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५६४ रायचन्द्रजैमशास्त्रमालायाम् ।
[परिशिष्टम् त्योदयं परमयं स्फुरतु स्वभावः ॥ २६९ ॥ चित्रात्मशक्तिसमुदायमयोऽयमात्मा सद्यः प्रणश्यति नयेक्षणखंड्यमानः। तस्मादखंडमनिराकृतखंडमेकमेकांतशांतमचलं चिदहं महोऽस्मि ॥ २७० ॥ न द्रव्येण खंडयामि । न क्षेत्रेण खंडयामि। न भावेन खंडयामि । सुविशुद्ध एको ज्ञानमात्रभावोस्मि । “योऽयं भावो ज्ञानमात्रोऽहमस्मि ज्ञेयो ज्ञेयः ज्ञानमात्रः स नैव । ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानकल्लोलवेलान् ज्ञानज्ञेयज्ञातृमद्वस्तुमात्रं ॥२७१॥ क्वचिल्लसति मेचकं अन्य भाव बंधमोक्षमार्गकी कथारूप हैं उनसे क्या प्रयोजन है ? ॥ अब २७० वें काव्यसे कहते हैं कि नयोंकर आत्मा साधा जाता है यदि नयोंपर ही दृष्टि रहे तो नयोंमें परस्पर विरोध भी है इसलिये मैं नयोंको अविरोधकर आत्माको अनुभवता हूंचित्रात्म इत्यादि । अर्थ-यह आत्मा अनेक प्रकारकी अपनी शक्तियों के समुदायमय है सो नयोंकी दृष्टि कर भेदरूप किया हुआ तत्काल खंड खंडरूप होके नाशको प्राप्त होता है । इसलिये मैं अपने आत्माको ऐसा अनुभवता हूं कि मैं चैतन्यमात्र तेजरूप वस्तु हूं। कैसा, हूं? जिसमें खंड दूर नहीं किये गये हैं तो भी खंड ( भेद ) रहित अखंड हूं एक हूं। जिसमें कर्मके उदका लेश नहीं ऐसा शांतभावमय हूं और अचल हूं अर्थात् कर्मके उदयकर चलाया चलता नहीं॥ भावार्थ-आत्मामें अनेक शक्तियां हैं और एक एक शक्तिका ग्राहक एक एक नय है । सो नयोंकी एकांत दृष्टिकर देखो तो आत्माका खंड खंड हो नाश हो जाय । इसलिये स्याद्वादी, नयोंका विरोध मेट चैतन्यमात्र वस्तु अनेक शक्तिसमूहरूप सामान्य विशेष स्वरूप सर्वशक्तिमय एक ज्ञानमात्रको अनुभव करता है । ऐसा वस्तुका स्वरूप है उसमें विरोध नहीं है । अब अखंड आत्माका ऐसा अनुभव करना उसे कहते हैं-न द्रव्येण इत्यादि । अर्थ-ज्ञानी शुद्धनयका आलंबन लेकर ऐसे अनुभवे कि मैं अपने शुद्धात्म स्वरूपको द्रव्यकर नहीं खंडता हूं-भेद नहीं देखता हूं, क्षेत्रकर नहीं खंडता, कालकर नहीं खंडता और भावकर नहीं खंडता । अयंत विशुद्ध (निर्मल ) एक ज्ञानमय भाव हूं ॥ भावार्थशुद्धनयकर देखा जाय तब द्रव्य क्षेत्रकालभावकर शुद्ध चैतन्यमात्र भावमें कुछ भी भेद नहीं दीखता । इसलिये ज्ञानी अभेद ज्ञानस्वरूप अनुभवमें भेद नहीं करता ॥ अब कहते हैं २७१ ३ काव्यसे कि ज्ञान तो मैं हूं और ज्ञेय ज्ञेय है-अर्थ-जो यह ज्ञानमात्र भाव मैं हूं सो ज्ञेयका ज्ञानमात्र ही नहीं जानना । तो यह ज्ञानमात्रभाव कैसा जानना ? ज्ञेयोंके आकार जो ज्ञानके कल्लोल उनको विलगता ऐसा ज्ञान वही ज्ञान, वही ज्ञेय, वही ज्ञाता इसतरह ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता इन तीन भावोंसहित वस्तुमात्र जानना ।। भावार्थ-अनुभव करते ज्ञानमात्र अनुभवै तब बाह्य ज्ञेय तो जुदे ही हैं ज्ञानमें बैठे नहीं और ज्ञेयोंके आकारकी झलक ज्ञानमें है सो वह ज्ञान भी ज्ञेयाकाररूप दीखता है ये ज्ञानके कल्लोल हैं सो ऐसा भी ज्ञानका स्वरूप है । आपकर आप जानने योग्य है इसलिये ज्ञेयरूप भी है । आप ही अपनेको जाननेवाला है इसलिये ज्ञाता भी है । ऐसें तीनों भावस्वरूप ज्ञान एक है । इसीसे सामान्य विशेषस्वरूप वस्तु