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अधिकारः ९]. समयसारः।
५११ समाप्तः । “समस्तमित्येवमपास्य कर्म त्रैकालिकः शुद्धनयावलंबी । विलीनमोहो रहितो विकारैश्चिन्मात्रमात्मानमथावलंबे ॥ २२९ ॥” अथ सकलकर्मफलसंन्यासभावनां नाटयति । “विगलंतु कर्मविषतरुफलानि मम भुक्तिमंतरेणैव । संचेतयेऽहमचलं चैतन्यात्मानमात्मानं" ॥२३०॥ नाहं मतिज्ञानावरणीयकर्मफलं भुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये
यसंबंधिमनोवचनकायकृतकारितानुमतख्यातिपूजालाभदृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानबंधादि
रहित अपने शुद्ध चैतन्यकी प्रवृत्तिरूप शुद्धोपयोगमें वर्तना है। इसलिये ज्ञानी आगामी समस्त कर्मोंका प्रत्याख्यानकर अपने चैतन्यस्वरूपमें वर्तता है । यहां तात्पर्य ऐसा जानना कि व्यवहार चारित्रमें तो जैसा प्रतिज्ञामें दोष लगे उसका प्रतिक्रमण आलोचना प्रत्याख्यान होता है। और यहां निश्चय चारित्रका प्रधानपनेसे कथन है इसलिये शुद्धोपयोगसे विपरीत सभी कर्म आत्माके दोषस्वरूप हैं । उन सभी कर्मचेतनास्वरूप परिणामोंका ज्ञानी तीनकालके कर्मोंका प्रतिक्रमण आलोचना प्रत्याख्यान कर सब कर्मचेतनासे जुदे अपने शुद्धोपयोगस्वरूप आत्माके ज्ञान श्रद्धानकर और उसमें स्थिर होनेका विधानकर निष्प्रमाद दशाको प्राप्त हो श्रेणी चढ केवलज्ञान उपजानेके सन्मुख होता है । यह ज्ञानीका कार्य है । ऐसा प्रत्याख्यान कल्प समाप्त किया ॥ आगे सकल कर्मके संन्यासकी (क्षेपणेकी ) भावनाको नृत्य कराके कथन पूर्ण करनेका २२९ वां काव्य कहते हैं-समस्त इत्यादि । अर्थ-शुद्ध नयको आलंबन करनेवाला कहता है कि पूर्वोक्त प्रकार अतीत वर्तमान भविष्यतरूप तीन काल संबंधी कोंको छोड़कर शुद्धनयका अवलंबन करनेवाला ज्ञानी मैं मिथ्यात्वकर्मको नष्ट करता हुआ अब सब विकारोंसे रहित चैतन्यमात्र आत्माका अवलंबन करता हूं। अब सकल कर्मफलों के संन्यासकी भावनाका नृत्य कराते हैं। उसका टीकामें संस्कृत पाठ है उसमें प्रथम समुच्चय अर्थका २३० वां काव्य कहते हैं-विगलंतु इत्यादि । अर्थ-सब कर्मफलोंकी संन्यासभावना करनेवाला कहता है कि कर्मरूपी विषवृक्षके फल हैं वे मेरे भोगनेविना ही खिर जाओ, मैं चैतन्यस्वरूप अपने आत्माको निश्चल अनुभवता हूं ॥ भावार्थ-ज्ञानी कहता है कि कर्मका फल जो उदय आता है उसको मैं ज्ञाता द्रष्टा हुआ देखता हूं उसके फलका भोक्ता नहीं बनता । इसलिये मेरे भोगेविना ही वे कर्म खिर जावें मैं अपने चैतन्यस्वरूप आत्मामें लीन हुआ उनके देखने जाननेवाला ही होउं । यहां इतना विशेष दूसरा जानना कि अविरत दशामें तथा देशविरत प्रमत्तसंयत दशामें तो ऐसा ज्ञान श्रद्धान ही प्रधान है और जब अप्रमत्त दशा होकर श्रेणी चढता है तब यह अनुभव साक्षात् होता है ॥ अब सकलकर्मफलोंकी संन्यासभावनाका पाठ संस्कृत टीकामें ऐसा है-नाहं मतिज्ञाना इत्यादि। अर्थ—मैं ज्ञानी हूं इसलिये मतिज्ञानावरणीयनामा कर्म के फलको