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अधिकारः ९] समयसारः ।
४४९ वा करोतीति नास्त्येकांतः । एवमनेकांतेऽपि यस्तत्क्षणवर्तमानस्यैव परमार्थसत्त्वेन वस्तुत्वमिति वस्त्वंशेऽपि वस्तुत्वमध्यास्य शुद्धनयलोभाजुपूत्रैकांते स्थित्वा य एव करोति स एव न वेदयते । अन्यः करोति अन्यो वेदयते इति पश्यति स मिथ्यादृष्टिरेव द्रष्टव्यः । क्षणिकत्वेऽपि वृत्त्यंशानां वृत्तिमतश्चैतन्यचमत्कारस्य टंकोत्कीर्णस्यैवांतःप्रतिभासमानत्वात् । “आत्मानं परिशुद्धमीप्सुभिरतिव्याप्तिं प्रपद्यांधकैः कालोपाधिबलादशुद्धि
वा तस्य पुण्यकर्मणां देवलोकेभ्यः कोऽपि भोक्ता प्राप्नोति न च स जीवः । नरकेऽपि तथैव । केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपं मोक्षं चान्यः कोऽपि लभते ततश्च पुण्यपापमोक्षानुष्ठानं वृथेति बौद्ध
क्षणमें वर्तमान है उसीके परमार्थरूप सत्ताकर वस्तुपना है, ऐसें वस्तुके अंशमें वस्तुपनका निश्चयकर शुद्धनयके लोभसे ऋजुसूत्रनयके एकांतमें ठहरकर जो करता है वही नहीं भोगता, अन्य करता है और अन्य ही भोगता है ऐसा देखता है-श्रद्धान करता है वह जीव मिथ्यादृष्टि ही जानना। क्योंकि पर्यायरूप अवस्थाओंके क्षणिकपना होनेपर भी वृत्तिमान (पर्यायी ) जो चैतन्य चमत्कार टंकोत्कीर्ण नित्यस्वरूप उसका अंत. रंगमें प्रतिभासमानपना है ॥ भावार्थ-वस्तुका स्वभाव जिनवाणीमें द्रव्यपर्यायस्वरूप कहा है । इसलिये पर्याय अपेक्षा तो वस्तु क्षणिक है और द्रव्य अपेक्षा नित्य है ऐसा अनेकांत स्याद्वादसे सिद्ध होता है । ऐसा होनेपर जीवनामा वस्तु भी ऐसा ही द्रव्यपर्यायस्वरूप है इसलिये पर्याय अपेक्षाकर देखा जाय तब तो कार्यको करता तो अन्य पर्याय है और भोगता अन्य ही पर्याय है। जैसे मनुष्य पर्यायमें शुभ अशुभ कर्म किये उनका फल देवादि पर्यायमें भोगा । परंतु द्रव्यदृष्टिकर देखा जाय तब जो करता है वही भोगता है ऐसा सिद्ध होता है । जैसे मनुष्यपर्यायमें जो जीव द्रव्य था उसने शुभाशुभ कर्म किये थे वही जीव देवादि पर्याय में गया वहां उसी जीवने अपने कियेका फल भोगा । इसतरह वस्तुका स्वरूप अनेकांतरूप सिद्ध होनेपर भी शुद्धनयमें तो संशय नहीं और शुद्धनय के लोभसे वस्तुका पर्याय वर्तमान कालमें जो एक अंश था उसीको वस्तु मान ऋजुसूत्रनयके विषयका एकांत पकड़ ऐसा मानते हैं कि जो करता है वह भोगता नहीं है अन्य भोगता है। और जो भोगता है वह करता नहीं है अन्य करता है । ऐसे मिथ्यादृष्टि हैं अरहंतके मतके नहीं हैं । क्योंकि पर्यायके क्षणिकपना होने पर भी द्रव्यरूप चैतन्य चमत्कार तो अनुभव गोचर नित्य है । जैसे प्रत्यभिज्ञानकर ऐसा जाने कि जो बालक अवस्थामें मैं था वही अब तरुण अवस्थामें तथा वृद्ध अवस्थामें हूं। इसतरह जो अनुभवगोचर स्वसंवेदनमें आये तथा जिनवाणी भी ऐसे ही कहै उसको न माने वही मिथ्यादृष्टि कहलाता है । ऐसा जानना ॥ अब इस अर्थका कशरूप २०८ वां काव्य कहते हैं-आत्मानं इत्यादि । अर्थ-आ
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