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समयसारः ।
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परेषां व्यवहारेण साधुना दर्शनज्ञानचारित्राणि नित्यमुपास्यानीति प्रतिपाद्यते । तानि पुन - स्त्रीण्यपि परमार्थेनात्मैक एव वस्त्वंतराभावात् यथा देवदत्तस्य कस्यचित् ज्ञानं श्रद्धानमनुचरणं च देवदत्तस्य स्वभावानतिक्रमाद्देवदत्त एव न वस्त्वंतरं तथात्मन्यप्यात्मनो ज्ञानं श्रद्धानमनुचरणं चात्मस्वभावानतिक्रमादात्मैव न वस्त्वंतरं तत आत्मा एक एवोपास्य इति स्वयमेव प्रद्योतते स किल " दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रित्वादेकत्वतः स्वयं | मेचको मेचकश्चापि कथयति; - दंसणणाणचारित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिसेवितव्यानि साधुना व्यवहारनयेन नित्यं सर्वकालं ताणि पुण जाण तिण्णवितानि उसी भावकर नित्य सेवने योग्य है ऐसा आप विचारकर दूसरोंको व्यवहारसे कथन ' करते हैं कि साधुपुरुषोंकर दर्शनज्ञानचारित्र संदा सेवने योग्य हैं और परमार्थकर देखाजाय तब ये तीनों ही एक आत्मा ही है क्योंकि ये अन्यवस्तु नहीं हैं आत्मा के ही पर्याय हैं । जैसे कोई देवदत्तनामा पुरुषके ज्ञान श्रद्धान आचरण हैं वे उसके स्वभावको उल्लंघन नहीं करते इसलिये वे देवदत्त पुरुष ही है अन्यवस्तु नहीं है उसी तरह आत्मामें भी आत्मा के ज्ञान श्रद्धान आचरण आत्माके स्वभावको नहीं उल्लंघन करते इसकारण आत्मा ही है अन्य वस्तु नहीं है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि एक आत्मा ही सेवन करने योग्य है । यह अपने आप ही प्रकाशमान होता है । भावार्थ-दर्शन ज्ञान चारित्र तीनों आत्माके ही पर्याय हैं कुछ जुदी वस्तु नहीं हैं इसलिये साधु पुरुषको एक आत्माका ही सेवन करना यह निश्चय है और व्यवहारकर अन्यको भी यही उपदेश करना ॥ आगे इसी अर्थका कलशरूप श्लोक कहते हैं । "दर्शन" इत्यादि । अर्थ- - यह आत्मा प्रमाण दृष्टिकर देखाजाय तब एक कालमें अनेक अवस्थारूप भी है और एक अवस्थारूप भी है । क्योंकि इसके दर्शनज्ञानचारित्रकर तो तीनपना है और आपकर अपने एकपना है ॥ भावार्थ - प्रमाणदृष्टि में तीनकाल स्वरूप वस्तु द्रव्यपर्यायरूप देखी जाती है इसलिये आत्मा भी एक कालमें एकानेकस्वरूप देखना | आगे नयविवक्षा कहते हैं । "दर्शन" इत्यादि । अर्थ-व्यवहारदृष्टिकर देखा जाय तब आत्मा एक है तौ भी तीन स्वभावपनेसे अनेकाकाररूप है क्योंकि दर्शनज्ञानचारित्र इन तीन भावोंसे परिणमता है । भावार्थ- शुद्धद्रव्यार्थिंक नकर आत्मा एक है इस नयको प्रधानकर कहाजाय तब पर्यायार्थिकनय गौण हुआ । सो एकको तीनरूप परिणमता कहना यही व्यवहार हुआ असत्यार्थ भी हुआ । ऐसे व्यवहारनयकर दर्शन ज्ञान चारित्र परिणाम से मेचक कहा है || अब परमार्थनयकर कहते हैं । “परमार्थे" इत्यादि । अर्थ- शुद्ध निश्चयनयकर देखा जाय तब प्रगट ज्ञायकज्योतिमात्रकर आत्मा एकस्वरूप है क्योंकि इसका शुद्ध द्रव्यार्थिक नयकर सभी अन्यद्रव्यके स्वभाव तथा अन्यके निमित्तसे हुए विभावोंका दूर करने रूप