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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
घातिक्रांतत्वाच्चेतनैव न भवति । तदभावे द्वौ दोषौ - स्वगुणोच्छेदाच्चेतनस्याचेतनतापत्तिः, व्यापकाभावे व्याप्यस्य चेतनस्याभावो वा । ततस्तद्दोषभयाद्दर्शनज्ञानात्मिकैव चेतनाभ्युपगंतव्या ॥ अद्वैतापि हि चेतना जगति चेद्वग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत्तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्सास्तित्वमेव त्यजेत् । तत्त्यागे जडता चितोऽपि भवति व्याप्यो विना व्यापकादात्मा चांतमुपैति तेन नियतं दृग्ज्ञप्तिरूपास्ति चित् ॥ १८३ ॥ " एकश्चितश्चिन्मय एव भावो भावाः परे ये किल ते परेषां । ग्राह्यस्ततश्चिन्मय एव भावो भावाः परे सर्वत एव हेयाः ॥ १८४ ॥ " २९८॥ २९९ ॥
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को नाम भणिज हो जाउं सव्वे पराइए भावे । मज्झमिति य वयणं जाणंतो अप्पयं सुद्धं ॥ ३०० ॥
[ मोक्ष
च वस्तु । सामान्यविशेषात्मकत्वाभावे चेतनाया अभावः स्यात् । चेतनाया अभावे आत्मनो जडत्वं, चेतनालक्षणस्य विशेषगुणस्याभावे सत्यभावो वा भवति । नचात्मनो जडत्वं दृश्यते नचाभावः ? प्रत्यक्षविरोधात् ? ततः स्थितं यद्यप्यभेदनयेनैकरूपा चेतना तथापि सामान्यविशेषविषयभेदेन दर्शनज्ञानरूपा भवतीत्यभिप्रायः ॥ २९८ ॥ २९९ ॥ अथ शुद्धबुद्वैकस्वभावस्य परमात्मनः शुद्धचिद्रूप एक एव भावः न च रागादय इत्याख्याति ; — को णाम भणिज हो को
चेतना नियमसे दर्शन ज्ञानस्वरूप ही होवे ॥ भावार्थ- वस्तुका स्वरूप सामान्य विशेषरूप है सो चेतना भी वस्तु है वह दर्शन ज्ञानविशेषको यदि छोड दे तो वस्तुपनेका नाश हो जाय तब चेतनाका अभाव होनेसे चेतनके जडपना आजाइगा । चेतना आत्माकी सब अवस्थाओंमें पाई जाती है इसलिये व्यापक है । आत्मा चेतना ही है इसकारण चेतनाका व्याप्य है सो व्यापकके अभावसे व्याप्य जो चेतन आत्मा उसका अभाव होता है । इसलिये चेतना दर्शनज्ञानस्वरूप ही माननी चाहिये । यहांपर तात्पर्य ऐसा है कि सांख्यमतीआदि कई मतवाले सामान्य चेतनाको ही मानकर एकांत करते हैं उनके निषेध करनेको 'वस्तुका स्वरूप सामान्य विशेषरूप है सो चेतनाको भी सामान्य विशेषरूप अंगीकार करना' ऐसा जतलाया है । आगे कहते हैं कि चेतनाका तो चिन्मय ही एकभाव है अन्य परभाव हैं सो चिन्मयभाव तो उपादेय है और परभाव हेय हैं यह सूचना आगेके कथनकी है उसका १८४ वां श्लोक कहते अर्थ — चैतन्यका तो एक चिन्मय ही भाव हैं दूसरे भाव हैं भाव हैं । इसलिये एक चिन्मयभाव ही ग्रहण करने योग्य है और जो परभाव हैं वे सभी त्यागने योग्य हैं ॥ २९८ ॥ २९९ ॥
हैं - एक इत्यादि । वे प्रगट रीति से परके
अब इस उपदेशकी गाथा कहते हैं; - [ सर्वान् परकीयान् भावान् ] ज्ञानी
१ परोदये भावे पाठोयं तात्पर्यवृतौ ॥