Book Title: samaysar
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Jain Granth Uddhar Karyalay

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Page 579
________________ ५६६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [परिशिष्टम् चिच्चकास्त्येकतः स्वभावमहिमात्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः ॥ २७४ ॥ जयति सहजपुंजः पुंजमजत्रिलोकी स्खलदखिलविकल्पोऽप्येक एव स्वरूपः । स्वरसविसरपूर्णाच्छिन्नतत्त्वोपलंभः प्रसभनियमितार्चिश्चिञ्चमत्कार एषः ॥ २७५ ॥ अविचलितचिदात्मन्यात्मनात्मानमात्मन्यनवरतनिमग्नं धारयद् ध्वस्तमोहं । मुदितममृतचंद्रज्योतिरेतत्समंताज्वलतु विमलअभावरूप मुक्ति भी स्पर्शती है, और एकतरफ देखिये तो केवल (एक) चैतन्यमात्र ही शोभता है, इसप्रकार अद्भुतसे अद्भुत महिमा है । भावार्थ-यहांभी पहले काव्यके , भावार्थरूप ही जानना । यह अन्यवादी सुनके बडा आश्चर्य करते हैं । उनके चित्तमें विरोध . भास रहे हैं सो यह बात समा नहीं सकती । यदि उनके कभी श्रद्धा भी होजाय तो प्रथम अवस्था में बडा अद्भुत दीखे कि हमने अनादिकाल यों ही खोया, ये जिनवचन बडे उपकारी हैं वस्तुका स्वरूप यथार्थ जताते हैं ऐसा आश्चर्य कर श्रद्धान करता है । आगे टीकाकार इस सर्वविशुद्धज्ञानके परिशिष्ट अधिकारको पूर्ण करते हैं उसके अंतके मंगलके लिये इस चिञ्चमत्कारको ही सर्वोत्कृष्ट २७५ वें काव्यसे कहते हैं-जयति इत्यादि । अर्थ-यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर चैतन्यचमत्कार है वह जयवंत प्रवर्तता है किसीकर बाधा न जाय इसतरह सर्वोत्कृष्ट हो प्रवर्तता है । कैसा है ? अपने स्वभावस्वरूप प्रकाशके पुंजमें मग्न हुए जो तीन लोकके पदार्थ उनकर जिसमें अनेक भेद हुए दीखते हैं ऐसा है तौभी एक स्वरूप ही है, अर्थात् केवलज्ञानमें सब पदार्थ झलकते हैं वे अनेकज्ञेयाकाररूप दीखते हैं तौभी चैतन्यरूप ज्ञानाकारकी दृष्टि में एक ही स्वरूप है। अपने निजरसकर पूर्ण ऐसा तत्त्वस्वरूपका पाना जिसका छिदा नहीं है अर्थात् प्रतिपक्षी कर्मका अभाव होनेसे जिसके स्वभावका अभाव नहीं पाया जाता ऐसा है । प्रगट बलात्कारसे जिसकी दीप्ति नियमरूप है अपने अनंतवीर्यसे निष्कंप ठहर रहा है । ऐसा चिच्चमत्कार जयवंत है । यहां जयवंत कहनेसे सर्वोत्कृष्टपनेकर रहना कहा सो यही मंगल है। आगे टीकाकार अपने नामको प्रगट करते पूर्वोक्त आत्माको ही आशीर्वाद २७६ वें काव्यसे करते हैं-अविचलित इत्यादि । अथे-यह अमृतचद्रज्योति अर्थात् जिसका मरण नहीं तथा जिसकर अन्यका भी मरण नहीं वह अमृत और अत्यंत स्वादुरूप मिष्ट हो उसे लोक रूढिसे अमृत कहते हैं ऐसी अमृतमयी चंद्रमाके समान ज्योति अर्थात् प्रकाशस्वरूप ज्ञान वा प्रकाशस्वरूप आत्मा वह उदयको प्राप्त हुआ सब क्षेत्रकालमें दैदीप्यमान प्रकाशरूप रहो । कैसी है ? निश्वलचेतना जिसका स्वरूप है ऐसे आत्मामें आप ही कर अपने आत्माको निरंतर मग्न करती हुई धारती है, पायेस्वभावको कभी नहीं छोड़ती। जिसका मोह नाशको प्राप्त हुआ है अर्थात् जिसने अज्ञान अंधकारको दूर किया है । जिसका स्वभाव प्रतिपक्षी कर्मकर रहित है । निर्मल है और पूर्ण है । भावार्थ-यहां आत्माको अमृतचंद्रज्योति कहा सो यह लुप्तोपमा अलंकारकर कहा जानना, क्योंकि अमृतचंद्रवत् ज्योति ऐसा समास करनेसे वत् शब्दका लोप हो जाता है तब अमृतचंद्रज्योति कहा जाता है और वत्शब्द न करो तो अमृत

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