Book Title: samaysar
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Jain Granth Uddhar Karyalay

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Page 502
________________ अधिकारः ९ ] समयसारः । वेदयमानः कर्मफलमात्मनं करोति यस्तु कर्मफलं । सतत्पुनरपि बध्नाति बीजं दुःखस्याष्टविधं ॥ ३८७ ॥ वेदयमानः कर्मफलं मया कृतं जानाति यस्तु कर्मफलं । स तत्पुनरपि बध्नाति बीजं दुःखस्याष्टविधं ॥ ३८८ ॥ वेदयमानः कर्मफलं सुखितो दुःखितश्च भवति चेतयिता । स तत्पुनरपि बध्नाति बीजं दुःखस्याष्टविधं ॥ ३८९ ॥ ४८९ ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनं अज्ञानचेतना । सा द्विधा कर्मचेतना कर्मफलचेतना च । तत्र ज्ञानादन्यत्रेदमहं करोमीति चेतनं कर्मचेतना । ज्ञानादन्यत्रेदं वेदयेऽहमिति चेतनं कर्मफलचेतना । सा तु समरसापि संसारबीजं । संसारबीजस्याष्टविधकर्मणो बीजत्वात् । ततो मोक्षार्थिना पुरुषेणाज्ञानचेतनाप्रलयाय सकलकर्मसंन्यास भावनां सकलकर्मफलसंन्यासभावनां च नाटयित्वा स्वभावभूता भगवती ज्ञानचेतनैवैका नित्यमेव नाटयितव्या । तत्र तावत्सकलकर्मफलसंन्यासभावनां नाटयति- “ कृतकारितानुमननैस्त्रिकालविषयं मनोवचनकायैः । परिहृत्य कर्म सर्वं परमं नैष्कर्म्यमवलंबे ॥ २२५ ॥” कर्मेति च भणति । स जीवः पुनरपि तदष्टविधं कर्म बघ्नाति । कथंभूतं ! बीजं कारणं । कस्य ? दुःख्नस्य। इति गाथाद्वयेनाज्ञानरूपा कर्मभावचेतना व्याख्याता । कर्मचेतना कोऽर्थः ? है और ज्ञानके सिवाय अन्य भावों में ऐसा अनुभवे कि इसको मैं भोगता हूं वह कर्मफल चेतना है । ये दोनों ही अज्ञान चेतना है वह संसारका बीज है । क्योंकि संसारका बीज आठ प्रकार ज्ञानावरणादि कर्म है उसका यह अज्ञान चेतना बीज है । इससे कर्म बंधते हैं । इसलिये जो मोक्षको चाहनेवाला पुरुष है उसको अज्ञान चेतनाका नाश करनेके लिये सब कर्मोंके छोड़ देनेकी भावनाको नचाकर फिर समस्त कर्मों के फलके त्यागकी भावनाको नचाकर अपना स्वभावभूत जो ज्ञानवती भगवती एक ज्ञानचेतना उसीको निरंतर नृत्य कराना चाहिये । वहां प्रथम ही सकल कमोंके संन्यासकी भावनाको नचाते हैं। उसका कलशरूप २२५ वां काव्य है— कृत इत्यादि । अर्थ - भतीत अनागत वर्तमानकाल संबंधी सभी कर्मोंको कृत कारित अनुमोदना और मन वचन कायसे छोड़कर उत्कृष्ट निष्कर्म अवस्थाको मैं अवलंबन करता हूं । इसप्रकार सब कमौका त्याग करनेवाला ज्ञानी प्रतिज्ञा करता है । अब सब कमके त्याग करनेके कृत कारित अनुमोदना और मन वचन कायकर उनचास भंग ( भेद ) होते हैं । वहां अतीत काल संबंधी कर्मके त्याग करनेको प्रतिक्रमण कहा है उसको प्रथम उनचास भंग कर कहते हैं । टीकामें संस्कृत पाठ यदहं इत्यादि है— अर्थ — प्रतिक्रमण करनेवाला कहता है कि जो मैंने पापकर्म अतीत कालमें किया था और अन्यको प्रेरणाकर कराया था तथा ६२ समय०

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