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अधिकारः ९] समयसारः।
४६९ परिणामेनोत्पद्यमानः पुद्गलादिपरद्रव्यं चेतयितृनिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेनापोहतीति व्यवह्रियते । एवमयमात्मनो ज्ञानदर्शनचारित्रपर्यायाणां निश्चयव्यवहारप्रकारः । एवमेवान्येषां सर्वेषामपि पर्यायाणां द्रष्टव्यः । “शुद्धद्रव्यनिरूपणार्पितमतेस्तत्त्वं. समुत्पश्यतोनैकद्रव्यगतं चकास्ति किमपि द्रव्यांतरं जातुचित् । ज्ञानं ज्ञेयमवैति यत्तु तदयं शुद्धस्वभावोदयः किं द्रव्यांतरचुंबनाकुलधियस्तत्त्वाच्च्यवंते जनाः ॥ २१५ ॥ शुद्धद्रव्यस्वरसभवनाकि स्वभावस्य शेष-मन्यद्रव्यं भवति यदि वा तस्य किं स्यात्स्वभावः । ज्योत्लारूपं स्त्रयपति भुवं नैव तस्यास्तिभूमिर्ज्ञानं ज्ञेयं कलयति सदा ज्ञेयमस्यास्ति नैव ॥ २१६ ॥ "रागद्वेषद्वयमुदयते तावदेतन्न यावद् ज्ञानं ज्ञानं
वस्तु किमपि नास्ति यद् ब्रह्माद्वैतवादिनो वदंति तन्निषिद्धं । यदपि सौगतो वदति ज्ञानमेव घटपटादिज्ञेयाकारेण परिणमति नच ज्ञानाद्भिन्नं ज्ञेयं किमप्यस्ति तदपि निराकृतं । कथं ? इति चेत्, यदि ज्ञानं ज्ञेयरूपेण परिणमति तदा ज्ञानाभावः प्राप्नोति यदि वा ज्ञेयं ज्ञानरूपेण
अर्थको २१६ में काव्यसे दृढ करते हैं-शुद्धद्रव्यखरस इत्यादि । अर्थ-जिस द्रव्यका जो निजभाव हो वह स्वभाव है । सो आत्माका ज्ञानचेतना स्वभाव है उसका शुद्ध द्रव्य जो शुद्ध आत्मा उसका निजरस ज्ञान चेतना है । उसके होनेपर अन्य जो द्रव्य हैं वे क्या होसकते हैं कुछ भी नहीं । परमार्थकर संबंध नहीं है । अथवा अन्यद्रव्यका यह स्वभाव कोन है ? कुछ भी नहीं । परमार्थकर संबंध ही नहीं है । जैसे चांदनीका रूप पृथ्वीको उज्वल करता है तो क्या पृथ्वी चांदनीकी हो जाती है । कुछ भी नहीं । उसीतरह ज्ञान है वह क्षेयपदार्थको सदाकाल जानता है तो ज्ञानका ज्ञेय कुछ संबंधी हो जाता है ? कुछ भी नहीं । भावार्थ-शुद्धनयकी दृष्टिकर देखिये तब किसी द्रव्यका स्वभाव कोई अन्यद्रव्यरूप नहीं होता। जैसे चांदनी पृथ्वीको उज्ज्वल करती है परंतु चांदनीकी पृथ्वी कुछ नहीं लगती उसीतरह ज्ञान ज्ञेयको जानता है परंतु ज्ञानका ज्ञेय कुछ नहीं लगता । आत्माका ज्ञान स्वभाव है सो इसकी स्वच्छतामें ज्ञेय स्वयमेव झलकते हैं तौभी ज्ञानमें उन ज्ञेयोंका प्रवेश नहीं है ॥ अब कहते हैं कि ज्ञानमें रागद्वेषका उदय कहांतक है ? उसका २१७ वां काव्य है-रागद्वेष इत्यादि । अर्थ-यह ज्ञान जबतक ज्ञानरूप नहीं होता और ज्ञेय शेयभावको प्राप्त नहीं होता तब तक रागद्वेष दोनों उदय होते हैं । इसलिये यह ज्ञान है सो ज्ञानरूप होवे । कैसा होवे ? जिसने अज्ञानभाव दूर किया है ऐसा होवे । इसीकारण भाव अभाव ज्ञानमें होते हैं उनको दूर करता हुआ पूर्ण स्वभाव होवे ॥ भावार्थ-जबतक ज्ञान ज्ञानरूप नहीं होता ज्ञेय ज्ञेयरूप नहीं होता तबतक रागद्वेष उपजते हैं। इसलिये यह
१ सौगता वदंति इति ख. पुस्तके पाठः।