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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ सर्वविशुद्धज्ञानज्ञानं हि परद्रव्यं किंचिदपि न गृह्णाति न मुंचति प्रायोगिकगुणसामर्थ्यात् वैस्रसिकगुणसामर्थ्याद्वा ज्ञानेन परद्रव्यस्य गृहीतुं मोक्तुं चाशक्यत्वात् । न ज्ञानस्यामूर्तात्मद्रव्यस्य मूर्तपुद्गलद्रव्यमाहारः ततो ज्ञानं नाहारकं भवत्यतो ज्ञानस्य देहो नाकथं ? पाउग्गिय विस्ससो वापि प्रायोगिको वैस्रसिकश्चेति । प्रायोगिकः कर्मसंयोगजनितः । वैस्रसिकः स्वभावजः । येन गुणेन किं करोति ? णवि सकदि घित्तुं जे ण मुंचिदं चेव जं परं व्वं परद्रव्यमाहारादिकं गृहीतुं मोक्तुं च न शक्नोति । अहो भगवन् ? कर्मजनितप्रायोगिकगुणेन आहारं गृहंतस्ते कथमनाहारका भवंति इति । हे शिष्य ! भद्रमुक्तं त्वया परं किंतु निश्चयेन तन्मयो न भवति स व्यवहारनयः । इदं तु निश्चयव्याख्यानमिति । तह्मा दु जो विशुद्धो चेदा यस्मान्निश्चयनयेनानाहारकः तस्मात्कारणात् यस्तु विशेषेण शुद्धो रागादिरहितश्चेतयितात्मा सो व गिलदे किंचि व विमुंचदि किंचिवि जीवाजीवाण दव्वाणं कर्माहार-नोकर्माहार-लेप्याहार-ओजआहार-मानसाहाररूपेण जीवाजीवद्रव्याणां मध्ये सचित्ताचित्ताहारं नैव किंचिद् गृह्णाति न मुंचति । ततः कार.. णान्नोकर्माहारमयशरीरं जीवस्वरूपं न भवति । शरीराभावे शरीरमयद्रव्यलिंगमपि जीवस्वरूपं ऐसाही आत्माका गुण [ प्रायोगिकः वापि वैस्रसः ] प्रायोगिक तथा वैस्रसिक है। [ तस्मात्तु ] इसलिये [ यः विशुद्धः चेतयिता] जो विशुद्ध आत्मा है [स] वह [जीवाजीवयोः द्रव्ययोः ] जीव अजीव परद्रव्यमेंसे [किंचित् नैव गृह्णाति ] किसीको भी न तो ग्रहणही करता है [ अपि किंचित् नैव विमुंचति ] और न किसीको छोड़ता है ॥ टीका-यहां आत्मा कहनेसे ज्ञानका ग्रहण है, क्योंकि अभेद विवक्षासे लक्षणमें ही लक्ष्यका व्यवहार है। इस न्यायसे आत्माको ज्ञान ही कहना आता है । इसलिये टीकाकार कहते हैं कि ज्ञान परद्रव्यको कुछ भी नहीं ग्रहण करता और कुछभी न छोड़ता है क्योंकि प्रायोगिक अर्थात् पर निमित्तसे उत्पन्न हुआ जो गुण उसकी सामर्थ्यसे तथा वैस्रसिक (स्वाभाविक ) गुणकी सामर्थ्यसे दोनों तरहसे ज्ञानकर परद्रव्यके ग्रहण करनेका और छोड़नेका असमर्थपना है। अमूर्तीक आत्मद्रव्य जो ज्ञान उसके मूर्तीक पुद्गलद्रव्य आहार नहीं है क्योंकि अमूर्तीकके मूर्तीक आहार नहीं होता। इसलिये ज्ञान आहारक नहीं है । इस कारण ज्ञानमें देहकी शंका न करना ॥ भावार्थ:-ज्ञानस्वरूप आत्मा अमूर्तीक है और कर्मनोकर्मरूप पुद्गलमय आहार मूर्तीक है इसलिये परमार्थसे आत्माके पुद्गलमय आहार नहीं है । आत्माका ऐसा ही स्वभाव है इस कारण परद्रव्यको तो ग्रहण ही नहीं करता स्वभावरूप परिणमो तथा विभावरूप परिणमो अपनेही परिणामका ग्रहण त्याग है परद्रव्यका तो ग्रहण त्याग कुछभी नहीं है । इस लिये आत्माके पुद्गलमय देहस्वरूप लिंग (वेष-बाह्यचिन्ह ) हैं वे मोक्षके कारण नहीं हैं ॥ उसकी सूचनाका २३८