________________
परिशिष्टम् ] समयसारः।
५४९ पशुः पशुरिव स्वच्छंदमाचेष्टते । तत्तत्तत्पररूपतो न तदिति स्याद्वाददर्शी पुनर्विश्वाद्भिन्नमविश्वविश्वपरितं तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत् ॥ २४९ ॥ बाह्यार्थग्रहणस्वभावभरतो विश्वग्विचित्रोलसज्ज्ञयाकारविशीर्णशक्तिरभितस्त्रुट्यन् पशुनश्यति । एक द्रव्यतया सदाप्युदितया भेदभ्रमं ध्वंसयन्नेकं ज्ञानमबाधितानुभवनं पश्यत्यनेकांतवित् ॥ २५० ॥ ज्ञेयाकारकलंकमेचकचितिप्रक्षालनं कल्पयन्नेकाकारचिकीर्षया स्फुटमपि ज्ञानं पशुर्नेच्छति । वैचित्र्येऽनित्यः । पर्यायार्थिकनयेन भेदात्मकः द्रव्यार्थिकनयेनाभेदात्मको भवतीत्याद्यनेकधर्मात्मक इति । तदेव स्याद्वादस्वरूपं तु समंतभद्राचार्यदेवैरपि भाणितमास्ते-सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपहै-बाह्याथैः इत्यादि । अर्थ-अज्ञानी तिर्यच समान सर्वथा एकांतीका ज्ञान है वह बाह्य ज्ञेय पदार्थोकर समस्तपने पिया गया, छोड़ी जो अपनी व्यक्तियां उनकर रीता हुआ समस्तपनेकर पररूपमें ही.विश्रांत हुआ-रह गया, अपनारूप कुछ भी न रहनेसे नष्ट हुआ। और स्याद्वादीका ज्ञान है वह अपने स्वरूपसे तत्स्वरूप ही है ज्ञानस्वरूप ही है ऐसें तत्स्वरूप हुआ अतिशयकर प्रगट हुए ज्ञानके समूहरूप स्वभावके भारसे संपूर्ण उदयरूप प्रगट होता है । भावार्थ-कोई सर्वथा एकांती तो ज्ञानको ज्ञेयाकारमात्र ही मानता है उसके ज्ञानको तो ज्ञेय पीगये आप कुछ न रहा । और स्याद्वादी ऐसा मानते हैं कि ज्ञान अपने स्वरूपकर ज्ञान ही है, ज्ञेयाकार हुआ है तौभी ज्ञानपनेको नहीं छोड़ता । इसलिये तत्स्वरूप ज्ञान प्रकट प्रकाशमान है ॥ फिर २४९ वां काव्य-विश्वं इत्यादि । अर्थ-अज्ञानी सर्वथा एकांतवादी, समस्त ज्ञेय पदार्थ ज्ञानमय हैं ऐसा विचारकर सकल जगतको निजतत्त्वकी आशाकर देख आप समस्त वस्तुमयी होके तिर्यचकी तरह स्वच्छंद चेष्टा करता है । और स्याद्वादको देखनेवाला है वह उस ज्ञानके निजस्वरूपको ऐसा देखता है कि अपने ज्ञानस्वरूपसे तत्स्वरूप है, पर ज्ञेयस्वरूपोंसे तत्स्वरूप नहीं है । इस प्रकार सब वस्तुसे भिन्न, सब ज्ञेय वस्तुओं से घटित होनेपर भी समस्त ज्ञेयस्वरूप नहीं, और ज्ञेयाकाररूप हुआ है तौभी उससे भिन्न ऐसा ज्ञानका स्वरूप अनुभवता है । भावार्थ-जो वस्तु अपने स्वरूपसे तत्स्वरूप है वही वस्तु परके स्वरूपसे अतत्स्वरूप है ऐसें स्याद्वादी देखता है । ज्ञान अपने स्वरूपसे तत्स्वरूप है उसीतरह पर ज्ञेयोंके आकार होनेपर उनसे भिन्न है इसलिये अतत्स्वरूप है । एकांतवादी समस्त वस्तु स्वरूप ज्ञानको मान आत्माको उन ज्ञेयमय मान अज्ञानी हो पशुकी तरह स्वच्छंद प्रवर्तता है। ऐसा अतत्स्वरूपका भंग है । अब २५० वां काव्य है-बाह्यार्थ इत्यादि । अर्थ-अज्ञानी सर्वथा एकांतवादी, बाह्य ज्ञेय पदाथोंके ग्रहणरूप ज्ञानके स्वभावके भारसे समस्त अनेक प्रगट ज्ञानमें आये शेयके आकारोंकर जिसकी शक्ति विगड़गई (खंड खंड हुई) है ऐसा हुआ समस्तपनेसे खंड खंड़ होता आप नाशको प्राप्त होता है और अनेकांतका जाननेवाला सदा उदयरूप