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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् । [सर्वविशुद्धज्ञानअसुहो सुहो व गंधो ण तं भणइ जिग्घ मंति सो चेव । णय एइ विणिग्गहिउं घाणविसयमागयं गंधं ॥ ३७७ ॥ असुहो सुहो व रसो ण तं भणइ रसय मंति सो चेव ।
ण य एइ विणिग्गहिउं रसणविसयमागयं तु रसं ॥ ३७८ ॥ साराभ्यां बाह्याभ्यंतररत्नत्रयलक्षणाभ्यां सहितः सन् मनोज्ञामनोज्ञशब्दादिविषयेषु समागतेषु रागद्वेषौं न करोति, किंतु स्वस्थभावेन शुद्धात्मस्वरूपमनुभवतीति भावार्थः । यथा पंचेंद्रियविषये मनोज्ञामनोजेंद्रियसंकल्पवशेन रागद्वेषौ करोत्यज्ञानी जीवः, तथा परकीयगुणपरिच्छेदरूपे परद्रव्यपरिच्छेद्यरूपे च मनोविषयेऽपि रागद्वेषौ करोति तस्याज्ञानिजीवस्य पुनरपि संबोधनं क्रियते तद्यथा-परकीयगुणः शुभोऽशुभो वा चेतनोऽचेतनो वा । द्रव्यमपि परकीयकर्तृत्वं कर्मतापन्नं न भणति हे मनोबुद्धे हे अज्ञानिजनचित्त! मां कर्मतापन्नं बुध्यस्व जानीहि । अज्ञानी वदति-एवं न ब्रूते किंतु मदीयमनसि परकीयगुणो द्रव्यं वा परिच्छित्तिसंकल्परूपेण स्फुराते प्रतिभाति । तत्रोत्तरं दीयते-स चैव परकीयगुणः परकीयद्रव्यं वा मनोबुद्धिविषयमागतं विनि. र्गृहीतुं नायाति । कस्मात् ? ज्ञेयज्ञायकसंबंधस्य निषेधयितुमशक्यत्वात् इति हेतोः-यद्रागद्वेव्यके [ विनिर्ग्रहीतं ] ग्रहण करनेको [ स एव ] वह आत्मा भी अपने प्रदेशको छोड़ [न एति ] नहीं प्राप्त होता । [ मूढः ] यह मूढ जीव [ एतत्तु ज्ञात्वा ] ऐसा जानकर भी [ उपशमं नैव गच्छति ] उपशम भावको नहीं प्राप्त होता [च] और [ परस्य विनिग्रहमनाः ] परके ग्रहण करनेको मन करता है [च ] क्योंकि [स्वयं शिवां बुद्धिं अप्राप्तः ] आप कल्याणरूप बुद्धि जो सम्यग्ज्ञान उसको नहीं प्राप्त हुआ है ॥ टीका-प्रथम दृष्टांत कहते हैं-जैसे कोई देवदत्त नामवाला पुरुष यज्ञदत्तनामा पुरुषको हाथ पकड़कर बतलावे कि ये बाह्य पदार्थ घटपटादिक हैं उसीतरह दीपकको अपने प्रकाशनेमें प्रेरणा नहीं करता कि तू मुझको प्रकाश । और दीपक भी अपने स्थानको छोड़ चुंबकमें सूईकी तरह नहीं जा लगता अर्थात् जैसे चुंबक पाषाणको लोहेकी सूई अपना स्थान छोड़ जा लगती है उसतरह । तो क्या है ? वस्तुके स्वभावके उपजानेको दूसरेकर अशक्यपना है तथा परके उपजानेका भी असमर्थपना है । घटपटादिक समीप न होनेपर भी दीपक प्रकाशरूप है उसीतरह उनके समीप होनेपर अपने स्वरूपकर ही प्रकाशरूप है । अपने स्वरूपकर ही प्रकाशरूप हुए दीपकके वस्तुस्वभावसे ही विचित्र परिणतिको प्राप्त हुए मनोहर अमनोहर घटपटा दि पदार्थ वे किंचिन्मात्र भी विकारके लिये नहीं कल्पना किये जाते । वैसा ही दाष्टीत है जो बाह्य पदार्थ शब्द रूप गंध रस स्पर्श गुण द्रव्य हैं वे जैसे देवदत्त पुरुष यज्ञदत्त पुरुषको हाथ पकड़कर कहता है उसतरह नहीं कहते कि मुझको सुन मुझको देख मुझे सूर्घ मुझे चाख मुझे स्पर्श कर मुझे जान । इसतरह अपने ज्ञानकर आत्माको नहीं