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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ सर्वविशुद्धज्ञान
कारयामि मनसा चेति ४२ न कुर्वंतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा चेति ४३ न करोमि वाचा चेति ४४ न कारयामि वाचा चेति ४५ न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि वाचा चेति ४६ न करोमि कायेन चेति ४७ न कारयामि कायेन चेति ४८ न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि कायेन चेति ४९ । “ मोहविलासविजृंभितमिदमुदयत्कर्म सकलमालोच्य । आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते” ॥ २२७ ॥ इत्यालोचनाकल्पः समाप्तः ॥ न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वंतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च
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मात्मानमेव संचेतये । नाहमवधिज्ञानवरणीयकर्मफलं भुंजे । तर्हि किं करोमि ? शुद्धचैतन्यस्वभावमात्मानमेव संचेतये । नाहं मन:पर्ययज्ञानावरणीयफलं भुंजे । तर्हि किं करोमि ? शुद्ध
भंग है । इसमें एक कृतपर एक मन लगा इसलिये ग्यारहकी समस्या हुई । ४१ । ११ । वर्तमान कर्मको अन्यको प्रेरकर मैं नहीं कराता मनकर, ऐसा ब्यालीसवां भंग है । इसमें कारित एक पर एक मन लगा इसलिये ग्यारहकी समस्या हुई । ४२ । ११ । वर्तमान कर्मको मैं अन्य करते हुएको भला नहीं जानता मनकर, ऐसा तेतालीसवां भंग है । इसमें एक अनुमोदनापर एक मन लगाया इसलिये ग्यारह की समस्या हुई । ४३ । ११ । वर्तमान कर्मको मैं नहीं करता वचनकर, ऐसा चवालीसवां अंग है । इसमें एक कृतपर वचन एक लगाया इसलिये ग्यारह की समस्या हुई । ४४ । ११ । वर्तमान कर्मको मैं अन्यको प्रेरकर नहीं कराता वचनकर, ऐसा पैंतालीसवां भंग है । इसमें एक कारित पर एक वचन लगाया इसलिये ग्यारहकी समस्या हुई । ४५ । ११ । वर्तमान कर्मको मैं अन्य करते हुएको भला नहीं जानता वचनकर, ऐसा छयालीसवां भंग हैं । इसमें एक अनुमोदनापर एक वचन लगाया इसलिये ग्यारहकी समस्या हुई । ४६ । ११ । वर्तमान कर्मको मैं नहीं करता कायकर, ऐसा सैतालीसवां भंग हुआ । इसमें एक कृतपर एक काय लगाया इसलिये ग्यारह की समस्या हुई । ४७ । ११ । वर्तमान कको मैं अन्यको प्रेरकर नहीं कराता कायकर, ऐसा अड़तासवां भंग है । इसमें एक कारितपर एक काय लगाया इसलिये ग्यारह की समस्या हुई । ४८ । ११ । वर्तमान कर्मको मैं अन्य करते हुएको भला नहीं जानता कायकर, ऐसा उनचासवां भंग है । इसमें एक अनुमोदना पर एक काय लगाया इसलिये ग्यारह की समस्या हुई । ४९ । ११ । इसतरह ग्यारहकी समस्या के नौ भंग हुए । इसप्रकार आलोचनाके उनचास भंग हैं। इनमें तेतीसकी समस्याका एक १ । बत्तीसके तीन ३ इकतीसके तीन ३ तेइसके तीन ३ बाईसके नौ ९ इकईसके नौ ९ तेरह के तीन ३ बारह के नौ ९ ग्यारह के नौ ९ । इसतरह सब मिलकर उनचास हुए | अब इसके अर्थका कलशरूप २२७ वां काव्य कहते हैं— मोहविलास इत्यादि । अर्थ — निश्चय चारित्रको अंगीकार कर