Book Title: samaysar
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Jain Granth Uddhar Karyalay

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Page 551
________________ ५३८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [सर्वविशुद्धज्ञानपरमार्थत्वाभावात् । यदेव श्रमणश्रमणोपासकविकल्पातिकातं दृशिज्ञप्तिप्रवृत्तिमात्रं शुद्धज्ञानमेमैवकमिति निस्तुषसंचेतनं परमार्थः, तस्यैव स्वयं शुद्धद्रव्यानुभवात्मकत्वे सति परमार्थकत्वात् । ततो ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्ध्या चेतयंते ते समयसारमेव न संचेतयंते । संवित्तिलक्षणभावलिंगस्य बहिरंगसहकारिकारणत्वेनेति । णिच्छयणओ दु णेच्छदि मुक्खपहे सव्वलिंगाणि निश्चयनयस्तु निर्विकल्पसमाधिरूपत्रिगुप्तिगुप्तबलेन अहं निग्रंथलिंगी, कौपीनधारकोऽहमित्यादि मनसि सर्वद्रव्यविकल्पं रागादिविकल्पवन्नेच्छति । कस्मात् ? स्वयमेव निर्विकल्पसमाधिस्वभावत्वात् इति । किंच-अहो शिष्य! पाखंडीलिंगाणि य इत्यादि गाथासप्तकेन द्रव्यलिंगं निषिद्धमेवेति त्वं मा जानाहि किं तु निश्चयरत्नत्रयात्मकनिविकल्पसमाधिरूपं भावलिंगरहितानां यतीनां संबोधनं कृतं । कथं ? इति चेत्, अहो तपोधनाः ! द्रव्यलिंगमात्रेण संतोषं मा कुरुत किंतु द्रव्यलिंगाधारण निश्चयरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिरूपभावनां कुरुत । ननु भवदीयकल्पनेयं, द्रव्यलिंगनिषेधो न कृत इति ग्रंथे लिखितमास्ते ण य होदि मोक्खमग्गो लिंगमित्यादि ? नैव ण य होदि मोक्खमग्गो लिंगमित्यादिवचनेन भवालिंगरहितं द्रव्यलिंगं निषिद्धं न च भावलिंगसहितं । कथं ? इति चेत् द्रव्यलिंगाधारभूतो योऽसौ देहस्तस्य ममत्वं निषिद्धं । न च द्रव्यलिंगं निषिद्धं । केन रूपेण ? इति चेत्, पूर्व दीक्षाकाले सर्वसंगपरित्याग एव कृतो न च देहत्यागः । कस्मात् ! देहधारणं ध्यानज्ञानानुष्ठानं भवति इति हेतोः । नच देहस्य पृथक्त्वं कर्तुमायाति शेषपरिग्रहवदिति । वीतरागध्यानकाले पुनर्मदीयो देहोऽहं लिंगीत्यादिविकल्पो व्यवहारेणापि न कर्तव्यः । देहनिर्ममत्वं कृतं कथं ज्ञायते? इति चेत् जं देहणिम्ममा अरिहा दंसणणाणचरि[निश्चयनयः] निश्चयनय [ सर्वलिंगानि ] सभी लिंगोंको [ मोक्षपथे न इच्छति ] मोक्षमार्गमें इष्ट नहीं करता ॥ टीका-निश्चयकर मुनि और उनके उपासक-श्रावक ऐसे दो भेदोंसे लिंग दो प्रकार हैं वे दोनों ही लिंगमोक्षमार्ग हैं ऐसा कहना है वह केवल व्यवहार ही है परमार्थ नहीं है, क्योंकि इस व्यवहारनयके स्वयं अशुद्ध द्रव्यका अनुभवस्वरूपपना होनेसे परमार्थपनेका अभाव है। तथा जो मुनि श्रावकके भेदसे जुदा दर्शनज्ञानचारित्रकी प्रवृत्तिमात्र निर्मलज्ञान ही एक है ऐसा निर्मल अनुभवन वह परमार्थ है वही मोक्षमार्ग है। क्योंकि ऐसे ज्ञानके ही स्वयं शुद्धद्रव्यरूप होनेका स्वरूपपना होनेसे परमार्थपना है । इसलिये जो पुरुष केवल व्यवहारको ही परमार्थ बुद्धिसे अनुभवते हैं वे समयसारको नहीं अनुभवते और जो परमार्थको ही परमार्थकी बुद्धिकर अनुभवते हैं वे ही इस समयसारको अनुभवते हैं ॥ भावार्थव्यवहारनयका तो विषय भेदरूप अशुद्ध द्रव्य है वह परमार्थ नहीं है । और निश्चयनयका विषय अभेदरूप शुद्ध द्रव्य है वह परमार्थ है। जो व्यवहारको ही निश्चय मान प्रवर्त रहे हैं उनको समयसारकी प्राप्ति नहीं है और जो परमार्थको परमार्थ जानते हैं उनको सम

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