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अधिकारः ९]
समयसारः। चक्षाणः प्रत्याख्यानं भवति । स एव वर्तमानकर्मविपाकमात्मनोऽत्यंतभेदेनोपलभमानः, आलोचना भवति । एवमयं नित्यं प्रतिक्रामन्, नित्यं प्रत्याचक्षाणो नित्यमालोचयंश्च पूर्वकर्मकार्येभ्य उत्तरकर्मकरणेभ्यो भावेभ्योत्यंत निवृत्तः, वर्तमानं कर्मविपाकमात्मनोऽत्यंतभेदेनोपलभमानः स्वस्मिन्नेव खलु · ज्ञानस्वभावे निरंतरचरणाचारित्रं भवति । चारित्रं तु भवन् स्वस्य ज्ञानमात्रस्य चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवतीति भावः।
कर्ता वेदयत्यनुभवति जानाति । किं जानाति । जं यत्कर्म तं तत् । केन रूपेण ? दोसं दोषोयं मम स्वरूपं न भवति । कथंभूतं कर्म ? उदिण्णं उदयागतं । पुनरपि कथंभूतं ? सुहमसुहं शुभाशुभं । पुनश्च किंरूपं ? अणेयवित्थरविसेसं मूलोत्तरप्रकृतिभेदेनानेकविस्तरविस्तीर्ण । संपडिय संप्रति काले खलु स्फुटं । सो आलोयणं चेदा स चेत? यिता पुरुष एवाभेदेनयेन निश्चयालोचनं भवतीति ज्ञातव्यं । णिचं पचक्खाणं कुव्वदि णिचंपि जो पडिक्कमदि णिचं अलोचेदिय निश्चयरत्नत्रयलक्षणे शुद्धात्मस्वरूपे स्थित्वा यः कर्ता पूर्वोक्तनिश्चयप्रत्याख्यानप्रतिक्रमणालोचनानुष्ठानानि नित्यं सर्वकालं करोति
वोंसे अत्यंत निवृत्तिस्वरूप हुआ वर्तमान कर्मके उदयसे आपको अत्यंत भेदकर पाता हुआ अपने ज्ञानस्वभावमें ही निरंतर प्रवर्तनेसे आप ही चारित्रस्वरूप होता है । ऐसे चारित्ररूप होता अपनेको ज्ञानमात्र अनुभवनेसे आप ही ज्ञानचेतनास्वरूप होता है . ऐसा तात्पर्य है ॥ भावार्थ-यहां निश्चय चारित्रका प्रधानतासे कथन है । वहां चारित्रमें प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान आलोचनाका विधान है। उनमेंसे लगे हुए दोषसे आत्माको निवर्तन करना वह प्रतिक्रमण है, आगामी दोष लगानेका त्याग करना वह प्रत्याख्यान है और वर्तमान दोषसे आत्माको जुदा करना वह आलोचना है । सो निश्वयकर विचारिये तब तीनों काल संबंधी कर्मोंसे आत्माको भिन्न जानना श्रद्धना अनुभवना । ऐसा करनेसे आत्मा ही प्रतिक्रमण है, आत्मा ही प्रत्याख्यान है, आत्मा ही आलोचना है । इन तीनों स्वरूप निरंतर आत्माका अनुभवन वही चारित्र है । और निश्चय चारित्र ही ज्ञानचेतनाका अनुभवन है। इसी अनुभवसे साक्षात् ज्ञानचेतनास्वरूप केवलज्ञानमय आत्मा प्रकट होता है। अब ज्ञान चेतना और अज्ञान चेतना जो कर्मचेतना कर्मफल चेतना इनका स्वरूप प्रगट करते हैं उसकी सूचनिकाका २२४ वां काव्य कहते हैं-ज्ञानस्य इत्यादि । अर्थ-ज्ञानकी चेतनाकर ही ज्ञान अत्यंत शुद्ध निरंतर प्रकाशता है और अज्ञानकी चेतनाकर बंध दौड़ता हुआ ज्ञानकी शुद्धताको रोकता है नहीं होने देता ॥ भावार्थ-संचेतन अर्थात् जो जहां जिससे एकाग्र हो उसीतरफ अनुभवरूप स्वाद लिया करे वह उस स्वरूप चेतना कहा जाता है। सो जब ज्ञानसे ही एकाग्र उपयुक्त हो उसीतरफ चेत रखे वह तो ज्ञानचेतना है । इससे तो