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अधिकारः ९] • समयसारः ।
४७३ यद्धि यत्र भवति तत्तद्वाते हन्यत एव यथा प्रदीपघाते प्रकाशो हन्यते । यत्र च यद्भवति तत्तद्घाते हन्यते यथा प्रकाशघाते प्रदीपो हन्यते । यत्तु यत्र न भवति तत्त
द्घाते न हन्यते यथा घटप्रदीपघाते घटो न हन्यते । तथात्मनो धर्मा ज्ञानदर्शनचारित्राणि पुद्गलद्रव्यघातेऽपि न हन्यते, नच दर्शनज्ञानचारित्राणां घातेऽपि पुद्गलद्रव्यं हन्यते, एवं दर्शनज्ञानचारित्राणि पुद्गलद्रव्ये न भवंतीत्यायाति अन्यथा तराते पुद्गलद्रव्यघातस्य, पुद्गलद्रव्यघाते तद्घातस्य दुर्निवारत्वात् । यत एवं ततो ये यावतः केचनापि जीवगुणास्ते सर्वेऽपि परद्रव्येषु न संतीति सम्यक् पश्यामः। अन्यथा अत्रापि जीवगुणघाते पुद्गलद्रव्यघातस्य पुद्गलद्रव्यघाते जीवगुणघातस्य च दुर्निवारत्वात् । यद्येवं तर्हि कुतः सम्यग्दृष्टेर्भवति रागो विषयेषु ? न कुतोऽपि । तर्हि रागस्य कतरा खानिः रागद्वेषमोहादि जीवस्यैवाज्ञानमयाः परिणामास्ततः परद्रव्यत्वादिविषयेषु न संति, परिणामा रागद्वेषमोहा यस्मादज्ञानिजीवस्याशुद्धनिश्चयेनाभिन्न परिणामाः । एदेण कारणेण दु सद्दादिसु णस्थि रागादी तेन कारणेन शब्दादिमनोज्ञामनोज्ञपंचेंद्रियविषयेष्वचेतनेषु यद्यप्यज्ञानी जीवो भ्रांतिज्ञानेन शब्दादिषु रागादीन् कल्पयत्यारोपयति तथापि शब्दादिषु
होवे तब आत्मा सम्यग्दृष्टि होवे तभी उसमें रागादिक भी नहीं होसकते । इसतरह वे रागादिक विषयोंमें न होते हुए सम्यग्दृष्टिके न होनेसे नहीं होते ॥ भावार्थ-दर्शन ज्ञान चारित्र आदि जितने जीवके गुण हैं वे अचेतन पुद्गलद्रव्यमें नहीं हैं । इसलिये आत्माके अज्ञानमय परिणामसे ही राग द्वेष मोह होते हैं उनसे अपने ही दर्शन ज्ञान चारित्र आदि गुण घाते जाते हैं और वे राग द्वेष मोह जीवके ही अस्तित्व में अज्ञानसे उत्पन्न होते हैं। जब अज्ञानका अभाव हो तब सम्यग्दृष्टि हो तब वे नहीं उत्पन्न होते । ऐसा होनेपर शुद्ध द्रव्यकी दृष्टि में पुद्गलमें भी रागद्वेष मोह नहीं हैं और सम्यग्दृष्टि जीवमें भी नहीं हैं । इसतरह दोनोंमें ही न होते ये नहीं ही हैं । तथा पर्याय दृष्टि में जीवके अज्ञान अवस्थामें हैं ऐसा जानना ।। अब इस अर्थका कलशरूप २१८ वां काव्य कहते हैं-रागद्वेषा इत्यादि । अर्थ-इस आत्मामें ज्ञान है वही अज्ञान भावसे रागद्वेषरूप परिणमता है। और वे रागादिक वास्तवमें स्थायि दृष्टिकर देखे जांय तो कुछ भी नहीं हैं द्रव्यरूप जुदे पदार्थ नहीं हैं। इसलिये आचार्य प्रेरणा करते हैं कि जो सम्यग्दृष्टि है वह तत्वदृष्टिकर उनको प्रकट देख नाश करे जिससे कि पूर्ण प्रकाशरूप अचल दीप्तिवाली स्वाभाविक ज्ञानज्योति प्रकाशित हो । भावार्थ-रागद्वेष जुदे द्रव्य नहीं हैं जीवके अज्ञानभावसे होते हैं । इसलिये सम्यग्दृष्टि होके तत्त्वदृष्टिकर देखो तो कुछ भी वस्तु नहीं । इसतरह देखनेसे घातिकर्मका नाश होके केवलज्ञान उत्पन्न होता है ।
१ आत्मधर्मघाते।
६. समय.