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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ सर्वविशुद्धज्ञानविचित्रां परिणतिमासादयंतः कमनीया अकमनीया वा शब्दादयो बहिरा न मनागपि विक्रियायै कल्प्येरन् । एवमात्मा परं प्रति उदासीनो नित्यमेवेति वस्तुस्थितिः, तथापि यद्रागद्वेषौ तदज्ञानं । “पूर्णैकाच्युतशुद्धबोधमहिमा बोधो न बोध्यादयं । यायात्कामपि विक्रियां तत इतो दीपः प्रकाश्यादिव । तद्वस्तुस्थितिबोधबंध्यधिषणा एते किमज्ञानिनो रागद्वेषमयीं भवंति सहजां मुंचंत्युदासनितां ॥ २२२ ॥ रागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्यं स्वभावस्पृशः पूर्वागामिसमस्तकर्मविकला भिन्नास्तदात्वोदयात् । दूरारूढचरित्रवैभवबलाचंचच्चिदर्चिर्मयीं विंदन्ति स्वरसाभिषिक्तभुवनां ज्ञानस्य संचेतनां ॥ २२३ ॥" ॥ ३७३-३८२ ॥
एवं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गभूतं निश्चयकारणसमयसारव्यवहारकारणसमयसारद्वयमजानन् सन्नज्ञानी जीवः स्वकीयबुद्धिदोषेण रागादिभिः परिणमति । परेषां शब्दादीनां दूषणं नास्तीति व्याख्यानमुख्यत्वेन नवमस्थले गाथादशकं गतं ॥३७३-३८२ ॥ अथ मिथ्यात्वरागादिपरिणतजीवस्याज्ञानचेतना केवलज्ञानादिगुणप्रच्छादकं कर्मबंध जनयतीति प्रतिपादयति;
भी होता है ॥ अब अगले कथनकी सूचनिकारूप २२३ वां काव्य कहते हैंरागद्वेष इत्यादि । अर्थ-ज्ञानी हैं वे रागद्वेषरूप विभाव उनकर रहित तेजवाले हैं। नित्य ही अपने चैतन्य चमत्कार मात्र स्वभावको स्पर्शनेवाले हैं। पूर्व किये जो समस्तकर्म और आगामी होंगे जो समस्त कर्म उनसे रहित हैं । तथा वर्तमान कालमें आया जो कर्मका उदय उससे भिन्न हैं । ऐसे ज्ञानी अतिशयकर अंगीकार किये चारित्रका जो विभव समस्त परद्रव्यका त्याग उसके बलसे ज्ञानकी सम्यक् प्रकार चेतनाको अनुभवते हैं । कैसी है ज्ञानचेतना ? जो चमकती (जागती) चैतन्यरूप ज्योतिमयी है तथा अपने ज्ञानरूप रसकर जिसने तीन लोकको सींचा है ॥ भावार्थ-जिनका राग द्वेष गया और अपने चैतन्यस्वभावका अंगीकार हुआ तथा अतीत अनागत वर्तमान कमका ममत्व गया ऐसे ज्ञानी सब परद्रव्यसे जुदे होकर चारित्रको अंगीकार करते हैं। उसके बलसे कर्मचेतना और कर्मफल चेतनासे जुदी जो अपनी चैतन्यके परिणमन स्वरूप ज्ञानचेतना उसका अनुभव करते हैं। यहां तात्पर्य यह जानना कि पहले तो कर्मचेतना और कर्मफलचेतनासे भिन्न अपनी ज्ञानचेतनाका स्वरूप आगम अनुमान स्वसंवेदन प्रमाणसे जाने और उसका श्रद्धान (प्रतीति ) दृढ करे । सो यह तो अविरत देशविरत प्रमत्त अवस्थामें भी होता है । जब अप्रमत्त अवस्था होती है तब अपने स्वरूपका ही ध्यान करता है उस समय ज्ञानचेतनाका जैसा श्रद्धान किया था उसमें लीन होता है । तब श्रेणी चढ केवलज्ञान उपजाय साक्षात् ज्ञानचेतनारूप होता है । ऐसा जानना ॥ ३७३ से ३८२ तक ॥