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अधिकारः ९]
समयसारः ।
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चिदित्यचलिता कैश्चिच्छ्रुतिः कोपिता । तेषामुद्धतमोहमुद्रितधियां बोवस्य संशुद्धये स्याद्वादप्रतिबंधलब्धविजया वस्तुस्थितिः स्तूयते ॥ २०४ ॥” ३२८।३२९।३३०|३३१॥ कम्मेहि दु अण्णाणी किज्जइ णाणी तहेव कम्मेहिं । कम्मेहिं सुवाविज्जइ जग्गाविजइ तहेव कम्मेहिं ॥ ३३२ ॥
जीवस्तथापि पर्यायार्थिकनयेन कथंचित्परिणामित्वे सत्यनादिकर्मोदयवशाद्रागाद्युपाधिपरिणामं गृह्णाति स्फटिकवत् । यदि पुनरेकांतेनापरिणामी भवति तदोपाधिपरिणामो न घटते । जपापुष्पोपाधिपरिणमनशक्तौ सत्यां स्फटिके जपापुष्पमुपाधिं जनयति न च काष्ठादौ । म चेत्, तदुपाधिपरिणमनशक्त्यभावात् इति । एवं यदि द्रव्य मिथ्यात्वप्रकृतिः कर्त्री एकांतेन यदि भावमिथ्यात्वं करोति तदा जीवो भावमिथ्यात्वस्य कर्ता न भवति । भावमिथ्यात्वाभावे कर्मणोऽभावः ततश्च संसाराभावः स च प्रत्यक्षविरोधः । इत्यादि व्याख्यानरूपेण तृतीयस्थले गाथापंचकं गतं ॥ ३२८ ३२९।३३०|३३१ ॥ अथ ज्ञानाज्ञानसुखदुःखा ःखादिकमैकांन कर्मैव करोति न चात्मेति सांख्यमतानुसारिणो वदति तान्प्रति पुनरपि नयविभागेनात्मनः कथंचित्कर्तृत्वं व्यवस्थापयति— तत्र त्रयोदशगाथासु मध्ये कर्मैवैकांतेन कर्तृ भवति इति कथनफल भोगनेका प्रसंग आता है । तथा एक प्रकृतिका ही कार्य नहीं है क्योंकि प्रकृति तो अचेतन है और भावकर्म चेतन है इसलिये इस भावकर्मका कर्ता जीव ही है यह जीवका ही कर्म है क्योंकि चेतनसे अन्वयरूप है चेतनका परिणाम है, और पुद्गल ज्ञाता नहीं है इसलिये पुगलका भावकर्म नहीं हैं ॥ भावार्थ - चेतन कर्म चेतनके ही हो सकता है, पुद्गल जड़ है उसके चेतन कर्म कैसे होगा ? ॥ आगे जो कोई भावकर्मका भी कर्ता कर्मको ही मानते हैं उनको समझानेकेलिये स्याद्वादकर वस्तुकी मर्यादा कहते हैं उसकी सूचनाका २०४ वां काव्य यह है— कर्मैव इत्यादि । अर्थ-कोई आत्माके घातक सर्वथा एकांतवादी हैं उन्होंने कर्मको ही विचार तथा आत्माका कर्तापन दूरकर 'यह आत्मा कथंचित् कर्ता है' ऐसा कहनेवाली निर्बाध श्रुतिरूप जिनेश्वरकी वाणीको कोप उत्पन्न किया है ऐसे सर्वथा वादी कैसे हैं ? तीव्र उदय हुए मिध्यात्वमोहकर जिनकी बुद्धि मुद्रित होगई है । उनके ज्ञानकी अच्छीतरह शुद्धिकेलिये वस्तुकी मर्यादा कहते हैं । कैसी है मर्यादा ?- स्याद्वाद के प्रतिबंध से जिसने निर्बाध सिद्धि पाई है ॥ भावार्थ – कोई वादी सर्वथा एकांतकर कर्मका कर्ता कर्मको ही कहते हैं और आमाको कर्ता ही कहते हैं वे आत्मा के स्वरूपके घातक हैं । तथा जिनवाणी स्याद्वादकर वस्तुको निर्बाध कहती है । वह वाणी आत्माको कथंचित् कर्ता कहती हैं, सो उन सर्वथा एकांतियोंपर वाणीका कोप है उनकी बुद्धि मिथ्यात्वकर ढक रही है । उनके मिथ्यात्व के दूर करनेको आचार्य कहते हैं कि स्याद्वादकर जैसी वस्तुकी सिद्धि होती है वैसे कहते हैं ।।३२८।३२९।३३०।३३१||
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