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अधिकारः ९]
. समयसारा। स्पर्शो न भवति ज्ञानं यस्मात्स्पर्शों न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं स्पर्श जिना विदंति ॥ ३९६ ॥ कर्म ज्ञानं न भवति यस्मात्कर्म न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यत्कर्म जिना विदंति ॥ ३९७ ॥ धर्मों ज्ञानं न भवति यस्माद्धर्मों न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं धर्म जिना विदंति ॥ ३९८॥ ज्ञानमधर्मो न भवति यस्मादधर्मो न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यमधर्म जिना विदंति ॥ ३९९ ॥ कालो ज्ञानं न भवति यस्मात्कालो न जानाति किंचित् ।
तस्मादन्यद् ज्ञानमन्यं कालं जिना विदंति ॥ ४०॥ मादानोज्झनशून्यमेतदमलं ज्ञानं तथावस्थितं । मध्याद्यतविभागमुक्तसहजस्फारप्रभाभास्वरः शुद्धज्ञानघनो यथास्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति ॥१॥ उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत्तथात्तमादेयमशेषतस्तत् । यदात्मनः संहृतसर्वशक्तेः पूर्णस्य संधारणमात्मनीह ॥२॥ तपश्चरणं नयन् केन नयेन एतत्सर्वं ज्ञानं मन्यते ? इति चेत् मिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायपर्यंतस्वकीयस्वकीयगुणस्थानयोग्यशुभाशुभशुद्धोपयोगाविनाभूतविवक्षिताशुद्धनिश्चयनयेनाशुद्धोपादानरूपेणेति । ततः स्थितं शुद्धअध्यवसान अचेतन है इसलिये ज्ञानका और कर्मके उदयकी प्रवृत्तिरूप अध्यवसानका भेद है। इसप्रकार तो ज्ञानका सब परद्रव्योंके साथ साथ भिन्न होनेका निश्चय साधा हुआ जानना । अब कहते हैं कि जीव ही एक ज्ञान है क्योंकि जीव चेतन है इसलिये ज्ञानका
और जीवका अभेद है। जीवके अपने आप ज्ञानपना है ज्ञान जीवका भेद कुछभी शंकारूप नहीं करना । ऐसा होनेपर ज्ञान ही सम्यग्दृष्टि है, ज्ञान ही संयम है, ज्ञान ही अंगपूर्वगत सूत्र है । तथा धर्म अधर्म भी ज्ञान ही है और ज्ञान ही दीक्षा है निश्चय चारित्र है । इसतरह जीवका पर्यायों के साथ भी अभेदका निश्चय साधा हुआ देखना । अब कहते हैं कि इसप्रकार सब परद्रव्योंके साथ तो व्यतिरेक ( भेद ) कर तथा सब दर्शनको आदि लेकर जीवके स्वभावोंके साथ अभेदकर अतिव्याप्ति अव्याप्ति दोषको दूर करता हुआ, अनादिकालसे जिसका अविद्या मूलकारण है ऐसे पुण्य पाप जो शुभ अशुभरूप परसमय उसको दूरकर, आप निश्चय चारित्ररूप दीक्षाको पाकर, दर्शन ज्ञान चारित्रमें स्थितिरूप जो स्वसमय उसको व्यापकर आत्मामें ही मोक्षमार्गके परिणामकर जिसने संपूर्ण विज्ञानघन स्वभाव पालिया है ऐसा, त्याग ग्रहणकर रहित साक्षात् समयसारभूत परमार्थरूप शुद्ध एक ज्ञान ही अवस्थित हुआ देखना अर्थात् प्रत्यक्ष स्व. संवेदनकर अनुभव करना ॥ भावार्थ-सब परद्रव्योंसे तो जुदा और अपने पर्यायोंसे अभेदरूप ऐसा ज्ञान एक दिखलाया। इसलिये अतिव्याप्ति और अव्याप्ति नाम