्ठिए जाण ॥ ४०३ ॥ ___ व्याख्या-एताननन्तरोक्तान् षोडशसङ्खचानुद्गमदोषान् गृहिणः सकाशादुस्थितान् विजानीहि, तथाहि-आधाकर्मादिदोषदुष्ट । भक्तादि गृहस्थैरेव क्रियते, ये तूत्पादनाया दोषा वक्ष्यमाणास्तान् 'साधुतः' साधोः सकाशादुत्थितान् जानीहि, धात्रीत्वादीनां साधु-1 भिरेव क्रियमाणत्वात् । तदेवमुक्तमुद्रमद्वार, सम्मत्युत्पादनाद्वारं वक्तव्यं, तत्र प्रथमत उत्पादनामाहणामं ठवणादविए भावे उप्पायणा मुणेयव्वा । दवंमि होइ तिविहा भावंमि उ सोलसपया उ ॥ १०४ ॥ व्याख्या-उत्पादना चतुर्दा, तद्यया-'णाम 'ति नामोत्पादना स्थापनोत्पादना 'द्रव्ये ' द्रव्यस्योत्पादना 'भावे' भावस्योत्पादना च, तत्र नामस्थापने द्रव्यस्योत्पादना च यावनोआगमतो भव्यशरीरदन्योत्पादना पागुक्तगवेषणादिवि भावनीया, शरीरभष्पशरीव्यतिरिक्ता तु द्रव्योत्पादना त्रिधा-सचित्तद्रव्योत्पादनाऽचित्तद्रव्योत्पादना मिश्रद्रव्योत्पादना च । भावोत्पादना द्विधा, तयधा-आगमतो नोआगमतच, तत्रागमत उत्पादनाशब्दाशस्तत्र चोपयुक्तः, नोआगमतो भावोत्पादना तु द्विधा, तद्यथा-प्रशस्ताऽप्रशस्ता च, तत्र प्रशस्ता जानाधुत्पादना, अपशस्ता 'षोडशपदा' वक्ष्यमाणधात्रीदूत्यादिषोडशभेदा । तत्र प्रथमतः सचिचद्रव्योत्पादनां विभावयिषुराह दीप अनुक्रम [४३५] HTunmurary.au अथ 'उत्पादना" दोष-विषयक वर्णनं आरभ्यते ~ 242~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४३८] .→ "नियुक्ति: [४०५] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: नाया नि. प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४०५|| पिण्डनियु- आसूयमाइएहिं वालचियतुरंगबीयमाईहिं । सुयआसदुमाईणं उप्पायणया उ सञ्चित्ता ॥ ४०५ ॥ उत्पाद केर्मलयगि- व्याख्या-मुताश्वद्रुमादीनां द्विपदचतुष्पदापदरूपाणाम् , अत्रादिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, मुतादीनामवादीनां द्रुमादीनां च रीयावृत्तिः । यथासङ्ख्यमास्यादिभिः, 'आसूयम् ' औपयाचितकम् , आदिशब्दाझाटकजलादिपरिग्रहः । तथा 'पालचिततुरङ्गापीमादिभिश्व तत्र वाले ॥१२०॥ केशरोमादिभेदभिन्नैश्चितो-व्यासो बालचितः-पुरुषो 'लोमशः पुरुष' इति वचनात् , तुरङ्गबीजे च सुप्रसिद्ध आदिशब्दादन्यहेतुपरिहा, या उत्पादना, तथादि केनचिनिजभार्यायाः कथमपि पुत्रासम्भवे देवताया औपयाचितकेन ऋतुकाळे स्वसंप्रयोगेण च मुतः || पुत्रिका बोत्पाद्यते, तथा निजघोटिकायाः परस्य भाटकमदानेन परघोटकमारोप्य तुरङ्ग उत्पाद्यते, एवं यथायोग बलीवदोंदिरपि, तथा||3|| जलसेकेन वीजारोपणेन दुमवल्यादिः, तत इत्थं सुतादीनामुत्पादना सा सचित्तद्रव्योत्पादना । सम्पत्पचित्तद्रव्योत्पादनां मिश्रद्रव्योत्पादनां च प्रतिपादयति कणगरययाझ्याणं जहेहधाउविहिया उ अच्चित्ता । मीसा उ सभंडाणं दुपयाइकया उ उप्पत्ती ॥ ४०६॥ व्याख्या-कनकरजतादीनां ' सुवर्णरूप्यताम्रादीनां 'यथेष्टधातुविहिता । यथेष्टो यो यस्पेष्टोऽनुकूलो धातुस्तस्माद्विहिता-कृता 8 ॥१२०॥ उत्पत्तिः सा 'अचित्ता' अचित्तद्रव्योत्पादना, तथा या 'द्विपदादीनां 'दासादीनां 'सभाण्डाना' सालङ्कारादीनां वेतनप्रदानेन या कृता आत्मीयत्वेनोत्पत्तिः सा 'मिश्रा' मिश्रद्रव्योत्पादना । तदेवमुक्ता द्रव्योत्पादना, सम्पति भावोत्पादनामाह भावे पसत्थ इयरो कोहाउप्पायणा उ अपसत्था । कोहाइजुया धायाइणं च नाणाइ उपसत्था ॥ ४०७ ॥ दीप अनुक्रम [४३८] ~ 243~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४४०] .→ "नियुक्ति: [४०७] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४०७|| व्याख्या-'भावे ' भावविषया उत्पादना द्विधा, तद्यथा--प्रशस्ता 'इतरा' असशस्ता, तत्र या क्रोधादीनां क्रोधादियुता || धात्रीत्वादीनां वोत्पादना साऽप्रशस्ता । या तु 'झानादेः 'ज्ञानदर्शनचारित्राणामुत्पादना सा प्रशस्ता । इह चापशस्तया भावोत्पादनयाधिकारः, पिण्डदोषाणां वक्तुमुपक्रान्तत्वात् ।। सा च षोडशभेदा, ततस्तानेव षोडश भेदान् गाथावपेनाइ धाई दुइ निमित्ते आजीव वणीमगे तिगिच्छा य । कोहे माणे माया लोभे य हवंति दस एए । ४०८॥ पुबि पच्छा संथव विज्जा मते य चुन्न जोगे य । उप्पायणाइ दोसा सोलसमे मूलकम्मे य॥ ४०९॥ व्याख्या धात्री' चालकपरिपालिका, इह धात्रीत्वस्य यत्करणं कारणं वा तद्धात्रीशब्देनोक्तं द्रष्टव्यं, तथा विवक्षणात , एवं इत्यपि भावनीया, नवरं 'दूती' परसन्दिष्टार्थकथिका निमित्तम् । अतीताद्यर्थपरिज्ञानहेतुः शुभाशुभचेष्टादि, तथा चामुमेव निमित्तशकन्दवाच्यमर्थमङ्गीकृत्य पूर्वसूरयो निमित्तशब्दस्य नरुक्ति-शब्दव्युत्पत्तिमेश्माचक्षते, निपतमिन्द्रिपेभ्यः इन्द्रिपार्षेभ्यः समाधानं चात्मनः। समाश्रित्य यस्मादुत्पद्यते शुभाशुभातीताद्यर्थपरिज्ञानं तस्माचदिन्द्रियार्थादि निमित्तमिति, उक्तं चाङ्गविद्यायाम्-"इंदिएहिंदियत्थेहि, समाBहाणं च अपणो । नाणं पबत्तए जम्हा, निमित्त तेण आहियं ॥१॥ तचाङ्गादिभेदादष्टधा, तदुक्तम्-अंर्ग सेरो लक्खणं (च), वणं मुविणो तहा । छिन्नं भोमंतलिल् य, एमए (एए) अट्ठ वियाहिया॥१॥एए महानिमिचा उ, अह संपरिकित्तिया । एएहि भावानज्जती, k १ मई-शरीरावयवप्रमाणस्यन्दनादिविकारफलोद्भावकं निमित्तशालं, २ स्वर:-जीवाजीवाश्रितस्वरस्वरूपफलाभिधायक, ३ लक्षणं-जान्छ। नाइनेकविधलक्षणव्युत्पादकं, ४ व्यसनं-मयादिव्यंजनफलोपदर्शकं, ५ स्वप्नं-स्त्रप्रकलाविर्भावक, ६ छेदन-छिन वस्त्रादीनां, तद्विषयं शुभाशुभनिरूपकं शास्त्रं यथा 'देवेस उत्तमो लाभो। इत्यादि.७ भीम-भूमिविकारफलाभिधानप्रधानं निमित्तशाख, ८ अन्तरिक्षम्-माकाशप्रभवमहयद्धभेदादिभावफलनिवेदकं, चिच्छिन्नस्थाने उत्पातं वदन्ति, तत्रोत्पातं सहजरुधिरवृष्ट्यादिलक्षणोत्पातनिरूपकै निमित्तशास्त्र, दीप अनुक्रम [४४०] ~244~ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४४२] → "नियुक्ति: [४०९] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४०९|| पिण्डनियु- तीतानागयसंपया ॥२॥" निमिचहेतुकं च यद् ज्ञानं तदप्युपचारानिमित्तं तदेवेहाधिकृतं, तथा चाङ्गादिनिमित्तहेतुकं ज्ञानमेव मयु- उत्पादनाकेर्मलपगि-18 जानो यतिदोषवानग्रे वक्ष्यते, 'आजीव: आजीविका 'वनीपक: ' भिक्षाचरस्तस्येव यत्समाचरणं तदपि बनीपका, शब्दव्युत्पत्ति च दोषेषु धारीयाचिः स्वयमेवाग्रे वक्ष्यति, 'चिकित्सा रोगमतिकारः, क्रोधमानमायालोभाः प्रतीताः, 'पूर्वसंस्तवः' मात्रादिकल्पनया परिचयकरणं, 'पश्चा- त्रीदोषः संस्तवः' ववादिकल्पनया परिचयकरणं, 'विद्या' खीरूपदेवताधिष्ठिता ससाधना वाऽक्षरविशेषपद्धतिः, सैव पुरुषदेवताधिष्ठिता ॥१२१॥ असाधना वा मन्त्रः, 'चूर्णः, सौभाग्यादिजनको द्रव्यशोदा, 'योगः' आकाशगमनादिफलो द्रव्यसनतः, एतेऽनन्तरोक्ता उत्पादनाया | दोषाः, पोडशो दोपो 'मूलकर्म' वशीकरणम् । इद धात्र्या पिण्ड:-धात्रीपिण्डा, किमुक्तं भवति ?-धात्रीवस्य करणेन कारणेन च या उत्पाद्यते पिण्डः स धात्रीपिण्डः, यस्तु दतीत्वस्य करणेनोत्पाद्यते स दूतीपिण्डः, एवं निमित्तादिष्वपि भावनीयं । तत्र प्रथमतो धात्रीपिण्डं व्याचिख्यासुर्धात्री मेदानाह खीरे य मजणे मंडणे य कीलावणंकधाई य । एकेकावि य दुविहा करणे काराबणे चेव ॥ ४१० ॥ व्याख्या-क्षीरे' क्षीरविषये एका धात्री या स्तन्यं पाययति, द्वितीया मज्जनविषया, तृतीया मण्डनविषया, चतुर्थी क्रीडनधात्री, पञ्चम्पान्धात्री । एकैकाऽपि च द्विधा, तपथा-स्वयं करणे कारणे च, तथाहि-या स्वयं स्तन्यं पाययति बालकं सा स्वयंकरणे|| क्षीरधात्री, या त्वन्यया पाययति सा कारणे, एवं मज्जनादिधात्र्योऽपि भावनीयाः । सम्पति धात्रीशब्दस्य व्युत्पत्तिमाह धारेइ धीयए वा धयंति वा तमिति तेण धाई उ । जहविहवं आसि पुरा खीराई पंच धाईओ ॥ ४११ ॥ दीप अनुक्रम [४४२] १२॥ ~245~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४४४] .→ "नियुक्ति: [४११] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४११|| व्याख्या-धारयति बालकमिति धात्री, यद्वा धीयते भाटकमदानेन 'ध्रि(धी)यते' पोष्यते इति धात्री, अथवा 'धयन्ति' पिवन्ति बालकास्तामिति धात्री, 'धात्रीति निपातनसूत्राद्रूपनिष्पत्तिः, ताश्च धान्यः 'पुरा' पूर्वस्मिन् काले 'यथाविभव' विभवानुसारेण क्षीरा-1 दिविषया बालकयोग्याः पश्च आसन् , सम्पति तथारूपविभवाभावेन ता न दृश्यन्ते । तत्र यथा स्तन्यदापनधात्रीत्वं साधुः करोति || तथा दर्शयतिखीराहारो रोबइ मज्झ कयासाय देहि णं पिज्जे । पच्छा व मज्झ दाही अलं व भज्जो व एहामि ॥ ४१२॥ व्याख्या-पूर्वपरिचिते गृहे साधुभिक्षार्थ प्रविष्टः सन् रुदन्तं बालकं दृष्ट्वा तज्जननीमेवमाह-एष बालोऽद्यापि क्षीराहारस्ततः क्षीरमन्तरेणावसीदन् 'रोदिति' आरटति, तस्मान्मह्यं कृताशाय-विहितभिक्षालाभमनोरथाय झटित्येव भिक्षा देहि, पश्चात् 'णम्' एन । बालकं 'पेजे' पायय स्तन्य, यद्वा प्रथमत एनं स्तन्यं पायय पश्चान्मा भिक्षां देहि, यदिवाऽलं मे सम्पति भिक्षया पायय स्तन्यं । बालकमहं पुनर्भूयोऽपि भिक्षार्थमेष्यामि । तद्यथा मइमं अरोगि दीहाउओ य होइ अविमाणिओ बालो । दुल्लभयं खु सुयमुहं पिज्जाहि अहं व से देमि ॥ ४१३॥ _ व्याख्या-'अविमानितः' अनपमानितो बालो मतिमानरोगी दीर्घायुश्च भवति, विमानितः पुनर्विपरीतः । तथा दुर्लभं खलु || लोके 'मृतमुर्ख' पुत्रमुखदर्शनं, तस्मात्सर्वाण्यप्यन्यानि कर्माणि मुक्त्वा त्वमेनं बालकं स्तन्यं पायय, यदि वं न पाययसि ताई वा ददाम्पस्मै क्षीरं बालकाय, अन्यया वा स्तन्यं पाययामि । अत्र 'अई वा से देमि' इत्यनेन स्वयंकरण(णेन)धात्रीत्वं साधोर्दर्शितं, शेषपादः कारणेन । अत्र दोषमाइ दीप अनुक्रम [४४४] ~ 246~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४४७] → "नियुक्ति: [४१४] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: कैमळयगि उत्पादना| दोषेषु धा प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४१४|| पिण्डनियु-18 अहिगरण भद्दपंता कम्मुदय गिलाणए य उड्डाहो । चडुकारी य अवन्नो नियगो अन्नं च णं संके ॥ ४१४ ॥ रीयात्तिः । व्याख्या-यदि बालकजननी भद्रा-धर्माभिमुखी भवति तहि प्राक्तनैः साधुवचनैरावर्जिता सती अधिकरणम्-आधाकर्मादि करोति, अथ पान्ता-धर्मानभिमुखी वहि प्रद्वेषं यातीति शेषः, तथा यदि स्वकर्मोदयात्कथमपि स बालो ग्लानो भवति तदि ' उड्डाः। ॥१२॥ प्रवचनमालिन्यं, यथा साधुना तदानीमालपितः क्षीरं वा पायितोऽन्यत्र वा नीत्वा कस्या अपि स्तन्यं पायितस्तेन ग्लानो जाता, तथा ऽतीव चाटुकारीति लोके 'अवर्णः' अश्लाघा, तथा 'निजकः' भा 'अन्यद्वा मैथुनादिकं 'णम्' इति वाक्यालङ्कमरे तथारूपसा| धुवचनश्रवणतः 'शङ्कते' सम्भावयति । अथवा प्रकारान्तरेण धात्रीकरणे यो दोषस्तं दर्शयति अयमवरो उ विकप्पो भिक्खायरि सहि अदिई पुच्छा । दुक्खसहाय विभासा हियं मे धाइत्तणं अज्ज ॥ ४१५ ।। वयगंडथल्लतणुयत्तणेहिं तं पुच्छिउँ अयाणतो । तत्थ गओ तस्समक्खं भणाइ तं पासिउं बालं ॥ ४१६ ॥ व्याख्या-अयमपरो विकल्पो धात्रीकरणे, तमेवाह-भिक्षाचर्याप्रविष्टेन साधुना काचित आद्धिका 'अधृतिः 'धृतिरहिता दृष्टा ततः पृष्टा यथा-किमद्य त्वं सशोका दृश्यसे?, तत एवमुक्ता सती सा माइ-यो दुःखसहायो भवति तस्मै दुःखं निवेयते, दुःखसहायश्च स उच्यते यो दुःखमतीकारसमर्थः, ततः साधुराह-भई दुःखसहायस्तस्मान्निवेद्यतां मे दुःखं, ततः सा माह-अब मे-मम धात्रीत्वममुकष्मि- नीश्वरगृहे 'हतं स्फेटितं ततोऽहं विषण्णा, ततः साधुराह-मा त्वं विषादं काषी: अहमवश्यं स्वांतत्राचिरेण धात्री स्थापयामीति प्रतिज्ञा विधाय तस्याः पाश्ऽभिनवस्थापिताया धाच्या वयःप्रभृतिकमजानानः पृच्छति, यथा किं तस्या वयः-तारुण्यं परिणतं चा?, गण्डावपि दीप अनुक्रम [४४७] ॥१२२॥ ~ 247~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४१६|| दीप अनुक्रम [ ४४९ ] मूलं [ ४४९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित araton h ·�.........$66666666 “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> ◆◆................ “निर्युक्ति: [ ४१६] + भाष्यं [ ३०...] + प्रक्षेपं [ ४... ]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः स्तनापरपर्यायाँ किं कूपराकारवद्दयों यद्वाऽतिशयेन स्थूलौ ?, शरीरेऽपि तस्याः किं स्थूलत्वं किं वा कृशस्वं ?, तत एवं पृष्ट्वा तत्रेश्वरगृहे गतः सन् ' तत्समक्ष ' गृहस्वाम्यादिसमक्षं तं बालकं दृष्ट्वा भगति । किं तद्भणति ? इत्यत आह अहुणुट्टियं व अणविक्खियं व इणमं कुलं तु मन्नामि । पुन्नेर्हि जहिताए (जदिच्छाए) तरई बालेण सूएमो ॥ १७ ॥ व्याख्या – अहमिदं मन्ये-' इदं ' युष्मदीयं कुलमधुनोत्थितं - सम्पत्येवेश्वरीभूतं यदि पुनः परम्परागतलक्ष्मीकमिदमभविष्यत् तर्हि कथं न परम्परया धात्री लक्षणे कुशलमपि अभविष्यत् ? इति भावः, यद्वा 'अनवेक्षितम् ' अपरिभावितं महत्तरपुरुषैः, तत एव, या वा सा वा धात्री धियते एतय वालेनासङ्गतधात्री स्तनपान विच्छायेन 'सूचयामः ' लक्षयामः, तत एवंभूतधात्रीयुक्तमपीदं कुलं 'तरति क्षेमेण वर्त्तते तत् मन्ये पुण्यैः प्राक्तनजन्मकृतैः यदिवा यदृच्छया - एवमेव । तत एवमुक्ते सति ससम्भ्रमं बालकस्य जननी जनको वा साधुं प्रत्याह-भगवन् ! के धाग्या दोषाः ?, ततः साधुर्धात्रीदोषान् कथयति — थेरी दुब्बलखीरा चिमिढो पेलियमुहो अइथणीए । तणुई उ मंदखीरा कुप्परथणियाऍ सूइमुहो ॥ ४१८ ॥ व्याख्या - या किल धात्री स्थविरा सा ' अवलक्षीरा ' अवलस्तन्या इति, ततो बालो न बलं गृह्णाति, या त्वतिस्तनी तस्याः स्तन्यं पिवन स्तनेन 'प्रेरितमुखः ' चम्पितमुखावयवोष्टनासिकश्चिपिटनासिको भवति, या तु शरीरेण कृशा सा ' मन्दक्षीरा ' अल्पक्षीरा, ततः परिपूर्ण तस्याः स्तन्यं बालो न प्राप्नोति, तदभावाच्च सीदति तथा या कूर्परस्तनी तस्याः स्तन्यं पिवन् बालः सूचीमुखो भवति, स हि मुखं दीर्घतया प्रसार्य तस्याः स्तन्यं पिवति, ततस्तथारूपाभ्यासतस्तस्य मुखं सूच्याकारं भवति, उक्तं च- "निस्थामा स्थ For Park Lise Only ~248~ nerary.org Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४१८|| दीप अनुक्रम [ ४५१] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> मूलं [४५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ८० "निर्युक्तिः [४१८] + भाष्यं [ ३०...] + प्रक्षेपं [ ४... ]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः पिण्डनिर्यु- विरां धात्री, सूच्यास्यः कूपर स्तनीम् । चिपिटः स्थूलवक्षोजां, घर्यस्तन्वीं कृशो भवेत् ॥ १ ॥ जाड्यं भवति स्थूरायास्तनुक्यास्त्ववलंतेर्मलयगि- करम् । तस्मान्मध्यवस्थायाः, स्तन्यं पुष्टिकरं स्मृतम् ॥ २ ॥ अतिस्तनी तु चिपिटं, खरपीना तु दन्तुरम् । मध्यस्तनी महाच्छिद्रा, धात्री पाटत्तिः ॐ सौम्यसुखङ्करी ॥ ३ ॥ " इत्यादि । एषा चाभिनवस्थापिता धात्री उक्तदोषदुष्टा तस्मान्न युक्ता, किन्तु चिरंतन्येवेति भावः । तथा— ॥ १२३॥ जा जेण होइ वन्नेण उकडा गरहए य तं तेणं । गरहइ समाण तिब्वं पसत्थमियरं च दुव्वन्नं ॥ ४१९ ॥ व्याख्या - या अभिनवस्थापिता घात्री येन वर्णेन कृष्णादिनोत्कटा भवति तां तेन वर्णेन गईते निन्दति, यथा--- कृष्णा भ्रंशयते वर्ण, गौरी तु बलवर्जिता । तस्माच्छपामा भवेद्धात्री, बलवर्णैः प्रशंसिता ॥ १ ॥ " इत्यादि । तथा यामभिनवस्थापितां गर्हते तस्याः 'समाना' समानवर्णा चेचिरन्तनी स्थाप्यमाना भवति तर्हि तां 'तीव्रम् ' अतिशयेन 'प्रशस्तां' मशस्तवर्णा श्लाघते, इतरां त्वभिनवस्थापितां दुर्वर्णाम् । एवं चोक्ते सति गृहस्वामी साध्यभिप्रेतां धात्रीं धारयति इतरां तु परित्यजति, तथा च सति यो दोषस्तमाह---- उब्वट्टिया पओसं छोभग उब्भामओ य से जं तु । होज्जा मज्झवि विग्घो विसाइ इयरीवि एमेव ॥ ४२० ॥ Eucation Menation व्याख्या—या अभिनवस्थापिता धात्री उद्वर्त्तिता-धात्रीत्वात् च्याविता सा साधोरुपरि प्रद्वेषं कुर्यात्, तथा सति छोभगं दद्याद्- ॥ १२३॥ यथा-अपम् 'उद्धामकः' जारोऽनया धात्र्या सह तिष्ठतीति, तथा 'से' तस्य साघोर्यत्मद्वेषवशात्कर्त्तव्यं बधादि यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात्तदपि कुर्यात्, याऽपि चिरन्तनी सम्पति स्थापिता साऽपि कदाचिदेवं चिन्तयति पयैतस्या धात्रीत्वान् च्यावनं कृतम्, एवमेव कदा For Pass Use Only उत्पादनादोषेषु धाश्रीदोषः ~ 249~ arra Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४२०|| दीप अनुक्रम [४५३ ] मूलं [४५३ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [४२०] + भाष्यं [ ३०...] + प्रक्षेपं [ ४... ]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Educator चिद्दृष्टमनसा ममापि 'विनो' घात्रीत्वात् च्यावनरूपोऽन्तरायः करिष्यते, तत एवं विचिन्त्य मारणाय 'विषादि ' गरमदृत्तिं प्रयुञ्जीत । उक्ता क्षीरधात्री, साम्प्रतं शेषधात्रीराश्रित्य दोषानतिदेशेनाह . एमेव सेसियासुवि सुयमाइसु करणकारणं सगिहे । इड्डीसं घाईसु य तहेव उट्टिया गमो ॥ ४२१ ॥ व्याख्या – अत्र पष्ठयर्थे सप्तमी, ततोऽयमर्थः -- एवमेव यथा क्षीरघापास्तथा 'शेषिकास्वपि शेषाणामपि मृज्जनादियात्रीणां 'सुतमातृषु' सुतमातृकल्पानां यत् स्वयं करणं मज्जनादेर्यथान्यया कारणं तत् ' स्वगृहे ' बालकमातृगृहे गतः सन् साधुर्यथा करोति तथा वाच्यं तथा च सतिं ' अहिगरण भद्द पंता' इत्यादिगायोक्ता दोषा वक्तव्याः, तथा तथैव-क्षीरधात्री गतेनैव प्रकारेण 'ऋद्धिषु ऋद्धिमत्सु ईश्वरगृहेषु अभिनवस्थापितानां मज्जनादिधात्रीणां 'धाईसु यत्ति भावप्रधानोऽयं निर्देशः पञ्चम्यर्थे च सप्तमी, ततोऽय* मर्थः धात्रीत्वेभ्य उद्वर्त्तितानांच्यावितानां (गमो ) योगः 'उब्बहिया पञसं' इत्यादिरूपः स सकलोऽपि तथैव वक्तव्यः । अतिसहित* मिदमुक्तम्, अतो विशेषत एतद्विभावयिष्णुः प्रथमतो मज्जनधात्रीत्वस्य करणं कारणं च तथाऽभिनवधाच्या दोषप्रकटनं च यथा साधुः * कुरुते तथा भावयति- लोलइ महीऍ धूलीऍ गुंडिओ व्हाणि अहव णं मज्जे । जलभीरु अबलनयणो अइउप्पिलणे अ रचच्छो ॥ ४२२ ॥ व्याख्या -- एप वालो मह्यां 'लोलपति' लोटते ततो धूल्यां गुण्डितो वर्त्तते तस्मात्लापय, एतत् मज्जनधात्रीत्वस्य कारणम्, अथवा यदि पुनस्त्वं न पारयसि तहं 'मज्जामि' स्नपयामि, एतत्स्वयं मज्जनधात्रीत्वस्य करणम्, अथवाऽन्यथा मज्जनधात्रीत्वस्य For Park at Use Only ~ 250~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४५५] → "नियुक्ति: [४२२] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत तर्मळयगि गाथांक नि/भा/प्र ||४२२|| पिण्डनियु- कारण, क्यापीश्वरयदे काऽपि मज्जनधात्री धात्रीत्वात् स्फेटिता, साधुश्च तस्या गृहं भिक्षार्थ प्रविष्ट, तां च धात्रीत्वात्परिभ्रंशेन विषण्णां उत्पादना दृष्ट्वा पूर्वप्रकारेण च पृष्ट्वा कृत्वा च प्रतिज्ञामीश्वरगृहे च. गत्वाऽभिनवमजनधात्रीदोपप्रकटनायाह-जलभीर' इत्यादि, अतिशये दोषेषु धारीयावृत्तिः नोप्लावने प्रभूतजलप्लावनेन गुप्यमानो बालो गुरुरपि जातो नद्यादौ जलप्रवेशे जलभीरुर्भवति, तथा निरन्तरजलेनोल्लाव्यमानः 'अब- त्रीदोपः लनयना' अवलदृष्टिर्जायते रक्ताक्षश्च, यदि पुनः सर्वथाऽपि न मज्ज्यते न शरीरं चलमादत्ते नापि कान्तिभाग दृष्टया चावलो जायते, एषा ॥१२४॥ च धात्री बालमतिजलोत्प्लावनेन मज्जयति ततो जलभीरतादयो दोषा बालस्य भविष्यन्ति, तस्मान्नैषा मन्जनधात्री युक्ता, एवमुक्त सति || तामभिनवस्थापितां मजनधात्री गृहस्वामी स्फेटयति, चिरन्तनीमेव कुरुते, तथा च सति त एवं प्राक्तना उच्चट्टिया पोसा इत्यादिरूपा दोषा वाच्याः, एवमुत्तरत्रापि प्रतिगार्थ भावना भावनीया । अथ मजनधात्री कथंभूतं वालं कृत्वा मण्डनधान्याः समपियति , तत आह। अन्भंगिय संवाहिय उव्वट्टिय मज्जियं च तो बालं । उवणेइ मज्जधाई मंडणधाईऍ सुइदेहं ॥ ४२३ ॥ व्याख्या-नानधात्री प्रथमतः स्नेहेनाभ्यङ्गितं ततो इस्ताभ्यां सम्बाधितं तदनन्तरं पिष्टिकादिनोवर्तितं ततो मन्जितं-शुचीभूतदेई बालं कृत्वा मण्डनधान्याः समर्पयति ॥ उक्ता मज्जनधात्री, सम्पति मण्डनधात्रीत्वस्य कारणं करणं च तथाऽभिनवस्थापिताया धाच्या दोषणकटनं च यथा साधुः कुरुते तथा दर्शयतिउसुआइएहि मंडेहि ताव णं अहव णं विभूसेमि । हत्थिचगा व पाए कया गलिच्चा व पाए वा ॥ ४२ ॥ . व्याख्या-'इधुकः' इधुकाकारमाभरणम् अन्ये तिलकमित्याहुः, आदिशब्दात् क्षुरिकाकारायाभरणपरिग्रहः, इह भिक्षार्थ प्रविष्टः । दीप अनुक्रम [४५५] ॥११४॥ ~ 251~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४५७] → "नियुक्ति: [४२४] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४...] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४२४|| ゆりりるるるるるるからなる々々々々々々々々 सन् श्राद्धिकाचित्तावर्जनार्थ बालकमनाभरणपवलोक्य तजननीमेवमाह-दृष्कादिभिः आभरणविशेषैस्तावदेनं वालक 'मण्डय विभूषय, || एतत् मण्डनधात्रीत्वस्य कारणम् । अथवा यदि पुनस्त्वं न प्रपारयास तोहं विभूपयामि, एतत् स्वयं मण्डनधात्रीत्वस्य करणं । पूर्वधात्रीस्थानीयाभिनवस्थापिताया मण्डनधाच्या दोषानाह-'हत्यिचगा' हस्तयोग्यान्याभरणानि पादे कृतानि, अथवा 'गलिचा' गलसत्कानि | आभरणानि पादे कृतानि तस्मात्रेयं मण्डनधात्री मण्डनेऽभिज्ञा, ततस्तस्या मण्डनधात्रीत्वाश्पावनमित्यादि पूर्वपदावनीयम् । उक्ता मण्डनधात्री, सम्मत्यभिनवस्थापितायाः क्रीडनधाच्या दोषप्रकटनं क्रीडनधात्रीत्वस्य करणं कारणं च यथा विदधाति साधुस्तथाऽऽह ढङ्करसर छुन्नमुहो मउयगिरो मउयमम्मणुल्लावो । उल्लावणगाईहि व करेइ कारेइ वा किहुं ॥ ४२५ ॥ व्याख्या-एषाऽभिनवस्थापिता क्रीडनधात्री ढडरस्वरा, ततस्तस्याः स्वरमाकर्णयन् बालो 'छुन्नमुखः' लीवमुखो भवति, अथवा मृदुगीरेपा ततोऽनया रम्यमाणो बालो मृदुगीभवति, यदिवा 'मृदुमन्मनोल्लापः' अव्यक्तवाक्, तस्मापा शोभना, किन्तु चिरन्तन्येवेस्यादि प्रागिव, तथा भिक्षार्थ प्रविष्टः श्राद्धिकाचित्तापर्जना बालमुल्लापनादिभिः स्वयं क्रीडा कारयति । उक्ता क्रीडनधात्री, सम्पत्यङ-12 धाच्या अभिनवस्थापितायाः स्फेटनाय सामान्यतो दोषपकटनं यथा साधुः करोति तथा दर्शयति| थुल्लीए वियडपाओ भग्गकडीसुक्कडाए दुक्खं च । निम्मंसकक्खडकरहिं भीरुओ होइ घेप्पते ॥ ४२६ ॥ व्याख्या-इह 'स्थूलया' मांसलया धात्र्या कठ्यां ध्रियमाणो बालः 'विकटपादः' परस्परवदन्तरालपादो भवति, भन्नकटया शुष्ककटधा या कटयां प्रियमाणो दुःखं तिष्ठति, निर्मीसकर्कशकराभ्यां च ध्रियमाणो बालो भीरुर्भवति, एषा चाभिनवस्थापिता धात्री 0000006666०००००००००००००००००००००० दीप अनुक्रम [४५७] ~252~ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४५९] → "नियुक्ति: [४२६] + भाष्यं [३०...] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४२६|| पिण्डानयु-18 अन्यतमदोषदुष्टा तस्मान युक्ता किन्तु प्राक्तन्येवेत्यादि पागिव । अधात्रीत्वस्य कारणं स्वयं करणं च स्वयमेव भावनीयं, तश्चैवं- १ धात्रीदोतर्मलयगि- कोऽपि साधुर्भिक्षार्थं प्रविष्टो बालक रुदन्तमवलोक्य तज्जननीमेवमाह-अङ्के गृहाणेदं बालकं येन न रोदिति, यदि पुनस्त्वं न प्रपारयास संगमसूरीयावृत्तिः नद्यहं वा गृहामि । सम्मति कीडनधात्रीत्वस्य करणे दोष दृष्टान्तेन भावयति Maरिदचोदा० कोल्लइरे वत्थव्वो दत्तो आहिंडओ भवे सीसो । अवहरइ धाइपिंड अंगुलिजलणे य सादिव्वं ॥ ४२७॥ ॥१२॥ | व्याख्या-कोल्लकिरे नगरे वाईके वर्चमानाः परिक्षीणजड्डमवलाः सङ्गमस्थविरा नाम सूरयः, तैवान्यदा दुर्भिले जाते सति । सिंहाभिधानः स्वशिष्य आचार्यपदे स्थापयित्वा गच्छं च सकलं तस्य समन्यित्र मुभिने देशे विहारक्रमेण प्रेषितः, स्वयं चैकाकी तत्रैव तस्थौ, ततः क्षेत्रं नवमि गैर्विभज्य तत्रैव यतनया मासकल्पान् वर्षारात्रं च कृतवान, यतना च चतुर्विधा, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतच, तब द्रव्यतः पीठफलकादिषु क्षेत्रतो क्सतिपाटकेतु कालत एकत्र पाटके मासं स्थित्वा द्वितीयमासेऽन्यत्र वसतिगवेषणं भावतः सर्वत्र निर्ममत्वं, ततश्च किश्चिदूने वर्षेऽतिक्रान्ते सिंहाचार्यस्तेषां प्रदृचिनिमित्तं दत्तनामानं शिष्यं प्रेषितवान् , स चागतो, यस्मिन्नेव । क्षेत्रविभागे पूर्व मुक्ताः सूरयस्तस्मिन्नेव स्थिता दृष्टाः, ततः स खचेतसि चिन्तयामास-अहो ! भावतोऽप्यमी मासकल्प न व्यदधुः, तस्मान्न शिथिलैः सहकत्र वस्तव्यमिति परिभाव्य वसतेर्बहिर्मण्डपिकायामुत्तीर्णः, ततो वन्दिताः सूरयः, पृष्टाः कुशलवा , कथितं । सिंहाचार्यसन्दिएं, ततो भिक्षावेलायामाचार्यैः सह भिक्षार्थ प्रविवेश, अन्तमान्तेषु च गृहेषु प्रादितो भिक्षा जातो विच्छायमुखः, ततः ॥१२॥ सूरयस्तस्य भावमवगम्य कचिदीश्वरगृहे प्रविष्टः, तत्र व्यन्तयधिष्ठितः सदैव बालको रोदिति, ततः सूरयस्तं दृष्ट्वा चप्पुटिकापुरस्सरमालापयामासुः, यथा-वत्स! मा त्वं रोदीरिति, तत एषमालापिते मूरिप्रभावतः सा पूतना व्यन्तरी प्राणेशत, स्थितो रोदितुं (तात) दीप अनुक्रम [४५९] ~253~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४६१] .→ “नियुक्ति: [४२७] + भाष्यं [३१] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३१|| बालक, जातः प्रहष्टो गृहनायकः, ततो दापितास्तेन भूयांसो मोदकाः, ताँश्च माहिती दत्तः सूरिभिः, अजायत प्रहृष्टः, ततो मुत्कलितो वसती, ततः सूरयः स्वशरीरनिःस्पृहा यथाऽऽगमविधि प्रान्तकुलेष्वटिरवा वसतावृपाजग्मुः, प्रतिक्रमणवेलायां च दचो भणितो-वत्स!|| जापानीपिण्डं चिकित्सापिण्टं चालोचय, स पाह-युष्माभिरेव सहाई बिहुतः, ततः कर्य मे धात्रीपिण्डादिपरिभोगः, सूरयोऽवोच लघुवालकक्रीडनेन क्रीडनधात्रीपिण्डः, चप्पुटिकाकरणतः पूतनातो मोचितत्वाचिकित्सापिण्डः, ततः स प्रदुष्टः स्वचेतसि चिन्तयतिस्वयं भावतोऽपि मासकल्पं न विदधाति एतादृशं च पिण्डं दिने दिने गृहाति मां पुनरेकदिनगृहीतमप्यालोचयति, तत एवं विचिन्स्य प्रदूषतो वसतेवेदिः स्थितः, ततस्तस्य सूरिविषयप्रदेषदर्शनतः कुपितया सूरिगुणावर्जितया देवतया तस्य शिक्षार्य वसतावन्धकार सवात च वर्ष विकुर्वित, ततः स भयभीतः सूरीनाइ-भगवन् ! कुत्राई ब्रजामि', ततस्तैः क्षीरोदजलवदतिनिर्मलहृदयैरभाणि-वस्स ! एहि वसतौ भविशेति, दत्त आह-भगवन् ! न पश्याम्पन्धकारेण द्वारमिति, ततोऽनुकम्पया श्लेष्मणा सूरिभिर्निजाङ्गलिरुइत्योड़ी-|| कृता, सा च दीपशिखेव ज्वलितुं प्रवृत्ता, ततः स दुरात्मा दत्तोऽचिन्तयत्-अहो! एतस्य परिग्रहे बहिरप्यस्ति, एवं च चिन्तयन् देवतया निभर्तिसती हा ! दुष्टशिष्याधम ! एतादृशानपि सर्वगुणरत्नाकरान् सूरीनन्यथा चिन्तयसि, ततो मोदकलाभादिको वृत्तान्तः सर्वोऽपि यथावस्थितो देवतया कथयामासे, जाता तस्य भावतः प्रत्यावृत्तिः क्षामिताः सूरयः, आलोचितं सम्यक् । सूत्र सुगर्म, नवरं 'सादिवं' देवताप्रातिहार्यम् । एतदेव गायाद्येन भाष्यकृद्रिष्टणोति ओमे संगमथेरा गच्छ विसज्जंति जंघबलहीणा । नवभाग खेत्त वसही दत्तस्स य आगमो ताहे ॥ (भा०४०)। उवसयबाहिं ठाणं अन्नाउंछेण संकिलेसो य । पूयणचेडे मा रुय पडिलाभण वियडणा सम्मं ॥ (भा०४१) दीप अनुक्रम [४६१] भा०३१ भा०३२ ~254~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४६२] → “नियुक्ति: [४२७] + भाष्यं [३२] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३२|| पिण्डनियु- व्याख्या-मुगम, नवरं पूयणचेडे'त्ति पूतना-दुष्टव्यन्तरी तया गृहीते 'चेटे' वालके रोदिति, 'विकटना : आलोचनम् । उक्त धात्रीदोतेर्मलयनि- धात्रीद्वारम् । अथ दूतीद्वारमाह घे संगमसूरीयावृत्तिः सग्गाम परम्गामे दुविहा दुई उ होइ नायब्वा । सा वा सो वा भणई भणइ व तं छन्नवयणेणं ॥ ४२८॥ मारिदत्तोदा० ॥१२६॥ व्याख्या--इह दूती द्विधा, तयथा-स्वग्रामे परग्रामे च, तत्र यस्मिन् ग्रामे सार्यसति तस्मिन्नेव ग्रामे यदि सन्देशककथिका हातहि सा खग्रामदूती, या तु परग्रामे गत्वा सन्देशं कथयति सा परग्रामदूती, एकैकाऽपि च द्विधा, तपथा-कटा छन्ना च, तब |सा तव माता स वा तव पिता एवं भणति-सन्देशं कथयति, सा प्रकटा, या तु तं सन्देश छन्त्रवचनेन कथयति सा छन्बा । एनमेवार्थ । सविशेष व्यक्तीकरोति एकेकावि य दुविहा पागड छन्ना य छन्न दुविहा उ । लोगुचरि तत्थेगा बीया पुण उभयपक्खेऽवि ॥ ४२९॥ व्याख्या-इह दूतीत्वसमाचरणमपि दूती, साऽपि चैकैका स्वग्रामविषया परग्रामविषया च द्विघा, तद्यथा-प्रकटा छन्ना च, सत्र छिन्ना पुनरपि द्विधा, तद्यथा-एका 'लोकोत्तरे' लोकोत्तर एव, द्वितीयसङ्घाटकसाधोरपि गुप्ता इत्यर्थः । द्वितीया पुनरुभयपक्षेऽपि || लोके लोकोत्तरे च, पार्षवर्तिनो जनस्य सङ्घाटकसत्कद्वितीयसाधोरपि च गुति भावः । स्वग्रामपरग्रामविषयां प्रकटा दूतीमाह ॥१२६॥ भिक्खाई वच्चंते अप्पाहणि नेइ खंतियाईणं । सा ते अमुगं माया सो व पिया ते इमं भणइ ॥ ४३०॥ . व्याख्या-'भिक्षादौ ' भिक्षादिनिमित्तं चेत्यर्थः, वर्जस्तस्यैव ग्रामस्य सत्के पाटकान्तरे परग्रामे वा खंतियाईणं' जनन्यादी ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ दीप अनुक्रम [४६२] ~255~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४६५] → "नियुक्ति: [४३०] + भाष्यं [३२...] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४३०|| नाम् ' अप्पाणि' सन्देशं कथयति, यथा सा ते माताऽसुकं भगति, स वा ते पिता इदं भणति । सम्मति स्वामारप्रामाविया लोको-16 त्तरे छन्नां दूतीमाह| दइत् ख गरहियं अप्पाहिउ बिइयपच्चया भणति । अविकोबिया सुया ते जा आह इमं भणसु खंति ॥ ४३१।। व्याख्याकोऽपि साधः कस्याधित पुत्रिकया ' अपाहितः सन्दिष्टः सन् एवं विचिन्तयति द्वतीवं खल गर्हितं. सावयत्वात. तत एवं विचिन्त्य द्वितीयपत्ययात्-द्वितीयसलाटकसाधुमों मां दूतीदोपदुष्टुं ज्ञासीदिल्येवमर्थ भगवन्तरेणेदं भणति-पथा 'अविकोविदा' अकुशला जिनशासने सा तव सुता या आह-इदं भण मदीयां 'खन्ति' जननीमिति, साऽप्परगतार्थसन्देशिका द्वितीयसङ्घाटकसाधुचित्तरक्षणार्यमेवं भणति-वारयिष्यामि तां निजमुतां येन पुनरेवं न सन्दिशतीति । सम्मति स्वग्रामविषयामुभयपक्षपच्छन्ना दूतीमाहउभयेऽवि य पच्छन्ना खंत ! कहिज्जाहि खंतियाएँ तुमं । तं तह संजायंति य तहेव अह तं करेज्जासि॥३२॥ व्याख्या-उभयस्मिन्नपि च ' लोकलोकोत्तररूपे पक्षे पच्छन्ना दूतीय, यथा 'खंत 'ति विभक्तिलोपात खन्तस्य-पितुरथया । 'खन्तिकायाः जनन्यास्त्वं कथय, यथा तद् विदितं विवक्षितं कार्य तथैव सञ्जातम् , अयत्रा तद्विवक्षितं तयैव कुर्याः । सम्मति प्रकट परग्रामदूतीत्वमाश्रित्य दोषान् दृष्टान्तेनोपदर्शयति गामाण दोण्ह वेरै सेज्जायरि धूय तत्थ खंतस्स । वहपरिणय खंतऽज्झत्थ(प्पाह)णं व णाए कए जुई ॥४३३॥ दीप अनुक्रम [४६५] ~256~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४६९] → "नियुक्ति: [४३४] + भाष्यं [३२...] + प्रक्षेपं [४...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४३४|| दत्तकथा पिण्डनियु- जामाइपुत्तपइमारणं च केण कहियंति जणवाओ | जामाइपुत्तपइमारएण खंतेण मे सिद्धं ॥ ४३४ ॥ 8 उत्पादनातर्मळयगि व्याख्या विस्तीर्णो नाम ग्रामः, तस्योपकण्ठे गोकुलाभिधो ग्रामः, विस्तीर्णग्रामे च धनदत्तो नाम कुटुम्ची, तस्य भार्या प्रियरीयातिः ||मतिः, तस्या दुहिता देवकी, सा च तस्मिन्नेव ग्रामे सुंदरेण परिणीता, तस्याः पुत्रो बलिष्ठो, दुहिता रेवतिः, सा च गोकुलग्रामे सङ्गमेन ॥१२॥ परिणिन्ये, प्रियमतिश्चायुःक्षयात पञ्चत्वमुपगता, धनदत्तोऽपि संसारभयभीत: प्रवज्यामग्रहीद, गुरुभिश्च सार्दै विहरति । ततः कालान्तरे || पुनरपि यथाविहारक्रमं तत्रैव ग्रामे समागतो निजदुहितुर्देवक्या वसतावस्थात्, तदानीं च तयो योरपि ग्रामयोः परस्परं वैरं वर्चते, विस्तीर्णग्रामवासिना च लोकेन गोकुलग्रामस्योपरि घाटी मूत्रिता, धनदचश्च साधुर्गोकुलग्रामे भिक्षायै चलितवान्, ततो देवक्या दुहित्रा शय्यातर्या भणितो-यथा हे पितः ! त्वं गोकुलगामे यास्यसि, ततो निजदौहिच्या रेवत्याः कथय यथा तब जनन्या सन्दिष्टम्-अयं । ग्रामस्तव ग्रामस्योपरि छन्नधाटचा समागमिष्यति ततः सकलमपि स्वकीयमेकान्ते स्थापयरिति, ततः साधुना तथैव तस्याः कथित, ।। तया च निजभते, तेन च सकलग्रामस्य, ततः सर्वोऽपि ग्रामः सन्नद्धवद्धकवचोऽभवत, आगतश्च द्वितीयदिने धाटचा विस्तीर्णग्रामो ||जातं परस्परं महाद्ध, तत्र मुन्दरो बलिष्ठश्च धाटचा सह गती, सङ्गमश्च गोकुलग्रामे वसति, तत्र प्रयोऽपि च युद्धे पश्चत्वमुपजग्मुः, देवकी च पतिपुत्रजामातृमरणमाकग्य विलपितुं मावर्तत, लोकश्च तन्निवारणाय समागतोऽवादीव-यदि गोकुळग्रामो घाटीमागच्छन्ती नाज्ञास्यत् ॥ ततोऽसम्बद्धो नायोत्स्यत, तथा च न तब पस्यादयो म्रियेरन्, ततः केन दुरात्मना गोकुलनामो ज्ञापितः, एतय कोकस्य वचः श्रुत्वा । ॥१२७॥ सञ्जातकोपा सैवमवादीत-मयाजानत्या पित्रा दुहितुः सन्दिष्ट, ततस्तेन साधुवेषविडम्बकेन मत्पतिपुत्रजामातृमारकेण पित्रा ज्ञापितः, ततः स लोके स्थाने स्थाने विकारं लभते । प्रवचनस्य च मालिन्यमुदपादि । सूत्र सुगमम्, उक्तं दूतीद्वारम्, अथ निमित्चद्वारमाह दीप अनुक्रम [४६९] ~ 257~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४७१] .→ “नियुक्ति: [४३५] + भाष्यं [३२...] + प्रक्षेपं [9]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र नियमा तिकालबिसएऽवि निमित्ते छव्विहे भवे दोसा । सज्जं तु वट्टमाणे आउभए तत्थिमं नायं ॥ ४३५ ॥ ____ व्याख्या-त्रिकालविषयेऽपि । अतीतविषये वर्तमानविषये भविष्यद्विषये च प्रत्येक षड्विधे लाभालाभमुखदुःखजीवितमरणरूपे निमित्ते नियमादोषा भवन्ति, ते च दोषा 'आउभए 'त्ति केचिदात्मविघातिनस्तस्य साधोारणादिहेतव इत्यर्थः, केचिदुभयविघातिनः ये साधोः शेषस्य च जीवस्य धातहेतवः, उपलक्षणमेतत्, केचित्केवळपरविघातिनच, तत्र 'वर्तमाने वर्तमानकालविषये निमित्ने प्रयुज्यमाने 'सद्यः । तत्क्षणं परविघातकारिणीदं वक्ष्यमाणं ज्ञातमुदाहरणं । तदेवाह-- आकंपिया निमित्तेण भोइणी भोइए चिरगयमि । पुव्वभणिए कहं ते आगउ ? रुट्ठो य वडवाए ॥ ४३६ ॥ व्याख्या-कोऽपि ग्रामनायको निजभार्या पश्चान्मुक्त्वा दिग्यात्रां गतः, सा च तद्भार्या केनापि साधुना निमित्तेनावजिता, |ग्रामनायकेन च दूरगतेन चिन्तितं, यथाऽहमेकाकी प्रच्छन्नो गत्वा निजभार्यायावेष्टितमवेक्षिष्ये, सा किं दुःशीला सुशीला? इति । अथ च तदार्यया साधोः सकाशात्तदागमनमवगत्य परिजनः सर्वोऽपि तत्सम्मुखं प्रेषितः, पृष्टश्च भोजकेन परिजनो-यथा भोः! कयं मदागमनमज्ञायि! इति, स पाह-भोगिन्या कथितमिति, साधुश्च तदानी भोजकगृहे समागतो बत्तते, भोगिन्याश्च प्रत्ययपुरस्सरं नायकेन सह यजल्पितं ययेष्टितं यो वाऽनया स्वमो दृष्टो यद्वा शरीरे मपतिलकादि तत्सर्वं कथयन्नास्ते, अत्रान्तरे च समागतो भोजकः,18 कृतश्च तया यथोचित उपचारः, पृष्टा च तेन-कथं त्वया ममागमनमवजम्मे? इति, साऽवादीत-साधुनिमित्तात्, ततस्तेन भणितम् , अस्ति कोऽप्यन्योऽपि प्रत्ययः, सा ततोऽवादी-युष्माभिः सह पूर्व जल्पितं चेष्टितं च यो वा मया स्वमो दृष्टः यश्च मम गुह्यपदेशे 06660000०००००००००००००00000रूककरून दीप अनुक्रम [४७१] अत्र एका प्रक्षेप-गाथा वर्तते. सा मया संपादित: 'आगमसुत्ताणि' मूलं एवं सटीकं उभये पुस्तके वर्तते ~258~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४७३] → "नियुक्ति: [४३६] + भाष्यं [३३] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३३|| पिण्डनियु-तिलकस्तत्सर्वमनेनावितथं कथयामासे, ततः स ईविशविस्फुरितकोपहुतवहः साधुमपृच्छत् कथय साधो ! किमस्या बडवाया गर्भेऽस्ति ? | उत्पादनाकेमेलयगि- इति, साधुः माह-पञ्चपुण्ट्र: किशोरः, ततः सोऽचिन्तयत्-यदीदं सत्यं भविष्यति ताई मद्भार्यामपतिलकादिकथनमपि सत्यम् , इतरथा अव- दोषेषु ३ रीयावृत्तिः । इयमेप विरुद्धकर्मसमाचारीति विनिपात्या, तत एवं विचिन्त्य वडवाया गर्भः पाटितः, पातितः परिस्फुरन् पञ्चपुण्डः किशोरः, ततस्तं दृष्टा निमित्ते सजातकोपोपशमः साधुमवादी-यदीदं न भवेत्तहिं त्वमपि न भवेरिति । मूत्र सुगमम् । एतदेव गाथाद्वयेन भाष्यकृविणोति- भोजककथा ॥१२८॥ | दूरा भोयण एगागि आगओ परिणयरस पच्चोणी । पुच्छा समणे कहणं साइयंकार सुमिणाई ॥ (भा०४२)। भा० ३३ कोवो वडवागन्भं च पुच्छिओ पंचपुंडमाइंसु । फालणदिटे जइ नेव तो तुहं अवितहं कइ वा ॥ (भा०४३)|| भा० ३४ व्याख्या-मुगम । नवरं 'पयोणी ' सन्मुखागमनं, 'साइयंकार'त्ति सप्रत्ययं स्वमादि, अपि प-अत्र साधुना समस्पयकथनेनात्मनो वधः पारदारिकत्वं च दूषणं परिहतं, कति पुनरेवंविधाः 'अवितर्थ' निमित्तं कथयिष्यन्ति ?, तस्मात्सर्वथा साधुना निमित्तं | न प्रयोक्तव्यमिति । उक्तं निमित्तद्वारं, साम्पतमाजीबद्वारमाह जाई कुल गण कम्मे सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा । सूयाएँ असूयाएँ व अपाण कहेहि एकेके ॥ ४३७ ॥ ___ व्याख्या-आजीवना पञ्चविधा, तयथा-'जातिविषया' जातिमाजीवनीकरोतीत्यर्थः, एवं कुलविषया गणविषया कर्मविषया शिल्पविषया च, सा चाऽऽजीवनकै कस्मिन भेदे द्विधा, तद्यथा-सूचयाऽऽस्मानं कथयति, असूचधा च, ता 'सूचा' वचनभङ्गिविशेषेण । कथनं असूचा' स्फुटवचनेन । तत्र जात्यादीनां लक्षणमाह दीप अनुक्रम [४७३] ॥१२८॥ ~ 259~ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४७६] .→ “नियुक्ति: [४३८] + भाष्यं [३४] + प्रक्षेपं [५...]" . प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४३८|| जाईकुले विभासा गणो उ मल्लाइ कम्म किसिमाई । तुलाइ सिप्पडणावज्जगं च कंमेयराऽऽवजं ॥ ४३८ ॥ व्याख्या-जातिकुले 'विभापा' विविध भाषणं कार्य, तचैवं-जाति:-ब्राह्मणादिका कुलम्-उग्रादि , अथवा मातुः समुत्था जातिः पितृसमुत्थं कुलं । 'गणः " मल्लादिवृन्द, कर्म-कृष्यादि, 'शिल्लं' तूणोदि-तूणेनसीवनप्रभृति, अथवा 'अनावकम् ' अप्रीत्युत्पादक कर्म इतरतु 'आवर्जकं' पीत्युत्पादकं शिल्पम्, अन्ये त्वाः -अनाचार्योपदिष्टं कमें आचार्योपदिष्टं तु शिल्पमिति । तत्र यथा । साधुः सूचया स्वजातिप्रकटनाजातिमुपजीवति तथा दर्शयतिहोमायवितहकरणे नज्जइ जह सोत्तियस्स पुत्तोत्ति । वसिओ वेस गुरुकुले आयरियगुणे व सूएइ ॥ ४३९ ॥ व्याख्या-साधुभिक्षार्थमटन् ब्राह्मणगृहे प्रविष्टः सस्तस्य पुत्रं होमादिक्रियाः कुर्वाणं दृष्ट्वा तदभिमुखं प्रति स्व नातिप्रकटनाय जल्पति-होमादिक्रियाणामवितथकरणे एष तव पुत्रो ज्ञायते-यथा श्रोत्रियस्य पुत्र इति, यदिवोषित एष सम्यगुरुकुले इति ज्ञायते अथवा सूचयत्येष तव पुत्र आत्मन आचार्यगुणान् , ततो नियमादेष महानाचार्यों भविष्यतीति । तत एवमुक्त स ब्राह्मणो वदतिसाधो ! त्वमवश्यं ब्राह्मणो येनेत्थं होमादीनामवितथत्वं जानासि, साधुश्च मौनेनावतिष्ठते, एतच्च सूचया स्वजातिमकटनम् । अत्र चानेके दोषाः, तथाहि-यदि स ब्राह्मणो भद्रकस्तहि स्वजातिपक्षपाततः प्रभूतमाहारादिकं दापयति, तदपि च जात्युपजीवननिमित्तमिति भग-18 वता प्रतिषिद्धम् , अथ प्रान्तस्तहि भ्रष्टोऽयं पापात्मा ब्राह्मण्यं परित्यक्तमिति विचिन्त्य स्वगृहनिष्कासनादि करोति, असूचया तु जात्या-| जीवनं पृष्टोऽपृष्टो वाऽऽहारार्थ स्वजाति प्रकटयति-यथाऽई ब्राह्मण इति, तत्राप्यनन्तरोक्ता एव दोषाः, क्षत्रियादिजातिषपि, एवं कुलादिष्वपि भावनीयम् । एतदेव किञ्चिद्व्यक्तीकुर्वनाह दीप अनुक्रम [४७६] wwsaneiorary.org ~260~ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४४०|| दीप अनुक्रम [४७८] पिण्डनिर्युकमलयगि रीयावृचिः ।।१२९।। मूलं [ ४७८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ◆❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖ “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) “निर्युक्तिः [४४०] + भाष्यं [ ३४...] + प्रक्षेपं [५...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ८० सम्ममसम्मा किरिया अणेण ऊणाऽहिया व विवरीया । समिहामंता हुइठाणजागकाले य घोसाई ॥ ४४० ॥ व्याख्या - साधुभिक्षार्थमटन क्वचिद् ब्राह्मणगृहे प्रविष्टः संस्तस्य पुत्रं होमादिक्रियाः कुर्वाणं दृष्ट्रा पितरं प्रति स्वजातिमकटनाथ जल्पति-अनेन तव पुत्रेण सम्यगसम्यग्वा होमादिका क्रिया कृता, तत्रासम्यक् त्रिधा, तथथा - ऊनाऽधिका विपरीता वा, सम्यक् समि धादीन् घोपादींश्च यथाऽवस्थितानाश्रित्य तत्र 'समिषः ' अश्वत्थादिवृक्षाणां प्रतिशाखाखण्डानि ' मन्त्राः प्रणवमभृतिका अक्षरपद्ध* तयः 'आहुति' अग्नौ घृतादेः प्रक्षेपः स्थानम् उत्कटादि ' यागः ' अश्वमेधादिः 'काल:' प्रभातादि 'घोषा' उदात्तादयः, आदिश*ब्दाद्रस्वदीर्घादिवर्णपरिग्रहः, एवं चोक्ते स साधुं ब्राह्मणं जानाति, तथा च सति भद्रे मान्ते वा पूर्ववदोषा वक्तव्याः । उक्तं जातेरुपजी* वनम् अथ कुलाद्युपजीवनमाह- 1 Education Inte उग्गाइकुलेवि एमेव गणे मंडलप्पबेसाई । देउलदरिसणभासाउवणयणे दंडमाईया ॥ ४४१ ॥ व्याख्या -' एवमेव ' जाताविव कुलादिष्वपि उग्रादिषूपजीवनं अवगन्तव्यं यथा कोऽपि साधुस्यकुले भिक्षार्थी प्रविष्टः, तत्र च ॐ तत्पुत्रं पदातीन् यथावदारक्षककर्मसु नियुञ्जानं दृष्ट्वा तत्पितरमाह-- ज्ञायते तव पुत्रोऽप्रवेदितोऽपि यथायोगं पदातीनां नियोजनेनोग्रकुलसम्भूत इति, ततः स जानाति एषोऽपि साधुकुलसमुत्पन्न इति इदं तु सूचया स्वकुलमकाशनं, यदा तु स्फुटवाचैव स्वकुलमावेदयति * यथाऽहं उग्रकुलः भोगकुल इत्यादि तदाऽसूचया प्रकटनं तेषां भद्रप्रान्तत्वे पूर्वोक्तानुसारेण दोषा वक्तव्याः । तथा 'गणे' गणविषये ९ मण्डलप्रवेशादि, इहाकरवल (करवाट ) के प्रविष्टस्यैकस्य मल्लस्य यलुभ्यं भूखण्ड तन्मण्डलं, तत्र वर्त्तमानस्य प्रतिद्वन्द्विनो महस्य विघाताय For Pale Only ~261~ ० उत्पादनादोषेषु ४ आजीव दोषे ५ भेदः ॥ १२९ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४७९] .. “नियुक्ति: [४४१] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४४१|| या प्रवेशस्तदादि, आदिशब्दाद्रीचाग्रहादिपरिग्रहः, तथा ' देवकुलदर्शन' युद्धमवेशे चामुण्डापतिमापणमनं, 'भाषोपनयनं' प्रतिमल्लाहानाय तथा तथा वचनदौकनं दण्डादिका' धरणिपातच्छुप्ताङ्कयुद्धप्रभृतयः, एतान् गणपदे प्रविष्टः सन् तत्पुत्रस्य प्रशंसति, तथा च सति तेन ज्ञायते यथैपोऽपि साधुर्मल इत्यादि प्राग्वत् । कर्मशिल्पयोराजीवनमाह कत्तरि पओअणावेक्खवत्थु बहुवित्थरेसु एमेव । कम्मसु य सिप्पेसु य सम्ममसम्मेसु सूईयरा ॥ ४४२ ॥ व्याख्या-कर्मसु शिल्पेषु चैवमेव-कुलादाविवोपजीवनं वक्तव्यं, कथम् ? इत्याह-कर्चरि' कर्मणां शिल्पानां च विधायके, उपलक्षणमेतत् विधापके च वणिजादौ, सप्तमी चात्र पाठयथे, ततोऽयमर्थ:-कर्तुः कारापकस्य च प्रयोजनापेक्षेषु भूमिविलिखनादिषु समयोजननिमित्तं धियमाणेषु हलादिषु वस्तु, सूत्रे चात्र विभक्तिलोप आपत्वात् , 'बहुविस्तरेषु प्रभूतेषु नानाविधेषु च, सम्पगसम्पगिति वा सामोच्यमानेषु-शोभनाम्यशोभनानीति वा कथ्यमानेषु यदात्मनि कर्माण शिल्पे वा कौशलज्ञापनं तत्तयोरुपजीवनम् । इयमत्र भावना-18 प्रविष्टः सन् साधुः कृष्यादेः कर्तुः कारापकस्य वा तत्पयोजनापेक्षणीयानि नानारूपाणि हलादीनि बहूनि वस्तूनि तानि दृष्ट्वाऽऽत्मनः कर्मणि शिल्पे वा कौशलज्ञापनाय शोभनान्यशोभनानीति वा यक्ति तत्कर्मशिल्पयोराजीवनम् । अनेन च प्रकारेण कौशलज्ञापन सूचास्फुटवचनेन च कौशलकथनमसूचा । उक्तमाजीबद्वारम्, अथ बनीपकद्वारं वक्तव्यं, तत्र प्रथमतो बनीपकस्य भेदानिरुक्ति च शब्दस्याह| समणे माहणि किवणे अतिही साणे य होइ पंचमए । वणि जायणत्ति वणिओ पायप्पाणं वणेइति ॥ ४४३ ।। ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ दीप अनुक्रम [४७९] mational ~2624 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४८१] .. “नियुक्ति: [४४३] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४४३|| पिण्डनियु- व्याख्या-चनीपकः पञ्चधा, तद्यथा-' श्रमणे' श्रमणविषयः ब्राह्मगे कृपणेऽतिथौ शुनि च पञ्चमो भवति, तत्र चनीपक इति उत्पादनाकेमैकयगि- वनिरित्ययं चातुर्याचने, 'वनु याचने' इति वचनात्, ततो चनुवे-पायो दायकसम्मतेषु श्रमणादिष्वात्मानं भक्तं दर्शयित्वा पिण्डं याचते दोषेषु ५ रीयादृत्तिः इति 'वणिउत्ति बनीपकः, औणादिक ईपकात्ययः । सम्पति प्रकारान्तरेण बनीपकशब्दनिरुक्ति प्रतिपादयति बनीपके ॥१३॥ मयमाइवच्छगंपिव वणेइ आहारमाइलोभेणं । समणेसु माहणेसु य किविणाऽतिहिसाणभत्तेसु ॥ ४४४ ॥ M५ भेदाः व्याख्या—'मृता' पञ्चत्वमुपगता माता यस्य वत्सकस्य-तर्णकस्य तमिव गोपालकोऽन्यस्यां गीविशेषः, 'आहारादिलोभेन' भक्तपात्रवस्तुलुब्धतया श्रमणेषु ब्राह्मणेषु कृपणातिथिवभक्तेषु वनति-भक्तमात्मानं दर्शयतीति बनीपका, पूर्ववदोणादिक इंपकप्रत्ययः ।। सम्मति यावन्तः श्रमणशब्दवाच्यास्तावतो दर्शयित्वा तेषु वनीपकत्वं यथा भवति तथा दर्शयति| निग्गंथ सक्क तावस गेरुय आजीव पंचहा समणा । तेसि परिवेसणाए लोभेण वणिज को अप्पं ? ॥ ४४५ ॥ व्याख्या-'निर्ग्रन्थाः' साघवः 'शाक्याः' मायासूनवीयाः, तापसाः' वनवासिनः पाखण्डिनः 'गैरुकाः' गेहकरञ्जितकावाससः परिव्राजकाः 'आजीवकाः' गोशालकशिष्या इति 'पञ्चधा' पश्चमकाराः श्रपणा भवन्ति, एतेषां च यथायोग गृहिगृहेषु समा-| गताना 'परिवेषणे' भोजनप्रदाने क्रियमाणे सति कोऽप्याहारलम्पटः साधुः 'लोभेन' आहारादिलुब्धतया बनति-शाक्यादिभक्तमा H॥१३०॥ त्मानं दर्शयति, तद्भक्तगृहिणः पुरत इति सामर्थ्यगम्पम् । इह प्रायः शाक्पा गैरुका वा गृहिगृहेषु मुजते ततस्तान् मुखानानधिकृत्य । यथा साधुर्वनीपकत्वं कुरुते तथा दर्शयति दीप अनुक्रम [४८१] ~263~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४८४] .. “नियुक्ति: [४४६] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४४६|| भंति चित्तकम्म ठिया व कारुणिय दाणरुइणो वा । अवि कामगद्दहेसुवि न नरसई किं पुण जईसु ?॥ ४४६॥ व्याख्या एवं नाम निश्चला भगवन्तोऽमी शाक्यादयो भुञ्जते यथा चित्रकर्मलिखिता इव भुञ्जाना लक्ष्यन्ते, तथा परमकारुणिका एते दानरुचयश्च, तत एतेभ्योऽवश्यं भोजनं दातव्यम् , अपि च 'कामगर्दभेष्वपि' मैथुने गर्दविवातिपसके ब्राह्मणेविति गम्यते, दर्स न नश्यति , किं पुनरमीषु शाक्यादिषु, एतेभ्यो दत्तपतिशयेन बहुफळमिति भावः, तस्मादातव्यपेतेभ्यो विशेषतः । अत्र दोषान् दर्शयतिमिच्छत्तथिरीकरणं उगमदोसा य तेसु वा गच्छे । चडुकारदिन्नदाणा पञ्चत्थिग मा पुणो इंतु ॥४४॥ व्याख्या एवं हि शाक्यादिप्रशंसने लोके मिथ्यात्वं स्थिरीकृतं भवति, तथाहि-साधनोऽप्यमून प्रशंसन्ति तस्मादेतेषां सत्य इति, तथा यदि भक्ता भद्रका भवेयुः तत इत्थं साधुप्रशंसामुपलभ्य तयोगमाधाकर्मिकादि समाचरेयुः, ततस्तरम्पापा कदा चित्साधुवेषमपहाय तेषु शाक्यादिषु गच्छेयुः, तथा लोके चढ़कारिण एते जन्मान्तरेऽप्यदत्चदाना आहाराधय श्वान इवात्मानं दर्शयजन्तीत्यवर्णवादः, यदि पुनः शाक्यादयः शाक्यादिभक्ता चा 'प्रत्यर्थिकाः' अत्यनीका भवेयुः ततः प्रद्वेषतः प्रशंसावचनमवज्ञायेत्यं ब्रूयु:18|मा पुनरत्र भवन्त आयान्विति । ब्राह्मणभक्तानां पुरतो ब्राह्मणप्रशंसारूपं बनीपकत्वं यथा करोति तथा दर्शयति लोयाणुग्गहकारिसु भूमीदेवेसु बहुफलं दाणं । अवि नाम बंभबंधुसु किं पुण छक्कामनिरएसु ? ॥ ४४८ ॥ व्याख्या-पिण्डमदानादिना लोकोपकारिषु भूमिदेवेधु ब्राह्मणेष्वपि नाम ब्रह्मबन्धुष्वपि-जातिमात्रब्राह्मणेष्वपि दानं दीय दीप अनुक्रम [४८४] ~264~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४८६] .. “नियुक्ति: [४४८] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: रीयावृत्तिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४४८|| पिण्डनियु- मानं बहुफलं भवति, किं पुनर्यजनयाजनादिरूपपकर्मनिरतेषु ?, तेषु विशेषतो बहुफलं भविष्यतीति भावः । सम्पति कुपणभक्तानां | उत्पादनातेर्मलयगि- पुरतः कृपणप्रशंसारूपं वनीपकत्वं यथा समाचरति तथा प्रतिपादयति दोषेषु ५ किवणेसु दुम्मणेसु य अबंधवायंकजुगियंगेसुं । पूयाहिज्जे लोए दाणपडागं हरइ दितो ॥ ४४९ ॥ वनीपकेषु व्याख्या-इह लोकः पूजाहार्यः-पूजया हियते-आवर्यते इति पूजाहार्यः-पूजितपूजको, न कोऽपि कृपणादिभ्यो ददाति, भेदाः ॥१३॥ ततः कृपणेषु तथेष्टवियोगादिना दुर्मनस्तु तथाऽवान्धवेषु तथाऽऽतडो-ज्वरादिस्तयोगादातडिनोऽप्यातहास्तेषु तथा 'जुनिन्ताङ्गेषु च। कर्तितहस्तपादायवयवेषु निराकाङ्क्षतया ददस्मिलोके दानपताका ' हरति ' गृह्णाति । साम्प्रतमतिविभक्तानां पुरतोऽतिथिमशंसारूपं विनीपकत्वं यथा साधुर्विदधाति तथा दर्शयति| पाएण देइ लोगो उवगारिसु परिचिएसुऽज्झुसिए वा । जो पुण अढाखिन्नं अतिहिं पूएइ तं दाणं ॥ ४५० ।। व्याख्या-इह प्रायेण लोक उपकारिषु यद्वा परिचितेषु यदिवा ' अध्युपिते' आश्रिते ददाति भक्तादि, यः पुनरध्वखिन्नमतिथि पूजयति तदेव दान, जगति प्रधानमिति शेषः । अधुना शुनां भक्तानां पुरतः शुनकपशंसारूपं वनीपकत्वं कुर्वन् यक्ति तदु-18 पदर्शयति ॥१३॥ अवि नाम होज्ज सुलभो गोणाईणं तणाइ आहारो। छिच्छिक्कारहयाणं न हु सुलहो होइ सुणगाणं ॥ ४५१॥ केलासभवणा एए, आगया गुज्झगा महिं । चरंति जक्खरूवेणं, पूयाऽपूया हियाऽहिया ॥ ४५२ ॥ दीप अनुक्रम [४८६] Homurary.org ~265~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४५२|| दीप अनुक्रम [ ४९० ] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [ ४९० ] • "निर्युक्ति: [ ४५२ ] + भाष्यं [ ३४...] + प्रक्षेपं [५...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या - अपि नाम गवादीनां तृणादिक आहारो भवेत् सुलभ, छिच्छिका रहतानां स्वमीषां शूनां न तु कदाचनापि भवति सुलभः, तत एतेभ्यो यद्दीयते तदेव बहुफलमिति भावः अपि च नैते श्वानः श्वान एव, किन्तु 'गुद्यका' देवविशेषा 'कैलासभवनातू ' कैलासपर्वतरूपादाश्रयादागत्य 'महीं' पृथिवीं यक्षरूपेण श्वाकृत्या चरन्ति तत एतेषां पूजाऽपूजा च यथासङ्ख्यं हिताऽहिता चेति । सम्पति ब्राह्मणादिविषयवनीपकत्वे दोषानाह मज्झ भावो दो लोए पणामहेज्जमि । एक्केके पुग्वृत्ता भद्दगपंताइणो दोसा ॥ ४५३ ॥ व्याख्या- ' एतेन ' अनेन साबुना 'मज्झ' मदीयः 'भाव: ' भक्तत्वलक्षणः 'दृष्टः ' अवगतो 'लोके' ब्राह्मणादी, किंविशिष्टे ? इत्याह-' प्रणामहायें' प्रणामः प्रणमनं तेन, उपलक्षणमेतत् दानादिना च, हायें- आवर्जनीये, तत एकैकस्मिन् ब्राह्मणादिविषये वनीपकत्वे पूर्वोक्ता भद्रकमान्तादयो दोषा भावनीयाः किमुक्तं भवति ?-यदि भद्रकस्तर्हि प्रशंसावचनतो वशीकृत आधाकर्मादि कृत्वा प्रयच्छति, अथ प्रान्तस्तर्हि गृहनिष्कासनादि करोति । इह माक् 'साणे पुण होइ पंचमए' इत्युक्तं तत्र साणग्रहणं काकादीनामुपलक्षणं, तेन काकादिष्वपि वनीपकत्वं द्रष्टव्यं तथा चाह एमेव कागमाई साणग्गणेण सूइया होंति । जो वा जंमि पसन्तो वणइ तहिं पुपुट्ठो वा ॥ ४५४ ॥ व्याख्या---' एवमेव ' वनीपकत्वमरूपणाविषयत्वेन श्वग्रहणेन काकादयोऽपि सूचिता भवन्ति, ततस्तत्रापि वनीपकत्वं भावनीयम् । || एतदेव व्याप्तिपुरस्सरमाह-यो वा यत्र काकादौ पूजकत्वेन प्रसक्तस्तत्र काकादिस्वरूपं पृष्टोऽपृष्टो वा 'वनति' प्रशंसाद्वारेणाऽऽत्मानं भक्तं दर्शयति । सम्मति बनीपकत्वं कुर्वतः साथोर्युक्त्या दोषगरी यस्त्वं प्रकटयति- Education Intemational For Parts Only ~266~ ० Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४५५|| दीप अनुक्रम [४९३ ] पिण्डनिर्यु तेर्मयाग पावृत्तिः “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [ ४९३ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ॥१३२॥ ८० “निर्युक्तिः [४५५] + भाष्यं [ ३४...] + प्रक्षेपं [५...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः दाणं न होइ अफलं पत्तमपत्सु सन्निजुज्जतं । इय विभणिएवि दोसा पसंसओ किं पुण अपत्ते ? ॥ ४५५ ॥ व्याख्या - इह पात्रेष्यपात्रेषु वा सन्नियुज्यमानं दानं न भवत्यफलमित्यपि भणिते दोपः, अपादानस्य पात्रदानसमतया मशं| सनेन सम्यक्त्वा विचारसम्भवात् किं पुनः अपात्राण्येव साक्षात् मसतः ?, तत्र सुतरां महान् दोषो, मिथ्यात्वस्थिरीकरणादिदोषभावादिति । तदेवमुक्तं वनीपकद्वारं सम्प्रति चिकित्साद्वारमाह--- भाइ य नाहं वेज्जो अहवाऽवि कहेइ अप्पणो किरियं । अहह्वावि विज्जयाए तिविह् तिमिच्छा मुणेयव्वा ॥ ४५६ ॥ व्याख्या - इह ' चिकित्सा' रोगप्रतीकारो रोगप्रतीकारोपदेशो वा विवक्षिता, ततः साधूनधिकृत्य 'त्रिविधा' त्रिप्रकारा चिकित्सा ज्ञातव्या, तथथा केनापि रोगिणा रोगप्रतीकारं साधुः पृष्टः सन्नाह-किमहं वैयः ?, एतावता च किमुक्तं भवति ?-वैयस्य समीपे गत्वा चिकित्सा प्रष्टव्या इत्पबुधबोधनादेका चिकित्सा, अथवा रोगिणः पृष्टः समेत्रमाह-ममाप्येवंविधो व्याधिरासीत् स चामुकेन भेषजेनोपशान्तिमगमत् एषा द्वितीया चिकित्सा, अथवा वैद्यतया वैधीभूय साक्षाचिकित्सां करोति, एषा तृतीया । इहाथे द्वे चिकित्से सूक्ष्मे, तृतीया तु बादरा । तत्राद्यां व्याचिख्यासुराह— भिक्खाइ गओ रोगी कि विज्जोऽहंति पुच्छिओ भणइ । अत्थावतीऍ कया अबुहाणं बोहणा एवं ॥ ४५७ ॥ व्याख्या- 'भिक्षादो' भिक्षादिनिमित्तं गतः सन् 'रोगी 'ति अत्र तृतीयायें प्रथमा रोगिणा पृष्टः सन्नाह किमहं वैद्यः ? येन कथयामि, एवं चोक्ते सति 'अर्थापत्त्या ' सामर्थ्यादधानां त्रैयस्य पार्श्वे गत्वा चिकित्सा कार्यते इत्यजानतां बोधना- अनन्तरोक्तस्यार्थस्य ज्ञापना कृता भवति । द्वितीयां व्याख्यानयति — For Penal Use On ~267~ ० उत्पादना दोषेषु ६ चिकित्सादोषः ॥ १३२ ॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४९६] .→ “निर्युक्ति: [४५८] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४५८|| एरिसय चिय दुक्खं भेसज्जेण अमुगेण पउणं मे । सहसुप्पन्नं व रुयं वारेमो अट्ठमाईहिं ॥ ४५८॥ व्याख्या-एतादृशमेव 'दुःख दुःखकारणभूतं गड्डायमुकेन भेषनेन 'प्रगुणं' नष्टवेदनमभूत, तथा वर्ष 'सहसोलनाम् । अकस्मात्पना रुजमष्टमादिभिवास्यामः । 'तत्थोपन्न रोगं अट्टमेण निवारए' इत्पादि परममुनिवचनमामापात् , तस्माद्भवताऽपि तथा कर्तव्यमिति भावः । तृतीयां चिकित्सा विपश्वयितुमाहall संसोधण संसमणं नियाणपरिवज्जणं च जं तत्थ । आगंतु धाउखोभे य आमए कुणइ किरियं तु ॥ ४५९॥ व्याख्या-आगन्तुके घातक्षोभे च 'सूचनात्सूत्र मितिकृत्वा धातुक्षोभजे चाऽऽमपे-रोगे समत्वको सति ता यत्कियां करोति.। तद्यथा-संशोधनं हरीतक्यादिदानेन पित्तायुपशमनं, तथा 'निदानपरिवनेनं ' रोगकारणपरिवर्नमें च, एसा तृतीया चिकित्सा । अत्र दोषानाह. अस्संजमजोगाणं पसंधणं कायघाय अयगोलो । दुब्बलबग्घाहरणं अच्चुये गिण्हणुड्डाहे ॥ ४६०॥ व्याख्या-'असंयमयोगाना' सावधव्यापाराणां 'पसन्धन' सातत्येन प्रवर्तनमिदं चिकित्साकरणं यतो गृहस्थस्ततायोगोलकसमानः ततस्तेन नीरोगीभूतेन ये कायघाता यावजीवं मवय॑न्ते ते सर्वेऽपि साधुचिकित्साप्रवर्तिता इति चिकित्साकरणं सातसत्येनासंयमयोगानां निबन्धनम् । तथा चात्र दुर्बलव्याघ्रष्टान्तो-पयाऽटयामान्थ्येन भक्ष्यममामुवन् दुर्बलो व्याघ्रः कनाप्यान्यापनव १ सयोल रोगमष्टमेन निवारयेन। दीप अनुक्रम [४९६] ~268~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [४९८] .→ “नियुक्ति: [४६०] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४६०|| उत्पादनायां ६ चिकित्सापिण्ड:७-१० क्रोधादिकाः पिण्डनियु- नाय चिकित्स्यते, चिकित्सितश्च पगुणीभूतः प्रथमतस्तस्यैव वैद्यस्य विघातं करोति, ततः शेषाणां बहूनां जीवानाम् , एघमेषोऽपि गृहस्थ तमेलयगि- साधुना चिकित्स्यमानः साधोः संयमप्राणान् इन्ति, शेषाँश्च पृथिवीकायादीनिति । यदि पुनः कथमपि चिकित्स्यमानस्यापि तस्यातिश- येन रोगस्योदयः-प्रादुर्भावो भवति, ततोऽहमनेनातिशयेन रोगीकृत इति सञ्जातकोपो राजकुलादौ ग्राहयति, तथा च सति उड्डाहा- प्रवचनस्य मालिन्यमिति । उक्तं चिकित्साद्वारम् , अधुना क्रोधादिद्वारचतुष्टयं विवक्षुः प्रथमतः क्रोधादिपिण्डदृष्टान्तानां नगराणि क्रोधाधु- ॥१३॥ त्पत्तेः कारणानि च प्रतिपादयतिहत्थकप्प गिरिफुल्लिय रायगिहं खलु तहेव चंपा य । कडघयपुन्ने इट्टग लड्डुग तह सीहकेसरए ॥ ४६१ ॥ व्याख्या-क्रोधपिण्डदृष्टान्तस्य नगरं हस्तकल्प, मानपिण्डदृष्टान्तस्य गिरिपुष्पितं, मायापिण्डदृष्टान्तस्य राजगृहं, लोभपिण्डदृष्टान्तस्य चम्पा । तथा कृतान् घृतपूर्णानलभमानस्य क्रोधोत्पत्तिः, सेवकिका अलभमानस्य मानस्योत्पत्तिः, मोदकामाश्रित्य मायोत्पत्तिः, हा सिंहकेसरसज्ञान मोदकानलभमानस्य लोभोत्पत्तिः । सम्पति क्रोधपिण्डस्य सम्भवमाह विज्जातवप्पभावं रायकुले वाऽवि वल्लभत्तं से । नाउं ओरस्सबलं जो लब्भइ कोहपिंडो सो ॥ ४६२ ॥ ___ व्याख्या-स साधो: 'विद्याप्रभावम् ' उच्चाटनमारणादिकं तपःप्रभाव' शापदानादिकं राजकुले बल्लमत्वं वा ज्ञात्वा यदिवा औरस्य बल-सहस्रयोधित्वादिकं ज्ञात्वा यः पिण्डो 'लभ्यते' गृहस्थेन दीयते स क्रोधपिण्डः । अथवाऽन्यथा क्रोधपिण्डसम्भवः, तमेव दर्शयति 00000000000000000000000000000000 दीप अनुक्रम [४९८] 1064600000000000000000 ॥१३॥ Hereasaramorg ~ 269~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४६३|| दीप अनुक्रम [५०१] Education t “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [५०१ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ******* ८० “निर्युक्तिः [ ४६३ ] + भाष्यं [ ३४...] + प्रक्षेपं [५...]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अन्नेसि दिज्जमाणे जायंतो वा अलडिओ कुप्पे । कोहफलंमिऽवि दिट्ठे जो लम्भइ कोहपिंडो सो ॥ ४६३ ॥ व्याख्या—' अन्येभ्यः' ब्राह्मणादिभ्यो दीयमाने याचमानोऽपि साधुर्यदा न लभते तदाऽलब्धिमान् सन् कुप्येत, कुपिते च सति तस्मिन् साधुः कुपितो भन्यो न भवतीति यद्दीयते स क्रोचपिण्डः । यदिवा तस्मिन्नन्यत्र वा क्रोधफले मरणादिशापे फलवति दृष्टे यो लभ्यते स क्रोधपिण्डः । अत्रैवोदाहरणमाह करय भत्तमल अन्नहिं दाहित्य एव वञ्चतो । थेरो भोयण तइए आइक्खण खामणा दाणे || ४६४ || व्याख्या - हस्तकल्पे नगरे कचिद्राह्मणगृहे मृतकभक्ते मासिके दीयमाने कोऽपि साघुर्मास पणपर्यवसाने भिक्षार्थी प्रविवेश, दृट्टा तेन घृतपूरा ब्राह्मणेभ्यो दीयमानाः सोऽपि च साधुः प्रतिषिद्धो दौवारिकेण, ततः कुपितोऽवादीत्, 'अनहिं दाहित्य 'ति, अस्य चायमर्थ:-अस्मिन् मासिके तावन्मया न लब्धं ततोऽन्यस्मिन् मासिके दास्यथेति, एवं चोक्त्वा निर्गतः दैवयोगेन च तत्रान्यन्मानुषं पञ्चपद्दिनमध्ये मृतं सतस्तस्य मासिके दीयमाने भूयः स एव साधुर्मासलपणपारणे गतः, तथैव च प्रतिषिद्धो दौवारिकेण, ततः भूयोऽपि कुपितोऽवादीत्— 'अन्नहिं दाहित्य 'त्ति, ततः पुनरपि दैवयोगेन तत्रान्यन्मानुषमुपगतं ततस्तस्यापि मासिके स एव साधुर्मासक्षमणः पारणे भिक्षार्थमागतः, तथैव च प्रतिषिद्धो दौवारिकेण भणति- 'अनहिं दाहित्य'त्ति, एतच श्रुत्वा तेन स्थविरेण दौवारिकेण चिन्तितं, पुराऽप्येतेन वारद्वयमित्थं शापो वितीर्णस्ततो द्वे मानुषे उपगते सम्पति तृतीयबेला ततो किमपि मानुषं प्रियतामिति जाताऽनुकस्पेन सर्वोऽपि वृतान्तो गृहनायकाय निवेदितः तेन च समागत्य सादरं साधुं क्षमयित्वा घृतपूरादिकं तस्मै यथेच्छं व्यतारि, स क्रोधपिण्डः । सूत्रं सुगमं, नवरं 'करकभक्तं ' मृतकभोजनं मासिकादि । तदेवमुक्तः क्रोधपिण्डः सम्पति मानपिण्डस्य सम्भवमाह- For Para Lise Only ~270~ yog Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५०३] .. “नियुक्ति: [४६५] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: दोष क्रोध प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४६५|| शान्ती पिण्डनियु- ओच्छाहिओ परेण व लडिपसंसाहिं वा समुत्तइओ । अवमाणिओ परेण य जो एसइ माणपिंडो सो ॥ ४६५ ॥ 1 उत्पादना तमेळयगि- व्याख्या-उत्साहितः । त्वमेवास्य कार्यस्य करणे समर्थ इत्येवमुत्कर्षितः परेण ' अपरेण साध्यादिना, 'वा' विकल्पे, तथा रीयावृत्तिः बालब्धिप्रशंसाभ्यां 'समुत्तदो' गर्वितो यथाऽहं यत्र कापि ब्रजामि तत्र सर्वत्रापि लभे तथैव च जनो मा प्रशंसतीत्येवमभिमानवान्, मानपार यद्वा न किमपि त्वया सिद्धयतीत्येवमपमानितोऽपरेणाङ्कारवशाय एषयति पिण्डं स तस्य मानपिण्डः । अत्र च क्षुल्लकोदाहरणं-गिरिपु॥१३४|| पिते नगरे सिंहाभिधानाः सूरयः सपरिवाराः समाययुः, अन्यदा च तत्र सेवकिकाक्षणः समजनि, तस्मिंश्च दिवसे सूत्रपौरुष्यनन्तरमेकर तरुणश्रमणानां समवायोऽभवत् , बभूव च परस्परं समुल्लापः, तत्र कोऽप्यवादीत-को नामतेषां मध्ये मातरेव सेवकिका आनेष्यति तत्र गुणचन्द्राभिधः क्षुलकः प्रत्यवादीद्-अहमानेष्यामि, ततः सोऽभाणीन्-यदि ताः सर्वसाधूनां न परिपूर्णा घृतगुडरहिता वा ततो न ताभिः प्रयोजन, तस्माययवश्यमानेतव्यास्ताहि परिपूर्णा घृतगुडसम्मिश्राश्चानेतव्याः, क्षुल्लक आह-याशीस्त्वमिच्छसि तादृशीरानेBण्यामि, एवं च कृत्वा प्रतिज्ञां नान्दीपात्रमादाय भिक्षार्थ निर्जगाम, प्रविष्टश्च कापि कौटुम्बिकगृहे, दृष्टाव तत्र प्रचुराः सेवकिकाः, घृत गुडादीनि च प्रभूतानि प्रगुणीकृतानि, ततोऽनेकधा वचनभङ्गीभिः सुलोचनाभिधाना कौटुम्बिकगृहिणी याचिता, तया च सर्वथा पतिपिद्धो-न किमपि ते ददामीति, ततः सञ्जातामर्षेण वभणे क्षुलकेन-नियमादिमा: सेपकिकाः सवृतगुडा मया गृहीतव्याः, मुलोचनाऽपि| सामर्प क्षुल्लकवचः श्रुत्वा सखातप्रकोपा प्रत्युवाच-यदि त्वमेतासां सेवकिकानां किमपि लभसे ततो मे नासापुटे खया प्रस्रवणं कृतमिति ।। ॥१३४॥ ततः क्षुल्लकोऽचिन्तयद्-अवश्यमेतन्मया विधातव्यम् , एवं च विचिन्त्य गृहानियो, पपच्छ च कस्यापि पा-कस्पेदं गृहम् ? इति, सोऽवादी-विष्णुमित्रस्य, ततः पुनरपि क्षुल्लकः पृच्छति-स इदानीं क वर्तते , तेनोक्तं-पपदि, ततः पर्षदि गवा सहर्ष इस पर्पजनान् दीप अनुक्रम [५०३] ~ 271~ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५०३] .. “नियुक्ति: [४६५] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४६५|| 40000000000000 पष्टवान्-भो ! युष्माकं मध्ये को विष्णुमित्रः, जना अवादिषुः-कि साधो ! तब तेन प्रयोजनं?, साधुस्वोचत्-तं किमपि याचिष्ये, स च तेषां सर्वेषामपि पायो भगिनीपतिरिति सहासं तैरवाचि-कृपणोऽसौ न ते किमपि दास्पतीत्यस्मानेव याचस्व, ततो विष्णुमित्रो॥ |मा मेऽपभ्राजना भूदिति तेषामग्रतः कृत्वा वभाण-अहं भो ! विष्णुमित्रोऽई याचस्व मां किमपि, मा केलिवचनममीपां कणे कापी, ततोऽवादीत् क्षुल्लका-याचेऽहं यदि त्वं महेलाप्रधानानां पण्णां पुरुषाणामन्यतमो न भवति, ततः पर्पजना अवादिषुः-के ते पट् पुरुषा महेलाप्रधाना ? येषामन्यतमोऽयमाशङ्कायते, ततः क्षुल्लक आह-श्वेताङ्गलिवकोडायक: किङ्करः सायकः धइवरिङ्गी हदझ इति, एतेषां ॥ च पण्णामपि कथानकान्यमूनि-कचिद्रामे कोऽपि पुरुषो निजभायर्याच्छन्दानुवर्ती, स च पातरेव जातबुभुक्षो निजभार्गी भोजनं याचते,18 सा च वदति-नाहमालस्येनोस्थातुमुत्सहे ततस्त्वमेव समाकर्ष चुल्या भस्म प्रक्षिप तत्र प्रातिवेश्मिकगृहादानीय बढि प्रज्यालय तमिन्ध-1 नक्षेपेण समारोपय चुल्याः शिरसि स्थाली, एवं यावत्यक्त्वा कथप, ततोऽहं परिवेषयामीति, स च तयैव प्रतिदिवसं कुरुते, ततो लोकेन मातरेवास्य चुल्या भस्मसमाकर्षणेन चेतीभूताङ्गुलिदर्शनात्सहासं श्वेताङ्गुलिरिति नाम कृतम्, एप श्वेताङ्गलिः । तथा कचिदामे कोऽपि पुरुषो निजभायोमुखदर्शनसुखलम्पटस्तदादेशवी, अन्यदा तया भार्यया बभणे-यथाऽहमालस्पेन भक्का, ततस्त्वमेवोदक । तडागादानय, स च देवताऽऽदेशमिव भार्याऽऽदेशमभिमन्यमानः प्रतिवदति-यदादिशसि प्रिये ! तदहं करोमि, ततो दिवसे मा लोको बामा द्राक्षीदिति रात्रौ पश्चिमयामे समुत्थाय प्रतिदिवसं तडागादुदकमानयति, तस्य च तत्र गमनागमने कुर्वतः पदसश्चारशब्दश्रवणतो | घटभरणबुद्धदशब्दश्रवणतश्च तडागपालीक्षेषु प्रमुप्ता बका उत्थायोड्डीयन्ते, एप च वृत्तान्तो लोकेन विदितः, ततोऽस्पार्थस्य सूचनार्थ हासेन बकोट्टायक इति नाम कृतं, एष बकोड्डायकः । तथा कचिद्वापे कोऽपि पुरुषो भार्यास्तनजयनादिस्पर्शलम्पटो भाच्छिन्दानुवती, सच दीप अनुक्रम [५०३] 000000000०००० ~272~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५०३] .→ “नियुक्ति: [४६५] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४६५|| पिण्डनियु तेर्मलयगिरीयातिः ॥१३॥ मातरेवोत्थाय कृताञ्जलिपग्रहो वदति-दयिते ! किं करोमि!, सा च बदति-तडागादुदकमानय, ततो यस्त्रिया समादिशतीत्युदित्वा उत्पादनातडागादुदकमानयति, पुनरपि भणति-किं करोमि पाणेश्वरि !, सा वदति-कुसूलादाकृष्य तण्डुलान कण्डय, एवं यावद्भोजनादू मम या मानपिपादान प्रक्षाल्य घृतेन फाणयेति, स च सर्व तथैव करोति, तत एवं लोकेन ज्ञात्वा तस्य किङ्कर इति नाम निवेशितं, एष किङ्करः।। ण्डे दृष्टान्तः तथा कचिद्रामे कोऽपि पुरुषो भार्याऽऽदेशवती, स चान्यदा निजभार्यामवादीत्-प्राणेश्वरि ! स्नातुमहमिच्छामि, तयोक्तं-ययेवं तद्यो-18 मलकान् शिलायां वर्सय परिधेहि सानपोतिका अभ्यङ्गय तेलेनात्मानं गृहाण च घटं ततस्तडागे स्नात्वा घटं च जलेन भृत्वा समाग-18|| च्छेति, स च देवताशेषामिय भार्याऽऽदेशं शिरसि निधाय तथैव करोति, एवं च सर्वदैव, ततो लोकेनास्यार्थस्य प्रकटनार्थे हासेनास्य नायक इति नाम कृतं, एप स्नायकः । तथा कचिद्धामे कोऽपि पुरुषो भार्याऽऽदेशविधायी, अन्यदा च सा रसवत्यामासने समुपविष्टा | वर्तते, सा च तेन भोजनमयाचि, तयोक्त-मम समीपे स्थालमादाय समागच्छेः, सोऽपि यत्मियतमा समादिशति तन्मे प्रमाणमिति बुवंस्तस्याः समीपे गतः, तया परिवेपितं भोजन, तत उक्तं-भोजनस्थाने गत्वा भुइक्ष्व, ततः स भोजनस्थानं गत्वा भोक्तुं मत्तः, ततः पुनरपि तेन तीमनं याचितं, सा च प्रत्युवाच-स्थालमादाय मम समीपे समागच्छेः, ततः स गृध्र इव उत्कटिको रिजन स्थालेन गृही-1 तेन याति, एवं तक्रादिकमपि गृहाति, तत एतल्लोकेन ज्ञात्वा हासेन गृध्रावरिङ्गीति नाम कृतं, एप गृधइवरिङ्गी । तथा कचिद्दाम || भामुखमलोकनसुखलम्पटस्तदादेशकारी कोऽपि पुरुषः, तस्यान्यदा स्वभार्यया सह विषयसुखमनुभवतः पुत्रो बभूव, सच पाळनक ॥१३॥ एव स्थितोऽतिबालत्वात पुरीपमुत्सृजति, तेन च पुरीपेण पालनकं बालबखाणि च खरण्ख्यन्ते, ततः सा भणति-बालस्य पुते प्रक्षालय पालनकं वालवस्त्राणि च, ततो यलिया समादिशति तत्करोमीति वदैस्तथैव करोति, एवं सर्वदैव, ततो लोकेनैवद् ज्ञात्वा हदनं प्रक्षाल दीप अनुक्रम [५०३] SARERaininlanational ~273~ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४६५|| दीप अनुक्रम [५०३ ] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [ ५०३ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ८० Eucation Internation “निर्युक्ति: [ ४६५ ] + भाष्यं [ ३४...] + प्रक्षेपं [५...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः यितुं वालस्य जानातीतिकृत्वा हृदश इति नाम तस्य कृतं एष हदशः । तत एवमुक्ते क्षुल्लकेन सर्वैरपि पर्पज्जनैरेककालमट्टट्टहासेन इसरिभाणि क्षुद्धक! एष षण्णामपि पुरुषाणां गुणानाददाति तन्मैन महेलाप्रधानं याचिष्ट, विष्णुमित्रोऽवादीत नाहं षण्णां पुरुषाणां समानस्तस्माद्याचस्त्र मामिति, ततः क्षुलकेनोक्तं देहि मे घृतगुडसंयुक्ताः पात्रभरणप्रमाणाः सेवकिकाः, विष्णुमित्रेणोक्तं ददामि ततः क्षुल्लकं गृहीत्वा निजगृहाभिमुखं चलितवान् समागतो निजगृहद्वारे, ततः क्षुलकेनाभाणि प्रथममपि तव गृहे समागतोऽदमासं परं तव भार्यया प्रतिज्ञा व्यधायि यथा न किमपि ते दास्यामि तत इदानीं ययुक्तं तत्समाचर, तत एवमुक्ते विष्णुमित्रोऽवादीत् यद्येवं तर्हि | क्षणमात्रमेव गृहद्वारेऽवतिष्ठस्त्र पश्चादाकारयिष्यामि ततः प्रविष्टो गृहमध्ये मित्रः पृष्टा च तन निजभार्या यथा राद्धाः सेवकिकाः प्रगु णीकृतानि घृतगुडादीनि ?, तयोक्तं कृतं सर्व परिपूर्ण, ततो गुढं प्रलोक्य स्तोक एष गुडो नैतावता सरिष्यतीति मालादानय प्रभूतं गुढं येन द्विजान् भोजयामीति, ततः सा तद्वचनादारूढा माल अपनीता तेन निःश्रेणिः, तत आकार्य क्षुद्धकं पात्रभरणप्रमाणा ददौ तस्मै सेवकिकाः घृतगुडादीनि च दातुमारब्धानि अत्रान्तरे गुडमादाय सुलोचना मालादुत्तरितुं प्रवृत्ता परं न पश्यति निःश्रेणि, ततो विस्मितदृष्ट्या प्रसरं यावदालोकते तावत्पश्यति क्षुल्लकाय घृतगुडसंयुक्ताः सेवकका दीयमानाः, ततोऽहमनेन झुलकेनाभिभूतेत्यभिमान| पूरितहृदया मास्मै देहि मास्मै देहीति महता शब्देन पूत्कुरुते, क्षुल्लकोऽपि तस्याः सम्मुखमवलोक्य मया तव नासिकापुढे मूत्रितमिति निजनासापुटेऽङ्गुल्यभिनयेन दर्शयति, दर्शयित्वा च भृतघृतगुडसेव किकापात्रो जगाम निजवसताविति । एतदेव रूपकाष्टकेन दर्शयतिगछमि परिपिंडियाण उल्लाव को णु हु पगेव । आणिज्ज इट्टगाओ ? खुड्डो पञ्चाह आणेमि || ४६६ ॥ जयिता पज्जता अगुलध्याहिं न ताहिं णे कज्जं । जारिसियाओ इच्छह ता आणेमित्ति निक्खतो ॥४६७॥ For Park Use Only ~ 274~ ० Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४६५|| दीप अनुक्रम [५०५ ] मूलं [५०५ ] • मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्यु - तेर्मलयगि यावृत्तिः “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाष्यं [ ३४...] + प्रक्षेपं [५...]" "निर्युक्ति: [ ४६७] + आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ॥१३६॥ ओहासिय पडिसिद्धो भणइ अगारिं अवस्सिमा मज्झं । जइ लहसि तो तं मे नासाए कुणसु मोयंति [सा आह ] ॥ ४६८ ॥ करस घर पुच्छिऊणं परिसाए अमुउ कइरो पुच्छितु । किं तेणऽम्हे जायसु सो किविगो दाहिइ न तुज्झ ॥ ४६९ ॥ दाहित्ति तेण भणिए जइ न भवसि छण्हमेसि पुरिसाणं । अन्नयरो तो तेऽहं परिसामज्झमि पणयामि ||४७० ॥ सेयंगुलि बगुडावे, किंकरे हायए तहा । गिद्धावरंखि हद्दन्नए य पुरिसाहमा छाउ || ४७१ ॥ जायसु न एरिसोऽहं इट्टगा देहि पुण्त्रमइगंतुं । माला उचारि गुलं भोएमि दिएति आरूढा ॥ ४७२ ॥ सिइअवणण पडिलाभण दिस्तियरी बोलमंगुली नासं । दुण्हेगयरपओसो आयत्रिवत्ती य उड्डाहो || ४७३ ॥ व्याख्या - मुगमं, नवरं 'इट्टगणंमि सेवकिकाक्षणे 'पगेवे 'ति प्रभाते एव 'मोयं 'ति मूत्रणं 'प्रणयामि' इति याचे, 'सिइअवणण 'त्ति निःश्रेण्यपनयनं इत्थम्भूतश्च मानपिण्डो न ग्राह्यः यतो द्वयोरपि दम्पत्योः प्रद्वेषो भवति, ततस्तद्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदः, कदाचिदेकतरस्य ततस्तत्रापि स एव दोषः । अपि च-सैवमपमानिता कदाचिदभिमानवशादात्मविपत्तिं कुर्यात्, तत उड्डाहः प्रववनमालिन्यं ॥ उक्तो मानपिण्डदृष्टान्तः सम्प्रति मायापिण्डदृष्टान्तमाह रायगिहे धम्मरुई असाड भूई य खुड्डुओ तस्स । रायनडगेहपविसण संभोइय मोयए लंभो ॥ ४७४ ॥ आयरियउवज्झाए संघाडगकाणखुज्जतदोसी । नडपासणपज्जत्तं निकायण दिणे दिणे दाणं ॥ ४७५ ॥ For Parata Use Only ~275~ ० उत्पादना यां दोषे मायायामाचा ढभूतिः ॥१३६॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५१४] .→ “नियुक्ति: [४७६] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४७६|| धूयदुए संदेसो दाणसिणेह करणं रहेगहणं । लिंग मुयत्ति गुरुसिह विवाहे उत्तमा पगई ॥ ४७६ ॥ रायघरे य कयाई निम्महिलं नाडगं तडागत्था । ता य विहरति मत्ता उवरि गिहे दोवि पासुत्ता ॥ ४७७ ॥ वाघाएण नियत्तो दिस्स विचेला विराग संबोही । इंगियनाए पुच्छा पजीवणं रहवालंमि ॥ ४७८ ॥ इक्खागवंस भरहो आयंसघरे य केवलालोओ । हाराइखिवण गहणं उवसा न सो नियत्तोत्ति ॥ ४७९ ॥ तेण समं पव्वइया पंच नरसयत्ति नाडए डहणं । गेलन्न खमग पाहुण थेरा दिवा य बीयं तु ॥ ४८० ॥ व्याख्या-राजगृहं नाम नगरं, तब सिंहरयो राजा, विश्वकर्मा नाम नटः, तस्य द्वे दुहितरौ, ते चढे अप्यतिमुरूपे अतिशयाते || 15 वदनकान्त्या दिनकरकरोझासितकमलश्रियं नयनयुगलेन सचञ्चरीककुवलययुगलं पीनोन्नतनिरन्तरपयोधरयुगलेन संहततालफलयुगल-1 लक्ष्मी वायुगलेन पलवलता त्रिवलिभतरेण मध्यभागेनेन्द्रायुधमध्यं जघनविस्तरेण जाह्नवीपुलिनदेशं ऊरयुगलेन गजकलभनासाभोग जवायुगलेन कुरुविन्दवृत्तसंस्थितं चरणयुगलेन कूर्मदेहाकृतिं सुकुमारतया शिरीषकुसुमसञ्चयं वचनमधुरतया वसन्तमासोन्मत्तकोकिलाहारब, अन्यदा च तत्र यथाविहारक्रम समाययुर्धर्मरुचयो नाम सूरयः, तेषामन्तेवासी प्रज्ञानिधिराषाढभूतिः, स भिक्षार्थमटन् कथमपि विश्वकर्मणो नटस्य गृहे पाविशत् , तत्र च लब्धः प्रधानो मोदकः, द्वारे च विनिर्गत्य तेन चिन्तितम्-एष सूरीणां भविष्यति, तत आत्मार्थ रूपपरावर्त्तमाधायान्यं मोदकं मार्गयामि, ततः काणरूपं कृत्वा पुनः प्रविष्टो, लब्धो द्वितीयो मोदका, ततो भूयोऽपि चिन्तितम्एष उपाध्यायस्य भविष्यति, ततः कुब्जरूपमभिनिर्त्य पुनरपि प्रविष्टः, लम्धस्तृतीयो मोदकः, एष द्वितीयसकाटकसापोर्भविष्यतीति । दीप अनुक्रम [५१४] REaratundelkand ~ 276~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [११८] .. “नियुक्ति: [४८०] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४८०|| पिण्डनियु-विचिन्त्य कुष्टिरूपं कृत्वा चतुर्थवेलायां पविष्टः, लब्धश्चतयों मोदकः, एतानि च रूपाणि कुर्वन् मालोपरिस्थितेन विश्वकर्मणा नटेन ददृशे, उत्पादनायां तर्मकयगि-||चिन्तितं चानेन सम्पगेपोऽस्माकं मध्ये नटो भवति, परं केनोपायेन सहीतव्य इति, एवं च चिन्तयतः समुत्पन्ना तस्य शेमुषी-|| मायायामारीयावृत्तिः दुहितभ्यां क्षोभयित्वा ग्रहीतव्य इति, ततो मालादुत्तीर्य सादरमाकार्याऽऽपादभूति: पात्रभरणप्रमाणैर्मोदकैः प्रतिलाभितः, भणितश्च सादरं- पाढभूतिः भगवन् ! प्रतिदिवसमस्माकं भक्तपानग्रहणेनानुग्रहोऽनुविधातव्यः, ततो गतः स्वोपाश्रयमापाठभूतिः, अचकथधान्यान्यरूपपरावर्तन॥१३७॥ वृतान्तं विश्वकर्मा निजकुटुम्बस्य, भणिते च दुहितरी यथा सादरं दानस्नेहदर्शनादिना तथा कर्तव्यो यथा युष्माकमायत्तो भवति मतिदिवसमायाति च भिक्षार्थमाषाढभूतिः, दुहितरौ च तं तथैवोपचरतः, ततोऽत्यन्तमनुरक्तमवगम्य रहसि भणितो-यथा चयमत्यन्तं | मतवानुरक्ताः ततोऽस्मान् परिणीय त्वं परिभक्ष्वेति, अत्रान्तरे च तस्योदयमियाय चारित्रावरणं कर्म गलितो गुरूपदेशः माणेशदिवेको | का दूरीभूत: कुलजात्यभिमानः, ततस्तेनोक्तम्-एवं भवतु, परमहं गुरुपादान्तिके लिर विमुच्य समागच्छामि, गतो गुरुसमीपं प्रणतस्तेषां पादयुगलं प्रकटितो निजाभिमायः, ततो गुरुभिरवाचि-वत्स : नेदं युष्मादशां विवेकरत्नाकराणामवगाहितसकलशास्त्रार्थानामुभयलोकजुगुप्सनीयं समाचरितमुचितं, तथा “दीहरसीलं परिवालिऊण विसएमु वच्छ ! मा रमम् । को गोपयमि युहइ उयहि तरिऊण वाहादि | ॥१॥" इत्यादि, तत उवाचापाढभूति:-भगवन् ! यथा यूयमादिशथ तथैव केवलं प्रतिकूलकर्मोदयतः प्रतिपक्षभावनारूपकवचदुवे-15 लतया मदनशवरेण निरन्तरं समुत्रस्तमृगनयनरमणीकटाक्षविशिखोपनिपातमादधता शतशो मे जजेरीकृतं हृदयं, एवं चोक्त्या गुरुपादान ॥१७॥ प्रणम्य तदन्तिके रजोहरणं मुक्तवान् , ततः कथमहममीषामनुपकृतोपकारिणामपारसंसारोदधिनिमग्नजन्तुसमुद्धरणकचेतसा सकलजग १दी शीलं परिपाल्य विषयेषु वत्स ! मारंसीः । को गोष्पदे निमज्जति उदधि बाहुभ्यां तरित्वा ॥१॥ दीप अनुक्रम [५१८] कककककन Rand Taurasurare.org ~ 277~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५१८] .→ “नियुक्ति: [४८०] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ॥४८०|| दीप अनुक्रम [५१८] त्परमबन्धुकल्पानां गुरूणां पृष्ठं ददामि इति पश्चात्कृतपादमचारो हा ! कथमहं भूयोऽप्येवंविधगुरूणां चरणकमलं प्राप्स्यामि ? इति विचिन्तयन् वसतेविनिर्गत्य विश्वकर्मणो भवनमायाता, परिभावितमस्य सादरमनिमिषदृष्ट्या नटदुहितृभ्यां वपुः, प्रत्यभासत सकल| जगदाश्चर्यमस्य रूपं, ततोऽचिन्तयतामिमे-अहो ! कौमुदीशशाङ्कमण्डलमिवास्य मनोहरकान्तिवदनं कमलदलयुगलमिव नयनयुगलं || गरुन्मत इव तुङ्गमायतं नाशानालं कुन्दमुकुलश्रेणिरिव मुस्निग्धा दशनपद्धति: महापुरकपाटमिव विशालमस्य मांसलं वक्षास्थलं मृगरिपोरिव संवर्त्तितः कटिप्रदेमूः निगूढजानुपदेशं जगायुगलं सुमतिष्ठितकनककूर्मयुगलमिव चरणयुगलं, ततो विश्वकोऽवोचत्-महा-|| |भाग ! तबाऽऽयत्ते द्वे अप्यमू कन्यके वनः खीक्रियेतामिति, ततः परिणीते ते द्वे अपि तेन कन्यके, भणिते च विश्वकर्मणा-यो नामै-18 तादृशीमप्यवस्थां गतो गुरुपादान् स्मरति स नियमादुत्तमप्रकृतिः, तत एतच्चिचावर्जनार्थ सदैव मद्यपानविरहिताभिर्युष्माभिः स्थातव्यं । अन्यथैष विरक्तो यास्यति, आषाढभूतिश्च सकलकलाकलापपरिज्ञानकुशलो नानाविधैर्विज्ञानातिशयः सर्वेषामपि नटानामग्रणीभूव, लभते च सर्वत्र प्रभूतं द्रव्यं वस्त्राभरणानि च, अन्यदा च राज्ञा समादिष्टा नटा:-अद्य निर्मइलं नाटकं नर्चनीय, ततः सर्वेऽपि नटाः खां स्वां युवति स्वस्वगृहे विमुच्य राजकुलं गताः, आपाढभूतिभार्याभ्यामपि चिन्तितम्-अद्य राजकुले गतोऽस्माकं भर्ती सकलामपि च राधिका बागमयिष्यतीति, ततः पिबामो यथेच्छमासवमिति, तथैव कृतं, मदवशाचापगतचेतने विगतबस्ने द्वितीयभूमिकाया उपरि मुले तिष्ठतः । राजकुलेऽपि परराष्ट्रदूतः समायात इति राज्ञो व्याक्षेपो बभूव, ततोऽनवसर इतिकृत्वा प्रतीहारेण मुत्ककिताः सर्वेऽपि नटाः समागताः स्वं स्वं भवन, आषादभूतिश्च निजकावासे समागत्य यावद्वितीयभूमिकामारोहति तावते हे अपि निजमायें विगतवस्त्रतया बीभत्से ग पश्यति, ततः स महात्माऽचिन्तयत्-अहो ! मे मूढता अहो ! मे निर्विवेकता अहो! मे दुर्विलसितं य एतादृशामप्यशुचिकरण्डकभूतानामधोगतिनिवन्धनानां कृते परमशुचिभूतमिहपरलोककल्याणपरम्पराजनकमक्षेपेण मुक्तिपदनिबन्धनं संयम उज्झविभूष, नतो ~ 278~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५१८] .→ “नियुक्ति: [४८०] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४८०|| पिण्डनियु- Maऽद्यापि न मे किमपि विनष्टम् अपि गच्छामि गुरुपादान्तिक प्रतिपये चारित्रं प्रक्षालयामि पापपङ्कमिति विचिन्त्य विनिर्गतो गृहात, उत्पादनायां तेर्मलयाग-II: कथमपि विश्वकर्मणा, ललित इजितादिना यथा विरक्त एष यातीति, ततः सत्वरं निजदुहितरावस्याप्य निर्भर्ल्सयति-हा! दुरा- मायायामारीयावृत्तिःस्मिके ! हीनपुण्यचतुपेशीके ! युष्मद्विलसितमेतादशमवलोक्य सकलनिधानभूतो युष्मद्भतो पिरक्तो यातीति तयदि नितयितुं शक्नुध- पाढभूतिः स्तर्हि निवर्तयेथां नो चेत् मजीवनं याचध्वमिति, ततस्ताः ससम्भ्रमं परिहितनिवसनाः पृष्ठतः प्रचाप गच्छतः पादयोलमा, वदन्ति ॥१३॥ च-हा स्वामिन् ! क्षमस्वैकमपराधं निवर्तस्व माऽस्माननुरक्ताः परिहर , एवमुक्तोऽपि स मनागपि न चेतास रज्यते, ततस्ताभ्यामवाचि-1 स्वामिन् ! यद्येवं तर्हि मजीवनं देहि, येन पश्चादपि युष्मत्प्रसादेन जीवामः, तत एवं भवत्विति दाक्षिण्यवशादनुमत्य प्रतिनिहत्तः, ततः18 कृतं भरतचक्रवर्तिनश्चरितप्रकाशकं राष्ट्रपालं नाम नाटक, ततो विज्ञप्तो विश्वकर्मणा सिंहरथो राजा-देव ! आषाढभूतिना राष्ट्रपालं नाम || नाटकं विरचितं, तत्सम्पति नर्त्यतामिति, परं तत्र राजपुत्रपञ्चशतैराभरणविभूषितैः प्रयोजनं, ततो राज्ञा दत्तानि राजपुत्राणां पश्चश-18 तानां, तानि यथायथमाषाढभूतिना शिक्षितानि, ततः पारब्ध नाटकं नर्तितुं, तत्राऽऽपाढभूतिरात्मनेक्ष्वाकुवंशसम्भूतो भरतश्चक्रवर्ती स्थितो राजपुत्राश्च यथायोगं कृताः सामन्तादयः, तत्र च नाटके यथा भरतेन भरतं षट्खण्डं प्रसाधितं यथा चतुर्दश रत्नानि नव महानिधयः ||३|| माता यथा चाऽऽदर्शगृहेऽवस्थितस्य केवलालोकप्रादुर्भावो यथा च पञ्चशतपरिवारेण सह प्रवज्यां प्रतिपनस्तत्सर्वमप्यभिनीयते, ततो राज्ञा कोकेन च परितुष्टेन सर्वेणापि यथाशक्ति दारकुण्डलादीन्याभरणानि सुवर्णवस्त्राणि च प्रभूतानि सितानि, ततः सर्वजनानां धर्म- ॥१३॥ लाभ मदाय पञ्चशतपरिवार आषाढभूतिगन्तुं पावर्त्तत, ततः किमेतत् ! इति राज्ञा निवारितः तेनोक्तं-किं भरतश्चक्रवर्ती पत्रज्यामादाय निवृतः । येनाहं निव” इति गतः सपरिवारो गुरुसमीप, वस्त्राभरणादिकं च समस्तं निजभार्याभ्यां दत्तवान्, तच्च मजीवनकं किल दीप अनुक्रम [५१८] ~ 279~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४८०|| दीप अनुक्रम [५१८] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) “निर्युक्तिः [४८०] + भाष्यं [ ३४...] + प्रक्षेपं [५...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [५१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ८० Education Internationa तयोर्जातं गृहीता दीक्षा, तदपि च नाटकं विश्वकर्षणा कुसुमपुरे नति दुपारधं तत्रापि पञ्चशतसङ्ख्याः क्षत्रियाः प्रत्रयां गृहीतवन्तः ततो लोकेन चिन्तितम् एवं क्षत्रियाः मत्रजन्तो निःक्षत्रियां पृथिवीं करिष्यन्तीति नाटक पुस्तकमन प्रवेशितं । सूत्रं सुगम, नवरं ' रायनढगेहपवेसणं 'ति राजविदितो यो नटो विश्वकर्मा तस्य गृहे प्रवेशः, 'स्वग्दोषी ' कुष्ठी, उपसर्गः - नवज्याग्रहणे निवारणं, दहनं नाटकपुस्तकस्य । अत्रैवापवादमाह 'गेलने 'त्यादि, ग्लानो - मन्दः, 'क्षपक: ' मासलपकादिः, 'प्राघूर्णक: ' स्थानान्तरादायातः, 'स्थविरः' वृद्धः, आदिशब्दात्सङ्घकार्यादिपरिग्रहः, तेषामर्थाय द्वितीयमपवादपदमिति भावः सेव्यते - खानाय निर्वाहे मायापिण्डोऽपि ग्राह्म इत्यर्थः । उक्तं मायाद्वारम् अथ लोभद्वारमाह- लन्मंतंपि न गिण्हइ अन्नं अमुगंति अज्ज घेच्छामि । भद्दरसंति व काउं गिण्हइ खर्द्ध सिणिडाई ॥ ४८१ ॥ व्याख्या - अथाहममुकं सिंहकेसरादिकं ग्रहीष्यामीति युद्धयाऽन्यदलचनकादिकं लभ्यमानमपि यत्र गृह्णाति, किन्तु तदेवेतिं स लोभपिण्डः । अथवा पूर्व तथाविधबुद्ध्यभावेऽपि यथाभागं लभ्यमानं 'खर्द्ध' प्रचुरं 'स्त्रिम्यादि' लपनश्रीमतिकं भरकर समितिकृत्वा यगृह्णाति स लोभपिण्डः । तत्र प्रथमभेदमाश्रित्योदाहरणं गाथाद्वयेनाह - चंपा छमि घिच्छामि मोयए तेवि सीहकेसरए । पडिसेह धम्मलाभं काऊणं सीहकेसरए || ४८२ ॥ सड्ढडुरतकेसरभायण भरणं च पुच्छ पुरिमड्ढे । उबओग संत चोयण साहुन्ति विचिणे नाणं ॥ ४८३ ॥ व्याख्या - चम्पा नाम पुरी, तत्र सुव्रतो नाम साधुः, अन्यदा च तत्र मोदकोत्सवः समजनि, तस्मिंश्च दिने सुत्रतोऽचिन्तयत् 1 For Pasta Use Only ~ 280~ ० Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५२१] .. “नियुक्ति: [४८३] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु- तेर्मलयगि- रीयाचिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४८३|| ॥१३९॥ दीप अनुक्रम [५२१] ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ܕܳ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ अद्य मया मोदका एव ग्रहीतव्याः, तेऽपिसिंहकेसरकाः, तत इत्थं सम्पधार्य भिक्षां प्रविष्टो लोलुपतयाऽन्यत्मतिषेधेन सिंहकेसरमोदकाँचाल- उत्पादनाभमानस्तावत्परिभ्रमति स्म यावत्सादै पहरद्वयं, ततो न लब्धा मोदका इति मनष्टचिचो बभूक, ततो गृहद्वारे प्रविशन् वक्तव्यस्य धर्मलाभस्य यां लोभस्थाने सिंहकेसरा इति वदति, एवं च सकलमपि दिनं भ्रान्त्वा रात्रौ तथैव परिभ्रमन् प्रहरद्वयसमये श्रावकस्य गृहे प्रविवेश, धर्मलाभ-पिण्डे मुत्रभणनस्थाने सिंहकेसरा इत्युवाच, सोऽपि च श्रावकोऽतीव गीतार्थो दक्षश्च ततस्तेन परिभाषयामासे-नूनयेतेन क्वापि न लब्धाः तोदा. सिंहकेसरा मोदका इति चित्तमस्य प्रनष्टं, ततस्तस्य चित्तसंस्थापनाय सिंहकेसराणां भृतं भाजनमुपढौकित, भगवन् ! प्रतिगृहाण सर्वानप्येतान सिंहकेसरमोदकानिति, सुव्रतेन च परिगृहीताः, ततः स्वस्थीभूतं तस्य चित्तं, श्रावकेण चोक्तं-भगवन् ! अध भया पूर्वाद्धः। प्रत्याख्यातः स कि पूणों न वा ? इति, ततः सुव्रत उपयोगमूर्च दत्तवान् , पश्यति गगनमण्डलमनेकतारानिकरपरिकरितमद्धरात्रोपल-|| सितं, ततो ज्ञातवानात्मनो भ्रमं, हा! मूढेन मया विरूपमाचरितं, धिम् मे लोभाभिभूतस्य जीवितं, भोः श्रावक ! सम्यक् कृतं त्वया यदहं सिंहकेसरमदानपूर्व पूर्वार्द्धपत्याख्यानपरिपूर्णताप्रश्न संसारे निमज्जन् रक्षितः, सती मे तब चोदना, तत आत्मानं निन्दन विधिना || च मोदकान् परिष्ठापयन् तथा कथमपि ध्यानानलं प्रज्वालयितुं प्रवृत्तः यथा क्षणमात्रेण सकलान्यपि घातिकमोण्पुवोप, ततः प्रादुर्भूतं तस्य केवलज्ञानम् । सूत्रं सुगमम् । उक्तं लोभद्वारम् , अथ संस्तवद्वारमाह ॥१३९॥ दुविहो उ संथवो खलु संबंधीवयणसंथवो चेव । एक्केकोवि य दुविहो पुब्धि पच्छा य नायब्बो ॥ ४८४ ॥ व्याख्या-द्विविधः खलु संस्तवः, तद्यथा-परिचयरूपः श्लाघारूपय, तत्र परिचयरूपः सम्बन्धिसंस्तवः श्लाघारूपो वचनसं ܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ~ 281~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५२२] .. “नियुक्ति: [४८४] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४८४|| दीप अनुक्रम [५२२] स्तवः । तत्र सम्बन्धिनो-मात्रादयः वधूवादयश्च तद्रूपतया यः संस्तवः स सम्बन्धिसंस्तवः, बचन-लापा तद्पो यः संस्तवः स वचनसंस्तवः, एकैकोऽपि च द्विधा, तद्यथा-'पुचि पच्छा य'त्ति पूर्वसंस्तवः पश्चात्संस्तवश्च । तत्र सम्बन्धिसंस्तवस्य द्विविधस्यापि स्वरूपमाह| मायपिइ पुबसंथव सासूसुसराइयाण पच्छा उ । गिहि संथवसंबंधं करेइ पुध्वं च पच्छा वा ॥ ४८५ ॥ व्याख्या-मातापित्रादिरूपतया यः संस्तवः-परिचयः स पूर्वसंस्तवो, मात्रादीनां पूर्वकालभावित्वात्, यस्तु श्वश्रुश्वशुरादिरूपतया संस्तवः स पश्चात्संस्तवः, श्वभूवादीनां पश्चात्कालभावित्वात्, तत्र साधुर्भिक्षार्थ प्रविष्टः सन् गृहिभिः सह 'संस्तवसम्बन्ध परिचयघटनं 'पूर्व' पूर्वकालभावि मात्रादिरूपतया 'पश्चाद्वारे पश्चात्कालभावि श्वश्रूवादिरूपतया वा करोति । कथम् ? इत्याइ आयवयं च परवयं नाउं संबंधए तयणुरूवं । मम माया एरिसिया ससा व धूया व नत्ताई ॥ ४८६ ॥ व्याख्या-इह साधुभिक्षार्थ गृहे प्रविष्टः सन्नाहारलम्पटतयाऽऽत्मवयः परवयश्च ज्ञात्वा तदनुरूपं ' वयोऽनुरूपं सम्बधाति, यदि सा वयोवृद्धा स्वयं च मध्यमवयाः ततो ममेदशी माताऽभूदिति ब्रूते, यदि पुनः साऽपि मध्यमवयास्तत ईदृशी मम स्वसाऽभूदिति बदति, अथ बालवयास्ततो दुहिता नप्ता वेत्यादि । सम्पत्यस्यैव पूर्वरूपसम्बन्धिसंस्तवस्योदाहरणमाह अडिइ दिद्विपण्हव पुच्छा कहणं ममेरिसी जणणी । थणखेवो संबंधो विहवासुण्हाइदाणं च ॥ ४८७ ॥ व्याख्या-कोऽपि साधुभिक्षार्थ प्रविष्टः काञ्चिनिजमालसमानां स्त्रियमवेक्ष्याऽऽहारादिलम्पटतया मातृस्थानेनाधृत्या दृष्टिपस्न ~282~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४८७|| दीप अनुक्रम [५२५ ] मूलं [५२५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [४८७] + भाष्यं [ ३४...] + प्रक्षेपं [५...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः पिण्डनिर्यु-म्--पदविमोचनं करोति, ततः 'पुच्छति सा स्त्री पृच्छति, किं स्वमवृतो दृश्यसे ? इति ततः साधोः कथनं मम 'ईदृशी त्वत्सदृशी जनन्यभूदिति । अत्र दोषानाह - ततस्तया मातृत्वप्रकटनायें साधुमुखे स्तनमक्षेपः क्रियते, परस्परं च सम्बन्धः स्नेहबुद्धिरूपो जायते, तथा विधवास्नुषादिदानं च करोति - मृतपुत्रस्य स्थानेऽयं मे पुत्र इति बुद्धया स्वस्नुपादानं कुर्यात्, आदिशब्दात् स्नेहवशतो दास्यादिदानं च, उक्तं पूर्वसम्बन्धिसंस्तवोदाहरणं, एवं पश्चात्सम्बन्धिसंस्तवोदाहरणमपि भावनीयं । सम्पति पुनः पश्चात्सम्बन्धिसंस्तत्रे दोपानाहपच्छास्थवदोसा सासू विहवादिधूयदाणं च । भज्जा ममेरिसिच्चिय सज्जो घाउ वयभंगो वा ॥ ४८८ ॥ तेर्मयगि रीयावृत्तिः ॥१४०॥ Eaton Inte व्याख्या— पश्चात्सम्बन्धिसंस्तत्रयिमे दोषाः- वधूरीदृशी ममासीदित्युक्ते सा विधवाया आदिशब्दात्कुरण्डादिरूपायाः सुताया दानं करोति, तथा भार्या ममेदृश्यभवदित्युक्ते यदीर्ष्यालुस्तद्धर्त्ता समीपे च वर्तते तदा मम भार्याऽनेन स्वभार्या कल्पितेति विचिन्त्य साधोतं कुर्यात्, अथेर्ष्यालुस्तद्भर्त्ता न भवति समीपे वा न वर्त्तते तदा भार्याऽहमनेन कल्पितेत्युन्मत्ता भार्येव समाचरंती चित्तक्षोभमापादयेत्, ततो व्रतभङ्गः । एवं तावत्पूर्वसम्बन्धिसंस्तवस्य पचात्सम्बन्धिस्तस्य च प्रत्येकमसाधारणान् दोषानभित्राय सम्मत्युभयोरपि | साधारणानभिधित्सुराह— मायावी चडुयारी अम्हं ओहावणं कुणइ एसो । निच्छुभाई पंतो करिज्ज भद्देतु पडिबंधो ॥ ४८९ ॥ व्याख्या - अधृतिदृष्टिमस्नवादि कुर्वन्मायावी एपोऽस्माकमावर्जनानिमित्तं चाटूनि करोतीति निन्दा, तथाऽस्माकं स्वस्थ कार्पोटिकपायस्य जनन्यादिकलनेनापभ्राजनं विधत्ते, ततः एवं विचिन्त्य मान्तः स्वगृहनिष्काशनादि करोति, अय ते गृहिणो भद्रा भवेयुस्ताह For Parta Use Only ~ 283~ ० उत्पादनायां ११ संस्तवदोषः ॥१४०॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४८९|| दीप अनुक्रम [५२६] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) → “निर्युक्तिः [४८९] + भाष्यं [ ३४...] + प्रक्षेपं [५...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [ ५२६ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित तेषु भद्रेषु सावोरुपरि प्रतिबन्यो भवेत् प्रतिवच सत्यायादिकं कृत्वा दयादिति । उक्तो द्विविधोऽपि सम्बन्धिसंस्तवः अथ वचनसंस्तवस्य पूर्वरूपस्य लक्षणमाह- गुणसंथवेण पुत्र संता संतेण जो थुनिज्जाहि । दायारमदिनंमी सो सिंथवो हवइ ॥ ४९० ॥ व्याख्या -' गुणाः औदार्यादयः तेषां यः 'संस्तवः ' मारूपो वचनसङ्घातस्तेन सत्यरूपेणासत्यरूपेण वा यः सादतिव्ये भक्तादावदचे सति दातारं स्तूयात् स एष पूर्वसंस्तवो भवति । अस्यैवोल्लेखं दर्शयति एसोसो जस्स गुणा वियरंति अवारिया दस दिसासु । इहरा कहासु सुणिनो पञ्चकखं अज्ज दिट्ठोऽसि ॥४९१|| व्याख्या— सुगमं, नवरम् ' इहरा' इतरथा, इदानीं दर्शनात् पूर्वमित्यर्थः । सम्मति पश्चाद्रूपस्य वचनस्तस्य लक्षणमाहगुणसंयत्रेण पच्छा संता संतेण जो धुणिज्जाहि । दायारं दिनंमी सो पच्छासंथवो होइ ॥ ४९२ ॥ व्याख्या - दत्ते भक्तादौ सति पादातारं गुणसंस्तवेन सत्यरूपेणासत्यरूपेण वा यः साधुः स्तुपा एव पञ्चात्संस्तत्रो भवति सम्मत्यस्यैवोल्लेखं दर्शयति विमली कयम्ह चक्खू जहत्थया वियरिया गुणा तुझं । आसि पुरा मे संका संपय निस्संकियं जायं ॥ ४९३ ॥ व्याख्या - भिक्षार्थी प्रविष्टः साधुर्लब्धे भक्तादौ दातारं वक्ति यथा निजदर्शनेन त्वया विमलीकृते नवलुपी, तथा यथार्थीस्तव For Pass Use Only ० ~284~ rary org Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५३१] .. “नियुक्ति: [४९३] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु- तेर्मकपगि- रीयावृत्ति उत्पादनायां ११ | स्तवदोषः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४९३|| ॥१४॥ गुणाः सर्वत्रापि विचरिताः, तथा 'पुरा' पूर्व मे शङ्काऽऽसीत-या गुणः श्रूयते स कि तादृशः एवोतान्यादृश इति ?, सम्पति तु त्वयि दृष्टे निम्शङ्कितं मे हृदयं जातम् ।। उक्त संस्तवद्वारम् , अथ विद्यामन्त्राख्यं द्वारमाहविज्जामतपरूवण विज्जाए भिक्खुवासओ होइ । मंतमि सीसवेयण तत्थ मुरुंडेण दिलुतो ॥ ४९४ ॥ व्याख्या-विद्यामन्त्रयोः प्ररूपणा कर्तव्या, सा चैव-ससाधना स्त्रीरूपदेवताधिष्ठिता वाऽक्षरपद्धतिर्विद्या, असाधना पुरुषरूपदेवताधिष्ठिता वा मन्त्रा, 'तत्थ 'चि तर विद्यायां भिक्षूपासको दृष्टान्तः, मन्त्रे शिरोवेदनायां मुरुण्डेन राज्ञोपलक्षितः पादलिप्तसूरिः। तत्र भिक्षूपासकदृष्टान्तं गाथाद्वयेन भावयति परिपिडियमुल्लावो अइपंतो भिक्खुवासओ दावे । जइ इच्छह अणुजाणह घयगुलवत्थाणि दावेमि ॥ ४९५ ॥ | गंतुं विज्जामंतण किं देमि ? घयं गुलं च वत्थाई । दिन्ने पडिसाहरणं केण हियं केण मुट्ठोमि ॥ ४९६ ॥ ___ व्याख्या-गन्धसमृडे नगरे धनदेवो नाम मिथुपासकः, स च साधुभ्यो भिक्षार्थ गृहे समागतेभ्यो न किश्चिदपि ददाति, अन्यदा च तरुणश्रमणानामेकत्र परिपिण्डितानां परस्परमुल्लापः, तत्रैकेनोक्तम्-अतिप्रान्तोऽयं धनदेवः संयतानां न किमपि ददाति, तदस्ति कोऽपि साधुर्य एनं घृतगुडादिकं दापयति, ततस्तेषां मध्ये केनाप्यूचे-यदीच्छथ ततोऽनुजानीवं मां येनाई दापयामि, तैरनुज्ञातः, ततो गतस्तस्य गृहमभिमन्त्रितो विधया, ततो ब्रूते साधून-किं प्रयच्छामि !, तैरुक्तं-घृतगुडवखादि, ततो दापितं तेन संयतेभ्यः प्रचुरं घृतगुडादिकं, तदनन्तरं च प्रतिसंहता क्षुलकेन विद्या, जातः स्वभावस्थो भितूपासकः, ततो यावन्निभाळ्यति घृतादिकं तावत्स्तोकं पश्यति, ततः केन दीप अनुक्रम [५३१] ॥१४॥ ~285~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५३४] .. “नियुक्ति: [४९६] + भाष्यं [३४...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४९६|| मे हृतं घृतादि ? केनाह मुषितोऽस्मि ? इति विलपितुं प्रवृत्तः, ततः परिजननोक्तं-युष्माभिरेव दापितं संयतेभ्यः तस्कि यूयमेवं भणय ?, ततो मौनमवलम्ब्य स्थितः । अत्र दोषानुपदर्शयति| पडिविज्ज थंभणाई सो वा अन्नो व से करिज्जाहि । पावाजीवीमाई कम्मणगारी य गहणाई ॥ ४९७ ॥ ___व्याख्या—यो विद्ययाऽभिमन्त्रितः स च स्वभावस्थो जातः सन् कदाचित्मदिष्टोऽन्यो वा तत्पक्षपाती प्रविष्टः सन् प्रतिविद्यया 'स्तम्भनादि' स्तम्भनोचाटनमारणादि कुर्यात, तथा 'पापाजीविनः' पापेन-विद्यादिना परद्रोहकरणरूपेण जीवनशीला मायिनः शठा इति लोके जुगुप्सा, तथा कार्मणकारिण इमे इति राजकुले ग्रहणाकर्षणवेषपरित्याजनकदर्थनमारणादि । सम्पति मन्त्रविषये मुरुण्डराजोपलक्षितपादलितोदाहरणमाहजह जह पएसिणी जाणुगंमि पालित्तओ भमाडेइ । तह तह सीसे वियणा पणस्सइ मुरुंडरायस्स ॥ ४९८ ॥ व्याख्या-प्रतिष्ठानपुरे मुरुण्डो नाम राजा, पादलिप्ता नाम सूरयः, अन्यदा च मुरुण्डराजस्य बभवातिशयेन शिरोवेदना, न बाकेनापि विद्यामन्त्रादिभिरुपशमयितुं शक्यते, तत आकारिता राज्ञा पादलिप्ताः सूरयः, कृतास्तेषामागतानां महसी प्रतिपत्तिः, कथितंभ चाकारणकारणं शिरोवेदना, ततो यथा कोको न जानीते तथा मन्त्र ध्यायद्भिः प्रावरणमध्ये निजदक्षिणजानुशिरास पार्थतो निजदक्षिणहस्तपदेशिनी यथा यथा भ्राम्यते तथा तथा राज्ञः शिरोवेदना अपगच्छति, ततः क्रमेणापगता सकलाऽपि शिरोवेदना, जातोऽतिशयेन सूरीणामुपासकः, ततो विपुलं भक्तपानादिकं तेभ्यो दत्तवान् । अत्र दोषानाह दीप अनुक्रम [५३१] ~286~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५३७] .→ “नियुक्ति: [४९९] + भाष्यं [३५] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||४९९|| उत्पादनायां१२-१३ विद्यामन्त्रेयोः साधोर पादकितस्य दृष्टान्ती पडिमंतथंभणाई सो वा अन्नो व से करिज्जाहि । पाबाजीवियमाई कम्मणगारी भवे बीयं ॥ ४९९ ॥ तर्मळयगि- __व्याख्या-इह कथानके न कोऽपि दोपो जातः, पादलिससूरीगों मुरुग्डराज प्रत्युपकारित्वात् , केवलं प्रागुक्तवियाकथानक इस रीयाचिः मन्त्रेऽपि प्रयुज्यमाने सम्भाव्यन्ते दोषाः ततस्तदुपदर्शनं क्रियते, तत्रेय गाथा पागिव व्यारूपेपा, नवरं 'भो बीय'ति पुष्टमालम्बनम॥१४॥ धिकृत्य द्वितीयम्-अपवादपदं भवेत, सहनदिप्रयोजने मन्त्रोऽपि प्रयोक्तव्य इति भावार्थः, एसब विधावामपि द्रष्टव्यम् । उक्त विद्यामकानाख्यं द्वारदपम्, अथ चूर्णयोगमूलकाख्यं द्वारवयमाइ-- चुन्ने अंतहाणे चाणके पायलेवणे जोगे। मूल विवाहे दो दंडिणी उ आयाण परिसाडे ॥ ५..॥ व्याख्या-चूर्णेऽन्त ने-लोके दृष्टिपथतिरोधानकारके दृष्ट्वान्ने चाणक्यविदिती द्वौ क्षुलकी, पादे-बादले नरूपे योगे दृष्टान्ताः समितसूरयः, तथा 'मूले ' मूलकमेणि अक्षतयोनिक्षतयोनिकरणरूपे युवतिय दृष्टान्तः, विवाहवियेऽपि मूलकर्मणि युवतिद्वयमुदाहरणं, तथा गर्भाधानपरिसाटरूपे मूलकर्मणि द्वे 'दण्डिन्यौ ' नृपपल्ल्याबुदाहरणं । तत्र 'चुने अंतद्धाणे चाणके' इत्यस्यवं भाष्यगाथात्रयण व्याख्यानयति जंघाहीणा ओमे कुसुमपुरे सिरसजोगरहकरणं । खुड्डु दुगंजण सुगणा गमगं देसंतरे सरणं ॥४४॥ (भा.) भिक्खे परिहायंते थेराणं तेसि ओमि दिताणं । सहभुज्ज चंदगुत्ते ओमोयरियाए दोबल्लं ॥ ४५ ॥ (भा.) चाणक पुच्छ इटालचुण्णदारं विहित्तु धूमे य । दुहुँ कुच्छपसंसा थेरसमीवे उबालंभो ॥ ४६॥ (भा.) ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ 100000000000000000000000000000000 दीप अनुक्रम [५३७] भा०३५ भा० ३६ भा० ३७ ~ 287~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||३७|| दीप अनुक्रम [ ५४१] मूलं [ ५४१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) “निर्युक्ति: [ ५०० ] + भाष्यं [३७] + प्रक्षेपं [५...]" ८० आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः -⇒ व्याख्या— कुसुमपुरे नगरे चन्द्रगुप्सो नाम राजा, तस्य मन्त्री चाणक्यः तत्र च जङ्घावलारिहीणाः सुस्थिताभिवाः सूरयः, अन्यदा च तत्र दुर्भिक्षमपत्, ततः सूरिभिचिन्तितम्-अनुं समृद्धाभिधानं शिष्यं सूरिपदे संस्थापक सुभिक्षे कापि मेपयामि, ततस्तस्मै योनिप्राभृतमेकान्ते व्याख्यातुमारब्धं तत्र च क्षुल्लकयेन कथमपश्यीकरणनिबन्धनमञ्जनं पारूपायमानं शुश्रुवे, यथा अनेनाखनेनाञ्जितचक्षुर्न केनापि दृश्यते इति, योनिमाभृतव्याख्यानानन्तरं च समृद्धाभिवासी सूरपदस्थापितः मुस्कलितथ सकलगच्छसमेतो देशान्तरे, स्वयमेकाकिनस्तत्रैवावतस्थिरे सूरयः, कतिपयदिनानन्तरं चाचार्यस्नेहवस्तत् क्षुल्लकदपमाचार्यसमीपे समाजगाम, आचार्या अपि यत्किमपि भिक्षया लभन्ते तत्समं विरिच्य ( परिभाव्य ) क्षुद्धकद्वयेन सह भुञ्जते, तत आहारापरिपूर्णतया सूरीणां दौर्बल्यमभवत्, ततचिन्तितं क्षुलकद्वयेन भवमोदरता सूरीणां ततो वयं पूर्वश्रुतमञ्जनं कृत्वा चन्द्रगुप्तेन सह भुञ्जाबदे इति, तथैव कृतं ततश्चन्द्रगुप्तस्याहारस्तोकतया वभूव शरीरे कृशता, चाणक्पेन पृष्टं किं ते शरीरदौवे ?, समाह-परिपूर्णाहारालाभक्तः, ततञ्चाणक्येन चिन्तितम् - एतावत्याहारे परिवेष्यमाणे कथमाहारस्यापरिपूर्णता?, तबूनपञ्जनसिद्धः कोऽपि समागत्य राज्ञा सह मुझे, तवस्तेनाञ्जनसिद्धग्रहणाय भोजनमण्डपेऽतीव लक्षण इष्टकाचूणों विकर्णो दृष्टानि मनुष्यपदानि ततो निश्चिये नूनं द्वौ पुरुषवञ्जनसिद्धावायातः, ततो द्वारं पिधाय मध्येऽतिवहलो धूमो निष्पादितः, धूपबाधितनयनयोच तयोरञ्जनं नयनाश्रुभिः सह विगलितं, ततो बभूवतु: प्रत्यक्षौ क्षुल्लकों, कृता चन्द्रगुप्तेनात्मनि जुगुप्सा-अहो ! विटाछितोऽहमाभ्यामिति ततञ्चाणक्येन तत्र समाधाननिमित्तं प्रवचनमालिन्यरक्षार्थं च प्रशंसितो राजा यथा धन्यस्त्वमसि यो चान्नह्मचारिभिर्यतिभिः पवित्रीकृत इति, ततो वन्दित्वा मुत्कलितौ द्वावपि क्षुल्लकौ, चाणक्पेन रजन्यां वसतावागत्य सूरय उपाध्याः पथैवाहं कुरुतः ?, ततः सूरिभिः स एवोपालः- यथा Education International For Parts Only ~ 288~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१४१] .→ "नियुक्ति: [५००] + भाष्यं [३७] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उत्पादना प्रत पिण्डनियु- तर्मकयगि- रीयादृत्तिः ॥१४॥ गाथांक नि/भा/प्र ||३७|| FE त्वमेवात्रापराधकारी?, यो द्वयोरपि क्षुल्लकयोर्न निर्वाहं चिन्तयसि ?, स पाह-भगवन् ! एवमेतदिति पादयोर्निपल्य सूरयस्तेन क्षामिताः, कता सकलस्यापि सङ्घस्य तत ऊर्ध्वं यथायोग चिन्ता । सूत्रं सुगमम् । अत्रातिदेशतः साक्षाय दोषानाहजे विज्जमतदोसा ते चिय वसिकरणमाइचुन्नेहिं । एगमणेगपओसं कुज्जा पत्थारओ वावि ॥ ५.१ ॥ व्याख्या-4 एवं विद्यायां मन्ये चोक्ता दोषास्त एव वशीकरणादिचूर्णेष्वपि द्रष्टव्याः, सूत्रे च तृतीया सप्तम्यर्थे, तथा चूणे प्रयुज्यमाने एकस्य चूर्णस्य प्रयोक्तुरनेकेषां वा साधूनामुपरि प्रदेष कुर्यात्, ततस्तत्र मिक्षालाभाघसम्भवः, 'पत्थारओ यावि' नाशो || वा भवेत् , अपिः समुच्ये, तदेवं 'चुन्ने अन्तद्धाणे चाणके' इति व्याख्यातं, तयाख्यानाच चूर्ण इति द्वारं समर्थितं । इदानीं 'पायलेवणे जोग' इति व्याख्यानयन्नाह सूभगदुब्भग्गकरा जोगा आहारिमा य इयरे य । आघसधूववासा पायपलेवाइणो इयरे ॥ ५०२ ॥ व्याख्या-योगाः 'सौभाग्यदौर्भाग्यकराः' जनप्रियत्याभियत्वकराः, ते च द्विधा-आहार्या इतरे च, तत्र 'आहार्या' ये पानीयादिना सहाभ्यवड़ियन्ते तद्विपरीता इतरे, तत्राद्या 'आघर्षधूपवासा' ये पानीयादिना सह घर्षयित्वा पीयन्ते ते आघाः, धपवासाःमतीताः । अथ चूर्णस्य वासानां च परस्परं का प्रतिविशेषो?, द्वयोरपि सोदरूपत्वाविशेषात् , उच्यते, सामान्यद्रव्यनिष्पन्नः शुष्क आद्रों वा क्षोदश्चूर्णः, सुगन्धद्रव्यनिष्पन्नाथ शुष्कपेपम्पिष्टा वासाः, इतरे चानाहार्या योगाः पादपलेपनादयः । तत्राऽऽहार्यरूपस्य पादपलेपनरूपस्य योगस्य दृष्टान्तं गाथात्रयेण भावयति दीप अनुक्रम [५४१] ॥१४॥ ~289~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५४४] .. “नियुक्ति: [५०३] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [५...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५०३|| दीप अनुक्रम [५४४] नइकण्हबिन्न दीवे पंचसया तावसाण निवसति । पब्वदिवसेसु कुलवई पालेवुत्तार सक्कारे ॥ ५.३॥ जण सावगाण खिसण समियक्खण माइठाण लेवेण । सावय पयत्तकरणं अविणय लोए चलणधोए ॥५०४॥ पडिलाभिय वच्चंता निब्बुड नइकूल मिलण समियाओ। विम्हिय पंचसया तावसाण पव्वज्ज साहाय ॥५०५॥ व्याख्या-अचलपुरं नाम नगरं, तत्र प्रत्यासन्ने दे नयौ, तद्यथा-कृष्णा घेना च, तयोरपान्तराले ब्रह्मनामा द्वीपः, तत्र चैकोनपश्चशततापसपरितो देवशर्मनामा कुलपतिः परिवसति, स च सक्रान्त्यादिपर्वसु स्वतीर्थमभावनानिमित्तं सर्वैरपि तापसैः परिवृतः पादलेपेन कृष्णा नदीमुत्तीर्याचलपुरमागच्छति, लोकश्च तथारूपं तस्यातिशयमवलोक्य विस्मितचेताः सविशेष | भोजनादिसत्कारमाचरति, श्रावकजनाश्व कुत्सयते-यथा न युष्मद्गुरूणामेतादृशी शक्तिरस्तीति, ततः श्रावकैः समिताभिधसूरीणामाख्या-18 कपि, तेश्च स्वचेतसि परिभाव्योक्तं-मावस्थानत एष पादलेपेन नदीमुत्तरति, न तपःशक्तिप्रभावतः, ततः श्रावकैस्तस्य मातृस्थानप्रकट नार्थं सपरिवारो भोजनार्य निमन्त्रितः कुलपतिः, ततः समाजगाम भोजनवेळायां गृहे, मारब्धं तस्य श्रावकैः पादप्रक्षालनं कर्तुं, सच दान ददाति, मा पादलेपः पादयोरपयासीदितिकृत्वा, ततः श्रावकैरुक्तं-माऽस्माकमप्रक्षालितपादान् युष्मान् भोजयतामविनय इति बला-18 दपि प्रक्षालितौ पादौ, ततो भोजनानन्तरं निजस्थानगमनाय प्रचलिता, श्रावका अपि सकल जनानाहूयानुव्रजनबुद्धया तेन सह चलिर्नु । मत्ताः, ततः सपरिवारः कुलपतिः कृष्णा नदीमुत्तरितुं प्रावत, पादलेपाभावे च निमक्तुं नमः, ततो जाता जने तस्यापभ्राजना. अत्रान्तरे च तस्याववोधाय समितसूरयस्तत्राजग्मुः, वैः सकलजनसमक्षं नदी प्रत्युक्तं हे कृष्णे! परं पारं वयं गन्तुमिच्छामः, ततो दे। ~290~ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५४७] .→ "नियुक्ति: [५०५] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६|| पिण्डनियु- अपि कृष्णानया कूले एकत्र मिलिते, जातो विस्मयो कोकस्य सपरिवारस्य च कुलपतेः, ततो गृहीता सपरिवारेण कुलपतिना दीक्षा, सा उत्पादनातेर्मलयगि-ब्रह्मशाखा बभूव । सूत्रं मुगर्म । तदेवं 'पायलेषणे जोगे' इति ब्याख्यातं, तद्याख्यानाच योगद्वारं समर्थितं । सम्पति 'मूलतियां १५ यो. व्याचिख्यासुराह गेसमिताअधिई पुच्छा आसन्न विवाहे भिन्नकन्नसाहणया । आयमणपियणओसह अक्खय जज्जीवअहिगरणं ॥ ५०६॥ चार्याः जंघापरिजिय सड़ी अडिइ आणिज्जए मम सवत्ती। जोगो जोणुग्घाडण पडिसेह पोस उड्डाहो ॥ ५०७ ॥ व्याख्या-कचित्पुरे धननाम्नः श्रेष्टिनो भार्या धनप्रिया, तस्य दुहिता सुन्दरी, सा च भिन्नयोनिका, परमेनमर्थ माता जानाति न। पिता, सा च पित्रा तत्रैव पुरे कस्यापीश्वरपुत्रस्य परिणयनाय दत्ता, समागतः प्रत्यासनो विवाहो, मातुश्चिन्ता बभूव एषा परिणीता सती यदि भर्ता भित्रयोनिका ज्ञास्यते ततस्तेनोनिता वराकी दुःखमनुभविष्यति, अत्रान्तरे च समागतः कोऽपि संयतो भिक्षार्थ, तेन सा पृष्टा, तथा कथितः सर्वोऽपि वृत्तान्तः, ततः साधुनोक्त-मा भैषीरहमभित्रयोनिका करिष्यामि, तत आचमनौषधं पानौषधं च तस्यै प्रदत्त, जाता अभिनयोनिका । तथा चन्द्राननायां पुरि धनदत्तः सार्थवाहस्तस्य भायों चन्द्रमुखा, तयोश्चान्यदा परस्परं कलहः प्रवृत्तः, ततोऽभिनिवेशेन तन्नगरवास्तव्यस्यैव कस्यापीचरस्य दुहिता धनदचेन परिणयनार्थ वृता, ज्ञातवायं वृत्तान्तश्चन्द्रमुखया, ततो बभूव महती तस्या । अधृतिः, अत्रान्तरे च जलापरिजितनामा साधुरागतो भिक्षार्थ, दृष्टा तेनावृति कुर्वती चन्द्रमुखा, ततः पृष्टा-कि भद्रे ! त्वमधृतिमती ॥१४॥ दृश्यसे?, ततः कथितस्तया सपत्नीव्यतिकरः, ततः साधुना समर्पितं तस्या औषध, भगिता च सा-कथमपि तस्या भक्तस्य पानस्य मध्ये | देयं येन सा भिनषोनिका भवति, ततः स्वभौं निवेदयेः, येन सा न परिणीयते, तथैव कुन, न परिणीता सा भत्रेति । सूत्र सुगम । नवरं दीप अनुक्रम [५४७] . अत्र एका प्रक्षेप-गाथा वर्तते. सा मया संपादित: 'आगमसुत्ताणि' मूलं एवं सटीकं उभये पुस्तके वर्तते ~ 291~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [१४९] .. “नियुक्ति: [५०७] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५०७|| 'जज्जीवम् ' इति यावज्जीवमधिकरणं-मैथुनप्रवृत्तिः, 'पडिसेहि 'त्ति साऽभिनवा परिणेतुमारब्धा भिन्नयोनिकेति ज्ञात्वा प्रतिषिद्धा । अयं| चेदर्थस्तया ज्ञातो भवेत् , तर्हि तस्याः साधु प्रति महान् प्रदेषो भवेत्, प्रवचनस्योडाहः । सम्पति 'विवाहे ' इति पदं व्याख्यानयन्नाह मा ते फंसेज्ज कुलं अदिज्जमाणा सुया वयं पत्ता | धम्मो य लोहियस्सा जइ बिंदू तत्तिया नरया ॥ ५०८॥ किन ठविज्जइ पुत्तो पत्तो कुलगोत्तकित्तिसंताणो । पच्छावि य तं कजं असंगहो मा य नासिज्जा ॥५०९॥ ___ व्याख्या-कचिद्धामे कोऽपि गृहपतिः, तस्य पुत्रिका वयःप्राप्ता, ततः कोऽपि साधुभिक्षार्थ प्रविष्टः सन् दृष्ट्वा तन्मातरमेवमभिदधातितब दुहिता वयःप्राप्ता-यौवनं प्राप्ता, तद्यदि सम्पति न परिणी(णाय्यते यते तर्हि केनापि तरुणेन सहाकार्य समाचर्य कुलमालिन्यमुत्पादयिष्यति, तथा 'धम्मो 'ति लोके एवं श्रुतिः-यदि कुमारी ऋतुमती भवेत् तर्हि यावन्तस्तस्या रुधिरबिन्दवो निपतन्ति तावतो वारान् । तन्माता नरकं याति । तथा कचिद्रामे कस्यापि कुटुम्बिनः पुत्रं यौवनिकामधिगतमवलोक्य साधुस्तन्मातरमेवं ब्रूते-यथा कुलस्य गोत्रस्य | कीर्तेश्च सन्तानो-निवन्धनमेष तव पुत्रो, यौवनं च प्राप्तः, ततः किं न सम्पति परिणाय्यते?, अपि च-परिणीतः सन् कलत्रस्नेहेन स्थिरो भवत्यपरिणीतब कयाऽपि स्वच्छन्दचारिण्या सहोत्थाय गच्छेत् , पश्चादपि चैप परिणाययितव्यः तत्सम्मत्यपि कस्मान्न परि-18|| आणाय्यते ? इति । सम्पति 'दो दंडिणीओ आयाणपरिसाडे' इत्यवयवं व्याचिख्यामुराह किं अडिइत्ति पुच्छा सवित्तिणी गम्भिणित्ति मे देवी । गम्भाहाणं तुज्झवि करोमि मा अडिई कुणसु ॥५१०॥ जइवि सुओ मे होही तहवि कणिट्ठोत्ति इयरो जुवराया। देइ परिसाडणं से नाए य पओस पत्थारो ॥५११॥ दीप अनुक्रम [५४९] ~292~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५११ || दीप अनुक्रम [५५३] मूलं [ ५५३ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्युकैर्मलयगिरीयाष्टत्तिः “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) • → “निर्युक्तिः [ ५११] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Ja Eucation Internationa व्याख्या - संयुगं नाम नगरं तत्र सिंधुराजो नाम राजा, तस्य सकलान्तःपुरमधाने द्वे पल्यौ, तद्यथा-शृङ्गारमतिर्जयसुन्दरी च, तत्रान्यदा बभूव शृङ्गारमतेर्गर्भाधानं इतरा च जयसुन्दरी नूनमस्याः पुत्रो भविष्यतीति विचिन्त्य मात्सर्यवशादधृतिं कुर्वत्यवतिछते, अत्रान्तरे च समागतः कोऽपि साधुः, तेन सा पपृच्छे-किं भद्रे ! स्वमधृतिमती दृश्यसे ?, ततः सा तस्मै सपल्या व्यतिकरमचकथत्, ॐ साधुरप्यब्रवीत् मा कार्षीरधृतिं तवापि गर्भाधानमहं करिष्ये, ततस्तयोक्तं-भगवन् ! यद्यपि युष्मत्प्रसादेन मे पुत्रो भावी, तथापि स कनिष्ठत्वेन यौवराज्यं न प्राप्स्यति, किन्तु सपल्या एव सुतः, तस्य ज्येष्ठत्वात्, ततः साधुना तस्या भेषजमेकं गर्भाधानाय दत्त, अपरं तु * दापितं सपत्न्या गर्भशातनायेति । सूत्रं सुगमं । नवरमेतन्न कर्त्तव्यं यतो गर्भशातने साधुकुते ज्ञाते सति प्रद्वेषो भवति, ततः शरीरस्यापि 'प्रस्तारः ' विनाशः । सम्पति सर्वस्मिन्नपि मूलकर्मणि दोषान् प्रदर्शयति- ॥ १४५ ॥ संकिरणे काया कामपविति च कुणइ एगत्थ । एगत्थुट्टाहाई जज्जिय भोगंतराय च ॥ ५१२ ॥ व्याख्या 'संखकिरणे मा ते फंसेज्ज कुलं ' तथा 'किं न उविज्ज' इत्यादिगाथाद्वयोक्ते बीबाइकरणे 'कायाः पृथिव्यादयो विराध्यन्ते, एकत्र पुनरक्षतयोनिकत्व करणे गर्भाधाने च काममदृत्तिं करोति, गर्भाधानाद्धि पुत्रोत्पत्तौ प्राय इष्टा भवति, ततः काम्या जायते इति मैथुनसन्ततिः । एकत्र पुनर्गर्भपातने उड्डाहादि - प्रवचनमालिन्यात्मविनाशादि, एकत्र पुनः क्षतयोनिकत्व करणे यावज्जीवं भोगान्तरार्य, चशब्दादुड्डाहादि च तदेवमभिहितं मूलकर्म तदभिधानाच व्याख्याता उत्पादनादोषाः, तयाख्याने च सम- ० ॥ १४५॥ चिंता गवेषणैषणा । सम्पति ग्रहणैषणायाः सम्बन्धमाह एवं तु गविहस्सा उग्गमउप्पायणाविसुद्धस्स । गहणावसोहिविसुद्धस्स होइ गहणं तु पिंडरस || ५१३ ॥ For Pass Use Only ० ~293~ 104 उत्पादना यां १६ मूलकर्मदोषः org Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५५५] .. “नियुक्ति: [५१३] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५१३|| दीप अनुक्रम [५५५] व्याख्या-'एवम् ' उक्तेन प्रकारेणोद्गमोत्पादनाविशुद्धस्य-उद्मोत्पादनदोषरहितस्य गवेषितस्य पिण्डस्य ग्रहणं भवति 'ग्रहणविशोधिविशुद्धस्य ग्रहणविषयशङ्कगदिदोषाभावेन विशुद्धस्य, नान्यथा, ततो ग्रहणैषणादोषानहं वक्ष्ये इति भावः । ते च यत उत्पद्यन्ते । तत्समुत्थान् दर्शयति ___ उपायणाएँ दोसे साहूउ समुट्ठिए वियाणाहि । गहणेसणाइ दोसे आयपरसमुढ़िए वोच्छ ॥ ५१४॥ * व्याख्या-उत्पादनाया दोषान् साधुतः समुत्थितान् विजानीहि, ग्रहणैषणाया दोषास्त्वात्मपरसमुत्थितान् तानई वक्ष्ये । तत्र ये आत्मसमुत्था ये च परसमुत्थास्तान् विभागतो दर्शयतिदोन्नि उ साहुसमुत्था संकिय तह भावोऽपरिणयं च । सेसा अट्ठवि नियमा गिहिणो य समुट्ठिए जाण ॥५१५॥ व्याख्या-द्वौ दोषौ साधुसमुत्थिती, तयथा-शङ्कित भावतोऽपरिणतं च, एतच द्वयमपि वक्ष्यमाणस्वरूप, शेपानष्टावपि दोषान गृहिणः समुत्थितान् जानीहि । सम्पति ग्रहणैषणाया निक्षेपमाह नाम ठवणा दविए भावे गहणेसणा मुणेयव्वा । दब्वे वानरजूहं भावंमि य दुसपया हुँति ॥ ५१६ ॥ व्याख्या-चतुर्दा ग्रहणैषणा, तद्यथा-नामग्रहणैषणा स्थापनाग्रहणैषणा द्रव्यग्रहणैषणा भावग्रहणैषणा च, तत्र नामस्थापने द्रव्यग्रहणैषणाऽपि यावद्भव्यशरीररूपा तावद्वेषणाबद्वक्तव्या, शरीरभव्यशरीरख्यतिरिक्त तु द्रव्यग्रहणैषणामाह-'द्रव्ये ' द्रव्यग्रहणैषणायामुदाहरणं वानरयूथं, भावग्रहणैषणा द्विधा, तद्यथा-आगमतो नोआगमतश्व, तत्राऽऽगमतो ज्ञाता तत्र चोपयुक्ता, नोभागमतस्तु । अथ एषणा विषयक दोष-संबंधी वर्णनं आरभ्यते ~294~ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५५८] .. “नियुक्ति: [५१६] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: सायां वानर प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५१६|| पिण्डनियु- द्विधा, तद्यथा-प्रशस्ता अप्रशस्ता च, तत्र प्रशस्ता-सम्यग्ज्ञानादिविषया, अप्रशस्ता-शङ्कितादिदोषदुष्टभक्तपानादिविषया, सा च 'दश- द्रव्यैषणाक्तर्मळयगि पदा' वक्ष्यमाणशङ्कितादिभेदैर्दशपकारा । तत्र वानरयूथोदाहरणं रूपकत्रयेण भावयतिरीयावृत्तिः पडिसडियपंडुपत्तं वणसंडं दहु अन्नहिं पेसे । जूहवई पडियरए जूहेण समं तहिं गच्छे ॥ ५१७ ॥ यूथदृष्टान्तः सयमेवालोएउं जूहबई तं वणं समंतेण । वियरइ तेसि पयारं चरिऊण य तो दहं गच्छे ॥ ५१८ ॥ ओयरंत पयं दडे, नीहरंतं न दीसई । नालेण पियह पाणीयं, नेस निक्कारणो हो ॥ ५१९ ॥ व्याख्या-विशालशृङ्गो नाम पर्वतः, तत्रैकस्मिन् बनखण्डे वानरयूथमभिरमते, अथ च तत्रैव पर्वते द्वितीयमपि वनखण्डं सर्वपुष्पफलसमृद्ध समस्ति, परं तन्मध्यभागवर्तिनि हूदे शिशुमारोऽवतिष्ठते, स यत्किमपि मृगादिकं पानीयाय प्रविशति तत्सर्वमाकृष्य भक्षयति, अन्यदा च तद्वनखण्डं परिशटितपाण्डपत्रमपगतपुष्पफलमवलोक्य यूथाधिपतिरन्यस्य वनखण्डस्य निर्वाहसमर्थस्य गवेषणाय वानरयुगलं प्रेषितवान्, गवेषयित्वा च तेन यूथाधिपतेनिवेदितम्-अस्ति बनखण्डममुकप्रदेशे सर्व पुष्पफलपत्रसमुद्धमस्माकं निर्वाहयोग्य, ततो यूथाधिपतिः सह यूथेन तत्र गतवान , परिभावयितुं च प्रवृत्तः समन्ततस्तद्वनखण्ड, ततो दृष्टस्तन्मध्ये जलपरिपूर्णो इदः, परं तत्र । प्रविशन्ति श्वापदानां पदानि दृश्यन्ते, न निर्गच्छन्ति, ततो यूथमाहृय यूथाधिपतिरुवाच-माज यूयं प्रविश्य पिषय पानीयं, किन्तु तट- ॥१४॥ स्थिता एव नालेन पिबथ, यतो नैप हृदो निष्कारणो-निरुपद्रवः, तथाहि-मृगादीनामत्र पदानि प्रविशन्ति दृश्यन्ते न निर्गच्छन्तीति, एवं चोक्ते यैस्तद्वचः कृतं ते वानराः स्वेच्छाविहारमुखभाजिनो जाता:, इतरे तु विनष्टाः । उक्ता द्रव्यग्रहणेषणा, सम्प्रति भावग्रहणैषणा दीप अनुक्रम [५५८] SAREairamIAL ~295~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५६१] .. “नियुक्ति: [५१९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५१९|| वक्तव्या, तया चाधिकारोऽप्रशस्तया, पिण्डदोषाणां वक्तुं प्रक्रान्तत्त्वात् , सा च शङ्कितादिभेदादशप्रकारा, ततस्तानेव शन्तिादीन भेदान् प्रदर्शयतिका संकिय मक्खिय निक्खित्त पिहिय साहरिय दायगुम्मीसे । अपरिणय लित्त छड्डिय एसणदोसा दस हवंति ॥५२॥ ध्याख्या-'शङ्कित' सम्भाविताधाकर्मादिदोष 'प्रक्षिप्त' सचित्तपृथिव्यादिनाऽवगुण्डितं 'निसिप्त' सचित्तस्योपरि स्थापित पिहित सचित्तेन स्थगित 'संहृतम्' अन्यत्र क्षिप्तं 'दायक' दायकदोषदुष्टम् 'उन्मिश्रितं' पुष्पादिसम्मिश्रम् 'अपरिणतम् ' अप्रासुकीभूतं, लिसं, 'छर्दितं ' भूमावा वेडित, एते दश एषणादोषा भवन्ति । तत्र शन्तिपदं व्याचिख्यामुराह| संकाए चउभंगो दोसुवि गहणे य भुंजणे लग्गो । जं संकियमावन्नो पणवीसा चरिमए सुद्धो ॥ ५२१॥ व्याख्या-'शङ्कायां 'शङ्किते 'चतुर्भङ्गी' चत्वारो भङ्गाः, सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश आपत्वात् , सा चेयं चतुर्भङ्गी-ग्रहणे शन्तिो भोजने चेति प्रथमो भङ्गः, ग्रहणे शान्तिो न भोजने इति द्वितीया, भोजने शङ्कितो न ग्रहणे इति तृतीयः, न ग्रहणे न भोजने इति । चतुर्थ:, अत्र दोपानाह-'दोसुची 'त्यादि, द्वयोरपि शङ्कितस्य ग्रहणभोजनयोरपि यो वर्तते यश्च 'गहणे य'ति ग्रहणेऽर्थापच्या न भोजने तथा भोजने सामथ्योन्न ग्रहणे स सर्वोऽपि 'लगो' दोषेण सम्बद्धा, केन दोषेण ?, इत्याह-'जं संकिर्य ' इत्यादि, पोडशो। दमदोषनवैषणादोषरूपाणां पञ्चविंशतिदोषाणां मध्ये येन दोषेण शङ्कितं-सम्भावितमापन्नः-धर्तते तेन दोषेण सम्बद्धः, इदमुक्तं भवतिकायदाधाकर्मत्वेन शान्तिं तद् गृहानी भुञ्जानो वाऽऽधाकर्मदोषेण सम्बध्यते, यदि पुनरौदेशिकत्वेन तत औदेशिकेनेत्यादि, चरमे चतुर्थभङ्गे| पुनर्वर्तमानः शुद्धो, न केनापि दोषेण सम्बध्यते इत्यर्थः । इह 'पणवीसा' इत्युक्तं, ततस्तानेव पश्चविंशति दोषानाह दीप अनुक्रम [५६१] 0000000000000000000000000000000 ~296~ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५२२|| दीप अनुक्रम [५६४] मूलं [५६४ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्युतेर्मलयगिरीयावृत्तिः ॥ १४७॥ “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [५२२ ] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उगमदोसा सोलस आहाकम्माइ एसणादोसा । नव मक्खियाइ एए पणवीसा चरिमए सुद्धो ॥ ५२२ ॥ व्याख्या – आधाकर्मादयः षोडश उद्रमदोषाः, नव च प्रक्षितादय एपणादोषाः, एते मिलिताः पञ्चविंशतिः, चरमे तु भङ्गे न ग्रहणे न भोजने इत्येवंरूपे वर्त्तमानो यतिः शुद्धः, यत इहाशुद्धमपि उपस्थपरीक्षणा निःशङ्कितं गृहीतं शुद्धं भवतीति । एतदेवोपदर्शयति छउमत्यो सुनाणी उवउत्तो उज्जुओ पयत्तेणं । आवन्नो पणवीसं सुयनाणपमाणओ सुद्धो ॥ ५२३ ॥ व्याख्या --- छद्मस्थः श्रुतज्ञानी 'ऋजुकः ' मायारहितः 'प्रयत्नेन ' यथाऽऽगममादरेण गवेषयन् पञ्चविंशतेर्दोषाणामन्यतम दोषमापन्नोऽपि 'श्रुतज्ञानप्रमाणतः आगमप्रामाण्येन शुद्धः । एनमेवार्थ स्पष्टयति ओहो ओवउत्त सुयनाणी जइवि गिण्हइ असुद्धं । तं केवलीबि भुंजइ अपमाण सुयं भवे इहरा ॥ ५२४ ॥ व्याख्या- 'ओहो ' इत्यत्र प्रथमा तृतीयार्थे तत ओपेन - सामान्येन 'श्रुते' पिण्डनिर्युक्त्यादिरूपे आगमे उपयुक्तः संस्तदनुसारेण कल्पयाकल्प्यं परिभावयन् श्रुतज्ञानी यद्यपि कथमप्यशुद्धं गृह्णाति तथापि तत् 'केवल्यपि ' केवलज्ञान्यपि मुझे, इतरथा श्रुतज्ञानमप्रमाणं भवेत्, तथाहि छद्यस्थः श्रुतज्ञानबलेन शुद्धं गवेषयितुमीष्टे, न प्रकारान्तरेण, ततो यदि केवली श्रुतज्ञानिना यथाऽऽगमं ग षितमप्यशुद्धमितिकृत्वा न भुञ्जीत ततः श्रुतेनाश्वासः स्यादिति न कोऽपि श्रुतं प्रमाणत्वेन प्रतिपद्येत, श्रुतज्ञानस्य चामामाण्ये सर्वक्रियाविलोपप्रसङ्गः श्रुतमन्तरेण छमस्थानां क्रियाकाण्डस्य परिज्ञानासम्भवात् । ततः किम् ? इत्याह Education Internation For Parts Only ~ 297~ ० एषणायांशङ्कितदोषः ॥ १४७॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५६७] .. “नियुक्ति: [५२५] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५२५|| सुंत्तस्स अप्पमाणे चरणाभावो तओ य मोक्खस्स । मोक्खस्सऽविय अभावे दिक्खपवित्ती निरस्था उ ॥५२५॥ व्याख्या-सूत्रस्यामामाण्ये 'चरणस्य' चारित्रस्याभाव, श्रुतमन्तरेण यथावत् सावयेतरविधिपतिधपरिज्ञानासम्भवात , चर-18 णाभावे च मोक्षाभावो, मोक्षाभावे च दीक्षा निरथिका, तस्या अनन्यार्थत्वात् । सम्पति 'ग्रहणे शङ्कितो भोजने चे 'त्यस्य प्रथमभङ्गस्य सम्भवमाह| किंतु(ति)ह खडा भिक्खा दिजइ न य तरइ पुच्छिउं हिरिमं । इअ संकाए घेत्तुं तं भुंजइ संकिओ चेव ॥५२६॥ व्याख्या-कोऽपि साधुः स्वभावतो लज्जावान भवति, तत्र कापि गृहे भिक्षार्थ प्रविष्टः सन् प्रचुये भिक्षा लभमानः स्वचेतसि । शन्से-किमत्र प्रचुरा भिक्षा दीयते?, न च लज्जया प्रष्टुं शक्नोति, तत एवं शङ्कया गृहीत्वा शन्ति एवं तद इति प्रथमभङ्गे चनेते । सम्मति 'ग्रहणे शान्तिो न भोजने' इति द्वितीयस्य भङ्गस्य सम्भवमाइ हियएण संकिएणं गहिआ अन्नेण सोहिया सा य । पगयं पहेणगं वा सोउं निरसकिओ भुजे ॥ ५२७ ॥ व्याख्या- केनापि साधना लज्जादिना प्रमशक्नुवता प्रथमतः शडितेन हदयेन या गृहीता भिक्षा साऽन्पेन सङ्काटेकन || शोधिता-यथा 'प्रकृत' प्रकरणं किमपि माघूर्णभोजनादिकं, यदिवा प्रदेणकं कृतविदन्यस्माद्बहादापातामति, ततो द्वितीयसनाटकादेतिच्छ्रुत्वा यो निःशङ्कितो मुझे स द्वितीये भङ्गे वर्तते । तृतीयभङ्गस्य सम्भवमाह जारिसए चिय लडा खडा भिक्खा मए अमुयगेहे । अन्नेहिंवि तारिसिया वियत निसामए तइए॥ ५२८ ।। दीप अनुक्रम [५६७] For P OW ~298~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५२८|| दीप अनुक्रम [ ५७० ] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [५७० ] • "निर्युक्ति: [ ५२८] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः पिण्डनिर्यु व्याख्या - इह कोऽपि साधुर्लब्धप्रचुरभिक्षाको विकटयतां गुरोरग्रतः सम्यगालोचयतामालोचनाश्रवणे सति शङ्कते - यादृश्येव केमिया भिक्षा प्रचुरा लब्धा तादृश्येवान्यैरपि सङ्कटकैः तनूनमेतदाघाकर्मादिदो पदुष्टं भविष्यतीति सुजानो यतिस्तृतीये भङ्गे वर्त्तते । याचिः ॥ १४८ ॥ अत्र पर आह जइ संका दोसकरी एवं सुद्धपि होइ अविसुद्धं । निस्संकमेसियंति य अणेसणिज्जंपि निद्दोसं ॥ ५२९ ॥ व्याख्या --- यदि शङ्का दोषकरी तत एवं सतीदमायातं शुद्धमपि शङ्कितं सत् तदशुद्धं भवति, शङ्कादोषदुष्टत्वात्, तथा अनेपणीयमपि निःशङ्कितमन्वेषितं शुद्धं मामोति, शङ्कारहितत्वात्, न चैवं युक्तं, स्वभावतः शुद्धस्याशुद्धस्य वा शङ्काभावाभावमात्रेणाअन्यथा कर्तुमशक्यत्वात् । तत्र आचार्य आह- सत्यमेतत्, तथाहि---- अव परिणामो एगरे अवडिओ य पक्खमि । एसिपि कुणइ सिं अणेसिमेसि विसुद्ध उ ॥ ५३० ॥ व्याख्या - अविशुद्धः परिणामः' अध्यवसायः, किं रूपोऽविशुद्धः ? इत्याह-एकतरस्मिन्नपि शुद्धमेवेदं भक्तादिकं यदिवाऽशुद्धमेवेत्यन्यतरस्मिन्नपि पक्षेऽपतन् 'एसिपि 'ति एषणीयमपि शुद्धमपि करोति अनेषणीयम् - अशुद्धं विशुद्धस्तु परिणामो ययोक्ताssगमविधिना गवेषयतः शुद्धमेवेदमित्यध्यवसायः अनेषणीयमपि स्वभावतोऽशुद्धमपि शुद्धं करोति श्रुतज्ञानरूप प्रामाण्यात्, तस्मान्न कश्चित् प्रागुक्तो दोषः । तदेवमुक्तं शङ्कितद्वारम् अधुना प्रक्षितद्वारमाह हिं च मक्खयं खलु सच्चित्तं चैव होइ अच्चित्तं । सच्चित्तं पुण तिविहं अच्चित्तं होइ दुविहं तु ॥ ५३१ ॥ Education Intention For Pernal Use On ~299~ ० एषणाय १ शङ्कित दोषः ॥ १४८ ॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५७३] .. “नियुक्ति: [५३१] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५३१|| व्याख्या-म्रक्षितं द्विधा, तद्यथा-सचित्तमचित्तं च, सचितम्रक्षितमचित्तम्रक्षितं चेत्यर्थः, तत्र यत्सचिचेन पृथिव्यादिनाऽवगुण्डितं तत्सचित्त, यत्पुनरचित्तेन पृथिवीरजःप्रभृतिनाऽवगुण्डितं तदचित्तं, तत्र 'सचिचं ' सचिचम्रक्षितं पुनखिधा । एतदेव व्याख्यानयतिपुढवी आउ वणरसइ तिविहं सच्चित्तमक्खियं होइ । अञ्चित्तं पुण दुविहं गरहियमियरे य भयणा उ ॥५३२॥ च्याख्या-सचित्तम्रतितं विधा, तयथा-पृथिवीकायम्रक्षितमकायम्रक्षितं वनस्पतिकायम्रक्षितं च, सूत्रे च पदैकदेशे पदसम-1 दायोपचारात पृथिव्यादिमिश्रितं पृथिवीत्यायुक्तम् । अचित्र-अचित्तम्रक्षितं पुनविविध, तपथा-गर्हितमितरच, तत्र 'गर्हितं ' घसादिना लिप्तम् , इतरद् घृतादिना, अत्र च कलप्याकरप्यविधौ ‘भजना' विकल्पना, सा चाग्रे वक्ष्यते । सम्मति सचित्तपृथिवीकायप्रक्षित || प्रपञ्चतो भावयति| सुकेण सरक्खेगं मक्खिय मोल्लेण पुढविकाएण । सव्वंपि मक्खियं तं एत्तो आउंमि वोच्छामि ॥ ५३३ ॥ | व्याख्या-इह सचितपृथिवीकायो द्विधा, तयथा-शुष्क आईश्व, तत्र शुष्केण सरजस्केनातीव श्लक्ष्णतया भस्मकल्पेन ययं पात्र हस्तो वा म्रक्षितो यचाईण पृथिवीकायेन सचित्तेन म्रक्षितं तत्सर्वं इस्तादि म्रक्षित-सचित्तपृथिवीकायम्रक्षितमवगन्तव्यं, अत ऊर्द्धनकायविषये म्रक्षितं वक्ष्यामि पुरपच्छकम्म ससिणिहुदउल्ले चउरो आउभेयाओ। ___ व्याख्या-अकाये-अप्कायम्रक्षिते चत्वारो भेदाः, तद्यथा-पुर:कर्म पश्चात्कर्म सस्निग्धमुदकाः च, तत्र भक्तादेर्दानात पूर्वी दीप अनुक्रम [५७३] SARERainintenatana ~300~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५३३|| दीप अनुक्रम [५७५] पिण्डनिर्युतेर्मकयगिरीयावृत्तिः ॥ १४९ ॥ मूलं [५७५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ******** “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) ८० Eucation Interationa “निर्युक्ति: [ ५३३ ] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः यत्साध्यर्थं कर्म हस्तमात्रादेर्जलप्रक्षालनादि क्रियते तत्पुरः कर्म । यत्पुनर्भतादेर्दानात्पथात्क्रियते तत्पश्चात्कर्म । सस्निग्धम् ईषलक्ष्यमाणजलखरष्टितं हस्तादि, उदकार्ड स्पष्टोपलभ्यमानसंसर्ग | सम्पति वनस्पतिकायनक्षितं प्रपञ्चयति उक्किडरसालिन्तं परित्तऽणतं महिरुहेसु ॥ ५३४ ॥ व्याख्या —— उत्कृष्टरसानि ' प्रचुररसोपेतानि यानि 'परित्तानां ' प्रत्येक वनस्पतीनां चूतफलादीनाम्, अनन्तानाम् - अनन्तकाविकानां च पनसफलादीनां सद्यःकृतानि श्लक्ष्णखण्डानि इति सामर्थ्याद्गम्यते, तैः ' आलिप्तं ' खरष्टितं यद्धस्तादि, तन्महीरुहेषु, अत्र च तृतीयार्थे सप्तमी, महीरुहेक्षितमवसेयं, 'परितर्णतं इत्यत्र प्राकृतत्वाद्विभक्तिवचनव्यत्यय इति षष्ठीबहुवचनं व्याख्यातं । सेसेहिं काएहिं तीहिवि तेऊसमीरणतसेहिं । सच्चित्तं मीसं वा न मक्खितं अस्थि उल्लं वा ॥ ५३५ ॥ व्याख्या – शेषैस्तेजः समीरणत्रसरूपैस्त्रिभिरपि सचितरुपं मिश्ररूपमाद्रतारूपं वा म्रक्षितं न भवति, सचित्तादितेजस्काबा दिसंसगेंऽपि लोके प्रक्षितशब्दमत्यदर्शनात्, अचित्तैस्तु तैर्भस्मादिरूपैः पृथिवीकायेनेव प्रक्षितत्वसम्भव इति न तस्य प्रतिषेधः, बातकायेन स्वचित्तेनापि न प्रक्षितत्वं घटते, तथा लोके प्रतीत्यभावात् । सम्पति सचित्तपृथिवीकायादिप्रक्षिते इस्तमात्रे आश्रित्य भङ्गान् कल्प्याकल्प्यविधिं च प्रतिपादयति सच्चित्तमक्खियंमी हत्थे मत्ते य होइ चउमंगो । आइतिए पडिसेहो चरिमे भंगे अणुन्नाओ ॥ ५३६ ॥ व्याख्या--— सचित्तै:' पृथिवीकायादिभिर्ब्रक्षिते हस्ते मात्रे च 'चतुर्भङ्गी ' चत्वारो भङ्गाः, सूत्रे च पुंस्त्वनिर्देश आर्यत्वात्, For Parks Use Only ~301~ ० एषणायां २ मुक्षित दोषः ॥१४९॥ waryra Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५७८] .. “नियुक्ति: [५३६] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५३६|| ते च चत्वारो भङ्गा अमी, तद्यथा-हस्तो प्रक्षितो मात्र च, हस्तो म्रसितो न मात्र, मात्रं म्रक्षितं न इस्तः, नापि मा नापि हस्तः तत्राऽऽदिमे भङ्गत्रिक प्रतिषेधो, न कल्पते ग्रहीतृमिति भावः, चरमे भङ्गे पुनरनुज्ञातो यतिस्तीर्थकरगणधरैः, तत्र दोषाभावात् । अचिवातम्रक्षितमाश्रित्य कल्प्याकल्प्यविधिमाह अञ्चित्तमक्खियंमि उ चउसुवि भंगेसु होइ भयणा उ।अगरहिएण उ गहणं पडिसेहो गरहिए होइ ॥५३७॥ व्याख्या-अचित्तप्रक्षितेऽपि हस्तमात्रे अधिकृत्य प्राग्वचत्वारो भङ्गाः, तत्र च चतुर्यपि भनेषु 'भजना' विकल्पना, तामेवाहall अहितेन ' लोकानिन्दितेन घृतादिना प्रक्षिते ग्रहणं, गर्हितेन तु वसादिना म्रक्षिते भवति प्रतिषेधः, तत्रापि चतुर्थों भङ्गः शुद्ध एवेति| ग्रहणम् । अगर्हितम्रक्षितमप्यधिकृत्य विशेषमाहBI संसज्जिमेहिं वजं अगरहिएहिपि गोरसदवेहिं । मट्ठधयतेल्लगुलेहि य मा मच्छिपिपीलियाघाओ॥ ५३८॥ व्याख्या--संसक्तिमद्भयां तन्मध्यनिपतितजीवयुक्ताभ्यां 'गोरसदवाभ्यां ' दध्यादिपानकाभ्यामगर्दिताभ्यामपि म्रक्षितं म्रक्षिता भ्यां हस्तमात्राभ्यां वा दीयमानं 'घज्य परिहार्य, न ग्रहीतव्यमित्यर्थः, तथा मधुघृततैलद्वगुडैरगर्हितैरपि अक्षितं अक्षिताभ्यां वा इस्तमात्राभ्यां दीयमानं वज्य, कुत इत्याह-'मा मच्छिपिपीलियाघाओ' मा मक्षिकापिपीलिकानाम् , उपलक्षणमेतत् , पतङ्गादीनां : वातादिवशतो लमानां घातो-विनाशो भूदितिकृत्वा, एतचोत्कृष्टानुष्ठानं जिनकल्पिकायधिकृत्योक्तमक्सेयं, स्थविरकल्पिकास्तु यथाविधि यतनया घृतायपि गुडादिम्रक्षितमशोकवर्यायपि च गृहन्ति ।। सम्पति गर्दितागतिविशेषमाह दीप अनुक्रम [५७८] ~302~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५८१] .. “नियुक्ति: [५३९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: एषणायां निक्षिप्त दोषः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५३९|| पिण्डनियु- मंसवससोणियासव लोए वा गरहिएहिवि बज्जेज्जा । उभओऽवि गरहिएहिं मुत्तुच्चारेहि छित्तपि ॥ ५३९ ॥ ते.मेलयागि- व्याख्या-मांसवसाशोणितासवैः अत्र सूत्रे विभक्तिलोप आपत्वात , लोके गर्हितैरपि, वाशब्दः पूर्वापेक्षया समुधये, म्रक्षित रीयाचिः वर्जयेत्, तथा 'उभयस्मिन्नपि लोके लोकोत्तरे च गहिताभ्यां मूत्रोच्चाराभ्यामास्ता प्रक्षित स्पृष्टमपि वर्जयेत् । उक्त प्रक्षितद्वारम् , अथ निक्षिप्तद्वारमाह सच्चित्त मीसएसु दुविहं काएसु होइ निक्खित्तं । एकेकं तं दुविहं अणंतर परंपरं चेव ॥ ५४० ॥ व्याख्या-इह कायेषु निक्षिप्तं द्विधा, यथा-'सचित्तेषु' पृथिव्यादिषु मिश्रेषु च । एकैकमपि द्विधा, तयथा-अनन्तरं परम्परं । च, तत्र 'अनन्तरम्' अन्यवधानेन 'परम्परं व्यवधानेन, यथा सचित्तपृथिवीकायस्योपरि स्थापनिका तस्या उपरि देयं वस्त्विति, इह परिहार्यापरिहार्यविभाग विना सामान्यतो निक्षिप्तं सचित्ताचित्तमिश्ररूपमेदाविधा, तत्र च त्रय(तिस्र)चतुर्भग्यः, तद्यथा-सचित्ते सचिर्त १ मिथे सचिर्स २ सनिचे मिश्रं ३ मि मिश्र ४ मित्येका चतुर्भङ्गी, तथा सचिचे सचित्तम् अचिने सचित्तं सचित्तेऽचित्तम् । अचित्ते अचित्तमपि द्वितीया चतुर्भङ्गी, तथा मिश्रे मिश्रम् अचित्ते मिश्र मिश्रेऽचित्तम् अचितेऽचित्तमिति तृतीया चतुर्भङ्गी । सम्मत्यत्रैवानन्तरपरम्परविभागमाह पुढवी आउक्काए तेऊवाउवणस्सइतसाणं । एकेक दुहाणंतर परंपरगणमि सत्तविहा ॥५४१॥ व्याख्या-पृथिव्याजोवायुवनस्पतित्रसकायानां सचित्तानां प्रत्येकं सचित्तपृथिव्यादिषु निक्षेपः सम्भवति, तत्र पृथिवीकायस्य दीप अनुक्रम [५८१] ~303~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५८३] .→ “नियुक्ति: [५४१] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५४१|| निक्षेपः पोढा, तद्यथा-पृथिवीकायस्य पृथिवीकाये निक्षेप इत्येको भेदः, पृथिवीकायस्थाकाये इति द्वितीयः, पृथिवीकायस्य तेजस्काये। इति तृतीया, वातकाये इति चतुर्थः, वनस्पतिकाये इति पञ्चमः, उसकाये इति षष्ठः । एवमष्कायादीनामपि निक्षेपः प्रत्येक पोटा। भावनीयः, सर्वसङ्ख्यया षट्त्रिंशद्भङ्गाः, एकैकोऽपि च भेदो द्विधा, तद्यथा-अनन्तरः परम्परया च, अनन्तरपरम्परव्याख्यानं च। मागेव कृतं, केवलमग्निकाये पृथिव्यादीनां निक्षेपः सप्तधा, एतच्च स्वयमेव वक्ष्यति ॥ सम्मति पृथिवीकाये निक्षेपस्य यदुक्तं मा पोढात्वं तत्सूत्रकृत्साक्षाद्दर्शयतिall सच्चित्त पुढविकाए सच्चित्तो चेव पुढविनिखित्तो । आऊतेउवणस्सइसमीरणतसेसु एमेव ॥ ५४२ ॥ व्याख्या-सचित्ते पृथिवीकाये सचित्तः पृथिवीकायो निक्षिप्तः, एवमेव-पृथिवीकाये इवाप्तेजोवनस्पतिसमीरणत्रसेषु सचित्त एवं पृथिवीकायो निक्षिप्त इति पृथिवीकायनिक्षेपः पोहा । एवं शेषकायेष्वप्यतिदेशमाह एमेव सेसयाणवि निक्खेवो होइ जीवकाएसुं । एकेको सट्ठाणे परठाणे पंच पंचेव ॥ ५४३ ॥ व्याख्या-'एवमेव ' पृथिवीकायस्येव 'शेषाणाम् ' अप्कायादीनां निक्षेपो भवति 'जीवनिकायेषु' पृथिव्यादिषु, तत्रैकैको भङ्गः स्वस्थाने शेषाः पश्च पञ्च परस्थाने, तथाहि-पृथिवीकायस्य पृथिवीकाये निक्षेपः स्वस्थाने, अप्कायादिषु शेषेषु पञ्चमु परस्थाने, एवमप्कायादीनामपि भावनीयं, ततः स्वस्थाने एकैको भङ्गः, परस्थाने पश्च पश्च, तदेवं प्रथमचतुर्भनिकायाः सचिचे सचित्तमित्येवंरूपे प्रथमे भने षट्त्रिंशद्भेदाः । सम्मति प्रथमचतुर्भङ्गाचा एव शेषं भङ्गत्रयं द्वितीयतृतीयचतुर्भङ्गायौ चातिदेशतः प्रतिपादयति-- दीप अनुक्रम [५८३] ~ 304~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५८६] .. “नियुक्ति: [५४४] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु केर्मळपगि रीयाचिः दोपः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५४४|| ॥१५॥ एमेव मीसएसुवि मीसाण सचेयणेसु निक्खेवो । मीसाणं मीसेसु य दोण्हपि य होइऽचित्तेसु ॥ ५४४ ॥ एषणायां ___ व्याख्या-'एचमेव' सचित्तेषु सचिचमिव 'मिश्रेष्वपि ' मिश्रपृथिव्यादिष्वपि सचिचपृथिव्यादिनिक्षेपः पशिदोऽवग-11 निक्षिप्त न्तव्यः, एतेन प्रथमचतुर्भङ्गचा द्वितीयो भङ्गो व्याख्यातः, तथा एवमेव सचेतनेषु-सचित्तपृथिव्यादिषु मिश्राणां पृथिव्यादीनां निक्षेपः पट्त्रिंशद्वेदः, एतेन प्रथमचतुझ्यास्तृतीयो भन्नो व्याख्यातः, एवमेव मिश्राणां पृथिव्यादीनां मिश्रेषु पृथिव्यादिषु निक्षेपः पतिशद्भेदः, अनेन प्रथमचतुर्भद्याश्चतुर्थो भङ्गो व्याख्यातः, सर्वसङ्ख्यया प्रथमचतुर्भङ्गयां चतुश्चत्वारिंशं भङ्गशतम् , एवमेव द्वयोरपि सचि मिश्रयोरचित्तेषु निक्षिप्यमाणयोयें वे चतुर्भङ्गयौ प्रागुक्ते, तत्रापि प्रत्येकं चतुश्चत्वारिंशं भङ्गशतं भवति, सर्वसमयया भङ्गानां शतानिक चत्वारि द्वात्रिंशदधिकानि भवन्ति, उक्ता निक्षेपस्य भेदाः । सम्पत्यस्यैव निक्षेपस्प पूर्वोक्तं चतुर्भङ्गीप्रयमधिकृत्य कल्प्याकल्प्यविधिमाह जत्थ उ सचित्तमीसे चउभंगो तत्थ चउसुवि अगिझं । तं तु अणंतर इयरं परित्तऽणतं च वणकाए ॥५४५॥ ___व्याख्या-यत्र निक्षेपे सचिचमिश्रे आश्रित्य चतुर्भङ्गी भवति, प्रथमा चतुर्भङ्गी भवतीत्यर्थः, तत्र चतुर्वपि भनेषु अपिशब्दाद्वितीयतृतीयचतुर्भङ्गयोरप्यायेषु त्रिषु भन्नेषु वर्तमानमनन्तरं परम्परं च वनस्पतिविषये प्रत्येकमनन्तं वा तत्सर्वमग्राय, सामाद् द्वितीयतृतीयचतुर्थभनयोधतुर्थे भने वर्तमानं ग्राी, तत्र दोषाभावात् । सम्मति सचिंदादिभित्रिभिरपि मतान्तरेणैकामेव चतुर्भङ्गी कल्प्याकप्यविधि च प्रदर्शयति| अहव ण सचित्तमीसो उ एगओ एगओ उ अञ्चित्तो। एत्थं चउक्कभेओ तत्थाइतिए कहा नत्थि ॥ ५४६ ॥ दीप अनुक्रम [५८६] wrajastaram.org ~305~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५४६|| दीप अनुक्रम [५८८] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२ / १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) “निर्युक्ति: [ ५४६ ] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [५८८ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ८० व्याख्या--' अथवे 'ति प्रकारान्तरतायोतकः, णेति वाक्यालङ्कारे, इह चतुर्भङ्गी प्रतिपक्षपोपन्यासे भवति, तत्रैकस्मिन् पक्षे सचित्तमिश्रे, एकत्र तु पक्षेऽचित्तः, ततः प्राक्तनक्रमेण चतुर्भङ्गी भवति, तथया सचिते सचितमित्रम् अचिते सचित मिश्र, सचित्तमिश्रेऽचित्तम्, अचित्तेऽचित्तमिति, अत्रापि प्रागिवैकैकस्मिन् भने पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसभेदात् षट्त्रिंशत् पत्रिंशद्भेदाः, ॐ सर्वसङ्खधया चतुश्चत्वारिंशं भङ्गशतं, तत्र 'आदित्रिके' आदिमे भङ्गत्रये 'कथा नास्ति ' ग्रहणे वार्त्ता न विद्यते, सामर्थ्याच्चतुर्थे भने ॐ कल्पते । तदेवं 'पृथिवी 'त्यादिमूलगाथायाः पूर्वार्द्ध व्याख्यातं सम्पति 'एकेकि दुद्दानंतरम्' इत्यवयवं व्याचिख्यासुर्द्वितीयढतीयचतु ॐ र्भङ्गत्योः सत्कस्य तृतीयस्य तृतीयस्य भङ्गस्य सामान्यतोऽशुद्धस्य विषये विशेषं विभणिपुरनन्तर परम्परमार्गणां करोति पुण अचित्तव्यं निक्खिप्पर चेयणेस मीसेसु । तर्हि मग्गणा उ इणमो अनंतरपरंपरा होइ ॥ ५४७ ॥ व्याख्या -- यत्किमपि अचित्तं द्रव्यमोदनादि 'चेतनेषु' सचितेषु मिश्रेषु वा निक्षिप्यते तत्रेयमनन्तरं परम्परया वा मार्गणा परिभावनं भवति । तदेवाह - ओगा हिमायणंतर परंपरं पिढरगाइ पुढवीए । नवणीयाइ अनंतर परंपरं नावमाईसु ॥ ५४८ ॥ Education Interation व्याख्या - ' अवगाहिमादि पकान्नमण्डकप्रभृति पृथिव्यामानन्तर्येण स्थापितमनन्तरनिक्षिप्तं पृथिव्या एवोपरि स्थिते पिटरका दौ यन्निक्षिप्तमवगाहिमादि तत्परम्परनिक्षिप्तं, एष पृथिवीकायमाश्रित्यानन्तरपरम्परया निक्षेप उक्तः । सम्मत्यप्कायमाश्रित्याह-'नवणी' त्यादि, नवनीतादि-प्रक्षणस्त्यानीभूतघृतादि सचित्तादिरूपे उदके निक्षिप्तमनन्तरनिक्षिप्तं, तदेव नवनीताद्यवगाहिमादि वा जलमध्यस्थि For Parts Only ~306~ ० Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५९०] .. “नियुक्ति: [५४८] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: निक्षिप्त प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५४८|| पिष्टनियु-1 तेषु नावादिषु स्थितं परम्परनिक्षिप्त । सम्पति तेजःकायमधिकृत्यानन्तरपरम्परे व्याख्यानयन् 'अगणिमि सत्तविहो' इत्यवयवं एषणाया कर्मष्यगि-व्याख्यानयतिरीयावृत्तिः विज्झायमुम्मुरिंगालमेव अप्पत्तपत्तसमजाले । वोकते सत्तदुर्ग जंतोलित्ते य जयणाए ॥ ५४९ ॥ ॥१५॥ व्याख्या-इह सप्तधा बहिः, तद्यथा-विध्यातो मुर्मुरोऽङ्गारोऽमाप्तः प्राप्तः समज्वालो व्युत्क्रान्तश्च। तत्रयः स्पष्टतया प्रथम नोपल काभ्यते पश्चाविन्धनमक्षेपे प्रवर्द्धमानः स्पष्टमुपलभ्यते स विध्यातः, आपिङ्गला अर्धविध्याता अमिकणा मुर्मुरः, ज्वालारहितो बहिरङ्गारः, य: पुनश्चल्या उपरि स्थापितं पिठरं ज्वालाभिर्न पामोति सोऽभाप्तः, यः पुनज्वालाभिः पिठरं बुने स्पृशति स प्राप्तः, यः पुनः पिठरस्यका बुभ्रादूर्ध्वमपि यावत्कौँ ज्वालाभिः स्पृशति स समज्वालः, यस्य पुनर्चालाः पिठरकर्णाभ्यामूर्ध्वमपि गच्छन्ति स व्युत्क्रान्तः, एते सप्त || भेदास्तेजःकायस्य, तत्रैककस्मिन् भेदे द्विक, तद्यथा-अनन्तरनिक्षिप्तं परम्परनिक्षिप्त च, तत्र यद्विध्यातादिरूपे वही मण्डकादि निक्षिप्त । तदनन्तरनिक्षित, वत्पुनरोरुपरि स्थापिते पिठरादौ निक्षिप्तं तत्परम्परनिक्षिप्तं तत्र सप्तानां भेदानां मध्ये यमेव तमेव वा भेदमधिकृत्य । का यन्वे' इक्षुरसपाकस्थाने कटाहादी ' अवलिले ' मृत्तिकावरण्टिते यतनया परिशाठिपरिहारेण प्रदणमिक्षुरसस्य कल्पते । सम्पत्पेनामेव | गायां व्याख्यानयन् प्रथमतो विध्यातादीनां स्वरूपं गाथाद्वयेनाहविज्झाउत्ति न दीसइ अग्गी दीसेइ इंधणे छुढे । आपिंगल अगणिकणा मुम्मुर निज्जाल इंगाले ॥ ५५ ॥ ॥१५२॥ अप्पत्ता उ चउत्थे जाला पिढरं तु पंचमे पत्ता । छठे पुण कण्णसमा जाला समइच्छिया चरिमे ॥ ५५१ ॥ दीप अनुक्रम [५९०] ~307~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं ॥ .. "नियुक्ति: [५५१] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" " मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५५१|| व्याख्या-मुगमं । नवरम् ' अप्पचा उ चउत्ये माला' इति चतुर्थेप्राप्ताख्ये भेदे पिठरममाप्ता ज्याला द्रष्टव्या, एवमन्यत्राप्यक्षरगमनिका कार्या | सम्पति 'जंतोलित्ते य जयणाए' इत्यवयवं व्याचिल्पामुराहal पासोलित्त कडाहे परिसाडी नत्थि तंपि य विसालं । सोवि य अचिरच्छूढो उच्छुरसो नाइउसिणो य ॥५५२॥ ___ व्याख्या-इह यदीति सर्वत्राध्याहियते, यदि कटाहः-पिठरविशेषः सर्वतः पार्वेषु मृत्तिकयाऽवलिप्तो भवति दीयमाने चेचरसे यदि परिशाटिनोपजायते तदपि च कटाहरूपं भाजनं यदि 'विशालं 'विशालमुखं भवति, सोऽपि चेक्षुरसोऽचिरक्षिप्त इतिकृत्वा यदि नात्युष्णो भवति तदा स दीयमान इक्षुरस: कल्पते, इह यदि दीयमानस्येक्षुरसस्य कथमपि बिन्दुबहिः पतति तहि स लेप एवावर्तते, न तु चुल्लीमध्यस्थिततेजस्कायमध्ये पतति ततः पार्थावलिप्त इति कयहस्य विशेषणमुक्तं, तथा विशालमुखादाकृष्यमाण उदश्चनः पिठरस्य । कर्णे न लगति ततो न पिठरस्य भङ्ग इति न तेजःकायविराधनेति विशालग्रहणम्, अनत्युष्णग्रहणे तु कारणं स्वयमेव वक्ष्यति । सम्म-17 त्युदकमधिकृत्य विशेषमाह|| उसिणोदगंपि घेप्पइ गुडरसपरिणामियं अणच्चुसिणं । जं च अघट्टियकन्नं घट्टियपडणमि मा अग्गी ॥ ५५३ ॥ व्याख्या-उष्णोदकमपि गुढरसपरिणामितमनत्युष्णं गृह्यते, किमुक्तं भवति ?-पत्र कटाहे गुडः पूर्वं कथितो भवति, तस्मिन्निक्षिप्त जलमीपत्तप्तमपि कटाहसंसक्तगुडरसमिश्रणात् सत्वरमचित्तीभवति, ततस्तदनत्युष्णमपि कल्पते, अत्रापि पार्चावलिप्तकटाइस्थितमप-11 रिशाटिमचेति विशेषणद्वयमनुपात्तमपि द्रष्टव्य, तथा 'यदघटितकर्ण'न यस्मिन् दीयमाने पिठरस्य कर्णावृदश्चनेन प्रविशता निर्गच्छता दीप अनुक्रम [५९३] IAna ~ 308~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५५३|| दीप अनुक्रम [५९५] पिण्डनिर्युकैर्मलयगि याचि मूलं [५९५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ।। १५३ ।। ४ “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) ८० “निर्युक्ति: [ ५५३ ] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः वा घट्टयेते तदीयमानं कल्पते, तत इत्याह-' घट्टियपडणंमि मा अग्गी' उदचनेन प्रविशता निर्गच्छता वा पिठरस्य कर्णयोर्यथमानयोर्लेपस्योदकस्य वा पतनेन माऽग्निर्विराध्यतेतिकृत्वा, एतेन च वक्ष्यमाणपोटशमङ्गानामाद्यो भङ्गो दर्शितः । सम्मति तानेव षोडश भ ङ्गान् दर्शयति Eaton International पासोलि कडाहेऽनसिणे अपरिसाडऽघट्टंते । सोलसभंगविगप्पा पढमेऽणुन्ना न सेसेसु ॥ ५५४ ॥ व्याख्या --- पालितः कटाहः, अनत्युष्णो दीयमान इक्षुरसादिः, अपरिशाटिः परिशाटयभाव:, ' अहंते' इति उदश्वनेन पिठरकर्णाघट्टने, इत्यमूनि चत्वारि पदान्यधिकृत्य पोटश भट्टा भवन्ति । भङ्गानां चानयनार्थमियं गाथा पयसमदुगअब्भासे माणं भंगाण तेसिमा रयणा । एगंतरियं लहुगुरु दुगुणा दुगुणा य वामेसु ॥ ५५५ ॥ अस्या व्याख्या इह यावतां पदानां भङ्गा आनेतुमिष्यन्ते तावन्तो द्विका ऊर्ध्वाचः क्रमेण स्थाप्यन्ते, ततस्तेषामभ्यासे सति यदन्तिये द्विके समागच्छति तद्भङ्गानां 'मानं ' प्रमाणं, तथाहि इद्द चतुर्णी पदानां भट्टा आनेतुमिष्टास्ततथत्वारो दिवा ऊर्ध्वाधः क्रमेण स्थाप्यन्ते, ततः प्रथमो द्विको द्वितीयेन द्विकेन गुण्यते, जाताश्चत्वारः, सैस्तृतीयो द्विको गुण्यते जाता अष्टौ तैरपि चतुर्थी द्विको गुण्पते, जाता: पोडश, एतावन्तचतुर्णी पदानां भङ्गा भवन्ति तेषां च पुनर्भङ्गानामेषा रचना, प्रथमपङ्कावेकान्तरितं लघुगुरु, प्रथमं लघु ततो गुरु, पुनर्लघु पुनर्गुरु, एवं यावत् षोडशो भङ्गः ततः प्रज्ञापकापेक्षया 'वामेवु ' वामपार्श्वेषु द्विगुणद्विगुणा लघुगुरवः, तद्यथा-द्वितीयपङ्कौ प्रथमं द्वौ लघु ततो द्वौ गुरू ततो भूयोऽपि द्वौ लघु एवं यावत्पोडशो भङ्गः तृतीयपङ्कौ प्रयमं चत्वारो पत्रः ततवत्वारो गुरवः, For Pale Only ~309~ ० एषणायां निक्षिप्तदोषः ॥१५३॥ ra Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५९७] .. “नियुक्ति: [५५५] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५५५|| マあらゆらゆらゆらゆらゆらやな?今か今令令ゆるゆるゆる ततः पुनरधश्चत्वारो लघवस्ततश्चत्वारो गुरवः, चतुर्थपतयां प्रथममष्टौ लपवस्ततोऽष्टौ गुरवः । स्थापना चेय-1m 15 155 SIT ISIS ISSIISSS SI IS SIS) sss sst ssssssssss अत्र ऋजवः अंशाः शुदा वकाथाशुद्धा, इह पोडशानां भङ्गानामाये भनेऽनुज्ञा, न शेषेषु पञ्चदशसु भन्नेषु । सम्मत्पत्थुष्णग्रहणे दोपानाह दुविहविराहण उसिणे छड्डण हाणी य भाणभेओ य । । व्याख्या-उष्णे' अत्युष्णे इक्षुरसादौ दीयमाने द्विधा विराधना, आत्मविराधना परविराधना च, तथाहि-यस्मिन् भाजने तदत्युष्णं गृह्णाति तेन तप्तं सद्भाजन हस्तेन साधुदृहन् दह्यते इत्यात्मविराधना | येनापि स्थापितेन स्थानेन सा दात्री ददाति तेनाप्ययुष्णेन सा दह्यत इति । तथा 'छडणे हाणी य'त्ति अत्युष्णमिक्षुरसादि कष्टेन दात्री दातुं शक्नोति, कटेन च दाने कथनपि साधु-16 सत्कभाजनावहिरुज्झने हानिहींयमानस्येचरसादेः, तथा 'भाणभेओ' इति तस्य भाजनस्य साबुना बसतावानयनायोत्पाटितस्य पतद्धहादेर्दाच्या वा दानायोत्पाटितस्योदश्चनस्य गण्डरहितस्यात्युष्णतया झगिति भूमौ मोचने मङ्गः स्पात, तथा च पडूनीवनिकायविराधनति संयमविराधना | सम्पति बातकायमधिकृत्यानन्तरपरम्परे दर्शयति वाउक्खित्ताणंतरपरंपरा पप्पडिय वत्थी॥ ५५६ ॥ व्याख्या-वातोरिक्षताः " समीरणोत्पाटिताः 'पर्पटिकाः' शालिपपेटिका अनन्तरनिक्षित, परम्परनिलित 'पस्थिति विभशक्तिलोपावस्ती, उपलक्षणमेतत्, समीरणापूरितवस्तिदृतिप्रभृतिव्यवस्थितं मण्डकादि । सम्मति वनसतित्रसविषय विविषमवि निक्षितमाह दीप अनुक्रम [५९७] SARERainintamanna ~310~ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [५९९] .. “नियुक्ति: [५५७] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: एषणाय पिहित प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५५७|| पिण्डनियु हरियाइअणंतरिया परंपरं पिढरगाइसु वर्णमि । पूपाइ पिट्ठणंतर भरए कुउबाइसू इयरा ।। ५५७ ॥ कर्मळयगि- व्याख्या-'वने' बनस्पतिविषये अनन्तरनिक्षिप्तं' हरितादिषु सचित्तव्रीहिकामभृतिषु अनन्तरिता निक्षिप्ता अपूपादय इति । कापसाला शेषः, इरितादीनामेवोपरि स्थितेषु पिठरादिषु निक्षिप्ता अपूपादयः परम्परनिक्षिप्तं, तथा बलीवादीनां पृष्ठेऽनन्तरनिक्षिप्ता अपूपादयत्रसेश वनन्तरनिक्षिप्त, बलीपर्दादिपृष्ठ एव भरके कुतुपादिषु वा भाजनेषु निक्षिप्ता मोदकादयः परम्परनिक्षिप्तम् । इह सर्वत्रानन्तरनिक्षिप्त न ग्राय, सचित्तसङ्कहनादिदोषसम्भवात, परम्परनिक्षिप्तं तु सचित्तसङ्घहनादिपरिहारेण यतनया ग्राह्यमिति सम्पदायः । उक्त निक्षिप्तद्वा-|| भारम्, अथ पिहितद्वारमाह सच्चित्ते अच्चिले मीसग पिहियमि होइ चउभंगो । आइतिगे पडिसेहो चरिमे भंगंमि भयणा उ॥ ५५८ ॥ व्याख्या-इह ' सचित्ते । इत्यादौ सप्तमी तृतीयार्थे, ततोऽयमर्थः-सचित्तेनाचित्तेन मिश्रेण वा पिहिते चतुर्भङ्गी भवति, अत्र जातावेकवचनं, तेन तिस्रचतुर्भङ्गयो भवन्तीति द्रष्टव्यं, तत्रैका सचित्तमिश्रपदाभ्यां, द्वितीया सचिचाचित्तपदाभ्यां, तृतीया मिश्राचित्तपदाभ्यां तत्र सचित्तेन सचित्रं पिडितं, मिश्रेण सचित्तं, सचित्तेन मिश्र, मिश्रेण मिश्रमिति प्रथमा चतुर्भङ्गी, तथा सचित्तेन सचित्तं पिहितम्, अचित्तेन सचितं, सचित्तेनाचित्तम्, अचित्तेनाचित्तामिति द्वितीया चतुर्भङ्गी, तथा मिश्रेण मिश्र पिहितं, मिश्रेणाचित्तम् अचित्तेन मिश्रम्, अचित्तेनाचित्तमिति तृतीया । तत्र गाथापर्यन्ततुशब्दवचनात प्रथमचतुर्भङ्गयां सर्वेष्वपि भङ्गेषु न कल्पते, द्वितीयत्तीयचतुर्भड्कियोस्तु प्रत्येकमादिमेषु २ त्रिषु भङ्गेषु न कल्पते इत्यर्थः, चरमे तु भङ्गे भजना, सा च 'गुरुगुरुणे त्यादिना स्वयमेव वक्ष्यति । सम्मति चतुर्भङ्गीत्रयविषयावान्तरभङ्गकथनेऽतिदेशमाह ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ दीप अनुक्रम [५९९] | ॥१५४॥ Oil राjungstaram.org ~311~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६०१] .. “नियुक्ति: [५५९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५५९|| जह चेव उ निक्खित्ते संजोगा चेव होति भंगा य । एमेव य पिहियमिवि नाणत्तमिणं तइयभंगे ॥ ५५९ ॥ __व्याख्या-ययैव 'निक्षिप्त इति निक्षिप्तद्वारे सचित्ताचित्तमिश्राणां संयोगाः प्रागुक्ताः यथैव च सचित्तपृथिवीकायः सचित्तपृथिवीकायस्योपरि निक्षिप्त इत्पेवं स्वस्थानपरस्थानापेक्षया चतुर्भङ्गीत्रयभङ्गेष्वेककस्मिन् भने षट्त्रिंशत् पत्रिंशद्भेदा उक्ताः, सर्वसङ्ख्यया चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदधिकानि, तयाऽत्रापि पिहितद्वारे द्रष्टव्याः, तथाहि-पागिवात्रापि चतुर्भङ्गीत्रयम् , एकैकस्मिश्च भङ्गे सचित्तः पृथिवीकायः सचित्तपृथिवीकायेन पिहित इत्यादिरूपतया स्वस्थानपरस्थाने अधिकृत्य षट्त्रिंशत् षट्त्रिंशद्भेदाः, सर्वसङ्घचया (शतानि) चत्वारि द्वात्रिंशदधिकानि भङ्गानां । नवरं द्वितीयतृतीयचतुर्भङ्गयोः प्रत्येकं तृतीये भङ्गेऽनन्तरपरम्परमार्गणविधी निक्षिप्तद्वारादिद-वक्ष्यमाणं नानात्वमवसेयं, निक्षिप्तेऽन्येन प्रकारणानन्तरपरम्परमार्गणा कृता अत्र त्वन्येन प्रकारेण करिष्यते इति भावः । तत्र सचित्तपृथिवीकाये नावष्टब्ध मण्डकादि सचित्तपृथिवीकायानन्तरपिहितं, सचित्तपृथिवीकायगर्भपिठरादिपिहितं सचित्तपृथिवीकायपरम्परपिहितं, तथा हिमादिनाEsवष्टब्धं मोदकादि सचित्ताप्कायानन्तरपिहित हिमादिगर्भपिठरादिना पिहितं सचित्ताप्कायपरम्परपिहितं । सचित्ततेजस्कायादिपिहितमनन्तरं परम्परं च गाथाद्वयेनाह अंगारधूवियाई अणंतरो संतरो सरावाई । तत्थेव अइर वाऊ परंपरं बत्थिणा पिहिए ॥ ५६० ॥ अरं फलाइपिहितं वर्णमि इयरं तु छब्बपिठराई । कच्छवसंचाराई अणंतराणंतरे छठे ॥ ५६१ ॥ व्याख्या-इह यदा स्थाल्यादी संस्वेदिमादीनां मध्येऽङ्गार स्थापयित्वा हिङ्ग्यादिना वासो दीयते तदा तेनाकारण केपाश्चि दीप अनुक्रम [६०१] ~312~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६०३] .→ “नियुक्ति: [५६१] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: एषणायां पिण्डनियु- कर्मळयगिरीयावृत्तिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५६१|| संस्वेदिमादीनां संस्पर्शोऽस्तीति ता अनन्तरपिहिताः, आदिशब्दाचनकादिकं मुर्मुरादिक्षिप्तमनन्तरपिहितमवगन्तव्यम् , अङ्गारभृतेन शरा-1 वादिना स्थगितं पिठरादि परम्परपिहितं । तथा ' तत्रैव' अङ्गारधूपितादौ 'अइर 'चि अतिरोहितमनन्तरपिहित वायोर्द्रष्टव्यं, 'यत्रा-12 पिहितनिस्तत्र वायु रिति वचनात, समीरणभृतेन तु बस्तिना, उपलक्षणमेतत् , बस्तितिप्रभृतिना पिहितं परम्परपिहितमवसेयं । तथा 'पने दोषः वनस्पतिकायविषये फलादिना 'अइर'ति अतिरोहितेन पिहितमनन्तरपिहित, 'छब्बपिठरादौ' छब्बकस्थाल्यादौ स्थितेन फलादिना । पिहितम् 'इयर'ति परम्परपिहितं । तथा 'असे' त्रसकायविषये कच्छपेन सञ्चारादिना च-कीटिकापलयादिना यपिहितं तदनन्तरपिहितं, कच्छपसञ्चारादिगर्भपिठरादिना पिडित परम्परपिहितम् , इहानन्तरपिहितमकल्प्यं, परम्परपिहितं तु यतनया ग्राह्यं । यदुक्तं-'चरमे । भगमि भयणा उ' इति, तद्वाख्यानयनाहगुरु गुरुणा गुरु लहुणा लहुयं गुरुएण दोऽवि लहुयाई । अञ्चित्तेणवि पिहिए चउभंगो दोसु अग्गेझं ॥ ५६२ ॥ व्याख्या---'अचित्तेनापि ' अचित्ते देये वस्तुनि पिहिते 'चतुर्भङ्गी' चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा-गुरु गुरुणा पिहितमित्येको भङ्ग, गुरु लघुनेति द्वितीयः, लघु गुरुणेति तृतीया, 'दोवि लहुयाई ति लघु लघुना पिहितमिति चतुर्थः । एतेषु च चतुर्यु भङ्गेषु मध्ये द्वयो:प्रथपत्तीययोभन्योरपावं, गुरुदन्यस्योत्पाटने कथमपि तस्य पाते पादादिभङ्गसम्भवात् , ततः पारिशेष्याद् द्वितीयचतुथेयोपादामुक्तदोपा- १५॥ भावान, देययस्त्वाधारस्प पिठरादेगुरुत्वेऽपि ततः करोटिकादिना दानसम्भवात् । उक्तं पिहितद्वारम्, अथ संहतद्वारमाह सञ्चित्ते अञ्चित्ते मीसग साहारणे य चउभंगो । आइतिए पडिसेहो चरिमे भंगमि भयणा उ ॥ ५६३ ॥ दीप अनुक्रम [६०३] ~313~ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६०५] .. “नियुक्ति: [५६३] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५६३|| व्याख्या-इह येन मात्रकेण कृत्वा भक्तादिकं दातुमिच्छति दात्री तान्यददातव्यं किमपि सचित्तमवित्त मिश्र वाऽस्ति ततस्तदन्यत्र भूम्यादौ क्षिप्त्वा तेनान्यद्ददाति, तञ्च कदाचित्सचित्तेषु पृथिव्यादिषु मध्ये क्षिपति कदाचिदचित्तेषु कदाचिन्मिश्रेष, क्षेपणं च संहरणमुच्यते, ततः संहरणे सचित्तायधिकृत्य चतुर्भही, अत्र जातावेकवचनं, तिस्रचतुर्भङ्गयो भवन्तीत्यर्थः, तथादि-एका-चतुर्भगी। सचित्तमिश्रपदाभ्यां, द्वितीया सचित्ताचित्तपदाभ्यां, मिश्राचित्तपदाभ्यां तृतीयेति, तत्र सचित्ते सचित्त संहत भित्रै सचित्रं सचित्ते मिश्रं मिश्रे मिश्रमिति मथमा चतुर्भझी, तथा सचित्ते सचित्तं संहृतम्, अचित्ते सचि, सचित्तेऽचित्तम्, अचित्तेऽचित्तमिति द्वितीया, तथा मिश्रे मिश्र संहृतम्, अचिचे मिश्र, मिश्रेऽचित्तम् , अचित्तेऽचित्तमिति तृतीया । अत्र गाथापर्यन्ततुशब्दसामर्थ्यात्प्रथमचतुर्भङ्गीकाया: सर्वेष्वपि भङ्गेषु प्रतिषेधः, द्वितीयतृतीयचतुर्भङ्गीकयोस्तु 'आदित्रिके' आदिमेषु त्रिषु त्रिषु भङ्गे प्रतिपेयः, चरमे भजना । अधुना चतुर्भङ्गीत्रयसत्कावान्तरभङ्गाकथनेऽतिदेशमाहA जह चेव उ निक्खित्ते संजोगा चेव होंति भंगा य । तह चेव उ साहरणे नाणत्तमिणं तइयभंगे ॥ ५६४ ॥ 18 व्याख्या-यथैव 'निक्षिप्ते' निक्षिप्तद्वारे सचिचाचित्तमिश्रपदानां संयोगाः कृताः, यथैव च सचित्तपृथिवीकायः सचिचपृथिवीका यस्योपरि निक्षिप्त इत्येवं स्वस्थानपरस्थानापेक्षया चतुर्भङ्गीत्रयभनेवेककस्मिन् भने षट्त्रिंशत् षट्त्रिंशद्भा उक्काः, सर्वस वचया चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदधिकानि भङ्गानां, तथाऽत्रापि संहृतद्वारे द्रष्टव्या, तथाहि-मागिवात्रापि चतुर्भङ्गीत्रयमेकैकस्मिश्च भने सचित्तः पृथिवीकायः ।। सचित्तपृथिवीकायमध्ये संहृत इत्यादिरूपतया स्वस्थानपरस्थाने अधिकृत्य पत्रिंशत् षट्त्रिंशद्भङ्गाः, सर्वसङ्ख्यया भङ्गानां चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदधिकानि । नवरं द्वितीयतृतीयचतुर्भड्कियोः प्रत्येक तृतीये तृतीये भनेऽनन्तरपरम्परमार्गणाविधी नितिद्वारादिदं वक्ष्यमाणं । दीप अनुक्रम [६०५] ~314~ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६०७] .. “नियुक्ति: [५६५] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र विष्टनियु- कर्मळयगि- रीयात्तिः ॥१५॥ दोषः ||५६५|| नानात्वमवसे, निसिप्तद्वारेऽन्येन प्रकारेणानन्तरपरगरमार्गणा कृता अत्र तु संहतद्वारेज्यथा करिष्यते इति भावः । तदेवान्ययात्वं एषणाया दर्शयन् संहरणलक्षणमाह संहृतमत्तेण जेण दाहिइ तत्थ अदिजं तु होज्ज असणाई। छोटु तयन्नहि तेणं देई अह होइ साहरणं ॥५६५॥ व्याख्या-येन मात्रकेण दास्यति दात्री तत्रादेयं किमप्यस्ति 'अशनादिकं भक्तादि सचिनपृथिवीकायादिकं वा, ततस्तता 'अदेयम् । अन्यत्र स्थानान्तरे खित्वा ददाति 'अह 'त्ति एतत्संहरणं, तत पतल्लक्षणानुसारेणानन्तरपरम्परमार्गणा अनुसरणीया, तद्यथा-17 सचित्तपृथिवीकायमध्ये यदा संहरति तदाऽनन्तरसचित्तपृथिवीकायसंहृतं, यदा तु सचित्तपृथिवीकायस्योपरि स्थिते पिठरादौ सहरति तदा परम्परया सचित्तपृथिवीकाये सहृतम् । एवमकायादिष्वपि भावनीयम् । अनन्तरसंहृते न ग्राह्य, परम्परासंहृते सचित्तपृथिवीकायाद्यघटने ग्राह्यमिति । सम्मति द्वितीयतृतीयचतुर्भङ्गीसत्कं तृतीयं तृतीय भङ्गमाश्रित्य येषु वस्तुघु मात्रकस्थितमदेयं वस्तु संहरति तान्युपदर्शयति-| भूमाइएस तं पुण साहरणं होइ छसुवि काएमु । जं तं दुहा अचित्तं साहरणं तत्थ चउभंगो ॥ ५६६ ॥ व्याख्या-तत्पुनर्मात्रकस्थितस्यादेयस्य वस्तुनः संहरणम् 'भूम्यादिकेषु' सचित्तपृथिवीकायादिषु पसु जीवनिकायेषु भवति । जायते, तत्र चानन्तरोक्तमनन्तरपरम्परामार्गणमवधार्यम्, अनन्तरोक्त एव च कल्प्याकल्प्यविधिरवधारणीयः, तथा यत्संहरणं विधाऽपि आधारापेक्षया संहियमाणापेक्षया च अचित्तमचिचे यत्संहियते इत्यर्थः, तत्र 'चतुर्भङ्गी' चत्वारो भङ्गाः । तानेवाद सुके सुकं पढ़मो सुके उल्लं तु बिइयओ भंगो । उल्ले सुकं तइओ उल्ले उल्लं चउत्थो उ ॥ ५६७ ॥ दीप अनुक्रम [६०७] ~315~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५६७|| दीप अनुक्रम [६०९ ] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) → “निर्युक्ति: [ ५६७ ] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [६०९ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित व्याख्या - शुष्के शुष्कं संहृतमिति प्रथमो भङ्गः, शुष्के आर्द्रमिति द्वितीयः, आर्द्रे शुष्कमिति तृतीयः, आर्द्र आर्द्रमिति चतुर्थ:एक्केके चउभंगो सुक्काईएस चउसु भंगेसु । थोवे थोवं थोत्रे बहुं च विवरीय दो अन्ने ॥ ५६८ ॥ व्याख्या - (शुष्कादिषु ) शुष्के शुष्कं संहृतमित्यादिषु चतुर्ष्वपि भङ्गेषु मध्ये एकैकस्मिन् भङ्गे चतुर्भङ्गी, तद्यथा- स्तोके शुष्के स्तोकं शुष्कं स्तोके शुष्के बहु शुष्कं 'विवरीय दो अन्ने 'ति एतद्विपरीतौ द्वौ अन्य भङ्गो द्रष्टव्यौ, तथा शुष्के बहुके स्तोकं शुष्कं बहुके शुष्के बहु शुष्क मिति, एवं शुष्के आर्द्रमित्यादिष्वपि त्रिषु भङ्गेषु स्तोके स्तोकमित्यादिरूपा चतुर्भङ्गी प्रत्येकं भावनीया, सर्वसयया पोडश भङ्गाः । अत्र कल्प्या कल्प्यविधिमाह Education Internationa जत्थ उ थोत्रे थोवं सुक्के उल्लं च छुहइ तं भब्भं (गेज्झं)। जइ तं तु समुक्खेउं थोवाभारं दलइ अन्नं ॥ ५६९ ॥ व्याख्या -यत्र तु भने स्तोके तुशब्दाद्वहुके च संहृतं भवति तदपि शुष्के शुष्कं कल्पते एव, अथवा शुष्के आर्द्र वाशब्दादा शुष्कमा आई वा तदा तद्धाद्यं, न शेषं, कुतः ? इत्याह-' जई इत्यादि, यदि तदादेयं वस्तु 'स्तोकामारं बहुभाररहितमन्यत्र समुतक्षिप्यान्यद्ददाति तर्हि तत्कल्पते नान्यथा । बहुकं च संह्रियमाणं बहुभारं भवति, ततः शुष्के शुष्कमित्यादिषु चतुर्ष्वपि भङ्गेषु | प्रत्येकं स्तोके स्तोकं बहुके स्तोकमिति प्रथमतृतीयभङ्गौ कल्पेते, न द्वितीयचतुर्थी । तत्र दोषानाहउक्खेवे निक्खिवे महलभाणंमि लुद्ध वह डाहो । अचियत्तं वोच्छेओ छक्कायवहो य गुरुमत्ते ॥ ५७० ॥ व्याख्या -' महति भाजने ' प्रभूतादेयवस्तुभारयुक्ते गुरुमात्रकरूपे 'उत्क्षेपे' उत्पाव्यमाने 'निक्षेपे' निक्षिप्यमाणे दाध्याः For Parts Only ~ 316~ ० nar Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६१३] .. “नियुक्ति: [५७१] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५७१|| पिण्डनियु- IAN पीडा भवति, तथा लुब्धोऽयं न परपीडां गणयतीति निन्दा, तथा वद्भाजनं कदाचिदुष्णभक्तादिभृतं स्यात्ततस्तस्योत्पाटने कथमपि तस्य || एषणायां तमलयगि- वधे' विनाशे दायाः साधो; दाहः स्यात् , तथा मुण्डस्य भिक्षादानायोत्पाटितमिदं भनमित्येवं खेदवशतः कदाचिदप्रीतिरुपजायते, दायकरीयादृत्तिः ततस्तदन्याम्पद्व्यव्यवच्छेदः, तथा महति भाजने भग्ने तन्मध्यस्थिते भक्तादौ सर्वतो विसति भूम्यादिस्थितपृथिवीकायादिजन्तुविनाश:|| ॥१५७॥ यत एवमेते दोषाः ततः स्तोके बहुकं बहुके बहुकमिति द्वौ भनी सर्वत्रापि न कल्पेते । एतदेवाह थोवे थोवं छूढं सुके उल्लं तु तं तु आइन्नं । बहुयं तु अणाइन्नं कडदोसो सोत्ति काऊणं ॥ ५७१ ॥ व्याख्या-स्तोके स्तोकम् , उपलक्षणमेतत् , बहुके वा स्तोकं यन्निक्षिप्तं तदपि शुष्के शुष्कं कल्पत एव, ततः शुष्के आई, तु.. शब्दादाः शुष्कमार्दै आर्दै च तद्भवति आचीण कल्पते इति भावः, यत्तु बहुकं स्तोके बहुके बहुकं वा संहियते तदनाचीर्ण, कृतः ?/21 इत्याह-स बहुकसंहारः कुतदोष:- अनन्तरगाथायामुक्तदोष इतिकृत्वा । उक्तं संहतद्वारम्, अथ दायकद्वारं गाथापट्केनाह बाले वेड़े मैत्ते उम्मच थेविरे' य जरिएं य । अघिल्लए [य] पगरिएं आरूंढे पाउयाहिं च ॥५७२ ॥ हत्यिदुनियलैबढे विवजिए चेव हत्थपाएहिं । तेशसि गुब्धिणी बोलवच्छ भुजंति" घुसुलिती ॥ ५७३ ॥1 भजती य दैलती कंडती चेव तह य पीसंती" । पीजंती रुचंती तंति पमद्दमाणी य ॥ ५७४ ॥ १५७॥ छक्कायवग्ग,त्था सम? निक्खिवित्तु ते चेव । ते चेवोगाहती“ संघट्टतौरभंती य ॥ ५७५ ॥ दीप अनुक्रम [६१३] अथ एषणा संबंधे दायकद्वारम् विस्तरेण वर्णयते ~317~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६१८] .→ “निर्युक्ति: [५७६] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५७६|| संसत्तेण य दवेण लित्तहत्था य लित्तमत्ती य । उव्वतंती साहारणं व दिती" य चोरिथयं ॥ ५७६ ॥ पाडियं च ठेवंती सपञ्चाया परं च उदिस्से । आभोगमणाभोगेण दलंती वज्जणिज्जा ए ॥ ५७७ ॥ व्याख्या-पालादयो वर्जनीया इति क्रियायोगः, तत्र 'बाल' जन्मतो वर्षाष्टकाभ्यन्तरवती, वृद्धः सप्तविवर्षाणां मतान्त-का रापेक्षया पष्टिवर्षाणां वोपरिवती २ 'मत्तः पीतमदिरादिः ३ 'उन्मत्तः ' दृशो ग्रहगृहीतो बा ४ 'वेपमानः' कम्पमानशरीरः ५ 'ज्वरितः' ज्वररोगपीडितः ६ 'अन्धः' चक्षुर्विकल: ७'प्रगलितः' गलत्कुष्ठः ८ 'आरूढः पादुकयोः काष्ठमयोपानहोः ९ तथा : "हस्तान्दुना' करविषयकाष्ठमयबन्धनेन १० 'निगडेन च' पादविषयलोइमयबन्धनेन बद्धः ११ इस्ताभ्यां पादाभ्यां वा विवर्जितश्किात्वात् १२' त्रैराशिका' नपुंसकः १३ 'गुर्षिणी' आपन्नसत्त्वा १४ 'बालवत्सा' स्तन्पोपजीविशिशुका १५ 'भुञ्जाना' भोजनं || कुर्वती १६ 'घुमुलिंती' दध्यादि मनती १७ 'भर्जमाना' चुल्यां कडिल्लकादौ चनकादीन् स्फोटयन्ती १८ 'दलयन्ती' घरटेन । गोधूमादि चूर्णयन्ती १९ 'कण्डयन्ती उदुखले तण्डुलादिकं छटयन्ती २० 'विषन्ती' शिलायां तिलामलकादि प्रमगन्ती २१ 'पिज-11: यन्ती' पिञ्जनेन रूतादिकं विरलं कुर्वती २२ 'रुञ्चन्ती' कसं लोठिन्यां लोठयन्ती २३ 'कृतन्ती' कर्त्तनं कुर्वती २४ प्रमद्धती रूतं कराभ्यां पौनःपुन्येन विरलं कुर्वती २५ 'षट्कायव्यग्रहस्ता' घटूकाययुक्तहस्ता २६ तथा श्रमणस्य भिक्षादानाय तानेव षट्काबयान भूमौ निक्षिप्य ददती २७ तानेव पदकायानवगाहमाना पादाभ्यां चालयन्ती २८ ' सङ्घयन्ती ' तानेव षटकायान् शेषशरीरा वयन स्पृशन्ती २९ 'आरभमाणा' तानेव षट्कायान् विनाशयन्ती ३० 'संसक्तेन' दध्यादिना द्रव्येण 'लिप्तहस्ता' खरण्टितहस्ता ३१ तथा तेनैव द्रव्येण दध्यादिना संसक्तेन 'लिप्तमात्रा खरण्टिवमात्रा ३२ 'उदयन्ती' महत्पिठरादिकमुप॑ तन्मध्याददवी २३ साधारणं दीप अनुक्रम [६१८] Poo.00000000000000000000000000 ~318~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५७७|| दीप अनुक्रम [६१९] मूलं [६१९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्युकर्मकयगियावृत्तिः ।। १५८।। “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२ / १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) --> “निर्युक्तिः [५७७] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः बहूनां सत्कं ददती ३४ तथा चौरितं ददति (ति) तथा चोरितं दयन्ति (न्ति) ३५ प्राभृतिकां स्थापयन्ती - अग्रकूरादिनिमित्तं मूल| स्थाल्या आकृष्य स्थगनिकादौ मुञ्चन्ती ३६ 'समत्यपाया' सम्भाव्यमानापाया दात्री ३७ तथा विवक्षितसाधुव्यतिरेकेण परमन्यं साध्यादिकमुद्दिश्य यत्स्थापितं तद्ददती, ३८ तथा 'आभोगेन' साधूनामित्थं न कल्पत इति परिज्ञानेऽप्युपेत्याशुद्धं ददती ३९ अथवाऽनाभोगेनाशुद्धं ददती ४० सर्वसङ्ख्यया चत्वारिंशदोषाः । इद्द म्रक्षितादिद्वारेषु 'संसज्जिमेहिं बजं अगर हिंएहिंपि गोरसदवेहिं ' इत्यादिना ग्रन्थेन संसक्तादिदोषाणामभिधानेऽपि यद्भूयोऽप्यत्र 'संसतेण य दव्त्रेण लिनहत्था यू लित्तमत्ता य' इत्याद्यभिधानं तदशेषदायकदोपाणामेकत्रोपदर्शनार्थमित्यदोषः । सम्प्रत्येतेषामेव दायकानामपवादमधिकृत्य वर्जनावर्जनविभागमाह एएसि दायगाणं गहणं केसिंचि होइ भइयन्त्रं । केसिंची अग्गहणं तब्धिवरीए भवे गहणं ॥ ५७८ ॥ व्याख्या -' एतेषां ' बालादीनां दायकानां मध्ये केपाञ्चिन्मूलत आरभ्य पञ्चविंशतिसङ्ख्यानां ग्रहणं भजनीयं, कदाचित्तथाविधं महत्प्रयोजनमुद्दिश्य कल्पते, शेषकालं नेति तथा केषाञ्चित् पद्कायव्यग्रहस्तादीनां पञ्चदशानां हस्तादग्रहणं भिक्षायाः, 'तद्विपरीते तु ' बालादिविपरीते तु दातरि भवेद्रहणं । सम्प्रति बालादीनां हस्ताद्भिताग्रहणे ये दोषाः सम्भवन्ति ते दर्शनीयाः, तत्र प्रथमतो बालमधिकृत्य दोषानाह- कगि अप्पाहण दिने अन्नन्न गहण पज्जतं । खंतिय मग्गणदिन्ने उड्डाह पओस चारभडा ।। ५७९ ॥ व्याख्या – काचिदभिनवा श्राद्धिका श्रमणेभ्यो भिक्षां दया इति निजपुत्रिकाम् 'अप्पाहिऊणं ' ति सन्दिश्य भक्त गृहीत्वा क्षेत्र जगाम, गतायां तस्यां कोऽपि साधुसङ्कटको भिक्षार्थमागतः, तया च बालिकया तस्मै तण्डुलौदनो वितीर्णः सोऽपि च सङ्कटकमुख्यः Education Intention For Parts Only ~ 319~ ० एषणायां दायक दोषः ४० ।। १५८॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६२१] .. “नियुक्ति: [५७९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५७९|| साधुस्ता बालिका मुग्धतरामगत्य लाम्पटयतो भूयो भूय उवाच-पुनर्देहि पुनर्देहीति, ततस्तया समस्तोऽप्योदनो दत्तः, तत एवमेवं मुद्घृततक्रदध्यादिकमपि, अपराद्धे च समागता जननी, उपविष्टा भोजनाय, भणिता च निजयुत्रिका-देहि पुत्रि! मामोदनमिति, साध्वोचत-दनः समस्तोऽप्योदनः माधवे, साऽब्रवीव-शोभनं कृतवती, मुद्रान् मे देहि सा पाह-मुद्रा अपि साधने सर्वे प्रदत्ताः एवं च यद्यत् किमपि सा याचते तत्सर्वं साधये दत्तमिति ब्रवीति, ततः पर्यन्ते काञ्जिकमात्रमयाचत, तदपि बालिका भणति-साधवे। दत्तमिति, ततः साभिनवश्राद्धिका रुष्टा सती पुत्रिकामेवमपबदति-किमिति त्वया सर्व साधवे प्रदत, सा ब्रते-स साधर्भयो भयोs-18 याचत ततो मया सर्वमदायि, ततः सा साधोपरि कोपावेशमाविशन्ती सूरीणामन्तिकमगमत, अचकच सकलमपि साधुवृत्तान्तं, यथा भवदीयः साधुरिस्थमित्थं मत्पुत्रिकायाः सकाशाद्याचित्वा याचित्वा सर्वमोदनादिकमानीतवानिति, एवं तस्यां महता शब्देन कथयन्त्यां शब्दश्रवणतः पातिवेश्मिकजनोऽन्योऽपि च परम्परया भूषाम्मिलितो ज्ञातश्च सर्वैरपि साधुवृत्तान्तः, ततो विदधति तेअपि कोपावेशतः साधूनामवर्णवाद नूनमपी साधुबेपपिडम्बिनश्चारभटा इव लुण्टाका न साधुसदत्ता इति, ततः प्रवचनावणेवादापनोदाय मूरिभिस्तस्याः सर्वजनस्य च समक्षं स साधुनिर्भत्स्योंपकरणं च सकलमागृह्य वसतेनिष्काशितः, तत एवं तस्मिनिष्काशिते आविकायाः कोपः शममगमत् , ततः मूरीणां क्षमाश्रमणमादायोक्तवती-भगवन् !मा मन्निमित्तमेष निष्काश्यता, क्षमस्वैकं ममापराधमिति, ततो भूयोऽपि यथावत्साधुः शिक्षित्वा प्रवेशितः । सूत्र सुगम । नवरम् ‘उड्डाह पओस चारभडा' इति, लोके उहादः ततो लोकस्य मद्वेषभावतधारभटा इव लुण्टाका अमी न साधव इत्यवर्णवादः। यत एवं बालाद्भिक्षाग्रहणे दोपास्ततो चालान ग्राह्यमिति । सम्पति स्थविशारदायकदोषानाह दीप अनुक्रम [६२१] २००० ~320~ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६२२] .. “नियुक्ति: [५८०] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५८०|| पिण्डनियुतेर्मळयगिरीयात्तिः ॥१५९॥ थेरो गलंतलालो कंपणहत्यो पडिज वा तो । अपहुति य अचियत्तं एगयरे वा उभयओ वा ॥ ५८०॥ एषणायां ____ व्याख्या-अत्यन्तस्थविरो हि पायो गलल्लालो भवति, ततो देयमपि वस्तु लालया खरष्टितं भवतीति तदहणे लोके जुगुप्सा, दायकतथा कम्पमानहस्तो भवति, ततो हस्तकम्पनवशाइयं वस्तु भूमौ निपतति, तथा च षड्जीवनिकायविराधना, तथा स्वयं वा स्थविरो दोषः ४० ददनिपतेत, तथा च सति तस्य पीडा भूम्याश्रितषड्जीवनिकायविराधना च, अपि च प्रायः स्थविरो गृहस्थापभुः-अस्वामी भवति, ततस्तेन दीयमानेन प्रभुरेप इति विचिन्त्य गृहे स्वामित्वेन नियुक्तस्याचियत्-प्रदेषः स्यात्, स चैकतरस्मिन्-साधी बढे वा, यद्वाउभयोरपीति । मचोन्मचावाश्रित्य दोषानाह| अवयास भाण(घाय)भेओ वमणं असुइति लोगगरिहा य । एए चेव उ मत्ते वमणविवज्जा य उम्मत्ते ॥५८१॥ ___ व्याख्या-मत्तः' कदाचिन्मत्ततया साधोरालिङ्गानं विदधाति, तथा कोऽपि मशः मदवशविहलतया रे मुण्ड ! किमत्रायातः ? इति ब्रुवन् घातमपि विदधाति, भाजनं वा भिनत्ति, यद्वा कदाचित्तीतमासवं ददानो वमति, वमँश्च साधु साधुपात्र वा खरण्टयति, ततो लोके जुगुप्सा, धिगमी साधवोऽशुचयो ये मत्तादपीत्थं भिक्षा गृहन्तीति, तत एवं यतो मत्तेऽवपासादयो दोषास्तस्मात्र ततो ग्रायम्, एत एवालिङ्गनादयो दोपा वमनवर्जा उन्मत्तेऽपि, तस्मात्ततोऽपि न ग्राह्यम् । सम्पति वेपितज्वरितावाश्रित्य दोषानाह-IL...an वेविय परिसाडणया पासे व छुभेज भाणभेओ वा । एमेव य जरियमिवि जरसंकमणं च उड्डाहो ॥ ५८२ ॥ व्याख्या-वेपितादातुः सकाशादिक्षाग्रहणे देयवस्तुनः परिशाटनं भवति, यदा पार्षे साधुभाजनाहहिः सर्वतोऽपि देयं वस्तु | 哈哈哈哈哈哈哈哈哈哈哈哈哈哈哈哈哈哈心心心心哈哈哈哈令。 दीप अनुक्रम [६२२] ~321~ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६२४] .. “नियुक्ति: [५८२] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५८२|| क्षिपेत् , यद्वा येन स्थाल्यादिना भाजनेन कृत्वा भिक्षामानयति तस्य भूमौ निपाते भेदः-स्फोटनं स्यात् , एवमेव ज्वरितेऽपि दोषा भावनीयाः, किंच-ज्वरितादहणे ज्वरसङ्क्रमणमपि साधीभवेत् , तथा जने उड्डाहो-ययाऽहो ! अमी आहारलम्पटा यदित्यं ज्वरपीडितादपि भिक्षां गृह्णन्तीति । अन्धगलत्कुष्ठावाश्रित्य दोषानाह उड्डाह कायपडणं अंधे भेओ य पास छुहणं च । तहोसी संकमणं गलंतभिसभिन्नदेहे य ॥ ५८३ ॥ व्याख्या-अन्धादिक्षाग्रहणे उड्डादः, स चायम्-अहो! अमी औदरिका यदन्यादपि मिलां दातुमशक्नुवतो भिक्षा गृह्णन्तीति, तथा 'अन्धः' अपश्यन पादाभ्यां भूम्पाश्रितपडूजीवनिकायघातं विदधाति, तथा लोष्ट्रादौ स्खलितः सन् भूमौ निपतेत , तथा च सति भिक्षादामायोत्पाटितहस्तगृहीतस्थाल्पादिभाजनभङ्गः, तथा स देयं वस्तु पायें-भाजनबहिस्तात पक्षिपेददर्शनात्, तस्मादन्धादपिन ग्राह्यम् । तथा त्वग्दोषिणि, किंविशिष्टे ? इत्याह-गलशभिन्न देहे' आपत्ताद्वयत्यासेन पदयोजना, सा चैव- भृशम् ' अतिशयन गलत् ' अर्द्धपक्वं रुधिरं च बहिर्वहन भिन्नश्च-स्फुटितो देहो यस्य स तथा तस्मिन् दातरि 'सक्रमगं' कुष्ठ व्याधिसङ्क्रान्तिः स्यात, तस्माचतोऽपि न ग्राह्यम् । सम्पति पादुकारूढादिचतुष्टयदोषानाहपाउयदुरूढपडणं बढे परियाव असुइखिसा य । करछिन्नासुइ खिसा ते चिय पायेऽवि पडणं च ॥ ५८४ ॥ व्याख्या-पादुकारूढस्य भिक्षादानाय प्रचलतः कदाचिदुःस्थितत्वेन पतनं स्यात् , तथा बद्धे दातरि भिक्षां प्रयच्छति 'परिताप:' दुःखं तस्य भवेत् , तथा 'असुइ 'चि मूत्राात्सर्गादौ जलेन तस्य शौचकरणासम्भवात्ततो भिक्षाग्रहणे लोके जुगुप्सा, यथा दीप अनुक्रम [६२४] कहकर ~322~ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६२६] .. “नियुक्ति: [५८४] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: कर्मळयगि प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५८४|| ॥१०॥ पिण्डनियु अमी अशुचयो यदेतस्मादप्पशुचिभूतादिक्षामाददतीति, एवं छिन्नकरेऽपि भिक्षा प्रयच्छति लोके जुगुप्सा, तथा हस्ताभावेन शाचकर- एषणायाँ णासम्भवात् , एतचोपलक्षणं, तेन हस्ताभावे येन कृत्वा भाजनेन भिक्षां ददाति यदा देयं वस्तु तस्य पतनमपि भवति, तथा च सति दायकरीयाचिः पदजीवनिकायव्याघातः, एत एव दोषाः पादेऽपि-छिन्त्रपादेऽपि दातरि द्रष्टव्याः, केवलं पादाभावेन तस्य भिक्षादानाय चलतः मायो दोषः ४० नियमतः 'पतनं ' पातो भवेत्, तथा च सति भूम्याश्रितकीटिकादिकसत्वव्याघातः । सम्पति नपुंसकमधिकृत्य दोषानाह आयपरोभयदोसा अभिक्खगहणंमि खोभण नपुंसे । लोगद्गुंछा संका एरिसया नृणमेएऽवि ।। ५८५॥ व्याख्या-नपुंसके मिक्षां प्रयच्छति आत्मपरोभयदोषाः, तथाहि नपुंसकात् अभीक्ष्णं भिक्षाग्रहणेऽतिपरिचयो भवति, अतीच परिचयाच तस्य नपुंसकस्य साधोक्षोभो-वेदोदयरूपः समुपजायते, ततो नपुंसकस्य साधुलिझायासेवनेन द्वयस्यापि मैथुनसेक्या कर्मबन्धः, अभीक्ष्णग्रहणशब्दोपादानाथ कदाचिद्भिक्षाग्रहणे दोपाभावमाह परिचयाभावात्, तथा लोके जुगुप्सा यते नपुंसकापि निकृष्टादिक्षामाददत इति, साधूनामप्युपरि जनस्य शङ्का भवति-यथतेऽपि साधनो नूनमीदृशाः-नपुंसकाः, कथमन्यथा अनेन । सह भिक्षाग्रहणव्याजतोऽतिपरिचयं विदधत इति! | सम्पति गुम्विणीवालवत्से आश्रित्य दोषानुपदर्शयति गुम्विणि गब्भे संघट्टणा उ उटुंतुवेसमाणीए । बालाई मसुडग मज्जाराई विराहेज्जा ॥ ५८६ ॥ च्याख्या-गुम्चिण्या भिक्षादानार्थमुत्तिष्ठन्त्या भिक्षा दच्या स्वस्थाने उपविशन्त्याश्च 'गर्भ' गर्भस्य ' सहन' सञ्चलनं ॥१०॥ कभवति, तस्मान ततो ग्राह्यं, 'बालाई ममुंडग'ति, अबाऽऽर्षत्वायत्यासेन पदयोजना, 'बाल'मिति शिशु भूमौ मञ्चिकादौ वा निक्षिप्य | यदि भिक्षा ददाति तदितं बालं 'मानोरादि: पिडालसारमेयादिः 'मांसोंदुकादि' मांसखण्डं शशकशिशुरिति वा कृत्वा 'विराधयेत्' 20000000000000000000०००००००ककर दीप अनुक्रम [६२६] ~323~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६२९] .. “नियुक्ति: [५८७] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५८७|| दीप अनुक्रम [६२९] विनाशयेत् , तथाऽऽहारखरण्टितौ शुष्की हस्ती कर्कशौ भवतः, ततो भिक्षा दचा पुनर्दाच्या हस्ताभ्यां गृह्यमाणस्य बालस्य पीडा भवेत् । दसतो बालवरसातोऽपि न ग्राह्यम् । भुञ्जानां मथ्नतीं चाश्रित्य दोषानाह भुजंती आयमणे उदगं छोट्टी य लोगगरिहा य । घुसुलंती संतते करमि लित्ते भवे रसगा॥ ५८७ ॥ व्याख्या-भुञ्जाना दात्री भिक्षादानार्थमाचमनं करोति, आचमने च क्रियमाणे उदकं विराध्यते, अथ न करोत्याचमनं ताई लोके छोटिरितिकृत्या गर्दा स्यात् । तथा 'घुमुलंती' दध्यादि मनती यदि तद्दध्यादि संसक्तं मनाति ताई तेन संसक्तदध्यादिना लिसे करे तस्या भिक्षा ददत्यास्तेषां रसजीवानां वधो भवति, ततस्तस्पा अपि हस्तान्त्र कल्पते । सम्मति पेषणादि कुर्वत्या दोषानुपदर्शयति-- दगबीए संघट्टण पीसणकंडदल भज्जणे डहणं । पिंजंत रुचणाई दिने लित्ते करे उदगं ॥ ५८८ ।। व्याख्या-पेषणकण्डनदलनानि कुर्वतीनां इस्ताद्भिक्षाग्रहणे उदकवीजसट्टनं स्यात् , तथाहि-पिंपन्ती यदा भिक्षादानायोत्तिष्ठति सदा पिष्यमाणतिलादिसत्काः काश्चिनखिकाः सचित्ता अपि हस्तादो लगिताः सम्भवन्ति, ततो भिक्षादानाय इस्तादि प्रस्फोटने भिक्षा वा ददत्या भिक्षासम्पर्कतस्तासां विराधना भवति, भिक्षां च दत्त्वा भिक्षावयववरण्टिती हस्तौ जलेन प्रक्षालयेत्, ततः जापपणे उदकवीजसहट्टनम् , एवं कण्डनदलनयोरपि यथायोग भावनीयं, तथा 'भर्जने भिक्षा ददस्यां वेलालगनेन कडिल्लक्षिप्तगोधूमादीनां दहनं स्यात, तथा पिञ्जनं रुञ्चनमादिशब्दास्कर्त्तनममईने च कुर्वती भिक्षा दत्वा भिक्षावयवखरण्टितौ हस्तौ जलेन प्रक्षाल- | येत् , ततस्तत्राप्युदकं विनश्यतीति न ततोऽपि भिक्षा कल्पते । सम्पति षट्कायव्यग्रहस्तादिपञ्चकस्वरूपं गाधाद्वयेनाह 00000000०००००००००००००००००००००००० SAMEnirain JOI Pournea ~324~ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५८९|| दीप अनुक्रम [६३१] पिनकेर्मलयगि रीयावृतिः ॥ १६२॥ “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [६३१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ८० Eucation Interation “निर्युक्ति: [ ५८९ ] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः लोणंदग अगणि वत्थी फलाइ मच्छाइ सजिय हत्थंमि । पाएणोगाह्णया संघट्टण सेसकाएणं ॥ ५८९ ॥ खणमाणी आरभए मज्जइ घोयइ व सिंचए किंचि । छेयविसारणमाई छिंदइ छट्टे फुरुकुरुते ॥ ५९० ॥ व्याख्या -- इह सा पटुकायव्यग्रहस्ता उच्यते यस्या हस्ते सजीवं लवणमुदकमग्निर्वायुपूरितो वा बस्तिर्फलादिकं बीजपूरादिकं मत्स्यादयो वा विद्यन्ते ततः सा यद्येतेषां सजीवलवणादीनामन्यतमदपि श्रवणभिक्षादानार्थं भूम्यादौ निक्षिपति सर्दि न कल्पते । तथाऽवगाहना नाम यदेतेषां षण्णां जीवनिकायानां पादेन सङ्घ, शेषकायेन दस्तादिना सम्मर्दनं सङ्घट्टनम् आरभमाणा कुश्यादिना भूम्यादि खनन्ती, अनेन पृथिवीकायारम्भ उक्तः, यद्वा 'मज्जंती' शुद्धेन जलेन स्नान्ती, अथवा 'घावंती ' शुद्धेनोदकेन वस्त्राणि प्रक्षालयन्ती, यदिवा किञ्चिद् वृक्षवल्यादि सिञ्चन्ती, एतेनाप्कायारम्भो दर्शितः, उपलक्षणमेतत् ज्वलयन्ती वा फूत्कारेण वैश्वानरं वस्त्यादिकं वा सचित्तवायुभृतमितस्ततः प्रक्षिपन्ती, एतेनाग्निवायुसमारम्भ उक्तः, तथा शाकादे छेद विशारणे कुर्बती, तत्र छेद:- पुष्पफलादेः खण्डनं विशारणं तेषामेव खण्डानां शोषणायातपे मोचनम्, आदिशब्दात्तण्डुलमुद्रादीनां शोधनादिपरिग्रहः, तथा छिन्दती षष्ठान् सकायान् मत्स्यादीन् 'फुरुफुरंते' इति पोस्फूर्यमाणान् पीडयोल्लुत इत्यर्थः, अनेन सकायारम्भ उक्तः । इत्थं पद्जीव| निकायानारभमाणाया हस्तान्न कल्पते । सम्मति षट्कायव्यग्रहस्तेति पदस्य व्यारूपाने मतान्तरमुपदर्शयति हत्था ई कोलाइकन्नलइयाई । सिद्धत्थगपुफाणि य सिरंमि दिन्नाई वज्जति ॥ ५९१ ॥ व्याख्या - केचिदाचार्याः षट्कायव्यग्रहस्तेतिवचनतः 'कोलादीनि ' बदरादीनि, आदिशब्दात्करीरादिपरिग्रहः, 'कमलइयाई 'ति For Park Lise Only ~325~ ० ��0000000 एषणायां दायकदोष: ४० ॥ १६२॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६३४] .. “नियुक्ति: [५९२] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५९२|| कणे पिनद्धानि तथा सिद्धार्थकपुष्पाणि शिरसि दत्तानि वर्जयन्ति, हस्तग्रहणं हि किल सूत्रे उपलक्षणं, तेन कर्णे शिरसि वा जीव निकायसम्भवे तद्भस्तान्न कल्पते, तन्मतेन षट्कायव्यग्रहस्तेतिपदात षट्कायं सङ्घयन्तीत्यस्य पदस्य विशेषो दुरुपपादः । lal अन्ने भणंति दससुवि एसणदोसेसु नत्थि तग्गहणं । तेण न वज्जं भन्नइ नणु गहणं दायगरगहणा ॥ ५९२ ॥ व्याख्या-अन्ये त्वाचार्यदेशीया भणन्ति-यथा दशस्वपि शङ्कितादिषु एषणादोषेषु मध्ये न तदहणं-पट्कायव्यग्रहस्तेत्युपादानमस्ति, तेन कारणेन कोलादियुक्तदाच्या भिक्षाग्रहणं न वय, तदेतत् पापात्पापीयो, यत आइ-मण्यते' अत्रोचरं दीयते । जाननु दायकग्रहणादेषणादोषमध्ये पटूकायव्यग्रहस्तेल्यस्य ग्रहणं विद्यते, तत्कथमुच्यते- ग्रहणमिति ? । सम्पति संसक्तिमव्यदायादिदोषानाह संसज्जिमम्मि देसे संसज्जिमव्वलित्तकरमत्ता । संचारो ओयत्तण उक्खिप्पतेऽवि ते चेव ॥ ५९३ ॥ व्याख्या-संसक्तिमहव्यवति देशे-मण्डले संसक्तिमता द्रव्येण लिप्तः करो मात्र वा यस्याः सा तथाविधा दात्री भिक्षां ददती करादिलमान सत्वान् इन्ति, तस्मात्सा षण्येते, तथा महतः पिठरादेपवर्तने 'सञ्चारः" सूचनात्सूत्र 'मिति सञ्चारिमकीटिकाम कोटादिसच्चच्याघातः, इदमुक्तं भवति-महत्पिठरं यदा तदा वा नोत्पाट्यते नापि यथा तथा वा सञ्चायते, महत्त्वादेव, किन्तु प्रयोजनसाविशेषोत्पत्ती सकृत् , ततस्तदाश्रित्यः मायः कीटिकादयः सत्त्वाः सम्भवन्ति, ततो यदा तपिठरादिकमुर्त्य किश्चिददाति तदा तदाहात्तिजन्तुव्यापादः, एते च दोषा उत्पाठ्यमानेऽपि महति पिठरादौ, तत्रापि हि भूयो निक्षेपणे इस्तसंस्पर्शतो वा सञ्चारिमकीटिकादि दीप अनुक्रम [६३४] ~326~ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६३५] .. “नियुक्ति: [५९३] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५९३|| ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ 18 सत्वच्याघातः, अपि च तथाभूतस्य महत उत्पादने दायाः पीडाऽपि भवति, तस्मान्न तदुत्पाटनेऽपि भिक्षा कल्पते । सम्मति साधारणं । एषणायां केर्मलयगि- चोरितकं वा ददत्या दोघानाह दायक रीयादृचिः साधारणं बहूणं तत्थ उ दोसा जहेव अणिसिट्टे चोरियए गहणाई भयए सुण्हाइ वा दंते॥ ५९४ ॥ ॥१२॥ व्याख्या-बहूनां साधारणं यदि ददाति तर्हि तत्र यथा प्रागनिसृष्टे दोषा उक्तास्तथैव द्रष्टव्याः। तथा चौर्येण भूतके-कर्मकरे | स्नुपादो वा ददति 'ग्रहणादयः' ग्रहणवन्धनतादनादयो दोषा द्रष्टव्याः, तस्माचतोऽपि न कल्पते । सम्पति पाभूतिकास्थापनादिद्वार-|| त्रयदोपानाहपाहुडि ठवियगदोसा तिरिउड्ढमहे तिहा अवायाओ। धम्मियमाई ठवियं परस्स परसंतियं वावि ॥ ५९५ ॥ व्याख्या-प्रभृतिका बल्यादिनिमित्त संस्थाप्य या ददाति भिक्षां तत्र दोषाः प्रवर्तनादयः । सम्पति अपाये 'ति द्वारेऽपायाखिविधाः, तद्यथा-तिर्यगूमधव, तत्र तिर्यग्गवादिभ्य ऊर्द्धमुत्तरङ्गकाष्ठादेरधः सर्पकण्टकादेः, इत्थं च त्रिविधानामप्यपायानामन्य-16 बातममपायं बुद्धया सम्भावयन्न ततो भिक्षा गृहीयात् , 'परं चोदिश्ये 'ति यदुक्तं, तबाह-धार्मिकायर्थम् ' अपरसाधुकापेटिकमभूति-|| बानिमित्तं यत् स्थापितं तत्परस्य परमार्थतः सम्बन्धीति न गृह्णीयात् , तद्भहणेऽदत्तादानदोषसम्भवात् , यद्वा 'परसंतियं व 'ति परस्प- Man ग्लानादेः सत्कं यददाति तदपि स्वयमादातुं न कल्पते, अदत्तादानदोषात, किन्तु यसौ ग्लानाय दापितं तस्मै नीत्वा दातव्यं, स चेन गृह्णाति तहि भूयोऽपि दायाः समानीय समर्पणीयं, यदि पुनरेवं दात्री बदति-पदि ठळानादिको न गृहाति तहि स्वयं ग्राह्यमिति, ताई ग्लानायग्रहणे तस्य कल्पत इति । सम्मत्याभोगानाभोगदायकखरूपमाह दीप अनुक्रम [६३५] ~327~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५९६|| दीप अनुक्रम [६३८] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [ ६३८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ८० Education Internationa “निर्युक्ति: [ ५९६ ] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अनुकंपा डिणी या व ते कुणइ जाणमाणोऽचि । एसणदोसे बिइओ कुणइ उ असढो अयातो ॥ ५९६ ॥ व्याख्या सदैवैते महानुभावा यतयोऽन्तमान्तमशनमश्नन्ति तस्मात्करोम्येतेषां शरीरोपष्टम्भाय घृतपूरादीनीत्येवमनुकम्पया यदिषा मयैतेषामनेपणीयाग्रहणनियमभङ्गो भङ्गव्य इति प्रत्यनीकार्यतया जानानोऽपि तानाधाकर्मादिरूपानेषणादोषान् करोति, द्वितीयस्तु करोति अजानानः अशठभावः । तदेवं व्याख्यातानि चत्वारिंशदपि बालादिद्वाराणि, सम्मति यदुक्तम्- 'एएस दायगाणं गहणं केसिंचि होइ भइयव्वं इत्यादि, तयाचिख्यासुः प्रथमतो बालमाश्रित्य भजनामाद भिक्खामित्ते अवियालणा उ बालेण दिज्जमाणंमि । संदिट्ठे वा गहणं अइबहुय वियालणेऽणुन्ना ॥ ५९७ ॥ व्याख्या - मातुः परोक्षे भिक्षामात्रे बालेन दीयमाने यदिवा पार्श्ववर्त्तिना मात्रादिना सन्दिष्टे सति तेन बालेन दीयमानेऽविचारणा-कल्पते इदं न वेति विचारणाया अभावः किन्तु ग्रहणं मिक्षाया भवति, अविबहुके तु वालेन दीयमाने किमय त्वं प्रभूतं ददासीति विचारणे सति यद्यनुज्ञा - पार्श्ववत्तिमात्रादिसत्कमुत्कलना भवति तदा ग्राह्यं नान्यथा । सम्पति स्थविरमत्तविषयां भजनापाड़थेर पहु थरथरते धरिए अन्नेण दढसरीरे वा । अव्बत्तमत्तसड्ढे अविभले वा असागरिए ॥ ५९८ ॥ व्याख्या -- स्थविरो यदि प्रभुर्भवति, 'थरथरंते ति कम्पमानो यद्यन्येन विधृतो वर्त्तते स्वरूपेण वा इदशरीरो भवति तहिं ततः कल्पते, तथाऽव्यक्तं-मनाकू यो मतः सोऽपि यदि श्राद्धोऽविद्दल - अपरवशथ भवति ततस्तस्मादेवंविधान्मत्तात् तत्र सागारिको न विद्यते तर्हि कल्पते नान्यथा । उन्मचादिचतुष्कविषयां भजनामाह--.. For Park Use Only ० ~328~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६४१] .. “नियुक्ति: [५९९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: M कर्मकपगिरीयात्तिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||५९९|| ॥१६॥ सुइभहग दित्ताई दढग्गहे वेविए जरंमि सिवे । अन्नधरियं तु सड्ढो देयंधोऽनेण वा धरिए ॥ ५९९ ॥ एषणायां ६दायकव्याख्या-उन्मत्तो-सादिदृतग्रहद्दीतादिः स चेत् शुचिर्भद्रकश्च भवति तदा तद्धस्तात्कल्पते, नान्यथा, वेपितोऽपि यदि दृढ- दोषापहस्तो भवति-न हस्तेन गृहीतं किमपि तस्य पतति तदा तस्मादपि कल्पते, ज्वरितादपि ग्राह्यं ज्वरे शिवे सति, अन्धोऽपि यदि देयं 6 वादाः चस्त्वन्येन पुत्रादिना धृतं ददाति स्वरूपेण श्राद्धश्च, यदिवा स एवान्धोऽन्येन विभृतः सन् देयं ददाति तदि ततो ग्राह्यं, नान्यथा, पूर्वोकदोषपसङ्गात् । त्वग्दोपादिपश्चकविषयां भजनामाह__ मंडलपसूतिकुट्ठीऽसागरिए पाउयागए अयले । कमबद्धे सवियारे इयरे विढे असागरिए ॥ ६ ॥ व्याख्या-'मण्डलानि' दृचाकारद्रुविशेषरूपाणि 'प्रसूति' नखादिविदारणेऽपि चेतनाया असंवित्तिस्तद्रूषो यः 'कुष्ठः रोगविशेषः सोऽस्यास्तीति मण्डलपसूतिकुष्ठी स चेद् 'असागारिक ' सागारिकाभावे ददाति नदि ततः कल्पते, न शेषष्ठिनः सागारिके वा पश्यति, पादुकारूढोऽपि यदि भवत्यचलस्थानस्थितस्तदा कारणे सति कल्पते, तथा 'क्रमयोः पादयोबद्धो यदि सविचारइतश्वेतच पीडामन्तरेण गन्तुं शक्तस्ततो बद्धादपि तस्मात्कल्पते, इतरस्तु य इतश्चेतक गन्नुमशक्तः स चेदुपविष्टः सन् ददाति न च कोऽपि तत्र सागारिको वियते तहि ततोऽपि कल्पते, इस्तबद्धस्तु भिक्षा दातुमपि न शक्रोति, तत्र प्रतिपेप एव, न भजना, उपलक्षणमे-15 तत् , तेन छिन्नकरोऽपि यदि सागारिकाभावे ददाति तहि कल्पते, छिन्नपादो ययुपविष्टः सन् सागारिकाऽसम्पाते प्रयच्छति ततस्ततोऽपि कल्पते । नपुंसकादिसप्तकविषयां भजनामाह दीप अनुक्रम [६४१] ~329~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६४३] .. “नियुक्ति: [६०१] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६०१|| - पंडग अप्पडिसेवी वेला थणजीवि इयर सबंपि । उक्खित्तमणावाए न किंचि लग्गं ठवंतीए ॥ ६.१॥ ___ व्याख्या-नपुंसकोऽपि यदि 'अतिसेवी' लिङ्गाधनासेवास्तहि ततः कसते, तथाऽऽअन्न पचाऽपि यदि 'वेल 'चि 'सूचनात्सूत्र' मितिन्यायाटेलामासपाता भवति, नवममासगर्भा यदि भवतीत्यर्थः, तहिं स्थविरकल्पिकैः परिहार्या, अर्थाचद्विपरीताया हस्तावास्थविरकल्पिकानामुपकल्पते इति द्रव्य, तथा याऽपि बालवत्सा स्तन्यपात्रोपनीविशिशुका सा स्थविरकल्पिकानां परिहायों, न ततः हास्थविरकल्पिकानामपि कल्पते किमपीति भावः, यस्यास्तु बाल आहारेऽपि लगति तस्या हस्तात्करपते, स हि प्रायः शरीरेण महान् भवति ततो न मार्जारादिविराधनादोषपसङ्गः, ये तु भगवन्तो जिनकल्पिकास्ते मूलत एवापन्नसचा बालवत्सां च सर्वथा परिहरन्ति, एवं भुञ्जानाभर्जमानादलन्तीष्वपि भजना भावनीया, सा चैत्र-भुजाना अनुच्छिष्टा सती यावदद्यापि न करलं मुख प्रतिपति तावत्तद्धस्ताकल्पते, भर्जमानाऽपि यत्सचित्तं गोधूमादि कडिलके क्षिप्तं तवोत्तारितमन्यच नायापि हस्तेन गृहानि, प्रान्तरे यदि साधुरायातो: भवति सा चेददाति तर्हि कल्पते, तथा दलपन्ती सचित्तमुद्रादिना दल्यमानेन सह घरई मुक्ती अत्रान्तरे च साधुरायातो भवति सा चेतस्ततो यात्तिष्ठति, अचेतनं वा भृष्ट मुद्रादिकं दलपति तर्हि तद्धस्तात्कल्पते, कण्डपन्या कण्डनायोत्याटितं मुशलं, न च तस्मिन मुशले किमपि काऊच्या बीजं लममस्ति, अत्रान्तरे च समायातः साधुस्ततो यदि साऽनपाये प्रदेश मुश स्थापयित्वा भिक्षा ददाति कल्पते | पिंपत्यादिविषयां भजनामाहपीसंती निप्पिटे फासु वा तुलणे असंसत्तं । कत्तणि असंखचुन्नं चुन्नं वा जा अचोक्खलिगी ॥ ६०२ ॥ दीप अनुक्रम [६४३] ~330~ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६४५] .→ “नियुक्ति: [६०३] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६०३|| पिण्डनियु- उब्वट्टणिऽसंसत्तेण वावि अट्ठीलए न घटेइ । पिंजणपमद्दणेसु य पच्छाकर्म जहा नस्थि ॥ ६०३ ॥ एषणायाः तर्मळ्यगि ६दायकव्याख्या-पिंपन्ती 'निम्पिटे 'पेषणपरिसमाप्ती, मासुकं वा पिंपन्ती यदि ददाति ताई तस्या हस्ताकल्पते, तथा 'घुमुलणे' रीयातिः दोषः ७3शंखचूर्णा यससक्तं दध्यादि मनस्याः कल्पते, तथा कर्तने या अशङ्खचूर्ण-अखरण्टितहस्तं कुन्तति, इह काचित्सूत्रस्यातिशयेन वायततापादनाय शहचूर्णेन हस्ती जडने च खरण्टयित्वा कृन्तति, तत उच्यते 'अशङ्खचूर्ण' मिति । अथवा पूर्णपपि-शङ्खचूर्णमपि गृहीत्वा । कृन्तन्ती या 'अचोक्खलिणी' अनुक्षाशीला न जलेन हस्तौ प्रक्षालयतीति भावः, तस्या हस्ताकल्पते । तथा 'उद्वर्त्तने' कार्पासलोठने असंसत्तेण वावि 'त्ति असंसक्तेनागृहीतकार्यासेन इस्तेनोपलक्षिता सती याचिष्ठन्ती 'अहिल्लए' अस्थिकान कापासिकानित्यर्थः न यति तदा तद्धस्ताकल्पते । पिञ्जनप्रमईनयोरपि पश्चात्कर्म न भवति तथा ग्राह्यमिति । II सेसेसु य पडिवक्खो न संभवइ कायगहणमाईसु । पडिबक्खस्स अभावे नियमा उ भवे तयगाहणं ॥६.४॥ व्याख्या-शेपेषु द्वारेषु 'कायगहणमाईसु' षट्कायव्यग्रहस्तादिषु प्रतिपक्षः उत्सापेक्षयाऽपवादरूपो न विद्यते-न सम्भवति ततः प्रतिपक्षस्याभावे नियमाद्भवति तेष्वग्रहणमिति । उक्त दायकद्वारम् , अयोन्मिश्रद्वारमाइ सच्चित्ते अच्चिचे मीसग उम्मीसगंसि चउभंगो । आइतिए पडिसेहो चरिमे भंगंमि भयणा उ ॥ ६०५ ॥ ___ व्याख्या-इइ यत्रोन्मियते ते द्वे अपि वस्तुनी त्रिधा, तद्यथा-सचित्तेऽचित्ते मिश्रेच, तत उन्मिश्रके-मिश्रणे चतुर्भङ्गी, अत्र || जातावेकवचनं, ततस्तिस्रश्चतुर्भङ्गयो भवन्तीति वेदितव्यं, तत्र प्रथमा सचित्तमिश्रपदाभ्यो, द्वितीया सचित्ताचित्तपदाभ्यां, तृतीया मिश्रा-1 दीप अनुक्रम [६४५] ता॥१६४|| FAurasurare.org ~331~ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६४७] .. “नियुक्ति: [६०५] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६०५|| चित्तपदाभ्यामिति । तत्र सचित्तमिश्रपदाभ्यापियं-सचित्ते सचित्तं मिश्रे सचित्तं सचित्ते मिश्र मिश्रे मिश्रमिति, द्वितीया स्वियं-सचिने । सचित्तम् अचित्ते सचित्तं सचित्तेऽचित्तम् अचित्तेऽचित्तमिति, तृतीयेयं-मिश्रे मिश्रम् अचित्ते मिश्र मिश्रेऽचित्तम अचिचेऽचित्तमिति, तत्र हागाथापर्यन्ततशब्दस्यानुक्तसमुचपात्वादायापां चनु निकायां सकलायामपि प्रतिषेधः, शेपे तु चतुर्भङ्गीद्वये प्रत्येकम् , 'आदित्रिके आदिमेषु त्रिषु त्रियु भङ्ग भतिषेधः, चरमे तु भने भजना वक्ष्यमाणा । अत्रैवातिदेशं कुर्वनाहजह चेत्र य संजोगा कायाणं हेढओ य साहरणे । तह चेव य उम्मीसे होइ विसेसो इमो तत्थ ॥ ६०६ ॥ व्याख्या-यथा चैवाधः प्राक् संहरणद्वारे 'कायानां ' पृथिवीकायादीनां सचित्ताचित्चमिश्रभेदभिन्नानां स्वस्थानपर स्थानाभ्यां । संयोगा-भङ्गाः प्रदर्शिता द्वात्रिंशदधिकचतुःशतसङ्ख्याप्रमाणाः, तथैव 'उन्मिश्रितेऽपि ' उन्मिश्रद्वारेऽपि दर्शनीयाः, तद्यथा-सचित्तामाथिवीकायः सचिनथिवीकाये उन्मिश्रः, सचित्तपृथिवीकायः सचित्ताकाय उम्मिश्र इत्येवं स्वस्थानपरस्थानापेक्षया पत्रिंशसंयोगा। एकैकस्मिंश्व संयोगे सचित्तामिश्रपदाभ्यां सनित्ताचित्तपदाभ्यां च प्रत्येकं चतुर्भङ्गीति द्वादशभिर्गुणिता जातानि चत्वारि शतानि द्वा-12 त्रिंशदधिकानि, ननु संहते उन्मित्रे च सचित्तादिवस्तुनिक्षेपानास्ति परस्परं विशेषः, अत आह-'तर' तयोः संहतोन्मियोर्भवति || परस्परमयं विशेषो-वक्ष्यमाणः । तमेवाह दायव्वमदायव्वं च दोऽवि दवाइं देइ मीसेउं । ओयणकुसुणाईणं साहरण तयन्नहिं छोड़े ॥ ६०७ ॥ व्याख्या-' दातव्यं ' साधुदानयोग्यमितरत् अदातव्यं, तच्च सचित्तं मिश्रं तुषादिर्वा, ते हे अपि द्रव्ये मिश्रयित्वा यद्ददाति, दीप अनुक्रम [६४७] ~ 332~ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६४९] .. “नियुक्ति: [६०७] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: रीयावृत्तिः । प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६०७|| यथौदन कुशनेन-दध्यादिना मिश्रयित्वा तदुन्मिश्रम् , एवंविधमुन्मिश्रलक्षणमित्यर्थः, 'संहरण' तु यद्भाजनस्थमदेयं वस्तु तदन्यत्र एषणायां कर्मळयगि-कापि स्थगनिकादौ संहृत्य ददाति, ततोऽयमनयोः परस्पर विशेषः । द्वितीयकृतीयचीसत्कचतुर्भमननामाइ उन्मिय तैपि य सुके सुकं भंगा चत्तारि जह उ साहरणे । अपबहुएऽवि चउरो तहेव आइन्नऽणाइन्ने ॥१०८॥ दीपः meanा व्याख्या-यद्यचित्तेचितं मिश्रयति तदपि तत्रापि शुष्क शुष्क मिश्रिामित्येवं भावत्वारो यथा संहरणे, तथधा-शुष्क शुष्कमुन्मिश्र, शुष्के आर्द्रम्, आदें शुष्कम् आर्दै आईमिति । तत एकैकस्मिन् भने संहरणे इवात्साहुले अधिकृत्य चत्वारः' चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा-स्तोके शुष्के स्तोकं शुष्क, स्तोके शुष्के बहुकं शुष्क, बहुके शुष्के स्तोक शुष्क, बहुके शुफे बहुकं शुष्कमिति । एवं शुष्के आदमित्यादावपि भाषिके प्रत्येकं चतुभेङ्गी भावनीपा, सर्वसङ्घथया भङ्गाः पोडश, तथा तव संहरणे इवाऽऽचीर्णानाची-|| -कल्प्याकल्प्ये उन्मिश्रे ज्ञातव्ये, तद्यथा-शुष्के शुष्कमित्यादीनां चतुर्णी भङ्गानां प्रत्येकं यो द्वौ द्वौ भङ्गो स्तोके स्तोकमुन्मिश्र बहुके | स्तोकमित्येवंरूपों तो कल्प्पी दात्रीपीडादिदोषाभावात्, स्तोके बहुकं बहुके बहु कमित्येवंरूपौ तु या द्वादी भी तावकर पी, तत्र दात्री-|| पीडादिदोषसम्भवात, शेषा तु भावना यथासम्भवं संहरण इव द्रष्टव्या । उक्तमुन्मिश्रद्वारम्, इदानीमपरिणतद्वारमाह| अपरिणयंपिय विहं दवे भावे य दुविहमेकेक। दव्बंमि होई छकं भावंमि य होइ सझिलगा ॥६.९॥ | १ दातृमहीतृयोगादिति शेषः, तत्र द्रव्ये द्रव्यविषयं भवति पई सचेतनध्वी कायादिक, द्रव्यरूपत्वात्तस्य, भावे चाव्यवसाये पुन-8॥१६॥ भवति 'सझिलगा । भ्रातरी पक्ष्यमाणाः, भावाधारत्वेनोपचारास्सहोदराः, अछा गया तथा सम्बन्धिमादीनां सासम्बन्वितवाट की-|| यसायोश्च ग्रहः । दीप अनुक्रम [६४९] SAREaratunminational ~333~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६५१] .. “नियुक्ति: [६०९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६०९|| व्याख्या-अपरिणतमपि द्विविध, तद्यथा-' द्रव्ये ' द्रव्यविषयं भावे' भावविषय, द्रव्यमारिणतं भावतोऽपरिगत चेत्यर्थः पुनरप्येकै दावग्रहीत्सम्बन्पाद्विधा, तद्यथा-व्यापरिणतं दातृसक ग्रहीत्सक चएवं भावापरिणतरपि । तत्र द्रव्यापरिणतस्वरूपमाह| जीवत्तमि अधिगए अपरिणयं परिणयं गए जीवे । दिलुतो दुइदही इय अपरिणय परिणयं तं च ॥ ६१०॥ ___व्याख्या-'जीवत्वे ' सचेतनत्वे 'अविगते ' अभ्रष्टे पृथिवीकायादिक द्रव्यमपरिणतमुच्यते, गते तु जीवे परिणतम् । अत्र Aणतो दग्पदधिनी, यथा हि दुध दुग्यत्वात् परिन दविभावमापन्न परिणत मुख्यते, दुमभावे चावस्थितेऽारिणतम्, एवं प्रविधी-|| कायादिकमपि स्वरूपेण सजीव सजीवस्तापरिभ्रमपरिणतमुच्यते, जीवन विमनुक्तं परिणतमिति । तव यदा दातुः सत्तायां वचेते! तदा दातृसत्कं, यदा तु ग्रहीतु सत्तायां तदा ग्रहीतसत्कमिति । सम्पति दाविषयं भावापरिणतमाह दुगमाई सामन्ने जइ परिणमई उ तत्थ एगस्स । देमित्ति न सेसाणं अपरिणयं भावो एयं ॥ ६११ ॥ व्याख्या एवं द्विकादिसामान्ये' भ्रात्रादिद्विकादिसाधारणे देयवस्तुनि योकप कस्पचिद दामीत्येवं भावः परिणमति, न शेषाणां, एतद् भावतोऽपरिणतं, न भावापेक्षया देयतया परिणतमित्यर्थः । अब साधारणानिसस्प दातभावापरिणतस्य च का परस्पर प्रतिविशेषः, उच्यते, साधारणानिसृष्टं दायकपरोक्षवे, दातृभावापरिणां तु दायकसमक्ष इति । सम्मति ग्रहीतविषय भाषापरिणतमाह दीप अनुक्रम [६५१] ~334~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६५४] .→ “नियुक्ति: [६१२] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६१२|| दीप अनुक्रम [६५४] पिण्डनियु एगेण वाबि एसि मणमि परिणामियं न इयरेणं । तंपि हु होइ अगिज्झ सज्झिलगा सामि साहू वा ।। ६१२॥ कर्मळयगि एषणायां व्याख्या-एकेनापि केनचिदग्रेतनेन पाश्चात्येन वैषणीयमिति मनसि परिणामित, नेतरेण-द्वितीयेन, वदपि भावतोपरिणतमिति ८अपरिणरीयात्तिः कृत्वा साधूनामयार्दा, शान्तित्वात्कलहादिदोपसम्भवाच, सम्मति द्विविधस्यापि भावापरिणतस्य विषयमाह- सझिलगा इत्यादि तदापा १६६॥ तत्र दातृविषयं भाषापरिणतं भ्रातृविषयं स्वामिविषयं च, ग्रहीतविषयं भावापरिणतं साधुविषयम् । उक्तमपरिणतद्वार, सम्पति लिप्तदार वक्तव्यं, तत्र लिप्तं यत्र दध्यादिद्रव्यलेपो लगति, तच न ग्राह्य, यत आह घेत्तव्यमलेवकडं लेवकडे मा हु पच्छकम्माई । न य रसगेहिपसंगो इअ वुत्ते चोयगो भणइ ॥ ६१३ ॥ वा व्याख्या-यह साधुना सदैव ग्रहीतव्यमलेपकद्-वल्लचनकादि, माऽभूवन लेपकति गृह्यमाणे पश्चारकर्मादयो दध्यादिलितहस्ता-18 हादिप्रक्षालनादिरूपा दोषाः, आदिशब्दास्कीटिकादिसंसक्तवसादिना पोच्छनादिपरिग्रहः, अतो लेपकन ग्रहीतव्यम् । अलेपन्द्रहणे । गुणमाह-न च सदेवालेपकृतो ग्रहणे 'रसद्धिपसङ्गः । रसाभ्यवहारलाम्पठ्यवृद्धि, तस्मात्तदेव साधुभिः सदैवाभ्यवहार्यम् । एवमुक्ते सति चोदको भणति जइ पच्छकम्मदोसा हवंति मा चेव भुंजऊ सययं । तवनियमसंजमाणं चोयग! हाणी खमंतरस ॥ ६१४ ॥ का व्याख्या-यदि लेपकुदहणे पश्चारकर्मप्रभृतयो दोषा भवन्ति ततस्तन्न गृह्यते तहि मा कदाचनापि साधु ताम् । एवं हि | दोषाणां सर्वेषां मूलत एवोत्थानं निषिद्धं भवति, सूरिराह-हे चोदक ! सर्वकालं क्षपयतः अनशनतपोरूपं क्षपर्ण कुर्वतः साधोश्चिर ~335~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६५६] .. “नियुक्ति: [६१४] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६१४|| II कालभावितपोनियमसंयमानां हानिर्भवति, तस्मान्न यावज्जीवं क्षपणं कार्य । पुनरपि परः पाह-यदि सर्वकालं क्षपणं कर्तुमशक्तस्तहि || पासक्षपणं कृत्वा पारणकमलेपकृता विधत्ता, गुरुराह-यद्येवं कुर्वैस्तपःसंयमयोगान् कर्तुं शक्नोति तर्हि करोतु, न कोऽपि तस्य निषेद्धा, ततो भयोऽपि चौदको छूते-ययेवं तहि षण्मासानुपोष्याचाम्लेन भुङ्गा, न बेच्छनोति तत एकदिनादिहान्या तावत्परिभावयेत्। यावचतुर्थमुपोष्याचाम्लेन पारयेत्, एवमप्यसंस्तरणे सदैवालेपकृतं गृह्णीयात् । अमुमेव गाथया निर्दिशति__लितंति भाणिऊणं छम्मासा हायए चउत्थं तु । आयंबिलस्स गहणं असंथरे अप्पलेवं तु ॥ ६१५ ॥ | व्याख्या--लिप्तं सदोषमिति भणित्वाऽलेपकझोक्तव्यं तीर्थकरगणधरैरनुज्ञातमिति गुरुवचनम् । अत्र चोदक आह-पावजीवमेव मा भुङ्गा, नो चेत यावज्जीवमभोजनेन शक्रोति तर्हि षण्मासानुपोष्य आचाम्लेन भुङ्गा, न चेदेवमपि शक्नोति तत एकदिनादिहान्या तावदा1 त्मानं तोलयेत् यावश्चतुर्थमुपोष्याचाम्लस्य ग्रहण करोतु, एवमप्यसंस्तरणे-भशक्तावल्पलेपं गृह्णातु । एनामेव गाथां गाथाद्वपेन विद्वणोतिका आयंबिलपारणए छम्मास निरंतरं तु खविऊणं । जइ न तरइ छम्मासे एगदिणूणं तओ कुणउ ॥ ६१६॥ | एवं एकेकदिणं आयंबिलपारणं खदेऊणं । दिवसे दिवसे गिण्हउ आयंबिलमेव निल्लेवं ॥ ६१७ ॥ | व्याख्या--यदि सर्वकालं क्षपणं कर्तृमशक्तस्ताई पण्मासानिरन्तरं क्षपयित्वा पारणके आचाम्लं करोतु, यदि षण्मासानुपवस्तु न । शक्नोति तत एकदिनोनान् करोतु, एवं पण्मासावधिरेकै दिन परित्यज्याचाम्लेन पारणकं तावत्करोतु यावचतुर्थ, एवमप्यसामर्थे दिवसे दिवसे गृह्णात्वाचाम्लं निलेपमिति ।। गुरुराह दीप अनुक्रम [६५६] ~336~ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६६०] .. “नियुक्ति: [६१८] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: ८ अपरि प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६१८|| पिण्डनियु-31 जइ से न जोगहाणी संपइ एसे व होइ तो खमओ । खमणंतरेण आयंबिलं तु निययं तवं कुणइ ॥ ६१८॥ एषणायां तर्मकयनि __ व्याख्या-यदि 'से' तस्य साधो 'सम्मति' तदात्वे एष्यति वा काले न योगहानिः-प्रत्युपेक्षणादिरूपसंयमयोगभ्रंशो न रीयादृत्तिः भवति तर्हि भवतु क्षपका--षण्मासाद्युपचासको । तत्र च क्षपणानामेककदिनहान्या पूर्वोक्तस्वरूपाणामन्तरान्तरा पारणकमाचाम्लाणतदाषः करोतु, एवमप्यशक्ती 'नियत' सदैवाचाम्लरूपं तपः करोतु, केवलं सम्मति सेवार्चसंहननानां नास्ति तादृशी शक्तिरिति न तथोपदेशो | ॥१६७॥ विधीयते | पुनरपि पर आइहेट्ठावणि कोसलगा सोवीरगफूरभोईणो मणुया । जइ तेऽवि जति तहा कि नाम जई न जाविति ? ॥ ६१९॥ ____ व्याख्या-'अधोऽवनयः' महाराष्ट्रा: 'कोशलका:' कोशलदेशोद्भवाः सदैव सौवीरककूरमात्रभोजिनः तेऽपि च सेवात्तसंहननाः, ॥ ततो यदि तेऽपीत्थं यापयन्ति यावज्जीवं तर्हि तथा-सौवीरककूरमात्रभोजनेन किन यतयो मोक्षगमने कबद्धकक्षा यापयन्ति !, तेः मुतरामेवं यापनीय, प्रभूतगुणसम्भवात् । अत्र सूरिराइतिय सीयं समणाणं तिय उण्ह गिहीण तेणणुन्नायं । तत्काईणं गहणं कट्टरमाईसु भइयत्वं ॥ ६२०॥ व्याख्या-त्रिक-वक्ष्यमाणं शीतं श्रमणानां, तेन प्रतिदिवसमाचाम्लकरणे तक्रायभावत आहारपाकासम्भवेनाजीर्णादयो दोषाः ॥१६॥ मादुष्पन्ति, वदेव त्रिकमुष्णं गृहिणां तेन सौवीरकूरमात्रभोजनेऽपि तेषामाहारपाकमावतो नाजीर्णादिदोषा जायन्ते, ततस्तेषां तथा यापयतामपि न कश्चिदोषः । साधूनां तूतनीत्या दोषः, तेन कारणेन तक्रादिग्रहणं साधूनामनुज्ञातम् । इह पायो यतिना विकृतिपरि-1 दीप अनुक्रम [६६०] ~337~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६६३] .. “नियुक्ति: [६२१] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६२१|| भोगपरित्यागेन सदैवात्मशरीरं यापनीयं, कदाचिदेव शरीरस्या गटवे संयमयोगद्धिनिमित्वं बलाधानाय विकृतिपरिभोगः, तथा साचोम अभिक्खणं निधिगई गया य' इति, विकृतिपरिभोगे च तक्रायेवोपयोगीति तक्रादिग्रहणं, 'कट्टरादिषु' घृतवटिकोमिश्रतीमनादिषु ग्रहणं भाज्य-विकल्पनीयं, ग्लानत्वादिप्रयोजनोत्पची कार्य, न शेषकालमिति भावः, तेषां बहुलेपत्तात् गृद्धयादि. जनकत्वाच्च । अथ किं तत्त्रिकम् ?, इत्यत आह| आहार उवहि सेज्जा तिष्णिवि उण्हा निहींण सीएऽवि। तेण उ जीरइ तेसि दुहओ उसिणेण आहारो॥ ६२१॥ व्याख्या-आहार उपधिः शय्या एतानि त्रीण्यपि गृहिणां शीतेऽपि शीतकालेऽयुष्णानि भवन्ति, तेन तेषां तकादिग्रहणमन्तरेTणापि 'दुइओति उभयतो वाद्यतोऽभ्यन्तरतश्च 'उष्णेन' तापेनाहारो जीयते, तत्राभ्यन्तरो भोजनवशाद , बायः शय्योपविशात् ।। एयाई चिय तिन्निवि जईण सीयाइं होति गिम्हेवि । तेणुवहम्मइ अग्गी तओ य दोसा अजीराई ॥ ६२२ ॥ व्याख्या-एतान्येषाहारोपषिशय्यारूपाणि त्रीणि यतीनां 'ग्रीष्मेऽपि ' ग्रीष्मकालेऽपि शीतानि भवन्ति, तत्रादारस्य शीतता भिक्षाचर्यायां प्रविष्टस्य बहुषु गृहेषु स्तोकस्तोकलाभेन बृद्धेिलालगनात्, उपपिरकमेव वारं वर्षमध्ये वर्षाकालादर्वाक् प्रक्षालनेन मलिनत्यात् शय्यायास्तु प्रत्यासमानिकरणाभावेन, तेन कारणेन ग्रीष्मकालेऽप्पाहारादीनां शीतत्वसम्भवरूपेणोपहन्यते 'अग्निः' जाठरो चतिः, तस्माचाग्न्युपघातादोषाः 'अजीर्णादयः' अजीर्णबुभुक्षामान्यादयो जायन्ते, ततस्तकादिग्रहणं साधूनामनुज्ञातं, तक्रादिनापि हि जाठरोऽग्निरुद्दीप्यते, तेषामपि तथास्वभावत्वात् । सम्मत्पलेपानि द्रव्याणि प्रदर्शयति 000000000000000000००००००००००००० दीप अनुक्रम [६६३] ~338~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६२३|| दीप अनुक्रम [६६५ ] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) → “निर्युक्तिः [ ६२३] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [ ६६५] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित पिण्डनिर्युकेर्मलयगि रीयावृत्तिः ।। १६८ ।। ओयण मंडग सत्तुग कुम्मासा रायमास कल बल्ला । तूयार मसूर मुग्गा मासा य अलेवडा सुक्का ॥ ६२३ ॥ व्याख्या --- ' ओदनः तण्डुलादिभक्तं ' मण्डकाः ' कणिकमयाः प्रतीता एव ' सक्तवः ' यवक्षोदरूपाः 'कुल्माषाः ' उडदाः राजमापा: ' सामान्यतश्चवलाः श्वेतचवलिका वा, 'कला' वृत्तचनकाः, सामान्येन वा चनकाः 'वहाः' निष्पावाः, 'तुवरी' आढकी 'मसूरा' द्विदलविशेषा मुद्रा मापाश्च प्रतीताः चकारादन्येऽप्येवंविधाः धान्यविशेषाः शुष्का अनार्द्रा अलेपकृतः । सम्मत्यल्पलेपानि द्रव्याणि प्रदर्शयति उभिज्ज पिज्ज कंगू तोल्लुणसूत्र कंजिकढियाई । एए उ अप्पलेवा पच्छाकम्मं तर्हि भइयं ॥ ६२४ ॥ व्याख्या- ' उद्धेषा' वस्तु लमभृतिशाकभर्जिका 'पेया: 'यूवागूः 'कंगू' कोद्रवौदनः 'तर्क' तक्राख्यम् ' उल्लणं 'येनौदनमाद्रींकृत्योपयुज्यते 'सूपः ' राद्धमुद्रदाल्यादिः 'काखिकं' सौवीरं 'क्वथितं ' तीमनादि, आदिशब्दादन्यस्यैवंविधस्य परिग्रहः, एतानि द्रव्याण्यल्पलेपानि । एतेषु पश्चात्कर्म भाज्यं कदाचिद्भवति कदाचिन्नेति भावः । सम्प्रति बहुलेपानि द्रव्याणि दर्शयति खीर दहि जाउ कट्टर तेल घयं फाणियं सपिंडरसं । इच्चाई बहुलेवं पच्छाकम्मं तर्हि नियमा ॥ ६२५ ॥ व्याख्या' क्षीरं ' दुग्ध ' दधि' प्रतीतं ' जाउ' क्षीरपेया 'कट्टरं' प्रागुक्तस्वरूपं तैलं घृतं च प्रतीतं, 'फाणितं ' गुडपानकं 'सपिण्डरसम् ' अतीव रसाधिकं खर्जूरादि इत्यादि द्रव्यजातं बहुलेपं द्रष्टव्यं । तत्र च पश्चात्कर्म नियमतः, अत एव यतयो दोषभीरवस्तानि न गृह्णन्ति । यदुक्तं पच्छाकम्मं तर्हि भइयं 'ति सम्मति तामेव भजनामष्टमकिपा दर्शयति For Penal Use On ~339~ ० एषणायां अपरि गते अले पाल्प बहुलेपानि ॥१६८॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६६८] → “निर्युक्ति: [६२६] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६२६|| संसट्टेयर हत्थो मत्तो विय दव्व सावसेसियरं । एएसु अह भंगा नियमा गहणं तु ओएसु ॥ ६२६॥ व्याख्या-दातः सम्बन्धी इस्तः संमष्टोऽसंमृष्टो वा भवति, मात्रकमपि च येन कृत्वा भिक्षा ददाति तदपि मात्र संमृष्टमसंसृष्टं। बा. ट्रव्यमपि सावशेष निरवशेष वा, एतेषां च त्रयाणां पदान्न संसृष्टहस्तसंसृष्टमाप्रसावशेषद्रव्यरूपाणां सप्रतिपक्षाणां परस्परं संयोगतोऽष्टौ । बाभक्षा भवन्ति, ते चामी-संसो हस्त: संसृष्टं मात्र सावशेष द्रव्यं १, संसृष्टो हस्त: संमई मात्र निरवशेष द्रव्यं २, संझटो हस्तोऽसंसृष्टं । मात्रं सावशेष द्रव्यं २, संसृष्टो हस्तोऽसंसृष्टं मात्र निरवशेष द्रव्यं ४, असंमष्टो हस्तः संसृष्ट मात्र सावशेष द्रव्यं ६, असंपृष्टो हस्त: संमदं । कामात्र निरवशेष द्रव्यं ६, असंमष्टो हस्तोऽसंसृष्ट मात्र सावशेष द्रव्यं ७, असंसृष्टो इस्तोऽसंमष्टं मात्र निरवशेष द्रव्यं ८, एतेषु चाष्टमी भङ्गेषु मध्ये 'नियमात् ' निश्चयेन 'ओजस्सु' विषमेषु भङ्गेषु प्रथमतृतीयपञ्चमसप्तमेषु 'ग्रहणम् ' आदानं कर्त्तव्यं, न समेषु-द्वितीय चतुर्थषष्ठाष्टमरूपेषु, इयं चात्र भावना-इह इस्तो मात्र चा द्वे वा खयोगेन संसृष्टे वा भवतोऽसमष्टे वा न तदशेन पश्चारकर्म सम्भवति, किं हात ?-ट्रव्यवशेन, तथादि-पत्र द्रव्यं सावशेष तौते साध्वष खरष्टिते अपि न दात्री पक्षालपति, भूयोऽपि परिवेषणसम्भवान, यत्र || तु निरवशेष द्रव्यं तत्र साधुदानानन्तरं नियमतस्तद्रव्याधारस्थाली हस्तं मात्र या पक्षालयति, ततो द्वितीयादिषु भङ्गेषु द्रव्ये निरवशेषे । पश्चात्कर्मसम्भवान कल्पते, प्रथमादिषु तु पश्चारकर्मासम्भवात्कल्पते इति । उक्तं लिप्तद्वारम्, अथ छतिद्वारमाह सञ्चित्ते अश्चित्ते मीसग तह छडणे य चउभंगो। चउभंगे पडिसेहो गहणे आणाइणो दोसा ॥ १२७॥ व्याख्या-छर्दितमुज्झितं त्यक्तमिति पर्यायाः, तच्च त्रिधा, तद्यथा-सचित्तमचिचं मिश्र च, तदपि च कदाचिच्छर्यते 'सचित्त || दीप अनुक्रम [६६८] ~340~ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६६९] .. “नियुक्ति: [६२७] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत कर्मकयगि गाथांक नि/भा/प्र ||६२७|| दीप पिण्डनियु- सचित्तमध्ये कदाचिदचित्ते कदाचिम्मिश्रे, तत एवं छईने सचित्ताचित्तमिश्रद्रव्याणामावारभूतानामाधेयभूतानां च संयोगतचतुर्भङ्गी एषणाया भवति, अत्र जाताचेकवचनं, ततोऽयमर्थः-तिस्रचतुर्भङ्गयो भवन्ति, तद्यथा-सचित्तमिश्रपदाभ्यामेका, सचित्ताचितपदाभ्यां द्वितीया, ९लिमछरापाटातः । मिश्राचित्तपदाभ्यां तृतीया, तत्र सचिचे सचित्तं छदितं मिश्रे सचित्तं सचित्ते मिश्र मिश्रे मिश्रमिति प्रथमा, सचिचे सचिनम् अचित्तेदिता सचित्तं सचित्तेऽचित्तम् अचित्तेऽचित्तमिति द्वितीया, मित्रे मिश्रम् अचिते मिश्र मिश्रेऽचित्तम् अचित्तेऽचिचमिति तृतीया, सर्वसङ्ख्यया द्वादश भङ्गा, सर्वेषु च भङ्गेषु सचित्तः पृथिवीकायः सचिचपृथिवीकायमध्ये छर्दित इत्यादिरूपतया स्वस्थानपरस्थानाभ्यां पत्रिंशत् पत्रिंशद्विकल्पाः, ततः पत्रिंशद्वादशभिर्गुणिता जातानि चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदधिकानि । एतेषु च सर्वेषु भङ्ग प्रतिषेधो-भक्तादिग्रहणनिवारणं, यदि पुनर्ग्रहणं कुर्यात्ततः 'आज्ञादयः' आज्ञाऽनवस्वामिथ्यात्वविराधनारूपा दोपाः । इह 'आयन्तिग्रहणे मध्यस्यापि ग्रहण 'मिति न्यायादौदेशिकादिदोषदुष्टानामपि भक्तादीनां ग्रहणे आज्ञादयो दोपा द्रष्टव्याः । सम्मति बर्दित-18 ग्रहणे दोषानाह-- उसिणस्स छड्डणे देतओ व डझेज्झ कायदाहो वा । सीयपडणंमि काया पडिए महुबिंदुआहरणं ॥ ६२८॥ व्याख्या-उष्णस्य द्रव्यस्य 'छर्दने' समझने ददमानो वा भिक्षा दह्यते, भूम्याश्रितानां वा 'कायानां' पृथिव्यादीनां दाहः || स्यात्, शीतद्वग्यस्य भूमी पतने भूम्याश्रिताः 'काया:' पृथिव्यादयो विराध्यन्ते, तत्र पतिते मधुपिन्दूदाहरण-वारत्तपुरं नाम नगरं, ॥१६॥ तत्राभयसेनो नाम राजा, तस्यामात्यको वारत्तकः, अन्यदा चात्वरितमचपलमसम्भ्रान्तमेषणासमितिसमेतो धर्मघोषनामा संयतो भिक्षामहस्तस्य गृह माविक्षत् , तद्भार्या च तस्मै भिक्षादानाय घृतखण्डसम्मिश्रपायसभृतं स्थालमुस्पाटितवती, अत्रान्तरे च कथमपि ततः अनुक्रम [६६९] Miamana ~341~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६७०] .→ “नियुक्ति: [६२८] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६२८|| दीप अनुक्रम [६७०] खण्डसम्मिश्री घृतविन्दुर्भूमौ निपतितः, ततो भगवान् धर्मयोको मुक्तिदैकनिहितमानसो जलपिरिव गम्भीरो मेरुरिव निष्पकम्पो वसुधेव सर्वसहः शङ्ख इव रागादिभिररञ्जनो महासुभट इब कर्मरिपुविदारणनिबद्धकक्षो भगवदुपदिष्टभिक्षाग्रहणविधिविधानकृतोद्यमो भिक्षेयं छर्दितदोषदृष्टा तस्मान मे कल्पते इति परिभाव्य ततो निजंगाम, वारत्तकेन चामात्येन मत्तवारणस्थितेन दृष्टो भगवान् निर्ग-18 छन, चिन्तयति च स्वचेतसि-किमनेन भगवता न गृह्यते स्म मे गृहे भिक्षेति ?, एवं च यावचिन्तयति तावतं भूमौ निपतितं खण्ड-181 युक्तं घृतबिन्दु मलिकाः समागत्याशिश्रियन् , तासां च भक्षणाय प्रधाविता गृहगोधिका, गृहगोधिकाया अपि वधाय प्रधावितः सरट: सरटस्यापि च भक्षणाय प्रधावति स्म माजोरी, तस्या अपि च वधाय प्रधावितः माघूर्णकः श्वा, तस्यापि च प्रतिद्वन्दी प्रभावितोऽन्यो। वास्तव्यः श्वा, ततो द्वयोरपि तयोः शुनोरभूत् परस्परं कलदः, ततः स्वस्वसारमेयपराभवदूनमनस्कतया मधावितयोयोरपि तत्स्वामिनोरभूत परस्परमस्थसि युद्धम्, एतच सर्वं वारत्तकामात्येन परिभावितं, ततश्चिन्तयति स्त्रचेतसि-घृतादेषिन्दुमात्रेऽपि भूमौ निपतिते यत एवमधिकरणपत्तिः अत एवाधिकरणभीरुभेगवान् घृतविन्दुं भूमौ निपतितमवलोक्य भिक्षा न गृहीतवान् , अहो ! सुदृष्टो भगवता धर्मः, Malको हि नाम भगवन्तं सर्वज्ञमन्तरेणेत्थमनपायिनं धर्ममुपदेष्टुमीशः?, न खल्वंधो रूपविशेष जानाति, एवमसर्वोऽपि नेत्थं सकल कालमनपायं धर्ममुपदेष्टुमलं, तस्माद्भगवानेव सर्वज्ञः, स एव च मे जिनो देवता, तदुक्तपेवानुष्ठानं मयाऽनुष्ठातव्यमित्यादि विचिन्त्य संसारविमुखमझो मुक्तिवनिता श्लेषमुखलम्पटः सिंह इव गिरिकन्दराया निजमासादाद्विनिर्गत्य धर्मघोषस्य साधोरुपकण्ठं प्रवज्यामग्रहीत , स च महात्मा शरीरेऽपि निःस्पृहो यथोक्तभिक्षाग्रहणादिविधिसेवी संयमानुष्ठानपरायणः स्वाध्यायभावितान्तःकरणो दीर्घकालं संयममनुपाल्य जातपतनुकर्मा समुच्छलितदुर्निवार्यवीर्यप्रसरः क्षपकश्रेणिमारुह्य घातिकर्मचतुष्टयं समूलघातं हत्या, केवलक्षानलक्ष्मीमासा-2 ~342~ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६७०] .→ “नियुक्ति: [६२८] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६२८|| दीप अनुक्रम [९७०] पिण्डनियु-दितवान् , ततः कालक्रमेण सिद्ध इति । उक्तमेप्रणाद्वारं, सम्मति संयोजनादीनि द्वाराणि वक्तव्यानि, तानि च प्रासैपणारूपाणीति बाषणातर्मळ्यगि- प्रथमतो ग्रासैषणाया निक्षेपमाह | यामेषणारीयावृत्तिः | णाम ठवणा दविए भावे घासेसणा मुणेयव्वा । दब्वे मच्छाहरणं भावमि य होइ पंचविहा ॥ ६२९ ॥ निक्षेपाः ॥१७॥ व्याख्या-ग्रासैषणा चतुर्दा, तयथा-नामग्रासैपणा स्थापनायासैषणा ' द्रव्ये ' द्रव्यविषया ग्रासैषणा 'भावे' भावविषया | ग्रासैपणा । तत्र नामग्रासैषणा स्थापनाग्रासैपणा द्रव्यग्रासैषणाऽपि यावद्भव्यशरीररूपा ग्रहणेषणेव भावनीया, शरीरभव्यशरीरव्यति-15 रिक्तायां तु ग्रासैषणायां मत्स्यः 'उदाहरणं' दृष्टान्तः । भावविषया पुनासैपणा द्विधा, तद्यथा-आगमतो नोआगमतच, तत्रागमतो ज्ञाता तब चोपयुक्तः, नोआगमतो द्विधा, तद्यथा-प्रशस्ताऽप्रशस्ता च, सत्र प्रशस्ता संयोजनादिदोषरहिता, अप्रशस्ता संयोजनाकादिरूपा, तामेव निर्दिशति-'भावमि य' इत्यादि, भावे-भावविषया पुनः ग्रासैषणा 'पञ्चविधा ' संयोजनादिभेदात पञ्चप्रकारा । तत्र द्रव्यग्रासैपणोदाहरणस्य सम्बन्धमाह चरियं व कप्पियं वा आहरणं दुविहमेव नायव्वं । अत्थस्स साहणहा इंधणमिव ओयणढाए ॥६३० ।। व्याख्या-इह विवक्षितस्यार्थस्य 'साधनार्थ' प्रतिपादनार्थ द्विविधमुदाहरणं ज्ञातव्यं, तयधा-चरितं कल्पितं च, कथमिव १७॥ विवक्षितस्यार्यस्य प्रसाधनायोदाहरणं भवतीत्यत आह-'इन्धनमिव ओदनार्थम् ' इन्धनमिवौदनस्येति भावः, तत्र प्रस्तुतस्पार्थस्य । मापसाधनाथमिदं कल्पितमुदाहरणं-कोऽप्येको मत्स्यबन्धी मत्स्यग्रहणनिमित्तं सरो गतवान्, गत्वा च तेन तटस्थेनाप्रभागे मांसपेशी-|| अथ ग्रासैषणा विषयक दोष-आदि वर्णनं विस्तरेण वर्णयते ~343~ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६७३] .. “नियुक्ति: [६३१] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६३१|| समेतो गल: सरोमध्ये प्रचिक्षिपे, तत्र च सरसि परिणतबुद्धिरेको महादक्षो जीर्णमत्स्यो वर्तते, स गलगतमांसगन्धमाघ्राय तद्भक्षणार्थ । गलस्य समीपमुपागत्य यत्नतः पर्यन्ते पर्यन्ते सकलमपि मांसं खादित्वा पुच्छेन च गलमाइस्प दूरतोऽपचक्राम, मत्स्यबन्धी च गृहीतो॥ गलेन मत्स्य इति विचिन्त्य गलमाकृष्टवान्, पश्यति मत्स्यमांसपेशीरहितं गलं, खतो भूयोऽपि मांसपेशीसहितं गलं पचिक्षेप, तथैव च स मत्स्यो मांसं खादित्वा पुच्छेन च गलमाहत्य पलायितवान् , एवं त्रीन् वारान् मत्स्यो मांसं खादितवान्, न च गृहीतो मत्स्यबन्धेन। अह मंसमि पहीणे झायंत मच्छियं भणइ मच्छो । किं झायसि तं एवं सुण ताव जहा अहिरिओऽसि ॥६३१॥ व्याख्या-अथ मांसे भक्षीणे ध्यायन्तं मात्स्यिक मत्स्यो भणति, यथा किं त्वमेव 'ध्यायसि' चिन्तयसि ?, शृणु तावद्यथा| त्वम् ' अहीका ' निर्लज्जो भवसि ।। तिबलागमुहम्मुक्को, तिक्खुत्तो वलयामहे । तिसत्तक्खुत्तो जालेणं, सइ छिन्नोदए दहे ॥ ६३२ ॥ व्याख्या-अहमेकदा त्रीन वारान् वकाकाया मुखादुन्मुक्तः, तथाहि-कदाचिदई बलाकया गृहीतः, तया (वः) तया मुखे प्रक्षेपार्थका मुमक्षिप्तस्ततो मया चिन्तितं-ययामजुरेवास्या मुखे निपतिष्यामि तर्हि पतितोऽयं मुखे इति न मे प्राणकशर्क. तस्मात्तिर्यग्निपतामीत्येवं । विचिन्त्य दक्षतया तथैव कृतं, परिभ्रष्टस्तस्या मुखाचतो भूयोऽपि तयो मुक्षिप्तस्तथैव च द्वितीयमपि वारं मुखात्परिभ्रष्टा, तृतीयवेलायां तु जले निपतितस्ततो दूरं पलायितः, तथा 'विकृत्वः' श्रीन वारान् 'वलयामुखे' वेलामुखे भ्राष्ट्ररूपे निपतितोऽपि दक्षतया शीघ्र बेल-11 येव सह विनिर्गतः, तथा 'त्रिसप्तकृत्वा एकविंशतिवारान् मात्स्यिकेन पक्षिप्त जाले पतितोऽपि यावन्नायापि स मत्स्यबन्धी संको-11 100000000000000000000000000 दीप अनुक्रम [६७३] ~344~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६७४] .. “नियुक्ति: [६३२] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत पिण्डनियुतमेलयगि- रीयात्तिः गाथांक नि/भा/प्र ॥१७॥ ||६३२|| चयति जालं तावद्येनैव पधा प्रविष्टस्तेनैव ततो जालाद्विनिर्गतः, जालेनेति तृतीया पञ्चम्पर्वे द्रष्टव्या, तथा सक-एकवारं मात्स्यिकेनग्रासैषणायां इदजलमन्यत्र सञ्चार्य तस्मिन् हदे छिनोदके बहुभिर्मत्स्यैः सहाहं गृहीतः, स च सर्वानपि तान् मत्स्यानेकत्र पिण्टीकृत्य तीक्ष्णाय:- द्रव्यदणायां शलाकायां भोतयति, ततोऽई दक्षतया यथा स मात्स्यिको न पश्यति तथा स्वयमेव तामयाशलाकां वदनेन लगित्वा स्थितः स च मत्स्यहमात्स्यिकस्तान् मत्स्यान कर्दमलितान् प्रक्षालयितुं सरसि जगाम, तेषु च प्रक्षाल्यमानेष्वन्तरमवज्ञाय अटित्येव जलमध्ये निमनवान् । टान्त: एयारिसं ममं सत्तं, सदं घट्टियघट्टणं । इच्छसि गलेण घेत्तं, अहो ते अहिरीयया ॥ ६३३ ॥ व्याख्या--एतादृशं पूर्वोक्तस्वरूपं मम सत्त्वं 'शट' कुटिलं घट्टितस्य-धीवरादिकृतस्योपायस्य घट्टन-चालक, ततस्त्वमिच्छसि मां गलेन ग्रहीतृमित्यहो । ते तव 'अहीकता' निर्लज्जतेति । तदेवमुक्तो द्रव्यग्रासैषणाया दृष्टान्तः, सम्पति भावग्रासेषणायामुपनयः क्रियते-पत्स्यस्थानीयः साधुर्मासस्थानीय भक्तपानीय मात्स्यिकस्थानीयो रागादिदोपगणः, यथा न छलितो मत्स्य उपायशतेन तथा साधुरपि भक्तादिकमभ्यवहरन्नात्मानमनुशास्तिप्रदानेन रक्षयेत् । तामेवानुशास्ति प्रदर्शयति| बायालीसेसणसंकडंमि गहणमि जीव ! न हु छलिओ। इहि जह न छलिज्जसि भुजंतो रागदोसेहिं ॥६३४॥ व्याख्या-इपणाग्रहणेन एषणागता दोषा अभिधीयन्ते, ततोऽयमर्थः-द्विचत्वारिंशवसङ्ख्या ये एषणादोषा गवेषणाग्रहणैपणा-६ ॥१७॥ दोषास्तै: ' सङ्कटे' विषमे 'ग्रहणे' भक्तपानादीनामादाने हे जीव! त्वं नैव छलितः, तत इदानी सम्पति भुञ्जानो रागद्वेषाभ्यां यथा न उल्पसे तथा कर्त्तव्यं । सम्प्रति तामेव भावग्रासैपणां प्रतिपादयति दीप अनुक्रम [६७४] ~345~ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६७७] .. “नियुक्ति: [६३५] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६३५|| घासेसणा उ भावे होइ पसत्था तहेव अपसत्था । अपप्तत्था पंचविहा तधिवरीया पसत्या उ॥ ६३५॥ व्याख्या-भावे' भावविषया ग्रासैषणा द्विविधा, तपधा-प्रशस्ताऽप्रशस्ता च, सत्रामशस्ता पञ्चविधा संपोजनातिबहकाकार| धूमनिष्कारणरूपा, तद्विपरीता संयोजनादिदोषरहिता प्रशस्ता । सम्पति संयोजनामेव व्याचिरुपामुः प्रथमतस्तस्या निक्षेपमाह दव्वे भावे संजोअणा उ दुब्वे दुहा उ बहिअंतो। भिक्खं चिय हिंडतो संजोयतमि बाहिरिया ॥ ६३६ ॥ व्याख्या-संयोजना द्विधा, तद्यथा-'द्रव्ये ' द्रव्यविषया 'भावे' भावविषया, तत्र 'द्रव्ये द्रव्यविषया संयोजना द्विविधा, तद्यथा-वहिरन्तश्च, तत्र यदा भिक्षार्थमेव हिण्डमानः सन् क्षीरादिकं खण्डादिभिः सह रसग्रद्धया रसविशेषोत्पादनाय संयोजयति एषा बाह्या' बहिर्भवा संयोजना । एनामेव स्पष्टं भावयति खीरदहिसूवकट्टरलंभे गुडसप्पिवडगवालुंके । अंतो उ तिहा पाए लंबण वयणे विभासा उ ॥ ६३७ ॥ _व्याख्या-क्षीरदधिसूपानां' प्रतीतानां कट्टरस्य-तीमनोन्मिश्रवृतवटिकारूपस्य देशविशेषासिद्धस्य लाभे सति तथा गुडसपिटकवालुङ्कानां च प्राप्तौ सत्या रसगृद्धचा रसविशेषोत्पादनायानुकूलद्रव्यैः सह संयोजनां यत्करोति बहिरेव भिक्षामटन् एषा बाह्या द्रव्यसंयोजना | अभ्यन्तरा पुनर्यदसतावागत्य भोजनवेलायां संयोजयति, तथा चाह- अन्तस्तु' अभ्पन्तरा पुनः संयोजना 'त्रिया। त्रिप्रकारा, तद्यथा-पात्रे लम्बने बदने च, नवरं 'लम्बनं कवलः, ततोऽस्यास्त्रिविधाया अपि 'विभाषा' व्याख्या कर्त्तव्या, सा चैवं-1 दीप अनुक्रम [६७७] ~346~ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६८०] .→ “नियुक्ति: [६३८] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु- कर्मळयगि- रीयावृत्तिः यद्रव्यं यस्य द्रव्यस्य रसविशेषाधायि तत्तेन सह पात्रे रसगृद्धया संयोजयति, यथा सुकुमारिकादिक खण्डादिना सह, एषा पात्रेऽभ्य- तरा संयोजना, यदा तु हस्तगतमेव कवलतयोत्पाटितचूर्णं सुकुमारिकादि खण्डादिना सह संयोजयति तदा कवलेऽभ्यन्तरा संयो- जना, यदा पुनर्वदने कवलं प्रक्षिप्य ततः शालनक प्रक्षिपति यदा मण्डकादिकं पूर्व प्रक्षिप्य पश्चाद्गुडादिकं प्रक्षिपति एषा वदनेऽभ्य- तरा संयोजना । एषा च द्रव्यसंयोजना समस्ताऽप्यप्रशस्ता, यतोऽनयाऽऽत्मानं रागद्वेषाभ्यां संयोजयति ॥ तथा चामुमेव दोष ग्रासैषणाया १ संयोजना प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६३८|| ॥१७२॥ वक्तकाम आह दीप अनुक्रम [६८०] संयोयणाए दोसो जो संजोएइ भत्तपाणं तु । दुव्वाई रसहेउं वाघाओ तस्सिमो होइ ॥ ६३८॥ व्याख्या--'संयोजनायां' प्रागुक्तस्वरूपायामयं दोषः-'दम्बाई रसहेउ 'न्ति, अत्रार्थत्वादादिशब्दस्य व्यत्यासेन योजना, ततोऽयमर्थः-द्रव्यस्य सुकुमारिकादेः रसहेतोः-रसविशेषोत्पादनाय, आदिशब्दाच्छुभगन्धादिनिमित्तं च, यो भक्तं पानं चानुकूलद्रव्येण खण्डादिना सह संयोजयति तस्य साधोरयं-वक्ष्यमाणः 'व्याघातः' दीर्घदुःखोपनिपातरूपो भवति ॥ तमेव भावयन भावसंयोजनामप्याहसंजोयणा उ भावे संजोएऊण ताणि दव्वाइं । संजोयइ कम्मेणं कम्मेण भवं तओ दुक्खं ॥ ६३९ ॥ ॥१७२॥ व्याख्या-तानि हि सुकुमारिकाखण्डादीनि द्रव्याणि रसगृद्धया संयोजयन्नात्मानमप्रशस्तेन गृद्धयात्मकेन भावेन संयोजयति, || एषा भावे' भावविषया संयोजना, ततस्तानि द्रव्याणि तथा संयोज्यात्मनि 'कर्म' ज्ञानावरणीयादिक 'संयोजयति ' सम्बनाति, REaratunmutarina ~347~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६८१] .. “नियुक्ति: [६३९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६३९|| कर्मणा च संयोजयति भवं ' दीर्घतरं संसार, तस्माच्च भवादीर्घतरसंसाररूपात् 'दुःखम् ' असा संयोजयति, ततो यो द्रव्यसंयोजना Jell करोति तस्येत्थमनन्तकालसंवेद्यो दुःखनिपात इति । सम्पत्यस्या एव द्रव्यसंयोजनाया अपवादमाह। पत्ते य पउरलंभे भुत्तुव्वरिए य सेसगमणट्ठा । दिट्ठो संजोगो खलु अह कम्मो (कमो) तस्सिमो होइ ॥६४०॥ ___ व्याख्या-'प्रत्येकम् ' एकैकं साधुसङ्घाटकं प्रति 'प्रचुरलाभे' विपुलघृतादिप्राप्तौ सत्यां यदि कथमपि भुक्ते सति 'चः' समुवाये शेष-उद्धरितं भवति, ततस्तस्य शेषस्य निर्गमनाथ दृष्टः-अनुज्ञातस्तीर्थकरादिभिः खलु संयोगः, उद्धरितं हि घृतादि न खण्डा दिकमन्तरेण मण्डकादिभिरपि सह भोक्तं शक्यते, प्रायस्तृप्तत्वात न च परिष्ठापनं युक्तं, घृतादिपरिष्ठापने स्निग्धत्वात् पश्चादपि । कीटिकादिसत्त्वव्याघातसम्भवेन बृहत्तरप्रायश्चित्तसम्भवात् , तत उद्धरितघृतादिनिर्गमनार्थ खण्डादिभिरपि तस्य संयोजन न दोषाय-| एष तावदयमपवादः संयोजनायाः । अथान्योऽपि तस्य संयोगस्यायं-वक्ष्यमाणः क्रमो भवन परिपाटीरूपो भवति ।। तमेवाह रसहेउं पडिसिहो संयोगो कप्पए गिलाणट्ठा । जस्स व अभत्तछंदो सुहोचिओऽभाविओ जो य ॥ ६४१॥ व्याख्या-रसहेतोः गृद्धया रसविशेषोत्पादनाय संयोगः प्रतिषिद्धस्तीर्यकरादिभिः, यावता पुनः स एव संयोगो 'मलानाथ ग्लानसज्नीकरणार्य कल्पते, यदा यस्य ' अभक्तच्छन्दः' भक्तारोचकः, यश्च मुखोचितो-राजपुत्रादिः यथाद्याध्यभावितः-असञ्जातसम्यक्परिणामः शैक्षकस्तस्य निमित्वं कल्पते । उक्तं संयोजनाद्वारम्, अथाहारममाणद्वारमाह- . बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसरस महिलियाए अट्ठावीसं भवे कवला ॥६४२॥ दीप अनुक्रम [६८१] ~348~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६८४] .→ “नियुक्ति: [६४२] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: रीयावृत्तिः प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६४२|| पिण्डनियु- व्याख्या-पुरुषस्य कुक्षिपूरक आहारो मध्यप्रमाणो द्वात्रिंशत्कवला: 'किले 'लाहारस्य मध्यप्रमाणतासंसूचकः, महेलायाः ग्रासैषणायां कर्मळयगि-| कुक्षिपूरक आहारो मध्यमप्रमाणोऽष्टाविंशतिः कवलाः, नपुंसकस्य चतुर्विंशतिः, स चात्र न गृहीतो, नपुंसकस्य प्रायः प्रवज्यानहे-16 प्रमाणदोषः वात् , कवलानां प्रमाणं कुक्कुट्यण्डं, कुक्कुटी च द्विधा-द्रव्यकुक्कुटी भावकुक्कुटी च, द्रव्यकुक्कुट्यपि विधा-उदरकुक्कुटी गळ कुक्कुटी च, तत्र साधोरुदरं यावन्मात्रेणाद्वारेण न न्यून नाप्याध्मातं भवति स आहार उदरकुक्कुटी, उदरपूरक आहार: कुक्कुटीव वा ॥१७॥ उदरकुक्कुटीति मध्यपदलोपिसमासाश्रयणात, तस्य द्वात्रिंशत्तमो भागोऽण्डक, तत्प्रमाणं कबलस्प, तथा गला कुक्कुटीव गलकुक्कुटी,|| गल एवं कुक्कुटीत्यर्थः, तस्यान्तरालमण्डकं, किमुक्तं भवति ?-अविकृतास्यस्य पुंसो गलान्तराले या कवकोऽपिलमः प्रविशति ताव-18 समाणं [कवलस्य,] कवलमश्नीयात् अथवा शरीरमेव कुक्कुटी तन्मुखमण्डक, तत्राक्षिकपोलभ्रुवां विकृतिमनापाय य: कवलो मुखे 18 पविशति तनमाणम् । अथवा कुक्कुटी-पक्षिणी तस्या अण्डकं प्रमाण कवलस्य, भावकुक्कुटी येनाहारेण भुक्तन न म्पूर्न नाप्पत्याध्मात मदरं भवति धृति न समुदहति ज्ञानदर्शनचारित्राणां च वृदिरुपजायते तावत्पमाण आहारो भावकुक्कुटी, अब भावस्य प्राधान्यविवक्षणादेष माक् द्रव्पकुक्कुट्यप्पुक्त इह भावकुक्कुटयुक्तः, तस्य द्वात्रिंशत्तमो भागोऽण्डक, तपमाण कवलस्य । एत्तो किणाइ हीणं अद्धं अवद्धगं च आहारं । साहुस्स बिति धीरा जायामायं च ओमं च ॥ ६४३ ॥ व्याख्या-'एतस्मात् ' द्वात्रिंशत्कवलप्रमाणाहारात् 'किणाइ' इति किश्चिन्मात्रया एकेन द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिर्वा कवलः साधोहीन हीनतरं यावदर्द्धम अर्द्धस्याप्यर्द्धमाहारं यात्रामात्राहारं धीरा:-नीर्थदादयो ब्रुवते, न्यून च । एष यात्रामाबाहार एप एष | चावमाहार इति भावः । तदेवमुक्तमाहारप्रमाणं, सम्पति प्रमाणदोषानाइ 10000000000000००००००००००००००० दीप अनुक्रम [६८४] ~349~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६४३|| दीप अनुक्रम [६८५ ] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) मूलं [६८५ ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ८० “निर्युक्तिः [ ६४३ ] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः पगामं च निगमंच, पनीयं भत्तपाणमाहरे । अइबहुयं अइबहुसो, पमाणदोसो मुणेयव्वों ॥ ६४४ ॥ व्याख्या----यः प्रकामं निकामं प्रणीतं वा भक्तपानमाहारयति तथाऽविवहुकमतित्रहुश्श्च तस्प प्रमाणदोषो ज्ञातव्यः । सम्प्रति प्रकामादिस्वरूपमाह--- Education Internation बत्तीसाइ परेण पगाम निचं तमेव उनिकामं । जं पुण गलंतनेहं पणीयमिति तं बुहा बेति ॥ ६४५ ॥ व्याख्या - द्वात्रिंशदादिकवलेभ्यः परेण परतो भुञ्जानस्य यद्भोजनं तत्मकामभोजनं, ' तमेव तु प्रमाणातीतमाहारं प्रतिदि वसमश्नतो निकामभोजनं यत्पुनर्गलत्स्नेहं भोजनं तत्प्रणीतं 'बुधाः तीर्यकृदादयो ध्रुवते । तथा अइबहु अइबहुसो अइप्पमाणेण भोयणं भोक्तुं । हाएज्ज व वाभिज्ज व मारिज्ज व तं अजीरंतं ॥ ६४६ ॥ व्याख्या - अतिबहुकं मक्ष्यमाणस्वरूपमतिबहुशः - अनेकशोऽनृप्यता सता भोजनं भुक्तं सत् 'हादयेत्' अतीसारं कुर्यात्, तथा वामयेत्, यद्वा तदजीर्यन्मारयेत्, तस्मान्न प्रमाणातिक्रमः कर्त्तव्य इति । सम्प्रत्यतिवद्धादिस्वरूपमाह - बहुयातीयमइबहुं अइबहुसो तिन्नि तिन्नि व परेणं । तं चिय अइप्पमाणं भुंजइ जं वा अतिप्पंतो ॥ ६४७ ॥ व्याख्या - बहुकातीतम् - अतिशयेन बहु, अतिशयेन निजप्रमाणाभ्यधिकमित्यर्थः तथा दिवसमध्ये यखीन् वारान् मुद्रे, त्रिभ्यो वा वारेभ्यः परतस्तद्भोजनमतिबहुशः, तदेव वारत्रयातीतमतिप्रमाणमुच्यते, 'अइप्पमाणे 'त्यवयवो व्याख्यातः अस्यैव प्रकारान्तरेण For Parts Only ~ 350~ ० yor Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६४७|| दीप अनुक्रम [६८९] पिण्डनिर्युके यमिरीयावृत्तिः ॥१७४॥ मूलं [६८९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ›�♦♦♦♦♦♦♦♦♦◆◆◆◆◆◆�6�◆◆◆◆��◆◆◆***. “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) ८० “निर्युक्तिः [६४७] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्यानमाह - भुंक्ते यद्वाऽप्यन् एप 'अइप्यमाण ' इत्यस्य शब्दस्यार्थः, 'अइप्पमाणे ' इत्यत्र च नङ्प्रत्ययस्ताच्छील्यविवक्षायां | यद्वा प्राकृतलक्षणवशादिति । सम्मति प्रमाणयुक्तहीनहीनतरादिभोजने गुणवाद हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा । न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा ॥ ६४८ ॥ Eaton Internationa व्याख्या - हितं द्विधा द्रव्यतो भावतच, तत्र द्रव्यतोऽविरुद्धानि द्रव्याणि भावत एषणीयं तदाहारयन्ति ये ते हिताहाराः, 'मितं ' प्रमाणोपेतमाहारयन्तीति मिताहाराः, द्वात्रिंशत्कवलप्रमाणादप्यल्पमल्पतरं वाऽऽहारयन्तीत्यल्पाहाराः, सर्वत्र वा बहुवीहिः, हित आहारो येषां ते हिताहारा इत्यादि, एवंविधा ये नरास्तान वैद्या न चिकित्सन्ति हितमितादिभोजनेन तेषां रोगस्यैवासम्भवात्, किन्त्वेवं मूलत एव रोगोत्थानप्रतिषेधकरणेनात्मनैवात्मनस्ते चिकित्सिकाः । साम्प्रतमहितद्दित स्वरूपमाह - दहिसमा ओगा अहिओ खीरदहिकंजियाणं च । पत्थं पुण रोगहरं न य हेऊ होइ रोगस्स || ६४९ ॥ व्याख्या - दधितैलयोस्तथा क्षीरदधिकाञ्जिकानां च यः समायोगः सोऽहितः, विरुद्ध इत्यर्थः तथा चोक्तम् " शाकाल| फलपिण्याककपित्थलवणैः सह । करीरदधिमत्स्यैव, प्रायः क्षीरं विरुध्यते ॥ १ ॥ " इत्यादि, अविरुद्धद्रव्यमीलनं पुनः पथ्यं तच 'रोगहरं' प्रादुर्भूतरोगविनाशकरं न च भाविनो रोगस्य 'हेतुः कारणम्, उक्तं च " अहिताशनसम्पर्कात्, सर्वरोगोद्भवो यतः । तस्मात्तदहितं स्याज्यं न्याय्यं पथ्यनिषेवणम् ॥ १ ॥ " साम्प्रतं मितं व्याचिख्यासुराद्द अधमसणस्स सध्वजणरस कुज्जा दवस्स दो भागे । वाऊपवियारणडा छन्भायं ऊणयं कुज्जा ॥ ६५० ॥ For Park at Use Only ~351~ ० ग्रासैषणायां प्रमाणदोषः ॥१७४॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६५०|| दीप अनुक्रम [६९२] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र -२ / १ (मूलं + निर्युक्तिः + वृत्तिः) “निर्युक्ति: [६५०] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [६९२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ८० व्याख्या -- इह किल सर्वमुदरं षद्भिर्भागैर्विभज्यते, तत्र चार्ज भागत्रयरूपमशनस्य सव्यञ्जनस्य-तक्रशाका दिसहितस्याधारं तथा द्वौ भागौ द्रवस्य पानीयस्य, षष्ठं तु भागं वायुप्रविचारणार्थमूनं कुर्यात् । इह कालापेक्षया तथा तथाऽऽहारस्य प्रमाणं भवति, कालच त्रिधा, तथा चाह- कुर्यात्, सिओ उसिणो साहारणो य कालो तिहा मुणेयव्वो । साहारणंमि काले तत्थाहारे इमा मत्ता ॥ ६५१ ॥ व्याख्या — त्रिधा कालो ज्ञातव्यः, तद्यथा-शीत उष्णः साधारणश्च तत्र तेषु कालेषु मध्ये साधारणे काले 'आहारे' आहारविषया 'इयम् अनन्तरोक्ता 'मात्रा' प्रमाण सीए दवस्त एगो भत्ते चत्तारि अहव दो पाणे । उसिणे दवरस दोन्नि उ तिन्नि व सेसा उ भत्तस्स ॥ ६५२ ॥ Education Internationa व्याख्या--' शीते ' अतिशयेन शीतकाले ' द्रवस्य ' पानीयस्यैको भागः कल्पनीयः, चत्वारः 'भक्ते भक्तस्य, मध्यमे तु शीतकाले द्वौ भागौ पानीयस्य कल्पनीयौ त्रयस्तु भागा भक्तस्य, वाशन्दो मध्यमशीतकालसंसूचनार्थः, तथा उष्णे मध्यमोष्णकाले द्वौ भागौ 'द्रवस्य ' पानीयस्य कल्पनीयों, शेषास्तु त्रयो भागा भक्तस्य, अत्युष्णे च काले त्रयो भागा द्रवस्य शेषौ द्वौ भागौ भक्तस्य, वाशब्दोऽत्रात्युष्णकाल संसूचनार्थः, सर्वत्र च षट्टो भागो वायुमविचारणार्थं मुत्कलो मोक्तव्यः । सम्मति भागानां स्थिरचर विभागमदर्शनार्थमाह एगो दवरस भागो अवहितो भोयणरस दो भागा । बह्वृति व हायंति व दो दो भागा उ एक्केके ॥ ६५३ ॥ For Peralata Use Only ~352~ ० Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६९५] .. “नियुक्ति: [६५३] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियुकमलयांग- प्रत गाथांक नि/भा/प्र रीयावृत्तिः णदोषः ||६५३|| 9合合令营分冷冷冷冷冷冷冷冷冷冷冷冷冷哈哈哈哈哈??命中 ___ व्याख्या-एको द्रवस्य भागोऽवस्थितो द्वौ भागी भोजनस्प, शेषौ तौ द्वौद्वी भागी एकैकस्मिन्, भक्त पाने चेत्यर्थः, ग्रासपणावढेंते वा हीयते वा, वृद्धिं वा व्रजतो हानि वा व्रजत इत्यर्थः, तथाहि-अतिशीतकाले द्वौ भागी भोजनस्य बर्दैते अत्युषणकाले च | यां प्रमापानीयस्य अत्युषणकाले च द्वौ भागौ भोजनस्य हीयेते अतिशीतकाले च पानीयस्य । एतदेव स्पष्टुं भाषयति-- एत्थ उ तइयचउत्था दोण्णि य अणवट्ठिया भवे भागा । पंचमछट्टो पढमो बिइओऽवि अवठिया भागा ॥६५४॥ व्याख्या-आहारविषयौ तृतीयचतुयौँ भागावनवस्थितौ, तौ दतिशीतकाले भवतोऽप्युष्णकाले च न भवतः, तथा य: पानविषयः पञ्चमो भागो यच वायुमविचारणार्थ षष्ठो भागः यौ च प्रथमद्वितीयावाहारविषयौ एते सर्वेऽपि भागा अवस्थिताः, न कदाचिदपि न भवन्तीति भावः । तदेवमुक्तं प्रमाणद्वारम् , अथ साङ्गारसधूमदारमार तं होइ सइंगालं ज आहारेइ मुच्छिओ संतो। तं पुण होइ सधूमं जं आहारेइ निदंतो ॥ ६५५॥ व्याख्या-तद्भवति भोजनं साकारं यत्तद्गतविशिष्टगन्धरसास्वादवशतो जाततद्विषयमूर्छः सन्नदो ! मिष्ट अहो ! सुसम्भृतं । अहो ! स्निग्धं सुपकं सुरसमित्येवं प्रशंसन्नाहारयति, तत्पुनर्भवति भोजनं सधूमं यत्तद्गतविरूपरसगन्धास्वादतो जाततद्विषयष्यलीकचित्तः सन् अहो ! विरूपं कथितमपकमसंस्कृतमलवणं चेति निन्दनाहारयति, अयं चात्र भावार्थ:-इह द्विविधा अङ्गाराः, तद्यथा-14 द्रव्यतो भावतच, तत्र द्रव्यतः कृशानुदग्धाः खदिरादिवनस्पतिविशेषाः, भावतो रागाग्निना निर्दग्धं चरणेन्धनं । धूमोऽपि द्विधा, ॥१७॥ तद्यथा-द्रव्यतो भावतच, तत्र द्रव्यतो योऽर्द्धदग्धानां काष्ठानां सम्बन्धी, भावतो द्वेषाग्निना दह्यमानस्य चरणेन्धनस्य सम्बन्धी । कलुपभावो निन्दात्मकः, ततः सहाकारेण यद्वत्तेते तत्साझार, धूमेन सह वर्तते यत्तत्सधूमं । सम्पत्यारधूमयोलेक्षणमाह 00000000000000000000000रूककककका दीप अनुक्रम [६९५] Maina ~353~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) "पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [६९७] .. “नियुक्ति: [६५५] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६५५|| अंगारत्तमपत्तं जलमाणं इंधणं सधूमं तु । अंगारत्ति पवुच्चइ तं चिय दड्ढं गए धूमे ॥ ६५६ ॥ व्याख्या-अङ्गारत्वममाप्त ज्वलदिन्धनं सधूममुच्यते, तदेवेन्धनं दग्धं धूमे गते सत्यङ्गार इति, एवमिहापि चरणेन्धनं रागाग्निना निर्दग्धं सदङ्गार इत्युच्यते , द्वेषाग्निना तु दह्यमानं चरणेन्धनं सधूम, निन्दात्मककलुपभावरूपधूमसम्मिश्रत्वात् । एतदेव भावयति रागग्गिसंपलित्तो भुजंतो फासुयंपि आहारं । निद्दड्डंगालनिभं करेइ चरणिधणं खिष्पं ॥ ६५७ ॥ व्याख्या-मासुकमप्याहारं भुजानो रागानिसम्पदीप्तचरणेन्धनं निर्दग्धाङ्गारनिभं क्षिप्रं करोति । दोसगीवि जलंतो अप्पत्तियधूमधूमियं चरणं | अंगारमित्तसरिसं जा न हवइ निदही ताव ॥ ६५८॥ व्याख्या-देषाग्निरपि ज्वलन् ' अप्रीतिरेव' कलुषभाव एव धूमः अपीतिधूमः तेन धूमितं 'चरणं' चरणेन्धनं यावदङ्गारमात्रसदृशं न भवति तावन्निर्दहति । तत इदमागतं रागेण सइंगाल दोसेण सधूमगं मुणेयच्वं । छायालीसं दोसा बोद्धव्या भोयणविहीए ॥ ६५९ ॥ - व्याख्या-रागेणाऽऽध्मातस्य योजनं तत्साङ्गारं, चरणेन्धनस्याङ्गारभूतत्वात , द्वेषेणाऽऽध्मातस्य तु योजनं तत्सधूम, निन्दात्मककलुपभावरूपधूमसम्पिकत्वात् । तदेवं भोजनविधौ सर्वसङ्ख्यया पट्चत्वारिंशदोषा बोद्धव्याः, तयथा-पश्चदश उद्गमदोषाः, अध्यवपूरकस्य मिश्रजातेऽन्तर्भावविवक्षणात, पोटश उत्पादनादोषा दश एषणादोषाः संयोजनादीनां च पञ्चकमिति । कीदृशः पुनराहारः साधुना भोक्तव्य इत्याह 哈哈哈哈台台台台中中中中令令分命中令台命令令之心台台冷冷冷冷 दीप अनुक्रम [६९७] ~354~ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७०१] .. “नियुक्ति: [६५९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्डनियु- आहारंति तबस्सी विगइंगालं च विगयधूमं च । झाणज्झयणनिमित्तं एमुवएसो पवयणस्स ॥ ६६०॥ केर्मळयगि व्याख्या-'तपस्विनः' यथोक्ततपोऽनुष्ठाननिरता आहारयन्ति भोजनं विगतामारं रागाकरणात्, विगतधूमं च द्वेषाकरणात् , रीयावृत्तिः ||तदपि न निष्कारणं किन्तु ध्यानाध्ययननिमित्तम्, एष उपदेशः 'प्रवचनस्य' भगवच्छासनस्य । तदेवमुक्तं साकारं सधूमद्वारम् , ग्रासपणा| यां अंगार प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६५९|| दोषाः ॥१७ अधुना कारणदारमाह दीप अनुक्रम [७०१] 1 छहिं कारणेहिं साधू आहारितोऽवि आयरइ धम्म । छहिं चेव कारणेहिं णिज्जूहितोऽवि आयरइ ॥ ६६१॥ | व्याख्या-पद्भिः कारणैर्वक्ष्यमाणस्वरूपैः साधुराहारयन्नप्याहारमाचरति धर्म, पद्दभिरेव च कारणैर्वक्ष्यमाणस्वरूपैभोजनाकरणनिवन्धनः 'निज्जूहितोऽपि 'चि परित्यजन्नप्याचरति धर्म । तत्र यः षभिः कारणैराहारमाहारयति तानि निर्दिशति यण बेयावच्चे इरियहाए य संजमढाएँ । तह पाणवत्तियाए छदं पुण धम्मचिंताए ॥ ६६२ ॥ व्याख्या-इह पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् 'वेयणति क्षुवेदनोपशमनाय, तथाऽऽचार्यादीनां वैयारत्त्यकरणाय, तथेर्यापथसंशोधनार्थ, तथा प्रेक्षादिसंयमनिमित्तं, तथा 'प्राणप्रत्ययार्थ' प्राणसन्धारणार्थ, पष्ठं पुन: कारणं ' धर्मचिन्तार्थ ' धर्मचिन्ता|ऽभिट्टद्धयर्थं भुञ्जीतेति क्रियासम्बन्धः । एनामेव गाथां गाथाद्वपेन विकृण्वन्नाह नथि छुहाए सरिसा वियणा भुंजेज तप्पसमणहा । छाओ बेयावच्चं ण तरइ काउं अओ भुंजे ॥ ६६३ ॥ इरिअं नऽवि सोहेई पहाईअंच संजमं काउं । धामो वा परिहायइ गुणऽणुप्पेहासु अ असत्तो ॥ ६६४ ।। ॥१७६॥ Mitanatara ~355~ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६६४|| दीप अनुक्रम [ ७०६ ] “पिण्डनिर्युक्ति”- मूलसूत्र - २ / १ (मूलं + निर्युक्तिः +वृत्तिः) "निर्युक्ति: [ ६६४] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" आगमसूत्र - [४१/२] मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनिर्युक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मूलं [ ७०६ ] • मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित व्याख्या - नास्ति क्षुधा - बुभुक्षया सदृशी वेदना, उक्तं च-" पंथेसमा नत्थि जरा दारिदसमो य परिभव नत्थि । मरणसमें नत्थि भयं छुहासमा बेयणा नत्थि ।। १ ।। तं नत्थि जं न वाहइ तिलतुसमित्तंपि एत्थ कायस्स । सन्भिज्यं सब्बदुहाइ देति आहाररहियस्स ॥ २ ॥" वतः ' तत्मशमनार्थं ' क्षुद्वेदनोपशमनार्थं भुञ्जीत, तथा 'छातो' बुभुक्षितः सन् वैयावृत्यं न शक्नोति कर्त्तुं तथा चोक्तं-" गलैइ बलं उच्छाहो अबेर सिढिलेइ सयलवावारे । नासइ सत्तं अरई विवहुए असणरहियस्स || १ ||” अतो वैयाहृत्यकरणाय भुञ्जीत । तथा बुभुक्षितः सन्नीर्यापथं न विशोधयति, अशक्तत्वात्, अतस्तच्छोधननिमित्तं वाऽश्रीयात्, तथा क्षुधार्त्तः सन् न प्रेक्षादिकं संयमं विधातुमलमतः संयमाभिवृद्धयर्थं भुञ्जीत, तथा स्थाम बलं प्राण इत्येकोऽर्थः तद्भुक्षितस्य ' परिहीयते ' परिहानिं याति ततोऽश्रीयात्, तथा गुणनंप्रन्थपरावर्त्तनमनुप्रेक्षा- चिन्ता तयोः उपलक्षणमेतत् वाचनादिष्वपि बुभुक्षितः सन् अशक्तः - असमर्थो भवति ततोऽश्नीयात् । इत्यंभूतैश्च पदभिः कारणैः समग्रैरन्यतमेन वा कारणेनाहारयन्नातिक्रामति धर्ममिति । सम्प्रत्यभोजनकारणप्रतिपादनार्थं सम्बन्धमाअव ण कुज्जाहारं, छहिं ठाणेहिं संजए। पच्छा पच्छिमकालंभि, काउं अप्पक्खमं खमं ॥ ६६५ ॥ ० व्याख्या - अथवा पद्भिः स्थानै:- वक्ष्यमाणस्वरूपैः संयत आहारं न कुर्यात्, तत्र विचित्रा सूत्रगति'रिति पठ्ठे शरीरव्यवच्छे| दलक्षणकारणं व्याख्यानयति पच्छा' इत्यादि पश्चात् शिष्यनिष्पादनादिसकलकर्त्तव्यतानन्तरं 'पश्चिमे काले' पाश्चात्ये वयसि ( १ ) पान्यत्वसमा नास्ति जरा दारिद्र्यसमञ्च पराभवो नास्ति । मरणसमं नास्ति भयं क्षुत्समा वेदना नास्ति ॥ १ ॥ तन्नास्ति यन्न बाधते तिलतुषमात्रमप्यत्र कायम् । सान्निध्यं सर्वदुःखानि ददति आहाररहितस्य ॥ २ ॥ (२) गलति बलमुत्साहोऽपैति शिथिलयति सकलव्यापारान् । नश्यति सत्त्वमर तिर्विवर्धतेऽशनरहितस्य ॥ २ ॥ For Parts Only ~356~ www.lanerary.org Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७०७] .. “नियुक्ति: [६६५] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६६५|| दीप अनुक्रम [७०७] पिण्डनियु-:' अप्पकखमति संलेखनाकरणेनात्मानं क्षपयित्वा यावजीवानशनपत्पाख्यानकरणस्य 'क्षम' योग्यपात्मानं कस्वा भोजनं परिहरेत ग्रासपणाकमेकयगि- नान्यथा । पतेन शिष्पनिष्पादनायभाचे प्रथम द्वितीये वा वयसि संलेखनामन्तरेण चा शरीरपरित्यागार्थमनश्नन् (तः) तत्मत्याख्यानकरणे यां अभीरीयातिः जिनाज्ञाभङ्गामुपदर्शयति । सम्पत्यभोजनकारणानि निर्दिशति जनकार जानि आर्यके उबसमो, तितिक्खयाँ बंभचेरगुत्तीहुँ । पाणिदयाँ तवहेउं, सरीरवोच्छेयणद्वाएं ॥ ६६६ ॥ ॥१७॥ व्याख्या-'आतङ्के' उपरादावृत्पन्ने सति न भजीत १, तया' उपसर्गे' राजस्वजनादिकृते देवमनुष्पतिककते वा सजाते | सति 'तितिक्षार्थम् ' उपसर्गसहनार्थ २, तथा ब्रह्मचर्य गुप्तिविति, अत्र षष्ठपर्थे सप्तमी, ततोऽयमर्थः-ब्रह्मचर्यगुप्तीनां परिपालनाय ३, तथा प्राणिदयार्थं ४, तथा 'तपोहेतोः ' तपःकारणनिमित्तं ५, तथा चरमकाले शरीरव्यवच्छेदार्थ ६, सर्वत्र न भुञ्जीतेति क्रियासम्बन्धः ।। एनामेव गाथा वितृण्वन्नाह आयको जरमाई रायासन्नायगाइ उवसग्गो । बंभवयपालणट्ठा पाणिदया वासमहियाई ॥ ६६७ ।। व्याख्या-आतङ्को-स्वरादिस्तस्मिन्नुत्पन्ने सति न भुञ्जीत, यत उक्तम्-" बलावरोधि निर्दिष्टं, ज्वरादौ लहन हितम् । तेऽनिलश्रमक्रोधशोककामक्षतज्वरान् ॥ १॥" राजस्वजनादिकृते उपसर्गे यदा देवमनुष्यतिर्यकृते उपसर्गे जाते सति तदुपशमनार्थे नाश्नीयात, तथा मोहोदये सति ब्रह्मवतपालनार्थं न भुञ्जीत, भोजने निषिद्धे हिमायो मोहोदयो विनिवत्तेते, तथा चोक्तम्-"वि-15॥१७७॥ पिया विनिवर्तन्ते, निराहारस्प देहिनः । रसवज रसोऽप्येवं, परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ १॥" तथा वर्षे वर्षति महिकायां पा निपतन्स्या माणिदयार्थ नाश्नीयात्, आदिशब्दात सूक्ष्ममण्डकादिसंसक्तायां भूमौ प्राणिदयार्थमटनं परिहरन भुञ्जीत । ~ 357~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७१०] .. “नियुक्ति: [६६८] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२।२] "पिण्डनियुक्ति" मूल एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६६८|| तवहेउ चउत्थाई जाव उ छम्मासिओ तबो होइ । छई सरीरवोच्छेयणट्ठया होअणाहारो ॥ ६६८ ॥ व्याख्या-'तपोहेतोः' तपाकरणनिमित्रं न भुञ्जीत, तपश्चतुर्थादिक-चतुर्थादारभ्य सावद्भवति यावत् 'पाण्मासिकं' षण्मास-1 प्रमाणं, परतो भगवर्द्धमानस्वामितीर्थे तपसः प्रतिषेधात , षष्ठं पुनः प्रागुक्तविधिना चरमकाले शरीरव्यवच्छेदार्थ भवत्पनाहारः ॥ तदेव-14 मुक्तं कारणद्वारं, तदुक्तौ चोक्तां ग्रासैपणा, तदभिधानाच समाता गवैषणाग्रहणषणाग्रासैपणाभेदात्त्रिविधाऽप्येषणा | सम्पत्यस्या एवैषणायाः सकलदोषसङ्कलनमाह सोलस उग्गमदोसा सोलस उप्पायणाए दोसा उ । दस एसणाएँ दोसा संजोयणमाइ पंचेव ।। ६६९ ॥ व्याख्या-मुगमा, सर्वसदरूपया सप्तचत्वारिंशदेपणादोपाः । एतान विशोधयन पिण्डं विशोधयति. पिण्डविशद्धौ च चारित्रशद्धिः चारित्रशुद्धौ मुक्तिसम्पाप्तिः, उक्तं च-" एऐ विसोहयंतो पिंडं सोहेइ संसो नत्थि । एए अविसोहिते चरित्तभेयं वियाणादि ॥१॥ एतान विशोधयन पिण्डं शोधयति संशयो नास्ति । एतानविशोषयति चरित्रमे विजानीहि ॥१॥ श्रमणत्वस्य सारो भिक्षाचर्या जिनैः। प्रक्षमा | अत्र परितप्यन्तं तं जानीहि मन्दसंवेगम् ॥ २॥ ज्ञानचरणस्य मूलं भिक्षाचर्या भिनैः प्रज्ञता । अत्र तुद्यच्छन्न त जानीहि तीनसंवेगम् ॥३॥ पिण्डमशोषयन् अचारित्री अत्र संशयो नास्ति । चारित्रऽसति निरथिका भवत्येव दीक्षा ॥ ४॥ चारित्रेऽसति निर्वाण नैव गच्छति । निर्वाणेऽसति सर्वा दीक्षा निरथिका ॥५॥ एतापटूक निगमयज्ञाह-एएहिं छहि ठाणेहि, अणाहारो उ जो भवे । धम्म नाइकमे भिक्खु, धम्मक्षाणरमो भवे ।। १॥ एपा गाथा श्रीवीराचार्यकृतश्रीपिण्डनियुक्तिवृत्ती सूत्रे च दृश्यते, श्रीमलयगिरिसूरिप्रणीतवृत्त्यावशेषु तु बहुषु न दृश्यते । ००००००००००००००००००००००००.004444 दीप अनुक्रम [७१०] SAMEmirathinner ~358~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७११] .. “नियुक्ति: [६६९] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६६९|| दीप अनुक्रम [७११] पिण्डनिर्य- समणतणस्स सारो भिक्खायरिया जिणेहिं पन्नचा । एत्थ परितप्पमाणं तं जाणसु मंदसंवेगं ॥२॥ नाणचरणस्स मूलं भिक्खाय- यत कर्मकयनि-रिया जिणाह पन्नचा । एत्य उ उज्जममाणं तं जाणम् तिव्वसंवेगं ॥३॥ पिंडं असोहयंतो अचरित्ती एस्थ संसओ नत्थि । चारित्तमि निर्जरा रीयावृत्तिः असते निरस्थिया होइ दिक्खा उ ॥ ४॥ चारित्चमि असंतमि, निव्वाणं न उ गच्छद् । निव्वाणमि असंतमि, सव्वा दिक्खा निरत्यगा ॥५॥ तस्माद्रमादिदोषपरिशुद्धः पिण्ड एषयितव्य इति । ॥१७॥ | एसो आहारविही जह भणिओ सव्वभावदंसीहि । धम्मावस्सगजोगा जेण न हायंति तं कुज्जा ॥ ६७०॥ व्याख्या-एप: 'आहारविधिः पिण्डविधिः 'यथा' येन प्रकारेण भणितस्तीर्थकरादिभिस्तथा कालानुरूपस्वमतिविभवेन मया । व्याख्यात इति वाक्यशेषः । पश्चानापवादमाह-'धम्म'त्यादि । धर्मावश्यकयोगा: ' श्रुतधर्मचारित्रधर्मप्रतिक्रमणादिव्यापारा येन जान हीयन्ते 'न हानि व्रजन्ति तस्कुर्यात् , तथा तथाऽपवाद सेवेतेति भावः । साधुना हि यथायधमुत्सगोपवादस्थितेन भवितव्यं । या चापवादमासेवमानस्याशठस्य विराधना साऽपि निर्जराफला, तथा चाह जा जयमाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्त । सा होइ निज्जरफला अज्झत्थविसोहिजुत्तरस ॥ ६७१॥ व्याख्या-यतमानस्य ' सूत्रोक्तविधिसमग्रस्य' सूत्रोक्तविधिपरिपालनपूर्णस्य अध्यात्मविशोधियुक्तस्य, रागद्वेषाभ्यां रहितस्पेति। भावः, या भवेव 'विराधना' अपवादप्रत्यया सा भवति निजरा फला, इयमत्र भावना-कृतयोगिनो गीतार्थस्य कारणवशेन यतनयाऽप- ॥१७॥ चादमासेवमानस्य या विराधना सा सिद्धिफला भवतीति । तदेवं निक्षिप्तं पिण्डपदमेषणापदं च, तन्निक्षेपकरणाचाभिहितो नामनिक्षेपः, तदभिधानाचाभवत्परिपूर्णा पिण्डनियुक्तिरिति । अत्र उपसंहार गाथा कथयते ~359~ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [७१३] .. “नियुक्ति: [६७१] + भाष्यं [३७...] + प्रक्षेपं [६...]" . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||६७१|| येनैषा पिण्डनियुक्तियुक्तिरम्या विनिर्मिता । द्वादशाङ्कविदे तस्मै, नमः श्रीभद्रबाहवे ॥१॥ व्याख्याता यैरेषा विषमपदार्थाMasपि मुललितपचोभिः । अनुपकृतपरोपकृतो विकृतिकृतस्तानमस्कुर्वे ॥२॥ इमा च पिण्डनियुक्तिमतिगम्भीरां विवृण्वता कुशलम् । यदवापि मलयगिरिणा सिद्धिं तेनाश्नुता लोकः ॥३॥ अन्तिः शरणं सिद्धाः, शरणं मम साधवः । शरणं जिननिर्दिष्टो, धर्मः शरणमुत्तमः ॥ ४॥ एवं अन्धाग्रसङ्ख्या ७००० पिण्डनियुक्तिः समाप्ता । इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यवर्यविहितविवृतिवृता श्रीमद्रबाहुस्वामिसङ्कलिता पिण्डनियुक्तिः समाप्ता । दीप अनुक्रम [७१३] ~360~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं - .→ “नियुक्ति: [-] + भाष्यं [-] + प्रक्षेपं [-] . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पिण्ड नियुक्ति ॥१७९|| प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||--II श्रीमालकुलालइन्कृतिरासीदणहिल्लपत्नने वासी | व्यवहारिवरः सादाभिधान इप्रधानगुणः ॥ १॥ जाया मायारहिता मटकूरिति विश्रुताऽस्य दयिताऽभूत् । पुत्राः मुत्रामसमाः श्रियाऽनयोः कुलमलचक्रुः ॥२॥ वरसिंहो जोगाको गोलाकश्चेति विदितनामानः । स्वमानयशोमण्डलधवलीकृतसकळदिग्वलयाः ॥३॥ प्रतिपन्नवाँस्तपस्यां वरसिंहः सिंहतितः शस्यां । श्रीसोमसुन्दरगुरोः पार्थेऽवसरे विशुद्धमनाः॥४॥ दयिताया वरसिंहव्यवहारिवरस्य तेषु काः । श्रुतभक्त्या वाऽऽम्नाती नाम्ना पर्वत इति तनूजः॥५॥ वरणूदयितापुत्रो मूलूर्माणिकिरमुष्प दयिता च । स्वमुते हेमतिदेमतिनाम्न्याविति परिकरेण नृतः॥६॥ श्रीसवाम्बुधिचन्द्रश्रीमजपचन्द्रसूरिराजानाम् । सुकृतोपदेशमनिशं निशम्प सम्यक सुधादेश्यम् ॥७॥ श्रीपत्तनवास्तव्यो लक्षमितान्धलेखनमवणः । नेत्रान्तरिक्षतिथिमितवर्षे १५०२ हर्षेण लेखितवान् ॥ ८॥ पिण्डनियुक्तित्ति बृहतीमनक्यवचनसन्दर्भाम् । सुमनस्सन्ततिसेव्या गङ्गावदियं च जयतु चिरम् ॥९॥ दीप अनुक्रम इति श्रीषिण्डनियुक्तिवृत्तिः समाप्तेति भद्रं भवतु ।। ॥१७॥ इति श्रेष्ठि देवचन्द लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ४४ ~361~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४१/२) “पिण्डनियुक्ति”- मूलसूत्र-२/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मूलं [-1 → “नियुक्ति: [-] + भाष्यं [-] + प्रक्षेपं [-] . मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४१/२], मूलसूत्र - [०२/२] "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गाथांक नि/भा/प्र ||--II इति श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिप्रणीता सभाध्या श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविवृता श्रीपिण्डनियुक्तिः समाप्ता॥ दीप अनुक्रम इति श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे-ग्रन्थाङ्कः ४४. DONTENTruerPPEPREPARTREPROCAPPEAREADER मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र ४१/२) । “पिण्डनियुक्ति” परिसमाप्ता । ~362~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: / | 41/2 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। “पिण्डनियुक्ति: मूलसूत्र” [मूलं + भाष्यं + मलयसूरि-रचिता वृत्तिः / (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "पिण्डनियुक्ति” मूलं एवं वृत्ति: नामेण परिसमाप्ता Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~363~