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अधिकारः ९] समयसारः।
४३१ मनमहसो बत ते वराकाः । कुंर्वति कर्म तत एव हि भावकर्म कर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः ॥ २०२॥" ३२४।३२५।३२६।३२७॥
मिच्छत्तं जइ पयडी मिच्छाइट्ठी करेइ अप्पाणं ।
तह्मा अचेदणा दे पयडी णणु कारगो पत्तो ॥ ३२८ ॥ जगत्क- महेश्वराभिधानः पुरुषविशेषोऽस्ति इति । तथा चापरः कोऽपि पुरुषो विशिष्टतपश्चरणं कृत्वा पश्चात्तपःप्रभावेण स्त्रीविषयनिमित्तं चतुमुखो भवति तस्य ब्रह्मा संज्ञा । न चान्यः कोऽपि जगतः कर्ता व्यापकैकरूपो ब्रह्माविधानोऽस्ति । तथैवापरः कोऽपि दर्शनविशुद्धिविनयसंपन्नतेत्यादि षोडशभावनां कृत्वा देवेंद्रादिविनिर्मितपंचमहाकल्याणपूजायोग्यं तीर्थकरपुण्यं समुपार्य जिनेश्वराभिधानो वीतरागसर्वज्ञो भवतीति वस्तुस्वरूपं ज्ञातव्यं । एवं यद्यकांतेन कर्ता भवति तदा मोक्षाभाव इति विष्णुदृष्टांतेन गाथात्रयेण पूर्वपक्षं कृत्वा गाथाचतुष्टयेन परिहारव्याख्यानमिति प्रथमस्थले सूत्रसप्तकं गतं ॥ ३२४।३२५/३२६।३२७ ॥ अथ द्रव्यार्थिकनयेन य एव कर्म करोति स एव भुंक्ते । पर्यायार्थिकनयेन पुनरन्यः करोत्यन्यो भुंक्ते इति च योऽसौ मन्यते स सम्यग्दृष्टिर्भवतीति प्रतिपादयति;-मिच्छता जदि पयडी मिच्छादिट्ठी करेदि ज्ञानी जानता है ॥ अब इसी अर्थका २०१ वां कलशरूप काव्य कहते हैं-एकस्य इत्यादि । अर्थ-जिस कारण एक वस्तुका अन्यवस्तुके साथ इस जगतमें संबंध है वह सभी निषेधा गया है इसलिये जहां वस्तुभेद है वहां कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति ही नहीं है इसकारण लौकिकजन भी तथा मुनिजन भी वस्तुका यथार्थ स्वरूप ऐसे ही देखो कि कोई किसीका कर्ता नहीं है परद्रव्य परका अकर्ता ही श्रद्धामें लाओ ॥ आगे कहते हैं कि जो पुरुष ऐसा वस्तुस्वभावका पूर्वोक्त नियम नहीं जानते वे अझानी हुए कर्मको करते हैं वे भावकर्मके कर्ता होते हैं । इसप्रकार अपने भावकर्मका कर्ता अज्ञानसे चेतन ही है उसकी सूचनाका २०२ वां काव्य कहते हैं-ये तु. इत्यादि । अर्थ-जो पुरुष वस्तुके स्वभावका पूर्वोक्त नियम नहीं जानते उनका खेदकर आचार्य कहते हैं कि अहो अज्ञानमें जिनका पुरुषार्थ ( पराक्रम ) रूप तेज मग्न हो गया है ऐसे वे रंक (दीन) हुए कमको करते हैं ज्ञानसे छूटेहुए हैं इसलिये भावकर्मका कर्ता आप चेतन ही होता है अन्य नहीं ॥ भावार्थ-जो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है वह वस्तुके स्वरूपका नियम तो जानता नहीं है और परद्रव्यका कर्ता बनता है तब आप अज्ञानरूप परिणमता है इसलिये अपने भावकर्मका कर्ता अज्ञानी ही है अन्य नहीं है ॥३२४।३२५।३२६।३२७
आगे इस कथनको युक्तिसे साधते हैं;-जीवके जो मिथ्यात्वभाव होता है उसको विचारते हैं कि निश्चयसे यह कोंन करता है ? वहां [ यदि ] जो [मिथ्यात्वं प्रकृतिः ] मिथ्यात्वनामा मोहकर्मकी प्रकृति पुद्गलद्रव्य है वह [आत्मानं ] आ
१ अवेदणा पाठोयं ख.पुस्तके।