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अधिकारः ९]
समयसारः। जीवोऽयं स्थित इति विशुद्धः स्वरसतः स्फुरचिज्ज्योतिर्भिश्छुरितभुवनाभोगभुवनः । तथाप्यस्यासौ स्याद्यदिह किल बंधः प्रकृतिभिः स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोपि गहनः ॥ १९५" ॥ ३०८ ॥ ३०९ ॥ ३१०॥ ३११ ॥
जीवो नोत्पाद्यते जीवश्च कर्मनोकर्मणां नोत्पादयति ततो ज्ञायते कर्म प्रतीत्योपचारेण जीवः कर्मकर्ता । तथा कर्माणि चोत्पद्यते जीवकर्तारमाश्रित्योपचारेण नियमान्निश्चयात् संदेहो नास्ति सिद्धी दुण दिस्सदे अण्णा अनेन प्रकारेण, अनेन कोऽर्थः? परस्परनिमित्तभावं विहाय शुद्धोपादानरूपेण शुद्धनिश्चयेन जीवस्य कर्मकर्तृत्वविषये । सिद्धिनिष्पत्तिर्घटना न दृश्यते कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलानां च कर्मत्वं न दृश्यते ततःस्थितं शुद्धनिश्चयनयेनाकर्ता जीव इति चतुर्थगाथा गता। एवं निश्चयेन जीवः कर्मणां कर्ता न भवतीति व्याख्यानमुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथाचतुष्टयं गतं ॥ ३०८॥ ३०९ ॥ ३१० ॥ ३११ ॥ अथ शुद्धस्यात्मनो
सुवर्ण. उत्पन्न होता है वह कंकणा दिसे अन्य नहीं है उनसे तादात्म्यस्वरूप है उसीतरह सब द्रव्य हैं । इसीतरह अपने परिणामोंकर उत्पन्नहुए जीवका अजीवके साथ कार्यकारणभाव नहीं सिद्ध होता क्योंकि सब द्रव्योंके अन्यद्रव्यके साथ उत्पाद्यउत्पादकभावका अभाव है । उस कार्यकारण भावकी सिद्धि न होनेसे अजीवके जीवका कर्मपना सिद्ध नहीं होता, अजीवके जीवका कर्मपना न होनेसे कर्ता कर्मके अनन्यापेक्ष सिद्धपनासे जीवके अजीवका कर्तापना नहीं सिद्ध होता। इसलिये जीव परद्रव्यका कर्ता नहीं सिद्ध हुआ अकर्ता ही सिद्ध हुआ ॥ भावार्थ-सब द्रव्योंके परिणाम जुदे २ हैं। अपने २ परिणामोंके सब कर्ता हैं वे उनके कर्ता हैं वे परिणाम उनके कर्म हैं । निश्चयकर किसीका किसीसे भी कर्ताकर्मसंबंध नहीं है इसकारण जीव अपने परिणामोंका कर्ता है अपना परिणाम कर्म है। इसीतरह अजीव अपने परिणामोंका कर्ता है अपना परिणाम कर्म है। इसतरह जीव अन्यके परिणामोंका अकर्ता है। अब इस अर्थका कलशरूप १९५ वां काव्य कहते हैं उसमें जीव अकर्ता है तो भी इसके बंध होता है यह अज्ञानकी महिमा है ऐसा कहते हैं-अको इत्यादि । अर्थ-इसतरह जीव अपने निजरससे विशुद्ध है इसलिये परद्रव्यका तथा परभावोंका अकर्ता ठहरा । कैसा है जीव ? स्फुरायमान होती ( फैलती ) जो चैतन्य ज्योति उनकर व्याप्त हुआ है लोकका मध्य जिसकर ऐसा है तो भी इसके इसलोकमें प्रगट कर्मप्रकृतियोंसे बंध होता है । सो यह निश्चयकर अज्ञानकी कोई ऐसी ही महिमा है वह बडी गहन है उसका थाह नहीं पाया जाता ॥ भावार्थ-शुद्धनयकर जीव परद्रव्यका कर्ता नहीं है तथा जिसका ज्ञान सब ज्ञेयोंमें व्यापनेवाला है तौभी इसके कर्मका बंध होता है यह कोई अचानकी बडी महिमा है ।। ३०८।३०९।३१०॥३११ ॥