________________
३१२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[ निर्जरानिमित्तो नास्ति बंधः । यथा च यदा स एव शंखः परद्रव्यमुपभुजानोऽनुप जानो वा श्वेतभावं प्रहाय स्वयमेव कृष्णभावेन परिणमते तदास्य श्वेतभावः स्वयंकृतः कृष्णभावः स्यात् । तथा यदा स एव ज्ञानी परद्रव्यमुपभुजानोऽनुपभुजानो वा ज्ञानं प्रहाय स्वयमेवाज्ञानेन परिणमेत तदास्य ज्ञानं स्वयंकृतमज्ञानं स्यात् । ततो ज्ञानिनो यदि (2) खापमिति विजानीहि ॥ द्रव्यकर्म किट्टसंज्ञं भवति रागादिविभावपरिणामाः कालिकासंज्ञा ज्ञातव्याः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं भेदाभेदरूपं परमौषधं जानीहि इति ।
झाणं हवेइ अग्गी तवयरणं भत्तली समक्खादो।
जीवो हवेइ लोहं धमियव्वो परमजोई हिं॥ ध्यानं भवत्यग्निः तपश्चरणं भस्त्रा समाख्यातं । जीवो भवति लोहं धमितव्यः परमयोगिभिः ।। वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरूपं ध्यानमग्निर्भवति । द्वादशविधतपश्चरणं भस्त्रा ज्ञातव्या । आसन्नभव्यजीवो लोहं भवति । स च भव्यजीवः पूर्वोक्तसम्यक्त्वाद्यौषधध्यानोग्निभ्यां संयोगं कृत्वा द्वादशविधतपश्चरणभस्त्रया परमयोगिभिः धमितव्यो ध्यातव्यः । इत्यनेन प्रकारेण यथा सुवर्ण भवति तथा मोक्षो भवतीति संदेहो न कर्तव्यो भट्टचार्वाकमतानुसारिभिरिति ॥ अथ ज्ञानिनः शंखदृष्टांतेन बंधाभावं दर्शयति;-यथा सजीवस्य संखस्य श्वेतभावः कृष्णीकर्तुं न शक्यते । किं कुर्वाणस्यापि ? मुंजानस्यापि । कानि ? कर्मतापन्नसचित्ताचित्तमिश्राणि विविधद्रव्याणीति नेका निमित्तपना नहीं है । उसीतरह परद्रव्यको भोगते हुए ज्ञानीके ज्ञानको अज्ञानरूप दूसरा नहीं करसकता क्योंकि दूसरेमें परभावस्वरूप करनेका निमित्तपना नहीं है इस लिये ज्ञानीके परकर किये अपराधके निमित्तसे बंध नहीं है । और जिस समय वही शंख परद्रव्यको भोगता हो अथवा न भोगता हो परंतु अपने श्वेतपनेको छोड़ आप ही कृष्णभावस्वरूप परिणमता है उस समय उस शंखका श्वेतभाव अपनेकर ही किये कृष्णभावस्वरूप होता है, उसीतरह वही ज्ञानी परद्रव्यको भोगता हुआ हो अथवा न भोगता हो परंतु जिससमय अपने ज्ञानको छोड़ आप ही अज्ञानकर परिणमे उससमय इसका ज्ञान अपना ही किया निश्चयकर अज्ञानरूप होता है । इसलिये ज्ञानीके परका किया बंध नहीं है आप ही अज्ञानी होय तब अपने अपराधके निमित्तसे बंध होता है ।। भावार्थ-जैसे शंख सफेद है वह परको भक्षणसे तो काला होता नहीं जब आप ही कालिमारूप परिणमे तब काला होता है उसीतरह ज्ञानी उपभोग करता हुआ तो अज्ञानी होता नहीं जब आप ही अज्ञानरूप परिणमे तब अज्ञानी होता है तभी बंध करता है। इसका कलशरूप काव्य कहते हैं-ज्ञानिन् इत्यादि।अर्थ-ज्ञानीको संबोधन करते हैं कि हे ज्ञानी ! तुझको कुछ भी कर्म कभी नहीं करना योग्य है तौभी तू कहता है कि परद्रव्य मेरा तो कदाचित् भी नहीं है और मैं भोगता हूं । तो आचार्य कहते हैं
१ एतद् गाथा नात्मख्यातौ। २ ख. पुस्तके ध्यानाम्यभ्यासादित्यपि पाठः ।