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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [सर्वविशुद्धज्ञानआकाशमपि न ज्ञानं यस्मादाकाशं न जानाति किंचित् । तस्मादाकाशमन्यदन्यज्ज्ञानं जिना विदंति ॥ ४०१॥ नाध्यवसानं ज्ञानमध्यवसानमचेतनं यस्मात् । तस्मादन्यज्ज्ञानमध्यवसानं तथान्यत् ॥४०२॥ यस्माजानाति नित्यं तस्माजीवस्तु ज्ञायको ज्ञानी । ज्ञानं च ज्ञायकादव्यतिरिक्तं ज्ञातव्यं ॥४०३ ॥ ज्ञानं सम्यग्दृष्टिं तु संयम सूत्रमंगपूर्वगतं । ।
धर्माधर्म च तथा प्रव्रज्यामभ्युपयांति बुधाः ॥ ४०४॥ पारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन शुद्धोपादानरूपेण जीवादिव्यावहारिकनवपदार्थेभ्यो भिन्नमादिमध्यांतमुक्तमेकमखंडप्रतिभासमयं निजनिरंजनसहजशुद्धपरमसमयसाराभिधानं सर्वप्रकारोपादेयभूतं शुद्धज्ञानस्वभावं शुद्धात्मतत्त्वमेव श्रद्धेयं ज्ञेयं ध्यातव्यमिति । एवं व्यावहारिकनवपदार्थमध्ये भूतार्थनयेन शुद्धजीव एक एव वास्तवः स्थित इति व्याख्यानमुख्यत्वेन एकादशमस्थले पंचदश गाथा गताः । किंच-मत्यादिसंज्ञानपंचकं पर्यायरूपं तिष्ठति शुद्धपावाले लक्षणके दोष दूर होगये। क्योंकि आत्माका लक्षण उपयोग है उपयोगमें ज्ञान प्रधान है वह अन्य अचेतन द्रव्योंमें नहीं है इसकारण तो अतिव्याप्ति स्वरूप नहीं ।
और अपनी सब अवस्थाओं में है इसलिये अव्याप्ति स्वरूप नहीं है। यहांपर ज्ञान कहनेसे आत्मा ही जानना क्योंकि अभेदविवक्षामें गुण और गुणीका आपसमें अभेद है इसलिये विरोध नहीं । यहां ज्ञानको ही प्रधानकर आत्माका अधिकार है इसी लक्षणसे सब परद्रव्योंसे भिन्न अनुभवगोचर होता है । यद्यपि आत्मामें अनंत धर्म हैं तौभी उनमें कोई तो छद्मस्थके अनुभवगोचर ही नहीं कि उनको कहे । छद्मस्थ ज्ञानी आत्माको कैसे पहचाने ? नहीं पहचान सकता । कोई धर्म अनुभव गोचर हैं उनमें कोई अस्तित्व वस्तुत्व प्रमेयत्वादिक हैं वे अन्यद्रव्योंसे साधारण ( समान ) हैं उनके कहनेसे जुदा आत्मा जाना नहीं जाता । कोई परद्रव्यके निमित्तसे हुए हैं उनको कहनेसे परमार्थ आत्माका शुद्ध स्वरूप कैसे जाना जाय ? इसलिये ज्ञान ही कहनेसे छद्मस्थ ज्ञानी आत्माको पहिचान सकता है । इसलिये ज्ञानको ही आत्मा कहकर इस ज्ञानमें अनादि अज्ञानसे शुभाशुभ उपयोगरूप परसमयकी प्रवृत्तिको दूरकर, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमें प्रवृत्तिरूप स्वसमयरूप परिणमनस्वरूप मोक्षमार्गमें आत्माको परिणमाके संपूर्ण ज्ञानको जब प्राप्त होता है तब फिर त्याग ग्रहणकेलिये कुछ नहीं रहता। ऐसा साक्षात् समयसारस्वरूप पूर्ण ज्ञान परमार्थभूत शुद्ध ठहरे उसको देखना । वहांपर देखना भी तीन प्रकार जानना । एक तो शुद्धनयके ज्ञानकर इसका श्रद्धान करना। यह तो अविरत आदि अवस्थामें भी मिथ्यात्वके अभावसे होता है । दूसरा ज्ञान श्रद्धान हुए वाद बाह्य सब परिग्रहका