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अधिकारः ६]
समयसारः । कुतो ज्ञानी न परं गृह्णातीति चेत् ;
को णाम भणिज वुहो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं । अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणंतो ॥ २०७ ॥
को नाम भणेद् बुधः परद्रव्यं ममेदं भवति द्रव्यं ।
आत्मानमात्मनः परिग्रहं तु नियतं विजानन् ॥ २०७॥ यतो हि ज्ञानी, यो हि यस्य स्खो भावः स तस्य स्वः स तस्य स्वामीति खरतरतत्त्वहष्ट्यवष्टंभात् आत्मानमात्मनः परिग्रहं तु नियमेन जानाति । ततो न ममेदं खं नाहमस्य स्वामी इति परद्रव्यं न परिगृह्णाति अतोऽहमपि न तत् परिगृहामि ॥ २०७॥
तवोत्तममक्षयं मोक्षसुखं भविष्यति ॥ २०६॥ अथ ज्ञानी परद्रव्यं जानातीति भेदभावनां प्रतिपादयति;-को णाम भणिज बुहो परदव्वं मममिदंहवादि व्वं परद्रव्यं मम भवतीति नाम स्फुटमहो वा को ब्रूयात् ? बुधो ज्ञानी, न कोपि । किं कुर्वन् ? अप्पाणमप्पणो परिग्गहं तु णियदं वियाणंतो चिदानंदैकस्वभावशुद्धात्मानमेव, आत्मनः परिग्रहं विजानन् नियतं निश्चितमिति ॥ २०७ ॥ अथ मिथ्यात्वराकरनेवाला आप ही देव है इसलिये सब प्रयोजनोंके सिद्धपनेकर ज्ञानीके अन्यपरिग्रहके सेवन करनेसे क्या साध्य है ? कुछ भी नहीं, यह निश्चयनयका उपदेश जानो ॥२०६॥
आगे पूछते हैं कि ज्ञानी परको क्यों नहीं ग्रहण करता? 'उसका उत्तर कहते हैं;-- [कः नाम बुधः ] ऐसा कौन ज्ञानी पंडित है ? जो [इदं परद्रव्यं] यह परद्रव्य [मम द्रव्यं ] मेरा द्रव्य [ भवति ] है [ भणेत् ] ऐसा कहे, ज्ञानी तो न कहे । कैसा है ज्ञानी पंडित ? [आत्मानं तु] अपने आत्माको ही [नियतं] नियमसे [आत्मनः परिग्रहं ] अपना परिग्रह [विजानन् ] जानता हुआ प्रवर्तता है ॥ टीका-जिसकारण जो ज्ञानी है वह नियमसे ऐसा जानता है कि जो जिसका स्वभाव है वही उसका स्व है, धन है द्रव्य है। और उसी स्वभावरूप वह द्रव्यका स्वामी है। ऐसे सूक्ष्म तीक्ष्ण तत्त्वदृष्टिके अवलंबनसे आत्माका परिग्रह अपना आत्मस्वभाव ही है ऐसा जानता है । इसकारण परद्रव्यको ऐसा जानता है कि यह मेरा स्व नहीं, मैं इसका स्वामी नहीं । इसलिये परद्रव्यको अपना परिग्रह नहीं करता । इसलिये मैं भी ज्ञानी हूं सो परद्रव्यको नहीं ग्रहण करता ॥ भावार्थ-लोकमें यह रीति है कि समझदार चतुर मनुष्य है वह परकी वस्तुको अपनी नहीं जानता उसको ग्रहण नहीं करता उसीतरह परमार्थज्ञानी अपने स्वभावको ही अपना धन जानता है परके भावको अपना नहीं जानता ऐसा ज्ञानी परका ग्रहण सेवन नहीं करता ॥ २०७॥