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अधिकारः ६ ]
समयसारः ।
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लोक्यमुक्ताध्वनि । सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शंकां विहाय स्वयं जानंतः स्वमबध्यबोध - वपुषं बोधाच्यवते न हि ॥ १५४ ॥ २२४।२२५।२२६।२२७ ।। सम्मट्ठी जीवा णिस्संका होंति णिन्भया तेण । सत्तभयविप्यमुक्का जमा तह्मा दु णिस्संका ॥ २२८ ॥ सम्यग्टय जीवा निश्शंका भवंति निर्भयास्तेन । सप्तभयविप्रमुक्तां यस्मात्तस्मात्तु निश्शंकाः
२२८ ॥
येन नित्यमेव सम्यग्दृष्टयः सकलकर्मनिरभिलाषाः संत:, अत्यंतकर्मनिरपेक्षतया वर्तते तेन नूनमेते अत्यंत निश्शंकदारुणाध्यवसायाः संतोऽत्यंत निर्भयाः संभाव्यंते । लोकः तगाथा गता । एवं मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलज्ञानाभेदरूपपरमार्थशब्दवाच्यं साक्षान्मोक्षकारणभूतं शुद्धात्मसंवित्तिलक्षणं स्वसंवेद्यं संवरपूर्विकाया निर्जराया उपादानकारणं पूर्वं यद्व्याख्यातं परमात्मपदं, तत्पदं येन निर्विकारस्वसंवेदनलक्षणभेदविज्ञानगुणेन विना न लभ्यते तस्यैव भेदविज्ञानगुणस्य पुनरपि विशेषव्याख्यानरूपेण चतुर्दशसूत्राणि गतानि ॥ २२४।२२५|२२६।२२७॥ इत ऊर्ध्वं निश्शंकाद्यष्टगुणकथनं गाथानत्रकपर्यंतं व्याख्यानं करोति । तत्र तावत् प्रथमगाहो गया है ऐसे वज्रपात के पडनेपर भी वे अपने ज्ञानसे चलायमान नहीं होते । कैसे सम्यग्दृष्टि हैं ? कि जो स्वभावसे ही निर्भयपना होनेसे सब ही शंकाओंको छोडकर अपने आत्माको ऐसा जानते हैं कि इस आत्माका ज्ञानरूपी शरीर किसीसे भी afra नहीं हो सकता ऐसा जानते हुए आप ज्ञानमें प्रवृत्त होते हैं उससे च्युत नहीं होते ॥ भावार्थ — सम्यग्दृष्टि निःशंकित गुणसहित होता है सो ऐसे वज्रपातके पड़नेपर भी ( जिसके भय से तीन लोकके जीव मार्ग छोड़ देते हैं ) वह अपने स्वरूपको निर्बाध ज्ञानशरीररूप मानता हुआ ज्ञानसे चलायमान नहीं होता ऐसी शंका नहीं रखता कि इस वज्रपातसे मेरा विनाश होजायगा । पर्यायका विनाश होवे तो ठीक ही है क्योंकि उसका विनाशीक स्वभाव ही है ।। २२४।२२५।२२६२२७ ॥
आगे इसी अर्थको गाथासे कहते हैं; - [ सम्यग्दृष्टयः जीवाः ] सम्यग्दृष्टि जीव [ निःशंका भवंति ] निःशंक होते हैं [ तेन ] इसीलिये [ निर्भयाः ] निर्भय हैं [ यस्मात् ] क्योंकि [ सप्तभयविप्रमुक्ताः ] सप्तभयकर रहित हैं [ तस्मात् ] इसीलिये [ निःशंकाः ] निःशंक हैं ।। टीका - जिसकारण सम्यग्दृष्टि नित्य ही सब कर्मोंके फलकी अभिलाषासे रहित हुए कर्मकी अपेक्षासे सर्वथा रहित हुए वर्तते हैं इसकारण निश्चय से अत्यंत निःशंक दारुण ( तीव्र ) निश्चयरूप दृढ आशयरूप हुए अत्यंत निर्भय हैं ऐसी संभावना की जाती है | अब सात भयके कलशरूप काव्य कहते हैं उनमें इसलोक तथा परलोकके दो भयोंका एक काव्य कहते हैं- लोक इत्यादि । अर्थ–जो यह भिन्न आत्माका चैतन्यस्वरूप लोक है वह शाश्वत है एक है,