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रायचन्द्रजैमशास्त्रमालायाम् । [सर्वविशुद्धज्ञानमधिका तत्रापि मत्वा परैः । चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य पृथुकैः शुद्धर्जुसूत्रेरितैरात्मा व्युज्झित एव हारवदहो निस्सूत्रमुक्तेक्षिभिः ॥ २०८ ॥ "कर्तुर्वेदयितुश्च युक्तिवशतो भेदोऽस्त्वभेदोपि वा कर्ता वेदयिता च मा भवतु वा वस्त्वेव संचिंत्यतां । प्रोता सूत्र मतदूषणं, इति गाथाद्वयेन नित्यैकांतक्षणिकैकांतमतं निराकृतं । एवं द्वितीयस्थले सूत्रचतुष्टयं गतं । अथ यद्यपि शुद्धनयेन शुद्धबुद्धैकस्वभावात् कर्मणां का जीवस्तथाप्यशुद्धनयेन रागादित्माको समस्तपनेसे शुद्ध इच्छक जो बौद्धमती उन्होंने उस आत्मामें कालको उपाधिके बलसे अधिक अशुद्धता मानकर अतिव्याप्ति पाकर तथा शुद्ध ऋजुमूत्रनयके प्रेरे हुए चैतन्यको क्षणिक कल्पकर अंधोंने आत्माको छोड़ दिया। क्योंकि आत्मा तो द्रव्यपर्यायस्वरूप था वह सर्वथा क्षणिक पर्यायस्वरूप मान छोड दिया उनके आत्मा की प्राप्ति नहीं हुई। यहां हारका दृष्टांत है । जैसे मोतियोंका हार नामा वस्तु है उसमें सूत्र में जो मोती पोये हुए हैं वे भिन्न भिन्न दीखते हैं। जो हार नामा वस्तुको सूत्रसहित मोती पोये हुए नहीं देखते, मोतियोंको ही जुदे जुदे देख ग्रहण करते हैं उनको हारकी प्राप्ति नहीं होती । उसीतरह जो आत्माके एक नित्य चैतन्य भावको नहीं ग्रहण करते तथा समय समय वर्तना परिणामरूप उपयोगकी प्रवृत्तिको देख उसको सदा नित्य मान कालकी उपाधिसे अशुद्धपना मान ऐसा जानते हैं कि नित्य माना जाय तो कालकी उपाधि लगनेसे आत्माके अशुद्धपना आता है तब अतिव्याप्ति दूषण लगता है । इस दोषके भयसे ऋजुसूत्रनयका विषय जो शुद्ध वर्तमान समयमात्र क्षणिकपना उस मात्र मान आत्माको छोड दिया ॥ भावार्थ-बौद्धमतीने आत्माको समस्तपने शुद्ध माननेका इच्छक होके विचारा कि, आत्माको नित्य माना जाय तो नित्यमें कालकी अपेक्षा आती है इसलिये उपाधि लग जायगी तब बड़ी अशुद्धता आवेगी तब अतिव्याप्ति दोष लगेगा। इस भयसे शुद्ध ऋजुसूत्र नयका विषय वर्तमान समयमात्र था उसमात्र क्षणिक आत्माको माना । तब जो आत्मा नित्यानित्य स्वरूप द्रव्यपर्याय स्वरूप था उसका ग्रहण उसके नहीं हुआ, केवल पर्यायमात्रमें आत्माकी कल्पना हुई । वह आत्मा सत्यार्थ नहीं ऐसा जानना । अब फिर इसी अर्थके समर्थनरूप वस्तुके अनुभव करनेको २०९ वां काव्य कहते हैं-कर्नु इत्यादि । अर्थ-कर्ता में और भोक्तामें युक्तिके वशसे भेद हो अथवा अभेद हो, अथवा कर्ता भोक्ता दोनों ही न हों, वस्तुका ही चिंतवन करो। क्योंकि चतुर पुरुषोंकर सूत्रमें पोई हुई मणियोंकी माला जैसे भेदी नहीं जाती, तैसे आत्मामें पोई हुई चैतन्यरूप चिंतामणिकी माला भी कभी किसीकर भेदी नहीं जाससती । ऐसी यह आत्मारूपी माला समस्तपनेसे एक हमारे प्रकाशरूप प्रगट हो । भावार्थ-वस्तु द्रव्यपर्यायस्वरूप अनेक धर्मवाली है, उसमें विवक्षाके वशसे कर्ता १ बौद्धरित्यर्थः। .