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अधिकारः ९] समयसारः।
४८३ नात्प्रच्युत्य तं प्रकाशयितुमायाति । किं तु वस्तुस्वभावस्य परेणोत्पादयितुमशक्यत्वात् परमुत्पादयितुमशक्यत्वाच्च यथा तदसन्निधाने तथा तत्संनिधानेऽपि स्वरूपेणैव प्रकाशते । स्वरूपेणैव प्रकाशमानस्य चास्य वस्तुस्वभावादेव विचित्रां परिणतिमासादयन् कमनीयोऽकमनीयो वा घटपटादिर्न मनागपि विक्रियायै कल्प्यते । तथा बहिरर्थः शब्दो रूपं गंधो रसः स्पर्शो गुणद्रव्ये च देवदत्तो यज्ञदत्तमिव हस्ते गृहीत्वा मां शृणु मां पश्य मां जिघ्र मां रसय मां स्पर्श मां बुध्यस्वेति स्वज्ञाने नात्मानं प्रयोजयति । नचात्माप्ययःकांतोपलकृष्टायःसूचीवत् स्वस्थानात्प्रच्युत्य तान् ज्ञातुमायाति । किंतु वस्तुस्वभावस्य परेणोत्पादयितुमशक्यत्वात् परमुत्पादयितुमशक्तत्वाच्च यथा तदसन्निधाने तथा तत्सन्निधानेऽपि स्वरूपेणैव जानीते । स्वरूपेण जानतश्चास्य वस्तुस्वभावादेव
विरोधः ? अत्रोत्तरमाह-तत्र बंधाधिकारव्याख्याने ज्ञानिजीवस्य मुख्यत्वात् ज्ञानी तु रागादिभिर्न परिणमति तेन कारणेन परद्रव्यजनिता भणिताः । अत्र चाज्ञानिजीवस्य मुख्यता स चाज्ञानी जीवः स्वकीयबुद्धिदोषेण परद्रव्यनिमित्तमात्रमाश्रित्य रागादिभिः परिणमति, तेन कारणेन परेषां शब्दादिपंचेंद्रियविषयाणां दूषणं नास्तीति भणितं । ततः कारणात् पूर्वापरविरोधो नास्ति इति
कारके लिये कुछ भी नहीं है । जैसे दीपक घटपटादिको प्रकाशता है उसीतरह आत्मा उनको जानता है ऐसा वस्तुका स्वभाव है । तो भी आत्मा रागद्वेष उपजाता है यह अज्ञान ही है ॥ अब इसी अर्थका कलशरूप २२२ वां काव्य कहते हैं-पूर्णे इत्यादि । अर्थ-यह ज्ञानी पूर्ण एक अच्युत शुद्ध (विकारसे रहित) ऐसे ज्ञानस्वरूप जिसकी महिमा है ऐसा है । ऐसा ज्ञानी ज्ञेय पदार्थोंसे कुछ भी विकारको नहीं प्राप्त होता । जैसे दीपक प्रकाशने योग्य घटपटादि पदार्थोंसे विकारको नहीं प्राप्त होता उसतरह । ऐसी वस्तुकी मर्यादाके ज्ञानकर रहित जिनकी बुद्धि है ऐसे अज्ञानी जीव अपनी स्वाभाविक उदासीनताको क्यों छोड़ते हैं और रागद्वेषमय क्यों होते हैं ? ऐसा आचार्यने सोच किया है ॥ भावार्थ-ज्ञानका स्वभाव ज्ञेयको जाननेका ही है । जैसे दीपकका स्वभाव घटपट आदिको प्रकाशनेका है । यह वस्तुस्वभाव है । ज्ञेयको जानने मात्रसे ज्ञानमें विकार नहीं होता । और जो ज्ञेयको जानकर भला बुरा मान आत्मा रागी द्वेषी विकारी होता है सो यह अज्ञान है। इसीसे आचार्यने सोच किया है कि वस्तुका स्वभाव तो ऐसा है पर यह आत्मा अज्ञानी होकर रागद्वेष रूप क्यों परिणमता है ? अपनी स्वाभाविक उदासीनता अवस्थारूप क्यों नहीं रहता ? । सो यह आचार्यका सोच करना युक्त ( ठीक ) है । क्योंकि जबतक शुभ राग है तबतक प्राणियोंको अज्ञानसे दुःखी देख करुणा उत्पन्न होती है तब सोच