Book Title: samaysar
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Jain Granth Uddhar Karyalay

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Page 541
________________ ५२८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ सर्वविशुद्धज्ञानशंकनीयः । एवं तु सति ज्ञानमेव सम्यग्दृष्टिः, ज्ञानमेव संयमः, ज्ञानमेवांगपूर्वरूपं सूत्र, ज्ञानमेव धर्माधर्मों, ज्ञानमेव प्रव्रज्येति ज्ञानस्य जीवपर्यायैरपि सहाव्यतिरेको निश्चयसाधितो द्रष्टव्यः । अथैवं सर्वद्रव्यव्यतिरेकेण सर्वदर्शनादिजीवस्वभावाव्यतिरेकेण वा अतिव्याप्तिमव्याप्तिं च परिहरमाणमनादिविभ्रममूलं धर्माधर्मरूपं परमसमयमुद्यम्य स्वयमेव प्रव्रज्यारूपमापाद्य दर्शनज्ञानचारित्रस्थितिरूपं स्वसमयमवाप्य मोक्षमार्गमात्मन्येव परिणतं कृत्वा समवाप्तसंपूर्ण विज्ञानघनभावं हानोपादानशून्यं साक्षात्समयसारभूतं शुद्धज्ञानमेकमेव स्थितं द्रष्टव्यं । “अन्येभ्यो व्यतिरिक्तमात्मनियतं बिभ्रत्पृथग्वस्तुतामादानोज्झनशून्यमेतदमलं ज्ञानं तथावस्थितं । मध्याद्यंतविभागमुक्तसहजस्फारप्रभावं पुरः शुद्धज्ञानघनो यथास्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति ॥ २३५ ॥ उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत्तथात्तमादेयमशेषतस्तत् । यदात्मनः संहृतसर्वशक्तेः पूर्णस्य संधारणमात्मनीह ॥ २३६ ॥ व्यतिरिक्तं निर्विकल्पभावरूपमानसमतिज्ञानश्रुतज्ञानसंज्ञं पंचेंद्रियाविषयत्वेनातींद्रियं शुद्धपारिणामिकभावविषये तु या भावना तद्रूपं निर्विकारस्वसंवेदनशब्दवाच्यं संसारिणां क्षायिकज्ञानाभावात् क्षायोपशमिकमपि । विशिष्टभेदज्ञानं मुक्तिकारणं न भवति। कस्मात् ? इति चेत् समस्तमिथ्यात्वरागादिविकल्पोपाधिरहितस्वशुद्धात्मभावनोत्थपरमाल्हादैकलक्षणसुखामृतरसास्वादैकाकारपरमसमरसीभावपरिणामेन कार्यभूतस्यानंतज्ञानसुखादिरूपस्य मोक्षफलस्य विवक्षितैकशुद्धनिश्चयनयेन शुद्धोपादानकारणत्वादिति । तथा चोक्तं "भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । तस्यैवाभा कर रक्खा है, ग्रहण त्यागकर रहित है ज्ञानमें कुछ त्याग ग्रहण नहीं है, रागादिक मलसे रहित है ऐसा है । और इसकी महिमा नित्य उदयरूप ठहर रही है । कैसी है महिमा ? मध्य आदि अंत जो भेद उनसे रहित स्वाभाविक विस्ताररूप हुए प्रकाशकर दैदीप्यमान है और शुद्ध ज्ञानका समूह है। ऐसी जिसकी महिमा सदा उदयमान है उसतरह ठहरा हुआ है । भावार्थ-ज्ञानका पूर्णरूप सबको जानना है सो जब यह प्रकट होता है तब उन यिशेषणों के साथ प्रकट होता है। कि इसकी महिमा कोई विगाड़ नहीं सकता सदा उदयमान रहती है ॥ अब २३६ वें काव्यसे कहते हैं कि ऐसे ज्ञानस्वरूप आत्माका धारण करना वही कृतकृत्यपना है-उन्मुक्त इत्यादि । अर्थजिसने सब शक्तियां समेंट ली हैं ऐसे पूर्ण स्वरूप आत्माका आत्मामें ही धारण करना वही तो छोड़ने योग्य छोड़ा और जो लेने योग्य था सो सब लिया ॥ भावार्थपूर्ण ज्ञान स्वरूप सब शक्तियोंका समूह स्वरूप आत्माको धारण करना वही त्यागने योग्य सभी त्यागा और ग्रहण करने योग्य था वह ग्रहण किया। यही कृतकृत्यपना है ॥ आगे कहते हैं कि ऐसे ज्ञानके देह भी नहीं है उसकी सूचनाका २३७ वां श्लोक है-व्यतिरिक्तं इत्यादि । अर्थ-पूर्वोक्तप्रकार परद्रव्यसे जुदा ज्ञान ठहरा ।

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