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वक्तव्यं ]
समयसारः। रकैः । भुंजाना च यतोऽनुभूतिरखिलं खिन्नाक्रियायाः फलं तद्विज्ञानघनौघमनमधुना व्यमिति । जयउ रिसि पउमणंदी जेण महातच्चपाहुणस्सेलो । बुद्धिसिरेणुद्धरिओ समप्पिओ भव्वलोयस्स ॥ १॥ जं से लीणा जीवा तरंति संसारसायरमणंतं । तं सव्वजीवसरणं णंदउ जिणसासणं सुइरं ॥ २॥ यश्चाभ्यस्यति संशृणोति पठति प्रख्यापयत्यादरात् । तात्पर्याख्यइसी न्यायसे पढने सुनने वालोंको उनका उपकार भी मानना योग्य है। क्योंकि इसके पढने सुननेसे परमार्थ आत्माका स्वरूप जाना जाता है । उसका श्रद्धान आचरण होनेपर मिथ्या ज्ञान श्रद्धान आचरण दूर हो जाते हैं और परंपराय मोक्षकी प्राप्ति होती है इसलिये इसका निरंतर अभ्यास करना योग्य है । इस प्रकार समयसार ग्रंथकी आत्मख्याति नामा टीका समाप्त हुई ।।
भाषाकारका वक्तव्य ।
( सवैया इकतीसा ) - कुंदकुंद मुनि कियो गाथाबंध प्राकृत है प्राभृतसमय शुद्ध आतम दिखावयूँ , सुधाचंद्रसूरि करी संस्कृत टीकावर आत्मख्याति नाम यथातथ्य भावनूं । .. देशकी वचनिकामें लिखि जयचंद्र पढे संक्षेप अर्थ अल्प बुद्धिकुं पावनूं, पढो सुनो मन लाय शुद्ध आतमा लखाय ज्ञानरूप गहौ चिदानंद दरसावनूं ॥ १ ॥ दोहा-समयसार अविकारका वर्णन कर्ण सुनंत ।
द्रव्य भाव नोकर्म तजि आतम तत्त्व लखंत ॥ २॥ इसप्रकार इस समयप्राभृतनामा ग्रंथकी आत्मख्याति नामा संस्कृतटीकाकी देशभाषामय वचनिका लिखी है । सो यह उसका संक्षेप भावार्थरूपसा अर्थ लिखा है। संस्कृत टीकामें न्यायसे सिद्ध हुए प्रयोग हैं, उनका विस्तार करो तब अनुमानप्रमाणके प्रयोग प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण उपनय निगमनरूप हैं उनका स्पष्टकर व्याख्यान लिखाजाय तो ग्रंथ बहुत बढजाय इसलिये आयु बुद्धि बल स्थिरता अल्प होनेसे जितना वनसका उतना संक्षेपसे प्रयोजनमात्र लिखा है उसको वाचकर भव्यजीवो! पदार्थ समझना, और कुछ अर्थमें हीनाधिकता हो तो हे बुद्धिमानो! मूलग्रंथसे जिसतरह हो उसतरह समझना । कालदोषसे इनग्रंथोंकी गुरुसंप्रदायका व्युच्छेद होगया है इससे जितना वनता है उतना अभ्यास होता है । जैनमत स्याद्वादरूप है सो जो जिनमतकी आज्ञा मानते हैं उनके विपरीत श्रद्धान नहीं होता । कहीं अर्थका अन्यथा समझना भी हो जाता है तो विशेष बुद्धिमानका निमित्त मिलनेसे यथार्थ हो जाता है । जिनमतके श्रद्धानी हठपाही नहीं होते ऐसा जानना ॥ अब अंतमंगलके लिये पंचपरमेष्टीको नमस्कारकर ग्रंथ समाप्त करते हैं१किल तत्किचिक्रियायाः फल अधुना विज्ञानघनौघमनं न किंचित् ।
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