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अधिकारः ९] समयसारः।
४११ तस्मान्न कोऽपि जीवोऽब्रह्मचारी त्वस्माकमुपदेशे । यस्मात्कर्म चैव हि कर्माभिलषतीति भणितं ॥ ३३७॥ यस्माद्धति परं परेण हन्यते च सा प्रकृतिः । एतेनार्थेन किल भण्यते परघातं नामेति ॥ ३३८ ॥ तस्मान्न कोऽपि जीव उपघातकोऽस्त्यस्माकमुपदेशे । यस्मात्कर्म चैव हि कर्म हंतीति भणितं ॥ ३३९ ॥ एवं सांख्योपदेशं ये तु प्ररूपयंतीदृशं श्रमणाः । तेषां प्रकृतिः करोत्यात्मानश्वाकारकाः सर्वे ॥ ३४०॥ अथवा मन्यसे ममात्मात्मानमात्मनः करोति । एष मिथ्याखभावस्तवैतजानतः ॥ ३४१ ॥ आत्मा नित्योऽसंख्येयप्रदेशो दर्शितस्तु समये ।
नापि स शक्यते ततो हीनोऽधिकश्च कर्तुं यत् ॥ ३४२ ॥ आत्मानं कर्मतापन्नं स्वयमेवात्मना कृत्वा नैव करोतीत्येकं दूषणं । द्वितीयं च निर्विकारपरमतत्त्वज्ञानी तु कर्ता न भवतीति पूर्वमेव भणितमास्ते । एवं पूर्वपक्षपरिहाररूपेण तृतीयांतरहै, कर्म ही हरलेता है, इसलिये हम ऐसा निश्चय करते हैं कि सभी जीव नित्य सदा ही एकांतकर अकर्ता ही हैं । विशेष कहते हैं कि श्रुति (वाणी-शास्त्र) भी इसी अर्थको कहती है कि "पुरुषवेद नामा कर्म तो स्त्रीकी अभिलाषा करता है चाहता है और स्त्रीवेद नामा कर्म पुरुषको चाहता है" ऐसे वाक्यसे कर्मके ही कर्मकी अभिलाषाके कर्तापनेका समर्थनकर जीवके अब्रह्मचारीपनके कर्तापनके प्रतिषेधसे भी कर्मके ही कर्तापन आया, जीव अकर्ता ही सिद्ध हुआ । उसीतरह जो परको मारता है तथा परकर माराजाता है वह परघात नामा कर्म है, ऐसे वचनकर कर्मके ही कर्मके घातका कर्तापनका समर्थनकर जीवके घातका कर्तापनके प्रतिषेधसे सर्वथा जीवके अकर्तापन जतलाया है । इसप्रकार ऐसा सांख्यमतके कोई श्रमणाभास (यति नहीं हों परंतु यतीसे कहलावें) अपनी बुद्धिके अपराधकर सूत्रके अर्थको ऐसें विपरीत जानते हुए सूत्रका अर्थ निरूपण करते हैं। ऐसा पूर्वपक्ष है । अब उसको आचार्य कहते हैं जो ऐसा पक्ष करते हैं उनके एकांतकर प्रकृतिका कर्तापन माननेकर सब ही जीवोंके एकांतकर अकर्तापनकी प्राप्ति आनेसे जीव कर्ता है ऐसी भगवंतकी वाणीका कोप आता है उसे दूर करने योग्य नहीं है । तथा वाणीका कोप दूर करनेको जो ऐसा कहै कि कर्म तो आत्माके अज्ञानादि सब पर्यायरूप भावोंको करता है और आत्मा एक अपने आत्माको ही द्रव्यरूप करता है । इसलिये जीव कर्ता है ऐसा वाणीका वचन मानते हैं । इसकारण वाणीका कोप नहीं होता । ऐसा अभिप्राय करे
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