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समयसारः।
अधिकारः ९]
४५९ जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण । तह परव्वं सद्दहइ सम्मदिट्ठी सहावेण ॥ ३६४॥ एवं ववहारस्स दु विणिच्छओ णाणदंसणचरित्ते भणिओ अण्णेसु वि पजएसु एमेव णायव्वो ॥ ३६५॥
यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति ।
तथा ज्ञायकस्तु न परस्य ज्ञायको ज्ञायकः स तु ॥ ३५६ ॥ तर्हि किं भवति ? दर्शको दर्शक एव स्वस्वरूपेण तिष्ठतीत्यर्थः । एवं सत्तावलोकनदर्शनं दृश्यपदार्थरूपेण न परणमतीति कथनमुख्यत्वेन गाथा गता। तथा तेनैव श्वेतमृत्तिकादृष्टांतेन संयत आत्मा त्याज्यस्य परिग्रहादेः परद्रव्यस्य निश्चयेन त्याजको न भवति, तन्मयो न भवतीत्यर्थः। तर्हि किं भवति? संयतः संयत एव निर्विकारनिजमनोहरानंदलक्षणस्वस्वरूपे तिष्ठतीत्यर्थः । एवं वीतरागचारित्रमुख्यत्वेन गाथा गता । तथैव च तेनैव श्वेतमृत्तिकादृष्टांतेन तत्त्वार्थश्रद्धान
दिपरद्रव्यकी है तो ऐसा न्याय है कि जो जिसका हो वह उस स्वरूप ही होता है । जैसे आत्माका ज्ञान आत्मस्वरूप ही है। ऐसा परमार्थरूप तत्त्वसंबंधी जीवता विद्यमान होनेपर सेटिका भीत आदिकी हुई भींत आदिके स्वरूप होनी चाहिये उससे जुदा द्रव्य न होना । ऐसा होनेपर सेटिकाके निजद्रव्यका तो उच्छेद ( अभाव ) हो जायगा भींत आदिक एक द्रव्य ही ठहरेगा। परंतु दूसरे द्रव्यका अभाव होना ठीक नहीं है क्योंकि एक द्रव्यका अन्य द्रव्यरूप होना तो पहले ही निषेधरूप कह आये हैं अन्यद्रव्य पलटकर अन्यद्रव्यरूप नहीं होता। इसलिये यह निश्चय हुआ कि खड़िया कुटी आदि परद्रव्यकी नहीं है । यहां पूछते हैं कि, खड़िया भींत आदिकी नहीं है तो किसकी है ? उसका उत्तर-खड़िया खड़ियाकी ही है । वहां फिर पूछते हैं कि वह अन्य खडिया कोनसी है जिस खडियाकी यह खड़िया है ? उसका उत्तर-खड़ियासे दूसरी खड़िया तो नहीं है । तो क्या है ? खड़ियाके स्वस्वामिभाव है। सो ये अंशोंके अन्यपना है । वहां कहते हैं कि, यहांपर निश्चयनयमें स्वस्वामि अंशका व्यवहारसे क्या लाभ है ? कुछ भी नहीं । इससे यह सिद्ध हुआ कि खड़िया अन्य किसीकी भी • नहीं खड़िया खडियाकी ही है ऐसा निश्चय है। जैसा यह दृष्टांत है वैसा ही दार्टीतिक अर्थ है । इस लोकमें प्रथम तो चेतनेवाला आत्मा ज्ञानगुणकर भरे स्वभाववाला द्रव्य है उसके व्यवहारकर जानने योग्य पुद्गल आदिक परद्रव्य है सो यहां उस आत्माका और पुद्गल आदि परद्रव्यका दोनोंका परमार्थ तत्त्वरूप संबंध विचारते हैं कि, पुद्गल आदि परद्रव्योंका चेतयिता आत्मा है या नहीं ? यदि ऐसा माना जाय कि चेतयिता आत्मा पुद्गल आदि परद्रव्यका है तो यह न्याय है कि जो जिसका हो वह वही