________________
४७६
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[ सर्वविशुद्धज्ञान
दर्शनात् । एवं च सति स्वस्वभावानतिक्रमान्न कुंभकारः कुंभस्योत्पादक एव मृत्तिव कुंभकारस्वभावमस्पृशंती स्वस्वभावेनोत्पद्यते । एवं सर्वाण्यपि द्रव्याणि स्वपरिणामपर्यायेणोत्पद्यमानानि किं निमित्तभूतद्रव्यांतरस्वभावेनोत्पद्यते किं स्वस्वभावेन ? यदि निमित्तभूतद्रव्यांतरस्वभावेनोत्पद्यते तदा निमित्तभूतपरद्रव्याकारस्तत्परिणामः स्यात्, नच तथास्ति द्रव्यांतरस्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्यादर्शनात् । यद्येवं तर्हि न सर्वद्रव्याणि निमित्तभूत परस्वभावेनोत्पद्यंते किंतु स्वस्वभावेनैव, द्रव्यपरिणामोत्पादस्य दर्शनात् । एवं सति सर्वद्रव्याणां निमित्तभूतद्रव्यांतराणि स्वपरिणामस्योत्पादकान्येव सर्वद्रव्याण्येव निमित्तभूतद्रव्यांतरस्वभावमस्पृशंति स्वस्वभावेन स्वपरिणामभावेनोत्पद्यते । अतो न परद्रव्यं जीवस्य रागादीनामुत्पादकमुत्पश्यामो यस्मै कुप्यामः । " यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूतिः कस्मात् इति चेत् । उपादानकारणसदृशं कार्यं भवतीति यस्मात् । तेन किं सिद्धं ? यद्यपि पंचेंद्रियविषयरूपेण शब्दादीनां बहिरंगनिमित्तभूतेनाज्ञा निजीवस्य रागादयो जायंते तथापि जीवस्वरूपा एव चेतना न पुनः शब्दादिरूपा अचेतना भवतीति भावार्थः । एवं कोऽपि प्राथ
मात्र है । क्योंकि अन्य द्रव्यके अन्यद्रव्य गुणपर्याय उपजाते नहीं यह नियम है । इसलिये जो ऐसा मानते हैं कि मेरे रागादिक परद्रव्य ही उपजाता है ऐसा एकांत करते हैं वे नयविभाग में समझे नहीं मिध्यादृष्टि हैं । ये रागादिक जीवके सत्त्वमें उपजते हैं परद्रव्य तो निमित्तमात्र है । ऐसा मानना सम्यग्ज्ञान है । इसकारण आचार्य ऐसा कहते हैं कि हम रागद्वेषकी उत्पत्ति में अन्यद्रव्यपर क्यों कोप ( गुस्सा ) करें । रागद्वेषका उपजना अपना ही अपराध है || अब इस अर्थका कलशरूप २२० वां काव्य कहते हैं—यदिह इत्यादि । अर्थ- जो इस आत्मामें रागद्वेषरूप दोष की उत्पत्ति है वहां परद्रव्यका कुछ भी दोष नहीं है । उस आत्मामें यह आप अपराधी फैलता है । यह कथन प्रगट हावे और यह अज्ञान भी अस्त हो जाय । क्योंकि मैं तो ज्ञानस्वरूप हूं । ऐसा मानना सम्यग्ज्ञान है ॥ भावार्थ-अज्ञानी जीव रागद्वेष की उत्पत्ति परद्रव्यमान परद्रव्यपर कोप करता है कि मेरे परद्रव्य रागद्वेष उपजाता है उसको दूर करूं । उसके समझानेको कहते हैं कि रागद्वेषकी उत्पत्ति अज्ञानसे अपने में ही होती है वे अपने ही अशुद्ध परिणाम हैं । सो यह अज्ञान नाशको प्राप्त होवे और सम्यग्ज्ञान प्रगट हो । आत्मा ज्ञानस्वरूप है ऐसा अनुभव करो । रागद्वेष के उत्पन्न होनेमें परद्रव्यको उपजानेवाला मान उसपर कोप मत करो ऐसा उपदेश है || इसी अर्थके दृढ करनेको अगले कथन की सूचनिकारूप २२१ वां काव्य कहते हैंराजन्मनि इत्यादि । अर्थ - जो पुरुष रागकी उत्पत्ति में परद्रव्यका ही निमित्तपना मानते हैं अपना कुछ भी हेतु नहीं मानते वे मोहरूप नदीके पार नहीं उतरे हैं,
१ एवं च सति मृत्तिकायाः खखभावेन कुंभभावो नोपपद्यते इति ख. पुस्तके पाठोऽधिकः ।