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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[ सर्वविशुद्धज्ञान
नित्योद्योतमखंडमेकमतुला लोकं स्वभावप्रभाप्राग्भारं समयस्य सारममलं नाद्यापि पश्यंति ते ॥ २४१ ॥” ४१२ ॥
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पाखंडीलिंगेसु व हिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु । कुव्वंति जे ममत्तं तेहिं ण णायं समयसारं ॥ ४१३ ॥ पाखंडिलिंगेषु वा गृहिलिंगेषु वा बहुप्रकारेषु । कुर्वंति ये ममत्वं तैर्न ज्ञातः समयसारः ॥ ४१३ ॥
ये खलु श्रमणोऽहं श्रमणोपासकोऽहमिति द्रव्यलिंगममकारेण मिथ्याहंकारं कुर्वंति तेऽनादिरूढव्यवहारविमूढाः प्रौढविवेकं निश्चयमनारूढाः परमार्थसत्यं भगवंतं समयसारं लंबनोम्पन्नशुभाशुभसंकल्पविकल्पेषु मा विहार्षीः, मा गच्छ मा परिणतिं कुर्विति ॥ ४९२ ॥ अथ सहजशुद्धपरमात्मानुभूतिलक्षणभावलिंगरहिता ये द्रव्यलिंगे ममतां कुर्वति तेऽद्यापि समयसारं न जानतीति प्रकाशयति ; - पाखंडियलिंगेसु व गिहलिंगेसु व बहुप्पयारेसु कुब्वंति जे ममत्तिं वीतरागस्वसंवेदनज्ञानलक्षणभाव लिंगरहितेषु निग्रंथरूपपाखंडिद्रव्यलिंगेषु कौपीनचिह्नादिगृहस्थलिंगेषु बहुप्रकारेषु ये ममतां कुर्वंति तेहि ण णादं समयसारं जगत्रयकालत्रयवर्तिख्यातिपूजालाभमिथ्यात्वकामक्रोधादि समस्तपरद्रव्यालंबनसमुत्पन्नशुहै अर्थात् जिसका भार अन्य नहीं सह सकता तथा अमल है अर्थात् रागादि विकाररूप मलसे रहित है । ऐसे परमात्मा के स्वरूपको द्रव्यलिंगी नहीं पा सकता ॥ ४९२ ॥
अब इसी अर्थकी गाथा कहते हैं; - [ ये ] जो पुरुष [ पाखंडिलिंगेषु ] पाखंडीलिंगोंमें [ वा ] अथवा [ बहुप्रकारेषु गृहिलिंगेषु वा ] बहुत भेदवाले गृहस्थलिंगोंमें [ ममत्वं ] ममता [ कुर्वति ] करते हैं अर्थात् हमको ये ही मोक्षके देनेवाले हैं ऐसी, [तैः ] उन पुरुषोंने [ समयसारः ] समयसारको [ न ज्ञातः ] नहीं जाना ॥ टीका–जो पुरुष निश्चयकर ऐसा मानते हैं कि मैं श्रमण हूं मुनि हूं अथवा श्रमणका उपासक हूं सेवक हूं श्रावक हूं इस तरह द्रव्यलिंग में ममकार कर मिथ्या अहंकार करते हैं वे अनादिके चले आये व्यवहारमें मोही हुए बढे भेदज्ञान वाले निश्चयनयको नहीं पाते हुए परमार्थसे सत्यार्थ भगवान ज्ञानरूप समयसारको नहीं देखते -- पाते ॥ भावार्थ - अनादिकालका परद्रव्यके संयोगसे हुआ जो व्यवहार उसीमें जो मोही हैं वे ऐसा जानते हैं कि यह बाह्य महाव्रतादिरूप भेद है वही हमको मोक्ष प्राप्त करेगा परंतु जिससे भेदज्ञानका जानना होता है ऐसे निश्चयनयको नहीं जानते उनके सत्यार्थ परमात्मरूप शुद्धज्ञानमय समयसारकी प्राप्ति नहीं होती ॥ अब इसी अर्थका कलशरूप २४२ वां काव्य कहते हैं — व्यवहार इत्यादि । अर्थजो लोक व्यवहारमें ही मोहित बुद्धिवाले हैं वे परमार्थको नहीं जानते । जैसे लोक में